वर्षा ऋतु की अंतिम नक्षत्र
है उत्तराफाल्गुनी। हमारे जीवन में गदह-पचीसी सावन-मनभावन है, बड़ी मौज
रहती है, परंतु सत्ताइसवें के आते-आते घनघोर भाद्रपद के
अशनि-संकेत मिलने लगते हैं और तीसी के वर्षों में हम विद्युन्मय भाद्रपद के काम,
क्रोध और मोह का तमिस्त्र सुख भोगते हैं। इसी काल में अपने-अपने
स्वभाव के अनुसार हमारी सिसृक्षा कृतार्थ होती है। फिर चालीसवें लगते-लगते हम
भाद्रपद की अंतिम नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी में प्रवेश कर जाते हैं और दो-चार वर्ष
बाद अर्थात उत्तराफाल्गुनी के अंतिम चरण में जरा और जीर्णता की आगमनी का समाचार
काल-तुरंग दूर से ही हिनहिनाकर दे जाता है। वास्तव में सृजन-संपृक्त, सावधान, सतर्क, सचेत और कर्मठ
जीवन जो हम जीते हैं वह है तीस और चालीस के बीच। फिर चालीस से पैंतालीस तक
उत्तराफाल्गुनी का काल है। इसके अंदर पग-निक्षेप करते ही शरीर की षटउर्मियों में
थकावट आने लगती है, 'अस्ति, जायते,
वर्धते' - ये तीन धीरे-धीरे शांत होने लगती
हैं, उनका वेग कम होने लगता है और इनके विपरीत तीन 'विपतरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति'
प्रबलतर हो उठती हैं, उन्हें प्रदोष-बल मिल
जाता है, वे शरीर में बैठे रिपुओं के साथ साँठ-गाँठ कर लेती हैं
और फल होता है, जरा के आगमन का अनुभव। पैंतालीस के बाद ही
शीश पर काश फूटना शुरू हो जाता है, वातावरण में लोमड़ी बोलने
लगती है, शुक और सारिका उदास हो जाते हैं, मयूर अपने श्रृंगार-कलाप का त्याग कर देता है और मानस की उत्पलवर्णा
मारकन्याएँ चोवा-चंदन और चित्रसारी त्याग कर प्रव्रज्या का बल्कल-वसन धारण कर लेती
हैं। अतः बचपन भले निर्मल-प्रसन्न हो, गदहपचीसी भले ही 'मधु-मधुनी-मधूनि' हो; परंतु
जीवन का वह भाग, जिस पर हमारे जन्म लेने की सार्थकता निर्भर
है, पच्चीस और चालीस या ठेल-ठालकर पैंतालीस के बीच पड़ता है।
इसके पूर्व हमारे जीवन की भूमिका या तैयारी का काल है और इसके बाद 'फलागम' या 'निमीसिस'
(Nemesis) की प्रतीक्षा है। जो हमारे हाथ में था, जिसे करने के लिए हम जनमे थे, वह वस्तुतः घटित होता
है पच्चीस और पैंतालीस के बीच। इसके बाद तो मन और बुद्धि के वानप्रस्थ लेने का काल
है - देह भले ही 'एकमधु-दोमधु-असंख्य-मधु' साठ वर्ष तक भोगती चले। इस पच्चीस-पैंतालीस की अवधि में भी असल हीर रचती
है तीसोत्तरी। तीसोत्तरी के वर्षों का स्वभाव शाण पर चढ़ी तलवार की तरह है, वर्ष-प्रतिवर्ष उन पर नई धार, नया तेज चढ़ता जाता है
चालीसवें वर्ष तक। मुझे क्रोध आता है उन लोगों पर जो विधाता ब्रह्मा को बूढ़ा कहते
हैं और चित्र में तथा प्रतिमा में उन्हें वयोवृद्ध रूप में प्रस्तुत करते हैं।
मैंने दक्षिण भारत के एक मंदिर में एक बार ब्रह्मा की एक अत्यंत सुंदर तीसोत्तर
युवा-मूर्ति को देखा था। देखकर ही मैं कलाकार की औचित्य-मीमांसा पर मुग्ध हो गया।
जो सर्जक है, जो सृष्टिकर्त्ता है, वह
निश्चय ही चिरयुवा होगा। प्राचीन या बहुकालीन का अर्थ जर्जर या बूढ़ा नहीं होता है।
जो सर्जक है, पिता है, 'प्रॉफेट'
है, नई लीक का जनक है, प्रजाता
