फेसबुक पर सात दिन में अपनी पसंद की सात पुस्तकों का उल्लेख करने का आवाह्न मित्र गौरव तिवारी की ओर से प्राप्त हुआ तो हमने अपनी पसंद के सात कृतियों का चयन किया। यह अलग अलग विधाओं की बेहतरीन पुस्तकें हैं। इनका मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी विशेष स्थान है। आप इस अभियान को चाहें तो बढ़ा सकते हैं।
पहला दिन
पहला दिन
किताब का नाम- सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
लेखक- महात्मा गांधी
#सात_दिन_सात_किताबें
#सात_दिन_सात_किताबें
यह रोचक शृंखला बहुत दिन से चल रही है और यह जानकर बहुत अच्छा लगता है कि लोग बहुत सी ऐसी कृतियों का उल्लेख करते हैं जो वाकई बदल देने का माद्दा रखती हैं। गौरव तिवारी और Yogesh Pratap Singh ने मुझे भी इस क्रम में नामित कर दिया तो कुछ सोच-विचार के बाद मैंने भी इस क्रम में हर दिन एक कृति के साथ उतरने का फैसला किया है।
यूँ तो यह चयन बहुत कठिन है कि अब तक पढ़ी गयी कृतियों में से सात को चुना जाए और उनके बारे में यहां बताया भी जाये। फिर भी...
आज पहली पुस्तक 'आत्मकथा' से। आत्मकथा लिखना बहुत साहसिक कार्य है। निपट ईमानदारी और अपने को खोलकर रख देने का साहस ही एक 'आत्मकथा' है। देश-विदेश के कई चर्चित-अचर्चित हस्तियों की आत्मकथा (इनमें से कुछ विशेष का उल्लेख किया जाना चाहिए- रूसो की आत्मकथा, विनोबा भावे की आत्मकथा-अहिंसा की तलाश, मेरी कहानी- जवाहरलाल नेहरू, आत्मकथा-राजेन्द्र प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के चार खण्ड, प्रभा खेतान-अन्या से अनन्या, मैत्रेयी पुष्पा-गुड़िया भीतर गुड़िया, ओम प्रकाश वाल्मीकि-अछूत, निज़ार कब्बानी-शायरी की राह में, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा आदि) पढ़ने के बाद मुझे आज भी महात्मा गांधी की आत्मकथा "सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा" सबसे अधिक प्रभावित करती है। यह आत्मकथा सभ्यता विमर्श की सबसे जरूरी किताब है। अंग्रेजी सभ्यता के चकाचौंध और ईसाई-इस्लामी व्यवस्था के बीच एक वैष्णव किस तरह अपने लिए मार्ग प्रशस्त करता है और अपने को इस सब दबाव के बीच अडिग रखता है, उसे यहां से जाना जा सकता है। महात्मा गांधी की आत्मकथा का हर अध्याय एक प्रकाश स्तंभ है। वह इतने सीधे-सरल भाषा में अपनी बात करते हैं कि ध्यान उनके द्वारा निर्दिष्ट तत्त्व पर ही टिकती है। उन्होंने १९२१ के बाद के जीवन को आत्मकथा में सम्मिलित नहीं किया है क्योंकि वह जीवन अतिशय सार्वजनिक है। अब तक गांधी की निर्मिति हो चुकी है। इस तरह गांधी की आत्मकथा उनकी निर्मिति प्रक्रिया की शाब्दिक परिणति है। महात्मा गांधी ने इस रचना में घर-परिवार, शिक्षा, आदतें, धर्म, खान-पान, साजिश और संघर्ष समेत जीवन के विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। जब वह अपनी कहानी लिखते हैं तो हम उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शी व्यक्तित्व की झलक पा जाते हैं।
सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी के आश्रम में रोज सायं प्रार्थना के समय इस आत्मकथा के एक अंश का पाठ किया जाता है और उसका प्रभाव बिना वहाँ उपस्थित रहे, नहीं जाना जा सकता।
अगर आप अनजाने-बिना पढ़े-दूसरे लोगों द्वारा बनाई धारणा के आधार पर महात्मा गांधी को नापसंद करते हैं तो आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
एक साथी को इस शृंखला से जोड़ना भी है तो मैं आदित्य कुमार गिरि का नाम सुझाता हूँ।
दूसरा दिन
किताब का नाम- गीता प्रबन्ध
लेखक- महर्षि अरविन्द
#सात_दिन_सात_किताबें
