बुधवार, 22 जनवरी 2014

कथावार्ता : सिक्सटीन- सोलह बरस की साली उमर की फिल्म



Sixteen (सिक्सटीन) राज पुरोहित द्वारा निर्देशित २०१३ में आई बॉलीवुड फिल्म है। यह सोलह बरस की बाली उमर के मुकाबले सोलह बरस की साली उमर को रेखांकित करती है। जिस सोलह बरस की उमर को हिन्दी जगत में बहुत रोमानी कह कर गुणगान किया गया है, उस सोलह की उमर में शहरी क्षेत्र के युवा क्या सोचते हैं, कैसे जीते हैं, इस थीम को लेकर इसकी कहानी बुनी गयी है। जाहिर सी बात है कि इस फिल्म में जिन चरित्रों को लेकर कथा बढ़ाई गयी है, वे खाते-पीते घर के, तथाकथित अडवांस परिवार के बच्चे हैं। जिनके लिए सोलह की उमर सेक्स और अफेयर के आगे अगर कहीं है तो एक सेलिब्रेटी बनने की चाह में है। वे इस उमर में महत्वाकांक्षी इतने हैं कि कुछ भी कर गुजरते हैं, या कर गुजरने की हिम्मत रखते हैं। लेकिन हिम्मत भी ऐसी कि एक झटके में धसक जाय। खालिस आत्मकेन्द्रित।
सभी सोलह साला बच्चों की मूल चिन्ता में सेक्स है। कॉलेज जीवन में अक्सर, उनकी बातचीत उसी पर केन्द्रित है। कौन किससे फ्लर्ट कर रहा है? किसका अफेयर कहाँ तक पहुंचा और कौन असफल है?  इस दुनिया में षड्यंत्र हैं, असफलताएं हैं, प्यार भी है। सबका एक मोटो भी  है। लव, सेक्स और/या फ्रेंडशिप इसके केन्द्र में है। बच्चियाँ सिगरेट पी रही हैं, हुक्का भी। शराब पी रही हैं और लेट नाईट पार्टी में जा रही हैं। लड़के भी। लड़कियां अपनी वर्जिनिटी के टूटने को सेलिब्रेट कर रही हैं और उचित पात्र की तलाश में आपस में झगड़ा भी कर ले रही हैं।
सेक्स इस कदर प्रमुखता से जीवन में शामिल है बल्कि यह कहना चाहिये कि इस फिल्म में फोकस्ड है कि सभी गतिविधियाँ उसी से संचालित हैं। अभिनव झा काम/सेक्स से इस कदर फ्रस्टेट है कि पढ़ाई में फिसड्डी बन जाता है। इस वजह से उसकी पिटाई होती है। पिता को चिन्ता होती है तो वे इसकी गहराई में झांकते हैं, जहाँ उन्हें पता चलता है कि बच्चे के कंप्यूटर में ढेरों अश्लील सामग्री भरी पड़ी है। परम्परागत ख्याल वाले पिता इसे सहन नहीं पाते। बच्चे को मारते-पीटते हैं। फिर नेपथ्य से जब वास्तविकता सामने आती है तो पता चलता है कि अभिनव ने अपने पिता की हत्या कर दी है। यहाँ से फिल्म में अपराध भी शामिल हो जाता है। यह बताना जरूरी है कि किसी भी अभिभावक के पास अपने बच्चे के लिए समय नहीं है। हाँ, औपचारिकतायें जरूर हैं।
फिल्म में सोलह की उमर वाले बच्चों के शुरुवाती जीवन की शैली उन्हें एक भयानक गह्वर में ले जाकर फँसा देती है। उनमें से एक गर्भवती हो जाती है, एक हत्यारा बनकर जरायम की दुनिया में दाखिल हो जाता है, एक जो मिस इण्डिया बनने का ख्वाब देखती है, का एमएमएस हर तरफ फ़ैल जाता है। एक अपने प्यार में असफल हो जाती है। कहने का मतलब यह कि युवाओं की जिन्दगी में हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा छा जाता है।
तब एक साल के बाद अचानक से चीजें बदल जाती हैं। जब बच्चों के हाथ से जीवन उनके समझदार परिवारीजनों के हाथ आता है, जीवन बदल जाता है। यह फिल्म को सुखान्त बनाने का आइडिया है। हमारे यहाँ के फिल्मों का ट्रीटमेंट भी अक्सर यही होता है। सब कुछ अच्छे से जीवन में चलने लगता है। जब हम फिल्म देखकर छूटते हैं तो एक गंभीर समस्या का सरलीकरण करते हुए बाहर आ जाते हैं। यहाँ फिल्म कमजोर होती है। बहरहाल।
फिल्म में, जैसा कि मैंने बताया, शहरी जीवन है, उच्च वर्ग के धन्ना लोगों के बच्चे हैं तो उनकी प्राथमिकतायें और चिंताएं भी उनके अपने वर्ग की हैं। यह हमारे समाज का सच नहीं है। एक हिस्से का सच है। शायद। मैं उस समाज से परिचित नहीं हूँ। यह पेज-3 वाले समाज की कहानी है। इस समाज में बच्चों को अपने भविष्य की चिंताओं में करियर कहीं नहीं है। यह जो हम अपने बच्चों को, पढ़ो-पढ़ो की रट के साथ डाँटते-डपटते रहते हैं, लगातार ताने देते रहते हैं, और हमारे बच्चे करियर की चिन्ता में प्यार की क़ुरबानी देते हुए अपने को हलाक करते हैं, वह यहाँ कहीं नहीं है। जिस एक पात्र अभिनव के यहाँ है, वह जरायम में शामिल हो गया है और अंततः सुधार गृह में भेज दिया गया है।
सिक्सटीन भद्रलोक की कहानी है। यह भले फार्मूला फिल्म है, लेकिन हमें सोचने पर मजबूर करने वाली फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य थीम सेक्स भले हो, फिल्म में अश्लील दृश्य कहीं नहीं हैं। फिल्म में जहाँ वयस्क दृश्य की संभावना है, वहां चतुराई से काम लिया गया है। लेकिन क्या अश्लीलता बस नग्न दृश्य दिखाने में ही है? इस फिल्म को देखते हुए कहा जा सकता है कि उत्तरार्द्ध को छोड़कर समूची फिल्म ही राही मासूम रज़ा के शब्दों में अश्लील है।
फिल्म में कोई चेहरा जाना पहचाना नहीं है। यह फिल्म का सबसे बेहतर और महत्त्वपूर्ण पहलू है। मेरी सम्मति है कि यह फिल्म देखी जानी चाहिए।

