बहुत लोग पूछंते हैं कि मेरी दृष्टि इतनी साफ कैसे हो गयी है और मेरा व्यक्तित्व ऐसा सरल कैसे हो गया हैं। बात यह है कि बहुत साल पहले ही मैंने अपने-आपसे कुछ सीधे सवाल किये थे । तब मेरी अंतरात्मा बहुत निर्मल थी-शेव के पहले के कांच जैसी । कुछ लोगों की अंतरात्मा बुढापे तक वैसी ही रहती है, जैसी पैदा होते वक्त । वे बचपन में अगर बाप का माल निसंकोच खाते हैं, तो सारी उम्र दुनिया भर को बाप समझ-कर उसका माल निसंकोच मुफ्त खाया करते हैं । मेरी निर्मल आत्मा से सीधे सवालों के सीधे जबाब आ गये थे, जैसे बटन दबाने से पंखा चलने लगे । जिन सवालों के जवाब तकलीफ दें उन्हें टालने से आदमी सुखी रहता है । मैंने हमेशा सुखी रहने की कोशिश की है । मैंने इन सवालों के सिवा कोई सवाल नहीं किया और न अपने जवाब बदले । मेरी सुलझी हुई दृष्टि, मेरे आत्मविश्वास और मेरे सूख का यही रहस्य है । 'दूसरों को सुख का रास्ता बताने के लिए मैं वे प्रश्न और उनके उत्तर नीचे देता हूँ-
तुम किस देश के निवासी हो ?
- भारत के
-संसार में सबसे प्राचीन संस्कृति किस देश की है
-भारत की
-तुम किस जाति के हो ?
-आर्य-
विश्व में सबसे प्राचीन जाति कौन ?
-आर्य
-और सबसे श्रेष्ठ ?
-आर्य
-क्या तुमने खून की परीक्षा करायी है ?
- हां उसमें सौ प्रतिशत आर्य-सेल हैं
- देवता भगवन से क्या प्रार्थना करते है ?
- कि हमें पुण्यभूमि भारत में जनम दो
- बाकी भूमि कैसी हैं ?
-पाप भूमि हें
-देवता कहीं और तो जन्म नहीं लेते
-कतई नहीं । वे मुझे बताकर जन्म लेते हैं
-क्या देवताओं के पास राजनीतिक नक्शा है
-हाँ, देवताओं के पास 'ऑक्सफ़ोर्ड वर्ल्ड एटलस' है
-क्या उन्हें पाकिस्तान बनने की खबर है
-उन्हें सब मालूम है । वे "बाउण्डरी कमीशन' की रेखा को मानते हैं
-ज्ञान -विज्ञान किसके पास है ?
-सिर्फ आर्यो के पास
-यानी तुम्हारे पास है ?
-नहीं, हमारे पूर्वज आर्यों के पास
- उसके बाहर कहीं ज्ञान-विज्ञान तो नहीं है ?
- कहीं नहीं-
इन हजारों सालों मनुष्य-जाति ने कोई उपलब्धि की?
- कोई नहीं । सारी उपलब्धियाँ हमारे यहां हो चुकी थीं ।
-क्या अब हमें कुछ सीखने की जरूरत है ?
-कतई नहीं । हमारे पूर्वज तो विश्व के गुरु थे
-संसार में महान् कौन ?
- हम, हम, हम हम, हम
मेरा ह्रदय गदगद हो गया । अश्रुपात होने लगा । मैंने आँखें बन्द कर ली तो भीतर से स्वर निकलने लगे" "अहा ! वाह ! कैसा सुख है इसी समय मेरा एक परिचित वहाँ आ गया । बोला क्या आँखें आ गयी हैं ? कोई दवा डाल रखी है? मैंने कहा -अंजन लग गया है । पर बाहर की आँखों में नहीं , भीतर की आँखों में , नयी दृष्टि मिल गयी है । बड़ा संतोष है । अब सब सहज हो गया है । इतिहास सामने आ गया । जीवन के रहस्य खुल गये । न मन में कोई सवाल उठता, न कोई शंका पैदा होती । जितना जानने योग्य था, जाना जा चुका । सब हमारी जाति जान चुकी। अब न कुछ जानने लायक बचा, न करने लायक ।
मैंने वे सवाल और जवाब बताये । उसने कहा - ठीक है । मैं समझ गया आत्मविश्वास धन का होता हैं, विद्या का भी और बल का भी, पर सबसे बडा आत्मविश्वास नासमझी का होता है । इसे मैंने अपनी प्रशंसा समझा और अपने विश्वासो मेँ और पक्का हो गया । मैं अपने विचार खुलकर प्रकट करने लगा और लोगों को वे दिलचस्प मालूम हुए. लोग मुझे सुनने के लिए तड़पने लगे और इंजीनियरों से लेकर दार्शनिको तक के बीच मुझे बुलाया जाने लगा .