आज दूसरे दिन चर्चा करते हैं महर्षि अरविन्द की किताब 'गीता प्रबंध' की। जय भारत अथवा महाभारत का विशेष अनुभाग 'श्रीमद्भागवतगीता' सदियों से भारतीय और विदेशी लोगों के लिए महत्वपूर्ण कृति रही है। उसका 'निष्काम कर्मयोग' का सिद्धांत दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा और आश्चर्य का विषय रहा है। महात्मा गांधी इस कृति से बहुत प्रभावित थे और यत्र तत्र उसके उद्धरणों से अपने पक्ष को मजबूत करते थे। 'अनासक्ति योग' नामक किताब में उन्होंने गीता का अनुवाद और भाष्य किया है। विनोबा भावे ने तो गीताई मंदिर में गीता के श्लोक का मराठी अनुवाद कर चिनवा दिया है। लोकमान्य तिलक गीता के मर्मज्ञ थे और उन्होंने इसका उपयोग स्वाधीनता संग्राम में खूब किया। डॉ संपूर्णानंद और डॉ राधाकृष्णन ने भी गीता की अपनी व्याख्या की है लेकिन महर्षि अरविंद द्वारा गीता की व्याख्या विशिष्ट है। वह इस किताब की विवेचना करते हुए धार्मिक भी हैं और स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी। गीता और महाभारत पर उनके निबंधों में धर्मराज्य, ऋत और सत्य के राज्य की स्थापना के सूत्र हैं।
उत्तरपाड़ा संभाषण के बाद महर्षि अरविंद के विचार 'सनातन धर्म' के प्रति दृढ़तर होते गए थे और उसकी प्रतिच्छाया इस किताब में मिलती है। महर्षि अरविंद ने पॉण्डिचेरी में रहते हुए शिक्षा और धर्म पर विशेष काम किया था। गीता प्रबंध में इस सबकी झलक है।
यह पुस्तक एक प्रतिमान है। महर्षि अरविंद के बहाने श्रीमद्भागवत गीता को समझने के लिहाज से इस रचना को पढ़ा जाना चाहिए।
मैं जब गीता-प्रबंध की बात करता हूँ तो लगे हाथ इसमें श्रीमद्भागवत गीता के अठारह अध्याय में विस्तृत 'श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद' को भी गुनने की अनुशंसा करता हूँ।
इस शृंखला में मैं अनुज शत्रुघ्न सिंह का आवाह्न करता हूँ। वह इसकी बाँह पकड़ें और अपनी चुनी किताबों के बारे में बताएं।
तीसरा दिन
किताब का नाम- एक किशोरी की डायरी
लेखक- अने फ्रांक
#सात_दिन_सात_किताबें
इस शृंखला में तीसरे दिन आज डायरी विधा की एक विशिष्ट रचना 'एक किशोरी की डायरी'। इसे लिखा था 14-15 वर्षीय किशोरी अने फ्रांक ने। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब नाजियों ने नीदरलैंड (हॉलैंड) पर अधिकार कर लिया और यहूदी लोगों पर नाजी अत्याचार बढ़ा तो फ्रांक का परिवार इसकी जद में आ गया। उनका परिवार एम्सटर्डम में छिपकर रहने लगा। यहीं अने फ्रांक को डायरी मिली और उन्होंने लिखना शुरू किया। बाद में एक दिन जब नीदरलैंड के एक मंत्री ने लोगों से अपने ऊपर हुए अनाचारों को लिपिबद्ध करने को कहा तो इस डायरी के प्रति अने फ्रांक का दृष्टिकोण बदल गया।
यह डायरी एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में यहूदी लोगों के साथ कैसा व्यवहार हुआ था। अने फ्रांक का परिवार एक घर के तहखाने में छिपकर रोज ही मृत्यु को अपने आसपास महसूस करता था। फ्रांक ने डायरी विधा के अनुरूप इसमें वही घटनाएं और अनुभव दर्ज किए हैं जो नितांत निजी हैं। इस डायरी में परिवार की खीझ, मंडराता खतरा, आये दिन होने वाली बमवर्षा, प्रेम का आकर्षण, अपने शरीर में आ रहे बदलाव और अन्य तमाम गतिविधियाँ दर्ज हैं।
