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शनिवार, 24 दिसंबर 2022

बद्री नारायण की दो कविताएं

बद्री नारायण को उनकी कविता संकलन "तुमड़ी के शब्द" के लिए हिन्दी का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। बद्री नारायण हमारे समय के जाने माने कवि और समाज विज्ञानी हैं। वह कविता के साथ साथ देश दुनिया के विविध सामाजिक विषय पर विचार करते रहते हैं। पढ़िए उनकी दो चर्चित कविताएं।


(१)

'दुलारी धिया'


पी के घर जाओगी दुलारी धिया

लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के

सपनों का खूब सघन गुच्छा

भुइया में रखोगी पाँव

महावर रचे

धीरे-धीरे उतरोगी


सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया

पोंछा बन

दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी

कछारी जाओगी पाट पर

सूती साड़ी की तरह

पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया


दुलारी धिया

छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें

उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी


पी घर में राज करोगी दुलारी धिया


दुलारी धिया, दिन-भर

धान उसीनने की हँड़िया बन

चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी

अकेले में कहीं छुप के

मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी


सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया

बाबा ने पूरब में ढूँढा

पश्चिम में ढूँढा

तब जाके मिला है तेरे जोग घर

ताले में कई-कई दिनों तक

बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया


पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन

कूटोगी धान


पुरईन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया


पी-घर से निकलोगी

दहेज की लाल रंथी पर

चित्तान लेटे


खोइछे में बाँध देगी

सास-सुहागिन, सवा सेर चावल

हरदी का टूसा

दूब


पी-घर को न बिसारना, दुलारी धिया।


(२)

प्रेमपत्र 


किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा

चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र

बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी

सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे

 

प्रलय के दिनों में सप्तर्षि मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र

कोई रोम बचायेगा कोई मदीना
कोई चांदी बचायेगा कोई सोना

मै निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र।

कथा वार्ता की प्रस्तुति 


शनिवार, 2 जुलाई 2022

कविता : चार_आम

#चार_आम पर मेरी कालजयी कविता पढ़िए- #चार_आम


सुबह हुई, नाश्ते में मार दिए चार आम

और थोड़ा दिन चढ़ा तो नाप दिए चार आम।


दोपहर में भोजन के साथ लिए चार आम

जब थोड़ा लेटे तो सपने में चार आम।


शाम को आम आम कह कह के चार आम।

गदबेला में राम राम कह कह के चार आम।


रात को भिगो दिए बाल्टी में चार आम

और रात बीती तो चू गए चार आम।


हरे राम हरे राम कहकह के चार आम

हुए थोड़ा दक्खिन से वाम तो चार आम।


पका आम देखा तो चिंचोड़ दिए चार आम

मार दिया पालथी, निचोड़ दिए चार आम।

कथावार्ता : सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष


- डॉ रमाकान्त राय

सोमवार, 31 जनवरी 2022

मुक्तिबोध की तीन कविताएँ : विचार आते हैं, भूल गलती और ब्रह्मराक्षस

1. विचार आते हैं


विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

बोझ ढोते वक़्त पीठ पर 

सिर पर उठाते समय भार

परिश्रम करते समय  

चाँद उगता है 

पानी में झलमलाने लगता है

हृदय के पानी में।

 

विचार आते हैं

लिखते समय नहीं,

...पत्थर ढोते वक़्त

पीठ पर उठाते वक्त बोझ 

साँप मारते समय पिछवाड़े

बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त!!

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं

नक़्शे बनते हैं भौगोलिक

पीठ कच्छप बन जाते हैं

समय पृथ्वी बन जाता है... भूल गलती



2. भूल-गलती


भूल-गलती
आज बैठी है जिरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के;
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
सब कतारें
बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे
दरबारे आम में।

सामने
बेचैन घावों की अजब तिरछी लकीरों से कटा
चेहरा
कि जिस पर काँप
दिल की भाप उठती है…
पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
समूचे जिस्म पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग
बहते खून के।


वह कैद कर लाया गया ईमान…
सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
बेखौफ नीली बिजलियों को फेंकता
खामोश !!
सब खामोश
मनसबदार,
शाइर और सूफी,
अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
हैं खामोश !!
नामंजूर,
उसको जिंदगी की शर्म की सी शर्त
नामंजूर
हठ इनकार का सिर तान…खुद-मुख्तार
कोई सोचता उस वक्त –
छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
(लेकिन, ना
जमाना साँप का काटा)
भूल (आलमगीर)
मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँख्वार
हाँ खूँख्वार आलीजाह,
वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
करता हमें वह घेर
बेबुनियाद, बेसिर-पैर
हम सब कैद हैं उसके चमकते तामझाम में
शाही मुकाम में !!

