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रविवार, 15 मार्च 2020

कथावार्ता : आधा गाँव के हिन्दू



आज 15 मार्च को राही मासूम रज़ा की पुण्यतिथि है। 15 मार्च, 1992 को उनका निधन हुआ था। 'आधा गाँव' उनका बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है। यद्यपि उनका यह उपन्यास शिया मुसलमानों के जीवन की गाथा है लेकिन उसमें गाँव से बाहर के कुछ लोगों की अनिवार्य आवाजाही है। इनमें कुछ हिन्दू चरित्र भी हैं। इस शोध आलेख में आधा गाँव के हिन्दू चरित्रों को समझने की कोशिश की गयी है। राही मासूम रज़ा को विनम्र श्रद्धांजलि सहित यह आलेख!



राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया मुसलमानों की जिन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की जिन्दगी में जो हलचल मचाई,  उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा;  जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्र हैअपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पार्श्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है।


राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैंअतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा हैउसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगतदेशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बामानी हो जाता है।
आधा गाँव’  गंगौली के आधे हिस्से की कहानी है जिसमें उत्तरपट्टी और दक्खिनपट्टी के मीर साहेबान रहते हैं। उपन्यास में प्रमुख रूप से इन्हीं मीर साहेबानों की कथा कही गयी है। इस उपन्यास में कई ऐसे पात्र भी आए हैं जो उत्तरपट्टी अथवा दक्खिनपट्टी के नहीं है और कुछ ऐसे हैं जो गंगौली के नहीं हैं और इनमें कई ऐसे भी हैं जो मुसलमान नहीं अपितु हिन्दू हैं। ‘आधा गाँव’ भारतीय संस्कृति के गंगा-जमुनी तहजीब से तैयार एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है जिसे यदि मीर साहेबान अर्थात् शिया सैय्यद मुसलमानों के रीति-रिवाजों एवं आंचलिकता के विमर्श से आगे परिभाषित किया जाय तो यह विभाजन एवं साम्प्रदायिकता से सीधा साक्षात्कार करता है। चूँकि विभाजन एवं साम्प्रदायिकता का प्रश्न हिन्दू समुदाय से सीधा जुड़ता है अतः उपन्यास में आए हिन्दू पात्रों पर चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा।
गंगौली में मियाँ लोगों के साथ-साथ जुलाहोंभरोंअहीरों एवं चमारों के घर हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द एवं जमींदारी का चक्र कुछ ऐसा है कि मियाँ लोगों के लिए बेगार ये नीची जाति के हिन्दू करते हैं। मुहर्रम के ताजिए के पीछे लठ्ठबंद अहीरोंभरों एवं चमारों का गोल रहता है जो उत्तरपट्टी-दक्खिनपट्टी के फौजदारी में लाठियाँ चलाने से परहेज नहीं करता। गया अहीरजो हम्माद मियाँ का लठैत हैताजिएदारी के समय होने वाली लड़ाई में जब मौलवी बेदार के ऊपर लाठी छोड़ता है तो वे आश्चर्य से भर जाते हैं। इसका अंकन देखिए- ‘‘गया ने जो ‘बजरंग बली की जय’ बोलकर एक हाथ दिया तो मौलाना घबरा गए। बोले, ‘अबे हरामजादे! तैं हम्मे मरबे!’’ (आधा गाँव, पृष्ठ-76) यहां मौलाना साहब के कथन में हिकारत भी है कि उनपर एक नीची जाति के हिन्दू बेगार ने हाथ उठाया है। वे उन शिया सैय्यदों में हैंजो अछूतों के छू देने भर से अपवित्र हो जाते हैं और अपने घर के पास स्थित हौज में पाक होने के लिए नहाते रहते हैं। लेकिन ये लोग इन मीर साहेबानों की जिन्दगी का अनिवार्य अंग हैं क्योंकि मुहर्रम के ताजिए के पीछे जिन हजार-पाँच सौ आदमियों की भीड़ होती उनमें प्रमुख रूप से ‘‘गाँव की राकिनेंजुलाहिनेंअहीरनेंऔर चमाइनें होती थीं।’’ ताजिए के पीछे एवं आगे लठ्ठबंद अहीरों का गोल रहता था और जब बड़ा ताजिया हिन्दू मुहल्लों से गुजरता था तो लोग न सिर्फ बलाएँ लेते थेमनौतियाँ रखते थे अपितु उलतियाँ गिरवाने के लिए सिफारिशें तक करते थे। राही मासूम रज़ा मुहर्रम के जुलूस ही नहींसमूचे उत्सव को जिस भारतीय त्यौहार की तरह प्रस्तुत करते हैंवह गंगा-जमुनी तहजीब की विशिष्ट पहचान है। गुलशेर खाँ ‘शानी’ के ‘काला जल’ में भी ‘दुलदुल (मुहर्रम का घोड़ा) के पीछे चलने वाली हिन्दू जनमानस का उल्लेख है और बदीउज्जमाँ के ‘छाको की वापसी’ का मुहर्रम भी इन्हीं विवरणों से प्रामाणिक बनता है। मैदानी भारत के सांस्कृतिक जीवन में साम्प्रदायिक सौहार्द की यह बानगी सहज है। मुहर्रम के विषय में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि यह त्यौहार भारत आकर बहुत बदल गया है और मूल रूप में सात दिन का मातम दस दिन का हो गया है। राही मासूम रज़ा इस त्यौहार की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘‘होली,  दिवाली और दशहरा की तरह मुहर्रम भी एक ठेठ हिन्दुस्तानी त्यौहार है। .........मुहर्रम केवल हुसैन की यादगार मनाने का नाम नहीं है। मुहर्रम नाम है मंदिरों की तरह खूबसूरत ताजिए बनाने का। .........मजे की बात यह है कि इन ताजियों पर फूल चढ़ाना एक हिन्दू परम्परा है। बस,  फूल चढ़ते ही बेजान ताजियों में जान पड़ जाती है और ये देवता बन जाते हैं और लोग हिन्दू और हिन्दू आत्मावाले हिन्दुस्तानी मुसलमान इन ताजियों से सवाल करने लगते हैं।’’(राही मासूम रज़ाखुदा हाफिज कहने का मोड़,  पृष्ठ-146-147) लेखक ने इस दस दिनी उत्सव को दशहरा के दस दिनी आयोजन से प्रभावित कहा है। मान्यता है कि इमाम हुसैन के पक्षधर ब्राह्मणों का एक समुदाय हुसैनी ब्राह्मणों के रूप में आज भी कश्मीर में है और शिया मुसलमानों का मानना है कि मुहर्रम के इन दस दिनों में इमाम साहब कर्बला से हिजरत करके भारत आ जाते हैं। आशय यह कि यह त्यौहार पूर्णतः भारतीय रंग में रंग गया है और इसकी पहचान मुसलमान धर्म तक सीमित नहीं है।
आधा गाँव’ के हिन्दू पात्रों का विवेचन इस दृष्टिकोण से करना और भी महत्वपूर्ण होगा कि बहुप्रचारित साम्प्रदायिक मानसिकता का कैसा रूप उनमें है। क्या वैसा ही जैसा कि आज साम्प्रदायिकता फैलाने वाले सामुदायिक हितों के आधार रूप में रखते हैं। उपन्यास के कुछ प्रमुख हिन्दू पात्रों का विवरण इस प्रकार है-
1. ठाकुर हरनारायन प्रसाद- ठाकुर हरनारायन प्रसाद थाना कासिमाबाद के दारोगा हैं। गाज़ीपुर का यह थाना जिस तालुका में आता है वह करइल मिट्टी वाला है। यह करइल क्षेत्र खूब उपजाऊ है। यह फ़ौजदारी,  क़तल,  डकैती,  और जमींदारी ठाठ के लिए विख्यात है। ‘‘करइल का इलाका था। काली मिट्टी पानी पड़ते ही सोना उगलने लगती थी। इसलिए इन लोगों के पास वक्त बहुत था और लोग थे बीहड़। कानून अपनी जगह लेकिन अगर कोई बात शान के खिलाफ़ हो गई तो थाना फुँक गया।’’ उपन्यास में ठाकुर हरनारायन प्रसाद से पहले के दो दारोगाओं का उल्लेख है, जिन्हें फुन्नन मियाँ ने नीचा दिखाया था। इस कारण फुन्नन मियाँ सहज ही सरकार की नज़र में चढ़े हुए थे जिनका रौबदार और बहादुर चरित्र सत्ता से सीधे टकरा जाने से और भी भव्य हो गया है। हरनारायन प्रसाद की दिलचस्पी भी फुन्नन मियाँ में है। साम्प्रदायिकता जैसी कोई भावना उनमें नहीं,  हालांकि वे कट्टर हिन्दू हैं। वे मुसलमानों का छुआ नहीं खाते,  इसीलिए जब कभी उनका दौरा गंगौली के लिए होता था,  हिंदुओं की सेवाएँ ली जाती थीं, जो ठाकुर साहब के लिए खाने-पीने का इंतजाम करते थे। (‘‘पंडित मातादीन बुलाए गए। उन्होंने ठाकुर साहब के लिए शरबत बनाया। तमोली उनके लिए पान लाया और खुद बेचू हलवाई एक दोने में गुड़ के ताज़ा लखटे लाया।’’ आधा गाँव,  पृष्ठ-83) उनके सहयोगी समीउद्दीन खाँ शिया मुसलमान हैं। ठाकुर साहब की उनसे खूब अच्छी बैठती है। खुशनुमा क्षणों में वे धर्म आदि मुद्दों पर मज़ाक भी कर लेते हैं- ‘‘वाह! यह भी कोई मजहब हुआ कि खुद पैगम्बर साहब ने नौ-नौ ब्याह कर डाले और बाक़ी मुसलमानों को चार शादियों पर टरका दिया।’’ कट्टर हिन्दू ठाकुर साहब की रखैल गुलाबी जान भी कट्टर मुसलमान है। इसके बावजूद ठाकुर साहब को उसके साथ सोने से परहेज नहीं था। अलबत्ता गुलाबी जान ठाकुर साहब के साथ सोने के बाद नहाती थी। सहअस्तित्व का यह जीवन निर्बाध और अकुण्ठ भाव से चल रहा था। राही संकेत करते हैं कि अपने-अपने धार्मिक वैयक्तिकता को सुरक्षित रखते हुए लोग जिए जा रहे थे।
