शनिवार, 23 मई 2020

कथावार्ता : दूसरी परम्परा की खोज का एक नया आयाम : मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता

- डॉ रमाकान्त राय


भारत में मुग़ल बादशाहों के शासनकाल को कई इतिहासकारों ने स्वर्ण काल की संज्ञा दी है। यह स्वर्णकाल महज एकीकृत शासन प्रणाली और प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना के लिए नहीं बल्कि महान सांस्कृतिक विरासत को अधिक समृद्ध करने के दृष्टिकोण से भी तर्कसंगत कहा जा सकता है। यद्यपि सही मायने में मुग़लिया सल्तनत जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर के समय स्थापित हुई और औरंगजेब के समय तक शबाब पर रही लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह सही है कि बाबर ने मुगल वंश की स्थापना की और बहादुर शाह जफ़र (सानी) इस राजवंश का आखिरी सम्राट हुआ। सांस्कृतिक दृष्टि से मुग़लों का प्रमुख योगदान उनकी अनूठी वास्तुकला थी। मुग़ल काल के दौरान मुस्लिम सम्राटों द्वारा ताजमहल, लालकिला, जामा मस्जिद सहित कई महान स्मारक बनाए गए थे। मुग़ल राजवंश ने भव्य महलों, कब्रों, मीनारों और किलों को निर्मित किया था। उन्होंने पर्सियन शैली को भारतीय शैली से मिलाकर एक अनूठी भारतीय वास्तुकारी को जन्म दिया था। चित्रकला और संगीत तथा साहित्य में भी यह काल सबसे समृद्ध था। हिंदी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाने वाला भक्ति साहित्य इसी राजवंश के समय रचित है। यद्यपि आचार्य शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में इस अवधि को “पौरूष से हताश जाति के लिए भगवान् की शक्ति और करुणा के लिए ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग” न होने को के रूप में रेखांकित किया है और “मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो” जाने और परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्यों के न रहने को इस समय की राजनीतिक स्थिति से जोड़कर रखा है लेकिन इस तथ्य को भी उल्लिखित किया है कि दिल्ली के बादशाह कवियों का संरक्षण करते थे और हिन्दू-मुसलमान दोनों ने भक्ति की रसधार में डुबकी लगाईं थी।


मुगल बादशाह कला प्रेमी तो थे ही। सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्न, जहाँगीर और शाहजहाँ के दरबार के कलावंतों का संरक्षण और संगीत, चित्रकला, साहित्य तथा वास्तु की गहरी अभिरुचि इन मुग़लिया शहंशाहों को अनूठा बनाती हैं। इस क्रम में एक चीज उल्लेखनीय है कि “भारतीय मुगल राजवंश के बादशाहों और उनके परिवार के सदस्यों के जीवन में कविता हमेशा मौजूद रही है। यहाँ तक की उनके बारे में जो इतिहास-लेखन हुआ है उसमें भी कविता मिलती है। भारत में मुगल राजवंश का संस्थापक बाबर था। वह चागताई तुर्की और फारसी में कविता लिखता था।” मुग़ल बादशाहों में मुहम्मद शाह रंगीला की ठुमरियां तथा होलीगीत और बहादुर शाह जफ़र की शायरी साहित्यिक दुनिया में बहुत मकबूल हुई है। “उम्रे दराज मांग के लाये थे चार दिन/ दो आरजू में कट गए दो इंतिजार में” का शायर अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफ़र ही है।
प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने मुगल बादशाहों के जिस विशिष्ट पक्ष को अपनी इस समीक्ष्य कृति में संकलित किया है, वह है मुगल बादशाहों की हिंदी कविता। इस संग्रह में मुग़ल बादशाह अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की हिंदी कवितायेँ संकलित हैं। इससे पहले की मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता पर कुछ बात की जाए, मैनेजर पाण्डेय द्वारा लिखी भूमिका पर कुछ बात करना नितांत आवश्यक है। उन्होंने अपनी भूमिका में तीन खण्ड करके कुछ मूल्यवान और बहसतलब विवेचन किया है। भारतीय मुग़ल राजवंश और कविता खण्ड में उन्होंने मुग़ल राजवंश के बादशाह और उनके सम्बन्धियों के कविता प्रेम को संकेतित किया गया है। दूसरे खण्ड में भारतीय मुग़ल दरबार में आश्रय पाकर समृद्ध हुई हिंदी कविता और उसके कवियों का उल्लेख किया गया है। कहना न होगा कि इसमें अब्दुर्रहीम खानखाना, तानसेन, बीरबल, टोडरमल और फैजी का उल्लेख तो है