है, वह रूप-माधव या रोमैंटिक काम-किशोर भले ही न हो, परंतु वह दाँत-क्षरा, बाल-झरा, गलितम् पलितम् मुंडम् कैसे हो सकता है? उसे तो
अनुभवी पुंगव तीसोत्तर युवा के रूप में ही स्वीकारना होगा। जवानी एक चमाचम धारदार
खड्ग है। उस पर चढ़कर असिधाराव्रत या वीराचार करनेवाली प्रतिभा ही पावक-दग्ध होंठों
से देवताओं की भाषा बोल पाती है। युवा अंग के पोर-पोर में फासफोरस जलता है और
युवा-मन में उस फासफोरस का रूपांतर हजार-हजार सूर्यों के सम्मिलित पावक में हो
जाता है। मेरी समझ से सृष्टिकर्त्ता की, कवि की, विप्लव नायक की, सेनापति की, शूरवीर
की, विद्रोही की कल्पना श्वेतकेश वृद्ध के रूप में नहीं की
जा सकती। अतः प्रजापति विधाता को सदैव तीस वर्ष के पट्ठे सुंदर, युवा के सुंदर रूप में ही कल्पित करना समीचीन है।
वास्तव में तीसवाँ वर्ष जीवन
के सम्मुख फण उठाए एक प्रश्न-चिह्न को उपस्थित करता है और उस प्रश्न-चिह्न को
पूरा-पूरा उसका समाधान-मूल्य हमें चुकाना ही पड़ता है। किसी भी पुरुष या नारी की
कीर्ति-गरिमा, इसी प्रश्न-चिह्न की गुरुता और लघुता पर निर्भर करती है। गौतम बुद्ध ने
उनतीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर अमृत के लिए महाभिनिष्क्रमण किया। यीशु
क्राइस्ट ने तीस वर्ष की अवस्था में अपना प्रथम संदेश 'सरमन
ऑन दी माउंट' (गिरिशिखिर-प्रजनन) दिया था और तैंतीसवें वर्ष
में उन्हें सलीब पर चढ़ा दिया गया। उनका समूचा उपदेश काल तीन वर्ष से भी कम रहा।
वाल्मीकि के अनुसार रामचंद्र को भी तीस के आसपास ही (वास्तव में 27 वर्ष की वयस में) वनवास हुआ था। उस समय सीता की आयु अठारह वर्ष की थी और
वनवास के तेरहवें वर्ष में अर्थात सीता के तीसवाँ पार करते-करते ही सीताहरण की
ट्रेजेडी घटित हुई थी। अतः तीसवाँ वर्ष सदैव वरण के महामुहूर्त्त के रूप में आता
है और संपूर्ण दशक उस वरण और तेज के दाह से अविष्ट रहता है। तीसोत्तर दशक जीवन का
घनघोर कुरुक्षेत्र है। यह काल गदहपचीसी के विपरीत एक क्षुरधार काल है, जिस पर चढ़कर पुरुष या नारी अपने को अविष्कृत करते हैं, अपने मर्म और धर्म के प्रति अपने को सत्य करते हैं तथा अपनी अस्तित्वगत
महिमा उद्घाटित करते हैं अथवा कम-से-कम ऐसा करने का अवसर तो अवश्य पाते हैं।
चालीसा लगने के बाद पैंतालीस तक 'यथास्थिति' की उत्तराफाल्गुनी चलती है। पर इसमें ही जीवन की प्रतिकूल और अनुकूल
उर्मियाँ परस्पर के संतुलित को खोना प्रारंभ कर देती हैं और प्राणशक्ति अवरोहण की
ओर उन्मुख हो जाती है। इसके बाद अनुकूल उर्मियाँ स्पष्टतः थकहर होने लगती हैं और
प्रतिकूल उर्मियाँ प्रबल होकर देह की गाँठ-गाँठ में बैठे रिपुओं से मेल कर बैठती
हैं, मन हारने लगता है, सृष्टि
अनाकर्षक और रति प्रतिकूल लगने लगती है, बुद्धि का तेज घट
जाता है और वह स्वीकारपंथी (कनफर्मिस्ट) होने लगती है एवं आत्मा की दाहक तेजीमयी
शक्ति पर विकार का धूम्र छाने लगता है। मैं तो यहाँ पर पैंतालीसवें वर्ष की बात कर
रहा हूँ। परंतु मुझे स्मरण आती है दोस्तीव्हस्की - जिसने चालीस के बाद ही जीवन को
धिक्कार दे दिया था : 'मैं चालीस वर्ष जी चुका। चालीस वर्ष
