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गुरुवार, 7 जुलाई 2022

आदिवासी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति बनेंगी महामहिम!

 -डॉ रमाकान्त राय

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन द्वारा आदिवासी समुदाय की संघर्षशील महिला और झारखंड के राज्यपाल पद को सुशोभित कर चुकी महिला द्रोपदी मुर्मू को महामहिम के लिए अपना प्रत्याशी बनाकर एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। भारतीय जनता पार्टी को अपने शासन काल में तीन बार राष्ट्रपति चुनाव के लिए अवसर मिला और उसने ए पी जे अब्दुल कलाम, रामनाथ कोविन्द और द्रोपदी मुर्मू का नाम आगे करके हाशिया पर रहने वाले वंचित समाज को उच्च पद पर आसीन करने का एक उल्लेखनीय काम किया है। पहले मुसलमान फिर अनुसूचित जाति और अब अनुसूचित जनजाति की महिला उम्मीदवार खड़ा करके उसने वंचित और शोषित समुदाय को अवसर देने का श्रेय लिया है।

      द्रोपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं और उनका सम्बन्ध ओडिसा से है। ओडिसा के मयूरभंज जनपद के एक संताल परिवार में जन्मीं द्रोपदी मुर्मू ने अध्यापक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ किया और अपने पति तथा पुत्रों की अकाल मृत्यु के बाद भी अदम्य साहस और राजनीतिक क्षमता का परिचय देते हुए विधानसभा, मंत्रिपद और राज्यपाल के रूप में सेवाएँ देकर शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया। वह झारखंड की पहली महिला और आदिवासी राज्यपाल होने का गौरव रखती हैं। अब जबकि राष्ट्रपति पद पर उनका चुना जाना लगभग सुनिश्चित है, देश और शोषित वंचित आदिवासी समुदाय को उनसे अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं।

          द्रोपदी मुर्मू के देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के साथ ही आदिवासी समुदाय को एक महत्त्वपूर्ण पहचान मिलने की उम्मीद रहेगी। आदिवासी और दलित समुदाय में यह बहुत बड़ा द्वंद्व रहा है कि आदिवासी समुदाय, तथाकथित मुख्यधारा से इतर एक पृथक जीवन प्रणाली का अंग रहा है और कई बार उसकी अपेक्षा रही है कि उसकी स्वायत्तता और स्वतन्त्रता तथा जीवन पद्धति में अनावश्यक दखल न किया जाय। जबकि दलित समुदाय मुख्य धारा के समाज के बीच में उपेक्षा और अश्पृश्यता से मुक्त होने के लिए छटपटाता रहा है। आदिवासी समुदाय की सबसे बड़ी चुनौती है मुख्यधारा से जुड़ना। अपने सामुदायिक प्रतीकों और रीति-रिवाजों को सर्व समाज में स्वीकृत कराना। देश के सर्वोच्च पद पर बैठने से लोगों का दृष्टिकोण बदलेगा और इन पहचानों को मान्यता मिलेगी। द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति के रूप में पदासीन होने के बाद आदिवासी समुदाय को मुख्यधारा से जोड़ने में बहुत बड़ी सफलता मिलने वाली है।

       वर्तमान समय में आदिवासियों का शोषण, उनके जल, जंगल और जमीन पर बढ़ता अतिक्रमण एक बड़ा मुद्दा है। देश के विभिन्न भागों में आदिवासी समुदाय इस अतिक्रमण से बहुत क्षुब्ध है और इसीलिए नक्सलियों के प्रति सहानुभूतिशील भी। झारखंड, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, ओडिसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में नक्सलियों की रीढ़ यह समुदाय इसीलिए बना हुआ है क्योंकि उसे आशंका है कि तथाकथित विकास की यह प्रक्रिया और अतिक्रमणवादी भावना उनकी स्वायतत्ता और स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी और उनके जंगल, आवास आदि को नष्ट कर डालेगी। राष्ट्रपति के रूप में द्रोपदी मुर्मू के समक्ष यह चुनौती होगी कि वह आदिवासियों को विश्वास में लें और उनकी आशंकाओं को दूर करें। आज आदिवासी समुदाय तथाकथित दिकु लोगों के संपर्क में आकर ऋण के ऐसे चंगुल में फंसा हुआ है जिसमें वह लगभग तबाह हो जाता है। औने-पौने कीमत पर उनकी जमीन हड़प ली जाती है, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होता है और यह सब शोषण स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से निर्बाध चल रहा है। देश के एक बड़े समूह को आशा है कि इस सब शोषण आदि पर रोक लगेगी और आदिवासी समुदाय को परेशान करने वाली मानसिकता क्षरित होगी। नक्सली समस्या से निजात मिलेगी।

         शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार होने की राह प्रशस्त होगी। जनसंख्या के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1991 में भारत में अनुसूचित जनजातियों की साक्षारता दर 29.6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2001 में बढ़कर 47.1 प्रतिशत तक पहुंची है किन्तु यह एक सतोषजनक आंकड़ा नहीं है। यह देश भर में साक्षारता के औसत दर 74 प्रतिशत से बहुत कम है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भी यह समुदाय बहुत आशा भरी दृष्टि से देख रहा है।

आदिवासी समुदाय अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर भी संघर्ष कर रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में यह माँग ज़ोरों पर है कि आदिवासी क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा का भाषाई माध्यम स्थानीय हो जिसके लिए प्रयास जारी हैं। आदिवासी समुदाय अपने साहित्य को लेकर भी विमर्श के केन्द्र में है। उनका अधिकांश साहित्य वाचिक परंपरा का है और धीरे धीरे लुप्त होने के कगार पर है। लिखित साहित्य को भी मुख्य धारा में स्थान बनाने में संघर्ष करना पड़ रहा है। जो गिने चुने साहित्यकार हैं, उनकी रचनाओं को एक वृहद संसार मिलेगा और उनका स्वर देश-देशान्तर में पहुंचेगा।

         आदिवासी समाज में धर्मांतरण एक बहुत बड़ा विषय है। जितनी तेजी से ईसाई मिशनरियाँ इन दुर्गम क्षेत्रों में पहुँचकर अपना अभियान चला रही हैं, वह सुरसा की तरह विकराल होता जा रहा है। मैं जब सोनभद्र में कार्यरत था तो देखा करता था कि स्वास्थ्य और शिक्षा तथा पोषण को दृष्टिगत कर मिशनरी के लोग आदिवासियों को धर्मांतरित करते रहते थे और जब तब इसके लिए अभियान चलाते थे। आज देश में आदिवासी, ईसाइयों के सबसे आसान शिकार हैं। द्रोपदी मुर्मू बनवासी कल्याण आश्रम से जुड़ी रही हैं और आदिवासियों की विभिन्न समस्याओं से बखूबी परिचित हैं। उन्हें इस समुदाय की आशाओं/आकांक्षाओं का ज्ञान है। वह आदिवासी समुदाय की महिला नेता और अध्यापक रही हैं। यह सब कुछ उन्हें बहुत संवेदनशील, मर्मज्ञ और चुनौतियों के प्रति सदय बनाता है।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में

यद्यपि देश का एक अन्य बौद्धिक वर्ग तंज़ करते हुए यह कह रहा है कि राष्ट्रपति रहते हुए दलितों का जितना उपकार रामनाथ कोविन्द ने किया, आदिवासियों का द्रोपदी मुर्मू करेंगी। इस तंज़ में कोई सकारात्मक भाव नहीं है। रामनाथ कोविन्द के सर्वोच्च पदासीन होने का एक प्रतीकात्मक महत्त्व है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव कम और अप्रत्यक्ष प्रभाव अधिक है। समाज के शोषित, वंचित समुदाय का आत्मविश्वास प्रबल होता है, उन्हें यह विश्वास होता है कि भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में वह भी देश का महामहिम बन सकते हैं। स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में हमारे देश में यह एक शानदार पहल हो रही है कि आदिवासी समुदाय की एक महिला को पहली बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन होने का अवसर मिल रहा है। समूचे विश्व को इस पहल का स्वागत करना चाहिए।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप का ऑनलाइन लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा, उत्तर प्रदेश

9838952426

royramakantrk@gmail.com

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