शुक्रवार, 5 जून 2020

कथावार्ता : भारतीयता की तलाश और कुबेरनाथ राय


कुबेरनाथ राय : पुण्यतिथि विशेष - 01

-डॉ मनोज राय

भारत और भारतीयता की बात को फैशन के तौर पर जहां-तहां खूब उठाया जाता रहा है। शिक्षाविद से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता तक सभी अपने-अपने हिसाब से सक्रिय हैं। पर सच तो यह है कि यह सिर्फ स्थापित पार्टी-राजनीति के लंबरदारों के कानों तक पहुंचाने की कोशिश भर ही है। तात्कालिक लाभ के लिए इसे एक हथकंडे (टूल) की तरह इस्तेमाल करना हम सब की आदत बन गई है। कोई नारे लगवाकर अपनी स्पृहा की संतुष्टि चाहता है तो कोई दूसरों से ज्यादा स्वयं को राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है। कुल मिलाकर कहें तो उसके तत्वों के विश्लेषण के गंभीर प्रयत्न नहीं हो रहे हैं। दरअसल भारतीयता को समझने के लिए भारतीय मानसको समझना जरूरी है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अनुसंधान और चिंतन बहुत कम हुआ है। आज जब देश में विघटनमूलक और विच्छिन्नतावादी राजनीति अपना रूप बदल-बदलकर सक्रिय है तब इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता और बढ़ जाती है।



          भारतीयता पर विचार करते हुए  हिन्दी के प्रसिद्ध ललित निबंधकार और गांधीवादी चिंतक श्री कुबेरनाथ राय एक साथ अनेक प्रश्न उठाते हैं : भारतीयता क्या है? इसका ढांचा कैसा है? इसकी परिभाषा क्या है? इसकी आवश्यकता क्या है? इसकी पहचान कैसे की जाय’? भारत से हम कैसे जुड़ सकते हैं? हम जानते हैं कि ये प्रश्न नए नहीं हैं। पर ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि इन प्रश्नों ने हमारी कई पीढ़ियों को उद्वेलित किया है और आज भी इस पर बहस जारी है किन्तु किसी निश्चयात्मक उत्तर तक हम नहीं पहुँच पाये हैं। शायद पहुंचा भी नहीं जा सकता है- भारतीय संस्कृति या भारतीयता क्या है? यह एक अति प्रश्न (चरम प्रश्न) है। अति प्रश्नका उत्तर परिभाषित करना संभव नहीं। जहां परिभाषा संभव नहीं वहाँ एक मात्र समाधान है पहचानबनाना। (मराल,पृ.160)  इस उद्घोष के साथ ही श्री कुबेरनाथ राय लेखन क्षेत्र में उतरते हैं और न केवल उतरते हैं अपितु इसकी पहचान की तलाश में गंगातीरी/भोजपुरी इलाके से लगायत ईशानकोण से प्रवहमान ब्रह्मपुत्र और काजीरङ्गा  तक की यात्रा करते/कराते  हैं।

          कुबेरनाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहे हैं-‘‘सच तो यह है कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार। पर इस क्रोध और आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा : अहं भारतोऽस्मि(रस-आखेटक, पृ॰195) अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते  हैं- निषाद-बांसुरीसंग्रह का एक गौण उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान, अर्थात भारत की सही आइडेंटिटीका पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहें हैं.....।’’ (निषाद बांसुरी, पृ॰244)  श्री राय अपने सम्पूर्ण लेखन में उनकी अनिमेष लोचन-दृष्टि भारतीयता के गुणसूत्रों की तलाश करती है- जिस भारतकी बात मेरे सम्पूर्ण साहित्य में आती गई है वह है इस देश का चिन्मयऔर मनोमयसंस्करण। वह चिन्मय और मनोमय रूप किसी प्रकार की क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर है। शिवत्व, बुद्धत्व, रामत्व ही इसके प्रतीक हैं। (मराल, पृ- 168)


