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शुक्रवार, 22 सितंबर 2023

महाकवि माघ का प्रभात वर्णन : महावीर प्रसाद द्विवेदी

         

रात अब बहुत ही थोड़ी रह गयी है। सुबह होने में कुछ ही कसर है। जरा सप्तर्षि नाम के तारों को तो देखिए। वे आसमान में लंबे पड़े हुए हैं। उनका पिछला भाग तो नीचे को झुका सा है और अगला ऊपर को। वही उनके अधोभाग मेंछोटा-सा ध्रुवतारा कुछ-कुछ चमक रहा है। सप्तर्षियों का आकार गाड़ी के सदृश जिसका धुआँ ऊपर को उठ गया हैइसी से उनके और ध्रुवतारा के दृश्य को देखकर श्रीकृष्ण के बालपन की एक घटना याद आ जाती है। शिशु श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बार गाड़ी का रूप बनाकर शकटासुर नाम का एक दानव उनके पास आया। श्रीकृष्ण ने पालने में पड़े ही पड़ेखेलते-खेलतेउसे एक लात मार दी। उसके आघात से उसका अग्रभाग ऊपर को उठ गयाऔर पश्चाद्भाग खड़ा ही रह गया। श्रीकृष्ण उसके तले आ गये। वही दृश्य इस समय सप्तर्षियों की अवस्थिति का है। वे तो कुछ उठे हुए से लंबे पड़े हैंछोटा-सा ध्रुव उनके नीचे चमक रहा है।

पूर्व दिशारूपिणी स्त्री की प्रभा इस समय बहुत ही भली मालूम होती है। वह हँस सी रही है। वह यह सोचती-सी है कि इस चन्द्रमा ने जब तक मेरा साथ दिया - जब तक यह मेरी संगति में रहा तब तक उदित ही नहीं रहाइसकी दीप्ति भी खूब बढ़ी। परन्तुदेखोवही अब पश्चिम दिशारूपिणी स्त्री की तरफ जाते ही (हीन-दीप्ति होकर) पतित हो रहा है। इसी से पूर्व दिशाचन्द्रमा को देख-देख प्रभा के बहाने,  ईर्ष्या से मुस्करा सी रही है। परन्तु चन्द्रमा को उसके हँसी-मजाक की कुछ भी परवाह नहीं।

वह अपने ही रंग में मस्त मालूम होता है। अस्त समय होने के कारण उसका बिंब तो लाल हैपर किरणें उसकी पुराने कमल की नाल के कटे हुए टुकड़ों के समान सफेद है। स्वयं सफेद होकर भीबिंब की अरूणता के कारणवे कुछ-कुछ लाल भी है। कुंकुम मिश्रित सफेद चन्दन के सदृश उन्हीं लालिमा मिली हुई सफेद किरणों से चन्द्रमा पश्चिम दिग्वधू का शृंगार सा कर रहा है - उसे प्रसन्न करने के लिए उसके मुख पर चन्दन का लेप-सा समा रहा है - पूर्व दिग्वधू के द्वारा किये गये उपहास की तरह उसका ध्यान ही नहीं।

जब कमल शोभित होते हैंतब कुमुद नहींऔर जब कुमुद शोभित होते हैं तब कमल नहीं। दोनों की दशा बहुधा एक सी नहीं रहती। परन्तु इस समयप्रातःकालदोनों में तुल्यता देखी जाती है। कुमुद बन्द होने को हैपर अभी पूरे बन्द नहीं हुए। उधर कमल खिलने को हैपर अभी पूरे खिले नहीं। एक की शोभा आधी ही रह गयी हैऔर दूसरे को आधी ही प्राप्त हुई है। रहे भ्रमरसो अभी दोनों ही पर मंडरा रहे हैं और गुंजा रव के बहाने दोनों ही के प्रशंसा के गीत से गा रहे हैं। इसी सेइस समय कुमुद और कमलदोनों ही समता को प्राप्त हो रहे हैं।

सायंकाल जिस समय चन्द्रमा का उदय हुआ थाउस समय वह बहुत ही लावण्यमय था। क्रम-क्रम से उसकी दीप्ति - उसकी सुन्दरता- और भी बढ़ गयी। वह ठहरा रसिक। उसने सोचायह इतनी बड़ी रात यों ही कैसे कटेगीलाओ खिली हुई नवीन कुमुदिनियों (कोकाबेलियों) के साथ हँसी-मजाक ही करें। अतएव वह उनकी शोभा के साथ हास-परिहास करके उनका विकास करने लगा। इस तरह खेलते-कूदते सारी रात बीत गयी। वह थक भी गयाशरीर पीला पड़ गयाकर (किरण-जाल) अस्त अर्थात शिथिल हो गये। इससे वह दूसरी दिगंगना (पश्चिम दिशा) की गोद में जा गिरा। यह शायद उसने इसलिए किया कि रात भर के जगे हैंलाओ अब उसकी गोद में आराम से सो जाएँ।

अंधकार के विकट वैरी महाराज अंशुमाली अभी तक दिखाई भी नहीं दिये। तथापि उसके सारथी अरुण ही ने उनके अवतीर्ण होने के पहले ही थोड़े ही नहींसमस्त तिमिर का समूल नाश कर दिया। बात यह है कि जो प्रतापी पुरूष अपने तेज से अपने शत्रुओं का पराभव करने की शक्ति रखते हैंउनके अग्रगामी सेवक भी कम पराक्रमी नहीं होते। स्वामी को श्रम न देकर वे खुद ही उसके विपक्षियों का उच्छेद कर डालते हैं। इस तरहअरुण के द्वारा अखिल अंधकार का तिरोभाव होते ही बेचारी रात पर आफत आ गयी। इस दशा में वह कैसे ठहर सकती थी। निरुपाय होकर वह भाग चली। रह गयी दिन और रात की संधिअर्थात प्रातःकालीन संध्या। सो अरुण कमलों ही को आप इस अल्पवयस्क सुता-सदृश संध्या के लाल-लाल और अतिशय कोमल हाथ-पैर समझिए। मधुप-मालाओं से छाए हुए नील कमलों ही को काजल लगी हुई उसकी आँखें जानिये। पक्षियों के कल-कल शब्द ही को उसकी तोतली बोली अनुमान कीजिए। ऐसी संध्या ने जब देखा कि रात इस लोक से जा रही हैतब पक्षियों के कोलाहल के बहाने यह कहती हुई कि ''अम्मामैं भी आती हूँ,'' वह भी उसी के पीछे दौड़ ग़ई।

अंधकार गयारात गयीप्रातःकालीन संध्या भी गयी। विपक्षीदल के एकदम ही पैर उखड़ ग़ये। तबरास्ता साफ देखवासर-विधाता भगवान भास्कर ने निकल आने की तैयारी की। कुलिश-पाणि इन्द्र की पूर्व दिशा में नये सोने के समानउनकी पीली-पीली किरणों का समूह छा गया। उनके इस प्रकार आविर्भाव से एक अजीब ही दृश्य दिखायी दिया। आपने बड़वानल का नाम सुना ही होगा। वह एक प्रकार की आग हैजो समुद्र के जल को जलाया करती है। सूर्य के उस लाल-पीले किरण समूह को देख कर ऐसा मालूम होने लगा जैसे वही बड़वाग्नि समुद्र की जल-राशि को जलाकरत्रिभुवन को भस्म कर डालने के इरादे सेसमुद्र के ऊपर उठ आयी हो। धीरे-धीरे दिननाथ का बिंब क्षितिज के ऊपर आ गया। तब एक और ही प्रकार के दृश्य के दर्शन हुए। ऐसा मालूम हुआजैसे सूर्य का वह बिंब एक बहुत बडा घडा हैऔर दिग्वधुएँ जोर लगाकर समुद्र के भीतर से उसे खींच रही हैं। सूर्य की किरणों ही को आप लंबी-लंबी मोटी रस्सियाँ समझिए। उन्हीं से उन्होंने बिंब को बाँध सा दिया हैऔर खींचते वक्तपक्षियों के कलरव के बहानेवे यह कह-कहकर शोर मचा रही है कि खींच लिया है कुछ ही बाकी हैऊपर आना ही चाहता हैजरा और जोर लगाना।

दिगंगनाओं के द्वारा खींच-खींचकर किसी तरह सागर की सलिल राशि से बाहर निकाले जाने पर सूर्यबिंब चमचमाता हुआ लाल-लाल दिखायी दिया। अच्छाबताइए तो सहीयह इस तरह का क्यों है। हमारी समझ में यो यह आता है कि सारी रात पयोनिधि के पानी के भीतर जब यह पडा थातब बड़वाग्नि की ज्वाला ने इसे तपाकर खूब दहकाया होगा। तभी तो खैर (खदिर) के जले हुद कुंदे के अंगार के सदृश लालिमा लिए हुए यह इतना शुभ्र दिखायी दे रहा है। अन्यथाआप ही कहिएइसके इतने अंगार गौर होने का और क्या कारण हो सकता है?

