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रविवार, 28 अप्रैल 2024

जातिवादी विमर्श में चमकीला

 एक फिल्म आई है #चमकीला नाम से। उसके गीत भी हिट हो गए हैं। फिल्म को जातिवादी कोण से इम्तियाज अली ने बनाया है जो चमकीला नाम के एक पंजाबी गायक के जीवन पर आधारित है। चमकीला अश्लील गीत गाता था, यह कहकर पंजाब में उनकी हत्या कर दी गई। निर्देशक ने इसे जातिवादी हिंसा की तरह परोसा है।

चमकीला का एक दृश्य


इस फिल्म में परिणति चोपड़ा हैं, इसलिए इसका प्रमोशन भी हो रहा है।

चमकीला अश्लील बोल वाले गीत गाता था, वह अनुसूचित जाति का था। इसे नायक के मुंह से ही कहलवाया गया है।

चमकीला के अश्लील गीतों का बचाव करते हुए भोजपुरी गीतों में अश्लील गीत को लाया जा रहा है। अव्वल तो यह कहना है कि भोजपुरी गीतों से चमकीला की तुलना निरर्थक है। जिस समय चमकीला गा रहा था, भोजपुरी समाज बहुत उत्कृष्ट साहित्य रच रहा था। यहां तक कि भिखारी ठाकुर जैसे लोगों के बिदेसिया और भोजपुरी समाज के चैता, कजरी आदि की धूम थी। और तरल तथा संवेदनशील गीत थे। पंजाबी कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकता।


पंजाब की किसी घटना का जस्टिफिकेशन भोजपुरी से करके क्या वाहियात काम कर रहे हैं लोग। भोजपुरी समाज अकुंठ समाज है। अब अब्राहमिक प्रभाव में भोजपुरी जगत थोड़ा उदंड व्यवहार कर रहा है जिससे लोग विचलित हैं। चूंकि वह आर्थिक रूप से उतना समृद्ध नहीं है, इसलिए सब उसे निशाने पर रखते हैं।


सच्चाई यह है कि #भोजपुरी समाज जोगीरा और कबीरा आदि भी बहुत मुक्त भाव से रचकर आनंद में अभिव्यक्त करता है। इसलिए पंजाबी अश्लीलता और मनबढ़ अभिव्यक्ति को भोजपुरी से नहीं जोड़ना चाहिए। पंजाबी अश्लीलता सांस्कृतिक दूषण है। चमकीला उसका निकृष्ट रूप रख रहा था।

अस्तु!

कहना है कि #चमकीला के बहाने #हिन्दू समाज में फूट डालने और जातिगत विभेद को उभारने के प्रयास को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। दूसरे यह ध्यान देने की बात है कि #लोकसभा_चुनाव_2024 से ठीक पहले पंजाब में इम्तियाज यह फिल्म ले आए हैं जब अलग अलग क्षेत्रों में जातीय अस्मिता उभारी जा रही है।


तीसरे, घटनाओं की व्याख्या के जो टूल प्रयुक्त हो रहे हैं, वह समरस करने की मंशा से नहीं।


भारत में सिनेमा बहुत सशक्त माध्यम है। फिल्में बनें तो इनपर सूक्ष्म दृष्टि रखी जाए और प्रवाद फैलाने की कोशिश को रोकी जाए। दुर्भाग्य से हिंदू समाज ही इनके निशाने पर है और समाज सुधार की इनकी चिंता हिंदू समाज में प्रविष्ट कर ही हो पाती है। दुनिया का सबसे उन्नत और तार्किक सोच वाला समाज हिन्दू समाज है। उसके हर क्रिया प्रतिक्रिया का एक निश्चित और सुचिंतित आधार है। अब्राहमिक प्रभाव से आप्लावित लोग अपने समुदाय की कूपमंडूकता को देखें। मुक्त हों।


सबका कल्याण हो।

रविवार, 13 मार्च 2022

कश्मीरी पंडितों का यथार्थ है इस फ़ाइल में

       -गौरव तिवारी

        #the_Kashmir_Files

        हमने देखा है, लाज़िम था तो हमने भी देखा है।

        कश्मीर फाइल्स कश्मीर पर बनी एक जरुरी फ़िल्म है। निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने साहस और शोध दोनों को लेकर यह फ़िल्म बनाई है। उनका कहना है कि फ़िल्म के एक एक दृश्य पुष्ट और प्रामाणिक होने पर ही खींचे गए हैं। फ़िल्म की कोई बात लफ्फाजी नहीं है । दिखाई गई प्रत्येक घटना के दस्तावेज/ प्रमाण उनके पास हैं।

        फ़िल्म का रचनाकार कश्मीर के पंडितों की समस्या पर बेचैन है और बहुत कुछ कहने के लिए व्याकुल भी। 30 वर्ष पूर्व साम्प्रदायिकता और जेहाद के झंडाबरदारों द्वारा एक समुदाय विशेष के लोगों को बहुत ही अमानुषिक ढंग से कश्मीर से निकाला गया। फ़िल्म कहती है कि "इस जन्नत को जहन्नुम बनाने वाले ने भी जिहाद इसलिए किया कि उन्हें जन्नत मिले" और दुनिया देखती रही।

डॉ गौरव तिवारी

    कश्मीर पर विधु विनोद चोपड़ा जैसे महारथी के द्वारा मिशन कश्मीर, शिकारा जैसी फिल्में भी बनी। अन्यों ने भी बनाया। लेकिन मूल समस्या और पीड़ितों के पक्ष को इतनी तन्मयता से नहीं दिखाया गया था। उनमें प्रेम कहानी के नेपथ्य में कश्मीरियत की छौंक थी।

        देश में प्रगतिशील और सेकुलर चादर ओढ़े कलाकार/ रचनाकार/ बुद्धिजीवी जिस औजार से, जिस हथियार से, जिस ढंग से अपने पक्ष को रखने के लिए जाने जाते रहे हैं, यह फ़िल्म उन सबका इस्तेमाल करके उनको उनकी भाषा में प्रत्युत्तर देने की सफल कोशिश है। कश्मीर फाइल्स को देखते हुए मुझे जाने क्यों बार बार लग रहा था कि "अंधेरे में" कविता में जिस प्रकार मुक्तिबोध बहुत कुछ कहने के लिए, शोषितों का पक्ष बनने के लिए, शोषकों को नंगा करने के लिए बेचैन हैं और अनेक दृश्यों, फ्लैशबैक पद्धतियों, नाटकीयता और प्रतीकात्मकता के साथ अपनी बात कहते जाते हैं, वैसे ही लेखक और निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री भी यहां उपस्थित हैं।

        यह फ़िल्म कश्मीर की मूल समस्या को भुलाकर उसके लिए अलग ढंग का नैरेटिव गढ़ कर समस्या के प्रत्यक्ष या परोक्ष कारणों के विक्टिम (पीड़ित) बनाने के दर्द को, सही खबर छुपाकर फेक खबर को बार-बार कहते जाने और फिर उसे ही सही मान लिए जाने की पीड़ा को लिये हुए है। तथ्यों के सहारे इनका पर्दाफाश करते हुए यह फ़िल्म कहती भी है कि "यह नरेटिव का वार है बहुत खराब वार है यह। तथाकथित सेकुलरों और प्रगतिशील लोगों द्वारा विक्टिमहुड की कहानियां खरीदी और बेची जाती हैं यहां।" और उसी ने एक पर्दा लगा रखा है जिससे कश्मीरी विस्थापितों की पीड़ा लोग नहीं देख पाते। फ़िल्म कहती भी है कि "हम पीड़ित थे लेकिन हमने हथियार नहीं उठाया।.... दुनिया ने हमें सुनने की, हमारी पीड़ा को जानने की कोशिश भी नहीं की।"