3 टिप्‍पणियां:

ashutosh kumar rai ने कहा…

सर जी।। आपने फिल्म में समस्या के सरलीकरण को सही पकड़ा। साथ ही हमारे समाज का सोलह साला बच्चा भी उसमे से नदारत है( अभिनव को छोडकर)! तो फिल्म देखने का कोई मतलब?? मैं अगर प्युरिटन वादी दृष्टि से व्याख्या न भी करू(जो मैं करना भी नही चाहता) तो भी प्रश्न यही है की हम मध्य वर्ग के लिए इसमें है क्या? किशोर हुए बच्चों की जो सपने है, समस्याएं है, रंग रेलिया है ; उसमे हमारे गाँव देश के किशोर कहाँ शामिल है?
फिर भी आपने बहुत कमाल का लिखा है। इसके लिए साधुवाद सर जी।।

ashutosh kumar rai ने कहा…

सर जी।। आपने फिल्म में समस्या के सरलीकरण को सही पकड़ा। साथ ही हमारे समाज का सोलह साला बच्चा भी उसमे से नदारत है( अभिनव को छोडकर)! तो फिल्म देखने का कोई मतलब?? मैं अगर प्युरिटन वादी दृष्टि से व्याख्या न भी करू(जो मैं करना भी नही चाहता) तो भी प्रश्न यही है की हम मध्य वर्ग के लिए इसमें है क्या? किशोर हुए बच्चों की जो सपने है, समस्याएं है, रंग रेलिया है ; उसमे हमारे गाँव देश के किशोर कहाँ शामिल है?
फिर भी आपने बहुत कमाल का लिखा है। इसके लिए साधुवाद सर जी।।

डॉ रमाकान्त राय ने कहा…

थैंक्स आशुतोष भाई..

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.