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शुक्रवार, 5 जून 2020

कथावार्ता : कुबेरनाथ राय के साहित्य का भारतवादी पक्ष


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 02

-ऋषिकेश कुमार


"अकेला निर्माण ?
वह भी है,
अगर उसकी चाह
सभी के कल्याण के हित
छोड़ी गई हो।” 
-‘अज्ञेय’
आधुनिक काल के प्रसिद्ध आर्ष-मनीषा के अन्वीक्षक आख्याता, सारस्वत साधना के साधक, ललित निबंध लेखक, ‘देशी’ क़िस्म के ग्रामीण बुद्धिजीवी, चिंतक, आचार्य कुबेरनाथ राय हिन्दी साहित्य में अपने ढंग से अकेला निर्माण करने वाले लेखक हैं, जिनके यहाँ सभी के कल्याण की भावना निहित है। कुबेरनाथ राय ने बदलते समय और परिवेश को ध्यान में रखते हुए, भारतीय चिंतन परंपरा में जहां सुधार कि गुंजाइश दिखाई दी वहाँ सुधार हेतु सुझाव दिए और जहां व्याख्या की आवश्यकता थी, वहां संदर्भ सहित व्याख्या की। “नीलकंठ की नगरी वाराणसी और प्राग-भारती का प्रभामय प्रांगण कामरूप दोनों कुबेरनाथ राय के स्वाध्याय और वांग्मय तपस्या का केंद्र हैं। प्रसन्न पुण्य सलिला भगवती भागीरथी ने कुबेरनाथ को ‘रस’ प्रदान किया तो असम की आत्मीयता ने उनको ‘तत्त्वबोध’ कराया । दोनों का मंजुल सामंजस्य श्री कुबेरनाथ राय की लेखनी में विद्यमान है ।”[1] जिसका आनंद पाठक ले सकते हैं लेकिन हाँ,  शर्त यह है की पाठक को सजग रहना होगा अन्यथा कुछ खास प्राप्त नहीं होने वाला है । जिस लेखक को “अपनी भाषिक संस्कृति का आदर्श तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से मिला है [2] जो यह साफ शब्दों में लिखता हों कि “ मेरा उद्देश्य रहा है पाठक के चित्त को परिमार्जित भव्यता देना और साथ ही उसकी चित्त-ऋद्धि का विस्तार करना ।”[3] उनके प्रति सतर्क तो रहना ही पड़ेगा अन्यथा कुछ हाथ नहीं आने वाला है, ‘परिमार्जित भव्यता, चित्त-ऋद्धि का विस्तार’ तो दूर की बात है । कुबेरनाथ राय के साहित्य के मर्मज्ञ और गांधीवादी विचारक डॉ मनोज राय अपने आलेख ‘लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए’ में लिखते हैं कि “श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है । यह लगभग असामान्य घटना है । उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो ।”[4] 


कुबेरनाथ राय विषय के अनुसार, उसकी स्वभाविक अभिव्यक्ति के अनुरूप शैली ग्रहण करते हुए अपने चिंतन प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने पाश्चात्य विद्वानों पर ललित निबंध लिखा आत्मकथात्मक शैली में, गांधी जी के विचारों को केंद्र में रखकर निबंध लिखा पत्रात्मक शैली में, असम के प्रकृति को केंद्र में रखकर निबंध लिखा संस्मरणात्मक शैली में। कुबेरनाथ जी का उदेश्य साफ था, सोचने समझने वाला पाठक तैयार करना है न कि ‘आधुनिक चरण’ रखने वाला पाठक । अपने निबंध संग्रह ‘किरात नदी में चन्द्र मधु’ में कुबेरनाथ राय लिखते हैं- “पुस्तक का प्रथम उद्देश्य है ‘भारतीय संस्कृति के अन्दर आर्येतर तत्वों की महिमा का उद्घाटन। द्वितीय उदेश्य है किरात तन्मात्राओं (रूप-रस-गंध-स्पर्श-शब्द) का स्वाद हिंदी पाठक के लिए सुलभ करना ।”[5]  ताकि वह उन महानुभावों के सामने सीना तान कर खड़े हो कर उन्हें बता सके, जब वे कहते हों की भारत को ‘भारत’ हमने बनाया है। जब तक समाज के लोगों को पता नहीं होगा कि भारत जिसमें हम रहते हैं, इसमें मेरा क्या है? मेरे पूर्वजों का क्या योगदान है? जब तक वह जान नहीं लेगा तब तक वह बस, रेल आदि को जलाता ही रहने वाला है। क्योंकि उसे पता ही नहीं है कि जिसे वह जला रहा है वह तो उसकी अपनी, अपने पूर्वजो की धरोहर है। उसे तो यह बताया गया है कि तुम अल्पसंख्यक हो, तुम शोषित हो, तुम्हें सुविधाओं से जान बूझकर वंचित रखा गया है। किन्तु कुबेरनाथ अपने चिंतन मनन के बाद उन्हें बताते है- “मैं सत्त्ताईस-अट्ठाईस वर्ष हिन्दी क्षेत्रों से बाहर रहा और मैंने पग-पग पर अनुभव किया कि भारतवर्ष को ‘भारतवर्ष’ बनाने की प्रक्रिया में पिछड़े से पिछड़े वर्ग का भी सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक योगदान रहा है। सबने मिल जुलकर इसके इतिहास, इसकी भाषा और इसकी संस्कृति की रचना की है और सहस्राब्दियों से इसका लोक-जीवन दर्शन और रस-बोध की दृष्टि से सबने मिलजुलकर हमारी एक अलग ‘पहचान’ बनायी है”।[6] पर आज की विडम्बना यह है कि इस ‘पहचान’ को पहचानने वाले कम हैं और जो उनको भारत की पहचान कराने की क्षमता रखते भी हैं, उन पर आरोप लगाया जाता है कि उनके निबंध के विषय और उसमें उपयोग किए गए शब्दों के कारण पाठक को पढ़ने समझने में कष्ट होता है! यह बात किसी और लेखक के बारे में नहीं कुबेरनाथ राय के बारे में वे लोग कहते हैं जो न तो कुबेरनाथ राय जी को पढ़ते हैं न उनपर कार्य करने वाले लोगों को। युवा आलोचक डॉ. रमाकांत राय, कुबेरनाथ राय के लेखन के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “कुबेरनाथ राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्यदोनों सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेदउपनिषद्पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैंजिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत कर लिया है”।[7] और जो हर क्षेत्र में ‘सरलीकृत’ विचार-दृष्टि अपनाता है वह सत्य से दूर, बहुत दूर रह जाता है। निबंधकार के कुछ अपने महत्वपूर्ण दायित्व हैं। कुबेरनाथ राय के शब्दों में- “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। यदि वह पाठक के बौद्धिक स्तर को ही लक्ष्मण रेखा मानकर चलेगा तो यह संभव नहीं है ।”[8] 



