आज एक गृहस्थ और बुद्ध का संवाद.
यह संवाद आज होने वाली बारिश के मद्देनजर याद आ रहा है. मैं किस ओर हूँ? और आप किस तरफ हैं?
गृहस्थ--
पक्कोदनो दुग्ध खीरो हमस्मि, अनुतीरे माहिया समान वासो.
छन्ना कुटी आहितो गिनी, अथ चे पन्हयसि पवस्स देव...
(भात पक चुका है, दूध दुहा जा चुका है. मही-नदी के तीर पर हम समवयसी ग्वाले एक साथ रहते हैं, कुटिया छाई हुई है; रात के लिए आग का जोगाड़ कर रखा है. अतः पावस देव जितना चाहे बरसें. )
बुद्ध--
अक्कोधन, विगत खिलोह हमस्मि, अनुतीरे महिया एक रत्ती वासी.
विवटा कुटी, निव्वुतो गिनी, अथ चे पन्हयसि पवस्स देव...
(मैं क्रोध से मुक्त हूँ, खिल यानि खंडित मन या ग्रंथि से मुक्त हूँ, मही-नदी के तीर पर महज एक रात का वास है, विवृत यानी खुला आकाश ही मेरी कुटीर है, सारी आग अर्थात मानस ज्वालाएं शांत हैं, बुझी हुई हैं. अब पावस देव जितना चाहें बरसें.)
बुद्ध और गृहस्थ |