- #नया_ज्ञानोदय
का उत्सव अंक, संपादक लीलाधर मंडलोई, भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका
(अक्टूबर, 2016) अपने पूर्ववर्ती अंको की तरह बेतरतीब है। हर बार अंक
खरीदता हूँ और सोचता हूँ कि इसका वार्षिक सदस्य बन जाना चाहिए लेकिन हाथ
में पत्रिका आती है तो लगता है कि ठीक किया कि सदस्यता का नवीनीकरण नहीं
किया।
मंडलोई जी मूलतः कवि हैं। संपादकीय में कविता को लेकर उनकी चिंता और चिंतन काबिलेगौर तो है लेकिन 14 उपखंडों में बँटे संपादकीय का पहला हिस्सा प्रभाकर श्रोत्रिय की याद में है और यह क्या है, समझ में नहीं आता। मूल्यांकन के नाम पर, स्मृति के नाम पर उनके निबंधों से दस कोट हैं। बिना तारतम्य के। रमेश दवे ने प्रभाकर जी को जैसे याद किया है, उसमें भी कुछ उल्लेखनीय नहीं है। कोई आत्मीयता नहीं, विश्लेषण नहीं; महज खाना पूर्ति। प्रभाकर जी का एक वैचारिक निबंध पठनीय सामग्री है। अरविन्द त्रिपाठी ने उनका मूल्यांकन भी बहुत सतही सा किया है। पाठ के आधार पर किया गया मूल्यांकन नहीं है यह। मोटी मोटी बातें हैं। निराशा होती है कि जो आदमी ज्ञानपीठ परिवार का सदस्य रह चुका हो, पत्रिका के इस नए रूप का उद्धारक हो, जिसने साहित्य में स्थायी महत्त्व का काम किया हो, उसके प्रति ऐसी खानापूर्ति की गयी है। स्मृति शेष के अंतर्गत उनपर सामग्री दो लेखों के बाद रखी गयी है। बिला वजह। ऐसे में यह खानापूर्ति वाला भाव और प्रबल होता है।
बेतरतीब शीर्षकों की परंपरा इस अंक में भी है। शीर्षक रखा है 'लंबी कविता' और नरेंद्र मोहन का आलेख दिया हुआ है। दूर की तार्किक बात यह है कि इसमें लंबी कविताओं पर चर्चा है।
उपासना की कहानी मिथक और यथार्थ को जोड़ती हुई बढ़िया कहानी है। उनका कहन इधर बहुत स्वीकृत हुआ है। इसमें भी निर्वाह हुआ है।
पत्रिका में कवितायेँ भरपूर हैं। न जाने क्यों उन्हें चार जगह रखा है। कविता-एक, दो, तीन, चार करके। कुछ पंक्तियाँ, जिन्हें कविता कहकर परोसा गया है।जयप्रकाश मानस अपनी कविता 'कुछ लोग सुसाइडल नोट नहीं लिखते' में लिखते हैं-
कुछ लोग आत्महत्या से पहले
सुसाइडल नोट नहीं लिख छोड़ते...
सर जी! आत्महत्या से पहले लिखा नोट सुसाइडल नोट कहा जाता है। अब आप सोचें कि आपने कितनी गैरजरूरी पंक्ति ठूँस दी है!!
उपेंद्र कुमार की कविता तो बयान है। कविता का एक भी लक्षण नहीं है उसमें। लेकिन अनामिका की कविता बारहमासा बढ़िया है। यह नए तरीके का नए समय का बारहमासा है। यद्यपि अब आसिन और कातिक की स्मृति बस गाँव से है लेकिन उसमें नया अर्थ यहाँ भरने की कोशिश है।
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हमारे समय की कविता, कवि के दिमाग में कौंधा हुआ एक विचार है। ज्योंही एक एक विचार कौंधता है, कवि उद्धत हो जाता है, शब्दों में ढाल देने के लिए। उसे डर रहता है कि यह विचार कॉपी न हो जाये, यह अचानक हुई कौंध धुंधली न पड़ जाए। अनुभूति में अंगीकृत होने तक कौन रुकता है। मंडलोई जी ठीक कहते हैं कि 'कविता अतिथि नहीं कि द्वार पर आ खड़ी हो' लेकिन अफ़सोस कि अब के कवि ऐसे ही बर्ताव कर रहे हैं।
कुछ अन्य कविताओं पर चर्चा करूंगा लेकिन मनोज कुमार झा की यह बेहतरीन कविता देखिये-
देह की तरफ कई राहें जाती हैं
______
वहां पूरियां पक रही हैं
फ़टी साडी से दिख रही स्त्री की जंघा (जांघ शब्द होता तो ज्यादा ठीक रहता-रमाकान्त)
यदि जेठ के टह टह में ग्रहण किये हो वस्त्र संभालती स्त्री के हाथ से जल
तो इस वक्त जंघा अलग दिखेंगी
हो सकता है माँ की याद आए
जो बच्चों की मालिश कर रही है
या दिसावर से घर लौटते मजदूर को
पत्नी की याद आये कि यहीं पे पटकी थी भैंस ने पूँछ
देह की तरफ भेजी गयी चिट्ठियाँ
वहाँ की (ही होना था शायद, प्रूफ की अशुद्धि -रमाकान्त) पहुंचती हैं जहाँ ऊँघ रहा होता है
एक प्राचीन निष्कंठ गर्भगृह।
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पत्रिका में यत्र तत्र प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। बाकी सब ठीक ठाक है।कुछ और बातें बाद में।
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मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016
नया ज्ञानोदय का उत्सव अंक
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गाज़ीपुर का हूँ। बंगाल में पला-बढ़ा। गंगा किनारे का वासी।
उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। राही मासूम रज़ा पर डी.फिल.।
विभिन्न पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं में शोध पत्र और आलेख। एक पुस्तक "हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के बहाने राही के उपन्यास" लोकभारती प्रकाशन से। दूरदर्शन पर चार बार साक्षात्कार और आकाशवाणी से एक दर्जन से अधिक वार्ता प्रसारित। ललित निबंध में रुचि।
संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा, उत्तर प्रदेश।
मोबाइल- 9838952426
E-mail- royramakantrk@gmail.com
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