सूर्यदेव की उदारता और न्यायशीलता तारीफ के लायक है। तरफदारी तो उसे छू तक नहीं गयी- पक्षपात की तो गंध तक उसमें नहींदेखिए नउदय तो उसका उदयाचल पर हुआपर क्षण ही भर में उसने अपने नये किरण-कलाप को उसी पर्वत के शिखर पर नहींप्रत्युत सभी पर्वतों के शिखरों पर फैलाकर उन सब की शोभा बढा दी। उसकी इस उदारता के कारण इस समय ऐसा मालूम हो रहा हैजैसे सभी भूधरों ने अपने शिखरों-अपने मस्तकों- पर दुपहरिया के लाल-लाल फूलों के मुकुट धारण कर लिये हो। सच हैउदारशील सज्जन अपने चारूचरितों से अपने ही उदय-देश को नहींअन्य देशों को भी आप्यायित करते हैं।

उदयाचल के शिखर रूप आँगन में बाल सूर्य को खेलते हुए धीरे-धीरे रेंगते देख पद्मिनियों का बडा प्रमोद हुआ। सुन्दर बालक को आँगन में जानुपाणि चलते देख स्त्रियों का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है। अतएव उन्होंने अपने कमल-मुख के विकास के बहाने हँस-हँसकर उसे बडे ही प्रेम से देखा। यह दृश्य देखकर माँ के सदृश अंतरिक्ष देवता का हृदय भर आया। वह पक्षियों के कलरव के मिस बोल उठी - आ जाआ जाआ बेटाफिर क्या थाबालसूर्य बाललीला दिखाता हुआझट अपने मृदुल कर(किरणें) फैलाकर अंतरिक्ष की गोद में कूद गया। उदयाचल पर उदित होकर जरा ही देर में वह आकाश में आ गया।

आकाश में सूर्य के दिखायी देते ही नदियों ने विलक्षण ही रूप धारण किया। दोनों तटों या कगारों के बीच से बहते हुए जल पर सूर्य की लाल-लाल प्रातःकालीन धूप जो पडीतो वह जल परिपक्व मदिरा के रंग सदृश हो गया। अतएव ऐसा मालूम होने लगाजैसे सूर्य ने किरण बाणों से अंधकाररूपी हाथियों की घटा को सर्वत्र मार गिरायाउन्हीं के घावों से निकला हुआ रूधिर बह कर नदियों में आ गया होऔर उसी के मिश्रण से उनका जल लाल हो गया हो। कहियेयह सूझ कैसी हैबहुत दूर की तो नहीं।

तारों का समुदाय देखने में बहुत भला मालूम होता है यह सत्य है। यह भी सच है कि भले आदमियों को न कष्ट ही देना चाहिएऔर न उनको उनके स्थान से च्युत ही करना - हटाना ही - चाहिए। परन्तु सूर्य का उदय अंधकार का नाश करने ही के लिए होता हैऔर तारों की श्री वृद्धि अंधकार ही की बदौलत है। इसी से लाचार होकर सूर्य को अंधकार के साथ ही तारों का भी विनाश करना पडा - उसे उनको भी जबरदस्ती निकाल बाहर करना पडा। बात यह है कि शत्रु की बदौलत ही जिन लोगों की संपत्ति और प्रभुता प्राप्त होती हैउनको भी मार भगाना पड़ता है - शत्रु के साथ ही उनका भी विनाश-साधन करना ही पड़ता है। न करने से भय का कारण बना ही रहता है। राजनीति यही कहती है।

सूर्योदय होते ही अंधकार भयभीत होकर भागा। भागकर वह कहीं गुहाओं के भीतर और कहीं घरों के कोनों और कोठरियों के भीतर जा छिपा। मगर वहाँ भी उसका गुजारा न हुआ। सूर्य यद्यपि बहुत दूर आकाश में थातथापि उसके प्रबल तेज प्रताप ने छिपे हुए अंधकार को उन जगहों से भी निकाल बाहर किया। निकाला ही नहींअपितु उसका सर्वथा नाश भी कर दिया। बात यह है कि तेजस्वियों का कुछ स्वभाव ही ऐसा होता है कि निश्चित स्थान में रहकरभी वे अपने प्रताप की धाक से दूर स्थित शत्रुओं का भी सर्वनाश कर डालते हैं।

सूर्य और चन्द्रमाये दोनों ही आकाश की दो आँखों के समान हैं। उनमें से सहस्त्रकिरणात्मक - मूर्तिधारी सूर्य ने ऊपर उठकर जब अशेष लोकों का अंधकार दूर कर दियातब वह खूब ही चमक उठा। उधर बेचारा चन्द्रमा किरण-हीनहो जाने से बहुत ही धूमिल हो गया। इस तरह आकाश की एक आँख तो खूब तेजस्क और दूसरी तेजोहीन हो गयी। अतएव ऐसा मालूम हुआजैसे एक आँखप्रकाशवती और अंधी बाला आकाश काना हो गया हो।

कुमुदिनियों का समूह शोभाहीन हो गया और सरोरूहों का समूह शोभा संपन्न। उलूकों को तो शोक ने आ घेरा और चक्रवाकों को अत्यानन्द ने। इसी तरह सूर्य तो उदय हो गया और चन्द्रमा अस्त। कैसा आश्चर्यजनक विरोधी दृश्य है। दुष्ट दैव की चेष्टाओं का परिवाक कहते नहीं बनता। वह बडा ही विचित्र है। किसी को तो वह ह/साता हैकिसी को रूलाता है।

सूर्य को आप दिग्वधुओं का पति समझ लीजिएऔर यह भी समझ लीजिए कि पिछली रात वह कही और किसी जगहअर्थात् विदेश चला गया था। मौका पाकरइसी बीच उसकी जगह पर चन्द्रमा आ विराजा। पर ज्यों ही सूर्य अपना प्रवास समाप्त करके सबेरेपूर्व दिशा में फिर आ धमकात्यों ही उसे देख चन्द्रमा के होश उड़ ग़ये। अब क्या होऔर कोई उपाय न देख अपने किरण-समूह को कपडे लत्ते के सदृश छोड़ उपपति के समान गर्दन झुकाकर वह पश्चिम - दिशारूपी खिड़क़ी के रास्ते निकल भागा।

महामहिम भगवान मधुसूदन जिस समय कल्पांत में समस्त लोकों का प्रलयबात की बात में कर देते हैंउस समय अपनी समधिक अनुरागवती श्री (लक्ष्मी) को धारण करके - उन्हें साथ लेकर क्षीर-सागर में अकेले ही जा विराजते हैं। दिन चढ़ आने पर महिमामय भगवान भास्कर भीउसी तरह एक क्षण मेंसारे तारा-लोक का संहार करकेअपनी अतिशायिनी श्री (शोभा) के सहितक्षीर-सागर ही के समान आकाश में देखिएअब यह अकेले ही मौज कर रहे हैं।