अने फ्रांक की डायरी जब मेरे हाथ लगी तो मैं इस कृति से नितांत अपरिचित था। बाद में पता चला कि प्रकाशित होने के बाद यह 'बेस्ट सेलर' बन गई थी और इतने अहम तथ्यों का पिटारा है। मुझे एक और चीज ने बहुत आश्चर्य में डाल दिया था कि उस कमसिन बालिका ने 14 वर्ष की वय में ही भारत की राजनीति के बारे में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। वह अपने विवरणों में महात्मा गांधी का उल्लेख भी करती है और भारत के स्वाधीनता संघर्ष का भी। वह तहखाने में रेडियो सेट के साथ थी और उसके प्रसारण सुना करती थी। कम वय में भी अपने आसपास के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर भी ध्यान केंद्रित रखने वाली यह बालिका निश्चय ही विशिष्ट है। अने फ्रांक बाद में नाजियों द्वारा पकड़ ली गयी और एक यातना घर में भेज दी गयी। वहीं उसकी मृत्यु हुई।
आज जो हम हिटलर की क्रूरताओं के विवरण पढ़ते-सुनते हैं, उसमें बड़ा योगदान इन निजी विवरणों का भी है और उन निजी विवरणों में यह डायरी सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक और मासूम है।
अने फ्रांक की डायरी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं भी डायरी लिखूँ। लिखते हुए मैंने जाना कि यह बहुत जोखिम भरा और दुष्कर कार्य है। लेकिन इसी आदत ने मुझे 'लिखना' सिखाया।
इस डायरी ने मुझे बहुत प्रभावित किया। आप सबको भी इसे जरूर पढ़ना चाहिए। एक सामान्य बालिका के निजी अनुभव किस कदर दुनिया के लिए कीमती हो सकते हैं, इसे पढ़कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
तीसरे दिन मैं डॉ Roopesh Kumar का नाम इस अभियान में जोड़ता हूँ।
चौथा दिन
किताब का नाम- काला जल
लेखक- गुलशेर खान शानी
#सात_दिन_सात_किताबें
आज चौथे दिन हमने जिस पुस्तक को चुना है वह उपन्यास विधा से है। इस कृति को डॉ गौरव तिवारी द्वारा सुझाये गए दो उपन्यासों- 'आधा गाँव' और 'राग दरबारी' के क्रम में देखा जाना चाहिए क्योंकि उन दो उपन्यासों का उल्लेख कर दिए जाने के बाद मुझे 'मैला आँचल' और 'काला जल' में से एक को चुनना था और मैंने 'काला जल' चुना।
गुलशेर खान शानी का यह उपन्यास एक परिवार के तीन पीढ़ियों के निरन्तर टूटने और ढहते जाने की त्रासदी का आख्यान है। इसमें कथा का विस्तार 1910 ई० के आसपास से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद तक है। इस उपन्यास को भारतीय मुस्लिम समुदाय का पहला प्रामाणिक उपन्यास माना जाता है। उपन्यास तीन खण्ड में है- 'लौटती लहरें', 'भटकाव' और 'ठहराव'। यह उपन्यास शब-ए-बारात की एक रस्म 'फातिहा' के सहारे चलती है। फातिहा ठीक पिण्डदान जैसी रस्म है जिसमें मृतक को याद करते हुए उसके लिए 'रोटियां' बदली जाती हैं। बब्बन इस कथा को उठाता है और ठहरे हुए परिवार की कथा को झंझोड़ देता है। इस क्रम में जैसी बातें उभरती हैं, वह उस समाज की वास्तविकता को प्रकट कर देती है। ऐसा समाज जिसमें अंधविश्वास और कुरीतियों की जकड़न है। जो विकासहीन है। जिस पर किसी अभिशाप की अदृश्य छाया मंडरा रही है और लोग उस अजगर की कुण्डली में जकड़कर दम तोड़ देते हैं।
यथास्थिति से विद्रोह करने वाले दो पात्र हैं- सल्लो आपा और मोहसिन। यह दोनों लीक छोड़कर अलग राह अपनाना चाहते हैं। सल्लो आपा जिस तरह मुक्ति का प्रयास करती हैं, वह प्रसंग इतना तरल है कि पाठक छटपटाने लगता है और जब इसकी कारुणिक परिणति होती है, मन आर्द्र हो जाता है। मोहसिन काला जल के परिवेश से बाहर आने की छटपटाहट में बड़े लड़कों की संगत करता है- नायडू के कहने पर राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ता है-जागृति की कोशिश में गीता प्रवचन तक का आयोजन करवाता है लेकिन फिर उसे महसूस होता है कि वह तो अचानक से छिन्नमूल हो चुका है। उसके पास एकमात्र रास्ता बचा है- पाकिस्तान। क्या मोहसिन पाकिस्तान जाएगा? बब्बन उससे कहता है- "लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठगे गए तो फिर कहाँ जाओगे-अरब या ईरान?"