        कश्मीर का प्राचीन इतिहास, वहाँ की समृद्धि संस्कृति, वहाँ की ज्ञान परम्परा, उसकी कश्मीरियत, वहाँ की "नदरु" आदि को कलात्मकता और कहीं कहीं नैरेशन के साथ बताती यह फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की जरूरत थी।

        कश्मीर को धर्म विशेष की अफीम को चखने और उसमें डूबे रहने वाले आतंकियों ने किस हैवानियत के साथ समाप्त कर दिया और "फ्रेंडशिप विफोर नेशन" वाली नेताओं की थियरी ने कैसे उसे नष्ट होने में भूमिका अदा की यह फ़िल्म इसका पर्दाफाश करती है। "धर्मान्तरण करो, छोड़ दो या मर जाओ", "कश्मीर को पाकिस्तान बनाना है, उनके मर्दों के बिना, उनकी औरतों के साथ" जैसे नारे के बीच वहाँ की लोमहर्षक हैवानियत "कश्मीर में जिंदा रहने से ज्यादा मुश्किल का काम कोई है नहीं पंडितों के लिए" के साथ यह फ़िल्म यह भी बताती है कि कैसे उदार कहे जाने वाले सूफियों के तलवारों से हिंदुओं को यहाँ धर्मांतरित किया गया। यासीन मलिक के किरदार का महिला को उसके पति के खून से सने चावल खिलाने और 24 महिला, पुरुष, बच्चों को माथे पर गोली से उड़ा देने का दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला है।

        "देश की तकदीर वही बदल सकता है जिसके पास पॉवर है, पोलिटिकल पॉवर है। बाकी सब बकवास है।" जैसे संवादों के बीच अपनी मिट्टी में वापस जाने की कश्मीरियों की उस पॉवर की ओर टकटकी इस फ़िल्म में है।

        इस फ़िल्म का एक पात्र जो अपने पिता की हत्या के बाद माँ और दादा के निर्वासित होने के लिए अभिशप्त था, जब प्रगतिशील शिक्षा संस्थानों में नए गढ़े गए नैरेशन्स में वहाँ की वास्तविकता से अनभिज्ञ होता है और "इनमें से मेरे पैरेंट्स कौन हैं" की स्थिति में आ जाता है तब यह फ़िल्म आज की पीढ़ी के अपने जड़ो से कट जाने की बेचारगी को भी दर्शाती है। और उसे अपनी जड़ों का ज्ञान होने पर "मेरी माँ का नाम शारदा (ज्ञान की देवी सरस्वती) था यह उसकी कहानी है, मेरे भाई का नाम शिव (भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि व्यक्तित्व) था यह उसकी कहानी है।" कहते हुए दुनिया के सामने अपने दर्द को बयाँ करता है तो फ़िल्म अति यथार्थ और संकेत के साथ थोड़े में बहुत कुछ कहती भी दिखती है।

        आज जब जड़ों से कटकर भौतिक सुख में रहना, आज को ही ओढ़ना, आज को ही बिछाना, आज ही में सोचना, अपने इतिहास, संस्कृति से कटकर सब कुछ पूरी दुनिया में एक जैसा होता जा रहा है। यह फ़िल्म हमें अपनी जड़ों से जुड़ने का माद्दा भी दे रही है।

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        जो लोग कह रहे कि यह फ़िल्म प्रत्येक हिन्दू को देखना चाहिए मैं उनसे असहमत हूँ। प्रत्येक भारतीय को यह फ़िल्म देखना चाहिए।

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        (डॉ गौरव तिवारी ने दी कश्मीर फाइल्स फिल्म देखकर यह त्वरित प्रतिक्रिया की। यह कई मायने में एक बेहतरीन समीक्षा है। वह कथावार्ता के लिए लिखते रहे हैं। आप उनकी इस समीक्षा पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत अवश्य कराइएगा।)


-एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी

(सम्बद्ध) गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर

 

सोमवार, 28 जून 2021

Kathavarta : तांडव का सॉफ्ट वर्जन है ग्रहण

-डॉ रमाकान्त राय 

डिजनी हॉटस्टार पर हालिया प्रदर्शित वेब सीरीज #ग्रहण (#Grahan) मशहूर लेखक सत्य व्यास की औपन्यासिक कृति "चौरासी" पर केंद्रित है। देश में 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी। उसके बाद कांग्रेस दल के कार्यकर्ताओं ने अगले दो दिन तक देश भर में सिख समुदाय के लोगों को चिह्नित कर मारा। उनके घर जला दिएमहिलाओं के साथ बलात्कार किया और बच्चों को जलती आग में झोंक दिया। केन्द्रीय नेतृत्व मूक बधिर बना रहा। नव नियुक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो आसपास कंपन होता ही है। यह एकतरह से खुली छूट थी। अकेले दिल्ली में पांच हजार से अधिक सिख मारे गए।

कालांतर में 1984 के इस नरसंहार को "सिख दंगा" कहा गया और इसे सांप्रदायिक हिंसा के रूप में देखे जाने के लिए विमर्श किया। आज भी एकतरफा किए गए इस कत्लेआम को बुद्धिजीवी "दंगा" कहते और लिखते हैं।

हिन्दी में 1984 के सिख नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखे गए साहित्य का अभाव है। राही मासूम रज़ा के असंतोष के दिनअजय शर्मा के नाटक ऑपरेशन ब्लू स्टार आदि को छोड़ दिया जाए तो कुछ भी ढंग का नहीं लिखा गया है। बनारस टाकीज और दिल्ली दरबार से लोकप्रिय हुएलुगदी लेखक सत्य व्यास का उपन्यास चौरासी इसी नरसंहार को केंद्र में रखकर लिखा गया है जिसपर आठ एपिसोड का वेबसीरीज "ग्रहण" डिजनी हॉटस्टार पर प्रदर्शित हुआ है।

सिख नरसंहार केवल राजधानी दिल्ली में नहीं हुआ था। इसकी लपटें पूरे देश में उठीं। ऑपरेशन ब्लू स्टार अर्थात अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में अलगाववादी खालिस्तानी समर्थक भिंडरावाला को पकड़ने के अभियान के बाद सिख समुदाय आक्रोशित था। सांप्रदायिक मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप ने स्थितियों को गंभीर बना दिया था। इसके भयंकर दूरगामी परिणाम हुए।

सिख नरसंहार ने अब के झारखण्ड प्रांत के औद्योगिक नगर बोकारो में भी अपनी छाप छोड़ी थी। बोकारो में उस अवधि में जो कुछ हुआउसी को आधार बनाकर यह वेबसीरीज बनाई गई है। घटना के लगभग बत्तीस वर्ष बाद भी उस नरसंहार की जांच पूरी नहीं हो पाई। 2016 में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में इस नरसंहार के लिए एक एस आई टी बिठाई जाती है।