कुबेरनाथ राय अपने और लेखक के दायित्वबोध को जानने और समझने वाले रचनाकर हैं। अपने दायित्वों के सम्बन्ध में वह लिखते हैं- “मैं शुद्धतः ललित निबंधकार हूँ और लालित्य के साथ बौद्धिक रस का सम्प्रेषण एवं इसके द्वारा पाठक के मानसिक क्षितिज का विस्तार, यही मेरा उद्देश्य रहा है ।”[9] उनके यहाँ कोई लाग लपेट नहीं। बहुत साफ शब्दों में बता देते हैं कि मेरा उद्देश्य क्या है । असल में कुबेरनाथ राय के लेखन का आरंभ ही चुनौती से होता है। उन्हीं के शब्दों में- “बचपन में कभी लिखता था– ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’ आदि अच्छे पत्रों में। बीच में मौन रहा। सन् 1962 में प्रोफेसर हिमायूँ कबीर की इतिहास सम्बन्धी ऊलजलूल  मान्यताओं पर मेरा एक तर्कपूर्ण और क्रोधपूर्ण निबंध को पढ़कर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने मुझे घसीट कर मैदान में खड़ा कर दिया और हाथ में धनुष बाण पकड़ा दिया। अब मैं अपने राष्ट्रीय और साहित्यिक-उत्तरदायित्व के प्रति सजग था। मैं सरस्वती में लगातार लिखने लगा।”[10] ‘बीच में मौन’ अकारण नहीं था, सकारण था। जब चीजें अपने वश में नहीं रहतीं, तब हमें अपनी जीवनचर्या पर रूक कर विचार करना चाहिए। कुछ समय के लिए रूकना भी पड़े तो रुक जाना चाहिए। रुकना भी एक तरह का बदलाव है। हम रुकते हैं, चिंतन मनन करने के लिए, नई योजना बनाने के लिए। बदलते समय और समाज में अपने को क़ायम रखने के लिए, परिवर्तित काल में अपने को लगातार परिष्कृत और परिमार्जित करने के लिए। हमें अपने को समय के साथ बदलना बहुत जरुरी है। सकारात्मक मौन परिष्कृत और परिमार्जित रूप में ‘प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग, पर्ण मुकुट , महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन पवन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु, मराल , उत्तरकुरु, चिन्मय भारत, वाणी का क्षीरसागर, कंथामणि, अंधकार में अग्निशिखा, रामायण महातीर्थम और आगम की नाव’ लेकर उपस्थित होते हैं। जिसमें “भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही ‘आइडेन्टिटी’ का पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हज़ार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहे हैं, इस बात को जाने कि यह भारत और भारतीयता का उत्तराधिकार उनके ही ‘महिदास’ जैसे पूर्वजों की रचना है और इस तथ्य को जानकर वे अपने खोए आत्म-विश्वास को प्राप्त करें, उनका सुप्त आत्मबल पुनः जागे”।[11]
कुबेरनाथ राय ने रामायण और राम को केंद्र में रखकर  जितने भी निबंध लिखे उन सब के उदेश्य उनके सामने साफ थे। उन्होंने अपने ‘त्रेता का बृहत्साम’ निबंध संग्रह में लिखा कि “पुस्तक का उदेश्य राम भक्ति का प्रचार नहीं है, बल्कि ‘रामत्व’ की कुछ विशिष्टताओं का उद्घाटन है। ... रामत्व के उस सौन्दर्य का उद्धाटन जो तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज से जुड़ा है।”[12] ‘तप, संकल्प, पुरुषार्थ, त्याग, ज्ञान और तेज कुबेरनाथ राय का व्यक्तित्व है जिसे राम के समान ही तिरस्कृत किया गया है। उस समय के प्रसिद्ध आलोचक साहित्यकार आदि में कुछ को छोड़ कर सब ने उनके साथ, राम, गाँधी और भारतीय जनता के साथ अन्याय किया, पाप कर्म किया। पर कौन सोचता करता है इस ओर? साहित्य जगत में आज तो ‘हम सुन्दरी हमार पिया सुन्दर और गऊंआ के लोग बनरा बनरी’ यही देखने को मिलता है। आज भी उनका ही बोलबाला है जिन्होंने देह का साहित्य में सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया । जब तक, वे थे; देह का आनंद लेते रहे!! अब जो तब उनके सहयोगी थे देह विमर्श पर चर्चा करते नहीं थकते!! इसओर, इस चिंतन की ओर कितनों ने ध्यान दिया जो आत्मा को उन्नयन की ओर ले जाए, जिससे हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि “हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं, उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का विशेषतः साहित्य का मूलधर्म है ।”[13]  किन्तु उपभोक्तावादी दृष्टिकोण  वाले लोगों को देह से फुर्सत ही कहाँ है जो ‘चित्त’ की ओर दृष्टि डालें!! टॉलस्टॉय ने लिखा- “कला का लक्ष्य है नैतिक परिपूर्णता।”[14] कुबेरनाथ राय भी लिखते हैं “साहित्य की नींव है ‘शील’, इसके गर्भगृह की प्रतिमा है ‘रस’ पर, शिखर कलश है; एक ‘आत्मिक निरुजता और मुक्ति’ जिसे पुरानी भाषा में कहा गया है । सौन्दर्यबोध मध्य की कड़ी- ‘हीर’ या ह्रदय होते हुए भी आदि और अन्त के संकेतों से रिक्त होने पर त्याज्य है।”[15] किन्तु तथाकथित लोगों ने कुबेरनाथ के लेखन को ही उपेक्षित कर दिया !! क्योंकि कुबेरनाथ राय ने जितना लिखा, जहाँ बोले, जिस किसी को भी जबाब दिया दो टूक जबाब दिया। मिसाल के तौर पर उनके निबंध ‘मराल’ की भूमिका में वह लिखते हैं- “निबंधकार फ़िल्म-निर्माता नहीं है। उसका कर्तव्य है कि वह फ़िल्म-निर्माता से भिन्न हो कर सोचे। वह तो अंतिम विश्लेषण में अध्यापक है। उसका काम है मन बुद्धि के आयामों को विस्तार देना- शब्दों और संदर्भों के माध्यम से।...मैंने अपनी क्षुद्र सामर्थ्य में जो कुछ किया है वह पाठक के भाषिक क्षमता को समृद्ध करने और उसे अपनी देशी भाषिक संस्कृति से मूल-संलग्न करने की दृष्टि से किया है।”[16]  बदलते समय और परिवेश के साथ गौरवशाली चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाना एक चुनौती भरा कार्य रहा है। इस मंगल चिंतन परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य इस देश के चिंतक, समाज-सुधारक, साहित्यकार आरम्भ काल से करते चले आ रहे हैं। इस चिंतन परंपरा में कुबेरनाथ राय का योगदान भी स्तुत्य है । उन्होंने अपने ललित निबंधों में पुरातन और नवीनतम के समन्वय के साथ युगबोध के चिंतन, संस्कृति की परिवर्तनशीलता, लोकसंस्कृति की झांकी, मानव मूल्यों के बनते-बिगड़ते संबंधों और तिथि पर्वो को अपने निबंधों में स्थान देकर भारतीय चिंतन परंपरा को सुदृढ़ किया है । कुबेरनाथ राय के निबंधों को पढ़ने के बाद जो ज्ञान प्राप्त होता है वह यह कि ‘भद्र मनुष्य अपने मांगलिक कोष से मंगलमय वस्तुओं को प्रस्तुत करता है’।

