शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

मोचीराम / धूमिल

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे

क्षण-भर टटोला

और फिर

जैसे पतियाये हुये स्वर में

वह हँसते हुये बोला-

बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में

न कोई छोटा है

न कोई बड़ा है

मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है

जो मेरे सामने

मरम्मत के लिये खड़ा है।


और असल बात तो यह है

कि वह चाहे जो है

जैसा है,जहाँ कहीं है

आजकल

कोई आदमी जूते की नाप से

बाहर नहीं है

फिर भी मुझे ख्याल है रहता है

कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच

कहीं न कहीं एक आदमी है

जिस पर टाँके पड़ते हैं,

जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है।


यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं

और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’

बतलाते हैं

सबकी अपनी-अपनी शक्ल है

अपनी-अपनी शैली है

मसलन एक जूता है:

जूता क्या है-चकतियों की थैली है

इसे एक आदमी पहनता है

जिसे चेचक ने चुग लिया है

उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है

जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर

कोई पतंग फँसी है

और खड़खड़ा रही है।


‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’

मैं कहना चाहता हूँ

मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है

मैं महसूस करता हूँ-भीतर से

एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो

अपनी जाति पर थूकते हो।’

आप यकीन करें,उस समय

मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ

और पेशे में पड़े हुये आदमी को

बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।


एक जूता और है जिससे पैर को

‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है

सैर को

न वह अक्लमन्द है

न वक्त का पाबन्द है

उसकी आँखों में लालच है

हाथों में घड़ी है

उसे जाना कहीं नहीं है

मगर चेहरे पर

बड़ी हड़बड़ी है

वह कोई बनिया है

या बिसाती है

मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है

‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो

घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ

…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’

रुमाल से हवा करता है,

मौसम के नाम पर बिसूरता है

सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को

बानर की तरह घूरता है

गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है

मगर नामा देते वक्त

साफ ‘नट’ जाता है

शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है

और कुछ सिक्के फेंककर

आगे बढ़ जाता है

अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है

और पटरी पर चढ़ जाता है

चोट जब पेशे पर पड़ती है

तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील

दबी रह जाती है

जो मौका पाकर उभरती है

और अँगुली में गड़ती है।


मगर इसका मतलब यह नहीं है

कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है

मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते

और पेशे के बीच

कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है

जिस पर टाँके पड़ते हैं

जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट

छाती पर

हथौड़े की तरह सहता है

और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे

अगर सही तर्क नहीं है

तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की

दलाली करके रोज़ी कमाने में

कोई फर्क नहीं है

और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी

अपने पेशे से छूटकर

भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है

सभी लोगों की तरह

भाष़ा उसे काटती है

मौसम सताता है

अब आप इस बसन्त को ही लो,

यह दिन को ताँत की तरह तानता है

पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले

धूप में, सीझने के लिये लटकाता है

सच कहता हूँ-उस समय

राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना

मुश्किल हो जाता है

आँख कहीं जाती है

हाथ कहीं जाता है

मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा

काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है

लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे

कोई जंगल है जो आदमी पर

पेड़ से वार करता है

और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है

मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है

जो असलियत और अनुभव के बीच

खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है

वह बड़ी आसानी से कह सकता है

कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है

असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का

शिकार है

जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है

और भाषा पर

आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है

जबकि असलियत है यह है कि आग

सबको जलाती है सच्चाई

सबसे होकर गुज़रती है

कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं

कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं

वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं

और पेट की आग से डरते हैं

जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’

और ‘एक समझदार चुप’

दोनों का मतलब एक है-

भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’

अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से

अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

खिड़की - शीला राय शर्मा की कहानी की समीक्षा

शीला राय शर्मा की कहानियों का संकलन #खिड़की की पहली ही कहानी है- खिड़की। यह प्रतिनिधि कहानी भी है। कल उनकी एक कहानी #नेलपॉलिश की चर्चा करते हुए हमने इस कहानी को याद किया था।
यह कहानी अन्तरसाम्प्रदायिक सम्बन्धों पर आधारित है। इसमें कथावाचक अमरीका से भारत लौटती है। उसी के विवरणों से पता चलता है कि कॉलेज के अंतिम वर्ष में उसने ‘साहिल’ से शादी करने का निर्णय लिया था। इस निर्णय से घर भर का वातावरण बदल गया था। जब उसके पिता को पता चला तो –“न तो उन्होंने मुझे बुलाकर कुछ पूछा, न डांटा, न चिल्लाये, न ही मेरा कॉलेज जाना बंद किया, बस मुझे अपनी जिन्दगी से निकाल फेंका।” यद्यपि इस विवाह में दोनों का सम्प्रदाय यथावत रहना था पर यह सम्बन्ध घर के लोगों के लिए असहज बना तो बना रहा।
कथावाचक शादी करके अमरीका चली जाती है और वहां से सत्रह वर्ष बाद घर लौटने का निर्णय लेती है। उसका एक बेटा है। उसका नाम रॉनी है।
इन सत्रह सालों में उसकी बात कभी कभार भाई से हो जाती थी। इसी से पता चलता कि पिता नहीं रहे। भाई का विवाह हो गया। दो भतीजे हैं। इस विवरण में यह संकेत है कि वह घर की सूचनाओं से भिज्ञ है किंतु उसे मांगलिक और शोक के मौकों पर भी नहीं बुलाया जाता।

यह कहानी, यह बात बहुत जोर देकर स्थापित करती है कि उसके साथ घरवालों ने संबंध विच्छेद कर लिया है। और यह विच्छेदन घर की ओर से है। सामूहिक रूप से।

इसे जानते हुए भी कथावाचक घर लौटती है। वहां मां अकेले रह रही हैं। उसका स्वागत होता है। लेकिन इस स्वागत में एक बहिष्कार है। अस्पृश्यता है। मां उसके हाथ का बनाया हुआ कोई खाद्य/पेय नहीं लेती। अघोषित और अनकहा सविनय बहिष्कार जारी है। संभवतः म्लेच्छ हो जाने के कारण। यद्यपि यह म्लेच्छ वाला संकेत कहीं है नहीं लेकिन है यही। यह कथाकार की शक्ति समझना चाहिए। बिना उल्लेख के ही, सबकुछ जैसे कहा जा रहा है।

कथावाचक का "अपना कमरा" था। अपना कमरा कहते ही वर्जीनिया वुल्फ की इसी शीर्षक से विमर्श की पुस्तक की याद हो आती है। साहिल के साथ जाने के बाद वह कक्ष बंद कर दिया गया है। उसकी खिड़कियां टूट गई हैं। आरामकुर्सी निष्प्रयोज्य हो गई है। वह इसे पुनः सहेजती है। सब ठीक करने के लिए उपक्रम करती है।
फिर एक दिन पता चलता है कि यह सब निरर्थक है। वह घर में है पर नहीं है। उसे जीवन से निकाल फेंका गया है। उससे अस्पृश्यता का बर्ताव हो रहा है।
वह वापस लौटने का निर्णय करती है। उसने सब कुछ सहेज दिया है लेकिन जानती है कि यह सब फिर से उसी तरह हो जाएगा। उपेक्षित।

जब वह घर से जाने लगती है तो व्यवस्था करती है। अपने कमरे को देखती है। रिक्शा पर बैठने के बाद वह पलट कर देखती है। उसे अनुमान है कि पूरबवाली खिड़की बंद होगी।
"इस घर के दरवाजे तो कब से मेरे लिए बंद हो चुके थे, अब वह खिड़की भी बंद हो गई, जिससे होकर मैं जब नहीं तब चुपके से आ जाया करती थी।"
यहां यह कहानी मुक्त हो जाती है।

#खिड़की कहानी में जो बात सबसे अधिक प्रभावित करती है, वह है घर का निर्णय। घर की एकता। पिता ने निर्णय लिया तो सबने उसपर अमल किया। सामान्यतया कहानियों में कोई एक व्यक्ति पिघल जाता है और दिशा बदल जाती है। स्वीकार्यता मिलने लगती है और सरलीकरण हो जाता है, जबकि यहां एक दृढ़ता है। यह दृढ़ता मुझे श्रीमद्भागवतगीता के उस श्लोक का ध्यान कराता है जिसमें व्यक्ति, परिवार, ग्राम आदि को क्रमशः बड़े उद्देश्य के लिए त्याग देने का उपदेश है।