          इससे पहले रांची में एक पत्रकार की हत्या की जाती हैजो बोकारो सिख नरसंहार पर रिपोर्ट बना रहा था। तब एसपी अमृता सिंह इसके साजिशकर्ताओं तक पहुंचना चाहती हैं किंतु अदृश्य कारकों के दबाव में उन्हें इस मामले से हटा दिया जाता है और 84 के "दंगो" की जांच के लिए बनाई कमेटी का मुखिया बना दिया जाता है। उसके अनुक्रम में भी उथल पुथल चलती रहती है।

कहानी में एक प्रेमकथा 1984 की है और एक 2016 की। हिन्दी फिल्मेंवेबसीरिज गानों और प्रेम के लटको झटकों में खूब रमती हैं। यह भी उसका शिकार हुई है। जैसे तैसे यह प्रेम आगे बढ़ता है और कई मीठे दृश्यों का सृजन करता हैलेकिन वह तो अवांतर कथा है।

मूल कथा हैराजनीति। हिन्दी फिल्में राजनीतिक पटकथाओं का सबसे घटिया स्वरूप प्रस्तुत करती हैं। जब मैं इसे तांडव का सॉफ्ट वर्जन कहता हूं तो आशय यही है कि तांडव जिस तरह लचर राजनीतिक कहानी का उदाहरण हैग्रहण भी। यदि घटना सत्य हैदेश और काल वही हैं तो राजनीतिक हस्तियां भी वास्तविक होनी चाहिए क्योंकि वह एक संवैधानिक पद धारण करते हैं। हम सत्य घटना पर साहित्य निर्मित करेंगे तो रांचीबोकारोझारखंड, 84, 2016 आदि सही रखकर मुख्यमंत्रीविपक्ष के नेता आदि का नाम केदार और संजय कैसे कर सकते हैंलेकिन खैर!

जैसे तांडव में एक एजेंडा रखकर पटकथा लिखी गई थी और छात्र राजनीति,किसान आंदोलनफर्जी मुठभेड़उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आदि को बहुत आसमानी किताब के आधार पर बढ़ाया गया थाग्रहण में भी। इसमें भी राजनीति की दुरभिसंधियां हैंप्रशासनिक भ्रष्टाचार हैदलित और मुस्लिम उभार है। नरसंहार की बजाय दंगा कहना भी एक सॉफ्ट प्वाइंट है। सामुदायिक गोलबंदी और हिंसा का सरलीकरण है। यह सब तांडव में भौंडे तरीके से थाग्रहण में सॉफ्ट।

Review of Grahan In Hindi

सिखों के साथ हुए दुर्व्यवहार को सामुदायिक हिंसा के रूप में दिखाने का प्रयास हुआ है। सामुदायिक गोलबंदी के लिए सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार वाले वीडियो सर्कुलेट करने आदि को जिम्मेदार ठहराया गया है। यह सब इतना सरलीकृत और छिछला है कि जी उचट जाए।

मैंने सत्य व्यास की लिखी पुस्तकें देखी हैंउनकी समीक्षाएं पढ़ी हैं और मुझे विश्वास था कि वह लुगदी साहित्य के लेखक हैं। लुगदी लेखक कहने का आशय यही है कि इनके लिखे हुए में तार्किकता और सुचिंतित विचार सरणी का सर्वथा अभाव रहता है। यह एक विशेष वर्ग को ध्यान में रखकर लिखा जाता है और इसमें एक विशेष एजेंडा निहित रहता है। जाने अनजाने ही यह सब आ जाता है। कई बार अतिरिक्त और अनावश्यक मसाला डालने के बाद व्यंजन जिस तरह अरुचिकर और हानिकर हो जाता हैलुगदी वाले भी वही परोसते हैं।

          ग्रहण प्रेम के कुछ लटके झटके वाले दृश्यों में मधुर है किन्तु उतना ही जितना हम एक कौर बहुत रंगीन/ऊपर से स्वादिष्ट दिखने वाले डिश को देखकर मुंह में रखते हैं। ज्योंहि हमारी इंद्रियां सक्रिय होने लगती हैंखाद्य अरुचिकर बन जाता हैउसी तरह इस वेबसीरिज के भी।

    इस वेबसीरिज में पात्रों का अभिनय स्तर ठीक ठाक है। पात्रोंपवन मल्होत्राज़ोया हुसैनअंशुमान पुष्करवमिका गब्बीटीकम जोशीसत्यकाम आनंद ने खूब परिश्रम और लगन से अपनी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्मांकन भी स्तरीय है। अनावश्यक दृश्य हैं किंतु उनमें भौंडापन और अश्लीलता नहीं है।

इसमें झारखंड के निवर्तमान मुख्यमंत्री (केदार) हेमंत सोरेन की इमेज बिल्डिंग की गई है और उन्हें शिबू सोरेनपिता के छाया से निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित दिखाया गया है। इस क्रम में न चाहते हुए भी शिबू सोरेन को तिकड़मी और असहाय दिखाना पड़ा है। सत्य व्यास ने कहानी लिखते हुए इस पहलू पर विशेष राजनीतिक पक्ष रखा है। इंदिरा गांधी को भी भाषण करते दिखाया गया है और इसमें भी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता का अभाव है।

ग्रहण को कितना रेट करें। पांच अंक के अधिकतम में मैं इसे ढाई अंक इसलिए दूंगा कि इसने सॉफ्ट वर्जन बनाने में अपनी मेधा प्रदर्शित की है। उस तरीके के लूप होल्स नहीं छोड़े हैंजैसा कि तांडव आदि में है। इस नरसंहार को दंगा कहने के लिए तो मैं दो अंक काट लूंगा। नायक ऋषि रंजन बहुत तीक्ष्ण बुद्धि और हरफन मौला है किंतु मृतक आश्रित की नौकरी के लिए चप्पलें घिस रहा हैवह भी 1984 में! यह सब अविश्वसनीय और इतिहासबोध के अभाव में है। वस्तुत: जिस दृष्टि संपन्नता से गंभीरता आती है और रचना बड़ी हो जाती हैवही लुगदी साहित्य में विलुप्त हैइसलिए ग्रहण पर उसकी छाया भी दिखती रहती है। इसका निर्देशन रंजन चंदेल ने किया है।

 

असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

206001, royramakantrk@gmail.com

9838952426

(जुड़ियेहमारे यू ट्यूब चैनल से-   कथावार्ता सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष)

बुधवार, 20 जनवरी 2021

तांडव : हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।

-----__-डॉ रमाकान्त राय

चौतरफा निन्दा, विरोध-प्रदर्शन और विभिन्न राज्य सरकारों, विशेषकर उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा संज्ञान लेकर प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद इस सीरीज के निर्माता निर्देशक अली अब्बास जफर ने क्षमा मांगी है और कहा है कि इस वेबसीरीज के विवादित अंशों को हटा दिया जाएगा।

          सबसे पहले तांडव पर धार्मिक भावनाएं भड़काने, हिन्दू देवताओं के बारे में घटिया प्रस्तुति करने का आरोप लगा और जब यह रिलीज हुई तो देखा गया कि इस फिल्म में लगभग हर वह विषय उठाया गया है जिससे संवेदनशील और देश को प्यार करने वाले लोग उत्तेजित हों और इसकी चौतरफा निन्दा करें। इसके साथ ही लिबरल्स और कुछ स्वघोषित एक्टिविस्टों को लामबंद कर लिया गया है कि वह इसका समर्थन करें।