ही, वृन्द, कालिदास, और कृष्ण कवि का आश्रय पाकर कविता करना रेखांकित किया गया है और मुगल बादशाहों की दरियादिली और कलाप्रेमी व्यक्तित्व की चर्चा की गयी है। तीसरे खण्ड में उन्होंने भारतीय मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता के संकलन, सम्पादन की कठिनाइयों का जिक्र करते हुए इन राजाओं की कविता पर विद्वतापूर्ण टिप्पणी दी है। वह सचेत भी करते हैं कि “इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए कि ये पद, गीत और गान जिस ग्रन्थ से लिए गए हैं, वह संगीत का ग्रन्थ है।" (पृष्ठ-21) इस संग्रह में चुनी गयी अधिकांश कवितायेँ ‘संगीत रागकल्पद्रुम’ नामक ग्रन्थ से ली गयी हैं, जिसे कृष्णानन्द व्यास देव ने एकत्रित किया था। इन कविताओं के पाठ का वही प्रभाव नहीं है, जो इनके श्रवण से मिलेगा। विशेषकर गीतों में, जहाँ कोई कोई पंक्ति कई बार और भिन्न आलाप के साथ गायी जाती है।
मुगल बादशाहों की हिंदी कविता पढ़ते हुए कई बातें ज़ेहन में उभरती हैं, मसलन-मुसलमानों के आक्रमण, कत्लेआम और मंदिरों को गिराकर हिन्दू जाति में हताशा का भाव भरने वाले मुग़ल बादशाह हिन्दी (ब्रजभाषा) में कविता किया करते थे? यह तो पता ही है कि अकबर के नवरत्नों में शामिल रहीम ने भक्ति की कवितायेँ लिखी हैं, लेकिन औरंगजेब सरीखा बादशाह भी हिंदी में कवितायेँ लिखता था! कवि ह्रदय था उसके पास? तब हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि इतिहास का पाठ कुछ दूसरा ही किया जाना चाहिए। जिस इतिहास को अंग्रेजों ने लिखा और लिखवाया, उसकी मंशा को समझा जाना चाहिए। जिस इतिहास का निर्माण वर्तमान समय में करने की कोशिश हो रही है, उसे अधिक सतर्क होकर लिखा जाना चाहिए और इस पक्ष को जरुर ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।
मैनेजर पाण्डेय द्वारा संकलित और सम्पादित इस संग्रह की कवितायेँ संगीतमय पदों, गीत और गान के साथ साथ दोहा आदि छंद में भी हैं। संगीतमय पदों, गीत और गान से यह अंदाज करना सहज है कि मुगल बादशाह संगीत प्रेमी ही नहीं थे बल्कि राग-रागिनियों की अच्छी समझ भी रखते थे। राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर रचना करना संगीत की बारीक समझ के अभाव में असंभव है। इसके अतिरिक्त छन्द का ज्ञान होना भी आवश्यक है। मुग़ल बादशाहों द्वारा लिखित यह कवितायेँ संगीत रागकल्पद्रुम में संकलित किये जाने का मतलब भी यही है कि यह कवितायेँ सांगीतिक दृष्टिकोण से खरी हैं।
प्रस्तुत किताब में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी द्वारा लिखित हैं। शाह आलम सानी द्वारा लिखित कवितायेँ ‘नदिराते शाही’ से भी ली गयी हैं। सम्राट अकबर द्वारा लिखित कवितायेँ संख्या के हिसाब से दूसरे नंबर पर हैं। इसमें जिन बारह मुग़ल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ संकलित की गयी हैं, वह हैं- अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, आजमशाह, ‘मोजमशाह’ शाहआलम बहादुरशाह, मुइजउद्दीन जहाँदार शाह ‘मौज’ मोहम्मदशाह, अहमदशाह, अजीज अल-दीन आलमगीर, आलमशाह सानी और बहादुरशाह जफ़र। बाबर और हुमायूँ का कविता प्रेम मिलता तो है लेकिन हिंदी में उनकी कवितायेँ नहीं मिल सकी हैं।
संग्रह में संकलित कविताओं को पढ़ते हुए कहीं भी इसका कोई संकेत नहीं मिलता कि तत्कालीन समाज में हिन्दू-मुसलमान को लेकर धार्मिक स्तर पर कोई द्वंद्व था। इन बादशाहों की कविताओं में इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता जैसा आचार्य शुक्ल ने हताश हिन्दू जाति के लिए जिम्मेदार बताते हुए लिखा है। अलबत्ता अकबर बादशाह की कविताओं में श्रीकृष्ण की आराधना करता हुआ तो दीखता ही है, कई कविताओं में खुद को भी ईश्वर के स्थान पर रखकर प्रस्तुत करता है।
अकबर प्राणनाथ अनाथन को यहनाथ ए जापै अष्टसिद्ध नव निध पाइए।
परमदाता ज्ञाता सबही को मनरंजन यह दुखभंजन कल्पवृक्ष प्रतक्ष धाइये।।
अन्तरयामी खामीजग काज करबे को ए रस नाल बनाइये।
जलालदी महम्मद ऐसे दाता किये तिंहूँ लोक में यश गाइए।।