ही तो असली जीवन-काल है। तुम जानते हो कि चालीसवाँ माने चरम बुढ़ापा। दरअसल चालीस
से ज्यादा जीना असभ्यता है, अश्लीलता है, अनैतिकता है। भला चालीस से आगे कौन जीता है? मूर्ख
लोग और व्यर्थ लोग' ('नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड' से) दोस्तोव्हस्की की इस उक्ति का यदि शाब्दिक अर्थ न लिया जाय तो मेरी
समझ से इसका यही अर्थ होगा कि चालीस वर्ष के बाद जीवन के सहज लक्षणों का, परिवर्तन-परिवर्धन-सृजन का आत्मिक और मानसिक स्तरों पर ह्रास होने लगता
है। पर मैं 'साठा तब पाठा' की
उक्तिवाली गंगा की कछार का निवासी हूँ, इसी से इस अवधि को
पाँच वर्ष और आगे बढ़ाकर देखता हूँ, यद्यपि दोस्तोव्हस्की की
मूल थीसिस मुझे सही लगती है। शक्तिक्षय की प्रक्रिया चालीस के बाद ही प्रारंभ हो
जाती है, यद्यपि वह अस्पष्ट रहती है।
|
कुबेरनाथ राय |
मैं इस समय 1972 ईस्वी
अपना अड़तीसवाँ पावस झेल रहा हूँ। पूर्वाफाल्गुनी का विकारग्रस्त यौवन जल पी-पीकर
मैं 'क्षिप्त' से भी आगे एक पग 'विक्षिप्त' हो चुका हूँ और शीघ्र ही मोहमूढ़ होनेवाला
हूँ! भाद्र की पहली नक्षत्र है मघा। मघा में अगाध जल है। पृथ्वी की तृषा आश्लेषा
और मघा के जल से ही तृप्त होती है। यदि मघा में धरती की प्यास नहीं बुझी तो उसे
अगले संवत्सर तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। न केवल परिमाण में, बल्कि गुण में भी मघा का जल श्रेष्ठ है। मघा-मेष की झड़ी झकोर का स्तव-गान
कवि और किसान दोनो खूब करते हैं : 'बरसै मघा झकोरि-झकोरी।
मोर दुइ नैन चुवै जस ओरी।' मघा बरसी, मानो
दूध बरसा, मधु बरसा। इस मघा के बाद आती है पूर्वाफाल्गुनी जो
बड़ी ही रद्दी-कंडम नक्षत्र है। इसका पानी फसल जायदाद के लिए हानिकारक तो है ही,
उत्तर भारत में बाढ़-वर्षा का भय भी सर्वाधिक इसी नक्षत्र-काल में
रहता है। इसी से उत्तर भारतीय गंगातीरी किसान इसे एक कीर्तिनाशा-कर्मनाशा नक्षत्र
मानते हैं। इसके बाद आती है उत्तराफाल्गुनी, भाद्रपद की
अंतिम नक्षत्र, जो समूचे पावस में मघा के बाद दूसरी उत्तम
नक्षत्र है। इसका पानी स्वास्थ्यप्रद और सौभाग्यकारक होता है। इस अड़तीसवें पावस
में अपने जीवन का पूर्वाफाल्गुनी काल भोग रहा हूँ, यद्यपि
साथ-ही साथ द्वार पर उत्तराफाल्गुनी का आगमन भी देख रहा हूँ। चालीस आने में अब
कितनी देर ही है। |
Kubernath Ray |
अतः आज पूर्वाफाल्गुनी का
अंतिम पानपात्र मेरे होंठों से संलग्न है। क्रोध मेरी खुराक है, लोभ मेरा
नयन-अंजन है और काम-भुजंग मेरा क्रीड़ा-सहचर है। इनको ही मैं क्रमशः विद्रोह,
प्रगति और नवलेखन कहकर पुकारता हूँ। भले ही यह विकार-जल हो, भले ही इसमें श्रेय-प्रेय, गति-मुक्ति कुछ भी न हो।
परंतु इसमें जीर्णता और जर्जरता नहीं। यह जरा और वृद्धत्व का प्रतीक नहीं।
पूर्वाफाल्गुनी द्वारा प्रदत्त विक्षिप्तता भी यौवन का ही एक अनुभव है। मुझे लग
रहा था कि मेरे भीतर कोई उपंग बजा रहा है क्योंकि मेरे सम्मुख द्वार पर काल-नट्टिन
अर्थात् उत्तराफाल्गुनी त्रिभंग रूप में खड़ी है और मैं उसमें मार की तीन कन्याओं