          तांडव अपने उद्देश्य में सफल रही है और इस बहाने से इस वेबसीरीज़ को पर्याप्त दर्शक मिल गए हैं, जबकि यह एक घटिया, बेसिरपैर की कहानी वाली, अतार्किक और वाहियात वेबसीरीज़ है। imdb पर इसे 10 में 3.4 अंक मिला है, जो इसके स्तर का सहज परिचायक है।

          तांडव का पहला एपिसोड तानाशाह ही कई विवादित विषयों को छू लेता है। किसान आंदोलन, मुस्लिम समुदाय के लड़कों का एनकाउंटर, पुलिस की मिली भगत, जेएनयू आजादी विवाद, कैम्पस में पुलिस का प्रवेश और तोड़फोड़, राजनीति में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और चुनाव के तिकड़म आदि-आदि। सैफ अली खान के रूप में जो युवा नेता उभरता है, वह अपने दो बार प्रधानमंत्री रह चुके पिता का हत्यारा है। कौन हो सकता है यह चरित्र? भारतीय राजनीति के तमाम घटनाक्रमों को एक साथ रखकर देखें तो यह समझ में आ जाता है कि किसने राजीव गांधी की हत्या करवाई, फिल्म में आई अनुराधा किशोर कौन है, उसका पुत्र जो अफीमची है, उसकी लत का सम्बन्ध किस राजनेता से है। सैफ अली खान किस राजनेता का कितना अंश लेकर चलता है। लेकिन कई घटनाक्रमों को इस तरह से फेंट दिया गया है कि सब गड्डमड्ड हो गया है। वैसे इस वेबसीरीज़ को देखते हुए जिन्हें वास्तव में शर्मसार होना चाहिए, जाने कैसी विवशता है कि वह समर्थन में हैं। जॉन एलिया का शेर है- "हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।"

#तांडव

तांडव के आरंभ में ही प्रधानमंत्री अंजनी यह स्वीकार करते हैं कि अपने कार्यकाल में हमने लोगों को बांटने के लिए गलतियां की हैं लेकिन "तानाशाही" नहीं की। अगर उनका पुत्र समर प्रताप सिंह नेता बना तो वह तानाशाह बनेगा और "लोकतंत्र खत्म कर देगा"। और फिर चुनाव परिणाम घोषित होने के पूर्व ही समर प्रताप सिंह अपने पिता को एक ऐसा जहर देकर मार देता है, जिसका अवशेष पोस्ट मार्टम में भी नहीं मिलता। फिर सत्ता का तिकड़मी संघर्ष आरंभ होता है, जिसमें अनुराधा किशोर हावी हो जाती है।

          सत्ता के तिकड़मी संघर्षों के समानान्तर देश के सबसे चर्चित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (वेब सीरीज में विवेकानन्द विश्वविद्यालय) में छात्रसंघ की राजनीति और लड़कीबाजी आदि फीस वृद्धि  जैसे जन सरोकार के मुद्दों की छौंक के साथ चलती है। वस्तुतः निर्देशक और कथाकार दिग्भ्रमित है कि उसे किस प्रकरण को हाईलाइट करना है। इसलिए किसानों के आंदोलन और दो मुसलिम युवकों के सत्ता प्रायोजित हत्या के प्रतिरोध में उभरे शिवा को छात्रनेता के रूप में चुनाव, हिंसा, सेक्स आदि का आइकन बनवाया गया है। वह यूपीएससी करना चाहता था किन्तु सत्ता के शीर्ष पर बैठा समर प्रताप उसे बताता है कि मंत्री बनकर वह आदेश देगा और नियंत्रित करेगा जबकि अफसर बनकर आदेश सुनेगा और उनका अनुपालन करवाएगा। शिवा नेता बनना स्वीकार करता है किन्तु वह निश्चित करता है कि वह एक नए दल का निर्माण करेगा। उसके नए दल का नाम है- तांडव।

          संसदीय लोकतन्त्र की प्रणाली, मंत्रिमण्डल का गठन, शासन और सत्ता की कार्यप्रणाली, तथा छात्रसंघ चुनाव, संगठन का काम, आंदोलन, संघर्ष आदि के तमाम विषय इस सीरीज में इतना सतही तरीके से आया है कि एकबारगी लगता नहीं कि इसे गौरव सोलंकी ने लिखा है। निर्देशक अली अब्बास जफर की बौद्धिक क्षमता तो पप्पू सरीखी है, इसलिए उसपर कोई बात करने का मतलब नहीं। हम अभिनेताओं से भी इसकी अपेक्षा नहीं करते हालांकि उन्हें इतनी बुनियादी बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। छात्रसंघ के चुनाव में प्रक्रियागत जो त्रुटियाँ हैं, अगर उन्हें उपेक्षित भी कर दिया जाये तो भी यह बात बहुत खटकती है कि सभी छात्रनेता अपने भाषण में विश्वविद्यालय की जगह “कालेज” की बात करते हैं, जैसे कालेज की फीस नहीं बढ़ने देंगे, कालेज में सीट कटौती नहीं होने देंगे आदि। छात्रसंघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ने वाला कालेज की बात कर रहा है, इसका सीधा आशय यह है कि पात्र अपने कैरेक्टर से कितना दूर हैं।

तांडव : हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर/ सोचता हूँ तेरी हिमायत में।

          तांडव से जुड़े हुए सभी कलाकार, निर्देशक, कथाकार आदि सांस्कृतिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनपर तरस आता है। शिवा का वीएनयू के सांस्कृतिक केंद्र में नाट्यप्रस्तुति के दौरान शिव और राम का संवाद हो अथवा हत्या के समय टीवी के बड़े स्क्रीन पर चल रहा प्रवचन, सब पिष्टपेषण प्रतीत होता है। निर्देशक इतना लल्लू है कि मृत्यु के बाद अस्थियाँ विसर्जित करने की क्रिया के फिल्मांकन में सुनील गोबर द्वारा अन्त्येष्टि स्थल से बाकायदा हड्डी निकलवाता है। अली अब्बास जफर अथवा टीम का कोई भी सदस्य इस संस्कार के बारे में नहीं जानता, यह पक्का है। इसमें चाणक्य नीति को ऐसे समझा गया है जैसे वह लौंडे-लफाड़ियों का काम है। दलित अस्मिता को भी फूहड़ तरीके से पेश किया गया है।

          इस एपिसोड में स्थानों के नाम ऐसे रखे गए हैं कि आसानी से चिह्नित किए जा सकें। मसलन जेएनयू को वीएनयू, गोमतीनगर को बोमती नगर, एम्स और सीएनएन के लिए भी ऐसे ही मिलते जुलते नाम रखे गए हैं ताकि आसानी से उनका साम्य स्थापित किया जा सके। लेकिन खान मार्किट मेट्रो स्टेशन को ज्यों का त्यों रहने दिया गया है। यह सब एक कूटनीति के तहत हुआ है ताकि एजेण्डा सेट किया जा सके।

          इस वेब सीरीज में दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र दलित अस्मिता, छात्र राजनीति, यूपीए का शासन, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वर्तमान शासन, पुलिस, प्राध्यापक, चिकित्सकों आदि सब पर भोंडा व्यंग्य किया गया है और उनका न सिर्फ सरलीकरण किया गया बल्कि लोगों को भी अव्वल दर्जे का अहमक़ मानकर फिल्मांकन हुआ है। इस सोच के साथ कि औसत से नीचे का व्यक्ति शासन, सत्ता, तिकड़म, विश्वविद्यालय, छात्रसंघ, आंदोलन, सोशल मीडिया, हत्या आदि को ऐसे ही कृत्रिम तरीके से सोचता है और जानता है कि चीजें बहुत सपाट तरीके से चलती जाती हैं। जबकि जीवन इतना सरल और एकरेखीय नहीं है।