'काला जल' की कहानी जितनी सशक्त है-उसका वातावरण भी उतना ही सघन और कारुणिक। काला जल में मोती तालाब है जिसका ठहरा हुआ जल उस परिवार को और गहरा अर्थ देता है। विशेष यह है कि मोती तालाब से इतर हर कथास्थल पर कल-कल करती जलधारा है। यह बहाव, उस ठहरे हुए को और अधिक विडम्बनापूर्ण बना देती है।
जब मैने इस उपन्यास को पढ़ा तो लंबे समय तक इसके प्रभाव से बाहर नहीं निकल पाया था। यह उपन्यास जिस प्रार्थना भाव में लिखा गया है, इसका प्रभाव उसी के अनुरूप है। बस हम उस काला जल से बाहर निकलने की छटपटाहट में तड़पते हैं। 'काला जल' कई मायने में क्लासिक और विलक्षण उपन्यास है। इस उपन्यास को सल्लो आपा के किरदार की खूबसूरती, फातिहा की रस्म को जानने और दुलदुल के घोड़े यानि मुहर्रम के विवरणों के लिए भी पढ़ा जाए तो मुझे लगता है कि यह कुछ चुनिंदा श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है।
चौथे दिन इस कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए मैं कवि, सम्पादक और इतिहासविद Santosh Chaturvedi का आवाह्न करता हूँ।
पाँचवाँ दिन
किताब का नाम- रस-आखेटक
लेखक- कुबेरनाथ राय
#सात_दिन_सात_किताबें
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'निबंध' को गद्य की कसौटी कहा है। आधुनिक युग के साहित्य की यह विशिष्ट विधा थी जिसमें पण्डिताई और लालित्य का अद्भुत समंजन रहता था। इसमें ललित निबंध तो विज्ञ और सुजान समुदाय के बीच बहुत समादृत होते थे। जब से साहित्य में तथाकथित प्रगतिशीलता ने उभार लिया, ललित निबंधों के प्रति उदासीनता बढ़ती गयी है। तो आज पांचवें दिन मैंने 'ललित निबंध' की विशिष्ट कृति 'रस-आखेटक' को चुना है। रस-आखेटक के रचनाकार कुबेरनाथ राय हैं।
यूँ तो ललित निबन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम सबसे पहले और प्रमुखता से लिया जाता है लेकिन कुबेरनाथ राय को पढ़ना लालित्य के सागर में अवगाहन करना है। उनके बारे में आलोचकों ने 'पाण्डित्य का आतंक' जैसा पद प्रचारित कर दिया है और यही कारण है कि वह अपेक्षाकृत कम पढ़े गए हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि कुबेरनाथ राय के निबंध पाण्डित्य और लालित्य का मणिकांचन संयोग का उदाहरण हैं। उन्होंने साहित्य सृजन के लिए एकमात्र विधा- निबंध को चुना है। उनकी सभी रचनाएं मूल्यवान हैं किंतु रस-आखेटक मेरी दृष्टि में सबसे विशिष्ट है। इस संग्रह के निबंधों में उनका भारतीय गंवई मन और बहुपठित, सुचिंतित ऋषि रूप दिखता है। वह ठेठ ग्रामीण विषय हों या शुद्ध काव्य-शास्त्रीय अथवा दार्शनिक; बहुत सजल प्रविधि से अपनी बात निकालते जाते हैं। उनके निबंध हमें एक साथ लोक और जन के बीच ले जाते रहते हैं और हम कभी वाग्वैदग्ध्य से तो कभी उच्च चिन्तनसरणी से आश्चर्यचकित, रसमग्न होते रहते हैं। रस आखेटक में रसोपनिषद शीर्षक से भूमिका है और यह भूमिका ही एक बेहतरीन निबंध है।
देह-वल्कल, मृगशिरा, एक महाश्वेता रात्रि, मोह-मुद्गर, हरी-हरी डूब और लाचार क्रोध, तमोगुणी, कवि तेरा भोर आ गया आदि बेहतरीन निबंध इसी संग्रह में हैं। इसी संग्रह में यूनानी कवि 'होमर', वर्जिल और शेक्सपियर पर मोनोलॉग हैं। यह मोनोलॉग पश्चिमी साहित्य के प्रति उनके अनुराग और ज्ञान का परिचायक भी हैं।
कुबेरनाथ राय के इस संग्रह को पूर्वांचल (गाजीपुर) की ऋषि परम्परा, निषाद-कोल-भील संस्कृति, असमिया और उड़िया संस्कृति को आत्मसात करने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
जयदेव ने गीत-गोविन्द के लिए कहा था -
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्। मधुरकोमलकान्तपदावलीं शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
उसी तरह अगर आपको साहित्य में कुछ सरस, ज्ञानवर्धक तथा भारतीय संस्कृति के गूढ़ रहस्यों की प्राप्ति करनी हो तो आप 'रस-आखेटक' से मिलें। मेरा मानना है कि आप एक बेहतरीन संसार से रूबरू होंगे।
इस शृंखला में मैं आज ललित निबंधों में विशेष रुचि रखने वाले, खूब पढ़ाकू अनुज डॉ Rajiv Ranjan को नामित करता हूँ।
छठा दिन
किताब का नाम- रश्मिरथी
लेखक- रामधारी सिंह दिनकर
#सात_दिन_सात_किताबें