तृषा-रति-आर्त्ति को एक साथ देख रहा हूँ। कांचनपद्म कांति, कर-पल्लव,
कुणितकेश, बिंबाधर, विशाल
बंकिम भ्रू, दक्षिणावर्त नाभि, और
त्रिवली रेखा से युक्त इस भुवन-मोहन रूप को मैं देख रहा हूँ और इसको आगमनी में
अपने भीतर बजती उपंग को निरंतर सुन रहा हूँ। उपंग एक विचित्र बाजा है। काल-पुरुषों
की उँगलियाँ चटाक-चटाक पड़ती है और आहत नाद का छंदोबद्ध रूप निकलता है बीच-बीच में
हिचकी के साथ। यह हिचकी भी उसी काल-विदूषक की भँड़ैती है और यह उपंग के तालबद्ध
स्वर को अधिक सजीव और मार्मिक कर देती है। मैं अपने भीतर बजते यौवन का यह
उपंग-संगीत सुन रहा हूँ और अपने मनोविकारों का छककर पान कर रहा हूँ। मुझे कोई
चिंता नहीं। अभी वानप्रस्थ का शरद काल आने में काफी देर है। इस क्षण उसकी क्या चिंता
करूँ? इस क्षण तो बस मौज ही मौज है, भले
ही वह कटुतिक्त मौज क्यों न हो; काम भुजंग के डँसने पर तो
नीम भी मीठी लगती है। अतः यह काल-नटी, यह पूर्वाफाल्गुनी या
उत्तराफाल्गुनी, यह 'नैनाजोगिन'
कितनी भी भ्रान्ति, माया या मृगजल क्यों न हो,
मैं इसके रूप में आबद्ध हूँ। इसमें मुझे वही स्वाद आ रहा है जो
मायापति भगवान को अपनी माया के काम मधु का स्वाद लेते समय प्राप्त होता है और जिस
स्वाद को लेने के लिए वे परमपद के भास्वर सिंहासन को छोड़कर हम लोगों के बीच
बार-बार आते हैं। अतः इस समय मुझे कोई चिंता, कोई परवाह
नहीं।
परंतु एक न एक दिन वह क्षण
भी निश्चय ही उपस्थित होगा जिसकी शृंगारहीन शरद यवनिका के पीछे जीर्ण हेमंत और
मृत्युशीतल शिशिर की प्रेतछाया झलकती रहेगी। 'उस दिन, तुम
क्या करोगे? है तुम्हारे पास कोई बीज-मंत्र, कोई टोटका, कोई धारणी-मंत्र जिससे तुम अगले बीस-बाईस
वर्षों के लिए इस उत्तराफाल्गुनी के पगों को स्तंभित कर दो और वह अगले बीस-बाईस
वर्ष तुम्हारे द्वारदेश पर, शिथिल दक्षिण चरण, ईषत कृंचित जानु के साथ आभंग मुद्रा में नतग्रीव खड़ी रहे और तुम्हारे
हुकुम की प्रतीक्षा करती रहे? है कोई ऐसा जीवन-दर्शन,
ऐसा सिद्धाचार, ऐसी काया सिद्धि जिससे
बाहर-बाहर शरद-शिशिर, पतझार-हेमंत आएँ और जूझते-हार खाते चले
जाएँ। परंतु मनस की द्वार-देहरी पर यह उत्तराफाल्गुनी एक रस साठ वर्ष की आयु तक
बनी रहे? है कोई ऐसा उपाय? यह प्रश्न
रह-रहकर मैं स्वयं अपने ही से पूछता हूँ। आज से तेरह वर्ष पूर्व भी मैंने इस
प्रश्न पर चिंता की थी और उक्त चिंतन से जो समाधान निकला उसे मैंने कार्य-रूप में
परिणत कर दिया। परंतु इन तेरह वर्षों में असंख्य भाव-प्रतिभाओं के मुंडपात हुए हैं
और आज मैं मूल्यों के कबंध-वन में भाव-प्रतिभाओं के केतु-कांतार में बैठा हूँ। आज
जगत वही नहीं रहा जो तेरह वर्ष पूर्व था। एक ग्रीक दार्शनिक की उक्ति है कि एक नदी
में हम दुबारा हाथ नहीं डाल सकते, क्योंकि नदी की धार
क्षण-प्रतिक्षण और ही और होती जा रही है। काल-प्रवाह भी एक नदी है और इसकी भी कोई
बूँद स्थिर नहीं। अतः शताब्दी के आठवें दशक के इस प्रथम चरण में मुझे उसी प्रश्न
को पुनः-पुनः सोचना है : कैसे जीर्णता या जरा को, यदि
संपूर्णतः जीतना असंभव हो तो भी फाँकी देकर यथासंभव दूरी तक वंचित रखा जाए?