त्याग दिया तो त्याग दिया! बहुत निर्लिप्त तरीके से। सम्मान करते हुए। यह दृढ़ता इस कहानी का सबसे शक्तिमान पक्ष है।।कथावाचक के घर लौटने के बाद के क्रियाकलाप में किंचित अतिरंजना और अस्वाभाविकता हो सकती है लेकिन इसे मैं उपेक्षित करना चाहता हूं। उद्देश्य स्पष्ट है।

मैंने ऐसी कहानी अब तक नहीं पढ़ी। मुझे शिवप्रसाद सिंह की एक कहानी का स्मरण आता है। लेकिन उस कहानी में भी दीदी बाद में अपनी भावना प्रकट करती हैं। वहां एक सदय चित्त है लेकिन यहां समस्त तरलता होते हुए भी चित्त में शुष्कता है। यही शुष्क तत्त्व इस कहानी को विशिष्ट बनाता है।


मैं शीला राय शर्मा को बधाई देना चाहता हूं। उनके पास कहन तो अद्भुत है ही, दृष्टि भी बहुत सुविचारित, प्रखर और स्पष्ट है। कोई गिजिगिजाहट नहीं। कोई किंतु परंतु और एजेंडा नहीं। कहीं से कोई निर्देश नहीं है। व्यक्तित्व के निर्माण में अपनी जड़ और भारतीयता है। अपना संस्कार है। कहानियां पढ़कर ऐसा कहीं भी नहीं लगता कि यह लेखक का पहला संकलन है।


विद्या भवन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस संकलन की यह सर्वश्रेष्ठ कहानी है। हाल के वर्षों में मेरे द्वारा पढ़ी हुई कहानियों में सबसे अधिक उत्तेजक और उत्कृष्ट!

गुरुवार, 25 जुलाई 2024

ए सखि पेखल एक अपरूप! : विद्यापति

ए सखि पेखल एक अपरूप!


विद्यापति के अपरूप वर्णन में ध्यान जैसे कच, कुच, कटि पर टिक गया हो। पीन पयोधर और नितंब पर वह मुग्ध हैं। राधा आश्रय हैं तो वह कृष्ण से मिलन का प्रसंग निकालते हैं। प्रथम दर्शन पाने के बाद कृष्ण व्यथित से, उद्विग्न हैं। सजनी को अच्छी तरह देख न पाया! और सजनी के उन्हीं अंग प्रत्यंग का उल्लेख है। 

इस गजगामिनी कामिनी को देख श्रीकृष्ण कहते हैं - उसके चरणों का जावक, मेरे हृदय को पावक की तरह दग्ध कर रहा है- "चरन जावक हृदय पावक, दहय सब अंग मोर।" चरणों का जावक, आलता। वह लाल रंग जिसे महावर की तरह प्रयुक्त करते हैं, को देखकर उनका अंग अंग जलता है। लाल रंग का कितना सुघड़ बिम्ब है।

और राधा! वह बायां पैर रखती हैं और दाहिना उठाती हैं तो लज्जा होती है। क्यों? रूप की राशि जैसे खनक जाती है। विद्यापति के पद पढ़कर, उन्हें प्रत्यक्ष कल्पित कर ही इस आनंद की कल्पना हो सकती है।

पहले भी कहा था हमने कि संयोग के प्रसंग में विद्यापति अति प्रगल्भ हैं। यह प्रगल्भता अंतरंग क्षणों में चुकती नहीं। राधा कृष्ण को देखकर पुलकित हो उठती हैं। इस पुलक में "चूनि चूनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बलआ भांगु।" वाणी कंपित हो गई है, बोली नहीं फूटती।

विद्यापति के यहां प्रेम का इतना सरस और उन्मुक्त वर्णन उन्हें घोर शृंगारी बनाता है।