ठाकुर हरनारायन प्रसाद अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिनिधि हैं। वे अंग्रेजी शोषण के माध्यम भी हैं और उपभोक्ता भी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के लिए चंदा उगाही करते समय उनका शोषक एवं घूसखोर चरित्र स्पष्टतः उभरता है। ‘‘उन्होंने तय किया था कि गोबरधन को सिर्फ़ हजार की रसीद दी जाएगी। .......उन्होंने तय किया कि वार-फंड के लिए बीस हजार और अपने लिए तीस हजार जमा करेंगे। गोबरधन की रकम से उनके तीस हजार पूरे हो रहे थे और वार-फंड भी अठारह हजार तक पहुँच रहा था।’’ वे इस किस्म के घूसखोर हैं कि दोनों पक्षों से रिश्वत ले लेने में गैरत नहीं महसूस करते। इस प्रक्रिया में यदि किसी बेकसूर को फाँसी भी हो जाए तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। ‘‘जिस तरह थानेदार कासिमाबाद को उत्तरपट्टी के मोहर्रम के बजट से एक सौ रूपये दिए गए थे,  उसी तरह दक्खिनपट्टी की ताजिएदारी की मद से थानेदार क़ासिमाबाद को तीन सौ रूपये दिए गए कि कोमिला को फाँसी तो न हो,  लेकिन सजा जरूर हो जाय। थानेदार ठाकुर हरनारायन प्रसाद सिंह ने सोचा कि इसमें आखि़र उनका क्या नुकसान है इसीलिए यह बात भी तय हो गई।’’
दारोगा हरनारायन प्रसाद की फुन्नन मियाँ के प्रति दुर्भावना राजभक्ति से प्रेरित थी। फुन्नन मियाँ ने दारोगा शिवधन्नी सिंह और शरीफुद्दीन को नीचा दिखाया था और ठाकुर साहब के लिए भी परेशानी का सबब बने हुए थे। इसलिए उनकी व्यक्तिगत सी प्रतीत होने वाली खुन्नस में साम्प्रदायिकता खोजना बेमानी है। सन् बयालीस के आंदोलन में जब थाना क़ासिमाबाद फूँक दिया गया और ठाकुर साहब को जि़न्दा जला दिया गया तो इसके परिपार्श्व में कतई हिन्दू-मुसलमान का भाव नहीं था बल्कि भीड़ में से अधिकांश थानेदार और अंग्रेज बहादुर के सताए हुए लोग थे। ‘‘इस मजमें में ऐसे लोग कम थे जिन्हें ‘हिन्दुस्तान छोड़ दो’ के नारे की खबर रही हो। उनमें ऐसे लोग भी नहीं थेजिन्हें आजादी का मफ़हूम मालूम हो। ये लोग वे थे,  जिनसे ड्योढ़ा लगान लिया गया था,  जिनके खेतों का अनाज छीन लिया गया था,  जिनसे जबरदस्ती वार-फंड लिया गया था,  जिनके भाई-भतीजे लड़ाई में काम आ गए थे या काम आने वाले थे और जिनसे थाना-क़ासिमाबाद कई पुश्तों से रिश्वत ले रहा था।’’ इस शोषक चरित्र की वजह से जिन्दा जला दिए जाने के बाद भी उनके लिए सहानुभूति नहीं होती।

2. बारिखपुर के ठाकुर (कुँवरपाल सिंहपृथ्वीपाल सिंहजयपाल सिंहहरपाल सिंह)- बारिखपुर गंगौली से कुछ दूरी पर स्थित गाँव है जहाँ के जमींदार ठाकुर कुँवरपाल सिंह हैं। वे फुन्नन मियाँ के मित्र और प्रतिद्वन्द्वी दोनों हैं। दोनों ने एक ही अखाड़े से लाठी-चलाने की कला सीखी थी। ‘‘चौधरी और फुन्नन एक ही गुरू के चेले थे। यानी चौधरी ने भी फुन्नन मियाँ के बाप ही से लकड़ी चलाने की कला सीखी थी।’’ यह बताता है कि एक पीढ़ी पहले इस क्षेत्र में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं था। दो जमींदार,  जो पृथक् धर्मानुयायी थे,  एक ही अखाड़े में शिक्षा ले सकते थे। हालांकि ‘आधा गाँव’ में ठाकुर कुँवरपाल सिंह का चित्रण बहुत कम है तथापि उनकी उपस्थिति इतनी सशक्त है कि सहज ही दिलो-दिमाग पर छा जाती है।
 जमींदारी ठसक और सांमती सम्मान की रक्षा में ठाकुर कुँवरपाल सिंह फुन्नन मियाँ के हाथों मारे जाते हैंलेकिन फुन्नन मियाँ की इबादतों में वे अनिवार्य रूप से सम्मिलित हो जाते हैं- ‘‘पाक परवरदिगार! मुहम्मदो आले मुहम्मद के सदके में ठाकुर कुँवरपाल सिंह को बख्श दे!’’ फुन्नन मियाँ जब हिन्दुओं की सम्प्रदाय निरेपक्षता की बात करते हैं तो सबसे पहले ठाकुर कुँवरपाल सिंह को याद करते हैं- ‘‘तू त ऐसा कहि रहियो जैसे हिन्दुआ सब भुकाऊँ हैं कि काट लीहयन। अरे ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिन्दुए रहे।’’
ठाकुर कुँवरपाल सिंह उपन्यास में पहले चौधरी के रूप में तब आते हैं जब गुलाब हुसैन खाँ को चिरौंजी घेर लेता है। वे अपने पूरे खानदान के साथ उसे बचाने आ जाते हैं। यह जानकर कि चिरौंजी फुन्नन मियाँ का आदमी है,  वे उस पर हाथ नहीं उठाते- ‘‘चौधरी ने सोचा कि अगर इस जगह उन्होंने चिरौंजी को घेर लिया तो कल फुन्नन मियाँ के आगे आँख नीची हो जाएगी,  इसलिए चौधरी ने उन्हें चला जाने दिया।’’ यह सामंती मन का उज्ज्वल पक्ष है। बराबरी का आग्रह रखता है। ठाकुर साहब क्षयमान होती सामंती व्यवस्था के स्तम्भ हैं। चाहे यह व्यवस्था कितनी थी अमानवीय क्यों न रही होइसमें अनेक बुराइयाँ हो,  रियाया के शोषण पर आधारित हो;  अपने ठाठशान-शौकत और मर्यादा में सहज ही आकर्षित कर लेती है। फुन्नन मियाँ को एकान्त में खलीफाई तय करने के लिए ललकारना और पराजित होने पर लेशमात्र भी दुर्भावना न रखना कुँवरपाल सिंह को महान बनाती है। बराबरी के युद्ध में जहाँ ‘‘लाठियाँ टकराती रहीं। कोई चोट नहीं खा रहा था। दोनों ही एक अखाड़े के थे और दोनों ही खलीफ़ा के चहेते थे। तुले हुए हाथ चल रहे थे। तेल पिलाई हुई लाठियाँ डूबते हुए चाँद की रोशनी में चमक रही थीं’’ कुँवरपाल सिंह घायल होकर पड़ जाते हैं तो सहज मन से वीरतापूर्वक स्वीकार करते हैं- ‘‘खलीफाई मुबारक होए!’’ पुलिस को दिए बयान में वे फुन्नन को निर्दोष बताते हैं और आखिरी समय में याद करते हैं- ‘‘हम जात हएँ खलीफ़ा।’’ लोगों को जब बाद में ख़्याल आता है तो वे ठाकुर कुँवरपाल सिंह के बयान से असहमत होते हैं क्योंकि ‘‘चार-छः आदमियों के लिए तो अकेले ठाकुर साहब काफ़ी थे।’’
  ठाकुर साहब वीर सामंत हैं। वसूल के पक्के हैं। अपने महाप्रयाण के बाद वे अपने बेटे-पोतों को भी इसका अंश दे जाते हैं। टाट-बाहर कर दिए गए फुन्नन मियाँ की बेटी रजि़या के मरने के बाद कंधा देने वालों में पृथ्वीपाल सिंह आगे रहते हैं थाना फूँकने वाली भीड़ का नेतृत्व हरपाल सिंह करते हैं। हरपाल सिंह इस मुहिम में शहीद भी हो जाते हैं। रजि़या को कब्र में उतारते समय पृथ्वीपाल सिंह का यह कहना, ‘‘हम उतारब अपनी बहिन के’’ उपन्यास के मार्मिक स्थलों में से एक है और हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को रेखांकित करती है।
 ठाकुर कुँवरपाल सिंह और उनका परिवार उस सामंती परिवेश की बानगी पेश करता है जिसके विषय में अनेकशः कहा जाता है कि भारतीय समाज के बहुलतावादी सम्प्रदाय निरेपक्ष स्वरूप का ताना-बाना इसी व्यवस्था का गढ़ा हुआ है। वीरेन्द्र यादव लिखते हैं- ‘‘आधा गाँव के औपन्यासिक कथ्य में अन्तर्निहित यह तथ्य भी विचारणीय है कि भारतीय समाज के जिस बहुलवाद व मेल-जोल की संस्कृति को अक्सर महिमा मंडित किया जाता हैवह सामंती सामाजिक संरचना का अनिवार्य परिणाम है या कि भारतीय संस्कृति के उदारतावाद की देन। ‘आधा गाँव’ के ठाकुर जयपाल सिंह किस मानसिकता के चलते अपने गाँव के जुलाहों,  कुँजड़ों व हज्जामों की रक्षा करते हैं,  इसका खुलासा अपनी परजा के उनके इस संबोधन से होता है- ‘गाँव से जाए का नाम लेबा लोग त माई चोद के ना रख देइब। हई देखा भुसडि़यावालन काजात बाड़न लोग मऊमुबारकपुर गाँड़ मराए।’’ (वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान,  अभिनव कदम,  अंक6-7पृष्ठ-325) यह सच है कि धर्मसभा के लिए भोजन आदि की व्यवस्था जयपाल सिंह करते हैं और सभा में मुसलमानों को समूल उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाता है लेकिन जयपाल सिंह यह सब जमींदारी शान में करते हैं। स्वामी जी का भाषण अपनी जगह है किन्तु जयपाल सिंह यह नहीं बर्दाश्त कर सकते कि उनके गाँव के कुँजड़ोंमुसलमानों पर कोई हाथ उठाए। इसीलिए बफ़ाती के घिर जाने पर वे हिन्दुओं को ललकार लेते हैं- ‘‘ई तूँ लोगन रूक काहे गइलाभैया? ........आवत जा लोग!’’ वे हिन्दू मर्यादा के औचित्य को व्यापकता देते हुए नैतिक आधार से सम्बद्ध करते हैं- ‘‘बड़ बहादुर हव्वा लोग अउर हिन्दू-मरियादा के ढेर ख़्याल बाए तुहरे लोगन केत कलकत्ते-लौहार जाए के चाही। हियाँ का धरल बाए की चढ़ आइल बाड़ा तू लोग।’’  जाहिर है बारिखपुर के ठाकुरों के यहाँ हिन्दू-मुसलमान का द्वन्द्व नहीं है। वस्तुतः सामंती संरचना में प्रजा के प्रति व्यवहार किसी विमर्श से प्रभावित नहीं होता। यही कारण है कि फुन्नन मियाँ भी छिकुरिया से पूछ लेते हैं- ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’ उसके यह कहने पर कि वह हिन्दू है लेकिन..........। फुन्नन मियाँ कहते हैं- ‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तैं लड़बे न हमरे साथ की तहूँ हिन्दू हो जय्यबे।’’
