अपनी
रचनाओं में मिट्टी की सोंधी महक और गवईं जीवन को अभिव्यक्त करने वाले निबंधकार, कथाकार, आलोचक मनबोध मास्टर विवेकी राय न सिर्फ
हिंदी अपितु भोजपुरी के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1924 को उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के
भरौली नामक ग्राम में हुआ था। उनका बचपन गाजीपुर के सोनवानी ग्राम में बीता और
आजीवन वह गाजीपुर का होकर रह गए। साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने हजारी प्रसाद
द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की निबंध
परम्परा को समृद्ध किया और ‘मनबोध मास्टर
की डायरी’, ‘फिर बैतलवा डाल पर’, ‘गंवई
गंध गुलाब’, जैसे ललित निबंध लिखे। ‘सोनामाटी’, ‘समर शेष है’, ‘पुरुष
पुराण’ और ‘लोकऋण’ उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। भोजपुरी में ‘अमंगलहारी’ शीर्षक से उनका बहुत चर्चित उपन्यास
है। उन्होंने कुल 85 ग्रंथों का प्रणयन किया।
गाजीपुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा लेने वाले और महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के पहले शोधार्थी विवेकी राय ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में गांधीजी
से प्रेरणा लेकर भागीदारी की और बतौर शिक्षक अपना योगदान शुरू किया। गाजीपुर के
स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में अध्यापन करते हुए विवेकी राय ने कई
विधाओं में रचनाएँ कीं, लेकिन ललित निबंधकार और
उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति ऐतिहासिक है। वह भोजपुरी और हिंदी में समान रूप
से समादृत किये जाने वाले रचनाकार हैं।
अपनी रचनाओं में ‘नगरीय
जीवन के ताप से तपाई हुई मनोभूमि’ पर ग्रामीण जीवन की
मजबूत उपस्थिति रखांकित करने वाले विवेकी राय के निबंध मिट्टी की खुशबू लिए हुए
हैं। उनके निबंध ग्रामीण जीवन के लोकाचार, रीति-रिवाज को
समझने की दृष्टि से बहुत विशिष्ट हैं। इन निबंधों में सहज आत्मीयता और अल्हड़पन से
भरी मस्ती मिलती है। लोक से उनका लगाव उनके निबन्धों में सहज झलकता है। ग्रामीण
लोगों की इच्छा, आकांक्षा और जीवनानुभव के वह कुशल
लेखाकार हैं। उनके निबंधों के स्तम्भ, जिनका संग्रह ‘मनबोध मास्टर की डायरी’ शीर्षक से हुआ है;
ने तो सत्ता संस्थानों तक को हिला डाला था। ‘फिर बैतलवा डाल पर’ में ग्रामीण जीवन और लोक
का जैसा चित्रण मिलता है, वह दुर्लभ है। लोक और ग्राम की
यह चेतना उन्हें विशिष्ट निबंधकार बनाती है। उनके निबंधों में लालित्य है। यह
लालित्य लोक में रचे बसे होने से पगा हुआ है। उनके ललित निबन्ध विचार और भाव के
स्तर पर बहुत प्रौढ़ हैं। विवेकी राय के उपन्यासों में भी गाँव की कथा ही है। ‘सोना-माटी’ हो या ‘लोकऋण’
दोनों ही उपन्यास गाँव की कथा कहते हैं। ‘लोकऋण’ में उन्होंने देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण की तर्ज पर लोकऋण की संकल्पना ली है। इस उपन्यास में
उनका गाँधीवादी चिन्तक का रूप दिखता है। उनका बहुत स्पष्ट मानना था कि पढ़े-लिखे
लोगों को गाँव का कर्ज उतारने के लिए ही सही गाँव लौटना चाहिए और अंधाधुंध पलायन
रोकने के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के उत्थान में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। उनके
उपन्यास लोकऋण का नायक सतीश लोक का कर्ज चुकाने के लिए गाँव वापस लौटता है और एक
नयी लकीर खींचने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है। लोक ऋण उपन्यास कई दृष्टि से बहुत
जरुरी उपन्यास है। ‘सोनामाटी’ उनका
वृहदाकाय उपन्यास है। अपनी रचनाओं में गाँव की सोंधी गंध को ढाल देने वाले ऐसे विरले रचनाकार ने
आंचलिकता को व्यापक बना दिया था। उन्होंने अपनी रचनाओं में गाजीपुर को जिस शिद्दत
से अभिव्यक्त किया है वह सराहनीय है। राही मासूम रज़ा, कुबेरनाथ राय के बाद
विवेकी राय ने इस जनपद का ऋण बखूबी चुकाया है। वह बेहद सुचिंतित आलोचक भी थे।
उत्तर प्रदेश सरकार ने विवेकी राय
के विपुल साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें यश भारती से सम्मानित किया था।
इसके अलावा उन्हें महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रेमचंद पुरस्कार,
साहित्य भूषण सम्मान आदि पुरस्कार भी मिले थे।
लोक के इस अद्भुत चितेरे का महाप्रयाण 22 नवम्बर, 2016
को हो गया था। उन्होंने ९२ वर्ष की एक रचनात्मक जिन्दगी व्यतीत की। आज विवेकी राय
की पुण्यतिथि है। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।