          
श्री राय की नजर में यह भारतीयताकिसी एक की बपौती नहीं अपितु संयुक्त उत्तराधिकारहै और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुत: आर्यों के  नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्रविड़-निषाद-किरात ने की है। ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है। नगर सभ्यता, कला-शिल्प, ध्यान-धारणाभक्तियोग के पीछे द्रविड़ मन है। आरण्यक शिल्प और  कला-संस्कारों  में किरातों का योगदान है।  श्री राय के लिए भारतीयताकोई अमूर्त भाव अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है- मुझसे जब कोई पूछता है कि भारतीयता क्या हैतो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ, वह शब्द है रामत्व’-राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में  भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा। वह पुरुष था महात्मा गांधी।” (त्रेता का वृहत्साम, पृ.165) श्री राय के लिए भारतकोई मानसिक भोगया भौगोलिक सत्तानहीं है। यह उससे बढ़कर एक प्रकाशमय, संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूपतो है ही अधिक सत्य एवं शाश्वत भी है। (कामधेनु, पृ.90) श्री राय का आग्रह है कि भारतको मात्र एक राजनीतिक और भौगोलिक इकाई के रूप मे न देखकर उसे भारतीय मनुष्य, भारतीय धरती और भारतीय संस्कार के त्रिक के रूप में देखना चाहिए। एक राजनीतिक इकाई मात्र मान लेने से भारतका अस्तित्व एक मतदाता सूची में बदल जाता है।  एक भौगोलिक  इकाई मात्र स्वीकार कर लेने पर उसका बंटवारा हो सकता है। पर एक संस्कार समूह और बोध सत्ता के रूप मे उसका विशिष्ट निराकार रूप कालजयी है- भारत की यह निराकार मूर्ति  (अर्थात संस्कार समूहके रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल या कोई जिन्ना इसकापार्टीशनया बंदर-बाँट नहीं कर सकता।” (कामधेनु, पृ.-90) महात्मा गांधी ने भी हिन्द-स्वराजमें इसी बात को थोड़ा और गर्वीले भाव में कहा है -हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा। अपने एक अन्य निबंध संग्रह मरालमें श्री राय भारतीयताको और भी स्पष्ट करते हैं- अत: रामशब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना..... सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दम्भ से बिल्कुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्वहै। पूर्ण भारतीयबनने का अर्थ  है रामजैसा बनना।” (मराल, पृ.163)

          कुबेरनाथ राय की दृष्टि में भारत भूगोल से ज्यादा एक जीवन दर्शन और एक मूल्य परंपरा है’, जिसे वे  ‘मनुष्यत्व का महायानकहते हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105) इसके पीछे के कारणों को भी वे स्पष्ट करते हैं- इसी जम्बूद्वीप में देवता मनुष्य के लोक में नीचे उतरकर मनुष्यों के साथ मिश्रहोकर रहते आये हैं। (उत्तरकुरु, पृ.-105)  देवता से उनका तात्पर्य किसी पारलौकिक सत्ता से न होकर देवोपम जीवन दृष्टि से है। वे लिखते हैं वह सारी मानसिक ऋद्धि, मानसिक दिव्यता जिसकी कल्पना देवता में की जाय यदि किसी मनुष्य में उतर जाये तो वह देवोपम हो जाता है। (उत्तरकुरु, पृ.-105-6) इसी देवोपम की पहचान ही असल में भारतीयताकी पहचान है। इस पहचान-स्वरूप की निर्मिति के लिए वे इतिहास में पसरे कला, शिल्प, शास्त्र के खोह में प्रवेश करते चले जाते हैं और वहाँ से भारतीयता की मणिलेकर निकलते हैं।   


          
प्रसिद्ध समाजशास्त्री डा श्यामाचरण दुबे ने अपने निबंध भारतीयता की तलाशमें भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें इतिहास दृष्टि’, ‘परंपरा बोध’, ‘समग्र जीवन-दृष्टिऔर वैज्ञानिक विवेकप्रमुख हैं। (समय और संस्कृति, पृ- 44-5) श्री राय के लेखन में यह चतुरानन-दृष्टिहर जगह देखने को मिलती  है। भारतीयताकी पहचान के लिए जिस शास्त्रीय, स्थानीय और क्षेत्रीय परम्पराओं के अंतरावलंबन की  सूक्ष्म समझ की आवश्यकता पर डॉ श्यामाचरण दुबे ने जोर दिया है, वह श्री राय को संस्कार में मिली है। कला-शिल्प की आंतरिक संरचना और बुनावट को जिस आत्मीयता से वे प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत तो है ही असल भारतीय मनका प्रमाण भी है। महाकवि कालिदास की अमरकृति शकुंतलाउनके लिए दुष्यंत-शकुंतलाकी प्रणय-गाथा मात्र न होकर भारतीयता की निर्मितिके एक महत्वपूर्ण कोण की तरफ इशारा करती है। उनकी दृष्टि में यह कथा आर्येतर और आर्य के महासमन्वय और वर्णाश्रम के सही ऐतिहासिक स्वरूप की ओर इशारा करने के साथ ही भारतीय धर्म साधना की पूर्णांगता को भी प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार काम और तप परस्पर विरोधी न होकर सहजीवी हैं। भारत के जल-जंगल-जमीन को लेकर लिखे गये उनके निबंधो में भारतीयताका इंद्र्धनुषी रूप देखने को मिलता है। इस आसेतु हिमाचल वसुंधराको वे मामूली मिट्टी मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं। यह उनके लिए साक्षात देव-विग्रहहै जिसे कोई जय नहीं कर सकतामहीमातानिबंध में भारतवर्ष के मृण्मय स्वरूप की सार्थक विवेचना करते हुए श्री राय ने यह सिद्ध किया है कि भारत का सिर्फ झंडा ही तिरंगा नहीं  है अपितु मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा, त्रिवर्णी भूमि है- सादी, लाल और काली। श्री राय की नजर में यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है, शस्य लक्ष्मी,... साक्षात माता है। (निषाद बांसुरी, पृ.-84)

