शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

हास्य का फूहड़ स्वरूप चिंताजनक है!

- पीयूष कान्त राय

  इस बार ऑस्कर अवॉर्ड सेरेमनी में उपजे विवाद ने महिलाओं के सौंदर्यबोध एवं उससे जुड़ी चर्चा के साथ-साथ कॉमेडी के वर्तमान स्वरूप को भी बहसतलब बना दिया है। ऐसा नहीं है कि नारीवाद संबंधी बहसों में यह कोई नया अध्याय है। इस तरह की चर्चा समय समय पर होती रही है और सौन्दर्य के मानकों पर जब तब प्रश्न चिह्न खड़े किए जाते रहे हैं।  लेकिन यह विवाद जो दिन प्रतिदिन नाटकीय स्वरूप ले रहा है उसने ह्यूमर या कॉमेडी के नाम पर भद्देपन के बाजार को फिर से गरमा दिया है। क्रिस रॉक, जो एक जाना माना मसखरा (स्टैंड अप कोमेडियन) हैं और प्रसिद्ध ऑस्कर अवार्ड सेरेमनी में मंच संचालन कर रहे थे, ने उस मंच से जैडा पिंकेट (विल स्मिथ, प्रसिद्ध अभिनेता और किंग रिचर्ड फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार विजेता की पत्नी) का मजाक बनाया और वहां मौजूद सभी दर्शक हंसने लगे। क्रिस रॉक ने जैडा पिंकेट के बाल विहीन सिर को लक्षित कर अपशब्द कहे, जिससे आहत होकर विल स्मिथ ने उन्हें मंच पर ही घूंसा मार दिया। ऑस्कर के आयोजकों ने इस अभद्र व्यवहार पर विल स्मिथ को दस वर्ष के लिए ऑस्कर समारोह में आने से प्रतिबंधित कर दिया। इस घटना के बाद कॉमेडी के औचित्य पर प्रश्न चिह्न खड़े होने लगे हैं।

कॉमेडी जनित हास्य दुनिया की परेशानियों से लड़ने का जज्बा प्रदान करता है लेकिन उस कॉमेडी का क्या मतलब रह जाता है जिसके पीछे नफरत या संकुचित भावना के प्रसार की मंशा छिपी हो। दूसरों का मजाक बनाना अब कॉमेडी की नई परिभाषा बन गया है। एक निश्चित एवं सामाजिक मान्यताप्राप्त मापदंड में स्त्रियों को पारंपरिक रूप से देखने की आदत बन चुकी है। इस विषय पर नारीवादी लेखिका सिमोन द बुववॉर ने प्रतीकात्मक व्यंग्योक्ति करते हुए कहा है कि "सबसे पहले तो उसके पंख काट दिए गए, इसके बाद उसे कोसा जाने लगा कि वो उड़ना नहीं जानती है"। क्रिस रॉक ने भी यही किया। उन्हें जैडा पिंकेट का बाल विहीन सिर हास्यास्पद लगा। स्त्री के सौन्दर्य बोध का पारंपरिक रूप से इतर रूप उसे हास्यास्पद क्यों लगा?

जैडा पिंकेट और विल स्मिथ

महान हास्य कलाकार चार्ली चैपलिन के बारे में कहा जाता है कि वह जब सबसे अधिक खुश होते थे तब वह स्वयं का ही मजाक उड़ाते थे। पर्दे पर अपने आप को ऊल-जुलूल स्थिति में परोसकर उन्होंने मूक फिल्मों में कॉमेडी के उच्चतम आयाम तय किये। 17वीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखक मोलिएर ने अपने साहित्य एवं सशक्त भाषा के माध्यम से कॉमेडी का जो आख्यान किया, वह व्यक्तिकेंद्रित न होकर समाज में फैली कुरीतियों पर कटाक्ष होता था। मोलिएर के कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह लुई 14वां का दरबारी था। दरबार के उस मध्यकालीन दौर में अपने गुणवत्तापूर्ण कॉमेडी नाटकों के माध्यम से उसने फ्रांसीसी भाषा को वैश्विक पहचान दिलाई। इसके इतर आज का कॉमेडी व्यक्ति, धर्म या लिंगविशेष पर केंद्रित है। कॉमेडी के इस दौर ने स्त्रियों के विषय में संकुचित धारणा बना दी है। वह कॉमेडियन्स का सहज लक्ष्य हैं।