 








[1] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –4 
[2] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[3] कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या –8
[4] डॉ. मनोज राय,  लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष
[5]  कुबेरनाथ राय, किरात नदी में चन्द्रमधु - 155
[6]  कुबेरनाथ राय, उत्तरकुरु, पृष्ठ संख्या- 9
[7]  डॉ. रमाकांत राय, रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर- मेरा गाँव मेरा देश, सांस्कृतिक पाठ का गवाक्ष    
[8]  कुबेरनाथ राय, रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या-  348,49
[9]  कुबेरनाथ राय,  रामायण महातीर्थम, पृष्ठ संख्या- 338
[10] कुबेरनाथ राय, प्रिया नीलकंठी, पृष्ठ संख्या- 126
[11] कुबेरनाथ राय, निषाद बांसुरी, पृष्ठ संख्या-  262
[12] कुबेरनाथ राय, त्रेता का बृहत्साम, पृष्ठ संख्या-  7
[13]  कुबेरनाथ राय, कामधेनु, पृष्ठ संख्या-  8
[14]  तोलस्तोय- कला क्या है,  55
[15]  कुबेरनाथ राय, पर्ण–मुकुट, पृष्ठ संख्या-  216    
[16]  कुबेरनाथ राय, मराल, पृष्ठ संख्या- 8  


ऋषिकेश कुमार

(ऋषिकेश कुमार युवा हैं, उत्साही किन्तु पर्याप्त संकोची। वह सुरुचि सम्पन्न पाठक हैं। मिथक, सौंदर्य और प्रेम के विषय उनके प्रिय क्षेत्र हैं। वह मूलतः औरंगाबाद, बिहार के हैं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की पढ़ाई की है और वर्तमान में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में "कुबेरनाथ राय के निबंधों में मिथक और सौंदर्य का अध्ययन" विषय पर शोधरत हैं। मेरा गाँव मेरा देश ब्लॉग पर यह उनका पहला आलेख है।)

(आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

कथावार्ता : भारतीयता की तलाश और कुबेरनाथ राय


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 01

-डॉ मनोज राय

भारत और भारतीयता की बात को फैशन के तौर पर जहां-तहां खूब उठाया जाता रहा है। शिक्षाविद से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता तक सभी अपने-अपने हिसाब से सक्रिय हैं। पर सच तो यह है कि यह सिर्फ स्थापित पार्टी-राजनीति के लंबरदारों के कानों तक पहुंचाने की कोशिश भर ही है। तात्कालिक लाभ के लिए इसे एक हथकंडे (टूल) की तरह इस्तेमाल करना हम सब की आदत बन गई है। कोई नारे लगवाकर अपनी स्पृहा की संतुष्टि चाहता है तो कोई दूसरों से ज्यादा स्वयं को राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है। कुल मिलाकर कहें तो उसके तत्वों के विश्लेषण के गंभीर प्रयत्न नहीं हो रहे हैं। दरअसल भारतीयता को समझने के लिए भारतीय मानसको समझना जरूरी है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अनुसंधान और चिंतन बहुत कम हुआ है। आज जब देश में विघटनमूलक और विच्छिन्नतावादी राजनीति अपना रूप बदल-बदलकर सक्रिय है तब इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता और बढ़ जाती है।



          भारतीयता पर विचार करते हुए  हिन्दी के प्रसिद्ध ललित निबंधकार और गांधीवादी चिंतक श्री कुबेरनाथ राय एक साथ अनेक प्रश्न उठाते हैं : भारतीयता क्या है? इसका ढांचा कैसा है? इसकी परिभाषा क्या है? इसकी आवश्यकता क्या है? इसकी पहचान कैसे की जाय’? भारत से हम कैसे जुड़ सकते हैं? हम जानते हैं कि ये प्रश्न नए नहीं हैं। पर ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि इन प्रश्नों ने हमारी कई पीढ़ियों को उद्वेलित किया है और आज भी इस पर बहस जारी है किन्तु किसी निश्चयात्मक उत्तर तक हम नहीं पहुँच पाये हैं। शायद पहुंचा भी नहीं जा सकता है- भारतीय संस्कृति या भारतीयता क्या है? यह एक अति प्रश्न (चरम प्रश्न) है। अति प्रश्नका उत्तर परिभाषित करना संभव नहीं। जहां परिभाषा संभव नहीं वहाँ एक मात्र समाधान है पहचानबनाना। (मराल,पृ.160)  इस उद्घोष के साथ ही श्री कुबेरनाथ राय लेखन क्षेत्र में उतरते हैं और न केवल उतरते हैं अपितु इसकी पहचान की तलाश में गंगातीरी/भोजपुरी इलाके से लगायत ईशानकोण से प्रवहमान ब्रह्मपुत्र और काजीरङ्गा  तक की यात्रा करते/कराते  हैं।

          कुबेरनाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहे हैं-‘‘सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार। पर इस क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा : अहं भारतोऽस्मि(रस-आखेटक, पृ॰195) अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते  हैं- निषाद-बांसुरीसंग्रह का एक गौण उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही आइडेंटिटीका पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं.....।’’ (निषाद बांसुरी, पृ॰244)  श्री राय अपने सम्पूर्ण लेखन में उनकी अनिमेष लोचन-दृष्टि भारतीयता के गुणसूत्रों की तलाश करती है- जिस भारतकी बात मेरे सम्पूर्ण साहित्य में आती गई है वह है इस देश का चिन्मयऔर मनोमयसंस्करण। वह चिन्मय और मनोमय रूप किसी प्रकार की क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर है। शिवत्व, बुद्धत्व, रामत्व ही इसके प्रतीक हैं। (मराल, पृ- 168)


          
श्री राय की नजर में यह भारतीयताकिसी एक की बपौती नहीं अपितु संयुक्त उत्तराधिकारहै और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुत: आर्यों के  नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्रविड़-निषाद-किरात ने की है। ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है। नगर सभ्यता, कला-शिल्प, ध्यान-धारणाभक्तियोग के पीछे द्रविड़ मन है। आरण्यक शिल्प और  कला-संस्कारों  में किरातों का योगदान है।  श्री राय के लिए भारतीयताकोई अमूर्त भाव अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है- मुझसे जब कोई पूछता है कि भारतीयता क्या हैतो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ, वह शब्द है रामत्व’-राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में  भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा। वह पुरुष था महात्मा गांधी।” (त्रेता का वृहत्साम, पृ.165) श्री राय के लिए भारतकोई मानसिक भोगया भौगोलिक सत्तानहीं है। यह उससे बढ़कर एक प्रकाशमय, संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूपतो है ही अधिक सत्य एवं शाश्वत भी है। (कामधेनु, पृ.90) श्री राय का आग्रह है कि भारतको मात्र एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई के रूप मे न देखकर उसे भारतीय मनुष्य, भारतीय धरती और भारतीय संस्कार के त्रिक के रूप में देखना चाहिए। एक राजनीतिक इकाई मात्र मान लेने से भारतका अस्तित्व एक मतदाता सूची में बदल जाता है।  एक भौगोलिक  इकाई मात्र स्वीकार कर लेने पर उसका बंटवारा हो सकता है। पर एक संस्कार समूह और बोध सत्ता के रूप मे उसका विशिष्ट निराकार रूप कालजयी है- भारत की यह निराकार मूर्ति  (अर्थात संस्कार समूहके रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसकापार्टीशनया बंदर-बाँट नहीं कर सकता।” (कामधेनु, पृ.-90) महात्मा गांधी ने भी हिन्द-स्वराजमें इसी बात को थोड़ा और गर्वीले भाव में कहा है -हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा। अपने एक अन्य निबंध संग्रह मरालमें श्री राय भारतीयताको और भी स्पष्ट करते हैं- अत: रामशब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना..... सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दम्भ से बिल्कुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्वहै। पूर्ण भारतीयबनने का अर्थ  है रामजैसा बनना।” (मराल, पृ.163)

          कुबेरनाथ राय की दृष्टि में भारत भूगोल से ज्यादा एक जीवन दर्शन और एक मूल्य परंपरा है’, जिसे वे  ‘मनुष्यत्व का महायानकहते हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105) इसके पीछे के कारणों को भी वे स्पष्ट करते हैं- इसी जम्बूद्वीप में देवता मनुष्य के लोक में नीचे उतरकर मनुष्यों के साथ मिश्रहोकर रहते आये हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105)  देवता से उनका तात्पर्य किसी पारलौकिक सत्ता से न होकर देवोपम जीवन दृष्टि से है। वे लिखते हैं वह सारी मानसिक ऋद्धि, मानसिक दिव्यता जिसकी कल्पना देवता में की जाय यदि किसी मनुष्य में उतर जाये तो वह देवोपम हो जाता है। (उत्तरकुरु, पृ.-105-6) इसी देवोपम की पहचान ही असल में भारतीयताकी पहचान है। इस पहचान-स्वरूप की निर्मिति के लिए वे इतिहास में पसरे कला, शिल्प, शास्त्र के खोह में प्रवेश करते चले जाते हैं और वहाँ से भारतीयता की मणिलेकर निकलते हैं।   


          
प्रसिद्ध समाजशास्त्री डा श्यामाचरण दुबे ने अपने निबंध भारतीयता की तलाशमें भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें इतिहास दृष्टि’, ‘परंपरा बोध’, ‘समग्र जीवन-दृष्टिऔर वैज्ञानिक विवेकप्रमुख हैं। (समय और संस्कृति, पृ- 44-5) श्री राय के लेखन में यह चतुरानन-दृष्टिहर जगह देखने को मिलती  है। भारतीयताकी पहचान के लिए जिस शास्त्रीय, स्थानीय और क्षेत्रीय परम्पराओं के अंतरावलंबन की  सूक्ष्म समझ की आवश्यकता पर डॉ श्यामाचरण दुबे ने जोर दिया है, वह श्री राय को संस्कार में मिली है। कला-शिल्प की आंतरिक संरचना और बुनावट को जिस आत्मीयता से वे प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत तो है ही असल भारतीय मनका प्रमाण भी है। महाकवि कालिदास की अमरकृति शकुंतलाउनके लिए दुष्यंत-शकुंतलाकी प्रणय-गाथा मात्र न होकर भारतीयता की निर्मितिके एक महत्वपूर्ण कोण की तरफ इशारा करती है। उनकी दृष्टि में यह कथा आर्येतर और आर्य के महासमन्वय और वर्णाश्रम के सही ऐतिहासिक स्वरूप की ओर इशारा करने के साथ ही भारतीय धर्म साधना की पूर्णांगता को भी प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार काम और तप परस्पर विरोधी न होकर सहजीवी हैं। भारत के जल-जंगल-जमीन को लेकर लिखे गये उनके निबंधो में भारतीयताका इंद्र्धनुषी रूप देखने को मिलता है। इस आसेतु हिमाचल वसुंधराको वे मामूली मिट्टी मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं। यह उनके लिए साक्षात देव-विग्रहहै जिसे कोई जय नहीं कर सकतामहीमातानिबंध में भारतवर्ष के मृण्मय स्वरूप की सार्थक विवेचना करते हुए श्री राय ने यह सिद्ध किया है कि भारत का सिर्फ झंडा ही तिरंगा नहीं  है अपितु मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा, त्रिवर्णी भूमि है- सादी, लाल और काली। श्री राय की नजर में यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है, शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता है। (निषाद बांसुरी, पृ.-84)