          तांडव बनाते हुए निर्देशक और टीम के लोगों का उद्देश्य ही था कि इसे विवादग्रस्त करना है, अतः इसे 18+ के प्रमाणपत्र के साथ लिया गया। जबकि इसमें हिंसा, सेक्स आदि के वैसे कंटेन्ट नहीं हैं। अलबत्ता अनावश्यक दृश्य अवश्य हैं। धूमपान और शराबखोरी को अनावश्यक फुटेज दी गई है और प्रधानमंत्री निवास को अय्याशी का अड्डा दिखाया गया है। यह सब कुछ निहायत बकवास और बचकाना है।

          चूंकि तांडव पर पर्याप्त चर्चा हो गयी है और इसे महज धार्मिक भावना भड़काने वाला मानकर प्रतिबंधित करने की बात हो रही है तब मुझे डॉ गौरव तिवारी की यह टिप्पणी बहुत सटीक लगी। वह लिखते हैं- “ताण्डव का सिर्फ धार्मिक कारणों से विरोध गलत है। यह पूरी सीरीज जहर है। इसमें जाति का जहर है, सम्बन्धों का और आइडियालोजी का भी। सीरीज में जो राजनीति है वह गटर वाली राजनीति है। इस सीरीज का निर्माण मनोरंजन के लिए नहीं समाज में नफरत और जहर फैलाने के लिए किया गया है। #बायकॉट_ताण्डव

          तांडव को कथावार्ता की फिल्म समीक्षा में पाँच में से ऋण 4 अंक।

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावा, उ०प्र०

9838952426, royramakantrk@gmail.com

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

कथावार्ता : सबको साधने में बिखर गया मिर्जापुर का सीजन -2

क्या सबको साधने में मिर्जापुर-2 बिखर गया हैनवरात्रि में मिर्जापुर-2 के अमेज़न प्राइम पर जारी होने का दबाव इस वेबसीरीज़ पर रहा हैनवरात्रि में स्त्री सशक्तिकरण के पारंपरिक विमर्श से इस नए सीजन को जोड़ने की कोशिश हुई हैबीते दिनों में आपत्तिजनक कहे जाने वाले प्रसंगों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरती गयी हैसोशल मीडिया के ट्रेण्ड्स हावी हुए हैंबीते दिनों के ज्वलंत मुद्दों को ध्यान में रखकर प्रसंगों को गढ़ा गया है और विवादित होने से बचाने के सभी प्रयास किए गए हैंअमेज़न प्राइम पर मिर्जापुर का सीजन -2 देखते हुए अनेकश: ऐसे खयाल उभरते हैं।

अमेज़न प्राइम पर मिर्जापुर का सीजन -2 दस बड़े अंकों (एपिसोड) के साथ कल देर शाम जारी हो गया। मिर्जापुर का आरंभिक सीजन बहुत लोकप्रिय हुआ था और कसे हुए कथानकउत्तम अभिनय और चुस्त संवाद के लिए जाना गया। अपराध की दुनिया को केंद्र में रखकर बुने गए कथानक में हिंसासेक्स और गालियों के छौंक से वह ठीक ठाक मसालेदार भी बना था। दूसरा सीजन कालीन भैयामुन्ना त्रिपाठीगुड्डू पण्डितशरद शुक्ला के आपसी गैंगवार में अपना क्षेत्र विस्तार करता है और अब इसका क्षेत्र मिर्जापुर से आगे जौनपुरलखनऊ के साथ-साथ बलियासोनभद्रगाजीपुरगोरखपुर गो कि समूचे पूर्वाञ्चल को समेट लेता है और अफीम के अवैध व्यापार का क्षेत्र बिहार के सिवान तक जा पहुँचता है। इस क्रम में कुछ नए माफियाओं का उदय होता है जिसमें सिवान का त्यागी खानदान और लखनऊ में रॉबिन की विशेष छाप है।


          पिछले सीजन के अंत तक यह बात समझ में आने लगती है कि माफियाओं की दुनिया में महिलाओं का प्रवेश होने वाला है। कालीन भैया की पत्नी की महत्वाकांक्षा ज़ोर पर है, जौनपुर में शुक्ला के मरने के बाद उसकी विधवा यह जिम्मा लेती है। गुड्डू पण्डित के साथ उसके छोटे भाई की मंगेतर है और छोटी बहन। सीजन दो में मुख्यमंत्री की विधवा पुत्री माधुरी यादव का अवतरण है जो मुन्ना त्रिपाठी की आकांक्षाओं को पंख देती है और सत्ता-संघर्ष में सबको पीछे छोडते हुए मुख्यमंत्री बन जाती है।

          सीजन दो में महिलाओं के प्रवेश और उनके हस्तक्षेप से यह सहज समझ में आने लगता है कि निर्माता इसमें स्त्री सशक्तिकरण का अध्याय जोड़ना चाहते हैं। माफियाओं की दुनिया में लड़कियाँ अग्रणी भूमिका में हैं। लगभग हर गिरोह में स्त्री शक्ति की भूमिका बन गयी है। उनकी महत्वाकांक्षा चरम पर है लेकिन सभी प्रसंग मिलकर भी कोई विशेष छवि नहीं गढ़ पाते। सारी कवायद संतुलन बनाने के लिए की गयी है और अगर वह बिखर नहीं गयी है तो वह कसाव नहीं बना पाई है, जो उदघाटन वाले सीजन में था।

          मिर्जापुर का सीजन -2 अपना क्षेत्र विस्तार करता है और लखनऊ समेत पूर्वाञ्चल के अन्यान्य जिलों में भी इसका कथानक पहुँचता है और बिहार के सिवान तक भी लेकिन सिवान और बलिया को छोडकर किसी अन्य जनपद की कोई विशेष उल्लेखनीय परिघटना नहीं मिलती। गाजीपुर का नाम अफीम के खेत के सिलसिले में उभरता है और बलिया का बिहार से सटे निकटवर्ती जनपद और गुड्डू पण्डित के ताज़ा अड्डे से जुड़कर। लखनऊ का इसलिए कि वह राजनीतिक घट्नाक्रमों का केंद्र है और रॉबिन का अवतरण स्थान। क्षेत्र विस्तार करने में सिर्फ नाम दे दिये गए हैं। किसी अन्य स्थानीय विशेषता से यह प्रकट नहीं होता कि पात्र बिहार में है अथवा जौनपुर में। यहाँ तक कि भाषिक भिन्नता भी रेखांकित नहीं की जा सकेगी।