आज छठे दिन मैंने मित्र गौरव तिवारी और योगेश प्रताप सिंह द्वारा दिए गए दायित्व के पालन के अनुक्रम में रामधारी सिंह दिनकर का खण्ड काव्य 'रश्मिरथी' को चुना है। कवि के रूप में रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी के केंद्रीय पात्र 'कर्ण' किसी के परिचय का मोहताज नहीं हैं। महाभारत का सबसे प्रतिभावान और त्रासद पात्र कर्ण है। सूर्य का पुत्र और कुन्ती का जाया कर्ण आजन्म त्रासदी का शिकार रहता है और युद्ध भूमि में भी शापग्रस्त होकर विवश, असहाय मृत्यु को प्राप्त होता है। परिस्थितियां उसके इस कदर विपरीत हैं कि उसका सारथी तक उसे हतोत्साहित करता रहता है और परिवार, वचनबद्धता, द्वन्द्व और मित्रता का दबाव उसे चौतरफा चपेट में लेता रहता है। सूतपुत्र होने का ठप्पा उसे अनेकशः अपमानित किया करता है। ऐसे में त्रासदी से परिपूर्ण पात्र कर्ण को केन्द्र में रखकर रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' नामक खण्ड काव्य लिखा है और उसे महाभारत की त्रासदी युक्त चरित्र से इतर एक नैतिक और विश्वसनीय पात्र के रूप में स्थापित कर दिया है। कर्ण आज सामान्य भारतीय जन के लिए जिस तरह आदर और सहानुभूति का पात्र बन गया है, उसमें बहुत बड़ा योगदान 'रश्मिरथी' का है। रश्मिरथी का आग्रह है कि कर्ण का मूल्यांकन वंश आधारित न करके आचरण और कर्म आधारित हो। वह स्वयं ऐसा करते हुए कर्ण को सामान्य मानवी से महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। रश्मिरथी में कुल सात सर्ग हैं जिसमें तृतीय सर्ग को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई।
इस काव्य ग्रंथ में रामधारी सिंह दिनकर का काव्य कौशल चरम पर है। रश्मिरथी की पंक्तियाँ- जिसमें कृष्ण की चेतावनी वाला प्रसंग -
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
और
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
-तो सहज ही कंठस्थ हो जाती हैं। रश्मिरथी के बहुत से काव्यांश जन जन की जिह्वा पर रहते हैं और प्रसंगवश दुहराए जाते हैं। -
"जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।"
जब रश्मिरथी की शुरुआत में ही रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-
"तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।"
-तो वह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि कुल-जाति से इतर कर्म के मूल्यांकन में है। और ऐसा करते हुए ही वह कर्ण का परम्परागत मूल्यांकन से इतर और मानवीय भावभूमि पर करने में सफल हुए हैं। इस खण्डकाव्य में कर्ण के चरित्र पर दिनकर ने लिखा है, - "कर्णचरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है।”
कविता में नाद-सौन्दर्य उसकी आयु बढ़ा देते हैं। रश्मिरथी इस दृष्टि से भी बहुत सशक्त काव्य है। वह विमर्श को एक अलग दृष्टि देने वाला काव्य है। रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि हैं और उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा पक्ष रश्मिरथी से भी जुड़ा है।
आज छठे दिन मैं अनुज Param Prakash Rai को इस कड़ी को विस्तारित करने लिए जोड़ता हूँ।
#सात_दिन_सात_किताबें
आज छठे दिन मैंने मित्र गौरव तिवारी और योगेश प्रताप सिंह द्वारा दिए गए दायित्व के पालन के अनुक्रम में रामधारी सिंह दिनकर का खण्ड काव्य 'रश्मिरथी' को चुना है। कवि के रूप में रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी के केंद्रीय पात्र 'कर्ण' किसी के परिचय का मोहताज नहीं हैं। महाभारत का सबसे प्रतिभावान और त्रासद पात्र कर्ण है। सूर्य का पुत्र और कुन्ती का जाया कर्ण आजन्म त्रासदी का शिकार रहता है और युद्ध भूमि में भी शापग्रस्त होकर विवश, असहाय मृत्यु को प्राप्त होता है। परिस्थितियां उसके इस कदर विपरीत हैं कि उसका सारथी तक उसे हतोत्साहित करता रहता है और परिवार, वचनबद्धता, द्वन्द्व और मित्रता का दबाव उसे चौतरफा चपेट में लेता रहता है। सूतपुत्र होने का ठप्पा उसे अनेकशः अपमानित किया करता है। ऐसे में त्रासदी से परिपूर्ण पात्र कर्ण को केन्द्र में रखकर रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' नामक खण्ड काव्य लिखा है और उसे महाभारत की त्रासदी युक्त चरित्र से इतर एक नैतिक और विश्वसनीय पात्र के रूप में स्थापित कर दिया है। कर्ण आज सामान्य भारतीय जन के लिए जिस तरह आदर और सहानुभूति का पात्र बन गया है, उसमें बहुत बड़ा योगदान 'रश्मिरथी' का है। रश्मिरथी का आग्रह है कि कर्ण का मूल्यांकन वंश आधारित न करके आचरण और कर्म आधारित हो। वह स्वयं ऐसा करते हुए कर्ण को सामान्य मानवी से महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। रश्मिरथी में कुल सात सर्ग हैं जिसमें तृतीय सर्ग को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई।