भारत जैसे देश में इस विधा को निम्न कोटि का बना दिया गया है। स्टैंडअप कॉमेडी के नाम पर भद्दी गालियां परोसी जा रही हैं जो दर्शकों द्वारा खूब सराही भी जा रही हैं। धर्म विशेष खासकर हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाना कॉमेडी में प्रगतिवाद का प्रतीक बनता जा रहा है। खास बात यह है कि इस तरह के शो में अच्छी खासी भीड़ जुट रही है। कॉमेडी के नाम पर गाली, अपशब्दों का प्रयोग, व्यक्तिविशेष का अपमान एवं धर्म जैसे बेहद संवेदनशील मुद्दे का मजाक बनाने के खिलाफ कोई सेंसर बोर्ड नहीं है।

जब तक व्यक्ति केंद्रित फूहड़पन को बड़े मंचों से कॉमेडी का नाम दिया जाएगा तथा इसका समर्थन किया जाएगा तब तक इस तरह के ओछे मजाक करके अपना जेब भरने वालों की गाड़ी चलती रहेगी। इस तरह के वाहियात एवं संकुचित मानसिकता वाले कॉमेडियंस का हर माध्यम से बहिष्कार करने की जरूरत है ताकि ऐसे सामाजिक जहर को फैलने से रोका जा सके एवं साफ-सुथरी कॉमेडी को मुख्यधारा में जगह दी जा सके।

पीयूष कान्त राय

(पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। NET परीक्षा उत्तीर्ण हैं। वह फ्रेंच भाषा, यात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है। 

ऑस्कर समारोह के ताज़ा विवाद पर उनकी विशेष टिप्पणी।)

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

मी लार्ड बताएं, शरीफ लोग कहां जाएं ?

-डॉ नीहारिका रश्मि

          सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल ही में 11 फरवरी, 2022 को यह निर्णय दिया है कि उत्तर प्रदेश सरकार उन दंगाइयों को दिया गया वसूली नोटिस वापिस ले; जिन्होंने सी ए ए और एन आर सी आंदोलन के समय सरकारी सम्पत्ति को क्षति पहुंचाई थी । सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को खुद ही निर्णयकर्ता बताकर क्या साबित करने की कोशिश की है ? क्या एक चुनी गई सरकार दंगाइयों को सजा नहीं दे सकती? इस निर्णय से सुप्रीमकोर्ट साबित क्या करना चाहती है? कि लोग सरकार के हर निर्णय पर फिजूल के प्रश्न खड़े करें, पत्थरबाजी करें, पुलिस को मारें, आम जनता को परेशान करें और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार कुछ भी ना करें । दरअसल यह मामला सी ए ए के विरोध में देशभर में एक समुदाय विशेष द्वारा हुए उग्र प्रदर्शनों; जो बहुत हिंसक भी थे, जो मदरसों से या मस्जिदों से संचालित थे, उन्होंने उग्र प्रदर्शन करके जनजीवन को मुश्किल में डाला प्रशासन को मुश्किल में डाला सरकारी संपत्ति को नष्ट किया उनको सबक देने के लिए योगी सरकार ने दंगाइयों से वसूली का नोटिस निकाला जिसमें किसी के ऊपर मनमर्जी से दोष नहीं थोपा गया विभिन्न टी वी चैनल्स द्वारा की गई रिकॉर्डिंग से दोषियों की पहचान की गई । यहां यह याद रहे सरकार रिकॉर्डिंग नहीं कर रही थी, प्राइवेट टीवी चैनल्स रिकॉर्डिंग कर रहे थे। उनकी रिकॉर्डिंग के आउटपुट से दंगाइयों की पहचान करके फिर उन्हें नोटिस दिए गए हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट को गलत क्या लगा ? क्या किसी को यह छूट है कि वह सरकार के हर फैसले का विरोध पत्थरबाजी करके सरकारी संपत्ति को नष्ट करके करें ? सुप्रीम कोर्ट के इरादे क्या हैं ? क्या कहना चाह रहा है सुप्रीम कोर्ट? क्या वह देख नहीं रहा के जब से मोदी जी की सरकार आई है कुछ लोगों को हर अच्छी बुरी बात पर मिर्ची लग जाती है और वह सीधे दंगे पर उतर आते हैं । यदि किसी सरकार की किसीनीति से विरोध होता है तो विरोध करने के लोकतांत्रिक तरीके होते हैं। आप उन तरीकों से विरोध करिये, कोर्ट में अपील करिये, पानी सिर से ऊपर हो जाये तब प्रदर्शन किये जा सकते हैं। ऐसा देखा गया कि CAA के खिलाफ प्रदर्शन में तो संवैधानिक पद पर बैठे प्रधानमंत्री मोदी को छोटे छोटे मासूम बच्चों से भी गालियां दिलवाई गईं, दंगों की न केवल तैयारी की गई बल्कि दंगे किये गए, सड़कें महीनों बाधित रखी गईं और दुहाई सभी प्रदर्शनकारी संविधान की दे रहे थे । भारत सरकार चुपचाप तमाशा देख रही थी, सुप्रीम कोर्ट चुपचाप तमाशा देख रहा था। जी हाँ! वह सुप्रीम कोर्ट, जो कुख्यात देश विरोधी आतंकवादी के लिए आधी रात को भी दुकान खोल कर बैठ जाता है, सड़ी सड़ी बातों पर खुद संज्ञान ले लेता है उसे दिल्ली में ही सिर पर चढ़े ये प्रदर्शनकारी नहीं दिखे, पूरा देश, देश के पूरे समर्थ लोग बंधक से बने बैठे थे ।