          इस सीजन का सबसे लचर पक्ष राजनीतिक उठापटक है। मुख्यमंत्री बनने की लालसा में जेपी यादव अपने बड़े भाई और पुनर्निर्वाचित मुख्यमंत्री को मरवा देता है। जे पी यादव पिछले सीजन में मिर्जापुर की गद्दी दिलवाने के लिए राजनीतिक एजेंट की भूमिका में था जो इस बार मुख्यमंत्री बनने के लिए हर हथकंडे अपनाता है। लेकिन शपथ ग्रहण से पूर्व उसको जिस तरह से पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निष्काषित किया जाता है वह सबसे अविश्वसनीय पहलू है। फिर माधुरी यादव त्रिपाठी- माधुरी यादव मुन्ना त्रिपाठी की ब्याहता बनने के बाद मुख्यमंत्री पिता के मरने के बाद इसी रूप में आती हैं- विधायक दल की बैठक में अपना नाम स्वतः प्रस्तावित करती हैं। कालीन भैया भी मुख्यमंत्री बनने की रेस में हैं और प्रथमद्रष्टया तो लगता है कि माधुरी उनका नाम ही प्रस्तावित करेंगी। लेकिन इस सीजन के कथानक बुनने वालों ने राजनीतिक उठापटक को इतना एकरैखिक बनाया है और इस विषय पर इतना कम शोध किया है कि यह समूचा प्रकरण अतिनाटकीय और यथार्थ से बहुत परे चला गया है।

          सिवान का क्षेत्र इस सीरीज में दद्दा त्यागी के कारण उल्लेखनीय हो गया है। बिहार में शराबबंदी लागू है लेकिन दद्दा धड़ल्ले से उसका अवैध व्यापार कर रहे हैं। उनके दो बेटों में छोटे को भी सम्मान पाने की लालसा है। वह स्मैक का धंधा ले आता है जबकि दद्दा त्यागी ने संकल्प किया है कि वह अफीम के धंधे में नहीं उतरेगा क्योंकि उसका नाटा कद इसी नशे के कारण है। त्यागी अधिकांशतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वर्चस्व वाले हैं। इस सीरीज में वह सिवान में हैं, यह बात भी थोड़ी अटपटी लग सकती है।


         मिर्जापुर का सीजन -2 अंतत: गैंगवार और सत्ता संघर्ष है। आखिरी अंक में यह निर्णायक संग्राम होता है जिसमें मुन्ना त्रिपाठी मारा जाता है। कालीन भैया को शरद ने बचा लिया है लेकिन वह कब तक और किन शर्तों पर बचेंगे, यह अगले सीजन के लिए छोड़ दिया गया है। माधुरी के लिए वैधव्य ही नियति है। कालीन भैया को मंत्रीपद मिला है लेकिन पिता की मृत्यु के बाद वह जिस तरह अंतिम संस्कार करने पहुँचते हैं, वह यथार्थ से बहुत दूर की कौड़ी है।

          इस सीरीज के दस अध्यायों के नामकरण में भी कोई खास रचनात्मक विशेषता नहीं झलकती। इस सीरीज के अध्यायों में एक और खटकने वाली बात है कि सिवान, बलिया, जौनपुर से मिर्जापुर या लखनऊ तक पहुँचने की दूरी पलक झपकते पूरी कर ली जाती है। कोई पात्र मिलने की इच्छा प्रकट करता है और यह मिलन हो जाता है। यह इतना सहज है जैसे एक मुहल्ले से दूसरे तक का सफर करना हुआ हो। अतः यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि इस वेबसीरीज़ में कई पक्षों को साधने की कोशिश असफल हुई है और यह बिखर गया है।

          तमाम अव्यवस्थाओं और शिथिलताओं के बावजूद मिर्जापुर का सीजन -2 पंकज त्रिपाठी, अली फज़ल, दिव्येंदु शर्मा, ईशा तलवार, कुलभूषण खरबन्दा, श्वेता त्रिपाठी के दमदार अभिनय और कथाजनित सस्पेंस से दर्शनीय बन गया है। इसे एक बार तो देखा ही जा सकता है!

 

डॉ रमाकान्त राय

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश 206001

9838952426, royramakantrk@gmail.com


शनिवार, 18 जनवरी 2020

कथावार्ता : तान्हाजी- वीर योद्धा की अप्रतिम कहानी

    
     मुझे तान्हाजी अच्छी लगी।

       इसमें सबसे दिलचस्प प्रसंग चुत्या वाला है। जब चुत्या दगाबाजी कर उदयभान के पास जाता है तो उदयभान उससे नाम पूछने के बाद उच्चारण ऐसे करता है कि यह नाम एक गाली की तरह गूँजने लगता है।- हर भितरघाती 'चुत्या' है।
      फ़िल्म में सब अपने निजी एजेण्डे के साथ हैं। उदयभान इसलिए औरंगजेब के साथ हो गया है कि उसके प्यार को ठुकराया गया है। उसका अजीज साथी जगत सिंह अपनी बहन को छुड़ाने के लिए उदयभान के साथ है (हालांकि यह प्रसंग अस्वाभाविक सा है)। औरंगजेब की चिन्ता भारत को एकछत्र में करने की है और वह किसी का उपयोग कर सकता है। फ़िल्म में उसकी भूमिका नाहक है। उदयभान एक टूल भर है।
        तान्हा जी वीर है। उसने अपने पिता से 'स्वराज' देने का वायदा किया है। मराठा उस किले को जीतना चाहते हैं जिसे एक संधि के तहत शिवाजी को देना पड़ा है। यह संधि होने के बाद किले को वापस लेने का कारण ठीक से कहानी में नहीं जुड़ पाया है। जिस शिवाजी ने किला संधिवश दिया था, वह वापस क्यों पाना चाहते हैं और इसका क्या परिणाम होगा, इसकी तरफ संकेत भी नहीं है। तान्हा जी अतिउत्साही है। वह उदयभान को देखने के लिए नाटकीय तरीके से चुत्या को मार देता है। उसे कारावास मिलता है, जहां से वह भागता है। यह कहानी भी अतिरंजित है।
         तान्हा जी उसके बाद अपनी सेना के साथ अष्टमी की तिथि पर आक्रमण करता है- उदयभान अपने साथ लाये हुए तोप 'नागिन' को अंत तक नहीं चला पाता। यह इस फ़िल्म की कई विडंबनाओं में से एक है।
लेकिन तान्हा जी एक विशिष्ट फ़िल्म है। यह अपने 3D रूप में बहुत अच्छे से बाँधती है। हमें अचंभित करती है। उन सैनिकों के पराक्रम से अभिभूत करती है। हमें अपनी कुर्सी से चिपकाए रखती है और उन वीरों से अच्छे से कनेक्ट करती है।
           अगर 'तान्हाजी' फ़िल्म पर इसका दबाव नहीं रहता कि इस फ़िल्म को विवाद रहित बनाना है तो यह फ़िल्म बेहतरीन बन जाती। इसमें फिल्मकार पर दबाव है कि वह प्रतिपक्ष को अतिरंजित तो क्या, सच स्वरूप में भी न दिखाए इसलिए वैसे दृश्य नहीं आये हैं, जिसे हम मुगल सेना का अत्याचार मान लें और कहें कि 'स्वराज' आवश्यक है। उदयभान का अत्याचार भी नहीं दिखता। वह एक प्रशासक है। प्रशासन को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए उसे क्रूर बनना पड़ता है। ऐसा होने पर भी वह धोखा खा जाता है। 
         तो यह कि फिल्मकार भारी दबाव में दिखा मुझे, यद्यपि वह 'हर हर महादेव', 'भगवा', 'हिन्दू', 'जय श्रीराम' 'स्वराज' और 'आजादी' जैसे पदों का खूब प्रयोग करता है। तान्हाजी एक प्रसंग में आजादी छिनने की बात करता है और वही हमारे लिए एक सूत्र है। लेकिन हम दर्शकों के लिए फ़िल्म में 'सूत्र' उतना मायने नहीं रखता जितना एक मार्मिक प्रसंग।
         मैंने 'रजिया सुल्तान' देखी तो इसका रूप देखा। फिल्मकार को इल्तुतमिश की सदाशयता दिखानी थी, उसके बेटे की अय्याशी दिखानी थी तो उसने एक प्रसंग गढ़ा था। तान्हाजी में शिवाजी और औरंगजेब से सम्बद्ध एक भी प्रसंग नहीं हैं। कल्पना और विज़न यहीं समझ में आते हैं।