इस काव्य ग्रंथ में रामधारी सिंह दिनकर का काव्य कौशल चरम पर है। रश्मिरथी की पंक्तियाँ- जिसमें कृष्ण की चेतावनी वाला प्रसंग -
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
और
‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
-तो सहज ही कंठस्थ हो जाती हैं। रश्मिरथी के बहुत से काव्यांश जन जन की जिह्वा पर रहते हैं और प्रसंगवश दुहराए जाते हैं। -
"जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।"
जब रश्मिरथी की शुरुआत में ही रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-
"तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।"
-तो वह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि कुल-जाति से इतर कर्म के मूल्यांकन में है। और ऐसा करते हुए ही वह कर्ण का परम्परागत मूल्यांकन से इतर और मानवीय भावभूमि पर करने में सफल हुए हैं। इस खण्डकाव्य में कर्ण के चरित्र पर दिनकर ने लिखा है, - "कर्णचरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है।”
कविता में नाद-सौन्दर्य उसकी आयु बढ़ा देते हैं। रश्मिरथी इस दृष्टि से भी बहुत सशक्त काव्य है। वह विमर्श को एक अलग दृष्टि देने वाला काव्य है। रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि हैं और उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा पक्ष रश्मिरथी से भी जुड़ा है।
आज छठे दिन मैं अनुज Param Prakash Rai को इस कड़ी को विस्तारित करने लिए जोड़ता हूँ।
सातवाँ दिन
किताब का नाम- स्कन्दगुप्त
लेखक- जयशंकर प्रसाद
#सात_दिन_सात_किताबें
"अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है, अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।" -इसी पुस्तक से।
आज मैं दृश्य काव्य (नाटक) से एक कृति ले आया हूँ। यह 'स्कन्दगुप्त' है। प्रणेता हैं- जयशंकर प्रसाद। स्कन्दगुप्त का सीधा सम्बन्ध गाजीपुर से है। सैदपुर भीतरी में वह शिलालेख और स्तंभ आज भी मौजूद है- जिसपर अंकित है कि गुप्त वंश के इस 'विक्रमादित्य' ने हूणों को पराजित किया था।
जयशंकर प्रसाद के बारे में बात करते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले, बनारस में तम्बाकू का पैतृक व्यवसाय संभालने वाले जयशंकर प्रसाद अपनी रचनाओं में भारतवर्ष के अतीत की व्याख्या करने पर क्यों अपना खून जलाते हैं? अपने सभी ऐतिहासिक नाटकों, विशेषकर- चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी में वह इतिहास की तत्कालीन व्याख्याओं से क्यों टकराते हैं। वह इतिहासविद नहीं हैं लेकिन वह अन्तःसाक्ष्य का प्रयोग अकाट्य प्रयोग करते हैं और मार्शल, भण्डारकर, कीथ, टॉड, अलबरूनी, स्मिथ, हार्नेली, काशी प्रसाद जायसवाल, अबुल हसन अली आदि के तर्कों और स्थापनाओं का प्रत्याख्यान करते हैं। जो काम कायदे से इतिहासकार समुदाय को करना था, वह एक नॉन अकादमिक व्यक्ति कर रहा था। जयशंकर प्रसाद का मूल्यांकन इस दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए और छायावाद के शताब्दी वर्ष में इस पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए कि जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा का स्रोत क्या था! वह उपनिवेशवादी पाठ का भरसक विरोध कर रहे थे और रचनात्मक लेखन से उसका प्रतिपक्ष बना रहे थे।
'स्कन्दगुप्त' गुप्तवंश का प्रतापी सम्राट था जिसके शासनकाल में हूणों का आक्रमण हुआ और उसने सफलतापूर्वक उसका सामना किया। यह नाटक एक तो स्कन्दगुप्त की अमर गाथा की स्मृति के लिए है और दूसरे 'कालिदास' के काल निर्धारण की भ्रांति को दूर करने के लिए। इस नाटक में स्कन्दगुप्त एक भावुक, वीर, स्वाभिमानी, कला संरक्षक, देशप्रेमी और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने वाले शासक के रूप में प्रदर्शित किया गया है।इस नाटक में स्कन्दगुप्त और देवसेना का प्रेम तो छायावाद कालीन भावना के अनुरूप है ही- सबसे महत्त्वपूर्ण है- 'भारतवर्ष' की हुंकार।
-