          सवाल यह है कि कुछ लोगों को इस देश में क्या परेशानी है? आपको मोदी पसंद नहीं तो आपने इंदिरा गांधी को कितना फेवर किया? उन्होंने तो प्यार से कहा था, दो या तीन बस। इस कौम ने उनकी बात भी नहीं मानी एक के दस और बीस पैदा करते रहे और अपनी गरीबी और बेरोजगारी का ठीकरा सरकारों पर थोपने लगे।

          कोर्ट होते हैं अपराधियों को सज़ा देने के लिए न कि उन्हें छुट्टे सांड की तरह घूमने की आज़ादी देने के लिए (इस तरह की शब्दावली उपयोग करने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ, पर अब पानी सिर के ऊपर हो गया है)। इस तरह की प्रतिक्रिया करके कुछ समुदाय साबित क्या करना चाहते हैं? हिज़ाब जैसे फिजूल के मुद्दों को तूल देकर पूरे देश मे शहर दर शहर प्रदर्शन करना क्या है? यह पूरे विश्व को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि ये भारत मे बहुत परेशान हैं, इनके अधिकारों को कुचला जा रहा है इनको दबाया जा रहा है? स्कूल ड्रेस के मुद्दे को धार्मिक पहनावे पर रोक का रंग दे दिया गया है। जबकि वह लड़की अपने साथ चार प्रोफेशनल कैमरामैन ले गई थी, जो उसके हर मूवमेंट को कुशलता से शूट कर रहे थे। इस मुद्दे पर पूरे देश में इतना तनाव बना दिया गया कि UP चुनाव में वोट डालने के पहले भी महिलाओं के हिज़ाब उतरवाकर वोटर कार्ड से चेहरा मिलान नहीं किया गया। कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाकर अलग अलग नामो से कितने ही वोट डाल सकता है, क्या यही लोकतंत्र है? क्या यह संवैधानिक स्थिति है? तो फिर संविधान की इज्जत कौन कर रहा है कौन नहीं, यह स्पष्ट है । यह मीठा मीठा गप कड़वा कड़वा थू वाली बात है। दरअसल संविधान और देश के लिए इज़्ज़त इन लोगों के मन मे है ही नहीं । ये सिर्फ अधिकारों के लिए संविधान की दुहाई देते हैं । कर्तव्यों के पालन की बात इनके धर्म में दूर दूर तक नहीं है । कानपुर से ऐसी खबर भी आ गई कि वोटिंग से पहले कुछ महिलाओं ने हिज़ाब न उतारने के लिए हंगामा किया । क्या ये महिलाएं बैंक खातों में हिज़ाब वाली फोटो लगाती हैं ,बैंक लोन के खातों में हिज़ाब वाली फोटो होती है?

          सुप्रीम का अर्थ होता है सबके ऊपर। सुप्रीम कोर्ट कैसे इस तरह के लोक लुभावन फैसले ले सकती है । कोर्ट का काम न्याय करना है न कि अन्याय करना । चुनी हुई योगी सरकार के प्रशासनिक फैसले लेने के अधिकार को पलटना अर्थात कोर्ट जन सामान्य को यह संदेश देना चाह रही है कि असहमति के नाम पर कोई भी जाति कोई भी कम्युनिटी पुलिस को सेना के जवानों को घायल कर सकती है, मार सकती है, बसें जला सकती है, सामान्य जनता को जान से मार सकती है, कोई भी अपराध कर सकती है, सड़क रोक सकती है और सरकार काबू न करे तो भी कोर्ट फटकारेगी और काबू करे ,आगे भविष्य के लिए सबक देना चाहे तो अपराधी कोर्ट चले जाएँगे। सुप्रीम कोर्ट भी चले जायेंगे, सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम वकीलों की लाखों में फीस दे देंगे (इन वकीलों और अपराधियों के बैंक खातों के ट्रांजिक्शन की बारीकी से जांच होनी चाहिए) लेकिन दंड राशि नहीं भरेंगे । चूंकि अपराधी अपने को गलत नहीं मान रहे तो कोर्ट ने पुचकार कर कहा कोई बात नहीं जुर्माना मत भरो । टैक्स भरने के लिए हाड़ तोड़ मेहनत करने वाला मध्यम वर्ग तो है ना। उसको टैक्स पर टैक्स, सब टैक्स (उपकर ) लगाकर डीजल पेट्रोल महंगा करके हम देश का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाये रखेंगे, मुफ्त में सुविधाएं भी सबको देंगे; तुम जैसे देश विरोधी कौम को भी दस बीस बच्चे पैदा करने वाले को भी फिकर नॉट! सरकारी खर्च तो निकल ही आएंगे। येन केन प्रकारेण तुम तो एश करो । कोर्ट तो जनसामान्य को डराने के लिए हैं। कोर्ट जाने से पहले उसकी रूह काँप जाए कि बार बार पेशी पर जाने के खर्चे कहां से लाएगा? वकीलों की मोटी मोटी फीस कहाँ से देगा? वाह! मेरा भारत वाकई महान।

