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रविवार, 7 जून 2020

कथावार्ता : अकाल केन्द्रित तीन आधुनिक कवितायें

अकाल और उसके बाद
-नागार्जुन

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

(1955)

अकाल
-रघुवीर सहाय

फूटकर चलते फिरते छेद
भूमि की पर्त गयी है सूख
औरतें बाँधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ।
लाल मिट्टी लकड़ी ललछौर
दाँत मटमैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फ़र्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।
पीटकर कृष्णा के तटबन्ध
लौटकर पानी जाता डूब
रात होते उठती है धुन्ध
ऊपरी आमदनी की ऊब।
जोड़कर हाथ काढ़कर ख़ीस
खड़ा है बूढ़ा रामगुलाम
सामने आकर के हो गये
प्रतिष्ठित पंडित राजाराम।
मारते वही जिलाते वही
वही दुर्भिक्ष वही अनुदान
विधायक वही, वही जनसभा
सचिव वह, वही पुलिस कप्तान।
दया से देख रहे हैं दृश्य
गुसलखा़ने की खिड़की खोल
मुक्ति के दिन भी ऐसी भूल !
रह गया कुछ कम ईसपगोल!


(1967)

अकाल में दूब

-केदारनाथ सिंह

भयानक सूखा है
पक्षी छोड़कर चले गए हैं
पेड़ों को
बिलों को छोड़कर चले गए हैं चींटे
चींटियाँ
देहरी और चौखट
पता नहीं कहाँ-किधर चले गए हैं
घरों को छोड़कर

भयानक सूखा है
मवेशी खड़े हैं
एक-दूसरे का मुँह ताकते हुए

 

कहते हैं पिता
ऐसा अकाल कभी नहीं देखा
ऐसा अकाल कि बस्ती में
दूब तक झुलस जाए
सुना नहीं कभी
दूब मगर मरती नहीं -
कहते हैं वे
और हो जाते हैं चुप

निकलता हूँ मैं
दूब की तलाश में
खोजता हूँ परती-पराठ
झाँकता हूँ कुँओं में
छान डालता हूँ गली-चौराहे
मिलती नहीं दूब
मुझे मिलते हैं मुँह बाए घड़े
बाल्टियाँ लोटे परात
झाँकता हूँ घड़ों में
लोगों की आँखों की कटोरियों में
झाँकता हूँ मैं
मिलती नहीं
मिलती नहीं दूब

अंत में
सारी बस्ती छानकर
लौटता हूँ निराश
लाँघता हूँ कुएँ के पास की
सूखी नाली
कि अचानक मुझे दिख जाती है
शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच
एक हरी पत्ती
दूब है
हाँ-हाँ दूब है -
पहचानता हूँ मैं

लौटकर यह खबर
देता हूँ पिता को
अँधेरे में भी
दमक उठता है उनका चेहरा
'है - अभी बहुत कुछ है
अगर बची है दूब...'
बुदबुदाते हैं वे

फिर गहरे विचार में
खो जाते हैं पिता।

(1988)


गुरुवार, 19 मार्च 2020

कथावार्ता : ‘कवि जा रहा है’ मैंने हवा से कहा


(आज 19 मार्च को समकालीन हिन्दी कविता के विशिष्ट हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह की पुण्यतिथि है। 2018 में आज के दिन उनका निधन हुआ था। उनके देहावसान की सूचना के बाद एक त्वरित टिप्पणी मैंने मित्रों के आग्रह पर किया था जिसे पढ़कर गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आदरणीय प्रो दीपक प्रकाश त्यागी ने उसका विस्तार करने को कहा। उसी के अनुक्रम में यह श्रद्धांजलि आलेख लिखा था। अपने ब्लॉग पर यह आप सबके के लिए साझा कर रहा हूँ।)