कुछ दूसरे पदों की सहायता से इस शृंगारी पक्ष को और स्पष्ट करेंगे।


#6thDay 


#विद्यापति #vidyapati #मैथिल_कोकिल #प्रेम #Repost

‘नेलपॉलिश’ शीला राय शर्मा की कहानी की समीक्षा

 

एक लंबी अवधि के बाद कहानियों का कोई संकलन इतना प्रभावित कर रहा है कि इसकी प्रत्येक कहानी पर कुछ न कुछ कहने योग्य है। खिड़की संकलन में कुल 21 कहानियां हैं। प्रतिनिधि कहानी के बारे में किसी और दिन बताएंगे। आज चर्चा करेंगे, इसकी एक कहानी ‘नेलपॉलिश’ की। कहानी कथावाचक के स्वास्थ्य संबंधी विषय से उठती है और मधुमेह (डायबिटीज, लोक में प्रचलित हो गया है तो वही इसमें भी प्रयुक्त हुआ है) की सामान्य धारणाओं से आगे बढ़ती है। कथावाचक स्वास्थ्य संबंधी जांच के लिए अपनी बेटी के यहां दिल्ली आती हैं और रेलगाड़ी में बैठकर वापसी होनी है। बेटी ने बहुत सी हिदायतें दी हैं और कथावाचक इन सबसे मुक्त हो, व्यवस्था पर विश्वासी होकर और अपने पर विश्वास रखकर निश्चिंत हैं।

खिड़की : शीला राय शर्मा का कहानी सांकल, विद्या विहार नई दिल्ली से प्रकाशित

कहानी में नेलपॉलिश उत्तर पक्ष में आता है जब सामने की सीट पर बारह तेरह साल की एक युवक जैसा दिखने वाली "दुबली पतली, जींस और टी शर्ट पहने, बहुत छोटे छोटे कटे बाल, फैशनेबल टोपी और मुंह में लगातार च्यूइंगम चबाती, उद्दंड सी" लड़की, जिसे अड़तीस की संख्या का ज्ञान नहीं है, नेलपॉलिश लगाती है और लगभग लीप लेती है। उसकी हरकतों से कथावाचक खिन्न हैं। यह जानकर और खिन्न हैं कि युवक सरीखा बाना धरे हुए वह सर्वथा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रही है। लेखक लिखती हैं -"पॉलिश उसके नाखूनों और उंगलियों पर भद्दे ढंग से फैल गई। कपड़ों पर भी धब्बे लग गए, अगर मैं उससे चिढ़ी हुई न होती तो शायद बुलाकर लगा देती।" इसके कुछ समय बाद कहानी में एक घुमावदार मोड़ आता है। लड़की नेलपॉलिश छुड़ाने का प्रयास करती है। जब वह बाथरूम जाती है और युवती के पिता से संवाद होता है तो जैसे सब कुछ बदल जाता है। समय की बात, कथावाचक युवती के बाथरूम से लौटने के बाद स्वयं कहती हैं -"तुम्हारी नेलपॉलिश कहां है? लाओ मैं अच्छे से लगा दूं।" युवती भी कुछ बोलती नहीं, बस "नेलपॉलिश निकालकर मेरे पास आ बैठी और अपनी उंगलियां मेरे सामने फैला दीं।"

कहानी यहां रुक गई। कहानियां कभी पूर्ण या खत्म नहीं होती। वह वन में खो जाती हैं। यह कहानी भी जैसे इसके बाद रुक गई है और खो गई है। पाठक व्यग्रता में कहीं भटकने लगता है। शीला राय शर्मा की कहानियों का यह पहला ही संकलन है। हर कहानी जैसे पाठक को झकझोर देने वाली। कहीं भी बनावटीपन नहीं। कहीं भी पिष्टपेषण नहीं। कोई फालतू बात नहीं। काम की बातें। संवाद सधे हुए, रोचक और विवरण में वैज्ञानिकता, सहजता। अनावश्यक कुछ भी नहीं।

हम किसी दिन इस संकलन की बहुत महत्त्वपूर्ण कहानी #खिड़की पर बात करेंगे। यह कहानी मेरे देखे एक अनूठे विषय पर सबसे परिपक्व कहानी है।

#कहानी #समीक्षा #विद्या_विहार, नई दिल्ली से प्रकाशित

बुधवार, 24 जुलाई 2024

गरुड़ कौन थे?