3. परसुराम एवं उसका परिवार- परसुराम हरिजन हैकांग्रेस का नेता है और स्वतंत्र भारत में विधायक चुना जाता है। वह कुशल राजनीतिज्ञ है और मियाँ लोगों को साधने में सफल है। वह गाँधी टोपी पहनता हैभाषण देता है और दलितों के उत्थान हेतु प्रयासरत है। वह प्रगतिशील चेतना से युक्त है। एक मियां साहब उनके विषय में यह कहते हैं- ‘‘ऊ सब अछूत ना हैं.........हरिजन हो गए हैं..........उन्होंने मुर्दा खाना भी छोड़ दिया है और कोई महीना भर पहले चमारों का एक गोल परूसरमवा की लीडरी में पंडिताने के कुँए पर चढ़ गया और पानी भर लाया।’’ वह साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल भी है। फुन्नन मियाँ अब्बास से कहते हैं- ‘‘ऐ भाईओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे,  काहे को कि ऊ में शीआ लोग तबर्रा पढ़त हएँत परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उठ्ठी और ऊ ताबूत उठ्ठा।’’ ज्यों-ज्यों उसकी राजनीति चमकती हैवह द्विज श्रेणी में शामिल होता जाता है। उसकी जीवन-शैली आभिजात्य होती जाती है। वह आदरणीय बनता जाता है। यह सब मियाँ लोगों को खटकता है। फुन्नन मियाँ इस चिड़चिड़ाहट को यूँ व्यक्त करते हैं- ‘‘ए भाई! अल्ला के कारखाने में दखल देवे वाले तूँ कौन ? ऊ अपने गधे को चने का हलवा खिला रहें।’’ वरिष्ठ आलोचक कुँवरपाल सिंह इस बदलाव को लक्षित करते हैं, ‘‘युग परिवर्तन के कारण परसुराम गाँव की सबसे बड़ी हस्ती हो गया है। वह गंगौली नहींपूरे क्षेत्र के विषय में निर्णय लेता है। छोटे अफसर और थानेदार तक उसकी चिरौरी करते हैं। मियाँ लोगों के लिए यह  मर्मान्तक पीड़ा भी है।’’ (कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005पृष्ठ-42) उसकी बिरादरी में उसके प्रति आदर की वज़ह से बोलने का लहजा बदल गया है। राही ने इस बदलाव को इस तरह रेखांकित किया है- ‘‘परूसराम आइल बाड़न।’ बाहर से धनिया चमार ने आवाज दीजो जमींदारी के खातमे के बाद भी अब्बू मियाँ से चिपका हुआ था। ‘आईल बाड़न!’ अब्बू मियाँ ने अपनी आँखें नचा कर कहा।’’ अब्बू मियाँ का आँखें नचाना उन हिकारतों को संकेतित करता है जो परसुराम समेत तमाम निम्न जातियों के लिए उच्च वर्णों में है।
  परसुराम के द्विज हो जाने का प्रमाण उसके यहाँ लगने वाला दरबार है- ‘‘उसका दरबार गाँव का सबसे बड़ा दरबार होता। उसके दरबार में लखपति भी आते और फाकामस्त सैय्यद साहिबान भी। ये लोग कुर्सियों पर बैठते और सिगरेट पीते और रेडियो सुनते। उनसे थोड़ी ही दूर पर गाँव के गरीब-गु-र-बा होतेजो पहले ही की तरह जमीन ही पर ऊँकड़ू बैठतेखैनी खाते और बीड़ी पीते। उनकी किस्मत में जमीन पर बैठना ही लिखा था।’’ विधायक होने के बाद वह न सिर्फ मियाँ लोगों के झगड़े सुलझाता है बल्कि हम्माद मियाँ को डाँट भी देता है। वह बेअदबी भरे लहजे में कहता है- ‘‘गया के पास जाने का जी चाह रहा है क्या आपका?’’ गया तब जेल में था। यह एक तरह की धमकी थी जो परसुराम हम्माद मियाँ को देता है। परसुराम की बढ़ती शक्ति की यह एक बानगी है।
   एक पेशेवर राजनेता की तरह परसुराम सत्ता सुख पाने के सभी हथकण्डे अपनाता है। वह कांग्रेस के उस चरित्र का द्योतक है कि पार्टी सतही तौर पर तो लोकतांत्रिक प्रतीत होती है किन्तु बुनियादी तौर पर यथास्थितिवाद को पोषित करती है। इसीलिए परसुराम को बुरा लगता है कि ‘‘मियाँ लोगों में पाण्डेयजी का आना-जाना बहुत हो रहा है आजकल।’’ चूँकि पाण्डेयजी कम्यूनिस्ट नेता हैं और उसके खिलाफ़ जनान्दोलन खड़ा करने की कोशिश करते हैं अतः परसुराम को बुरा लगता है।
  उपन्यास में बहुत सजगता से दिखाया गया है कि परसुराम दलित उभार का प्रतीक होकर भी दलितों के लिए कुछ नहीं करता। फिर भी उसके जाति समुदाय के लोगों को इस बात का संतोष था कि ‘‘उनका एक आदमी मियाँ लोगों की कुर्सी पर बैठता है और मियाँ लोग उसके दरवाजे पर आते हैं और फ़र्क यह हुआ था कि वह मियाँ लोगों के सामने बीड़ी पीने लगे थे।’’ वास्तव में परसुराम उसी राजनीतिक व्यवस्था का अंग होकर रह जाता है। यही कारण है कि वर्चस्व की लड़ाई में वह हम्माद मियाँ से मात खा जाता है। उसे जेल हो जाती है।
  विधायक होने के बाद परसुराम के घरवालों का रहन-सहन बदल जाता है। उसकी पत्नी ने ‘‘ऩफीस साडि़याँ पहनना सीख लिया था। उसके जिस्म पर बड़े नाजुकखूबसूरत और कीमती जेवर थे। उसे लिपिस्टिक लगाना नहीं आता थाइसलिए उसके होठों पर लिपिस्टिक थुपी हुई थी।’’ वह अपना वर्गान्तरण कर चुकी थी इसलिए उसका मानना था कि वह मियाँ/बीबी लोगों की बराबरी में बैठ सकती है। यही मानसिकता उसे हम्माद मियाँ के यहाँ पलंग पर बिठा देती है। कुबरा के दुरदुरा देने से उसमें नवधनाढ्य वाली अकड़ दिखती है- ‘‘अ-भ-ईं तक आप लोगन का दिमाग ठीक ना भया।’’ वह इस प्रकार का वर्गान्तरण कर चुकी है कि उसे अहसास तक नही है कि मियाँ लोगों को परसुराम की द्विज स्थिति कितनी चुभ रही है। ‘‘दलित चेतना का विमर्श रचते हुए राही मासूम रज़ा इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि भारतीय समाज की सामंती संरचना हिन्दू व मुस्लिम का भेद किए बिना दलितों के राजनीतिक उभार को लेकर कितनी असहज थी।’’ परिणामतः होता यह है कि कुबरा उसे खूब खरी-खोटी सुनाती हैं।
 परसुराम का पिता सुखराम बेटे के एम0एल0ए0 बन जाने से धनी हो गया है। हकीम अली कबीर उसके कर्जदार हैं। वह कर्जअदायगी हेतु सम्मन भिजवाता है। धनी हो जाने एवं आभिजात्य जीवन-शैली अपना लेने के बाद भी उसके पुरातन संस्कार समाप्त नहीं होते। कुर्सियों पर वह पाँव रखकर बैठता है और मियाँ लोगों के आ जाने पर हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है। जब परसुराम हम्माद मियाँ से उलझ रहा होता हैवह परसुराम को प्यार भरे शब्दों में डाँटता है- ‘‘तू हूँ बुरबके रह गयो परसुराम। च-ल बैयठा-व मियाँ के। चलींमियाँहियाँ काहे ठाड़ बाड़ीं।’’ वह अभी भी प्राचीन पीढ़ी का व्यक्ति है।
आधा गाँव के प्रमुख पात्रों में परसुराम इसलिए भी महत्व रखता है कि स्वतंत्र भारत में सत्ता का केन्द्र न सिर्फ बदलकर उसके तबके के पास आ गया है अपितु प्रमुख भूमिकाएं भी निभाने लगा है।
4. झिंगुरिया एवं छिकुरिया- झिंगुरिया फुन्नन मियाँ का लठैत है। चूँकि फुन्नन मियाँ के सामंती सरोकार सहज ही क़तलफौजदारीलूटडकैती आदि से जुड़े हैं अतः झिंगुरिया का महत्त्व पक्का साथी होने के कारण अधिक है। वह बहुत सधा हुआ सेंधमार है। गोबरधन के यहाँ वह आठ बार सेंधमारी कर चुका था। वह गुलबहरी के लिए भी सेंधमारी करता है। यह सेंधमारी फुन्नन मियाँ के कहने पर होती है। इस अभियान में इसको फाँसी हो जाती है। यह घटना इतनी सहज प्रतीत होती है कि उसके बेटे छिकुरिया को ‘‘बाप के फाँसी पा जाने का ऐसा मलाल नहीं था। उसे तो एक दिन फाँसी पानी ही थी।’’ झिंगुरिया के बाद छिकुरिया फुन्नन मियाँ के लिए उसी भूमिका में आ जाता है। वह फुन्नन मियाँ को अपना सर्वेसर्वा स्वीकार कर लेता है। चूँकि ‘‘हम्माद मियाँ ने फुन्नन मियाँ के खिलाफ़ गवाही दी थी। इसलिए हम्माद मियाँ के किसी भी आदमी की तरफ से छिकुरिया का दिल साफ नहीं था।’’ यह सामंती परिपाटी थी कि अपने जमींदार के प्रति निष्ठा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती थी। छिकुरिया उसका सहज ही अनुगमन कर रहा था। अपने जमींदार के प्रति उसकी स्वामी भक्ति धर्म की संकीर्णताओं से परे थी। फुन्नन मियाँ के साथ एक संवेदनशील मुद्दे पर उसकी बातचीत इस बात को प्रमाणित कर सकेगी- ‘‘बारिखपुर-वालन को अइसे दिन लग गए की ऊ अब सलीमपुर पर चढ़ाई करे लायक हो गए। तोरा कोई आदमी हुआँ है की ना?’’
 ‘‘दस जन हव्वन!’’ छिकुरिया ने कहा, ‘‘बाकी जउन हिन्दू-मुसलमान के नाम पर लकड़ी चल गइलत बड़ी मुश्किल पड़ी।’’
 ‘‘हिन्दू-मुसलमान करके कोई क ठो झाँट टेढ़ी कर लीहे!’’ फुन्नन मियाँ ने अपनी मूँछों पर ताव दिया, ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’
 ‘‘हम त हिन्दू हई मीर साहब बाकी.........’’
‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तै लड़बे न हमरे साथ कि तहूँ हिन्दू हो जय्यबे?”