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में केदारनाथ सिंह सबसे चमकदार नाम है। नयी कविता की यथार्थवादी चेतना, जीवन के प्रति गहरी आसक्ति, अनुभव की प्रमाणिकता, सादगी और सहजता के साथ जटिल भावनाओं की अभिव्यक्ति की प्रवृत्तियों के साथ केदारनाथ सिंह ने शुद्ध कविता से प्रतिबद्ध कविताकी ओर चलने की सलाह दी। अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरे सप्तक में पदार्पण के साथ उन्होंने प्रतिबद्धता का पक्ष लेना शुरू किया। यह प्रतिबद्धता उन्हें जीवन से बहुत गहरे सम्पृक्त करती है और आत्मीय कवि बनाती है। वह उन गिने-चुने कवियों में हैं जो सहज ही जीवन से जुड़ जाते हैं और जिनकी कविताएँ हमारे जीवन का अंग बन जाती हैं। केदारनाथ सिंह ग्रामीण और शहरी दोनों संस्कार से आप्लावित कवि हैं और जिस आदिम भाव की मांग कविता करती है, उनके यहाँ सहजता से उपलब्ध है। प्रेम उनकी कविताओं का एक प्रमुख विषय रहा है। गहन प्रेम के क्षणों में केदारनाथ सिंह की कविताएं संबल रही है। वह प्रेम के अद्भुत कवि हैं। उनकी कविताएँ बारम्बार उद्धृत की जाने वाली कविताएँ हैं। ऐसा इसलिए कि इन कविताओं में प्रेम की गरिमा और सहज संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। तुम आयींशीर्षक कविता प्रेम के पगने और मुक्त करने को जिस तरीके से अभिव्यक्त करती है, वह सहज ही आकर्षित करता है। तुम आयीं/ जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/ आता है रस।प्रेम का यह परिपाक मुक्त करने में जाकर संपन्न होता है।-
और अंत में
जैसे हवा पकाती है गेहूं के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया।
प्रेम की बात हो तो केदारनाथ सिंह तरुण मन को बहुत पसंद आने वाले कवि थे। उनकी कविताओं में इसके लिए बहुत अवकाश था। केदारनाथ सिंह की कविताओं में तरुण प्रेम की सी ताजगी है, टटकापन है। यह टटका और खिला हुआ रूप उनकी कविता को बहुत सान्द्र और रसपगा बनाता है। प्रेम किशोर मन में जैसे उमगता है, उसको शब्दों में पिरो देना सफल अभिव्यक्ति ही तो है-
ओस भरे
कँपते गुलाब की टहनी पर
तितली के पंखों-सी सटी हुई
धूप!
एक नाम है छोटा-सा
मेरे बेस्वाद खुले होठों पर
          तेरे लिए!’ (अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नाम)
उनकी एक दूसरी कविता नए दिन के साथको भी इस क्रम में देखा जाना चाहिए। वह लिखते हैं-
नए दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का
सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो’ (नए दिन के साथ)

