जनकवि नागार्जुन
का वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका जन्म बिहार के मधुबनी जनपद के तरौनी नामक
गाँव में सन 1911 ई० में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा पारंपरिक तरीके से
लघुसिद्धान्त कौमुदी और अमरकोश से शुरू हुई और स्वाध्याय से ही संस्कृत, मैथिली, हिन्दी,
नेपाली, सिंहली, अङ्ग्रेज़ी आदि भाषाओं
के पण्डित हुए। सनातन और बौद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया और सिंहल प्रवास के
दौरान सन 1936 ई० में बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए। बौद्ध
धर्म में दीक्षा के बाद उन्होंने अपना नाम नागार्जुन रखा। वह मैथिली में यात्री
उपनाम से कवितायें लिखते थे। उनका एक अन्य रचनात्मक नाम प्रवासी था। ०५ नवंबर, 1998 को नागार्जुन का निधन हुआ।
नागार्जुन ने विपुल साहित्य रचा। उन्होंने कविता और उपन्यास के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की। उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं-
1.
युगधारा -१९५३
2.
सतरंगे पंखों वाली -१९५९
3.
प्यासी पथराई आँखें -१९६२
4.
खिचड़ी विप्लव देखा हमने -१९८०
5.
हजार-हजार बाँहों वाली -१९८१
6. पुरानी जूतियों का कोरस -१९८३
उनके अग्रलिखित उपन्यास
बहुत चर्चित हुए-
1.
रतिनाथ की चाची -१९४८
2.
बलचनमा -१९५२
3.
नयी पौध -१९५३
4.
बाबा बटेसरनाथ -१९५४
5.
वरुण के बेटे -१९५६-५७
सन २००३ में, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली से नागार्जुन की रचनावली सात खण्डों में, प्रकाशित हुई है, जिसका सम्पादन शोभाकांत ने किया है।
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में जन को आवाज दी है। राजनीतिक विषयों पर लिखी गयी उनकी कवितायें विशुद्ध क्रांतिकारी तेवर के साथ मौजूद हैं। राजनीतिक कविताओं के अतिरिक्त जहां वह जनता के कवि हैं, वहाँ उन सा बड़ा जनकवि दूसरा नहीं। उनकी कविताएं प्रयोगधर्मी हैं। वह कविता के हर क्षेत्र में प्रयोग करते हैं। लय में, छंद में और विषय वस्तु में। घनघोर नास्तिक और बौद्ध मत में दीक्षित हो जाने के बाद भी इस कविता – ‘पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने’ में उनका अकुण्ठ मानस सहज देखा जा सकता है। वह अपने जनपद में रहते हुए बौद्धिकता अथवा किसी तरह के दिखावे से सर्वथा दूर हैं, इसलिए वह स्वयं पर भी कटाक्ष करने से नहीं चूकते। लंबी अवधि के बाद शरद का सूर्य देखने के बाद वह आंचलिक कथाकार पर तीखा व्यंग्य करते हैं, यह आंचलिक कथाकार और कोई नहीं, वह स्वयं हैं। शरद के प्रात:कालीन सूर्य को देखने के बाद उनकी आस्तिकता जागृत हो जाती है। इसका उद्गार सूर्य और सावित्री के मंत्रों के मुक्त उच्चार में दिखता है। उसे छिपाने के लिए छोटा सा झूठ बोलने की स्वीकृति दिलवाकर उसके पाप से मुक्त हो जाते हैं। नागार्जुन का यह आत्मस्वीकार इस कविता को बहुत महत्त्वपूर्ण बनाती है कि उनके नास्तिक मन को प्रकृति में व्याप्त सौंदर्य और तज्जनित आस्तिकता ने पीछे छोड़ दिया है।
वह पढे लिखे युवक रत्नेश्वर से इस ‘डेविएशन’ की चर्चा करते हैं और दलगत विवशता का भी उल्लेख करते हैं। यह विवशता विचारधारा की संकीर्णता का सूचक है और नागार्जुन का कवि मानस इस संकीर्णता का अतिक्रमण कर जाता है-
प्रस्तुत है -
नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता- पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने।
शुरू-शुरू कातिक में
निशा शेष ओस की बूंदियों
से लदी हैं
अगहनी धान की दुद्धी मंजरियाँ
पाकर परस प्रभाती किरणों का
मुखर हो उठेगा इनका अभिराम रूप ………
टहलने निकलता हूँ ‘परमान’ के किनारे-किनारे
बढ़ता जा रहा हूँ खेत की मेडों पर से, आगे
वापस जा मिला है अपना वह बचपन
कई युगों के बाद आज
करेगा मेरा स्वागत
शरद का बाल रवि
चमकता रहेगा घड़ी आधी घड़ी…
पूर्वांचल प्रवाही ‘परमान’
की
द्रुत-विलंबित लहरों पर
और मेरे ये अनावृत चरण युगल
करते रहेंगे चहलकदमी
सैकत पुलिन पर
छोड़ते जाएँगे सादी-हलकी छाप….