छिकुरिया के सामंती सरोकार जाने-अनजाने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल बनते हैं। जैसा कि पहले कहा गया हैभारतीय समाज की संरचना में साम्प्रदायिक सौहार्द सामंती व्यवस्था की देन हैछिकुरिया इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण है। शहर में जब उसकी मुलाकात मास्टर साहब से होती है तो वह बहुत मायूस लौटता है। वह अपनी स्पष्ट मान्यता को मास्टर जी के समक्ष रखता है- ‘‘आकिस्तान-पाकिस्तान हम ना जनतेई। बाकी जो कोई पाकिस्तान बुरी चीज बाय त मत बने दे ईं। हम छाती ठोंक के कहत बाड़ीपीछे हट जायीं त आपन बाप का ना कहलायींचलीं।’’ वह इमाम साहब के प्रति असीम श्रद्धावान है और मानता है कि ‘‘इमाम साहब मुसलमान नहीं हो सकते। मुसलमान तो मौलवी बेदार हैं जो हिन्दुओं का छुआ नहीं खाते। मुसलमान तो हकीम अली कबीर हैं जो बात-बात पर दरवाजे के हौज़ मेंअपने को पाक़ रखने के लिएनहाते रहते हैं।’’ वह मास्टर जी से दो टूक शब्दों में कहता है- ‘‘जहाँ फुन्नन मियाँ का पसीना गिरी नाहुआँ समूच भर टोली मर ना जायी।’’ उसकी स्वामीभक्ति अंत तक बनी रहती है। अंततः वह फुन्नन मियाँ के साथ ही मारा जाता है- ‘‘मर गए फुन्नन मियाँ।
   ‘‘मर गया छिकुरिया।
   ‘‘दोनों के खून मिल गएमगर कोई तीसरा रंग पैदा नहीं हुआ। क्योंकि दोनों के खून का रंग एक ही था।’’
  वस्तुतः छिकुरिया और झिन्गुरिया दोनों ही फुन्नन मियाँ की रियाया (प्रजा) हैं जो उनके लिए बलिदान हो जाते हैं। इनके चरित्र से सामंती संरचना की परतें ही नहीं उद्घाटित होतीं अपितु साम्प्रदायिक सौहार्द की स्थिति का भी पता-चलता है। गंगौली के मियाँ लोगों के लिए ही नहीं छिकुरिया के लिए भी पाकिस्तान एक पहेली है- ‘‘हम त समझत बाड़ीं की ई पाकिस्तान कउनो महजिद-ओहजिद होई।’’
   झिंगुरिया और छिकुरिया हिन्दू नहीं हैंवे मुसलमान भी नहीं हैवे फुन्नन मियाँ के आदमी हैं और उनकी चेतना भी फुन्नन मियाँ से सम्बद्ध है।
  5. गोबरधनगंगौली के बनिया गोबरधन की इतनी हैसियत है कि ‘‘वह मियाँ लोगों के यहाँ आता तो पाइँती  जगह पाता। यह एक ऐसा ऐज़ाज था जो गंगौली में किसी गैर षिया को अब तक नहीं मिला था।’’ वह गंगौली में घर जमाई बनकर रह रहा था। वह व्यापार में हजारों के नफे-नुकसान की चर्चा करता था। उसकी ख्याति थी कि वह लाखों का माल छिपाए था। झिंगुरिया के बार-बार सेंध मारने और खाली हाथ लौटने के बावजूद उसकी ख्याति बढ़ती जाती थी। उसके व्यापार की पोल तब खुलती है जब अंग्रेज सरकार के लिए चंदा उगाहते समय ठाकुर हरनारायन प्रसाद दस हजार की माँगकर बैठते हैं। वह अपनी कारोबारी बही और एक थैली लेकर पहुँचता है- ‘‘हमार कुल कारोबार एही में बायसरकार।’’ गोबरधन ने कहा, ‘‘और पूँजी थैलिया माँ और गिन लियन चार सौ अगारा रूपिया है। अब हम का कहें।’’ .........उसका कारोबार एक ख्वाब था। एक बेज़रर ख्वाब।’’ थानेदार और हकीम साहब के सामने हक़ीकत खुलने पर वह गंगौली छोड़कर संन्यासी बन जाता है।
       बाबा के वेष में उसका अवतरण समीप के एक गाँव में मंदिर पर होता है जो चमत्कारी किस्म का है। अपने तथाकथित चमत्कारों से वह लोकप्रिय होता जाता है। जब थानेदार का छापा पड़ता है तो वह भाग जाता है। उसकी बही से पता चलता है कि वह अब भी अपने स्वप्नजीवी व्यापार से मोह त्याग नहीं पाया था। जब थाना क़ासिमाबाद फूँका जा रहा था तो उसे फूँकने वाली भीड़ में गोबरधन भी शामिल था। पुलिस की ओर से होने वाली गोलीबारी में वह मारा जाता है। वह शहीद बन जाता है। बालमुकुन्द वर्मा उसकी प्रशस्ति करते हैं- ‘‘अमर है वह गाँव और धन्य हैं वे माता-पिता जिन्होंने मातृभूमि पर हरिपाल और गोबरधन जैसे सपूतों की आहुति दी! धन्य है कासिमाबाद की यह पवित्र भूमिजिसके माथे पर गोबरधन और हरिपाल के रक्त का तिलक लगा हुआ है।’’
6. गया अहीर- गया अहीर हम्माद मियाँ का लठैत है। उसकी स्थिति बहुत कुछ झिंगुरिया और छिकुरिया की सी है। वह ताजियादारी के दौरान हुई फौज़दारी में हकीम साहब पर लाठी उठाने से गुरेज नहीं करता लेकिन मियाँ लोगों का बहुत सम्मान करता है। ‘‘यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि जो गया अहीर सैय्यद अशरफ़ के भृत्य व सेवक के रूप में स्वयं इस भेदभाव का शिकार थावही अनजाने ही इस ऊँच-नीच को बरकरार रखने के ऐच्छिक साधन के रूप में इस्तेमाल हो रहा था। जिन हम्माद मियाँ का रोबदाब गया अहीर की लाठी के बल पर कायम था वही हम्माद मियाँ हकीम साहब से अपने झगड़े का ठीकरा गया अहीर के सिर फोड़ते हैं।’’(वीरेंद्र यादव, अभिनव कदम) गया स्वयं निम्न कुलोत्पन्न हैकिन्तु जाति या वर्ग की आधुनिक चेतना के बजाय वह परम्परागत कुलीन तंत्र को बनाए रखने का हिमायती है। वह मासूम को कबड्डी खेलनेवाले लड़कों से छुड़ाता है और कड़ी फटकार लगाता है। वह मासूम को भी समझाता है- ‘‘आप मियाँ हुईंआप के ई ना चाही।’’
  गया सामंती संरचना का अनिवार्य अंग है। वह वर्ग चेतना से पूर्णतया अनभिज्ञ है। उसके हित अनिवार्यतः मियाँ लोगों से सम्बद्ध हो गये हैंइसलिए वह जब कभी सोचता है तो उसमें मियाँ लोगों के बदहाल होते जाने का मलाल है- ‘‘गया अहीर मजलिस के इन हंगामों से जरा हटकर गुसलखाने के दरवाज़े पर बैठा लौंडों को गलिया-गलियाकर चुप करवा रहा था। बड़ा सुफैद फरहरा हवा में लहरा रहा था। फरहरा कई जगह से फट गया था और गया सोच रहा था कि इस जंग ने तो मोहर्रम की रौनक छीन ली है। वरना भला बड़के फाटक पर फटा हुआ फरहरा लग सकता था।’’ वह जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी हम्माद मियाँ के साथ लगा रहता है क्योंकि उसकी चेतना मियाँ लोगों के हितार्थ है।
  इन पात्रों के अलावा उपन्यास में कई अन्य पात्र हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। चिरौंजी फुन्नन मियाँ का लठैत है। कोमिला चमार बेवजह हकीम अली कबीर के लिए फाँसी चढ़ जाता है। इनके जेल जानेफाँसी चढ़ जाने से कोई हलचल नहीं होती क्योंकि इनका अपना कोई व्यक्तित्व-अस्तित्व नहीं। जमींदारी का चक्र इतना प्रभावशाली है कि पंडित मातादीन को मियाँ लोगों की टहल बजानी पड़ती है। दारोगा ठाकुर हरनारायन प्रसाद के लिए शरबत बनाने के लिए उन्हें बुलाया जाता है। तमोली पान बनाने एवं पेश करने के लिए बुलाया जाता है। गंगौली के मीर साहेबान के यहाँ हड्डी की शुद्धता और अपने अशरफ़ होने का इतना गर्व है कि निम्न जाति के हिन्दुओं का कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं बन पाता। जवाद मियाँ की रखैल बन जाने के बीसियों वर्ष बाद भी कम्मो की माँ रहमान बो ही रहती है। इसी तरह सुलेमान के झंगटिया बो को घर में डाल लेने पर भी वह झंगटिया बो बनी रहती है।
 ‘आधा गाँव’ में लोगों का सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार संकीर्णताओं से परे हैं। उनके आपसी सम्बन्ध को धार्मिकता प्रभावित नहीं कर पाती। इसीलिए छिकुरिया मास्टर जी से मिलकर उदास लौटता है। स्वामी जी के प्रवचन से उत्तेजित लोगों को जयपाल सिंह खदेड़ लेते हैं। बालमुकुंद वर्मा शहीदों के उल्लेख में जब मुमताज का एक भी बार नाम नहीं लेते तो फुन्नन मियाँ को बुरा अवश्य लगता है लेकिन वे इसे भाव नहीं देते। वस्तुतः जमींदारी का सामंती ढाँचा साम्प्रदायिकता को प्रसरित नहीं होने देता।
  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जमींदारी उन्मूलन के परिणामस्वरूप नयी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था लोगों में बुनियादी परिवर्तन की चेतना का संचार करती है। दलितों का एक वर्ग तेजी से धनाढ्य बन रहा है। लखना चमार जमीन खरीद रहा है। सुखरमवा हकीम साहब पर कर्ज अदायगी हेतु सम्मन भिजवा रहा है और एक वर्ग सीधे-सीधे परसुराम से कह रहा है- ‘‘ई जमींदार लोगन का मिजाज जमींदारी के चल जाए से भी ठीक ना भया है।’’ यही वर्ग फुस्सू मियाँ से जूते खरीद रहा है और अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर रहा है।
  वास्तव में, ‘आधा गाँव’ के शिया सैय्यदों की इस कहानी में हिन्दुओं का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ ध्यातव्य है कि पाकिस्तान विमर्श साम्प्रदायिक सौहार्द और गंगा-जमुनी तहजीब की जो तस्वीर इस उपन्यास से उभरती है वह हिन्दुओं के चरित्रांकन के अभाव में सम्भव नहीं। हिन्दुओं के उल्लेख के अभाव में उस सामंती संरचना का भी निदर्शन संभव नहीं था जिसमें लोगों के सम्बन्ध धार्मिकता से नहींबल्कि सहअस्तित्व एवं परस्पर निर्भरता से प्रभावित होते थे। इन सम्बन्धों में जमींदार और प्रजा का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों से ऊपर था। राही मासूम रज़ा ‘आधा गाँव’ में ही नहीं अपने समग्र साहित्य में जिस भारतीयता को रेखांकित करते हैं वह दोनों समुदायों के आपसी तालमेल से ही बना है।

संदर्भ-सूची
1.  राही मासूम रज़ाआधा गाँवभूमिकाराजकमल प्रकाशननई दिल्लीतीसरा संस्करण.