          श्री राय एक जगह लिखते हैं कि भारतीय सभ्यता में बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता थी। ऐसे तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अनुकूलन भी हुआ,समाकलन भी। सच तो यह है कि भारतीयता का विकास एक लम्बी सांस्कृतिक यात्रा है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। लेकिन आज परिस्थितियां भिन्न हैं। आज हम पर फिर चौतरफा आक्रमण हो रहा है। हर्षवर्धनोत्तर काल में जो स्थिति पैदा हुई थी कुछ वैसी ही परिस्थितियां आज फिर से हमारे सामने उत्पन्न हो गई हैं। आज बड़ी सफाई और बारीकी से भारतीयताको कुचलने की कोशिश हो रही है- भारतीयता के सगुण प्रतीक महात्मा गांधीके नाम को ही मिटाने की कोशिश हो रही है। इसी के साथ अन्नों के देशी बीज, पशुओं की देशी नस्लें, देशी भूषा और सज्जा, देशी भाषा और शब्दावली सब कुछ से हमें धीरे-धीरे काटने की कोशिश चालू है जिससे हम सर्वथा जड़-मूलहीन हो जाएँ। अत: ठहरकर सोचने की जरूरत है। आज हमारे लिए जरूरी है कि पश्चिमी मानसिकता को निरंतर उधार लेने की जगह अपने देशी मानसिक उत्तराधिकारों की चर्चा करें। (उत्तरकुरु, पृ.-70) सरस्वती के वरद पुत्र श्री कुबेरनाथ राय की यह चिंता अत्यंत सहज और स्वाभाविक है। उनके लेखन का गम्भीर अनुशीलन आवश्यक है। भारतीयताके महत्वपूर्ण प्रतीकों की सारगर्भित विवेचना जिस ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ उन्होने अपने निबंधों में की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आज समय की मांग है कि हम उसे समझकर सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने रखें। 

          श्री राय की एक बड़ी चिंता है हमारा अपनी जड़ों से अपरिचित होना। प्रसिद्ध समाजशास्त्री  डॉ श्यामा चरण दुबे ने भी स्वीकार किया है कि जड़ों की तलाश एक बुनियादी सवाल है। वह एक सार्थक जिज्ञासा से जुड़ा है और अस्तित्वबोध को एक नया आयाम और नए मूल्य देता है।” (समय और संस्कृति, पृ.-44) श्री राय का मानना है कि पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में इस आर्ष चिंतन को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से गलत ढंग से समझा और परोसा जा रहा है। स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवी अपने निजी पर्यवेक्षण, अपनी भारतीय दृष्टि और अपने भारतीय स्रोतों के आधार पर आर्ष चिंतन और भारतीय समाज को समझने तथा तत्संबंधी सिद्धांतों को विकसित करने की अपेक्षा पश्चिमी अवधारणाओं और प्रत्ययों के सहारे अपने अधूरे सरलीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे देश का भयानक अहित अवश्यंभावी है। सच तो यह है कि भारतीय चिंतन और संरचना को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों को अपना निजी समाजशास्त्र या देशी नृतत्वशास्त्र या सौन्दर्य शास्त्र विकसित करना चाहिए। श्री राय इन्हीं जड़ों की तलाश में निरंतर मानसिक यात्रा करते रहे हैं। श्री राय विदेशी विद्वानों से विचारों के आदान-प्रदान के विरोधी नहीं हैं। परंतु गांधी की ही तरह अपने घर की खिड़कियों को खोले रखने के साथसाथ अपनी निजी-देशी-सोंधी जमीन-हमारे हरि हारिल की लकड़ी’-को मजबूती से पकड़े रखने का आग्रह करते हैं। श्री राय उसी आर्ष चिंतन परंपरा के प्रामाणिक दस्तावेज़ के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इसके लिए वे नृतत्व शास्त्र के साथ-साथ भाषा विज्ञान का भी सहारा लेते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतवर्ष को जानने के लिए भारतऔर भारतीय विश्वको जानना आवश्यक है। भारतीयता की तलाश का रास्ता-लेखन नीरस और उबाऊ न हो इसके लिए उन्होने आवश्यकतानुसार लालित्यका खूब सहारा लिया है। भारतीयता की समझ के लिए लालित्य-बोध एक आवश्यक कड़ी है क्योंकि भारतीयता एक ही साथ भावनाऔर मनोदशादोनों है। बोधयुक्त देशज लालित्य के अखाड़े में खड़े श्री राय दोनों भुजाओं और जंघों पर भीम-ताल ठोंक कर चुनौती देते हैं। यह सच है कि इस तरह की यह ललकार तो कोई मरदवाही दे सकता है जिसकी अपनी जमीन उर्वरा शक्ति से भरपूर हो।

          यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी। हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया। परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है। अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थायें इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं। यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात करने की कोशिश करें  तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी  है।

          भारतीयता की पहचान का असल स्वरूप हमें उसकी वांगमय परंपरा अर्थात साहित्य और शिल्प में देखने को मिलता है। इस पहचान के उद्घाटन के लिए हमारा आर्ष चिंतन से परिचित होना जरूरी है। चिन्मय भारतनामक पुस्तक में श्री राय ने आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को स्पष्ट करने की कोशिश की है- आर्ष से हमारा तात्पर्य वैदिकमात्र या ऋषि दृष्टि प्रसूतमात्र नहीं है। हम उस पूरी परंपरा को, जो ऋषि के अनुधावन से बनती है, आर्ष परंपरा मानते हैं। आर्ष से हमारा तात्पर्य उस समूची चिंतन परंपरा से जिसका प्रस्थान बिन्दु तो ऋषि ही है, पर अविच्छिन्न रूप में कालिदास, शंकराचार्य, रामानुज-वल्लभ-चैतन्य, संत और भक्त से होती हुई आधुनिक गांधी-अरविंद तक आती है। बीज है ऋषि और भारतीय चिंतन का यह अश्वत्थ अभी तक विराजमान है। वृक्ष बीज के आधार पर ही नामांकित होता है। अत: इस इतिहासव्यापी अखंड चिंतन परंपरा की संज्ञा आर्ष हो सकती है।” (चिन्मय भारत, पृ.-16-17)