कैसे अपने दैहिक यौवन को नहीं, तो मानसिक यौवन
को ही निरंतर धारदार और चिरंजीवी रखा जाय? उस दिन तो मैंने
सीधा-सीधा उत्तर ढूँढ़ निकाला था : 'ययाति की तरह पुत्रों से
यौवन उधार लेकर।' अर्थात मैं कोई नौकरी न करके कॉलेज में
अध्यापन करूँ तो मुझ पचपन या साठ वर्ष की आयु तक युवा शिष्य-शिष्याओं के मध्य वास
करने का अवसर सुलम होगा। मैं इनकी आशा-आकांक्षा, उत्साह,
साहस, उद्यमता आदि से वैसे ही अनुप्राणित और
आविष्ट रहूँगा जैसे चुंबकीय आकर्षण-क्षेत्र में पड़कर साधारण लोहा भी चुंबक बन जाता
है।
परंतु विगत दशक के अंतिम दो
वर्षों में जब मेरे ये बालखिल्य सहचरगण छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट बनने लगे, जब इन्होंने
मेरे गुरुओं, गांधी-विवेकानंद-विद्यासागर-सर आशुतोष, की प्रतिमाओं का एवं उनके द्वारा प्रति-पादित मूल्यों का, अनर्गल मुंडपात करना शुरू कर दिया, जब इनके नए
दार्शनिकों ने कहना प्रारंभ किया कि अध्यापक और छात्र के बीच भी श्रेणी-शत्रुओं का
संबंध है क्योंकि अध्यापक भी 'स्थापित व्यवस्था' का एक अंग है और 'व्यवस्था' का
भंजन ही श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है, तब देश में घटित होती हुई
इन घटनाओं पर विचार करके और क्रांति तथा 'नई पीढ़ी' के दार्शनिकों - यथा हिबर्ट मारक्यूज, चेग्वारा,
ब्रैंडिटकोहन आदि की चिंतनधारा से यथासंभव अल्प स्वल्पे परिचय पा
करके मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मैं इन अपने भाइयों, अपने
हृदय के टुकड़ों के साथ जो आज छिन्नमस्ता राजनीति के रँगरूट हैं, कुछ ही दूर तक, आधे रास्ते ही जा सकता हूँ। विविध
प्रकार के नारों से आक्रांत ये नए 'पुरूरवा' ('पुरूरवा' का शब्दार्थ होता है 'रवों' (आवाजों या नारों) से आक्रांत या पूरित पुरुष।
'ययाति' पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है तो
पुरूरवा नई पीढ़ी का।) यदि मुझे यौवन उधार देंगे भी तो बदले में मुझे भी कबंध में
रूपांतरित होने को कहेंगे। और मैं कैसे अपना चेहरा, अपनी
आत्म-सत्ता, अपना व्यक्तित्व त्याग दूँ? 'छिन्नमस्त' पुरुष बनकर यौवन लेने से क्या लाभ?
बिना मस्तक के बिना अपने निजी नयन-मुख-कान के इस उधार प्राप्त
नवयौवन का नया अर्थ होगा? रूप, रस,
गंध और गान से वंचित रह जाऊँगा। केवल शिश्नोदरवाला व्यक्तित्व लेकर
कौन जीवन-यौवन भोगना चाहेगा? कम-से-कम बुद्धिजीवी तो नहीं
ही। आत्मार्थ पृथिवी त्यजेत? अतः मुझे चिरयौवन को इन
शिष्य-पुरूरवाओं की नई पीढ़ी से दान के रूप में नहीं लेना है। तेरह वर्ष पहले का
चिंतित समाधान आज व्यर्थ सिद्ध हो गया है। मुझे अन्यत्र चिरयौवन का अनुसंधान करना
है। कहीं-न-कहीं मेरे ही अंदर अमृता कला की गाँठ होगी। उसे ही मुझे आविष्कृत करना
होगा। जो बाहर-बाहर अप्राप्य है वह सब-कुछ भीतर-भीतर सुलभ है। मैं अपने ही हृदय
समुद्र का मंथन करके प्राण और अमृत के स्रोत किसी चंद्रमा को आविष्कृत करूँगा।
तेरह वर्ष पुराना समाधान आज काम नहीं आ सकता।
मैं
मानता हूँ कि समाज और शासन में शब्दों के व्यूह के पीछे एक कपट पाला जा रहा है।
मैं बालखिल्यों के क्रोध की सार्थकता को स्वीकार करता हूँ। पर साथ ही छिन्नमस्ता
शैली के सस्ते रंगांध और आत्मघाती समाधान को भी मैं बेहिचक बिना शील-मुरौवत के
अस्वीकार करता हूँ। अपना मस्तक काटकर स्वयं उसी का रक्त पीना तंत्राचार-वीराचार हो
सकता है परंतु यह न तो क्रांति है और न समर। पुरानी पीढ़ी का चिरयक्षत्व मुझे भी
अच्छा नहीं लगता। मैं भी चाहता हूँ कि वह पीढ़ी अब खिजाब-आरसी का परित्याग करके
संन्यास ले ले। शासन और व्यवस्था के पुतली घरों की मशीन-कन्याएँ उनकी बूढ़ी
उँगलियों के सूत्र-संचालन से ऊब गई हैं और उनकी गति में रह-रह कर छंद-पतन हो रहा
है। यह बिल्कुल न्याय-संगत प्रस्ताव है कि पूर्व पीढ़ी अपनी मनुस्मृति और कौपीन बगल
में दबाकर पुतलीघर से बाहर हो जाय और नई पीढ़ी को, अर्थात हमें और हमारे
बालखिल्यों को अपने भविष्य के यश-अपयश का पट स्वयं बुनने का अवसर दे जिससे वे भी
अपने कल्पित नक्शे, अपने अर्जित हुनर को इस कीर्तिपट पर
काढ़ने का अवसर पा सकें। यह सब सही है। परंतु क्या इन सब बातों की संपूर्ण सिद्धि
के लिए इस पुतलीघर का ही अग्निदाह, पुरानी पीढ़ी द्वारा बुने
कीर्तिपट के विस्तार का दाह, उनके श्रम फल का तिरस्कार आदि
आवश्यक हैं? क्या ऐसा सब करना एक आत्मघाती प्रक्रिया नहीं?