2.  वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमानअभिनव कदम,
3. कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005


रविवार, 8 सितंबर 2013

कथावार्ता : साम्प्रदायिकता: अर्थ, परिभाषा, कारण एवं भारत में इसका प्रसार



साम्प्रदायिकता वर्तमान में सर्वाधिक बार प्रयुक्त होने वाला और कई अर्थों में प्रयुक्त होने वाला पद है. जितना इसके अर्थ में उतार-चढ़ाव आया है उतना शायद ही किसी अन्य पद के. इस अवधारणा को ठीक से समझे जाने की जरूरत है. यहाँ इसी दृष्टि से इस पद को समझने की कोशिश हुई है. आज जबकि उत्तर प्रदेश के कई जिलों में साम्प्रदायिक दंगे फैले हुए हैं, यह लेख शायद इस पद को समझने में हमारी मदद करे. अपनी राय से परिचित जरूर कराईयेगा..
    
(अ) अर्थ:-
साम्प्रदायिकता सम्प्रदायशब्द का विशेषण है। हिन्दी शब्दसागरमें सम्प्रदायके सात अर्थ दिए गए हैं- ‘‘1. देनेवाला,  दाता 2. गुरू परम्परागत उपदेश,  गुरूमंत्र 3. कोई विशेष सम्बन्धी मत 4. किसी मत के अनुयायियों की मण्डली,  फि़रका 5. मार्ग,  पथ 6. परिपाटी,  रीति,  चाल 7. भेंट,  दान।’’1 हिन्दू धर्मकोश में डॉ0 राजबली पाण्डेय ने सम्प्रदाय का अर्थ दिया है- ‘’गुरू परम्परागत अथवा आचार्य परम्परागत संघटित संस्था। भरत के अनुसार शिष्ट परम्परा प्राप्त उपदेश ही सम्प्रदाय है। इसका प्रचलित अर्थ है गुरू परम्परा से सदुपदिष्ट व्यक्तियों का समूह।’’2 वामन शिवराज आप्टे के संस्कृत- हिन्दी कोशमें भी इसी से मिलता-जुलता व्युत्पत्तिपरक अर्थ दिया गया है- ’’(सम्+प्र+दा+घं) 1.शिक्षा की विशेष पद्धति,  2. धार्मिक सिद्धान्त जिसके द्वारा किसी देवता विशेष की पूजा बतलाई जाय, 3. प्रचलित प्रथा, प्रचलन।’’3 इसी से मिलते जुलते अर्थ हिन्दी विश्वकोश में दिए गए हैं।4
सम्प्रदाय का प्रचलित अर्थ एक मत विशेष को मानने वाले समुदाय से आकर रूढ़ हो गया है। इस रूढ़ अर्थ में बँधकर इसने एक वाद का रूप ग्रहण कर लिया है- ’’जब कभी सम्प्रदायवाद, साम्प्रदायिकता, सामुदायिक दृष्टिकोण शब्दों का प्रयोग किया जाता है तब इनका अर्थ दो सम्प्रदायों में विद्यमान विद्वेष, तनाव, सन्देह अथवा संघर्ष के भाव को व्यक्त करना होता है। इस प्रकार का विद्वेष अथवा तनाव धर्म, भाषा अथवा प्रजाति के तत्त्वों पर आधारित होता है। भारत के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग विशेषतः विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच अलगाव एवं वैमनस्य के भाव को अभिव्यक्त करता है।’’5
सम्प्रदाय का अंग्रेजी पर्याय Communal है जो समुदायका वाची है। समाजशास्त्र विश्वकोश में ‘‘व्यक्तियों के ऐसे संकलन अथवा संग्रह को समुदाय6  कहा गया है ‘‘जिसके सदस्य अपनी प्रतिदिन की क्रियाओं के सम्पादन हेतु एक सामान्य भू-भाग को सहभागियों के रूप में प्रयोग करते हैं तथा जिनमें हम भावनाप्रबल रूप में विद्यमान होती है।’’7  समाज से इसके अन्तर को स्पष्ट करते हुए बताया गया है- ‘‘समुदाय में जहाँ घनिष्ठता और व्यक्तिगतता मिलती है वहाँ समाज में सम्बन्ध अव्यक्तिगत और लगावरहित होते हैं।’’8
जर्मन भाषा में समुदाय के लिए Geminschaft’ शब्द प्रयुक्त होता है। सन् 1887 ई0 में जर्मन विद्वान एफ0 टानिज ने अपनी रचना गेमिनशेफ्ट एवं गैसिलशेफ्टमें इस शब्द की अवधारणा प्रस्तुत की और इसकी विशिष्टताओं को रखा। ‘‘टानिज ने घनिष्ठता, स्थायित्व तथा समाज में एक दूसरे की प्रस्थिति के स्पष्ट बोध पर आधारित सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने द्वारा बने समूह के लिए इस अवधारणा का प्रयोग किया। इन विशेषताओं से युक्त समूह के सदस्य जीवन में आने वाले दुःखों एवं सुखों को हँस-मिलकर बाँट लेते हैं।’’9
आशय यह कि साम्प्रदायिकता एक अवधारणा है जो समुदायों के संघर्ष एवं टकराव के कुछ अन्तर्निहित मूल्यों के कारण सिद्धान्त रूप में आती है। यह एक वैश्विक समस्या है लेकिन ‘‘आधुनिक भारत के इतिहास में साम्प्रदायिक समस्या का अर्थ है विभाजन से पूर्व जनसंख्या के 26 करोड़ हिन्दू समुदाय का लगभग 9 करोड़ 40 लाख मुस्लिम समुदाय के साथ सम्बन्धों का विश्लेषण।’’10  भारत चूँकि कई धर्मों एवं समुदाय के लोगों का देश है अतः लोगों का आपसी सम्पर्क सद्भाव एवं टकराव की गतिविधियों से संचालित होता रहता है। भारत के दो प्रमुख सम्प्रदायों हिन्दू एवं मुलसमानों का आपसी सम्पर्क इन्हीं सद्भाव एवं टकराव से आधारित सम्बन्धों पर टिका है। उनके सम्पर्क के लगभग 1300 वर्ष पूरे हो रहे हैं। उनके आपसी सम्पर्क के टकराव पक्ष के मन्तव्यों का विश्लेषण करते हुए सदैव यह तथ्य उभर कर आता रहा है कि समुदायों और उनके नेतृत्व द्वारा विपरीत समुदाय के लोगों के प्रति किए गए दुर्भावनापूर्ण कृत्य तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की उपज थे। ‘‘यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ब्रिटिश साम्राज्य के स्थापना के पूर्व भारत के दो प्रमुख समुदायों- हिन्दू और मुस्लिम- में साम्प्रदायिक संघर्ष के उदाहरण नहीं मिलते।’’11  साम्प्रदायिक समस्या एक आधुनिक परिघटना है। ऐसा नहीं है कि मध्ययुगीन काल में साम्प्रदायिक समस्या नहीं थी। ‘‘साम्प्रदायिक तनाव मध्यकाल में भी मिलते हैं पर साम्प्रदायिक राज्यनीति का उदय उपनिवेशवाद के दौरान हुआ।’’12  जब साम्प्रदायिकता की चर्चा होती है तो अनिवार्य रूप से राजनीति के लिए धर्म के हिंसक इस्तेमाल का मामला प्रभावी होता है। हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का आरम्भिक सम्पर्क एवं उनके क्रमिक विकास के अध्ययन से इसे समझा जा सकता है।
(ब) परिभाषा:-
साम्प्रदायिकता एक समुदाय विशेष के लोगों के लिए इस विश्वास पर आधारित अवधारणा है कि ‘‘किसी खास धर्म को मानने वाले लोगों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक हित भी समान होते है। यह वही धारणा है जो भारत में हिन्दू,  मुसलमान,  ईसाइयों और सिखों को अलग-अलग समुदाय मानती है,  जिनका निर्माण एक दूसरे से अलग-थलग और बिल्कुल स्वतन्त्र रूप से हुआ है।’’13  साम्प्रदायिकता को परिभाषित करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार एवं विचारक विपनचन्द्र ने भी इसी तरह के विचार प्रकट किए हैं- ‘‘साम्प्रदायिकता का आधार ही यह धारणा है कि भारतीय समाज कई ऐसे सम्प्रदायों में बँटा हुआ है जिसके हित न सिर्फ अलग हैं बल्कि एक दूसरे के विराधी भी हैं। साम्प्रदायिकता के जन्म के पीछे का विश्वास यह भी है कि राजनीतिक और आर्थिक से लेकर सामाजिक और सांस्कृतिक इरादों के लिए लोगों को सिर्फ धर्म की रस्सी से ही बाँधकर आँका जा सकता है। दूसरे शब्दों में अलग-अलग समुदायों के हिन्दू,  मुस्लिम,  सिख और ईसाई सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं बल्कि धर्म से परे मामलों में भी एक निश्चित समूह की तरह आचरण करेंगे क्योंकि उनका धर्म एक है।’’14  गोपीनाथ कालभोर साम्प्रदायिकता पर चर्चा करते हुए इस वृत्ति में विध्वन्सक एवं दंगाई होने को भी शामिल करते हैं- ‘‘समूहों के हितों के बीच होने वाले टकराव का रूप जब विध्वन्सक और दंगाई हो जाय तो तब वह साम्प्रदायिक कहलाता है।’’15
      एक अवधारणा के रूप में साम्प्रदायिकता के स्थापित होने के पीछे इसकी सुगठित एवं व्यवस्थित विचारधारा है। इसके स्वगठित सिद्धान्त हैं जो कई ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक मिथकों पर आधारित हैं और इस भावना के प्रचार-प्रसार में इन मिथकों का पर्याप्त योगदान स्वीकार किया जाता है। साम्प्रदायिकता दो या दो से अधिक समुदायों के टकराव एवं संघर्ष के आधार पर फलती-फूलती है। इस प्रक्रिया में वह हिंसक हो उठती है। साम्प्रदायिक हिंसा के लक्षणों पर लिखते हुए राम आहूजा लिखते हैं- ‘‘साम्प्रदायिक हिंसा में दो विभिन्न धर्मों से सम्बद्ध लोग सम्मिलित होते हैं जो एक दूसरे विरूद्ध गतिवान हो जाते हैं तथा एक दूसरे के प्रति दुश्मनी,  भावनात्मक क्रोध,  शोषण, सामाजिक भेदभाव तथा सामाजिक उपेक्षा से पीड़ित होते हैं। एक सम्प्रदाय की दूसरे के प्रति एकता उच्च कोटि के तनावों एवं ध्रुवीकरण के बीच बनी हुई है। आक्रमण के लक्ष्य शत्रु  समुदाय के सदस्य होते हैं। सामान्यतः साम्प्रदायिक दंगों के दौरान कोई नेतृत्व नहीं होता जो कि दंगे की स्थिति को रोक सके या नियन्त्रित कर सके।’’16