एक दिन डाक्टरों की सभा में मैंने कहा-पश्चिम गर्व करता है कि उसने पेनिसिलीन की खोज करके मनुष्य की आयु बढा दी है । उसे नहीं मालूम कि पेनिसिलीन दुसरे विश्वयुद्ध के समय नहीं, महाभारत-युद्ध के समय हमारे यहाँ खोज लिया गया था । मित्रों ! कल्पना कीजिए…भीष्म-पितामह, ऊर्ध्वरेता, अखण्ड ब्रह्मचारी भीष्म, शऊर-शैया पर पड़े हैं । सारा शरीर घावों से क्षत-विक्षत हो गया है । वे सूर्य की गति देख रहे हैं । सूर्य उत्तरायण हो, तो वे प्राण त्यायें । वे पूरे इक्यावन दिन जीवित और फिर भी घावों से नहीं मरे; इच्छा से प्राणों का त्याग किया । में पश्चिमी वैज्ञानिकों से पूछता हूँ कि उनके घाव 'सेप्टिक' क्यों नहीं हुए ? पेनिसिलीन के कारण । उन्हें पेनिसिलीन दिया गया था । भारत ने दस हजार साल पहले जो पेनिसिलीन विश्व को दिया था, वही अब पश्चिम हमें इस_तरहृ लौटा रहा है, जैसे वह उसी की खोज हो । मित्रों ! भूलिए मत कि भारत विश्व का गुरु है । हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता इस पर खूब जोर से तालियाँ बजीं और सब मान गये कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता .
हाल ही में भारत -पाक -युद्ध के दौर में टेंक-भेदी तोप की बडी चर्चा थी । मैँ सुनता था और हँसता था । आखिर एक दिन एक सभा में मैंने कह दिया जो लोग टेंक-भेदी तोप की तारीफ करते हैं वे भूल जाते हैं कि टेक तो आज बने हें, पर टेंक-भेदी तोपें तो हमारे यहाँ त्रेता युग में बनती थीं । भाइयो, कल्पना कीजिए उस दृश्य की-…~ राम सुग्रीव से कह रहे हैं कि मैं वालि को मारूँगा । सुग्रीव सन्देह प्रकट करता है कहता है-बालि महाबलशाली है । मुझे विश्वास नहीं होता कि आप उसे मार सकेंगे तब क्या होता है कि मर्यादा-पुरुपोत्तम धनुष उठाते हें, बाण का सन्धान करते हें और ताड़ के वृक्षों की एक कतार पर छोड़ देते है ॰। बाण एक के बाद एक सात ताडों को छेदकंर निकल जाता है । सुग्रीव चकित है, वन के पशु-पक्षी, खग-मृग और लता-वल्लरी चकित हैं । सज्जनौ, जो एक बाण से सात ताड़ छेद डालते थे, उनपे पास मोटे से मोटे टेंक कौ छेदने की तोप क्या नंहीं होगी ? भूलिए मत, हम विश्व के गुरु रहे हैं और कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।
खूब तालियाँ पिटी और सब मान गये कि कोई हमेँ कुछ नहीं सिखा सकता
एक दिन मनोविज्ञान पर एक परिचर्चा आयोजित थी । प्रोफेसर लम्बे लम्बे भाषण दे रहे थे । जब सहन नहीं हुआ, तो मैं भी बोलने पहुँच गया कहा-साइक्लोजी - ! मनोविज्ञान-हुँह ! लोग कहते हैं कि साइक्लोजी आधुनिक "बिज्ञान है । में पूछता हूँ, क्या प्राचीन भारत में साइकाँलोजी नहीं थी ?अवश्य थी । अहा, उस दृश्य की कल्पना कीजिए- सूना वन-प्रदेश है । स्वच्छ आकाश और धरती पर ऋषि और उनकी पत्नी बैठे हैं । चाँदनी फैली हुई है । मन्द-मन्द सुगन्ध मय समीर बह रहा है । ऐसे में ऋषि और उनकी पत्नी के हृदय में क्या भावनाए उठ रही होंगी ? बस, यही तो साइकाँलौजी है । हमारे देश में यह हजारों वर्ष से है और कहते हैं कि यह आधुनिक विज्ञान हैं । वे भूलते हैं, कोई हमें कुछ नहीं सिखा सकता।