          आज जब समाज के सभी तबके- बुद्धिजीवी से लेकर साहित्यकार तक सभी सरकार-बाजार के पिछलग्गू बनने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं वैसे समय में श्री राय गंगातीरी पगड़ी बांधे हुए कंधे पर मजबूत देशी में भारतीयता का अमृत-घट लटकाये हुए आर्यावर्त से लगायत जंबूद्वीपे-भरतखंडे की परिक्रमा करते हैं। इस बोध-परिक्रमा के  लिए जिस अकुंठ साहस, निर्भयता, स्पष्टता और दोटूकपन की जरूरत होती है वह कुबेरनाथ राय के लेखन में सर्वत्र मौजूद है। श्री राय ने भारतीयता के उदात्त तत्वों को न केवल आत्मसात किया है अपितु अपने निबंधों में इसकी गंभीर विवेचना भी की है। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत है। इसे धार देने के लिए वे विज्ञान, नृतत्व शास्त्र, भाषा विज्ञान, मिथक, इतिहास आदि अनुशासनों का यथासंभव सहारा भी लेते हैं। श्री राय किसी के विरोध या उपेक्षा से मुक्त  सम्पूर्ण आर्यावर्त में शिव के सांड की तरह मुक्त विचरण करते हैं। सच तो यह है कि श्री राय अपने आत्मलब्ध सत्य के प्रति न केवल पूरी  तरह ईमानदार हैं अपितु  साहस के साथ उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसका प्रथम और आखिरी सूत्र है-अहं भारतोऽस्मि

डॉ मनोज राय
-एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

(डॉ मनोज राय  गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे’ शीर्षक से प्रकाशित है। आपने ‘बापू ने कहा था’ शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। ‘महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, ‘गांधी चिंतन में योग और शांति’ तथा ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभागमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया हैवह मेरे देखे अनूठा है। 

आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

मंगलवार, 12 मई 2020

कथावार्ता : भाष्य_ शमशेर बहादुर सिंह की कविता- उषा


शमशेर भाव और उसके सम्प्रेषण कला दोनों स्तर पर विशिष्ट हैं। उनकी एक छोटी सी कविता ‘उषा’ है (शमशेर बहादुर सिंह की कविता "उषा" यहाँ क्लिक करके पढ़ें।) जिसमें उनका प्रकृति के प्रति पवित्र अनुराग दिखाई पड़ता है। हम इस कविता के काव्य सौन्दर्य पर चर्चा करेंगे उससे पूर्व शमशेर के यहाँ रंग, गंध और गति सम्पन्न प्रकृति पर कुछ नोट्स साझा कर लेना जरूरी समझता हूँ।