      साम्प्रदायिकता धार्मिक, भाषाई एवं नृतत्वीय आधारों पर अस्तित्व में आती है जो राजनीति के चक्कर में पड़कर विकसित होती है। राम पुनियानी ने साम्प्रदायिकता को राजनीति की घिनौनी हरकतों का परिणाम कहा है। उनके मत में साम्प्रदायिकता का एक भयानक सच साम्प्रदायिक हिंसा है जो ‘‘समाज में गहराई से पैठी सड़न की अभिव्यक्ति है। साम्प्रदायिक राजनीति सभी सामाजिक पहचानों पर धर्म का मुखौटा लगा देती है।’’17 साम्प्रदायिकता पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए वे लिखते हैं- ‘‘साम्प्रदायिकता के कई पहलू हैं और इसके बारे में कई मत हैं। एक आम मत यह है कि साम्प्रदायिकता सम्भ्रान्त लोगों की राजनीति है लेकिन इसे समाज के बड़े वर्गो को इकठ्ठा करके निष्पादित किया जाता है। ये वर्ग इस विश्वास के साथ इसमें हिस्सा लेते हैं कि यह धर्म और पुरानी परम्परा द्वारा पवित्र मानी गई व्यवस्था को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास है। इसका उद्देश्य सम्भ्रान्त वर्ग की राजनीतिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा करना होता है। इसकी सफलता इसके आकर्षण पर निर्भर करती है। शुरूआत इस आधार पर होती है कि एक धर्म के अनुयायियों के हित एक समान होते हैं।.......इसका उग्र रूप उस समय सामने आता है जब यह कहा जाता है कि एक समुदाय के लिए दूसरे धार्मिक समुदाय के हितों के विरोधी होते हैं।’’18 साम्प्रदायिकता के भाषाई एवं नृतत्वीय आधार कम दिखते हैं- धार्मिक आधार अधिक। धार्मिक आधार पर भावनाओं को आसानी से उभारा जा सकता है।
(स) प्रकृति:-
भारत में विदेशी आक्रान्ताओं में मुसलमान इस अर्थ में अन्य से अलग थे कि उन्होंने संस्कृति के स्तर पर स्वयं को हिन्दुत्व से पृथक् रखा लेकिन ब्रिटिश उपनिवेश का भारत में स्थापित होना इस अर्थ में और भी विशिष्ट है कि अंग्रेजों ने कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं माना। उन्होंने इस देश का न सिर्फ अपने आर्थिक हितों के लिए दोहन किया अपितु धार्मिक आधार पर भी शोषण करने की कोशिश की। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना ने लगभग एक हजार वर्ष के भारतीय समाज की संरचना में व्यापक उथल-पुथल किए। ज्ञान-विज्ञान,  तकनीक,  सभ्यता,  औपनिवेशिक यूरोपीय शक्तियों द्वारा अंग्रेजों एवं अन्य औपनिवेशिक यूरोपीय शक्तियों ने सोए हुए भारतीय समाज के अन्तस  में चेतना का नवसंचार किया। अंग्रेजों का आगमन भारतीयों के लिए वैसा ही कल्याणकारी प्रतीत हुआ जैसा लगभग 7वीं-8वीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन पर हुआ था। हिन्दू समुदाय ने इस पश्चिमी सभ्यता के तत्त्वों को अपेक्षाकृत पहले अंगीकृत किया एवं तमाम सामाजिक,  धार्मिक एवं सांस्कृतिक सुधार के आन्दोलन चलाए। हालांकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मन्सूबे ख़तरनाक थे लेकिन पुनर्जागरण की धारा एवं विजेता की नीति ने इस समाज को नवीन संसार के रूबरू किया। अंग्रेजी सत्ता बिना किसी बड़े प्रतिरोध के एक बड़े भू-भाग पर राजनीतिक रूप से स्थापित होती जा रही थी। 1857ई0 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दुओं एवं मुसलमानों के सम्मिलित आन्दोलन एवं अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ़र के नेतृत्व में पुनः एक जुट होने की आकांक्षा ने अंग्रेजी सत्ता को नई नीतियां बनाने के लिए प्रेरित किया।
      ईस्ट इण्डिया कम्पनी और 1858 ई0 के बाद अंग्रेजी राज के सीधे प्रशासनिक नियंत्रण में अंग्रेजों ने महसूस किया कि हिन्दुओं और मुसलमानों की एकता को तोड़कर ही शासन को न सिर्फ़ व्यवस्थित किया जा सकता है अपितु सुचारु रूप से चलाया भी जा सकता है। अतः उन्होंने फूट डालो और राज्य करोकी नीति का अनुसरण किया। साम्प्रदायिकता इसी नीति का परिणाम थी।

      वस्तुतः ‘‘साम्प्रदायिकता एक जटिल परिघटना है। इसे सिर्फ समसामायिक, सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भो में ही नहीं समझा जा सकता। इसकी एक ऐतिहासिक,  मध्यकालीन एवं आधुनिक पृष्ठभूमि है।’’19  इस जटिलता को समझने के लिए आधुनिक पृष्ठभूूमि को समझने एवं वास्तविकताओं का उद्घाटन करने की आवश्यकता है। साम्प्रदायिकता के अपने मानदण्ड हैं। वास्तव में ‘‘साम्प्रदायिक राजनीति सामान्य जनचेतना के माध्यम से काम करती है। यह चेतना दूसरेसमुदाय के बारे में अवचेतन में पनप रहे विचारों से निर्मित होती है। राजनीतिक संगठनों का महत्वपूर्ण वर्ग कुछ चुनी हुई प्रथाओं और इतिहास की कुछ घटनाओं/पहलुओं को चुन लेता है। और बार-बार उनका राग अलापता रहता है और दूसरेसमुदाय की विशिष्ट छवि बना लेता है।’’20
      साम्प्रदायिकता का उदय किसी घटना या कारक के धार्मिक,  क्षेत्रीय,  राजनीतिक,  सामाजिक, आर्थिक अभिरूचि पर निर्भर करता है। अपना हित साधने के लिए एक समुदाय लगातार इस भावना का समुचित पोषण समुदाय के अन्य लोगों में करता रहता है और इस घटना के निहितार्थ उद्घाटित करता है। इन निहितार्थों में अनिवार्य रूप से यह अपील छिपी होती है कि घटना का सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव किन वजहों से है। सकारात्मक प्रभावों को वे अपने समुदाय के सहयोग के रूप में प्रचारित करते हैं जबकि नकारात्मक प्रभावों को दूसरेसमुदाय की कुटिलता एवं षड्यन्त्रों का परिणाम मानते हैं।
      साम्प्रदायिक शक्तियाँ अपने कार्यों को वैधानिक आधार प्रदान करने के लिए तथ्यों का स्वैच्छिक उपयोग करती हैं,  उन्हें मिथकीय रूप देती हैं ताकि भावनाओं को उग्र रूप दिया जा सके। वे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती हैं,  धार्मिक,  सांस्कृतिक कुरूपताओं के चित्र खींचती हैं और अपना लक्ष्य साधती हैं- ‘‘साम्प्रदायिक संगठनों का विकास पथ बहुत जटिल है। आज हम जो देख रहे हैं वह एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम है, जिसके अन्तर्गत राजनीति से प्रेरित विश्वासों को सामाजिक जनचेतनामें बदल दिया जाता है। यही सामाजिक समझ बन जाती है जो समाज के प्रमुख वर्गों और इसके बाद दूसरे वर्गों की सोच को दिशा देती है। साम्प्रदायिक चिन्तन प्रक्रिया के विकास का अपना एक तर्क लाजिक होता है। कालान्तर में विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक समझ को पीछे धकेल दिया जाता है। साम्प्रदायिक समझ न केवल हावी हो जाती है बल्कि सामाजिक व्यवहार को नियन्त्रित करती है यही व्यवहार अपने बदतर रूप में साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बनता है।’’21
      साम्प्रदायिकता अपने मूल रूप में वह अवधारणा है जो निश्चित मानकों पर सुव्यवस्थित एवं सुचिन्तित तरीके से निर्मित होती है।
(द) साम्प्रदायिकता के मिथक:-
‘‘साम्प्रदायिकता को समझने में छद्म चेतना की संकल्पना की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।’’22 इस अवधारणा के कुछ मिथक हैं, जिन्हें साम्प्रदायिक शक्तियाँ इतिहास,  समाज,  संस्कृति के तत्त्वों से निर्मित करती हैं। मिथक उन विश्वासों पर आधारित होते हैं, जिनमें सत्य की छाया मात्र होती है। आभासी रूप में वे सत्य प्रतीत होते हैं लेकिन वास्तव में सत्य होते नहीं। साम्प्रदायिक शक्तियाँ इन मिथकों को गढ़ते हुए इतिहास, धर्म सामाजिक व्यवहार सांस्कृतिक विशिष्टताओं का प्रचुर उपयोग करती हैं। वे यह मानकर चलती हैं कि ‘‘मुस्लिम शासन हिन्दुओं पर अत्याचार और अपमान का युग था। उनका कहना है कि आज जब हिन्दुओं के पास राजनीतिक एकाधिकार है तो उन्हें बदला लेना चाहिए। ‘‘दूसरी ओर मुस्लिम साम्प्रदायिकतावादी मानते हैं कि मुस्लिम काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है, मुसलमानों के आने से पहले अन्धकार था और भारतीय भद्दे और असभ्य थे। मुसलमानों ने उनको सुसभ्य और सुसंस्कृत बनाया।’’23 साम्प्रदायिकता के मिथकों को गढ़ते हुए सदैव इस बात को दुहराया जाता है कि हमारे वर्तमान की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी हमारा अतीत है। इस अतीत की संरचना का बेहद सावधानी से गठन करते हुए ऐसी अवधारणाएं प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे न सिर्फ अपने समुदाय में श्रेष्ठता बोध भरा जाता है अपितु विरोधी समुदाय को हीन बताने की पुरजोर कोशिश होती है। ‘‘साम्प्रदायिक लोग यह दावा करते हैं कि वे भारतीय संस्कृति के संरक्षक और झण्डाबरदार हैं।.......हिन्दू, मुसलमानों और ईसाइयों के बीच सांस्कृतिक संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि इनका सांस्कृतिक धरातल अलग है और परिभाषा के हिसाब से भी इनके धर्मों के चरित्र अलग-अलग हैं।’’24
साम्प्रदायिक शक्तियाँ इतिहास के कुछ शासकों एवं आक्रान्ताओं यथा,  मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी,  मुहम्मद ग़ोरी,  बाबर,  औरंगजेब आदि को खलनायकों के रूप में चित्रित करती हैं और इनके प्रतिरोधकर्ता हिन्दू शासकों को मसीहा। महाराणा प्रताप,  पृथ्वीराज चैहान,  शिवाजी आदि शासकों को हिन्दुओं का प्रतिनिधि बताया जाता है और इस सिद्धान्त को स्थापित किया जाता है कि दोनों समूहों के आपसी सम्बन्ध इसी प्रकार टकराव से ही आगे बढ़े हैं। ठीक इसी तरह इसके विपरीत भी तर्क गढ़े जाते हैं और हिन्दू शासकों को खलनायक या कायर बताने वालों की संख्या भी कम नहीं है यह एक दूसरा पहलू भी है
एक विचारधारा के रूप  में क्रमगत विकसित इस अवधारणा की स्थापना के लिए बहुत सावधानी से बातें रखीं जाती हैं। राम पुनियानी ने अपनी पुस्तक साम्प्रदायिक राजनीति : तथ्य एवं मिथकमें क्रमवार प्रश्नोत्तर रूप में इन मिथकों एवं उनकी वास्तविकताओं को उद्घाटित किया है। वस्तुतः ‘‘साम्प्रदायिकता सामाजिक यथार्थ को संकल्पना देना नहीं है, अपितु इसकी छद्म चेतना है।’’25