गरुड़ कौन थे?

कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी विनता ने वर माँगा था कि उनकी दो संतानें हों जो उनकी बहन और सौत कद्रू के एक सहस्र संतानों से अधिक प्रभावशाली और महिमामयी हों। कश्यप ने उन्हें दो तो नहीं, अलबत्ता डेढ़ संतान का वर दिया। विनता की आधी संतान अरुण हैं जो उनकी जल्दबाजी के कारण परिपक्व अवस्था से पूर्व ही आ गए इसलिए 'दिव्यांग' रह गए। वह सूर्य के सारथि हैं।



विनता ने दूसरी संतान के लिए अप्रतिम धैर्य का परिचय दिया और अंडे से जो निकला, वह गरुड़ थे। कथा आती है कि एक बार कश्यप ऋषि को बलि देना था। उन्होंने इंद्र और अन्य देवताओं से से कहा कि वह यज्ञ के लिए लकड़ियाँ ले आयें। इन्द्र ने लकड़ियों का बड़ा गट्ठर बनाया था और बहुत मस्ती से कंधे पर लादकर ऋषि के आश्रम की ओर जा रहे थे। उन्होंने देखा कि राह में एक गड्ढा है। उस गड्ढे में कुछ हरकत हो रही थी। इंद्र कौतूहलवश रुके। उन्होंने देखा- बहुतेरे सूक्ष्म आकार के ‘बालखिल्य’ उस गड्ढे में गतिमान हैं। बालखिल्य घास का एक तिनका ढो रहे थे और गड्ढा पार करने के लिए प्रयासरत थे। इन्द्र ने अपने कंधे पर रखे गट्ठर को देखा और फिर बालखिल्यों को। उन्होंने अपने पैर के अगले भाग से गड्ढा के किनारे तक पहुँच रहे बालखिल्य समूह को बीच में धकेल दिया। बालखिल्य क्रोध और अपमान में भर कर कश्यप के पास आये और उनसे सारी घटना सुना दी। उन्होंने सत्ता के मद में चूर और अभिमानी इन्द्र का विकल्प बनाने की प्रार्थना की। कश्यप ने जब बताया कि इन्द्र को स्वयं ब्रह्मा ने पदस्थापित किया है और उसे हटाया नहीं जा सकता तो बालखिल्यों ने कहा कि हमारे ताप और आपके तप से जो संतान हो वह इन्द्र की सत्ता को चुनौती देने वाली हो। वह देवराज न हो तो पक्षिराज हो। कश्यप मान गए और इस तरह विनता की गर्भ से गरुड़ आये।

गरुड़ को अपनी माँ को दासता से भी मुक्त करना था। उन्हें कद्रू पुत्रों के लिए ‘सोम’ ले आना था जो देवताओं की निगरानी से रखा रहता था। गरुड़ ने यह सब कैसे किया? उनका आहार किस प्रकार उनके भाई ही बने? उन्होंने वेद आदि का अध्ययन कैसे किया? वह विष्णु की सवारी कैसे बने?

गरुड़ तो कथाओं के प्रस्थान बिंदु हैं।

#गरुड़ #महान_कथाएं


शनिवार, 6 जुलाई 2024

अपरुप के कवि : विद्यापति

 विद्यापति अपरूप सौंदर्य के कवि हैं। शृंगार वर्णन के क्रम में जब वह रूप वर्णन करते हैं तो उनकी दृष्टि प्रगल्भ हो उठती है। वह मांसल भोग करने लगते हैं। सौंदर्य वर्णन में वह "सुन्दरि" की अपरूप छवि के बारे में अवश्य ही बताते हैं - "सजनी, अपरूप पेखलि रामा!"

"सखि हे, अपरूप चातुरि गोरि!"