और फिर आएगी, हँसी मुझे अपने आप पर
उतर पडूँगा तत्क्षण पंकिल कछार में
बुलाएंगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान
झुक जाएगा ये मस्तक अनायास
दुधारू भैंसों की याद में….
यह लो, दूर कहीं शीशम की झुरमुट से
उड़ता आया है नीलकंठ
गुज़र जाएगा ऊपर-ही-ऊपर
कहाँ जाकर बैठेगा?
इधर पीछे जवान पाकड़ की फुनगी पर
या उस बूढे पीपल की बदरंग डाल पर ?
या कि, उड़ता ही जाएगा
पहुंचेगा विष्णुपुर के बीचोबीच
मन्दिर की अंगनाई में मौलसिरी की
सघन पत्तियोंवाली टहनियों की ओट में
हो जाएगा अदृश्य, करेगा वहीं आराम!
जाने भी दो,
आओ तुम मेरे साथ रत्नेश्वर
देखेंगे आज जी भरकर
उगते सूरज का अरुण-अरुण पूर्ण-बिम्ब
जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर
आओ रत्नेश्वर, कृतार्थ हों हमारे नेत्र
देखना भाई, जल्दी न करना
लौटना तो है ही
मगर यह कहाँ दिखता है रोज़-रोज़
सोते ही बिता देता हूँ शत-शत प्रभात
छूट-सा गया है जनपदों का स्पर्श
(हाय रे आंचलिक कथाकार!)
आज मगर उगते सूरज को
देर तक देखेंगे, जी भरकर देखेंगे
करेंगे अर्पित बहते जल का अर्घ
गुनगुनायेंगे गदगद हो कर –
“ॐ नमो भगवते भुवन-भास्कराय
ॐ नमो ज्योतिश्वराय
ॐ नमः सूर्याय सवित्रे…”
देखना भाई रत्नेश्वर, जल्दी न करना।
लौटेंगे इत्मीनान से
पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे
नास्तिक को
साक्षी रहा तुम्हारे जैसा नौजवान ‘पोस्ट-ग्रेजुएट’
मेरे इस ‘डेविएशन’ का !
नहीं, मैं झूठ कहता हूँ ?
मुकर जाऊँ शायद कभी….
कहाँ! मैंने तो कभी झुकाया नहीं था
मस्तक!
कहाँ! मैंने तो कभी दिया नहीं था अर्घ
सूर्य को!
तो तुम रत्नेश्वर, मुस्कुरा-भर देना मेरी उस
मिथ्या पर!
1 टिप्पणी:
नागार्जुन की कविता पर प्रतिक्रिया बड़ी प्रतिभा माँगती है फिर भी - यह एक तरह से दिल और दिमाग का युद्ध ही है.स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए पुरातन को खारिज करते जीवन से शुभ/आनंद को खोने की आत्मग्लानि कविता का भाव है.
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