(ई) कारण, उद्भव एवं विकास:-
साम्प्रदायिकता एक जटिल अवधारणा है जिसके कारणों एवं उत्पत्ति का विश्लेषण भी जटिल है। चूंकि ‘‘साम्प्रदायिकता यथार्थ की आंशिक दृष्टि नहीं थी जो केवल साम्प्रदायिक पक्ष को देखती थी, राष्ट्रीय पक्ष को नहीं; क्योंकि यथार्थ का कोई साम्प्रदायिक पक्ष था ही नहीं। यह तो यथार्थ को देखने का गलत दृष्टिकोण था। अतः उपनिवेशवाद और भारतीयों के बीच वस्तुगत विरोध राष्ट्रीय आन्दोलन का यथार्थ कारण था, किन्तु हिन्दू-मुस्लिम विरोध का कोई यथार्थ आधार न होने के कारण साम्प्रदायिकता का यथार्थ कारण नहीं था।’’26
साम्प्रदायिकता के प्रमुख कारकों में धर्म अनिवार्य तत्त्व है। धर्म में भावना का पुट होता है और यह व्यक्ति के जीवन को गहरे प्रभावित करता है। माक्र्स ने धर्म के प्रभावों के आकलन से ही यह निष्कर्ष दिया था कि धर्म जनता के लिए अफ़ीम है। भारत के दो प्रमुख समुदाय हिन्दू और मुसलमानों का धर्म अपने व्यवहार एवं सिद्धान्त रूप में विरोधी प्रतीत होता हैं। अतः इसके आधार पर भावनाओं को उग्र रूप देना सरल होता है। गाँधी जी धर्म के इस महत्व को पहचानते थे तभी उन्होंने तुर्की में उठे खि़लाफ़त मुद्दे को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए उपयोग करना चाहा और किया। लेकिन सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि ‘‘धर्म साम्प्रदायिकता का कारण नहीं है (जैसा कि भारत : एक खोजमें जवाहरलाल नेहरू ने माना है, ‘‘साम्प्रदायिक झगड़ों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, हालांकि धर्म इन मुद्दों का बहाना बन जाता है।’’)  और साम्प्रदायिता को भी धर्म में कोई ख़ास दिलचस्पी या उससे लेना-देना नहीं है मगर यह भी सच है कि धार्मिक मतभेदों को साम्प्रदायिक अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं और धर्म से राजनीतिक हित साधते हैं। इसके अलावा धर्म से उनका कोई रिश्ता नहीं है।’’27  पूर्व प्रधानमन्त्री इन्द्रकुमार गुजराल भी मानते हैं- ’’लोगों को यह बताने की जरूरत है कि धार्मिक रिवाजों का पालन साम्प्रदायिकता नही है लेकिन राजनीति के हथियार के रूप  में धर्म का उपयोग निश्चित ही साम्प्रदायिकता है। व्यक्तिगत स्तर पर आत्मिक अनुभव साम्प्रदायिकता है।........प्रत्येक प्रथा जो रुढ़िवाद और फूटपरस्ती को बढ़ावा दे, वह निश्चित तौर पर साम्प्रदायिक है। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति साम्प्रदायिक नहीं होता,  मगर प्रत्येक साम्प्रदायिक व्यक्ति धर्म का चोला जरूर पहनता है। मुश्किल इस बात की है कि वे लोग भी जो अपने को धार्मिक कहते हैं वह भी यह बताने में असमर्थ हैं कि कहाँ धार्मिकता समाप्त होती है और साम्प्रदायिकता शुरु होती है।’’28  साम्प्रदायिक शक्तियाँ इसी अभेद दिखने वाले स्वरूप को अपने लिए इस्तेमाल करती हैं क्योंकि ‘‘धर्म साम्प्रदायिकता का मूल कारण नहीं है, यह केवल औजार है। साम्प्रदायिकता के मूल में राजनीति है।’’29  यह ‘‘एक आधुनिक परिघटना है जो दो प्रमुख सम्प्रदायों के अभिजात वर्ग के बीच राजनीतिक सत्ता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के कारण पैदा हुई है।’’30

अंग्रेजी शासन ने मध्यकालीन सामन्ती व्यवस्था के जड़ समाज में प्रतिस्पर्धा का भाव भरा। राजनीतिक एवं आर्थिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन हुए। मध्यकालीन दरबारी व्यवस्था में जातिगत श्रेष्ठता, योग्यता का मानदण्ड होती थी और राजा के लिए लड़नेवाले/वफ़ादार लोग उच्चपदों पर आसीन थे। अंग्रेजी व्यवस्था में शासन कार्य के लिए कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका की पृथक् संकल्पना आई, जिसे सुचारू रूप से चलाने के लिए अंग्रेजों ने भारतीयों की सहायता ली। विधायिका के लिए प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष चुनावों की प्रणाली आरम्भ हुई। ‘‘चुनावों के माध्यम से (यद्यपि सीमित मताधिकार आधारित) लोकतान्त्रिक राजनीति की अवधारणा ने सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर दो प्रमुख सम्प्रदायों में विवाद को जन्म दिया। इसलिए जब 1883 ई0 में वायसराय कार्यकारिणी परिषद् में पहली बार स्थानीय स्वशासन बिल प्रस्तुत किया गया तो आधुनिक मुस्लिम सुधारक सर सैयद अहमद ख़ान ने इसका विरोध किया। इस विरोध का आधार दो सम्प्रदायों के बीच नगरपालिकाओं में सीटों की संख्या के आवंटन को लेकर था।’’31  यह विरोध ही साम्प्रदायिकता का बीज रूप सिद्ध हुआ। स्वशासन बिल के इस ‘‘सीमित लोकतान्त्रिक पहलकदमी ने विभिन्न जातियों और समुदायों के अभिजात वर्ग के बीच द्वन्द्व उत्पन्न किया। मुस्लिम शुराफ़ा (अभिजात) का प्रतिनिधित्व करने वाले सर सैयद ने इस द्वन्द्व को समझा और विधान परिषद् में बिना किसी लाग-लपेट के व्यक्त किया। लेकिन उनकी ये आशंकाएं व्यक्तिगत नहीं थी बल्कि अल्पसंख्यक सम्प्रदाय के अभिजात वर्ग की थीं। अल्पसंख्यकों को हमेशा यह आशंका रहती है, जो कुछ स्वाभाविक भी है, कि बहुसंख्यक समुदाय के प्रभुत्व में उन्हें एक ओर सत्ता में उचित हिस्सा नहीं मिलेगा और दूसरी ओर उनकी धार्मिक सांस्कृतिक परम्पराएं हमले का शिकार होंगी। बहुसंख्यक समुदाय उस पर अपनी संस्कृति थोपेगा। यही आशंका अन्ततः पाकिस्तान निर्माण का आधार बनी।’’32  यह साम्प्रदायिकता के उत्पत्ति का प्रारम्भिक आधार था, जो आगामी वर्षों में और प्रभावी होकर उभरा। राजनीतिक प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर सदैव यह द्वन्द्व बना रहा जिसे अंग्रेजी सरकार अप्रत्यक्ष तौर पर प्रोत्साहित करती रही। कालान्तर में प्रत्येक लोकतान्त्रिक सुधारों एवं चुनावों मे यह द्वन्द्व मजबूत होता गया जिसकी राजनीति आगे चलकर मुस्लिम लीग एवं मुहम्मद अली जिन्ना ने की।
1909 ई0 के मार्ले-मिण्टो सुधारों की भूमिका में हिन्दू-मुसलमान साम्प्रदायिकता के प्रारूप निर्मित करने में सफल हो गए थे। 1905 ई0 में बंगाल का विभाजन एवं सामूहिक विरोध से बौखलाए लार्ड मिण्टो ने कांग्रेस की राजनीति को विफल करने के लिए प्रयास शुरू कर दिए थे। उसने आगा खाँ ने नेतृत्व में एक 35 सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल को आश्वासन दिया था कि- ‘‘भविष्य में किसी भी राजनीतिक एवं सांविधानिक परिवर्तन में मुसलमानों की इस देश के इतिहास और राजनीति में अहम् भूमिका का पूरा ध्यान रखा जाएगा।’’33  उसने पूरा ध्यान रखते हुए 1909 ई0 के सांविधानिक सुधारों में मुसलमानों को आवश्यकता से अधिक प्रतिनिधित्व दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह कि इन सुधारों में पृथक् चुनाव मण्डल बनाए गए जिस पर 1918 ई0 में प्रकाशित हुई भारतीय संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट में कहा गया- ‘‘यह (पृथक् चुनाव मण्डल) इतिहास की शिक्षा के विरूद्ध है। यह धर्मों तथा वर्गों को जीवित रखता है,  जिससे ऐसे शिविर अस्तित्व में आते हैं जो एक दूसरे के विरोधी होते हैं और उनमें एक नागरिक के रूप में सोचने की शक्ति प्रदान नहीं करते,  अपितु पक्षपाती बनने को प्रोत्साहित करते हैं।’’34  साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व देकर अलगाववाद एवं वैमनस्यता का यह कृत्य अंग्रेजी सरकार ने सिखों को 1919 ई0 में एवं 1935 ई0 में ‘‘हरिजनों,  भारतीय ईसाइयों,  यूरोपियों तथा एंग्लो-इण्डियनों’’35  के साथ भी करती रही।
1935 ई0 के अधिनियम में तो ‘‘साम्प्रदायिक तथा अन्य वर्गों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया। अधिनियम के मतदातामण्डल साम्प्रदायिक निर्णय¼Communal awards½ तथा पूना समझौतेके अनुसार नियत किए गए।’’36  इसके दूरगामी परिणाम हुए। इस अधिनियम के प्रति कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग दोनों ने असन्तोष प्रकट किया। कांग्रेस साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को लेकर असन्तुष्ट थी और जिन्ना मुस्लिम हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे थे। ’’बंगाल के मुख्यमंत्री फ़जल-उल-हक ने कहा था कि ‘‘न तो यह हिन्दू राज्य है और न ही मुस्लिम राज है।’’37  इस अधिनियम ने साम्प्रदायिकता के आधार को मजबूत किया जिसकी भयानक परिणति साम्प्रदायिक दंगों एवं देश विभाजन में हुई। स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान साम्प्रदायिकता के विकास को  असगर अली इंजीनियर ने अपनी पुस्तक भारत में साम्प्रदायिकता : इतिहास और अनुभवमें विस्तार से दिखाया है।
साम्प्रदायिकता को धार्मिक विभेद एवं कट्टरता का कारण नहीं उत्प्रेरक कहा जाता है। धर्म और राजनीति के आपसी गठबन्धन ने राजनैतिक ताकत में वृद्धि की। मुस्लिम लीग एवं जिन्ना का यह अडि़यल रवैया अधिकांश मुसलमानों का आकर्षित करता था कि मुस्लिम लीग ही मुसलमानों का सच्चा प्रतिनिधि है। रफ़ीक ज़कारिया ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि जब-जब जिन्ना का दुराग्रह असहनीय हुआ, उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए था न कि उसकी तुष्टि। बँटवारे से तो गृहयुद्ध बेहतर था। रफ़ीक ज़कारिया कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति को भी साम्प्रदायिकता के विकास के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं।38
