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गुरुवार, 20 जनवरी 2022

तरुणाई का आख्यान चांदपुर की चंदा

किशोरवय की कहानियां लिखना बहुत चुनौती का काम है। जो उफान उस समय भावनाओं का रहता है और जितने सपने तरूणों के पास होते हैं, उसे कागज में उतारना और कथा के प्रवाह में बांध देना एक कौशल है। हिन्दी में किशोरवय को केंद्र में रखकर गिने चुने उपन्यास लिखे गए हैं। गुनाहों का देवता, कसप, तुम्हारे लिए और कोहबर की शर्त इनमें मील का पत्थर की तरह हैं।

कोहबर की शर्त, केशव प्रसाद मिश्र ने बलिया की पृष्ठभूमि में लिखा है और अब बलिया के ही एक गांव चांदपुर को केन्द्र में रखकर अतुल कुमार राय ने चांदपुर की चंदा लिखा है। यह उनका पहला ही उपन्यास है और मुझे कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है।

जहां इस बदल रहे समय में आमतौर पर गांव का चित्रण हिन्दी में अधिकतर उद्दीपन के लिए हो रहा है, वहां "चांदपुर की चंदा" बहुत गहरे स्तर तक गांव में ही है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप गांव के संक्रमणशील स्वरूप को देख सकते हैं। गांव बहुत तेजी से बदल रहे हैं। सूचना, प्रौद्योगिकी, तंत्र और दुनिया के रंग ढंग गांव का कायाकल्प कर रहे हैं। गला काट प्रतिस्पर्द्धा के दौर में लोग आगे निकलने के लिए किसी भी मर्यादा के पार चले जाने के उद्धत हैं। इस हेतु शिक्षा, संस्कृति, शासन, प्रशासन और तंत्र से मनमाने तरीके से काम लिया जा रहा है। चांदपुर इससे अछूता नहीं है। वहां एक विद्यालय है, उसमें नकल कराने का ठेका लिया जाता है और दूर दराज के लोगों को पास कराया जाता है। चांदपुर के नायक मंटू और नायिका चंदा उसी विद्यालय के विद्यार्थी हैं। शिक्षा का जो स्वरूप देश भर में है, चांदपुर में उसकी एक बानगी देखी जा सकती है। राग दरबारी में जिस छंगामल विद्यालय की चर्चा श्रीलाल शुक्ल ने की है, चांदपुर का विद्यालय उससे भी एकाध कदम आगे निकल आया है। इसमें सामूहिक नकल होती है और लोग अपने होनहार बच्चों को नकल सामग्री उपलब्ध कराने के लिए व्यग्र दिखाई देते हैं। विद्यालय स्ववित्त पोषित योजना के अंतर्गत चल रहा है जहां धन उगाही ही एकमात्र लक्ष्य है।

उपन्यास में एक चट्टी है जहां झोला छाप चिकित्सक हैं, रोजमर्रा के जिंस की बिक्री होती है, इलेक्ट्रिक-इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि सुधारे जाते हैं और जो टाइम पास का सबसे बड़ा अड्डा है। यहां खलिहर लोग, युवक हंसी ठठ्ठा करते हुए, एक दूसरे का मजाक उड़ाते हुए, जीवन के बोझ को ढो रहे हैं। यहां शारीरिक और मानसिक व्याधियों का झोला छाप और कामचलाऊ इलाज होता है। यह चांदपुर का केन्द्रीय स्थान है। गांव की हर गतिविधि का यह चट्टी साक्षी बनता है।

चांदपुर गांव सरयू नदी के किनारे बसा है और इसमें हर साल इतनी बाढ़ आती है कि हर साल एक नया चांदपुर बन जाता है।

          चांदपुर कुछ मास के लिए विस्थापित हो जाता है और पुनः उठ खड़ा होता है, दुगुनी जिजीविषा के साथ। जीवन इसी उजड़ने और बसने के बीच चलता जाता है। इसी में पर्व त्योहार और बरिस बरिस के दिन आते जाते हैं। उपन्यास में चांदपुर गांव के बारहमासे का बहुत महीन चित्रण है जिसे किंचित ध्यान देकर परिलक्षित किया जा सकता है।

          इसी में मंटू और चंदा का प्यार परवान चढ़ता है। प्रेम कथाकारों का प्रिय विषय रहा है किंतु इसे कैसे परोसना है, इसे अतुल बखूबी जानते हैं। इस प्यार में मर्यादा, शील और लाज है और भावनाओं का चरम भी। इससे उठते चटखारे हैं और उस अप्रिय स्थिति से जूझते प्रेमी जीव।

          चांदपुर की चंदा, गांव के जीवन, चंदा और मंटू की प्रेम कहानी के साथ साथ साथ गांव की बदलती संस्कृति, वृद्ध हो रहे लोगों की पीड़ा, प्रवासी होने का दर्द, वैवाहिक संबंध, विवाहेतर संबंध, दहेज, प्रधानी के दांव पेंच आदि का एक भावुक और आत्मीय आख्यान है। इसमें गुदगुदाने वाले बहुत से प्रसंग हैं तो पलकें नम कर देने वाले भी। इस उपन्यास ने गांव के जीवन की धड़कन को समेट लिया है।

 रामलीला के मंचन का प्रकरण हो अथवा बसंत पंचमी का, हरेक वर्णन अनूठा है और आपको गांव के जन जीवन में ले जाने वाला है।

