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रविवार, 14 सितंबर 2014

छः दिन का छोटा बाबू..

छः दिन का यह छोटा बच्चा
हाथ है कच्चा पैर भी कच्चा
छिन पल खातिर खोले आँख
देखे यह संसार है सच्चा।
जब जब भूख लगे चिल्लाये
पीटे पैर अकड़ता जाए
हुलस के मम्मी नंदिनी जैसी
लेती छाती से चिपटाए।
पीता दूध मुकुलाता बाबू
हर्ष पुलक छलकाता बाबू।





श्रीमती जी, Reemakant Rai के उन दिनों में हम अक्सर इस बात को लेकर ढेर सारी उधेड़बुन में थे कि हमारी सन्तान हमें माँ-पिता बनने का सुख तो देगी, हमारे जीवन में बहुत सारे बदलाव भी लाएगी. हम इसको लेकर बहुत रोमांचित थे. जीवन बहुत सारे स्वप्न आदि से होकर ख्यालों में पकता जाता था. बस एक चिन्ता हम दोनों को परेशान करती थी कि डायपर बदलना एक कठिन काम होगा. हम सोचते थे, यह एक घिन पैदा करने वाला समय होगा. हम एक दूसरे से मजाक भी किया करते थे कि डायपर कौन कौन कैसे कैसे बदला करेगा.
फिर एक दिन यह फ़रिश्त आया, पेट में चीरा लगाकर! शुरूआती हफ्ता बहुत व्यस्त बीता. ज़च्चा-बच्चा दोनों की देखभाल करनी पड़ती थी. एक हफ्ते का समय बीमार की तीमारदारी में बीता. जब अस्पताल से घर आना हुआ और घर में साथ साथ रहना हुआ तो जाना कि डायपर बदलना एक कठिन काम तो है लेकिन यह घिनौना नहीं है. जब बच्चा रोता है, हममें से कोई एक उठकर पहले यह तजबीजता है कि गीला तो नहीं हुआ? अगर गीला हुआ है, तो उसे बदल दिया जाता है. यह इतना सामान्य सा है कि कभी भी किया जा सकता है. भोजन के थाली के आगे परोसने से ठीक पहले भी.
मैं इसमें यदा कदा आलस्य कर बैठता हूँ लेकिन श्रीमती जी, और उनकी माता जी बिना किसी आलस्य के यह सम्पन्न करती हैं. कभी कभी यह दसेक मिनट के अंतराल में ही घटता है लेकिन उसी तरह का धैर्य और संयम कायम रहता है.
पिता बनने के इस अवधि में महसूस कर रहा हूँ कि हमारी माँ हम सब को पालने के लिए कैसे कैसे जतन किया करती होंगी. पिता बनना एक पीढ़ी के दुःख दर्द को जानना है. हरबार डायपर बदलते हुए मैं अपनी माँ को याद करता हूँ. उनसे मिलकर उनकी गोद में अपना सर छुपाकर रहना चाहता हूँ.
(डायपर का अर्थ अस्थायी तौर की वह लंगोटी है, जो बच्चे के लिए उसकी माँ ने बहुत पहले पुराने कपड़ों को नए तरीके से सिलकर तैयार किया था.)

यह तुकबन्दी बस यूँ ही हो गयी थी..

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.