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर की कविताओं में प्रकृति विविध रूपों में विद्यमान है जिसमें उसका रंग-बिरंगा कोमल रूप ही अधिक है। वह रंग उदासी, प्रेम, आनंद आदि किसी भी रूप में हो सकता है। उनकी प्रकृति रंग और गंध के साथ गतिशील रहती है और अंत में मानवीय संवेदनाओं का रूप ग्रहण कर लेती है। उन्होंने जितनी बारीकी से प्रकृति के रंगों की पहचान की है उतनी बारीकी से हिंदी के शायद ही किसी और कवि ने की है! जब वे प्रकृति में रमते हैं तो उनके कवि पर उनका चित्रकार रूप सबसे अधिक हावी रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कविता न लिखकर चित्र बना रहे हैं। उनकी कविता के इन चित्रों में रंग ही नहीं गति भी महसूस होती है। उनकी ‘संध्या’ कविता में रंग और गति का यह सौन्दर्य खिला हुआ है-
बादल अक्टूबर के
हलके रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम रूकते
रूकते से आ जाते
इतने पास अपने
शमशेर को ‘शाम’ बहुत पसंद है। उनकी अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सायंकालीन आसमान का दृश्य अधिक आया हुआ है। ऐसा लगता है कि शमशेर अपने निजी अवसाद, अकेलेपन और दुःख को शाम के रंग में घोलकर कविता तैयार कर रहे हैं। दरअसल वे दृश्यों में इतना डूब जाते हैं कि पाठक उन्हीं की नजरों से उस दृश्य को देखने लगता है। उनकी कविताओं में जो रंग और दृश्य हैं वे मानव जीवन से इस तरह अटूट संबंध रखते हैं कि उन कविताओं का रस बोध वे पाठक भी सहजता से कर लेते हैं जो अर्थबोध में असमर्थ होते हैं। जैसे-
                                                   एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका पत्ता
यहाँ शाम और पतझर के पत्ते का ‘पीलापन’ एकमेक हैं जो उदासी और निराशा के भाव को प्रबल कर रहा है। जैसे शाम का पीलापन अँधेरे की पूर्वसूचना है, उसका पीलापन निराशा के अंधेरे में बदलने वाला है उसी तरह पतझर के पत्ते का पीलापन उसकी समाप्ति की पूर्वसूचना है। वास्तव में यह ‘पत्ता’ मृत्यु शैय्या पर पड़े जीवन का बोध करवा रहा है जिसका अस्तित्व पतझर के पीले पत्ते की भांति अब समाप्त होने ही वाला है। यहाँ केवल प्रतीकात्मकता ही नहीं है बल्कि उसमें गहरी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।
शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताओं पर रामविलास शर्मा आरोप लगाते हुए कहते हैं कि “शमशेर की प्रकृति संबंधी कविताएँ प्रतीकात्मक हैं जो किताब पढ़कर भी रची जा सकती है। वे संवेदनालोक का हिस्सा नही है।” तो वह उनकी कविताओं की प्रतीकात्मकता को ही ध्यान में रखते हैं। जबकि ये दृश्य केवल शब्द चित्र नहीं हैं क्योंकि इनकी प्रकृति के दृश्य धीरे-धीरे संवेदनाओं में परिवर्तित हो जाते हैं। इसमें केवल एक दृश्य भर नहीं है अपितु कवि का पूरा संवेदनालोक भी है। जैसे ‘धूप की कोठरी के आईने में खड़ी है’ कविता में-
                             मोम-सा पीला
                             बहुत कोमल
                             एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को
                             उड़ गई
                             आज बचपन का
                             उदास माँ का मुख
                             याद आता है
‘मोम-सा पीला नभ’ आगे चलकर माँ के चेहरे की उदासी को याद दिलाता है जबकि मधुमक्खी का फूल हिलाकर उड़ना ‘कवि के मन’ को कुरेद जाता है। इस तरह प्रकृति को निहारते-निहारते कवि जीवन के पिछले पन्ने पर लौट जाता है।इससे पता चलता है कि उनके द्वारा रचे गए प्रकृति के दृश्य उनकी अनुभूतियों का हिस्सा हैं जो उनकी संवेदना की उपज है। इसलिए इस दृष्टि से रामविलास शर्मा का सारा आरोप बेमानी लगने लगता है। अपूर्वानंद लिखते हैं- “शमशेर के प्रकृति चित्रों को उन्हीं के नजरिए से देखना चाहिए न कि उस दृष्टि से जिससे केदारनाथ अग्रवाल या नागार्जुन के प्रकृति चित्रणों को देखा जाता है। शाम की नीलाहट, रात का अँधेरा, जाड़े की सुबह की कोमल धूप, सागर की लहरें ये सब उनके संवेदनालोक के अभिन्न अंग हैं।”
शमशेर का शाम के प्रति  लगाव देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मन के किसी कोने में बैठा अवसाद उन्हें खींचकर ‘शाम के रंगों’ की तरफ ले जाता है लेकिन साथ ही उनके यहाँ प्रकृति के मधुर और आकर्षक रूप भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। एक कविता में वे ‘दिन’ के लिए जिस बिम्ब का प्रयोग करते हैं वह बहुत ही अनूठा है-
                   दिन
                   किशमिशी रेशमी गोरा
                   मुस्कराता
                   आब
                   मोतियों की छिपाए अपनी
                   पंखुड़ियों तले
दिन के लिए प्रयुक्त ‘किशमिशी रेशमी गोरा/मुस्कराता’ बहुत ही सुन्दर दृश्य बिम्ब है। पूरी कविता बिम्बों में ही खिली है। इसी तरह उनकी एक कविता ‘बसंत आया’ में बसंत के सौन्दर्य बड़े आकर्षक चित्र हैं। इस कविता को पढकर कभी-कभी निराला की ‘सखि, वसंत आया’ या ‘अट नहीं रही है’ जैसी कविताओं की याद आ जाती है -
                   फिर बाल बसंत आया, फिर लाल बसंत आया
                   फिर आया बसंत!
                   फिर पीले गुलाबों का, रस-भीने गुलाबों का
                   आया बसंत
शमशेर के प्रकृति संबंधी कविताओं पर इस विहंगम दृष्टि के बाद अब हमें ‘उषा’ कविता के सौन्दर्यबोध को समझना चाहिए जिसमें उन्होंने सुबह के सौन्दर्य का जादुई चित्र खींचा है। वह लोक-जीवन को ध्यान में रखते हुए सुबह के रंग बदलते आसमान का ऐसा चित्र उकेरते हैं कि भोर के साथ ही पूरा गँवई परिवेश साकार हो उठता है। इस कविता को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो कोई चित्रकार अपने कैनवास पर सुबह के रंग और गति से भरे आसमान के चित्र को बड़ी जीवंतता से चित्रित कर रहा हो।
शमशेर का गाँव के जन-जीवन और प्रकृति से बढ़िया परिचय था। उनका काफी समय उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद में बीता था जहाँ उनके पिता सरकारी सेवा में थे। इसलिए गंवई प्रकृति और वहाँ का जन-जीवन उनके संवेदनालोक का अभिन्न अंग हैं।‘उषा’ कविता को इसी आलोक में देखने की कोशिश है। भोर की प्रथम बेला के आकाश से कविता का प्रारम्भ होता है - ‘प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे’ - सुबह का प्रथम प्रहर है। आसमान की रंगत बदलनी शुरू हो गई है। उसमे नीलिमा लौट रही है लेकिन उसमें अँधेरे की कालिमा मिली हुई है। कवि उसकी कल्पना ‘शंख’ के रूप में करता है। आसमान बहुत नीला है लेकिन उसकी छवि ‘शंख’ जैसी है।कविता की इस पहली पंक्ति में प्रयुक्त बिम्ब ‘बहुत नीला शंख’ प्रात:कालीन आसमान के रंग-बोध के साथ-साथ वातावरण की शुद्धता और पवित्रता के लिए भी सार्थक है। यह भी संभव है कि इस दृश्य को उतारते हुए कवि के कानों में भोर की प्रथम बेला में मंदिरों से उठने वाली शंखध्वनि भी रही हो क्योंकि उत्तर-प्रदेश के गाँव की सुबह का यह यथार्थ है। प्राय: आज भी गाँव के बाहर मंदिरों में प्रात:काल की प्रथम बेला में शंख की आवाज को सुना जा सकता है।
पहली पंक्ति के बाद अंतराल है। उसके बाद कविता की अगली पंक्ति है “भोर का नभ राख से लीपा हुआ चौका (अभी गीला पड़ा है)” शमशेर की कविताओं में अंतराल का विशेष महत्व है। उनकी कविताओं में पंक्तियों के अंतरालों में भी कविता चलती रहती है। वहाँ पाठक को सोचने का अवकाश रहता है कि इस अंतराल में क्या-क्या संभावनाएं हैं। इससे वह अगली पंक्ति के पूर्व के अर्थ की कल्पना कर लेते हैं। एक अर्थ में इन अंतरालों में पाठक सर्जक के काफी करीब होता है। यहाँ यह अंतराल एक तो समय परिवर्तन की ओर संकेत है कि थोड़ा-सा समय और व्यतीत हो जाने पर आसमान का रंग परिवर्तित हो गया। दूसरे वह गाँव के लोगों की कार्यशैली को भी व्यक्त करता प्रतीत होता है। जैसे भोर के प्रथम प्रहर में ही गाँव के लोग उठ जाते हैं, उनका दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ होजाता है। भोर का यह समय रात के अंधेरे और सुबह के उजाले का संधिस्थल है और इस समय आसमान का रंग ‘राख के रंग’ के समान प्रतीत होता है जिसमें ओस के कारण थोड़ी नमी है । यहाँ कोष्ठक में जिस गीलेपन की बात कवि ने की है वह ओस की नमी की ओर संकेत है। इस बिम्ब से यह संकेत मिलता है कि अब गाँव के घरों में लोग चौके को राख से लीप कर साफ़-सुथरा कर रहे हैं। यहाँ आसमान को राख से लीपे हुए चौके के बिम्ब में ‘लीपा’ और ‘चौका’ का प्रयोग बड़ा अनूठा और सार्थक है।
एक और अंतराल के बाद कविता पुन: आगे बढ़ती है ‘बहुत काली सिल जरा से लाल केसर से/ कि जैसे धुल गई हो’। आसमान में थोड़ी सी और हलचल होती है और सूर्योदय से पूर्व की लालिमा छाने लगती है। इस समय कवि को आसमान में ‘काली सिल पर घिसे हुए लाल केसर की लालिमा’ का बिम्ब दिखाई पड़ता है। ‘सिल’ ग्रामीण जीवन-शैली का अहम् हिस्सा होती है। वह उनके दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। ऐसा लग रहा है कि कवि गाँव की महिलाओं के चूल्हे-चौके की व्यस्तता और आसमान को एक साथ निहार रहा है और उनके चित्र को अंकित करता जा रहा है। आसमान की इस सुन्दर लालिमा के लिए उसकी नजर बच्चों के स्लेट पर भी पड़ती है जहाँ वे नन्हें-मुन्ने अपने हाथों से स्लेट को लाल खड़िया चाक(दुद्धी) से रंग रहे हैं। कवि लिखता है “स्लेट पर लाल खड़िया चाक / मल दी हो किसी ने” । यहाँ कवि की दृष्टि में गाँव के बच्चों का भोली-भाली छवि भी है जो सुबह-सुबह अपनी स्लेट और चाक के साथ पढ़ने बैठ जाते हैं। स्लेट जैसे आसमान में लाल खड़िया चाक का रंग जैसे इन ग्रामीण किसान के घरों के बच्चों के जीवन का सूर्योदय तय कर रहे हों कि इस शिक्षा से ही जीवन में लालिमा का संचार होगा।
कवि एक अन्तराल के बाद लिखता है कि “नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो” अर्थात थोड़ा सा समय और गुजर गया, सूर्योदय का प्रारम्भ हो रहा है लेकिन सूर्य अभी पूरी तरह निकला नहीं है।जब सूर्य निकल रहा है तो उसकी सुनहरी आभा नीले आसमान में ऐसे चमक रही है जैसे कोई गौर वर्ण का व्यक्ति स्वच्छ नील जल में स्नान कर रहा हो। पूरा आसमान नीले सरोवर की भाँति दिखाई पड़ता है और ‘सूर्य’ स्वर्णाभ शरीर की भांति। ठीक ऐसे ही जयशंकर प्रसाद के यहाँ भी आसमान को ‘पनघट’ कहा गया है जिसमें सुबह रूपी सुन्दरी तारे रूपी घड़े को डुबो रही है- “अम्बर पनघट में डुबो रही/ताराघट उषा नागरी।” लेकिन शमशेर के यहाँ यह बिम्ब थोड़ा बदल गया है क्योंकि वह अपने बिम्बों में सूर्योदय के आसमान के सौन्दर्य के साथ ही जमीनी कार्य-कलाप भी देख रहे हैं। जैसे लोग अब नहा-धोकर अपने भावी दिनचर्या के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। वे अब काम पर भी निकलने वाले हैं। कविता के इस पूरे बिम्ब में मानवीकरण का अद्भुत सौन्दर्य है।
इस कविता का आखिरी बंध पूरी कविता के सौन्दर्य को उद्घाटित कर देता है क्योंकि प्रात:काल के जिस जादुई सौन्दर्य के प्रभाव में कवि के साथ पूरा ग्रामीण समाज संचालित हो रहा है वह अब सूर्योदय के साथ टूट जाएगा और कवि के साथ पाठकों को भी उस दिव्य सौन्दर्य की अनुभूति करवा देगा जिसका अभी तक वे रस-पान कर रहे थे। कवि लिखता है “और / जादू टूटता है इस उषा का/ अब सूर्योदय हो रहा है।” यहाँ हम देखते हैं कि दो अन्तरालों के बीच में एक योजक शब्द ‘और’ है। यह ‘और’इस कविता की खूबसूरती है। यह प्रात:काल के जादुई प्रभाव और उसकी समाप्ति का संधिस्थल है। यह ‘और’ प्रात:कालीन सौन्दर्य की आभा को दिन की कठोर श्रमशीलता के यथार्थ से अलग करता है। इसलिए कवि ने सूर्योदय होने के साथ ही सुबह के दिव्य सौन्दर्य के टूट जाने की घोषणा की है। ग्रामीण लोग भी अब अपने दिन भर के कार्यों में व्यस्त हो जाएंगे।
इस तरह हम देखते हैं कि खूबसूरत बिम्बों से सजी यह कविता ‘प्रात:कालीन सौन्दर्य’ और ‘ग्रामीण जीवनचर्या’ को एक साथ लेकर चलती है। इस कविता के बिम्ब अनूठे हैं । यह हिंदी कविता में सुबह के सौन्दर्य को व्यक्त करने वाली कुछ विशिष्ट कविताओं में से एक है जिसमें रंग परिवर्तन अद्भुत सौन्दर्य और गाँव की दिनचर्या एक साथ व्यक्त हुई है। इसमें शमशेर ने एक प्रकार से बिम्बलोक की सर्जना की है। यह बिम्बलोक एक तरफ सर्वथा नया है तो दूसरी ओर बड़ा मानवीय भी है। इसके बिम्बों द्वारा कविता के अर्थ का विस्तार होता है। इसकी विशिष्टता से प्रभावित होकर अशोक वाजपेयी कहते हैं कि इस कविता में गहरा रोमान हैअनूठा बिम्ब है। मुझे नहीं मालूम की पहले किसी कवि ने चाहे संस्कृत मेंअपभ्रंश में या हिन्दी में हीआसमान को देखकर कहा हो कि वह राख से लिपा हुआ चौका जैसा लग रहा है। बड़ा कवि यही करता है कि  ब्रम्हाण्ड को संक्षिप्त करके आपकी मुट्ठी में ला देता है और कई बार पाठक को ऐसा साहस और कल्पनाशीलता देता है कि वह अपना हाथ बढ़ाकर आकाश को छू सके।”