ऐसा नहीं है कि केदारनाथ सिंह की कविताएं सिर्फ प्रेम कविताएं हैं, पहली उद्धृत कविता अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नामतो वात्सल्य में पगी हुई कविता है. प्रेम के व्यापक क्षेत्र का विस्तार सहज ही देखा जा सकता है। उनकी कविताओं में प्रेम प्रमुख विषय जरुर है। यह वात्सल्य हो सकता है, तरुणाई का अथवा शुद्ध श्रृंगार का। प्रेम बहुत गहन क्षणों की अभिव्यक्ति चाहता है और अपनी गरिमामयी स्थिति के प्रति बेहद सचेत रहता है। अगर उसकी गम्भीरता और एकनिष्ठता तथा समर्पण को कहीं से भी न्यून दिखाया जाए तो वह बेअसर हो जाये। केदारनाथ सिंह इस मामले में बहुत सुलझे हुए कवि हैं, इसीलिए उनकी कविताओं में कहीं छिछलापन नहीं है।
केदारनाथ सिंह का संबंध उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद से था। वह भोजपुरी में जीते थे। बहुत चाहते थे अपने गांव-जवार को। गांव आकर रहते थे। यह पता चलने पर कि सामने वाला व्यक्ति भोजपुरी क्षेत्र का है, उससे भोजपुरी में बात करते थे। ठेठ ग्रामीण भाव-भाषा में। दिल्ली में भी गांव उनके यहां था। इस तरह उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति के साथ नागर जीवन की जटिलता भी बहुत सादगीपूर्ण तरीके से अभिव्यक्त हुई है। ग्रामीण जीवन और नगरीय बोध ने उनके अनुभव क्षेत्र का व्यापक प्रसार किया है। गाँव से शहर तक उनकी कविताओं की व्याप्ति है। परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदारनाथ सिंह शायद हिन्दी के समकालीन काव्य-परिदृश्य में अकेले ऐसे कवि हैं, जो एक ही साथ गाँव के भी कवि हैं और शहर के भी। अनुभव के ये दोनों छोर कई बार उनकी कविता में एक ही साथ और एक ही समय दिखाई पड़ते हैं। शायद भारतीय अनुभव की यह अपनी एक विशेष बनावट है जिसे नकारकर सच्ची भारतीय कविता नहीं लिखी जा सकती।नागर और ग्रामीण जीवन को समकालीन परिदृश्य में वह एक साथ कैसे पिरो लेते हैं, यह सहज द्रष्टव्य है। उनकी प्रसिद्ध कविता है- फर्क नहीं पड़ता। इस कविता की पंक्तियाँ हैं-
पर सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फर्क नहीं पड़ता
तुमने जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता।
मेरे युग का मुहाविरा है
फर्क नहीं पड़ता।
प्यारकी जगह सड़कलिखने का आशय क्या है? बहुधा हम इस काव्यपंक्ति को अभिधा में दुहराते हैं और पाते हैं कि तब भी इसका अर्थ कामचलाऊ हो आता है। लेकिन इसके गहरे निहितार्थ का जब उदघाटन होता है, तब समझ में आता है कि कवि का नागर और ग्रामीण संस्कार कैसे एक जगह जमा हो गया है। प्यारमांग करता है, एकनिष्ठता की। उसमें प्रिय के प्रति, विशिष्ट जन के प्रति समर्पण की आकांक्षा है। इसलिए वह एकान्तिक है। जबकि सड़कप्रतीक है सार्वजनीन होने का, उसमें सबकी आवाजाही है। उसकी सार्थकता ही इसमें है कि उसका कितना अधिक और बेहतर उपयोग हो रहा है। तो जहाँ प्यार लिखा है, वहां सड़क लिख देने का आशय है एकान्तिक से सार्वजनीन करना। प्रेम को बाजारू बनाना। तारीफ की बात यह है कि कवि इसे युगीन मुहावरे से सम्बद्ध कर देता है। उसके युग का मुहावरा है- फर्क नहीं पड़ता। वस्तुतः यह समकालीन मुहावरा बन गया है कि ऐसी त्रासदी से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मुहावरा बनने का अर्थ है- एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो जाना। केदारनाथ सिंह नागर संस्कृति के इस उत्तरआधुनिक चरित्र को भलीभांति पहचानते हैं।
केदारनाथ सिंह ने अपने काव्य संसार को एक विस्तृत आयाम दिया है। उन्होंने महज प्रेम कविताएँ नहीं लिखी हैं लेकिन यहाँ यह कहते हुए आगे विचार करना है कि उनकी प्रेम कविताएँ जीवन की सबसे सान्द्र अनुभूति वाली कविताएँ हैं और सहज ही साधारणीकृत हो जाने वाली। जहाँ उन्होंने किसी व्यक्ति अथवा संज्ञा को कविता के केंद्र में रखा है, वहां भी उनकी काव्यात्मक छटा देखते बनती है। सन 47 को याद करते हुएकविता में नूर मियां से संवाद हो अथवा जगरनाथशीर्षक कविता में सपाटबयानी से आगे एक आत्मीयतापूर्ण बातचीत, केदारनाथ सिंह के काव्यक्षेत्र के विस्तार को आसानी से महसूस किया जा सकता है। नदी, पुल, पहाड़, झरने उनकी कविता में अनेकशः आये हैं। उनकी कविताओं में जीवन की स्वीकृति है। सहजता, सरलता और साधारणता से भरा जीवन किन्तु विराट। धरती और अपने लोगों के पहचान से निःसृत कविताएँ। उन्होंने बनारस पर एक बहुत प्यारी कविता लिखी है। यह कविता बनारस की महानता और पवित्रता को आईना दिखाती हुई सी प्रतीत होती है। -
इस शहर में बसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
कि लहरतारा या मंडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है।
उनकी कई कविताएं हमारे दैनंदिन में उभरती हैं और छा जाती हैं। अपने परिवेश की छोटी-छोटी चीजों को कविता का हिस्सा बनाना और उनमें जीवन का रंग भर देना केदारनाथ सिंह को बड़ा कवि बनाती हैं। सरलता और सहजता उनकी कविताओं का विशेष गुण है। सरल और सहज शब्दों वाली उनकी कविताएँ अनुभव और कल्पना का विराट संसार रचने वाली कविताएँ हैं। उनकी यह कविता तो कविता-प्रेमियों के बीच सैंकड़ों बार दुहराई गयी है। दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होने की आकांक्षा में जो अर्थ व्यंजना है, वह चमत्कृत कर देने वाली है।-
उसका हाथ
अपने हाथ मे लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।