          सुप्रीम कोर्ट को तो ऐसे उपद्रवियों को सजा देनी चाहिए जो बेवजह सरकार के हर कार्य को कठघरे में खड़ा करते है बल्कि हिंसक प्रदर्शन करके शहर को देश को प्रदेश को बंधक बनाते हैं। कोई भी पार्टी इनसे कड़ाई से नहीं निपटेगी क्योंकि उसे वोटों का डर है इसलिए सुप्रीम कोर्ट को ही जनसंख्या नियन्त्रण और गैरकानूनी गतिविधियों पर लगाम लगानी चाहिए । ये कब तक इस तरह की हरकतें करके देश के विकास में बाधा डालेंगे? ऐसा करने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिए । 21 फरवरी, 22 के दैनिक भास्कर में गुजरात विशेष कोर्ट का 7000 पन्नों का फैसला आया कि आतंकवादी आदमखोर बाघ की तरह होते हैं जो मासूम लोगों का शिकार करते हैं उन्हें समाज मे खुला नहीं छोड़ा जाना चाहिए । ठीक उसी प्रकार गलत सोच वाले लोग भी देश समाज के लिए खतरनाक होते हैं जो दूसरों को भड़काकर देश में अशांति पैदा करते हैं । न्याय कौमनिरपेक्ष होता है, व्यक्ति निरपेक्ष होता है। वह किसी कौम विशेष के लिए अपनी परिभाषा नहीं बदल लेता माय लार्ड!!!!!!

 

(डॉ नीहारिका रश्मि ने हमें यह लेख भेजा और देश में चल रही विभिन्न घटनाओं पर अपना आक्रोश व्यक्त किया। उनका यह लेख इसी क्रोध और आक्रोश की सहज अभिव्यक्ति है। कथावार्ता की टीम ने निश्चित किया है कि वह अपने ब्लॉग/वैबसाइट पर राजनीतिक लेखों को भी प्रकाशित करेगी। उसी के अनुक्रम में यह आलेख। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी। आप हमारे यू ट्यूब चैनल कथावार्ता के लिए भी साहित्यिक रचनाएँ/पाठ आदि प्रेषित कर सकते हैं। - संपादक)


डॉ नीहारिका रश्मि

डॉ नीहारिका रश्मि

1986 से प्रकाशित और आकाशवाणी (रेडियो) पर प्रसारित हो रही विख्यात लेखिका। स्टोरीज, कविता, लेख। नाटक स्क्रिप्ट राइटिंग में वर्कशॉप with मनोहर श्याम जोशी, अरुण कौल, मुकेश शर्मा (तत्कालीन चिल्ड्रन फ़िल्म विकास निगम अध्यक्ष), दो लेखों के कारण मध्य प्रदेश की सरकारों का फैसला बदला, एक कहानी संग्रह प्रकाशित, कविता संग्रह व लेख संग्रह प्रकाशित होने वाला है। अब तक कई डॉक्यूमेंट्रीज बनाईं जो टूरिजम बायोग्राफिकल ,सोशल अवेयरनेस एंड ट्रैफिक पर हैं ।

Kabirabazzar.com रन किया, 65 पोएट्स वीडियो रिकॉर्ड किये जिनमे स्व विट्ठल भाई पटेल (झूठ बोले कौआ काटे) भी हैं ।

फिल्में- नाभिपट्टनम नेमावर, पानी देवता, अलख निरंजन, जुआ महापर्व, ग्वालियर ग्लोरी, विट्ठल भाई एक बहु आयामी व्यक्तित्व आदि । Cms फ़िल्म फेस्टिवल में सहभागिता ।

संपर्क- 

9407529108  ईमेल- neeharicarashmi@gmail.com

 


सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

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