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।
जातियों का उत्थान पतन, आंधियां झड़ी प्रचंड समीर।
खड़े देखा, झेला हंसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।
हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिए तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।
भारतवर्ष की इसी हुंकार, गौरवशाली इतिहास और संसृति के अनूठे देश की कहानी गढ़ने वाले जयशंकर प्रसाद मेरे लिए विशेष आदरणीय हैं। जब मैं उनका आख्यान पढ़ता हूँ तो स्वाधीनता के लिए उनकी छटपटाहट साफ देख पाता हूँ। वह अपने नाटकों, कहानियों, कविताओं में इसके लिए अवकाश निकाल लेते हैं।
चंद्रगुप्त नाटक में -"हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।"- की बात हो या इसी नाटक में -
"विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूंको
हमें सब भीति बंधन से छुड़ा दो।"
जयशंकर प्रसाद के यहां स्वाधीनता, अतीत का गौरवपूर्ण आख्यान, हिन्दू जनमानस का खोया स्वाभिमान, स्त्री जाति के कुल-शील की रक्षा आदि विषय इतने गरिमापूर्ण तरीके से आये हैं कि हममें एक विशेष भावना का प्रवाह होने लगता है। आधुनिक शोध जब इस बात को स्थापित कर रहे हों कि आर्य के कहीं से आने की थियरी गढ़ी हुई है और जयशंकर प्रसाद के यहां हम पढ़ते हैं कि 'हम कहीं से आये नहीं थे' तो हमें उनकी विश्लेषण क्षमता, उनके सातत्य बोध पर गर्व होने लगता है। स्कन्दगुप्त इसलिए भी पढ़ना चाहिए।
________________________
शृंखला की आखिरी कड़ी तक आ गया। सात पुस्तकों का चयन किञ्चित दुष्कर कार्य है। अपने निर्माण के साथ-साथ जन की अपेक्षा का भी ध्यान रखना पड़ता है। हालांकि इस मामले में मैंने पूरी छूट ली और सभी सात किताबें 'रचनात्मक साहित्य' की कोटि से निकाल लाया। आत्मकथा, टीका, उपन्यास, डायरी, निबन्ध, कविता और नाटक विधा से हमने अपनी पसंद की कृतियों का उल्लेख किया। अगर अधिक अवकाश रहता तो विश्व साहित्य से 'मेरा दागिस्तान' 'तोत्तो चान' 'आदि विद्रोही' और 'अन्ना कैरेनिना' को भी शामिल करता। भारतीय वाङ्गमय में 'ईशावास्य उपनिषद' 'भतृहरिशतकं' 'पंचतंत्र' जरूर सुझाता। मेरी इच्छा थी कि विजयदान देथा की 'सपनप्रिया' पर परिचयात्मक टिप्पणी करूँ। मुझे कई आत्मकथाओं, राजनीतिक पुस्तकों में 'आपातकाल का धूमकेतु' और जीवनी साहित्य में 'कलम का सिपाही' पर भी बात करना था। यात्रावृत्त में मैं 'अरे यायावर रहेगा याद', नर्मदा के तीरे तीरे' और 'आजादी मेरा ब्राण्ड' की बात करनी थी। मुझे बहुत सी पुस्तकों के बारे में बताना था- जिन्हें लेकर मैं 'प्रलयकाल' में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी तक जाना चाहता। मैं 'सूत्रधार' जैसे उपन्यास पर लिखना चाहता था और 'काशी का अस्सी' तथा 'उपसंहार' पर भी। अस्तु।
आखिरी दिन मैं Amrendra Kumar Sharma सर को नामित करता हूँ और आग्रह करता हूँ कि वह अपनी पसंद की सात पुस्तकों से हमें परिचित करावें।
आप सबको इस सफर में सहभागी बने रहने के लिए धन्यवाद।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2975283512486063&id=100000133301478
"अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है, अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।" -इसी पुस्तक से।
आज मैं दृश्य काव्य (नाटक) से एक कृति ले आया हूँ। यह 'स्कन्दगुप्त' है। प्रणेता हैं- जयशंकर प्रसाद। स्कन्दगुप्त का सीधा सम्बन्ध गाजीपुर से है। सैदपुर भीतरी में वह शिलालेख और स्तंभ आज भी मौजूद है- जिसपर अंकित है कि गुप्त वंश के इस 'विक्रमादित्य' ने हूणों को पराजित किया था।
जयशंकर प्रसाद के बारे में बात करते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले, बनारस में तम्बाकू का पैतृक व्यवसाय संभालने वाले जयशंकर प्रसाद अपनी रचनाओं में भारतवर्ष के अतीत की व्याख्या करने पर क्यों अपना खून जलाते हैं? अपने सभी ऐतिहासिक नाटकों, विशेषकर- चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी में वह इतिहास की तत्कालीन व्याख्याओं से क्यों टकराते हैं। वह इतिहासविद नहीं हैं लेकिन वह अन्तःसाक्ष्य का प्रयोग अकाट्य प्रयोग करते हैं और मार्शल, भण्डारकर, कीथ, टॉड, अलबरूनी, स्मिथ, हार्नेली, काशी प्रसाद जायसवाल, अबुल हसन अली आदि के तर्कों और स्थापनाओं का प्रत्याख्यान करते हैं। जो काम कायदे से इतिहासकार समुदाय को करना था, वह एक नॉन अकादमिक व्यक्ति कर रहा था। जयशंकर प्रसाद का मूल्यांकन इस दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए और छायावाद के शताब्दी वर्ष में इस पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए कि जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा का स्रोत क्या था! वह उपनिवेशवादी पाठ का भरसक विरोध कर रहे थे और रचनात्मक लेखन से उसका प्रतिपक्ष बना रहे थे।