इसी प्रकार जानाशीर्षक कविता में जा रही हूँऔर जाओहिन्दी के व्याकरण  की खौफनाक क्रिया भर नहीं है, खौफनाक जीवनानुभव भी है। एक पद खौफनाकसे कवि पाठक को समृद्ध कर देता है।-
मैं जा रही हूँ- उसने कहा
जाओ- मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है।

केदारनाथ सिंह की कविता के विषय में वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदार की कविता जो पहली बार रूप या तंत्र के धरातल पर एक आकर्षक विस्मय पैदा करती है, क्रमशः बिम्ब और विचार के संगठन में मूर्त होती है और एक तीखी बेलौस सच्चाई की तरह पूरे सामाजिक परिदृश्य पर अंकित होती चली जाती है। केदार कल्पना का इस्तेमाल जरुर करते हैं और देखा जाए तो कल्पना की जो पूँजी उनके यहाँ है, वह उनके सुपरिचित समकालीनों के यहाँ विरल है। पर कल्पना का इस्तेमाल वे जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने के लिए नहीं करते, परिवेश की जटिल वास्तविकता को अधिक तीखे अर्थ में ग्राह्य बनाने के लिए करते हैं। उनकी कविता को नाम देने के लिए शास्त्र की दुनिया में जाने की जरूरत नहीं, सीधे हाट-बाजार में निकलने की जरूरत है, जहाँ केदार की कविता है।बारिश-धूप, हवा-पानी पर उनकी कविताएँ शास्त्रीयता की नहीं, सहज संपृक्तता की मांग करती हैं। वर्षा की दो छवि द्रष्टव्य है-
1.
जब वर्षा शुरू होती है
कबूतर उड़ना बंद कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है।
मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की- (जब वर्षा शुरू होती है)
2.
वह अचानक शुरू हुई
बकरियां उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं
वे देर तक चीखती-चिल्लाती रहीं
मगर पानी पूरी ताकत के साथ
गटर और उसके गोश्त में उतरता जा रहा था। (बारिश)

केदारनाथ सिंह ने बाघशीर्षक से लम्बी कविता लिखी है। पंचतंत्र की संरचना से युक्त इस कविता में आधुनिक जीवन की जटिलता को अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रदीर्घ कविता के केंद्र में बाघ है पर पाठक देखेंगे कि सिर्फ बाघ नहीं है। आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतना दूर आ गया है कि बाघ उसके लिए हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता भी है, जिसके साथ हमारे होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।वह स्वयं मानते हैं कि- आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है।यह एक बहुलार्थी कविता है जिसपर पंचतंत्र का प्रभाव है। बाघ कविता कई टुकड़ों में है। इसके हरेक अंश में बाघ अलग इकाई के रूप में चित्रित हुआ है लेकिन एक अंतर्दृष्टि के साथ।

बीते दिन 19 मार्च, 2018 को हमारे इस अतिप्रिय कवि ने इस असार संसार को अलविदा कहा। उन्हें याद करना एक सुपरिचित को याद करना है, उन्हें खो देना एक आत्मीय को। उस सुबह यह कवि उठा और अपना वायदा पूरा करने निकल पड़ा-
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी समेत
जल और कच्छप समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।

कवि केदार को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
इटावा, उ०प्र०

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.