  तान्हाजी का दृश्यांकन अच्छा है। यह फ़िल्म 3D तकनीक में अच्छी है। कुछेक दृश्य तो बहुत शानदार हैं। यह देखने के लिए ही इस फ़िल्म को देखना चाहिए। यह देखने के लिए भी यह फ़िल्म देखनी चाहिए कि इतिहास में बहुत से योद्धा पन्नों में खो गए हैं। तान्हाजी भी उनमें से एक हैं। उनकी बहादुरी हमारी स्मृति में अंकित हो जाएगी।
        फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि इसमें आजादी और स्वराज का मतलब समझाने की कोशिश हुई है। खेद की बात है कि देश भर में डफली बजाकर आजादी मांगने वाला 'टुकड़े टुकड़े गैंग' इसे देखकर चिढ़ता है।
        यह फ़िल्म देखते हुए मुझे यह बात परेशान करती रही कि महाराष्ट्र में शिवाजी को लेकर राजनीति करने वाली शिवसेना और उसके सुप्रीमो उद्धवजी बाला साहेब ठाकरे इस फ़िल्म को लेकर कितना दबाव में होंगे। वह इसे टैक्स फ्री नहीं कर पा रहे। उत्तर प्रदेश और हरियाणा ने टैक्स फ्री कर थोड़ा दबाव और बढ़ा दिया है। वैसे मेरा मानना है कि वह फिल्में टैक्स फ्री नहीं होनी चाहिए जिनमें अभिनेता मोटी रकम वसूल करते हैं।
           अंत में, सबका अभिनय अच्छा है। सैफ़ अली खान का अभिनय थोड़ा नाटकीय हो गया है इसलिए वह हल्का हो गया है। अजय देवगन से ज्यादा गंभीर किरदार शिवाजी का बना है लेकिन उसमें स्पेस नहीं है।
           
           सबको यह फ़िल्म जरूर देखना चाहिए!

गुरुवार, 27 मार्च 2014

आत्मसाक्षात्कार कराती फिल्म- अ थाउजेंड वर्ड्स


क्या हो अगर आपको अचानक एक दिन पता चले कि आपके पास बोलने या लिखने के लिए महज एक हजार शब्द हैं। आप एक तथाकथित सेलिब्रेटी हैं। या कि सेलिब्रेटी नहीं हैं और रोजमर्रा के जीवन के लंद-फंद में उलझे हैं। जीवन के ऐसे लंद-फंद में जहाँ अपने लिए, अपने परिवार के लिए समय न हो। सवाल थोडा मुश्किल है। इसलिए ज्यादा मुश्किल है कि यह अप्रत्याशित सा प्रश्न है। बेतुका लगने वाला। लेकिन सोचें, सोचें कि अगर ऐसा हो जाए तो.....

ब्रायन रॉबिन्स की फिल्म अ थाउजेंड वर्ड्स (2012) इसी को आधारभूमि बनाती है। वैसे तो यह फिल्म एक कॉमेडी है लेकिन थोड़े समय के लिए हम फिल्म से बाहर निकल आयें और सोचें कि काश हमारे जीवन में ऐसा क्षण आ जाये तो। तो यही कि ऐसे समय में हमारा बोलना, लिखना कम, बेहद कम हो जायेगा। हम हमेशा सचेत रहेंगे कि हमें क्या कहना है और क्या नहीं कहना है। तब कम बोलते हुए और ज्यादातर चुप रहकर हम आत्मसाक्षात्कार करते हैं। इस आत्मसाक्षात्कार में हम निखालिस खुद को पाते हैं। इस स्व की तलाश एक बड़ा अन्वेषण है, जिसे भारतीय दर्शन हमेशा से गोहराता रहा है। भारतीय दर्शन के इस थीम पर पश्चिम में फ़िल्में बन रही हैं।

फिल्म में एक वृक्ष को प्रतीक के तौर पर रखा गया है। अभिनेता जैक यानि एडी मर्फी एक बहुत बड़ी प्रकाशक संस्था में सफल एजेंट है जो अपनी शर्तों पर डील करने में माहिर है। वह बेहद वाचाल है और वाक्पटु भी। अपनी वाकपटुता और स्किल से वह बेहद सफल भी है। लेकिन इस चक्कर में वह लगातार अपने परिवार की उपेक्षा करता है अथवा महज रस्म-अदायगी करता है। डील करने का उसका तरीका भी बेहद दिलचस्प है। वह किताब को एक फार्मूले के तहत जज करता है। बहरहाल, वह सफल एजेंट है। वह इसी तरह की डील करने एक आध्यात्म गुरु के पास पहुँच जाता है, जहाँ वह डील करने में तो सक्षम हो जाता है लेकिन प्रकाशन के लिहाज से यह अटपटा सा लगने वाला होता है। उसे बहुत छोटी महज पाँच पृष्ठ की एक किताब मिलती है। और उसके आंगन में एक पेड़ उग आता है, जिसमें कुल एक हजार पत्तियां हैं। अब ताजा हालात यह है कि वह जब भी कुछ बोलता या लिखता है, प्रत्येक शब्द पर एक पत्ती गिर जाती है। आध्यात्मिक गुरु उसे इसका राज बताते हैं।


आप अंदाजा लगा सकते हैं कि यह कितना हैरानी भरा वाकया होगा, जब एक महाबातूनी व्यक्ति के समक्ष यह संकट खड़ा हो जाए। क्रमशः उसकी नौकरी, परिवार सब उससे बिछड़ जाते हैं। वह बताने की कोशिश करना चाहता है लेकिन बताने के एवज में उसे पत्ते खोने पड़ते हैं। पत्ते खोना एक तरह से जीवन खोना है। तब वह चुप रहने की कोशिश के तहत अपने आप को जीता है। आत्मसाक्षात्कार करता है। इस आत्मसाक्षात्कार में उसे अपनी यादाश्त खो चुकी माँ मिल जाती है जो जैक के मिलने पर बार बार उसके पिता के नाम से संबोधित करती रहती थी। वह भी अपने बेटे में अपने पति की परछाई देखा करती थी लेकिन आत्मसाक्षात्कार करने के अनन्तर वह अपने बेटे के पृथक व्यक्तित्व को पहचान लेती है। वह अपनी पत्नी को भी वास्तविकता बताने के चक्कर में शब्द खरचता है। फिर उसे बोध होता है कि प्यार को वह बिना कहे भी जता सकता है। क्या जरूरी है कि हम शब्द का इस्तेमाल करें ही। आखिर में जब जैक को पता चलता है कि उसके पास बहुत कम शब्द बचे हैं तो वह बेहद समझदारी से अपने शब्दों को व्यक्त करता है और खरचता है। यह हमारे लिए भी एक सन्देश की तरह होता है।
एडी मर्फी एक जाने माने हास्य कलाकार हैं। हॉलीवुड में उनका सिक्का बोलता है। इस फिल्म में भी उनका काम लाजवाब है।