-           महावीर प्रसाद द्विवेदी

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

उत्तराफाल्गुनी के आसपास : कुबेरनाथ राय

  वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम, क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में थकावट आने लगती है, 'अस्ति, जायते, वर्धते' - ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन 'विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति' प्रबलतर हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही शीश पर काश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कल-वसन धारण कर लेती हैं। अतः बचपन भले निर्मल-प्रसन्न हो, गदहपचीसी भले ही 'मधु-मधुनी-मधूनि' हो; परंतु जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है। इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद 'फलागम' या 'निमीसिस' (Nemesis) की प्रतीक्षा है। जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुतः घटित होता है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल है - देह भले ही 'एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु' साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रह्मा को बूढ़ा कहते हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं। मैंने दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक बार ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर तीसोत्तर युवा-मूर्ति को देखा था। देखकर ही मैं कलाकार की औचित्य-मीमांसा पर मुग्ध हो गया। जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है। जो सर्जक है, पिता है, 'प्रॉफेट' है, नई लीक का जनक है, प्रजाता है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है? उसे तो अनुभवी पुंगव तीसोत्तर युवा के रूप में ही स्वीकारना होगा। जवानी एक चमाचम धारदार खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करनेवाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और युवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो जाता है। मेरी समझ से सृष्टिकर्त्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की जा सकती। अतः प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।

 

वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिह्न को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिह्न को पूरा-पूरा उसका समाधान-मूल्य हमें चुकाना ही पड़ता है। किसी भी पुरुष या नारी की कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरुता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश 'सरमन ऑन दी माउंट' (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा। वाल्मीकि के अनुसार रामचंद्र को भी तीस के आसपास ही (वास्तव में 27 वर्ष की वयस में) वनवास हुआ था। उस समय सीता की आयु अठारह वर्ष की थी और वनवास के तेरहवें वर्ष में अर्थात सीता के तीसवाँ पार करते-करते ही सीताहरण की ट्रेजेडी घटित हुई थी। अतः तीसवाँ वर्ष सदैव वरण के महामुहूर्त्त के रूप में आता है और संपूर्ण दशक उस वरण और तेज के दाह से अविष्ट रहता है। तीसोत्तर दशक जीवन का घनघोर कुरुक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम-से-कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं। चालीसा लगने के बाद पैंतालीस तक 'यथास्थिति' की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की ओर उन्मुख हो जाती है। इसके बाद अनुकूल उर्मियाँ स्पष्टतः थकहर होने लगती हैं और प्रतिकूल उर्मियाँ प्रबल होकर देह की गाँठ-गाँठ में बैठे रिपुओं से मेल कर बैठती हैं, मन हारने लगता है, सृष्टि अनाकर्षक और रति प्रतिकूल लगने लगती है, बुद्धि का तेज घट जाता है और वह स्वीकारपंथी (कनफर्मिस्ट) होने लगती है एवं आत्मा की दाहक तेजीमयी शक्ति पर विकार का धूम्र छाने लगता है। मैं तो यहाँ पर पैंतालीसवें वर्ष की बात कर रहा हूँ। परंतु मुझे स्मरण आती है दोस्तीव्हस्की - जिसने चालीस के बाद ही जीवन को धिक्कार दे दिया था : 'मैं चालीस वर्ष जी चुका। चालीस वर्ष ही तो असली जीवन-काल है। तुम जानते हो कि चालीसवाँ माने चरम बुढ़ापा। दरअसल चालीस से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है। भला चालीस से आगे कौन जीता है? मूर्ख लोग और व्यर्थ लोग' ('नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड' से) दोस्तोव्हस्की की इस उक्ति का यदि शाब्दिक अर्थ न लिया जाय तो मेरी समझ से इसका यही अर्थ होगा कि चालीस वर्ष के बाद जीवन के सहज लक्षणों का, परिवर्तन-परिवर्धन-सृजन का आत्मिक और मानसिक स्तरों पर ह्रास होने लगता है। पर मैं 'साठा तब पाठा' की उक्तिवाली गंगा की कछार का निवासी हूँ, इसी से इस अवधि को पाँच वर्ष और आगे बढ़ाकर देखता हूँ, यद्यपि दोस्तोव्हस्की की मूल थीसिस मुझे सही लगती है। शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।

कुबेरनाथ राय

मैं इस समय 1972 ईस्वी अपना अड़तीसवाँ पावस झेल रहा हूँ। पूर्वाफाल्गुनी का विकारग्रस्त यौवन जल पी-पीकर मैं 'क्षिप्त' से भी आगे एक पग 'विक्षिप्त' हो चुका हूँ और शीघ्र ही मोहमूढ़ होनेवाला हूँ! भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा। मघा में अगाध जल है। पृथ्वी की तृषा आश्लेषा और मघा के जल से ही तृप्त होती है। यदि मघा में धरती की प्यास नहीं बुझी तो उसे अगले संवत्सर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। न केवल परिमाण में, बल्कि गुण में भी मघा का जल श्रेष्ठ है। मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : 'बरसै मघा झकोरि-झकोरी। मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।' मघा बरसी, मानो दूध बरसा, मधु बरसा। इस मघा के बाद आती है पूर्वाफाल्गुनी जो बड़ी ही रद्दी-कंडम नक्षत्र है। इसका पानी फसल जायदाद के लिए हानिकारक तो है ही, उत्तर भारत में बाढ़-वर्षा का भय भी सर्वाधिक इसी नक्षत्र-काल में रहता है। इसी से उत्तर भारतीय गंगातीरी किसान इसे एक कीर्तिनाशा-कर्मनाशा नक्षत्र मानते हैं। इसके बाद आती है उत्तराफाल्गुनी, भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र, जो समूचे पावस में मघा के बाद दूसरी उत्तम नक्षत्र है। इसका पानी स्वास्थ्यप्रद और सौभाग्यकारक होता है। इस अड़तीसवें पावस में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब कितनी देर ही है।

Kubernath Ray

अतः आज पूर्वाफाल्गुनी का अंतिम पानपात्र मेरे होंठों से संलग्न है। क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है। इनको ही मैं क्रमशः विद्रोह, प्रगति और नवलेखन कहकर पुकारता हूँ। भले ही यह विकार-जल हो, भले ही इसमें श्रेय-प्रेय, गति-मुक्ति कुछ भी न हो। परंतु इसमें जीर्णता और जर्जरता नहीं। यह जरा और वृद्धत्व का प्रतीक नहीं। पूर्वाफाल्गुनी द्वारा प्रदत्त विक्षिप्तता भी यौवन का ही एक अनुभव है। मुझे लग रहा था कि मेरे भीतर कोई उपंग बजा रहा है क्योंकि मेरे सम्मुख द्वार पर काल-नट्टिन अर्थात् उत्तराफाल्गुनी त्रिभंग रूप में खड़ी है और मैं उसमें मार की तीन कन्याओं तृषा-रति-आर्त्ति को एक साथ देख रहा हूँ। कांचनपद्म कांति, कर-पल्लव, कुणितकेश, बिंबाधर, विशाल बंकिम भ्रू, दक्षिणावर्त नाभि, और त्रिवली रेखा से युक्त इस भुवन-मोहन रूप को मैं देख रहा हूँ और इसको आगमनी में अपने भीतर बजती उपंग को निरंतर सुन रहा हूँ। उपंग एक विचित्र बाजा है। काल-पुरुषों की उँगलियाँ चटाक-चटाक पड़ती है और आहत नाद का छंदोबद्ध रूप निकलता है बीच-बीच में हिचकी के साथ। यह हिचकी भी उसी काल-विदूषक की भँड़ैती है और यह उपंग के तालबद्ध स्वर को अधिक सजीव और मार्मिक कर देती है। मैं अपने भीतर बजते यौवन का यह उपंग-संगीत सुन रहा हूँ और अपने मनोविकारों का छककर पान कर रहा हूँ। मुझे कोई चिंता नहीं। अभी वानप्रस्थ का शरद काल आने में काफी देर है। इस क्षण उसकी क्या चिंता करूँ? इस क्षण तो बस मौज ही मौज है, भले ही वह कटुतिक्त मौज क्यों न हो; काम भुजंग के डँसने पर तो नीम भी मीठी लगती है। अतः यह काल-नटी, यह पूर्वाफाल्गुनी या उत्तराफाल्गुनी, यह 'नैनाजोगिन' कितनी भी भ्रान्ति, माया या मृगजल क्यों न हो, मैं इसके रूप में आबद्ध हूँ। इसमें मुझे वही स्वाद आ रहा है जो मायापति भगवान को अपनी माया के काम मधु का स्वाद लेते समय प्राप्त होता है और जिस स्वाद को लेने के लिए वे परमपद के भास्वर सिंहासन को छोड़कर हम लोगों के बीच बार-बार आते हैं। अतः इस समय मुझे कोई चिंता, कोई परवाह नहीं।