इस स्थल पर डॉ. राधाकृष्णन या आचार्य विनोबा भावे की राय को उद्धृत
करूँ तो वह क्रांति के इन 'दुग्ध कुमारों' के लिए कौड़ी की तीन ही होगी। अतः मैं लेनिन जैसे महान क्रांतिकारी की राय उद्धृत
कर रहा हूँ! 1922 ई. में लेनिन ने लिखा था, 'उस सारी सभ्यता-संस्कृति को जो पूँजीवाद निर्मित कर गया है, हमें स्वीकार करना होगा। और उसके द्वारा ही समाजवाद गढ़ना होगा। पूर्व पीढ़ी
के सारे ज्ञान, सारे विज्ञान, सारी
यांत्रिकी को स्वीकृत कर लेना होगा। उसकी सारी कला को स्वीकार कर लेना होगा... हम
सर्वहारा संस्कृति के निर्माण की समस्या तब तक हल नहीं कर सकते जब तक यह बात
साफ-साफ न समझ लें कि मनुष्य जाति के सारे विकास और संपूर्ण सांस्कृतिक ज्ञान को
आहरण किए बिना यह संभव नहीं, और उसे समझ कर सर्वहारा
संस्कृति की पुनर्रचना करने में हम सफल हो सकेंगे। 'सर्वहारा
संस्कृति' अज्ञात शून्य से उपजनेवाली चीज नहीं और न यह उन
लोगों के द्वारा गढ़ी ही जा सकती है जो सर्वहारा संस्कृति के विशेषज्ञ विद्वान कहे
जाते हैं ये सब बातें मूर्खतापूर्ण है। इनका कोई अर्थ नहीं होता। 'सर्वहारा संस्कृति' उसी ज्ञान का स्वाभाविक सहज
विकास होगी जिसे पूँजीवादी, सामंतवादी और अमलातांत्रिक
व्यवस्थाओं के जुए के नीचे हमारी संपूर्ण जाति ने विकसित किया है।' यह बात स्वामी दयानंद या पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की होती तो बड़ी आसानी
से कह सकते 'मारो गोली! सब बूर्ज्वा बकवास है।'; पर कहता है क्रांतिकारियों का पितामह लेनिन, जिसे एक
कट्टर बंगाली मार्क्सवादी नीरेंद्रनाथ राय ने अपनी पुस्तक 'शेक्सपियर-हिज
ऑडिएंस' के पृष्ठ (49-50) पर उद्धृत
किया है। आज प्रायः लोग पुकारकर कहते हैं : 'देखो, देखो जोखिम उठा रहा हूँ, मूल्य भंजन कर रहा हूँ। अरे
बंधु, जोखिम उठा रहे हो या नाम कमा रहे हो? यह तो आज अपने को प्रतिष्ठित बनाने और जाग्रत सिद्ध करने का सबसे सटीक
तरीका 'शॉर्टकट' यानी तिरछा रास्ता है।
जोखिम तुम नहीं उठा रहे हो तुम तो धार के साथ बह रहे हो और यह बड़ी आसान बात है। आज
जोखिम वह उठा रहा है जो नदी की वर्तमान धारा के प्रतिकूल, धार
के हुकुम को स्वीकारते हुए कह रहा है : 'मूल्य भी क्या तोड़ने
की चीज है जो तोड़ोगे? वह बदला जा सकता है तोड़ा नहीं जा सकता।
मूल्य स्थिर या सनातन नहीं होता, यह भी मान लेता हूँ। परंतु
एक अविच्छिन्न मूल्य-प्रवाह, एक सनातन मूल्य-परंपरा का
अस्तित्व तो मानना ही होगा।' नए बालखिल्य दार्शनिक कहेंगे - 'यह धार के विपरीत जाना हुआ। यह तो प्रतिक्रियावाद है।' ऐसी अवस्था में मेरा उन्हें उत्तर है : 'कभी-कभी नदी
की धार पथभ्रष्ट भी हो जाती है। वह सदैव प्रगति की दिशा में ही नहीं बहती। वह स्वभाव
से अधोगति की ओर जानेवाली होती है। और आज? आज तो वन्याकाल
है। वन्याकाल में धार पथभ्रष्ट रहती है। वह कर्मनाशा-कीर्तिनाशा-कालमुखी बनकर
हमारे गाँव को रसातल में पहुँचाने आ रही है। अतः इस क्षण हमारी प्यारी नदी ही