इतने में हमीं में से
अजीब कराह-सा कोई निकल भागा
भरे दरबारे-आम में मैं भी
सँभल जागा
कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
बख्तरबंद समझौते
सहमकर, रह गए,
दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
दुमुँहेपन के सौ तजुर्बों की बुजुर्गी से भरे,
दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
सहमकर रह गये !!

लेकिन, उधर उस ओर,
कोई, बुर्ज के उस तरफ जा पहुँचा,
अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि यह बेनाम
बेमालूम दर्रों के इलाके में
(सचाई के सुनहले तेज अक्सों के धुँधलके में)
मुहैया कर रहा लश्कर;
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट होकर विकट हो जायगा !!



3. ब्रह्मराक्षस

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
परित्यक्त सूनी बावड़ी
के भीतरी

ठंडे अँधेरे में
बसी गहराइयाँ जल की...
सीढ़ियाँ डूबीं अनेकों
उस पुराने घिरे पानी में...
समझ में आ न सकता हो
कि जैसे बात का आधार
लेकिन बात गहरी हो।


बावड़ी को घेर
डालें ख़ूब उलझी हैं,
खड़े हैं मौन औदुम्बर।
व शाखों पर
लटकते घुग्घुओं के घोंसले
परित्यक्त, भूरे, गोल।

विगत शत पुण्यों का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके-सी लगी रहती।
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक
बैठी है टगर
ले पुष्प-तारे-श्वेत
उसके पास
लाल फूलों का लहकता झौंर
मेरी वह कन्हेर...
वह बुलाती एक ख़तरे की तरफ़ जिस ओर
अँधियारा खुला मुँह बावड़ी का
शून्य अंबर ताकता है।


बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य
ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
गहन अनुमानिता
तन की मलिनता
दूर करने के लिए प्रतिपल
पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
स्वच्छ करने—
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे, बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
ख़ूब करते साफ़,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!
और... होंठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार!!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह!!
किंतु, गहरी बावड़ी
की भीतरी दीवार पर
तिरछी गिरी रवि-रश्मि
के उड़ते हुए परमाणु, जब
तल तक पहुँचते हैं कभी
तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
झुककर नमस्ते कर दिया।
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकराए
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने
ज्ञान-गुरु माना उसे।
अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही
करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!
और तब दुगुने भयानक ओज से
पहचानवाला मन
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रमेयों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
प्राक्तन बावड़ी की
उन घनी गहराइयों में शून्य।
...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रहीं ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति-शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जू
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
टगर के पुष्प-तारे श्वेत
वे ध्वनियाँ!
सुनते हैं करौंदी के सुकोमल फूल
सुनता है उन्हे प्राचीन औदुम्बर
सुन रहा हूँ मैं वही
पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
वह ट्रैजिडी
जो बावड़ी में अड़ गई।


x x x


ख़ूब ऊँचा एक जीना साँवला
उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ...
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
एक चढ़ना औ' उतरना,
पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना,
मोच पैरों में
व छाती पर अनेकों घाव।
बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष
से भी उग्रतर
अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
गहन किंचित सफलता
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णत
की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंत:कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
रवि निकलता
लाल चिंता की रुधिर-सरित
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चंद्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन...
शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!
किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अंतकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।
आत्मचेतस् किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व!!
पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रैजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
मरे पक्षी-सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!

मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ।












शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

Kathavarta : प्रभाती : रघुवीर सहाय की कविता


आया प्रभात
चंदा जग से कर चुका बात
गिन गिन जिनको थी कटी किसी की दीर्घ रात
अनगिन किरणों की भीड़ भाड़ से भूल गये
पथऔर खो गये वे तारे।

अब स्वप्नलोक
के वे अविकल शीतल अशोक
पल जो अब तक वे फैल फैल कर रहे रोक
गतिवान समय की तेज़ चाल
अपने जीवन की क्षणभंगुरता से हारे।

जागे जनजन
ज्योतिर्मय हो दिन का क्षण क्षण
ओ स्वप्नप्रियेउन्मीलित कर दे आलिंगन।
इस गरम सुबहतपती दुपहर
में निकल पड़े।
श्रमजीवीधरती के प्यारे।

 रघुवीर सहाय

श्रमजीवी


सोमवार, 24 मई 2021

घनानन्द की तेरह कविताएं

 

निसि द्यौस खरी उर माँझ अरीछबि रंगभरी मुरि चाहनि की।

तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैंढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की। 

चट दै कटि पै बट प्रान गएगति सों मति में अवगाहनि की।

घन आनंद जान लख्यो जब तेंजक लागियै मोहि कराहनि की।।

 

 

कान्ह परे बहुतायत मेंइकलैन की वेदन जानौ कहा तुम ?

हौ मनमोहनमोहे कहूँ नबिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम ?

बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वैहाय कछू उर आनौ कहा तुम ?

आरतिवंत पपीहन कोघन आनंद जू ! पहिचानौ कहा तुम ?

 

 

मंतर में उर अंतर मैं सुलहै नहिं क्यों सुखरासि निरंतर,

दंतर हैं गहे आँगुरी ते जो वियोग के तेह तचे पर तंतर। 

जो दुख देखति हौं घन आनंद रैनि-दिना बिन जान सुतंतर,

जानैं बेई दिनराति बखाने ते जाय परै दिनराति कौ अंतर।

 

 

सावन आवन हेरि सखीमनभावन आवन चोप विसेखी।

छाए कहूँ घनआनंद जानसम्हारि की ठौर लै भूलनि लेखी।

बूंदैं लगैसब अंग दगैंउलटी गति आपने पापनि पेखी।

पौन सों जागत आगि सुनी हीपै पानी सों लागत आँखिन देखी॥

 

निसि द्यौस खरी उर माँझ अरीछबि रंगभरी मुरि चाहनि की।

तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैंढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की।

चट दै कटि पै बट प्रान गएगति सों मति में अवगाहनि की।

घनआनंद जान लख्यो जब तेंजक लागियै मोहि कराहनि की।।

 

 

वहै मुसक्यानिवहै मृदु बतरानिवहै

लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।

वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,

वहै हँसि दैनहियरा तें न टरति है।

वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,

वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।

आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की

सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।

 

 

बहुत दिनान की अवधि-आस-पास परे,

खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।

कहि-कहि आवन सँदेसो मनभावन को,

गहि-गहि राखत हैं दै-दै सनमान कौ।

झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,

अब न घिरत घन आनंद निदान कौ।

अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,

चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान कौ।।

 

 

छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद

तृषित चषनि लालकबधौ दिखाय हौ।

चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही

मुरली अधर धरे लटकत आय हौ।

लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्यायनेह

भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ।

बिरह जरत जिय जानिआनि प्रान प्यारे,

कृपानिधिआनंद को धन बरसाय हौ।।

 

 

घन आनंद जीवन मूल सुजान कीकौंधनि हू न कहूँ दरसैं।

सु न जानिये धौं कित छाय रहेदृग चातक प्रान तपै तरसैं।

बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो नसु क्यों करि ये अब सो परसैं।

बदरा बरसै रितु में घिरि कैनितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं॥

 

१०

 

अति सूधो सनेह को मारग हैजहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौझिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।

घन आनंद प्यारे सुजान सुनौयहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो कहौमन लेहु पै देहू छटाँक नहीं।।

 

११

 

भोर तें साँझ लौ कानन ओर निहारति बावरी नेकु न हारति।

साँझ तें भोर लौं तारनि ताकिबो तारनि सों इकतार न टारति।

जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनँद आँसुनि औसर गारति।

मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति।।

 

१२

 

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ

कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।

तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार

सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।

चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो

सुजान रूप-बावरोबदन दरसायहौ।

बिरह नसायदया हिय मैं बसायआय

हाय ! कब आनंद को घन बरसायहौ।।

 

१३

 

मीत सुजान अनीत करौ जिनहाहा न हूजियै मोहि अमोही!

डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही!

एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही!

हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही !!

 

घनानंद

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

कथावार्ता : राजेश जोशी की कविता, बच्चे काम पर जा रहे हैं।

सुबह घना कोहरा घिरा देखकर प्रख्यात कवि राजेश जोशी की कविता याद आई - 

"बच्चे काम पर जा रहे हैं।"

कविता बाद में, पहले कुछ जरूरी बातें।


इस कविता में प्रारंभ में ही आता है - 

"कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह।"

लेकिन बच्चे काम पर न जाकर अगर विद्यालय ही जा रहे होते, जैसा कि बाद में दर्ज हुआ है, ऐसी कोहरे से भरी सड़क पर तो यह भी भयावह होना चाहिए।


राजेश जोशी की यह कविता उद्वेग में लिखी गई है। वह लिखते हैं कि यह हमारे समय की भयावह पंक्ति है। इसे विवरण की तरह नहीं, 'सवाल' की तरह पूछा जाना चाहिए। कितना अच्छा होता कि विवरण के प्रतिपक्ष में प्रश्न रखा जाता सवाल नहीं। तथापि।

कोहरे से ढंकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं, यह भयानक है, बच्चों को ऐसे में खेलना चाहिए। कवि प्रश्न कर रहा है कि क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें?  उसका मंतव्य यह है कि बच्चों को खेलना चाहिए किन्तु इसके लिए वह गेंद के अन्तरिक्ष में गुम हो जाने का रूपक लिया है। कोहरे में गेंद ठीक से दिखती नहीं, इसलिए गेंद वाला कोई भी खेल करना अच्छा नहीं होता। अतः कोहरे के दौरान खेल का कोई दूसरा रूपक रचना चाहिए था। बच्चे कबड्डी खेल सकते थे, चिक्का या छिपने वाला कोई खेल।

कोहरे में बच्चे रंग बिरंगी पुस्तक पढ़ें, यह कामना सुन्दर है। वह खेलें, खिलौनों से; यह भी होना चाहिए। लेकिन मदरसे की इमारतों से उनका क्या लेना - देना। कवि लिखता है - 

"‍क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं

सारे मदरसों की इमारतें।"

कोहरे से ढंकी पृथिवी पर बच्चे मदरसे में क्यों जाएंगे? वह अपने घर में रहें। नर्म और मुलायम, गद्देदार बिस्तर पर, अथवा अंगीठी के पास अथवा किसी सूखे "पहल" पर धमाचौकड़ी करें। मदरसे में क्यों जाएं? अपने घर में सुरक्षित क्यों न रहें।

फिर कवि यह कविता लिखते हुए मदरसों का उल्लेख क्यों करता है? विद्यालय क्यों नहीं कहता। अथवा स्कूल या कालेज? राजेश जोशी अपनी कविताओं में सायास ऐसे प्रयोग करते हैं। ऊपर सवाल के सम्बन्ध में यह जिज्ञासा उगी थी। मदरसा के प्रयोग पर यह मुखर हो गया है। मदरसा कतई अति व्यवहृत और प्रचलित शिक्षण संस्थान नहीं हैं। विद्यालय अथवा कालेज हैं। फिर मदरसा का प्रयोग क्यों है? क्या काम पर जाने वाले बच्चों का सम्बन्ध मदरसों से ही है? यह बहुत स्पष्ट है कि मदरसा इस्लामिक पद्धति से अध्ययन अध्यापन का केंद्र है जहां कुरआन और हदीस प्रमुख अध्ययन सामग्री है। जिसे हम आधुनिक शिक्षा मानते हैं, उससे मदरसे अद्यतन अछूते हैं। उसके मुकाबले विद्यालय और स्कूल अधिक उन्नत भी हैं और ज्ञान विज्ञान की अद्यतन अवधारणा से सम्पन्न भी।