लोगों ने तालियाँ पीटों और मान गए कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता
एक बार विदेश से वनैई बाँटनिस्ट' (वनस्पति वैज्ञानिक) आया । उनका एक जगह भाषण होना था । मुझे बताया गया कि यह 'फॉसिल' का विशेषज्ञ है, यानी चट्टानों के बीच दवे हुए पौधे या जन्तु के पाषाणरूप हो जाने का । मैंने उसका भाषण सुना और मेरे भीतर हलचल होने लगी। वह पश्चिम के वैज्ञानिकों के नाम ही लेता रहा और विदेशों के 'फरेंसिल' दिखाता रहा । उसके बाद बोलने को खडा हों गया । मैंने कहा-आज हमने एक महान् 'बाँटनी' का भाषण सुना । (बाद में मुझे बताया गया कि वह बाँटनिस्ट कहलाता ।) उन्होंने हमेँ बताया कि 'फाँसिल' कैसे होते हैं । मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या प्राचीन भारत मेँ 'बाँटनी' नहीं थे ? अवश्य थे हम उन्हें भूलते जा रहे हैं । भगवान् रामचन्द्र एक महान् 'बाँटनी' थे और अहिल्या एक 'फासिल ' थी । महान् बाँटनी रामचन्द्र ने अहिल्या फासिल का पता लगाया। वे आज के इन बाँटनियों से ज्यादा योग्य थे। ये लोग तो फरेंसिल का सिर्फ पता लगाते हैं और उसकी जांच करते हैं । महान् बाँटनी राम ने "फरेंसिल" अहिल्या को फिर से स्त्री बना दिया । ऐसे-ऐसे चमत्कारी बाँटनी हमारे यहाँ हो गये हैं । हम विश्व के गुरु रहे हैं । हमें कोई कूछ नहीं सिखा सकता।
इस पर भी खूब तालियाँ पिटी और विदेशी विशेषज्ञ तक मान गए कि हमें कोई कुछ नहीं सिखा सकता
एक दिन मैं ऐसी जगह पहुँच गया, जहाँ दो पहलवान किस्म के आदमी भाषण देने वाले थे । बताया गया कि वे विदेशों में शरीर-सौष्ठव की शिक्षा लेकर आये हैं बताने वाले हें कि शरीर को किस प्रकार पुष्ट बनाया जा सकता है। मैं उनकी बाते सुनता रहा । में बोला-शरीर तो हमारे पूर्वज बनाते थे । हमारे पास न शरीर है, न उसे हम बना सकते हैं । में आप से पूछता हुँ कि आपने भगवान् राम और कृष्ण की इतनी तसवीरें देखी' । क्या ऐसी भी कोई तसवीर हैं जिसमें वे पूरे कपडे पहने हो ? किसी भी कैलेण्डर पर आपको ऐसी तसवीर नहीं मिलेगी जिसमेँ कमर से ऊपर कपड़ा पहने हों । यह हिस्सा वे उघाड़ा रखते थे । क्यों ? इसलिए कि उन्होंने शरीर बनाया था और उसे दिखाना चाहतें थे । पर आप लोग कोट और पेंट पहने हुए बैठे हैं । ठीक हैं, आपके पास दिखाने को क्या है ? और ये पश्चिम के सीखे हुए लोग आपको वह क्या सिखा सकते हैं, जो राम और कृष्ण एक तसवीर से सीखा गए।
लोगो ने तालियां पीटी और सब मान गये कि कोई हमें अब कुछ नहीं सिखा सकता |
मेरी दृष्टि ऐसी साफ और सुलझी हुई हो गयी है कि मेरी बात तर्क से परे होती है उस पर विश्वास करना पड़ता है । जहां मैँ एक बार भाषण दे देता हूँ, वहाँ के लोग एकदम मान जाते है कि हमें कोई कुछ नहीं सीखा सकता। मुझे मालुम लोगो ने मेरी बाते सुनकर कुछ भी सीखना बंद कर दिया है । - हरिशंकर परसाई
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