शत्रुरूपा हो गई है। और यदि गाँव को बचाना है तो हम धार के प्रतिकूल समर करेंगे।
यदि हम अपना घर-द्वार फूँककर तमाशा देखकर मौज लेनेवाले आत्मभोगी 'नीरो' की संतानें नहीं है तों हमें इस नदी से समर
करना ही होगा। यही हमारी जिजीविषा की माँग है। और इसके प्रतिकूल जो कुछ कहा जा रहा
है, वह 'नई पीढ़ी' की बात हो या पुरानी की, मुमुक्षा का मुक्ति भोग है।
यह सब विद्रोह नहीं बूर्ज्वा डेथविश का नया रूप है।' |
विषाद योग |
अतः
मैं धार के साथ न बहकर अकेले-अकेले अपने अंदर की अमृता कला का अविष्कार करने को
कृत संकल्प हूँ। बिना रोध के, बिना तट के जो धार है वह कालमुखी वन्या है,
रोधवती और तटिनी नहीं। यों यह तो मैं मानता ही हूँ कि सर्जक या
रचनाकार के लिए 'नॉनकनफर्मिस्ट' होना
जरूरी है। इसके बिना उसकी सिसृक्षा प्राणवती नहीं हो पाती और नई लीक नहीं खोज
पाती। अतः मुझे भी विद्रोही दर्शनों से अपने को किसी न किसी रूप में आजीवन संयुक्त
रखना ही है। एक लेखक होने के नाते यही मेरी नियति है, और इस
तथ्य को अस्वीकृत करने का अर्थ है अपनी सिसृक्षा की सारी संभावनाओं का अवरोध।
परंतु लेखक, कवि या किसी भी साहित्येतर क्षेत्र के सर्जक या
विधाता को यह बात भी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि शत-प्रतिशत अस्वीकार या 'नॉनकनफर्मिज्म' से भी रचना या सृजन असंभव हो जाता
है। पुराने के अस्वीकार से ही नए का आविष्कार संभव है। यह कुछ हद तक ठीक है। परंतु
नए भावों या विचारों के 'उद्गम' के बाद
'उपकरण' या अभिव्यक्ति के साधन का
प्रश्न उठता है और इसके लिए 'नॉनकनफर्मिज्म' को त्यागकर पचहत्तर प्रतिशत पुराने उपकरणों में से ही निर्वाचित-संशोधित
करके कुछ को स्वीकार कर लेना होता है। रचना की 'आइडिया'
के आविष्कार के लिए तो अवश्य 'विद्रोही मन'
चाहिए। परंतु रचना का कार्य (प्रॉसेस) आइडिया के आविष्कार के साथ ही
समाप्त नहीं हो जाता। रचना-प्रक्रिया में 'स्वीकारवादी मन'
की भी उतनी ही आवश्यकता है। अन्यथा 'आइडिया'
या ज्ञान का 'क्रिया' में
रूपांतर संभव नहीं। अतः प्रत्येक सर्जक या विधाता, जीवन के
चाहे जिस क्षेत्र की बात हो, 'विद्रोही' और 'स्वीकारवादी' दोनों साथ ही
साथ होता है। 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' के
फैशनेबुल दर्शन के प्रति मेरा आक्षेप यह भी है कि यह एक स्वयं आरोपित 'नो एक्जिट' (द्वारा या वातायन रहित अवरुद्ध कक्ष) है,
इसको लेकर बहुत आगे तक नहीं जाया जा सकता है। यह दर्शन विषय और विधा
दोनों की नकारात्मक सीमा बाँधकर बैठा है। और इसके द्वारा अपने 'स्व' को भी पूरा-पूरा नहीं पहचाना जा सकता है;
तो 'स्व' से बाहर,
इतिहास और समाज को समझने की तो बात ही नहीं उठती। यह 'शत-प्रतिशत अस्वीकार' का दर्शन कभी अस्तित्ववाद का
चेहरा लेकर आता है तो कभी नव्य मार्क्सवाद का (क्लासिकल मार्क्सवाद से भिन्न);
और ये दोनों मानसिक-बौद्धिक स्तर पर मौसेरे भाई हैं। ये एक ही
ह्रासोन्मुखी संस्कृति की संतानें हैं। योगशास्त्र में मन की पाँच अवस्थाएँ कही गई