          उपन्यासकार अतुल कुमार राय की विशेषता यह है कि वह तथाकथित आधुनिकता के प्रवाह में बहे नहीं हैं अपितु भारतीयता की डोर को मजबूती से पकड़े हुए हैं, इसलिए बदल रही परंपराएं उनके लिए मजाक का विषय नहीं हैं। यदि उसमें हास्य का पुट है तो इसमें भी एक पीड़ा है। वह भारतीयता के सूत्र को सहेजने वाले रचनाकार हैं। उनके विवरण सुने सुनाए नहीं हैं, उसमें भोक्ता होने की सुगंध है। उनका दायरा भी बहुत विस्तृत है। आजकल के लेखन में विषय को समझने की जो गहराई अपेक्षित है, उससे लेखक किनारा कर लेता है और डिटेल में पड़ने से बचता है जबकि अतुल उसे जीते हैं। इसलिए चांदपुर की चंदा पढ़ते हुए हम मोहाविष्ट हो जाते हैं और उसकी खुमारी में डूबने उतराने लगते हैं। अतुल कुमार राय के यहां विवरण में जो तफसील है, वह दिल को छू लेने वाला है।

          यह अतुल का पहला उपन्यास है। इसे पढ़ते हुए हम इस तरह साधारणीकृत करते हैं कि उसका पात्र बन जाते हैं। अतुल को इसमें विशेष दक्षता मिली है कि वह एक कलाकार की आंखों देखी जिंदगी को दूसरे के समक्ष अधिक रंगीन बना दें। सिनेमा और साहित्य इस उपन्यास में धड़कता है। प्रेम कहानी ऐसे ही किसी स्वप्न में पलती है, जो चलचित्र की रूपहली दुनिया पर जन्म लेती है और बहुतेरे तरूणों के आंखों में जवान होती है।

          इस उपन्यास का संदेश बहुत साफ है। गांव बदल रहा है और इसका भविष्य वहीं पल रहे युवाओं के हाथ से संवरने वाला है। चंदा और मंटू की आखों से होता हुआ यह किस रूप रंग में ढलेगा, वह आने वाला समय बताएगा किंतु यह निश्चित है कि गांव के सबसे बुजुर्ग और बरगद की छवि रखने वाले झाँझा बाबा ने इसे अपनी सहमति दे दी है।

          आपको यह उपन्यास पढ़ना चाहिए। यह देखने के लिए कि आजकल के लेखन से यह कैसे अलग है। एक सच्ची कहानी कैसे उतरती है और हम सबके आसपास की कहानी बन जाती है। अतुल इस कहानी को इस तरह ले गए हैं कि पाठक इसमें बहता जाता है। मैं अभी किनारे लगा हूं, जहां एक नाव बीच धारा में चली जा रही है और लोग उसे नम आंखों से विदा कर रहे हैं।

          हिन्द युग्म प्रकाशन की इस प्रस्तुति का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

- डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

                                                                                              ट्वीटर - @ramakroy


शुक्रवार, 25 जून 2021

Kathavarta : आपातकाल पर केन्द्रित हिन्दी साहित्य

  भारतीय लोकतंत्र में सन १९७५ से १९७७ का वर्ष आपातकाल का है। २५ जून१९७५ को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। और सभी मानवाधिकारों को स्थगित कर दिया था। प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक बिनोवा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहा था और प्रगतिशील लेखक संघ ने इस आपातकाल का बचाव किया।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष

        आपातकाल पर केन्द्रित साहित्य बहुत कम है। हिन्दी में लिखे गए रचनात्मक लेखन में आपातकाल लगभग अनुपस्थित है।

आपातकाल की सांकेतिक छवि

आपातकाल की सांकेतिक छवि

    हमने यहां आपातकाल में और उसके बाद हिन्दी में लिखे गए साहित्य की एक सूची बनाई है। यह सूची मूल्यवान होगीऐसी अपेक्षा है। 

 

#जीवनी-

आपातकाल का धूमकेतु, राजनारायण- डॉ युगेश्वर

 

#उपन्यास - 

राही मासूम रज़ा का उपन्यास कटरा बी आरजू

निर्मल वर्मा का उपन्यास रात का रिपोर्टर

मुद्राराक्षस का उपन्यास 'शांतिभंगऔर  

रवींद्र वर्मा का उपन्यास 'जवाहर नगर'

 

#पत्रिकाएं -

"सारिका" पत्रिका के अनेक अंक (कमलेश्वर के संपादन में)

"स्वदेश" पत्र,

"पहल-३ और ४" पत्रिका,

उत्तरार्ध पत्रिका के ८ से १५ तक के अंक (संपादक सव्यसाची)

 

#गजलें -

कल्पना और सारिका के तत्कालीन अंकों में छपीं दुष्यंत कुमार की गजलें,

 

#कविता - 

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "आपातकाल" शीर्षक कविता,

भवानी प्रसाद मिश्र की "आपातकाल" और "चार कौवे उर्फ चार हौवे" कविता,

दुष्यंत कुमार की "चल भाई गंगाराम भजन कर"

बाबा नागार्जुन की "मोर ना होगा...उल्लू होंगे"

जयकुमार जलज की "गैर रचनाधर्मी" 

हरिभाऊ जोशी की "विजयनी संघर्ष",

जगदीश तोमर की "काली आंधी के विरुद्ध",

राजेंद्र मिश्रा की "फिर सुबह" और "एक दर्शक की तरह",

प्रेमशंकर रघुवंशी की "आदेश सो रहे हैं",

कुमार विकल की "इश्तहार",

नीलाभ की "सन उन्नीस सौ छिहत्तर",

केदारनाथ अग्रवाल की "ओट में खड़ा मैं बोलता हूँ" संकलन में दो कविताएं ......

 

#कहानी -

 पंकज बिष्ट की "खोखल"

असगर वजाहत की "डंडा"

 

#डायरी -

चंद्रशेखर की जेल डायरी

-डॉ रमाकान्त राय

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

9838952426

 

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.