अरसा बाद एक बढ़िया फिल्म देखते हुए आँखें भर आईं। न जाने कितने उलजलूल शब्द हम दिन भर बकते और नष्ट करते रहते हैं। बिना सोचे समझे कि इनका क्या महत्त्व है। हमारे यहाँ बहुत शुरू से ही शब्द की महत्ता ब्रह्म के समकक्ष रखकर समझाई गयी है। यह सुखद और दुखद दोनों है कि शब्द के महत्त्व पर इस तरह चर्चा हो रही है। सुखद इसलिए कि पश्चिम का सिनेमा कॉमेडी के नाम पर एक सार्थक और वैदिकीय अनुकरण कर रहा है और दुखद इसलिए कि हम अपनी परम्परा से कटते जा रहे हैं।

अगर न देखी हो तो जरूर देखें।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

कथावार्ता : सिक्सटीन- सोलह बरस की साली उमर की फिल्म



Sixteen (सिक्सटीन) राज पुरोहित द्वारा निर्देशित २०१३ में आई बॉलीवुड फिल्म है। यह सोलह बरस की बाली उमर के मुकाबले सोलह बरस की साली उमर को रेखांकित करती है। जिस सोलह बरस की उमर को हिन्दी जगत में बहुत रोमानी कह कर गुणगान किया गया है, उस सोलह की उमर में शहरी क्षेत्र के युवा क्या सोचते हैं, कैसे जीते हैं, इस थीम को लेकर इसकी कहानी बुनी गयी है। जाहिर सी बात है कि इस फिल्म में जिन चरित्रों को लेकर कथा बढ़ाई गयी है, वे खाते-पीते घर के, तथाकथित अडवांस परिवार के बच्चे हैं। जिनके लिए सोलह की उमर सेक्स और अफेयर के आगे अगर कहीं है तो एक सेलिब्रेटी बनने की चाह में है। वे इस उमर में महत्वाकांक्षी इतने हैं कि कुछ भी कर गुजरते हैं, या कर गुजरने की हिम्मत रखते हैं। लेकिन हिम्मत भी ऐसी कि एक झटके में धसक जाय। खालिस आत्मकेन्द्रित।
सभी सोलह साला बच्चों की मूल चिन्ता में सेक्स है। कॉलेज जीवन में अक्सर, उनकी बातचीत उसी पर केन्द्रित है। कौन किससे फ्लर्ट कर रहा है? किसका अफेयर कहाँ तक पहुंचा और कौन असफल है?  इस दुनिया में षड्यंत्र हैं, असफलताएं हैं, प्यार भी है। सबका एक मोटो भी  है। लव, सेक्स और/या फ्रेंडशिप इसके केन्द्र में है। बच्चियाँ सिगरेट पी रही हैं, हुक्का भी। शराब पी रही हैं और लेट नाईट पार्टी में जा रही हैं। लड़के भी। लड़कियां अपनी वर्जिनिटी के टूटने को सेलिब्रेट कर रही हैं और उचित पात्र की तलाश में आपस में झगड़ा भी कर ले रही हैं।
सेक्स इस कदर प्रमुखता से जीवन में शामिल है बल्कि यह कहना चाहिये कि इस फिल्म में फोकस्ड है कि सभी गतिविधियाँ उसी से संचालित हैं। अभिनव झा काम/सेक्स से इस कदर फ्रस्टेट है कि पढ़ाई में फिसड्डी बन जाता है। इस वजह से उसकी पिटाई होती है। पिता को चिन्ता होती है तो वे इसकी गहराई में झांकते हैं, जहाँ उन्हें पता चलता है कि बच्चे के कंप्यूटर में ढेरों अश्लील सामग्री भरी पड़ी है। परम्परागत ख्याल वाले पिता इसे सहन नहीं पाते। बच्चे को मारते-पीटते हैं। फिर नेपथ्य से जब वास्तविकता सामने आती है तो पता चलता है कि अभिनव ने अपने पिता की हत्या कर दी है। यहाँ से फिल्म में अपराध भी शामिल हो जाता है। यह बताना जरूरी है कि किसी भी अभिभावक के पास अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। हाँ, औपचारिकतायें जरूर हैं।
फिल्म में सोलह की उमर वाले बच्चों के शुरुवाती जीवन की शैली उन्हें एक भयानक गह्वर में ले जाकर फँसा देती है। उनमें से एक गर्भवती हो जाती है, एक हत्यारा बनकर जरायम की दुनिया में दाखिल हो जाता है, एक जो मिस इण्डिया बनने का ख्वाब देखती है, का एमएमएस हर तरफ फ़ैल जाता है। एक अपने प्यार में असफल हो जाती है। कहने का मतलब यह कि युवाओं की जिन्दगी में हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा छा जाता है।
तब एक साल के बाद अचानक से चीजें बदल जाती हैं। जब बच्चों के हाथ से जीवन उनके समझदार परिवारीजनों के हाथ आता है, जीवन बदल जाता है। यह फिल्म को सुखान्त बनाने का आइडिया है। हमारे यहाँ के फिल्मों का ट्रीटमेंट भी अक्सर यही होता है। सब कुछ अच्छे से जीवन में चलने लगता है। जब हम फिल्म देखकर छूटते हैं तो एक गंभीर समस्या का सरलीकरण करते हुए बाहर आ जाते हैं। यहाँ फिल्म कमजोर होती है। बहरहाल।
फिल्म में, जैसा कि मैंने बताया, शहरी जीवन है, उच्च वर्ग के धन्ना लोगों के बच्चे हैं तो उनकी प्राथमिकतायें और चिंताएं भी उनके अपने वर्ग की हैं। यह हमारे समाज का सच नहीं है। एक हिस्से का सच है। शायद। मैं उस समाज से परिचित नहीं हूँ। यह पेज-3 वाले समाज की कहानी है। इस समाज में बच्चों को अपने भविष्य की चिंताओं में करियर कहीं नहीं है। यह जो हम अपने बच्चों को, पढ़ो-पढ़ो की रट के साथ डाँटते-डपटते रहते हैं, लगातार ताने देते रहते हैं, और हमारे बच्चे करियर की चिन्ता में प्यार की क़ुरबानी देते हुए अपने को हलाक करते हैं, वह यहाँ कहीं नहीं है। जिस एक पात्र अभिनव के यहाँ है, वह जरायम में शामिल हो गया है और अंततः सुधार गृह में भेज दिया गया है।
सिक्सटीन भद्रलोक की कहानी है। यह भले फार्मूला फिल्म है, लेकिन हमें सोचने पर मजबूर करने वाली फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य थीम सेक्स भले हो, फिल्म में अश्लील दृश्य कहीं नहीं हैं। फिल्म में जहाँ वयस्क दृश्य की संभावना है, वहां चतुराई से काम लिया गया है। लेकिन क्या अश्लीलता बस नग्न दृश्य दिखाने में ही है? इस फिल्म को देखते हुए कहा जा सकता है कि उत्तरार्द्ध को छोड़कर समूची फिल्म ही राही मासूम रज़ा के शब्दों में अश्लील है।
फिल्म में कोई चेहरा जाना पहचाना नहीं है। यह फिल्म का सबसे बेहतर और महत्त्वपूर्ण पहलू है। मेरी सम्मति है कि यह फिल्म देखी जानी चाहिए।

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.