हैं : क्षिप्त, विक्षिप्त, विमूढ़,
निरुद्ध और आरूढ़। ये दोनों दर्शन विमूढ़ स्थिति के दो भिन्न संस्करण
हैं, अतः दोनों त्याज्य हैं।
यह
बाढ़-वन्या का काल है। नदी अपनी दिशा भूलकर, कूल छोड़कर उन्मुक्त हो गई है,
अतः बुद्धजीवी वर्ग से धीरता और संयम अपेक्षित है। घबराकर वन्या की
पथभ्रष्ट धार के प्रति आत्मसमर्पण करने की अपेक्षा जल के उत्तरण, वन्या के 'उतार' की प्रतीक्षा
करना अधिक उचित है। पानी हटने पर नदी फिर कूलों के बीच लौट जाएगी। नदी अपनी शय्या
यदि बदल भी दे, तो भी नई शय्या के साथ कोई कूल, कोई अवरोध तो उसे स्वीकार करना ही होगा। यह नया कूल भी उसी पुराने कूल के
ही समानान्तर होगा। नदी तब भी समुद्रमुखी ही रहेगी। उलटकर हिमाचलमुखी कभी नहीं हो
सकती। अतः इस वन्या नाट्य के विष्कंभक के बीच का समय मैं न तो बहुत महत्वपूर्ण
मानता हूँ और न बहुत चिंताजनक। मैं बिल्कुल अविचलित हूँ। मेरा विश्वास है कि कल
नहीं तो परसों हम अर्थात पुरानी पीढ़ी का युवा और मेरे बालखिल्य छात्र-छात्राएँ
अर्थात नई युवा पीढ़ी, दोनों मिलकर इस शासन एवं व्यवस्था के
पुतलीघर की नृत्य कन्याओं के कत्थक नृत्य को साथ-साथ संचालित करेंगे। यह पुतलीघर
ऐसा है कि इसमें अनुशासित संयमित तालबद्ध कत्थक ही चल सकता है। अन्यथा जरा भी छंद
पतन होने पर कोई न कोई भयावह पुतली एक ही झपट्टे में हड्डी आँत तक का भक्षण कर
डालेगी क्योंकि इन पुतलियों में से कोई-कोई विषकन्याएँ भी हैं। अतः मैं चेष्टा
करूँगा कि अपने अंदर की अमृता कला का आविष्कार करके इस उत्तराफाल्गुनी काल को बीस
बाइस वर्ष के लिए अपने अंतर में स्थिर अचल कर दूँ, बाहर-बाहर
चाहे शरद बहे या निदाघ हू-हू करे। तब मैं अपने बालखिल्य सहचरों के साथ व्यवस्था की
इन पुतलियों का छंदोबद्ध नृत्य भोग सकूँगा। और एक दिन वह भी आएगा जब कोई चिल्लाकर
मेरे कानों में कहेगा 'फाइव ओ' क्लाक!
पाँच बज गए!' कोई मेरे शीश पर घंटा बजा जाएगा, कोई मेरे हृदय में बोल जायगा : 'बहुत हुआ। बहुत
भोगा। अब नहीं। अब, अहं अमृतं इच्छामि। अहं वानप्रस्थ
चरिष्यामि।' और तब मैं व्यवस्था के पुतलीघर की इन
यंत्रकन्याओं से माफी माँगकर उत्तर-पुरुष की जय जयकार बोलते हुए मंच से बाहर आ
जाऊँगा और अपने को विसर्जित कर दूँगा लोकारण्य में, खो
जाऊँगा अपरिचित, वृक्षोपम, अवसर
प्राप्त, रिटायर्ड स्थाणुओं के महाकांतार में। पर अभी नहीं।
अभी तो मैं विश्वेश्वर के साँड़ की तरह जवान हूँ।
(आचार्य कुबेरनाथ राय का यह ललित
निबंध उत्तर प्रदेश में विभिन्न विश्वविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत
पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष के हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी
है। विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हम पाठ्यक्रम के मूल पाठ को क्रमशः रखने का
प्रयास कर रहे हैं। उसी कड़ी में यह निबंध। शीघ्र ही हम इसका पाठ कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत करेंगे। - सम्पादक)