          श्री राय एक जगह लिखते हैं कि भारतीय सभ्यता में बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता थी। ऐसे तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अनुकूलन भी हुआ,समाकलन भी। सच तो यह है कि भारतीयता का विकास एक लम्बी सांस्कृतिक यात्रा है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। लेकिन आज परिस्थितियां भिन्न हैं। आज हम पर फिर चौतरफा आक्रमण हो रहा है। हर्षवर्धनोत्तर काल में जो स्थिति पैदा हुई थी कुछ वैसी ही परिस्थितियां आज फिर से हमारे सामने उत्पन्न हो गई हैं। आज बड़ी सफाई और बारीकी से भारतीयताको कुचलने की कोशिश हो रही है- भारतीयता के सगुण प्रतीक महात्मा गांधीके नाम को ही मिटाने की कोशिश हो रही है। इसी के साथ अन्नों के देशी बीज, पशुओं की देशी नस्लें, देशी भूषा और सज्जा, देशी भाषा और शब्दावली सब कुछ से हमें धीरे-धीरे काटने की कोशिश चालू है जिससे हम सर्वथा जड़-मूलहीन हो जाएँ। अत: ठहरकर सोचने की जरूरत है। आज हमारे लिए जरूरी है कि पश्चिमी मानसिकता को निरंतर उधार लेने की जगह अपने देशी मानसिक उत्तराधिकारों की चर्चा करें। (उत्तरकुरु, पृ.-70) सरस्वती के वरद पुत्र श्री कुबेरनाथ राय की यह चिंता अत्यंत सहज और स्वाभाविक है। उनके लेखन का गम्भीर अनुशीलन आवश्यक है। भारतीयताके महत्वपूर्ण प्रतीकों की सारगर्भित विवेचना जिस ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ उन्होने अपने निबंधों में की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आज समय की मांग है कि हम उसे समझकर सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने रखें। 

          श्री राय की एक बड़ी चिंता है हमारा अपनी जड़ों से अपरिचित होना। प्रसिद्ध समाजशास्त्री  डॉ श्यामा चरण दुबे ने भी स्वीकार किया है कि जड़ों की तलाश एक बुनियादी सवाल है। वह एक सार्थक जिज्ञासा से जुड़ा है और अस्तित्वबोध को एक नया आयाम और नए मूल्य देता है।” (समय और संस्कृति, पृ.-44) श्री राय का मानना है कि पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों में इस आर्ष चिंतन को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से गलत ढंग से समझा और परोसा जा रहा है। स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवी अपने निजी पर्यवेक्षण, अपनी भारतीय दृष्टि और अपने भारतीय स्रोतों के आधार पर आर्ष चिंतन और भारतीय समाज को समझने तथा तत्संबंधी सिद्धांतों को विकसित करने की अपेक्षा पश्चिमी अवधारणाओं और प्रत्ययों के सहारे अपने अधूरे सरलीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे देश का भयानक अहित अवश्यंभावी है। सच तो यह है कि भारतीय चिंतन और संरचना को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों को अपना निजी समाजशास्त्र या देशी नृतत्वशास्त्र या सौन्दर्य शास्त्र विकसित करना चाहिए। श्री राय इन्हीं जड़ों की तलाश में निरंतर मानसिक यात्रा करते रहे हैं। श्री राय विदेशी विद्वानों से विचारों के आदान-प्रदान के विरोधी नहीं हैं। परंतु गांधी की ही तरह अपने घर की खिड़कियों को खोले रखने के साथसाथ अपनी निजी-देशी-सोंधी जमीन-हमारे हरि हारिल की लकड़ी’-को मजबूती से पकड़े रखने का आग्रह करते हैं। श्री राय उसी आर्ष चिंतन परंपरा के प्रामाणिक दस्तावेज़ के साथ हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इसके लिए वे नृतत्व शास्त्र के साथ-साथ भाषा विज्ञान का भी सहारा लेते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतवर्ष को जानने के लिए भारतऔर भारतीय विश्वको जानना आवश्यक है। भारतीयता की तलाश का रास्ता-लेखन नीरस और उबाऊ न हो इसके लिए उन्होने आवश्यकतानुसार लालित्यका खूब सहारा लिया है। भारतीयता की समझ के लिए लालित्य-बोध एक आवश्यक कड़ी है क्योंकि भारतीयता एक ही साथ भावनाऔर मनोदशादोनों है। बोधयुक्त देशज लालित्य के अखाड़े में खड़े श्री राय दोनों भुजाओं और जंघों पर भीम-ताल ठोंक कर चुनौती देते हैं। यह सच है कि इस तरह की यह ललकार तो कोई मरदवाही दे सकता है जिसकी अपनी जमीन उर्वरा शक्ति से भरपूर हो।

          यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी। हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया। परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है। अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थायें इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं। यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात करने की कोशिश करें  तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी  है।

          भारतीयता की पहचान का असल स्वरूप हमें उसकी वांगमय परंपरा अर्थात साहित्य और शिल्प में देखने को मिलता है। इस पहचान के उद्घाटन के लिए हमारा आर्ष चिंतन से परिचित होना जरूरी है। चिन्मय भारतनामक पुस्तक में श्री राय ने आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को स्पष्ट करने की कोशिश की है- आर्ष से हमारा तात्पर्य वैदिकमात्र या ऋषि दृष्टि प्रसूतमात्र नहीं है। हम उस पूरी परंपरा को, जो ऋषि के अनुधावन से बनती है, आर्ष परंपरा मानते हैं। आर्ष से हमारा तात्पर्य उस समूची चिंतन परंपरा से जिसका प्रस्थान बिन्दु तो ऋषि ही है, पर अविच्छिन्न रूप में कालिदास, शंकराचार्य, रामानुज-वल्लभ-चैतन्य, संत और भक्त से होती हुई आधुनिक गांधी-अरविंद तक आती है। बीज है ऋषि और भारतीय चिंतन का यह अश्वत्थ अभी तक विराजमान है। वृक्ष बीज के आधार पर ही नामांकित होता है। अत: इस इतिहासव्यापी अखंड चिंतन परंपरा की संज्ञा आर्ष हो सकती है।” (चिन्मय भारत, पृ.-16-17)

          आज जब समाज के सभी तबके- बुद्धिजीवी से लेकर साहित्यकार तक सभी सरकार-बाजार के पिछलग्गू बनने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं वैसे समय में श्री राय गंगातीरी पगड़ी बांधे हुए कंधे पर मजबूत देशी में भारतीयता का अमृत-घट लटकाये हुए आर्यावर्त से लगायत जंबूद्वीपे-भरतखंडे की परिक्रमा करते हैं। इस बोध-परिक्रमा के  लिए जिस अकुंठ साहस, निर्भयता, स्पष्टता और दोटूकपन की जरूरत होती है वह कुबेरनाथ राय के लेखन में सर्वत्र मौजूद है। श्री राय ने भारतीयता के उदात्त तत्वों को न केवल आत्मसात किया है अपितु अपने निबंधों में इसकी गंभीर विवेचना भी की है। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत है। इसे धार देने के लिए वे विज्ञान, नृतत्व शास्त्र, भाषा विज्ञान, मिथक, इतिहास आदि अनुशासनों का यथासंभव सहारा भी लेते हैं। श्री राय किसी के विरोध या उपेक्षा से मुक्त  सम्पूर्ण आर्यावर्त में शिव के सांड की तरह मुक्त विचरण करते हैं। सच तो यह है कि श्री राय अपने आत्मलब्ध सत्य के प्रति न केवल पूरी  तरह ईमानदार हैं अपितु  साहस के साथ उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसका प्रथम और आखिरी सूत्र है-अहं भारतोऽस्मि

डॉ मनोज राय
-एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा

(डॉ मनोज राय  गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे’ शीर्षक से प्रकाशित है। आपने ‘बापू ने कहा था’ शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। ‘महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, ‘गांधी चिंतन में योग और शांति’ तथा ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभागमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति ‘महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि’ को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया हैवह मेरे देखे अनूठा है। 

आज कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति

सद्य: आलोकित!

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