अपरूप अर्थात ऐसा रूप जो वर्णन से परे है। अपूर्व है। अवर्णनीय है। जातक ग्रंथों में अनुत्तरो शब्द आता है। सबसे परे। यह सुन्दरी राधा हैं। राधा की व्यंजना अपने अपने अनुसार हो सकती है। वह राधा के रूप को देखकर कहते हैं कि उन्हें बनाने में जैसे विधाता ने धरती के समस्त लावण्य को स्वयं मिलाया हो।


रूप वर्णन करते हुए विद्यापति अपरूप का व्यक्त करते हैं और उनकी दृष्टि #स्तनों पर टिक जाती है। कुच वर्णन में जितना उनका मन रमा है, हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी साहित्य में द्वितीयोनास्ति! जब शैशव और यौवन मिलता है तब नायिका मुकुर अर्थात आईना हाथ में लेकर, अकेले में जहां और कोई नहीं है अपना उरोज देखती है, उसे (विकसित होते) देखकर हंसती है -

"निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहंसइ अपन पयोधर हेरि।

पहिलें बदरि सम पुन नवरंग, दिन दिन अनंग अगोरल अंग।"

पहले बदरि समान अर्थात बैर के आकार का। फिर नारंगी।..

वह वयःसंधि में अपने बाल संवारती और बिखेर देती है। उरोजों के उदय स्थान की लालिमा देखती है।

रूप वर्णन में #विद्यापति का मन इस अंग के वर्णन में खूब रमा है। वह पदावली में अवसर निकाल निकाल कर एक पंक्ति अवश्य जोड़ देते हैं। दूसरा, अंग जिसपर #विद्यापति की काव्य प्रतिभा प्रगल्भ है, वह #नितंब हैं।

"कटिकेर गौरव पाओल नितंब, एकक खीन अओक अबलंब।" कटि अर्थात कमर का गौरव नितम्बों ने पा लिया है। एक क्षीण हुआ है तो अन्य पर जाकर आश्रित हो गया है।

विद्यापति की यह सुन्दरि पीन पयोधर दूबरि गाता है। वह क्षण क्षण की गतिविधि को अंकित करते हैं। सौंदर्य की यही तो परिभाषा कही गई है - प्रतिक्षण नवीन होना। सौंदर्य वहीं है जहां नित नूतन व्यवहार है, रूप है, दर्शन है।


इसी के प्रभाव से जो रूप बना, वह मनसिज अर्थात कामदेव को मोहित कर लेने वाला है। मुग्धा नायिकाओं के चरित्र को विद्यापति बहुत सजल होकर अपने पदों में व्यक्त करते हैं और इसे अपरूप कहकर रहस्यात्मक और अलौकिक बना देते हैं।

विद्यापति का यह रूप वर्णन इतना मांसल है कि कालांतर में यह सभा समाज से गोपनीय रखा जाने लगा।

यह विचार करने की बात है कि जिस समय विद्यापति थे, लगभग उसी समय खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बन रहे थे। रूप वर्णन और काम कला के अंकन में कैसी अकुंठ भावना थी। समाज कितना आगे था। फिर बाहरी आक्रमण हुए, स्त्रियों को वस्तु मानने वाले लोगों का आधिपत्य हुआ, समाज में दुराचारी और बर्बर लोगों का हस्तक्षेप हुआ, लुच्चे और लंपट आततायी लोग आए और सामाजिक ताना बाना बिखर गया। नए बंधन मिल गए। घूंघट और पर्दा की प्रथा बन गई। मुक्त समाज बचने के लिए सिकुड़ता चला गया।


विद्यापति के रूप वर्णन को मुक्त मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानना चाहिए। वह बहुत आधुनिक कवि हैं। उनसा कोई और नहीं है। बाद के कवियों ने बहुत प्रयास किया, नख शिख वर्णन में कोशिश की लेकिन वह सहजता, स्वाभाविकता नहीं आई। यह स्वाभाविकता मुक्त सामाजिक व्यवस्था से आती है, जिसकी छवि विद्यापति के यह दिखती है।