परंतु एक न एक दिन वह क्षण भी निश्चय ही उपस्थित होगा जिसकी शृंगारहीन शरद यवनिका के पीछे जीर्ण हेमंत और मृत्युशीतल शिशिर की प्रेतछाया झलकती रहेगी। 'उस दिन, तुम क्या करोगे? है तुम्हारे पास कोई बीज-मंत्र, कोई टोटका, कोई धारणी-मंत्र जिससे तुम अगले बीस-बाईस वर्षों के लिए इस उत्तराफाल्गुनी के पगों को स्तंभित कर दो और वह अगले बीस-बाईस वर्ष तुम्हारे द्वारदेश पर, शिथिल दक्षिण चरण, ईषत कृंचित जानु के साथ आभंग मुद्रा में नतग्रीव खड़ी रहे और तुम्हारे हुकुम की प्रतीक्षा करती रहे? है कोई ऐसा जीवन-दर्शन, ऐसा सिद्धाचार, ऐसी काया सिद्धि जिससे बाहर-बाहर शरद-शिशिर, पतझार-हेमंत आएँ और जूझते-हार खाते चले जाएँ। परंतु मनस की द्वार-देहरी पर यह उत्तराफाल्गुनी एक रस साठ वर्ष की आयु तक बनी रहे? है कोई ऐसा उपाय? यह प्रश्न रह-रहकर मैं स्वयं अपने ही से पूछता हूँ। आज से तेरह वर्ष पूर्व भी मैंने इस प्रश्न पर चिंता की थी और उक्त चिंतन से जो समाधान निकला उसे मैंने कार्य-रूप में परिणत कर दिया। परंतु इन तेरह वर्षों में असंख्य भाव-प्रतिभाओं के मुंडपात हुए हैं और आज मैं मूल्यों के कबंध-वन में भाव-प्रतिभाओं के केतु-कांतार में बैठा हूँ। आज जगत वही नहीं रहा जो तेरह वर्ष पूर्व था। एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई बूँद स्थिर नहीं। अतः शताब्दी के आठवें दशक के इस प्रथम चरण में मुझे उसी प्रश्न को पुनः-पुनः सोचना है : कैसे जीर्णता या जरा को, यदि संपूर्णतः जीतना असंभव हो तो भी फाँकी देकर यथासंभव दूरी तक वंचित रखा जाए? कैसे अपने दैहिक यौवन को नहीं, तो मानसिक यौवन को ही निरंतर धारदार और चिरंजीवी रखा जाय? उस दिन तो मैंने सीधा-सीधा उत्तर ढूँढ़ निकाला था : 'ययाति की तरह पुत्रों से यौवन उधार लेकर।' अर्थात मैं कोई नौकरी न करके कॉलेज में अध्यापन करूँ तो मुझ पचपन या साठ वर्ष की आयु तक युवा शिष्य-शिष्याओं के मध्य वास करने का अवसर सुलम होगा। मैं इनकी आशा-आकांक्षा, उत्साह, साहस, उद्यमता आदि से वैसे ही अनुप्राणित और आविष्ट रहूँगा जैसे चुंबकीय आकर्षण-क्षेत्र में पड़कर साधारण लोहा भी चुंबक बन जाता है।

परंतु विगत दशक के अंतिम दो वर्षों में जब मेरे ये बालखिल्य सहचरगण छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट बनने लगे, जब इन्होंने मेरे गुरुओं, गांधी-विवेकानंद-विद्यासागर-सर आशुतोष, की प्रतिमाओं का एवं उनके द्वारा प्रति-पादित मूल्यों का, अनर्गल मुंडपात करना शुरू कर दिया, जब इनके नए दार्शनिकों ने कहना प्रारंभ किया कि अध्यापक और छात्र के बीच भी श्रेणी-शत्रुओं का संबंध है क्योंकि अध्यापक भी 'स्थापित व्यवस्था' का एक अंग है और 'व्यवस्था' का भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है, तब देश में घटित होती हुई इन घटनाओं पर विचार करके और क्रांति तथा 'नई पीढ़ी' के दार्शनिकों - यथा हिबर्ट मारक्यूज, चेग्वारा, ब्रैंडिटकोहन आदि की चिंतनधारा से यथासंभव अल्प स्वल्पे परिचय पा करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं इन अपने भाइयों, अपने हृदय के टुकड़ों के साथ जो आज छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट हैं, कुछ ही दूर तक, आधे रास्ते ही जा सकता हूँ। विविध प्रकार के नारों से आक्रांत ये नए 'पुरूरवा' ('पुरूरवा' का शब्दार्थ होता है 'रवों' (आवाजों या नारों) से आक्रांत या पूरित पुरुष। 'ययाति' पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो पुरूरवा नई पीढ़ी का।) यदि मुझे यौवन उधार देंगे भी तो बदले में मुझे भी कबंध में रूपांतरित होने को कहेंगे। और मैं कैसे अपना चेहरा, अपनी आत्म-सत्ता, अपना व्यक्तित्व त्याग दूँ? 'छिन्नमस्त' पुरुष बनकर यौवन लेने से क्या लाभ? बिना मस्तक के बिना अपने निजी नयन-मुख-कान के इस उधार प्राप्त नवयौवन का नया अर्थ होगा? रूप, रस, गंध और गान से वंचित रह जाऊँगा। केवल शिश्नोदरवाला व्यक्तित्व लेकर कौन जीवन-यौवन भोगना चाहेगा? कम-से-कम बुद्धिजीवी तो नहीं ही। आत्मार्थ पृथिवी त्यजेत? अतः मुझे चिरयौवन को इन शिष्य-पुरूरवाओं की नई पीढ़ी से दान के रूप में नहीं लेना है। तेरह वर्ष पहले का चिंतित समाधान आज व्यर्थ सिद्ध हो गया है। मुझे अन्यत्र चिरयौवन का अनुसंधान करना है। कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी। उसे ही मुझे आविष्कृत करना होगा। जो बाहर-बाहर अप्राप्य है वह सब-कुछ भीतर-भीतर सुलभ है। मैं अपने ही हृदय समुद्र का मंथन करके प्राण और अमृत के स्रोत किसी चंद्रमा को आविष्कृत करूँगा। तेरह वर्ष पुराना समाधान आज काम नहीं आ सकता।