इसीलिए ऊपर स्थापना की गई है कि यह कविता उद्वेग में लिखी गई है, जबकि इसे प्रशांति की दशा में लिखा जाना चाहिए। कविता पढ़ते हुए जब हम यह विवरण देखते हैं कि दुनिया में  "हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल" तो इस हस्बमामूल पर फिर टिकने और विचार करने का मन करता है। यह अपेक्षाकृत कठिन शब्द प्रयुक्त हो गया है। हस्बमामूल अर्थात ज्यों की त्यों। यथास्थिति में। पूर्ववत। ऐसा नहीं है कि हस्बमामूल छंद अथवा सौंदर्य की विवशता में प्रयुक्त हुआ शब्द है। वह सवाल, मदरसा और इमारतों के प्रवाह में आया है। इसलिए समस्त प्रकरण एक विशेष मनोदशा का परिचायक बन जाता है। उद्वेग में लिखे जाने के बावजूद,  इस कविता में -
"दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे" 
का उल्लेख होने के बावजूद यह कविता एक संकरी गली से रास्ता बनाती हुई दिखने लगती है। यह कविता सीबीएसई के पाठ्य क्रम में कक्षा नौ में शामिल है।

पूरी कविता पढ़िए।


कविता

बच्चे काम पर जा रहे हैं - राजेश जोशी


कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें

क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुज़रते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

सोमवार, 4 जनवरी 2021

कथावार्ता : गोपालदास नीरज : कारवां गुजर गया


डॉ रमाकान्त राय

        नीरज उनका उपनाम था। वह इटावा के थे। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के पुरावली नामक ग्राम में उनका जन्म 04 जनवरी, सन 1925ई० को हुआ था। यह गाँव इटावा जनपद मुख्यालय के निकट स्थित इकदिल रेलवे स्टेशन से बहुत निकट है। गोपालदास नीरज का बचपन सामान्य नहीं था। छः वर्ष की उम्र में पिता स्वर्गवासी हुए तो किसी किसी तरह हाईस्कूल पास किया। इटावा कचहरी में टाइप करना शुरू किया। सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की, सफाई विभाग में रहे, कलर्की की और इस सबके साथ प्राइवेट परीक्षाएँ पासकर एम ए उत्तीर्ण कर लिया। तब मेरठ में अध्यापक बने। वहाँ से निकाले गए तो अलीगढ़ में धर्म समाज कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक बने। उन्होंने जब कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे 1958 में पहली बार आकाशवाणी लखनऊ से प्रस्तुत किया तो उसे सुनकर उन्हें फिल्मों में गीत लिखने का आमंत्रण मिला। नीरज ने गीत विधा में साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को अपने तरीके से तोड़ा।

          कवि प्रदीप, गोपालदास नीरज और पण्डित नरेंद्र शर्मा हिन्दी फिल्मों की ऐसी त्रिमूर्ति थे जिन्होंने सही मायने में गीत लिखे। इससे पहले के फिल्मों वाले गीत नज्म अधिक थे। उनमें हिन्दी के शब्द कम उर्दू के शब्द अधिक थे। नीरज हिन्दी शब्दावली से युक्त गीत लेकर आए और उन्हें सुमधुर बनाए रखकर कई वहम दूर किए। एक मान्यता थी कि हिन्दी शब्दों में वह माधुर्य नहीं है, जो गीत की कोमलकान्त पदावली के अनुकूल हो। नीरज ने अपने शब्द विन्यास से इस भ्रम को तोड़ा।

          गोपालदास नीरज रोमांटिक गीत लिखकर बहुत शीघ्र ही मंचों की शान बन गए। उनके गीत बहुत जल्दी लोगों की जुबान पर चढ़ जाते थे और कंठाहार बन जाते थे। उनके गीतों का पहला संग्रह 1944 में संघर्ष नाम से आया। फिर अंतर्ध्वनि, विभावरी, प्राणगीत आदि संकलन आए। 1970, 71 और 1972 में लगातार उनके गीतों को प्रतिष्ठित फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए नामांकन हुआ और 1970 में काल का पहिया घूमे रे भैया के लिए यह पुरस्कार मिला भी।

          नीरज का कविता के प्रति दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था। वह मानते थे कि कविता आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है। यदि मानव जीवन मिलना अच्छे भाग्य का प्रतिफल है तो कवि होना सौभाग्य का। वह अपनी कविताओं में भारतीय परंपरा के देवताओं, ऋषियों और भक्त कवियों का अभिनन्दन करते हैं। दोहा को वह कविता रूपी वधू का वर मानते थे। यह दोहा ही है जिसने सभी भावों और विचारों को सार्थकता प्रदान की। यद्यपि आज के काव्यशास्त्रीय मान्यताओं के आलोक में यह बातें बहुत मूल्यवान नहीं जान पड़तीं तथापि इंका महत्त्व इस बात से है कि नीरज ने कविता लेखन के प्रति यही दृष्टिकोण रखा।