राजनैतिक प्रभुत्व एवं अल्पसंख्यक होकर उपेक्षित होने के खतरे के अतिरिक्त साम्प्रदायिक विचारधारा की उत्पत्ति के कारणों में ‘‘19वीं शताब्दी में सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी के सवाल ने भी हिन्दू और मुस्लिम अभिजात वर्ग में कटु विवाद पैदा किया।’’39  अंग्रेजों के आगमन से आर्थिक संरचना में बदलाव आया था। राजदरबारों में उच्च जातियों एवं राजा के वफादारों को मिलने वाले उच्च पद अंग्रेजी शासन व्यवस्था में उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को मिलने लगे थे। नौकरशाही में भर्तियों की प्रक्रिया सिफ़ारिश की पद्धति के ठीक उलट थी और यह लक्षित किया गया था कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान के सम्पर्क में हिन्दू, मुसलमानों से बहुत पहले आ गये थे जिसका सीधा असर सरकारी नौकरियों में भी दिखा था जब मुसलमानों की अपेक्षा अधिक मात्रा में हिन्दू पदाधिकारी नियुक्त हुए।
आर्थिक विषमता के कारक और भी थे। मुस्लिम जनसंख्याबहुल प्रान्तों में शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व हिन्दू जमींदारों के हाथ में था। ‘‘भौगोलिक दृष्टिकोण से पंजाब और बंगाल दोनों ही प्रान्तों में.......व्यवसाय,  व्यापार और वित्तीय क्षेत्रों में हिन्दू आधिपत्य के कारण मुस्लिम मध्यवर्ग और उच्च वर्ग जो मुख्यतः भू-स्वामियों का वर्ग था एक तीव्र विद्वेष की भावना से प्रेरित हो रहा था और वह इस हिन्दू आधिपत्य को समाप्त करने का इच्छुक था।’’40  इसके अतिरिक्त भू-लगान व्यवस्था भी इस विद्वेष का सहयोगी तत्त्व थी। कई क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ मुसलमान काश्तकारों के जमींदार हिन्दू थे और उस क्षेत्र के व्यापार एवं साहूकारी पर हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व था। कई जगहों पर इसके विपरीत हिन्दू किसान थे और मुसलमान जमींदार. किसान इनके शिकंजे में फँसते चले गए और अन्ततः विद्वेषी बने। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास आनन्दमठ में इस शोषण का अंकन करने की कोशिश की है। जनसंख्या का असमान वितरण भी साम्प्रदायिकता के कारकों में परिगणित किया जाता है।
साम्प्रदायिकता के उद्भव एवं विकास में हिन्दू एवं मुस्लिम सुधारवादी आन्दोलनों का भी पर्याप्त प्रभाव है। हिन्दू सुधारवादी आन्दोलनों ने प्रत्यक्ष रूप से स्थानापन्न राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जो साम्प्रदायिक शक्तियों के लिए मिथक बन गए। इन सुधारवादी आन्दोलनों में सम्प्रदाय के नेताओं/सुधारकों ने अपनी दीन-हीन दशा के लिए इतिहास की घटनाओं को उत्तरदायी ठहराया, जिससे मुसलमानों के प्रति दृष्टिकोण में परिर्वतन आया। गोरक्षा आन्दोलन,  नागरी भाषा का विवाद आदि कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे थे, जिन पर सीधा आक्रमण सम्भव था। उर्दू-हिन्दी का विवाद और अदालतों के काम-काज की भाषा को लेकर दोनों समुदायों में वैमनस्यता आई।41
साम्प्रदायिकता के परिणाम भयंकर एवं वीभत्स दिखे। हिंसा इसका आवश्यक पक्ष है। राम आहूजा ने अपनी शोध धारणा व्यक्त की है- ‘‘साम्प्रदायिक हिंसा धर्मान्धों द्वारा भड़काई जाती है। असामाजिक तत्त्वों द्वारा प्रेरित की जाती है। राजनैतिक सक्रियतावादियों द्वारा समर्थित होती है। निहित स्वार्थ हितों वाले व्यक्तियों द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती है तथा प्रशासकों की निष्क्रियता से फैलती है।’’42
साम्प्रदायिकता की विचारधारा ने भारत मे एक बड़े समूह को बाहरी सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया है और उन्हें इसके लिए अभिशप्त बना दिया है। अल्पसंख्यक होने का बोध उनमें असुरक्षा भाव भरता है, साम्प्रदायिकता इस भाव को प्रौढ़ करती है। यह अलगाववाद को बढ़ावा देती है। प्रसिद्ध उपन्यासकार काशीनाथ सिंह ने अपने उपन्यास काशी का अस्सी  में साम्प्रदायिकता के प्रभाव को एक पात्र के माध्यम से निम्न शब्दों में अभिव्यक्त कराया है- ‘‘6 दिसम्बर की अयोध्या की घटना की देन क्या है?  जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का भाव नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातों-रात। रातों-रात चन्दा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया। देश की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गए। मामूली से मामूली टूटही मस्जिद पर भी लाउडस्पीकर लग गया। जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी उससे भोर और रात में अजान सुनाई पड़ने लगी। जो नमाज में नियमित नहीं थे वे नियमित हो गये।.........और सुनिएगा- गाजीपुर,  दिलदारनगर,  बक्सर, भभुआ,  आजमगढ़,  अरे! आप तो उधर के ही हैं,  सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से मुसलमान हुए लोगों की कितनी बड़ी तादाद है?  वे यह भी जानते हैं कि हम एक ही घराने के और परिवार के रहे हैं। वे एक जमाने से ठाकुरों-भूमिहारों के यहाँ बिना किसी भेद-भाव के आते-जाते थे। न्यौता-हंकारी,  तीज-त्यौहार साथ मनाते थे। एक ही खटिया-मचिया थी, जिस पर बैठा करते थे। कभी फ़र्क ही नहीं मालूम पड़ता था दोनों के बीच। लेकिन चीजें बदल गईं उस घटना के बाद।’’43

सन्दर्भ सूची :-
1. हिन्दी शब्द सागर, दसवाँ भाग
2. डॉ0 राजबली पाण्डेय,  हिन्दू धर्म कोश, पृष्ठ-662
3.  वामन शिवराम आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश, पृष्ठ-1083
4.  नगेन्द्रनाथ वसु, सं0, हिन्दी विश्वकोश,  23वाँ खण्ड, पृष्ठ-632
5.  हरिकृष्ण रावत,  समाजशास्त्र विश्वकोश,  पृष्ठ-45
6. हरिकृष्ण रावत,  समाजशास्त्र विश्वकोश, पृष्ठ-46
7.  हरिकृष्ण रावत,  समाजशास्त्र विश्वकोश, पृष्ठ-46
8.  हरिकृष्ण रावत,  समाजशास्त्र विश्वकोश, पृष्ठ-46
9.  हरिकृष्ण रावत,  समाजशास्त्र विश्वकोश, पृष्ठ-146
10.  रामलखन शुक्ल सं0, आधुनिक भारत का इतिहास,  पृष्ठ-689
11.  रामलखन शुक्ल सं0, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-689
12.  राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीति : तथ्य और मिथक,  पृष्ठ-14
13.  विपिनचन्द्र, आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता, पृष्ठ-1
14.  विपनचन्द्र, साम्प्रदायिकता: एक परिचय, पृष्ठ-7
15. गोपीनाथ कालभोर, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता, पृष्ठ-170
16.  राम आहूजा, भारतीय समाज, पृष्ठ-242
17. राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीति: तथ्य एवं मिथक, पृष्ठ-14
18.  राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीति: तथ्य एवं मिथक, पृष्ठ-14
19. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-9
20, राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीतिक: तथ्य एवं मिथक, पृष्ठ-17
21. राम पुनियानी, साम्प्रदायिक राजनीति: तथ्य एवं मिथक, पृष्ठ-18
22. विपिन चन्द्र, आधुनिक भारत मे साम्प्रदायिकता, पृष्ठ-12
23. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता, इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-9-10
24. विपन चन्द्र, साम्प्रदायिकता: एक अध्ययन, पृष्ठ-46
25. विपिन चन्द्र, आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता, पृष्ठ-16
26. विपिन चन्द्र, आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता, पृष्ठ-16
27. विपन चन्द्र, साम्प्रदायिकता एक अध्ययन, पृष्ठ-42
28. एस0एम0 चाँद, स्वाधीनता संघर्ष और साम्प्रदायिक फ़़ासिज्म, पृष्ठ-134
29. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-45
30. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-46
31. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-47
32. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकताः इतिहास और अनुभव, पृष्ठ-48
33. रामलखन शुक्ल, सं0, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-775
34. बी0एल0 ग्रोवर, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-386
35. बी0एल0 ग्रोवर, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-386
36. बी0एल0 ग्रोवर, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-404
37. बी0एल0 ग्रोवर, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-406
38.  रफ़ीक ज़कारिया, बढ़ती दूरियाँ: गहराती दीवारें।
39. असगर अली इंजीनियर, भारत में साम्प्रदायिकता: इतिहास एवं अनुभव, पृष्ठ-47
40.  रामलखन शुक्ल सं0, आधुनिक भारत का इतिहास, पृष्ठ-725
41.  वीरभारत तलवार, रस्साकशी।
42.  राम आहूजा, भारतीय समाज, पृष्ठ-247
43.  काशीनाथ सिंह, काशी का अस्सी, पृष्ठ-94

                       
द्वारा- डॉ० रमाकान्त राय
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