        मैं मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है। मैं बालखिल्यों के क्रोध की सार्थकता को स्वीकार करता हूँ। पर साथ ही छिन्नमस्ता शैली के सस्ते रंगांध और आत्मघाती समाधान को भी मैं बेहिचक बिना शील-मुरौवत के अस्वीकार करता हूँ। अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर। पुरानी पीढ़ी का चिरयक्षत्व मुझे भी अच्छा नहीं लगता। मैं भी चाहता हूँ कि वह पीढ़ी अब खिजाब-आरसी का परित्याग करके संन्यास ले ले। शासन और व्यवस्था के पुतली घरों की मशीन-कन्याएँ उनकी बूढ़ी उँगलियों के सूत्र-संचालन से ऊब गई हैं और उनकी गति में रह-रह कर छंद-पतन हो रहा है। यह बिल्कुल न्याय-संगत प्रस्ताव है कि पूर्व पीढ़ी अपनी मनुस्मृति और कौपीन बगल में दबाकर पुतलीघर से बाहर हो जाय और नई पीढ़ी को, अर्थात हमें और हमारे बालखिल्यों को अपने भविष्य के यश-अपयश का पट स्वयं बुनने का अवसर दे जिससे वे भी अपने कल्पित नक्शे, अपने अर्जित हुनर को इस कीर्तिपट पर काढ़ने का अवसर पा सकें। यह सब सही है। परंतु क्या इन सब बातों की संपूर्ण सिद्धि के लिए इस पुतलीघर का ही अग्निदाह, पुरानी पीढ़ी द्वारा बुने कीर्तिपट के विस्तार का दाह, उनके श्रम फल का तिरस्कार आदि आवश्यक हैं? क्या ऐसा सब करना एक आत्मघाती प्रक्रिया नहीं? इस स्थल पर डॉ. राधाकृष्णन या आचार्य विनोबा भावे की राय को उद्धृत करूँ तो वह क्रांति के इन 'दुग्ध कुमारों' के लिए कौड़ी की तीन ही होगी। अतः मैं लेनिन जैसे महान क्रांतिकारी की राय उद्धृत कर रहा हूँ! 1922 ई. में लेनिन ने लिखा था, 'उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा... हम सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। 'सर्वहारा संस्कृति' अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। 'सर्वहारा संस्कृति' उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।' यह बात स्वामी दयानंद या पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की होती तो बड़ी आसानी से कह सकते 'मारो गोली! सब बूर्ज्वा बकवास है।'; पर कहता है क्रांतिकारियों का पितामह लेनिन, जिसे एक कट्टर बंगाली मार्क्सवादी नीरेंद्रनाथ राय ने अपनी पुस्तक 'शेक्सपियर-हिज ऑडिएंस' के पृष्ठ (49-50) पर उद्धृत किया है। आज प्रायः लोग पुकारकर कहते हैं : 'देखो, देखो जोखिम उठा रहा हूँ, मूल्य भंजन कर रहा हूँ। अरे बंधु, जोखिम उठा रहे हो या नाम कमा रहे हो? यह तो आज अपने को प्रतिष्ठित बनाने और जाग्रत सिद्ध करने का सबसे सटीक तरीका 'शॉर्टकट' यानी तिरछा रास्ता है। जोखिम तुम नहीं उठा रहे हो तुम तो धार के साथ बह रहे हो और यह बड़ी आसान बात है। आज जोखिम वह उठा रहा है जो नदी की वर्तमान धारा के प्रतिकूल, धार के हुकुम को स्वीकारते हुए कह रहा है : 'मूल्य भी क्या तोड़ने की चीज है जो तोड़ोगे? वह बदला जा सकता है तोड़ा नहीं जा सकता। मूल्य स्थिर या सनातन नहीं होता, यह भी मान लेता हूँ। परंतु एक अविच्छिन्न मूल्य-प्रवाह, एक सनातन मूल्य-परंपरा का अस्तित्व तो मानना ही होगा।' नए बालखिल्य दार्शनिक कहेंगे - 'यह धार के विपरीत जाना हुआ। यह तो प्रतिक्रियावाद है।' ऐसी अवस्था में मेरा उन्हें उत्तर है : 'कभी-कभी नदी की धार पथभ्रष्ट भी हो जाती है। वह सदैव प्रगति की दिशा में ही नहीं बहती। वह स्वभाव से अधोगति की ओर जानेवाली होती है। और आज? आज तो वन्याकाल है। वन्याकाल में धार पथभ्रष्ट रहती है। वह कर्मनाशा-कीर्तिनाशा-कालमुखी बनकर हमारे गाँव को रसातल में पहुँचाने आ रही है। अतः इस क्षण हमारी प्यारी नदी ही शत्रुरूपा हो गई है। और यदि गाँव को बचाना है तो हम धार के प्रतिकूल समर करेंगे। यदि हम अपना घर-द्वार फूँककर तमाशा देखकर मौज लेनेवाले आत्मभोगी 'नीरो' की संतानें नहीं है तों हमें इस नदी से समर करना ही होगा। यही हमारी जिजीविषा की माँग है। और इसके प्रतिकूल जो कुछ कहा जा रहा है, वह 'नई पीढ़ी' की बात हो या पुरानी की, मुमुक्षा का मुक्ति भोग है। यह सब विद्रोह नहीं बूर्ज्वा डेथविश का नया रूप है।'

विषाद योग

        अतः मैं धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है, रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या रचनाकार के लिए 'नॉनकनफर्मिस्ट' होना जरूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज पाती। अतः मुझे भी विद्रोही दर्शनों से अपने को किसी न किसी रूप में आजीवन संयुक्त रखना ही है। एक लेखक होने के नाते यही मेरी नियति है, और इस तथ्य को अस्वीकृत करने का अर्थ है अपनी सिसृक्षा की सारी संभावनाओं का अवरोध। परंतु लेखक, कवि या किसी भी साहित्येतर क्षेत्र के सर्जक या विधाता को यह बात भी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि शत-प्रतिशत अस्वीकार या 'नॉनकनफर्मिज्म' से भी रचना या सृजन असंभव हो जाता है। पुराने के अस्वीकार से ही नए का आविष्कार संभव है। यह कुछ हद तक ठीक है। परंतु नए भावों या विचारों के 'उद्गम' के बाद 'उपकरण' या अभिव्यक्ति के साधन का प्रश्न उठता है और इसके लिए 'नॉनकनफर्मिज्म' को त्यागकर पचहत्तर प्रतिशत पुराने उपकरणों में से ही निर्वाचित-संशोधित करके कुछ को स्वीकार कर लेना होता है। रचना की 'आइडिया' के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन' चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्रॉसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया में 'स्वीकारवादी मन' की भी उतनी ही आवश्यकता है। अन्यथा 'आइडिया' या ज्ञान का 'क्रिया' में रूपांतर संभव नहीं। अतः प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के चाहे जिस क्षेत्र की बात हो, 'विद्रोही' और 'स्वीकारवादी' दोनों साथ ही साथ होता है। 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' के फैशनेबुल दर्शन के प्रति मेरा आक्षेप यह भी है कि यह एक स्वयं आरोपित 'नो एक्जिट' (द्वारा या वातायन रहित अवरुद्ध कक्ष) है, इसको लेकर बहुत आगे तक नहीं जाया जा सकता है। यह दर्शन विषय और विधा दोनों की नकारात्मक सीमा बाँधकर बैठा है। और इसके द्वारा अपने 'स्व' को भी पूरा-पूरा नहीं पहचाना जा सकता है; तो 'स्व' से बाहर, इतिहास और समाज को समझने की तो बात ही नहीं उठती। यह 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' का दर्शन कभी अस्तित्ववाद का चेहरा लेकर आता है तो कभी नव्य मार्क्सवाद का (क्लासिकल मार्क्सवाद से भिन्न); और ये दोनों मानसिक-बौद्धिक स्तर पर मौसेरे भाई हैं। ये एक ही ह्रासोन्मुखी संस्कृति की संतानें हैं। योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़, निरुद्ध और आरूढ़। ये दोनों दर्शन विमूढ़ स्थिति के दो भिन्न संस्करण हैं, अतः दोनों त्याज्य हैं।