'स्कन्दगुप्त' गुप्तवंश का प्रतापी सम्राट था जिसके शासनकाल में हूणों का आक्रमण हुआ और उसने सफलतापूर्वक उसका सामना किया। यह नाटक एक तो स्कन्दगुप्त की अमर गाथा की स्मृति के लिए है और दूसरे 'कालिदास' के काल निर्धारण की भ्रांति को दूर करने के लिए। इस नाटक में स्कन्दगुप्त एक भावुक, वीर, स्वाभिमानी, कला संरक्षक, देशप्रेमी और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने वाले शासक के रूप में प्रदर्शित किया गया है।इस नाटक में स्कन्दगुप्त और देवसेना का प्रेम तो छायावाद कालीन भावना के अनुरूप है ही- सबसे महत्त्वपूर्ण है- 'भारतवर्ष' की हुंकार।
-
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।
जातियों का उत्थान पतन, आंधियां झड़ी प्रचंड समीर।
खड़े देखा, झेला हंसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।
हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिए तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।
भारतवर्ष की इसी हुंकार, गौरवशाली इतिहास और संसृति के अनूठे देश की कहानी गढ़ने वाले जयशंकर प्रसाद मेरे लिए विशेष आदरणीय हैं। जब मैं उनका आख्यान पढ़ता हूँ तो स्वाधीनता के लिए उनकी छटपटाहट साफ देख पाता हूँ। वह अपने नाटकों, कहानियों, कविताओं में इसके लिए अवकाश निकाल लेते हैं।
चंद्रगुप्त नाटक में -"हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।"- की बात हो या इसी नाटक में -
"विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूंको
हमें सब भीति बंधन से छुड़ा दो।"
जयशंकर प्रसाद के यहां स्वाधीनता, अतीत का गौरवपूर्ण आख्यान, हिन्दू जनमानस का खोया स्वाभिमान, स्त्री जाति के कुल-शील की रक्षा आदि विषय इतने गरिमापूर्ण तरीके से आये हैं कि हममें एक विशेष भावना का प्रवाह होने लगता है। आधुनिक शोध जब इस बात को स्थापित कर रहे हों कि आर्य के कहीं से आने की थियरी गढ़ी हुई है और जयशंकर प्रसाद के यहां हम पढ़ते हैं कि 'हम कहीं से आये नहीं थे' तो हमें उनकी विश्लेषण क्षमता, उनके सातत्य बोध पर गर्व होने लगता है। स्कन्दगुप्त इसलिए भी पढ़ना चाहिए।
________________________
शृंखला की आखिरी कड़ी तक आ गया। सात पुस्तकों का चयन किञ्चित दुष्कर कार्य है। अपने निर्माण के साथ-साथ जन की अपेक्षा का भी ध्यान रखना पड़ता है। हालांकि इस मामले में मैंने पूरी छूट ली और सभी सात किताबें 'रचनात्मक साहित्य' की कोटि से निकाल लाया। आत्मकथा, टीका, उपन्यास, डायरी, निबन्ध, कविता और नाटक विधा से हमने अपनी पसंद की कृतियों का उल्लेख किया। अगर अधिक अवकाश रहता तो विश्व साहित्य से 'मेरा दागिस्तान' 'तोत्तो चान' 'आदि विद्रोही' और 'अन्ना कैरेनिना' को भी शामिल करता। भारतीय वाङ्गमय में 'ईशावास्य उपनिषद' 'भतृहरिशतकं' 'पंचतंत्र' जरूर सुझाता। मेरी इच्छा थी कि विजयदान देथा की 'सपनप्रिया' पर परिचयात्मक टिप्पणी करूँ। मुझे कई आत्मकथाओं, राजनीतिक पुस्तकों में 'आपातकाल का धूमकेतु' और जीवनी साहित्य में 'कलम का सिपाही' पर भी बात करना था। यात्रावृत्त में मैं 'अरे यायावर रहेगा याद', नर्मदा के तीरे तीरे' और 'आजादी मेरा ब्राण्ड' की बात करनी थी। मुझे बहुत सी पुस्तकों के बारे में बताना था- जिन्हें लेकर मैं 'प्रलयकाल' में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी तक जाना चाहता। मैं 'सूत्रधार' जैसे उपन्यास पर लिखना चाहता था और 'काशी का अस्सी' तथा 'उपसंहार' पर भी। अस्तु।
आखिरी दिन मैं Amrendra Kumar Sharma सर को नामित करता हूँ और आग्रह करता हूँ कि वह अपनी पसंद की सात पुस्तकों से हमें परिचित करावें।
आप सबको इस सफर में सहभागी बने रहने के लिए धन्यवाद।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2975283512486063&id=100000133301478