विद्यापति : अपरूप सौंदर्य के कवि 

#vidyapati #पदावली #रूप_वर्णन

#सौन्दर्य 

#अपरूप

शुक्रवार, 5 जुलाई 2024

लोमहर्षण और लोमहर्षक

 उनका नाम लोमश था। बड़े बड़े रोएं वाले। पुराणों के बहुत अच्छे वक्ता थे। अपनी वक्तृता से रोमांचित कर देने वाले। इस कारण उनका नाम ही लोमहर्षण हुआ। पुराण की कथाएं ज्ञानवर्धक और कल्याणकारी हैं, उन्हें सुनकर रोमांच होना सुखद अनुभूति है। लोमहर्षण व्यास थे और एक बार जब वह नैमिषारण्य में कथा वाचन कर रहे थे तब बलदेव ने अपने स्थान से उठकर स्वागत न करने पर उनका शिरोच्छेद कर दिया था। ब्रह्महत्या के दोषी हुए।


महाभारत में लोमहर्षण का प्रयोग है। गीता में यह रोमांचित करने के अर्थ में है। युद्ध भूमि में तुमुलनाद से भी रोमहर्षण होता है। वीर योद्धा युद्ध का दृश्य देखकर रोमांचित होते हैं और दुगुने उत्साह से युद्ध करते हैं। इसका अर्थ कायरों ने भयोत्पादक लिया है। रणभूमि में योद्धा डरेगा तो युद्ध क्या करेगा!


शब्दकोश में लोमहर्षण का विपरित अर्थ एक साथ मिलता है। सकारात्मक और नकारात्मक। रोमांचित करने वाला और भयानक। रोंगटे खड़ा कर देने का अर्थ लोग डरावना लेते हैं और लोमहर्षण के पर्याय की तरह प्रयुक्त करते हैं। बिना विचार किए कि यह सर्वथा विपरित अर्थ है।


चूंकि शब्दकोश में दिया गया है, इसलिए इसका प्रयोग धड़ल्ले से चल रहा है। रूढ़ि की तरह।


कल जब हमने फैजाबाद के सांसद अवधेश प्रसाद के वक्तव्य से #लोमहर्षक शब्द पर आपत्ति की तो ट्रॉलर्स ने मेरा मखौल उड़ाया। उड़ा रहे हैं। इस विषय में मुझे तीन बातें कहनी हैं -


१. शोक और पीड़ा के क्षणों में व्यक्ति निःशब्द हो जाता है। उसकी वाणी शून्य हो जाती है लेकिन माननीय सांसद जी का वक्तव्य सुनिए। विशेषणों की झड़ी लगा दी है उन्होंने। अवसर है उनके लिए। आपदा में अवसर। उनका लोमहर्षण हो रहा है तो वह लोमहर्षक बता रहे हैं।


२. यह सही है कि लोमहर्षक (यह शब्द भी प्रचलित है, कोश में नहीं है) का प्रयोग भयावह के लिए भी होता है लेकिन क्या यह रोमांचक/सुखद के लिए उपयुक्त नहीं है? मेरी बात में दस प्रतिशत अन्यार्थ के लिए हो सकती है, लेकिन सर्वथा गलत नहीं है। और


३. यदि आप शब्द का गलत अर्थ ले रहे हैं तो यह आपकी समस्या है। मैं अपील करूंगा कि इसे सुधार लीजिए। अंग्रेजी पर्याय देख सकते हैं। आप गलत अर्थ ले रहे हैं और इसे अपने प्रयोग में बदल लीजिए।


मैं एक क्षण के लिए मान लेता हूं कि मैं अर्धसत्य कहा है। यही तरीका तो राहुल गांधी का #हिन्दू और #हिंसक के नैरेटिव में था। वह तो समुदाय के प्रतीकों में घाल मेल कर गए। संसद में कर गए। तब तो आपमें से किसी ने आपत्ति नहीं की।


मैं सोचता हूं कि #हाथरस घटना पर अपना वक्तव्य देते हुए अवधेश प्रसाद प्रफुल्लित और रोमांचित थे। विशेषणों की झड़ी इसी नाते लग रही थी।



#शब्द_चर्चा

सद्य: आलोकित!

मोचीराम / धूमिल

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे क्षण-भर टटोला और फिर जैसे पतियाये हुये स्वर में वह हँसते हुये बोला- बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में न कोई छोटा ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.