        यह बाढ़-वन्या का काल है। नदी अपनी दिशा भूलकर, कूल छोड़कर उन्मुक्त हो गई है, अतः बुद्धजीवी वर्ग से धीरता और संयम अपेक्षित है। घबराकर वन्या की पथभ्रष्ट धार के प्रति आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जल के उत्तरण, वन्या के 'उतार' की प्रतीक्षा करना अधिक उचित है। पानी हटने पर नदी फिर कूलों के बीच लौट जाएगी। नदी अपनी शय्या यदि बदल भी दे, तो भी नई शय्या के साथ कोई कूल, कोई अवरोध तो उसे स्वीकार करना ही होगा। यह नया कूल भी उसी पुराने कूल के ही समानान्तर होगा। नदी तब भी समुद्रमुखी ही रहेगी। उलटकर हिमाचलमुखी कभी नहीं हो सकती। अतः इस वन्या नाट्य के विष्कंभक के बीच का समय मैं न तो बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ और न बहुत चिंताजनक। मैं बिल्कुल अविचलित हूँ। मेरा विश्वास है कि कल नहीं तो परसों हम अर्थात पुरानी पीढ़ी का युवा और मेरे बालखिल्य छात्र-छात्राएँ अर्थात नई युवा पीढ़ी, दोनों मिलकर इस शासन एवं व्यवस्था के पुतलीघर की नृत्य कन्याओं के कत्थक नृत्य को साथ-साथ संचालित करेंगे। यह पुतलीघर ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है। अन्यथा जरा भी छंद पतन होने पर कोई न कोई भयावह पुतली एक ही झपट्टे में हड्डी आँत तक का भक्षण कर डालेगी क्योंकि इन पुतलियों में से कोई-कोई विषकन्याएँ भी हैं। अतः मैं चेष्टा करूँगा कि अपने अंदर की अमृता कला का आविष्कार करके इस उत्तराफाल्गुनी काल को बीस बाइस वर्ष के लिए अपने अंतर में स्थिर अचल कर दूँ, बाहर-बाहर चाहे शरद बहे या निदाघ हू-हू करे। तब मैं अपने बालखिल्य सहचरों के साथ व्यवस्था की इन पुतलियों का छंदोबद्ध नृत्य भोग सकूँगा। और एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर मेरे कानों में कहेगा 'फाइव ओ' क्लाक! पाँच बज गए!' कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जायगा : 'बहुत हुआ। बहुत भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ चरिष्यामि।' और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरुष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा लोकारण्य में, खो जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं। अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।

 

(आचार्य कुबेरनाथ राय का यह ललित निबंध उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक)


रविवार, 29 अगस्त 2021

तुम चन्दन हम पानी : विद्यानिवास मिश्र

        घर में पिताजी और दो पितृव्य पूजा-पाठ बहुत निष्ठापूर्वक करते हैं, इसलिए तीन होरसे तो कम-से-कम घर में हैं ही। प्रतिदिन इन पर चंदन और प्राय: मलयागिरि चंदन ही घिसा जाता है। रक्तचंदन या देवी चंदन तो नवरात्र में या रविवार को ही इन होरसों पर घिसता है। इसलिए चंदन से बड़ी पुरानी जान-पहचान है। पाँच-छह वर्ष का था, मैं अपने बड़े पितृव्य के पास जाकर चुपचाप बैठ जाता था और उनका महिम्न स्त्रोत्र पूर्वक चंदन घिसना देखा करता था। पूजा उनकी घण्टों चलती थी। बीच-बीच में किसी वस्तु की आवश्यकता हुई, तो वे देव भाषा में ही संकेत करते और मैं ला देता। पूजा समाप्त होने पर गौरी, गणेश, पार्थिव शिव, एकादश रुद्र और श्री दुर्गासप्तशती तथा श्रीमद्‍भागवत पर चढ़ने से जो चंदन अवशिष्ट रहता था, उसको पितृव्य मेरे भाल पर या ग्रीवा में चर्चित करते और तब अपने भाल पर तिलक लगाते। इसके बाद प्रसाद देते, जिसके लोभ से मैं इतनी देर तक बैठा रहता था। उस चंदन-तिलक से भाल चर्चित करने के सुअवसर अब नहीं मिलते, पर उसकी सुरभिमन में यत्न से सुरक्षित है। कारण शायद यह हो कि जो उस समय मेरी जिज्ञासा के समाधान में पितृव्य चरण ने बतलाया था कि चंदन अपने-आप घिसकर बिना देवता को चढ़ाये अपने सिर पर लगाने से पाप होता है, उस वाक्य के पीछे युग की शिक्षा पर संघृष्ट महान्‍ सत्य की पावन स्मृति हो कि मनुष्य को अपने जीवन-संघर्ष से सुरभि अर्जित करने का अधिकार तभी मिलता है, जब वह अर्पित भाव से संघर्ष में रत होता है। या शायद चंदन के आमोद में पार्थिव आनदं के चरम उत्कर्ष की प्राप्ति होने के कारण जगदात्मा की उस चंदन से एकाकारता का भान हो, जिससे प्रेरित होकर किसी संत कवि ने गाया था- 'प्रभुजी तुम चंदन हम पानी' या शायद चंदन के तिलक से उभरे हुए उन गुरुजनों के व्यक्तित्व की मन पर गहरी छाप हो। बहराल, भाल चंदन-चर्चित हो न हो, मन मलयज से अब भी सुवासित है।

विद्या निवास मिश्र

सोचता हूँ प्रभुजी चंदन क्यों हैं? हम जिनके प्रति अपने को अर्पित कर रहे हैं, उन्हें अपने जीवन के साथ घिसने में सार्थकता क्या है? मुझे कभी-कभी तब यह ध्यान आता है कि काठ के टुकड़े की तरह सामान्य रूप से हमारे अंतस् के कोने में पड़ा हुआ चिदंश जब तक हमारे जीवन के साथ सम्पृक्त नहीं होता, तब तक वह निर्गुण, निरामोद और निर्व्यक्त बना रहता है ज्यों ही वह इस पार्थिव शरीर के शिलाखंड पर जीवन के छिड़काव से बार-बार रगड़ खाने लगता है, त्यों ही उसका गुण, उसका आमोद और उसका चैतन्य अभिव्यक्त हो उठते हैं। विश्वात्मा की सुषुप्त शक्ति स्फुरित हो जाती है। पर जो अभागा आदमी इस चंदन को घिसकर अपनी प्रेयसी का अंगराग बना डालता है, या अपने शारीरिक ताप का उपशम-साधन मात्र समझने लगता है, उसका जागरित, परिस्फुरित और प्रमुदित चिदंश पुन: उसकी प्रिया की विलासश्रमबिंदुओं या उसकी ही कायिक, मलिनताओं में घुलकर विलुप्त हो जाता है। जब विश्वात्मा के आंनद का वह लव कायिक धरातल से सुरभिकण के रूप में ऊपर उठता है तब चराचर विश्व में अभिव्याप्त आनंद-पारावार से एक होने के लिए, इसलिए इस सुरभि के अभ्युत्थान की सार्थकता इस पूर्णता की प्राप्ति में है, पूर्णता की प्राप्ति अर्थात्‍ एकांशिता से विमुक्त।

        नए मानवीय मानों पर बल देने वाले अभिनव मलयानिलों से मैंने यह संकेत पाया है कि मनुष्य महान है, वह दूसरे किसी महत्तर के प्रति अर्पित क्यों हो। भुजंगों से लिपटा हुआ चंदन का वृक्ष ही स्वत: महान्‍ है, वह आस-पास के कंकोल, निम्ब और कुटुज तक को चंदन बना डालता है। विषयों से परिवृत मानव अपने यश से अपने परिवेश में प्रत्येक युग में सुरभि भरता आया है, उसे अर्पित होने की क्या आवश्यकता है। ये मलयानिल दक्षिण से नहीं पश्चिम से आए हैं, अर्थात् दाएँ से नहीं पीछे से आए हैं। इनकी पुकार इसलिए पीछे मुड़कर सुनने की सबके मन में उत्कंठा-सी जग जाती है। सबसे बड़ा सृष्टि में मूर्धन्य कौन है? यह मनुष्य है। वह तब क्यों स्फीत होकर न चले, क्यों वह विनीत होने को विवश हो ?

        इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस कौन करे? मुझे तो जयदेव के प्रसिद्ध विरह-गीत की कड़ियाँ बरबस याद आ जाती हैं :

निंदति   चंदनमिंदुकिरणमनुविंदति    खेदमधीरम।

व्यालनिलयमिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम।।

सा विरहे तव दीना माधव! मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना।।

माधव के विरह में राधा अंग में आलिप्त चंदन को अधिक्षिप्त करती हैं और चंद्रमा की शीतल किरणों से दुख पाती हैं। सर्पों के वास से सम्पर्क होने के कारण मलय-समीर को विषतुल्य अनुभव करने लगती हैं, क्योंकि ये माधव के विरह में दीन हैं और पुष्पधन्वा के बाणों से भयभीत होकर भावना के द्वारा माधव में ही लीन होने का उपाय रच रही हैं। तो ऐसा समय भी आता है, जब चंदन की निंदा होती है, जब माधव, अपने प्रत्यगात्मा, अपने पारमार्थिक रूप, अपनी विश्वप्रसृत क्षमता और अपने आदर्श से बिछुड़ जाते हैं, मलयज का मान तभी है, जब मलयज भारवाही पवन सागर-प्रक्षालित चरणों से हिम मण्डित मुकुट तक उत्तर यान के लिए ललित गति से सतत प्रवहमान है। चंद्रिका का मान तभी है , जब मन में अविकल और पूर्ण काम चंद्रप्रकाश मान है, मनुष्य का गौरव भी तभी है तब वह अपने आप में अधिष्ठित है। जिस क्षण वह आत्म-विश्लिष्ट हो जाता है, उस क्षण वह अत्यंत हेय बन जाता है। इसलिए जब वह अपने को परात्पर के लिए अर्पित करता है, तब उस समय वह सचमुच बिकता नहीं है। उल्टे उसी समय उसका गिरा हुआ मूल्य एकदम ऊँचे चढ़ जाता है, क्योंकि उसके लघुतर और क्षुद्रतर अंश स्वयं उसी के बृहत्तर और महत्तर अंशी के प्रति प्रणत होते ही उसे बृहत्तर और महत्तर सत्ता से एकाकार कर देते हैं। जो नर के नियत भावी उत्कर्ष में विश्वास करेगा, वही नारायण में भी विश्वास करेगा, क्योंकि 'नराणां नरोत्तम' और नारायण दोनों वंदनीयता की समान कोटि में आते हैं। 'नार' का अर्थ पुराणों और स्मृतियों में जल अर्थात आदि सृष्टि कहा गया है, इस आदि सृष्टि में अभिव्याप्त सत्ता का नाम ही नारायण कहा गया है। इसलिए नरों में जो नरोत्तम होना चाहता है, उसे स्वभावत: नारायाणा भिमुख होना ही पड़ता है, क्योंकि नर का अर्थ ही है अपने में सिमटा हुआ। जिन लोगों ने मनुष्य मात्र को नमो नारायण कहकर प्रणाम करने की परंपरा चलायी, वे मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति के सबसे बड़े दृष्टा थे, वे मनुष्य के विस्तार शील रूप को आवाहित करना जानते थे, इसलिए सामान्य से सामान्य जन को देखकर वे यही कहते थे, नारायण को नमस्कार है, तुम्हारे अंदर जो विश्व-भावना तत्त्व है, उसे नमस्कार करता हूँ ताकि वह तत्त्व तुम्हारी क्षुद्रता और संकीर्ण्ता के बहिरावण को फोड़कर बाहर आए।

        शायद कुछ लोग 'प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी' कहकर मानव की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें कि जरा-सा-उलट दिया, बात तो वही है, चाहे खरबूज गिरे छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर, खरबूजे का कटना अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है; परंतु चंदन तब नहीं घिसेगा। तो जरा-सा हमारा पानी लगता है और प्रभु का चंदन पसीज जाता है; पर हमार छोटा-सा चंदन प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा, फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी। इस सम्भावना को वे लोग एकदम भूल जाते हैं वस्तुत: छोटाई-बड़ाई की यह सापेक्षता किसी बाहरी वस्तु की तुलना में नहीं की गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने में ही छोटाई-बड़ाई दोनों से समवेत है और दोनों की सापेक्षता अपने में ही वह अल्प-मात्र आयास से अनुभव कर सकता है।

        मेरे बड़े दादा मिट्टी सानकर पार्थिव शिव की सुंदर आकृति बनाते, उनके आस-पास मिट्टी का ही गौरी गणेश रचते और चारों ओर ग्यारह रुद्रों की पंक्ति मिट्टी की ही खड़ी करते, तदनंतर इनके ऊपर रुद्राभिषेक के मंत्रों से जलाभिसिंचन करते और इन पर चंदन चढ़ाते। चंदन-चर्चित हो जाने पर ही उन्हें वे अन्य गंध-मालय, धूप-दीप और नैवेद्यादि का अधिकारी मानते। मैं समझता हूँ कि वे अपनी पार्थिव सीमा में बँधे महादेवता को अपने पवित्रतम जीवन से रससिक्त करने के अनंतर अपने जीवन के साथ संघृष्ट उत्कृष्टतम महत्त्व वासना का आमोद चढ़ाकर रही अपने महादेवता को पूर्ण प्रतिष्ठा दे पाते थे, या यों कहें अपने में दूर फैलने की महान बनने की और निर्माण करने की जो भी शक्ति सन्निहित है, उसको अपूर्णरूप से जगाकर ही मनुष्य अपने को प्रकाश का अधिकारी बना सकता है। निवेदनीय पात्र बनकर नैवेद्यका भोक्ता बना सकता है। इज्य बनकर धूप अर्थात-आहुति का अधिकारी बना सकता है। इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधान बनाकर घिसो; तब तक घिसो , जब तक नख न घिस जाएँ। "चंदन घिसत-घिसत घिस गयो नख मेरोवासना न पूरत माँग को सँवार।" तानसेन के इस ध्रुपद की यह पुकार है कि जब तक वासना न पूरे तब तक नख घिस भी जाए, घिसने की प्रक्रिया न रुके, वासना पूरी तरह से जब तक इस चंदन के साथ घिसकर उतर न आए, तब तक वह चंदन अर्पणीय कैसे होगा! और यदि इस पूर्ण तल्लीनता के साथ चंदन घिसते ही तो चंदन बिना चढ़ाये ही जहाँ चढ़ाना है चढ़ जाएगा और तुम चंदन घिसते ही रहोगे, तुम्हारे चंदन का अर्चनीय तुम्हें तुम्हारे अनजाने में चंदन से तिलक कर जाएगा। "तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।" यह न हो कि चंदन तो उतारते जाओ, पर उसी को भूल जाओ, जिसके लिए तुम चंदन उतारने बैठे थे, जैसा कि मेरे एक संबंधी के यहाँ के एक ब्राह्मण देवता किया करते हैं। निष्काम-भाव से वे छटाँक-छटाँक भर चंदन उतार डालते हैं और जब चंदन उनकी आवश्यकता से कहीं अधिक उतर जाता है, तो कई घर जाकर अनेक पुजारियों को इस लोभ में दे आते हैं कि चंदन घिसने में उनका जो परिश्रम बचा, उसके बदले में वे कुछ दे दें। मैं जानता हूँ ऐसे परार्थ-घटकों का, कहीं भी जाइए, अभाव नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में जाइए तो कई एक ऐसे साहित्य के सेवी मिलेंगे, जो किसी-न-किसी पुजारी के लिए रात-दिन चंदन उतारते ही रहते हैं। बदले में कुछ दान-दक्षिणा मिल ही जाती है। राजनीति के क्षेत्र में तो बड़ा पुजारी केवल आरती के समय ही आता है। चंदन उतारना तो हमेशा टुकड़खोरों के कर्तव्य-वितरण की सूची में आता है।