(डॉ शत्रुघ्न सिंह हिन्दी साहित्य और संस्कृति के मूर्धन्य अध्येता हैं। वह रचना को डूबकर पढ़ते और समझते हैं। उनके लिए पढ़ना मतलब आत्मसात करना है। साहित्य के ऐसे पाठक और मीमांसक विरले ही हैं। शत्रुघ्न सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज से स्त्री आत्मकथाओं का स्त्री विमर्श की दृष्टि से अध्ययन विषय पर शोध कार्य किया है और वह बहुत विशेष है। शीघ्र ही उनका यह शोधकार्य एक नामचीन प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित होने वाला है। उन्होने शमशेर बहादुर सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी एक बहुचर्चित कविता उषा ( यू ट्यूब पर यहाँ देखें) पर उन्होंने भाष्य किया है। यह भाष्य हिन्दी की बहुचर्चित कविताओं के भाष्य की शृंखला में दूसरा है। यहाँ ब्लॉग पर यह साझा करते हुए खुशी हो रही है। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। - संपादक)

सद्य: आलोकित!

आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति

करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें।। आर्तिहर : मानस शब्द संस्कृति  जब भगवान श्रीराम अयोध्या जी लौटे तो सबसे प्रेमपूर्वक मिल...

आपने जब देखा, तब की संख्या.