गोपालदास नीरज

          नीरज प्रेम की वेदना और मस्ती के कवि हैं। उनके गीतों में बाली उम्र का प्रेम बहुत परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुआ है, वह प्रेम गलदश्रु भावुकता वाला प्रेम नहीं है बल्कि जीवन के झंझावातों से टकराकर निःसृत जीवन दर्शन वाला है। इसीलिए नीरज अपने को शृंगार के कवि नहीं दर्शन का कवि मानते थे। उन्हें शृंगार का कवि कहलाना पसंद नहीं था क्योंकि वह अपनी कविताओं में ब्रह्म को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते रहते थे। -

          कोई कंघी न मिली जिससे सुलझ पाती वो।

          जिंदगी उलझी रही ब्रह्म के दर्शन की तरह॥

          गोपालदास नीरज के गीतों में मस्ती और रोमानी अंदाज तो है ही, उनके गीतों में अभिव्यक्त दर्शन भारतीय परंपरा से जुड़ा हुआ था। वह अपने गीतों के लिए संदर्भ भारतीय परिदृश्य से चुनते थे, इसलिए उनका एक विशेष संदर्भ बनता है। जब वह इंसान के लिए अलग मजहब की चर्चा करते हैं तो वह सामूहिकता के दर्शन के विपरीत निजी अनुभूति को प्रमुख मानते हैं। इसीलिए वह छद्म धर्मनिरपेक्षता के कटु आलोचक भी हैं- उनका यह दोहा-

          सेक्युलर होने का उन्हें, जब से चढ़ा जुनून।

          पानी लगता है उन्हें,  हर  हिन्दू का खून॥

वह बहुत साफ साफ लिखते हैं कि यह देश बहुसंस्कृतिवादी है किन्तु इस बहुलता की रक्षा का दायित्व सब पर है। अगर किसी एक समुदाय का हस्तक्षेप बढ़ता जाएगा तो यह लोकतन्त्र के खिलाफ होगा। उनका दोहा है-

          यदि यूं ही हावी रहा, इक समुदाय विशेष।

          निश्चित होगा एक दिन, खंड-खंड ये देश॥

          जीवन के उत्तर काल में गोपाल दास नीरज को राजनीतिक दलों ने खूब सम्मान दिया। समाजवादी पार्टी ने उन्हें मंत्री का दर्जा दिया। वह पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किए गए तथा उन्हें यश भारती सम्मान भी मिला। इटावा में नीरज को लोग आत्मीयता से याद करते हैं लेकिन अकादमिक स्तर पर ठोस प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। गोपालदास नीरज हिन्दी फिल्मों में लिखे गए हिट गीतों से बहुत लंबे समय तक याद किए जाते रहेंगे। 19 जुलाई, 2018 को उनका निधन हुआ।

         

          जन्मदिन पर प्रस्तुत है उनके दो प्रसिद्ध गीत-

 

1.     कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे

स्वप्न झरे फूल से
मीत चुभे शूल से
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से

और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिए धुआं-धुआं पहन गए
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शाबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या सुरूप था कि देख आइना सिहर उठा
इस तरफ़ ज़मीन और आसमां उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहां
ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे
वक़्त से पिटे-पिटे

सांस की शराब का खुमार देखते रहे,
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे।

हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं
और सांस यों कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं
हो सका न कुछ मगर
शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे
नीर नयन में भरे
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी
गाज एक वह गिरी
पोंछ गया सिंदूर तार-तार हुईं चूनरी
और हम अजान-से
दूर के मकान से

पालकी लिए हुए कहार देखते रहे,
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

 

2.    जलाओ दिए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,

उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,

निशा की गली में तिमिर राह भूले,

खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,

ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,

कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,

मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,

कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,

चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,

भले ही दिवाली यहाँ रोज आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,

नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,

उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,

नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,

कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,

स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उ०प्र०, २०६००१

9838952426, royramakantrk@gmail.com

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