        हाँ, केवल रक्तचंदन उतारने वाला पुजारी निष्काम भाव से चंदन नहीं घिसता। वह तो शक्ति का पुजारी होता है। जिसके मस्तक पर वह रक्तचंदन का तिलक लगा देगा , वह या तो पशु होगा या फिर वीर ही होगा। पशु होगा, तो बलि होगा और वीर होगा, तो मुक्त होगा। मलयज घिसा जाता है, तो गंध जगती है; पर रक्त चंदन जब घिसा जाता है, तब राग जगता है। इस राग से रंजित होकर या तो मनुष्य बिल्कुल अध:पतित ही होता है, या फिर ऊँचे उठता है, या तो उसका उठान निस्सीम हो जाता है। मलयज में प्रभु की कृपा अधिक घिसती है और अपना जीवन यापन अल्पमात्र लगता है; रक्तचंदन उतरने में देवी की प्रेरणा कम, अपने जीवन का रस अधिक लगता है। इसलिए यह वक्रपंथगामियों की उपासना में ही अधिक उपयोगी माना जाता है। राजमार्ग पर चलने वाले धवल वेशधारियों के मस्तक पर यह फब ही नहीं सकता। यह तो सुनसान अंधकारित पथों पर निर्भय विचरण करने वाले नीलकंचुक धारियों के उज्ज्वल भाल का शृंगार है।

        काव्य में एक पथ के पांथ हैं तुलसीदास और दूसरे के कालिदास। तुलसी शील की छांह में छँहाते चलते हैं, और कालिदास बिजलियों की कौंध से आँखें मिलाते चलते हैं। तुलसी में मलयज की तरह ताप-निवारण की क्षमता है, कालिदास में लोहित चंदन की तरह उन्मादन राग-विवर्धन की शक्ति है। एक तीसरा भी पंथ है, केशर या हल्दी के रंग में मलयज को संसक्त करके तिलक देने वालों का। रागात्मिका भक्ति के द्वारा दक्षिण और वाम पंथ के बीच सहज समाधान प्राप्त करने वालों का। इनके तिलक में बंकिमा और सादगी दोनों होती है। सूरदास, हितहरिवंश, व्यास आदि इसी पंथ के प्रणेता हैं। और एक चौथा चंदन भी है, जिसको वैष्णव जन गोपी-चंदन कहते हैं। मेरी एक परम वैष्णव चाची हैं, वे बतलाती हैं कि जिस सरोवर में गोपियों ने स्नान करके अपने प्रेष्ठ भगवान का साक्षात्कार पाया, उस सरोवर की मिट्टी ही समर्पित गोपी के अंग से लगकर चंदन बन गई है। सम्भवत: जितने भी दुराव, आवरण और आत्मसंकोच आदि कृपणभाव हो सकते हैं, उन सबसे मुक्त होकर अपने को निश्शेष भाव से जो अपने सर्वश्रष्ठ काम के लिए अर्पण करते हैं, तो मलयाचल की तरह अपने आश्रय-मात्र को चंदन बनाने में वे समर्थ हो ही जाते हैं हाँ, यह गोपी-चंदन बहुत ही उच्चतर भूमिका वाले सिद्ध भक्तों के लिए ही है।

        पर मैं तो यह मानता हूँ कि चंदन जो भी हो, किसी रंग में भी सना हो, वह हमारी विश्वभावना का ही एक शुष्कप्राय खंड है , जिसे रस-सिक्त करना हमारा सतत कर्तव्य है। जिस किसी भी शिला का हम होरसा बनवाएँ, वह धरती पर टिकी हो, संघर्षण में वह डगमागाने वाली न हो। हम जो कोई भी जल सींच-सींचकर चंदन को आर्द्र करें; वह शुचि हो, स्वच्छ हो और अभिमंत्रित हो। हम तिलक जो भी लगाएँ, वह अर्पित चंदन का तिलक हो, स्वार्थ संघृष्ट न हो, सुविस्तृत विश्व को सुरभित करने से जो बचा हो, वही हम अपने सिर-आँखों लें, इसी में हमारी भव्य परंपरा की अभिवृद्धि और हम सभी के अंत:करणों का सौमन्य सन्निहित है। तत्त्वत: हमीं चंदन हैं, हमीं पानी हैं। हमीं होरसा हैं, हमी कटोरी हैं, जिसमें चंदन रखा जाता है। हमीं अर्चनीय देवता हैं और हमीं अर्चक भक्त हैं; पर यह हमारा विस्तार बोध भी तभी जगता है, जब हम प्रभु को चंदन और अपने को पानी मानकर चलते हैं। उदात्त रूपों का आकार सामने रखकर उनसे उनका सार ग्रहण करते हुए जीवन में उतारना है, यह ध्येय सामने रखकर चलते हैं और जो भी उदात्त गुण हम अर्जित करते हैं, उनको विश्वहित में विनियोजित करने का संकल्प लेकर चलते हैं।

        यही हमारी चंदन-चर्चा की पारमार्थिक परिभाषा है और इसी से हमारे गंधहीन, नि:स्व, रिक्त सांस्कृतिकम्मन्य जीवन में चंदन मांगल्य का अंग बना हुआ है। लिलार हमारा चाहे चंदन लगाने से चर्राने लगे और चंदन लगाते ही हम अपने को दशहरे के हाथी जैसा उपहसनीय प्राणी मानने लगें; पर हमारे अंतर्मन में चंदन का छिड़काव अभी गीला है, क्योंकि हमारे अक्षर अज्ञान के भीतर वह रागिनी अभी जागती है, जिसके किवाड़ चंदन के बनते हैं, जिसकी चौकी चंदन से गढ़ी जाती है, जिसके द्वार पर चंदन का बिरवा रोपा जाता है, जिसके गलहार भी चंदन के ही बनते हैं और जिस पर चंदन लिप्त हथेलियों की छाप पड़े बिना मंगल विधि नहीं पूरी होती। वह रागिनी ही जनता-जनार्दन की चंदन-खण्डिका है, जो एक कठोर विचार पीठिका पर बराबर ग्राम देवता की विलीयमान आनंदाश्रु बिंदुओं से परिषिक्त होकर घिसी जा रही है, घिसते-घिसते वह अब सूत मात्र रह गई है। उसकी सुरभि बिखर रही है; पर देवता नहीं उठ रहा है। कारण मैं नहीं जानता केवल इतना जानता हूँ कि निर्ममता से इस चंदन के छोटी-सी टुकड़ी को न घिसो। इसे सँभालकर घिसो. देवता को जगाओ, जिसके उद्‍बोधन से प्रत्येक काष्ठ चंदन बन लहक उठे। जिन भुजंगों के विष के भय से पेड़-के-पेड़ सूख-से गए, उनको भुजदंड बजाने वाले हिमवासी शंकर का इस तप्त मिट्टी के पिंड में आवाहन करो। वे चंदन स्वीकारें, जिससे जन-चेतना और उमंगित होकर पसरे, चंदन की महक प्रत्येक दिशा में फैले और चंदन का छिड़काव प्रत्येक पथ पर हो जाय। तभी हमारा बचा-खुचा पानी सार्थक होगा और तभी चंदन की प्रचुरता हमें इतना उदार बनने की प्रेरणा देगी कि चंदन की कुटी छवाकर निंदक को भी अपने निकट रख सकें। तभी चंदन-चर्चित संस्कृति का मंगलास्पद रूप अपना नवोत्कर्ष पा सकेगा।


(पण्डित विद्यानिवास मिश्र का यह ललित निबंध उत्तर प्रदेश के नए एकीकृत पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक।)

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