उसकी कविताओं में संगीत की गहरी समझ तो मिलती ही है, आत्मप्रशंसा और भक्ति भावना भी मिलती है। उसके यहाँ अनेक पदों में ईश्वर की वंदना है और कई में खुद को वन्दनीय बनाकर की गयी प्रस्तुति। शाहजहाँ और औरंगजेब लगायत लगभग सभी मुग़ल बादशाहों की कविताओं में प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। औरंगजेब का उदयपुरी बेगम से प्रेम उसकी कविताओं में भी जाहिर हुआ है-
तुव गुण रवि उदै कीनो याही तें कहत तुमकों बाई उदैपुरी।।
जानन मन जान शाह औरंगजेब रीझ रहे याही तें कहत तुमकों विद्यारूप चातुरी।।
औरंगजेब सरीखे कट्टर शासक का यह पक्ष उसके मूल्यांकन के लिए एक नया आयाम उपलब्ध कराता है और उसकी कट्टरता को साम्प्रदायिकता से पृथक करके देखने को उकसाता है। आजमशाह की कविताओं में भी प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है। मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ तो रसिक मिजाजी के लिए मशहूर ही था, इसलिए उसकी कविताओं में प्रेम की भावना का अभिव्यक्त होना स्वाभाविक है। उसकी कविताओं में होली के गीत भारतीय संस्कृति से मुग़ल बादशाहों के गहरे लगाव को प्रकट करते हैं। बादशाह अकबर द्वारा होली और जन्माष्टमी मनाये जाने के ऐतिहासिक साक्ष्य तो मिलते ही हैं। प्रेम की इन अभिव्यक्तियों में वैसा द्वंद्व और तड़प तो नहीं है और न ही वह प्रगाढ़ता, जिसे प्रेम की उत्कट अभियक्ति माना गया है किन्तु अहमदशाह की एकाध कविताओं में इसे देखा जा सकता है।
संकलित कविताओं में सबसे विशिष्ट कवितायेँ शाह आलम सानी की हैं। उनकी कविताओं में लोक का गहरा रंग देखा जा सकता है। संकलन में सबसे अधिक कवितायेँ शाह आलम सानी की ही हैं। उनकी कवितायेँ निर्दिष्ट राग रागिनियों में रचित हैं। होली, कवित्त, दोहरा आदि तो उनकी कविताओं में हैं ही, जैसा कि मैनेजर पाण्डेय ने संकेत किया है, उनकी कविताओं में लोक का पक्ष बहुत गाढा होकर आया है, खासकर सीठने वाली कविताओं में। सीठने विवाह संगीत के द्विअर्थी संवाद, हँसी-ठिठोली और अश्लील चुटकुलों से भरे हुए होते हैं और शाह आलम सानी के सीठने बहुत चर्चित हुए हैं। “ऐसी कवितायेँ लिखने के लिए देश के लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का आत्मीय ज्ञान होना जरुरी है। शाह आलम के सीठने यह साबित करते हैं कि उनको भारतीय लोक-जीवन और लोक-संस्कृति की पूरी और गहरी जानकारी थी।” (पृष्ठ-29) रीतिकाल की अवधि का यह कवि लोक रंग के साथ-साथ नायिकाभेद आदि में भी बहुत उम्दा रचनाएँ कर सका है।
मुग़ल बादशाहों की कवितायेँ यद्यपि काव्य की कसौटी पर बहुत उत्तम नहीं कही जा सकती हैं लेकिन तब भी शाह आलम सानी की कवितायेँ ध्यान खींचती हैं। उनकी कई कविताओं में ब्रजभाषा का माधुरी भी देखा जा सकता है। शाहजहाँ की एक कविता अपने रचना-विधान और प्रकृति-चित्रण में बहुत विशिष्ट बन पड़ी है। इसका भाषिक सौन्दर्य भी बहुत निखर कर अभिव्यक्त हुआ है-
दादुर चातक मोर करो किन सर सुहावन को भरू है,
नाह तेही सोई पायो सखी मोंहिं भाग सोहागहु को बरु है।
जानी सिरोमनि साहिजहाँ ढिग बैठो महा विरहा-हरु है,
चपला चमको, गरजो बरसो घन, पास पिया तो कहा डरु है।।
मुगल बादशाहों की हिंदी कवितायेँ ब्रजभाषा में हैं। छंदबद्ध हैं, राग रागिनियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी हैं। इन कविताओं में एक बेहद शांत समाज की प्रतिच्छाया महसूस की जा सकती है। किसी भी तरह के सांप्रदायिक भाव को यहाँ नहीं महसूस किया जा सकता। कुछेक कविताओं को छोड़ दिया जाय तो कहा जा सकता है कि अधिकांश कवितायेँ विशिष्ट होने के भाव बोध से लिखी गयी हैं और इस बात का प्रमाण देती हैं कि मुग़ल बादशाह गायन-वादन का रियाज भी करते रहे होंगे। संकलन की कवितायेँ मुग़ल बादशाहों के काव्य रसिक होने का परिचय तो देती ही हैं, यह सोचने के लिए अवकाश भी देती हैं कि उन्होंने अपने शासन काल में कला-साहित्य और संगीत को जो इतना प्रश्रय दिया, शान्ति का वातावरण बनाया और विद्वानों को संरक्षण दिया वह उनके सह्रदय शासक होने का भी परिचायक है। इस संकलन से मुग़ल शासकों के बारे में एक सर्वथा ही नई और मानवीय छवि निर्मित होती है।
आखिर में, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की शिष्य परम्परा में एक दूसरी परम्परा की खोज की जो ललक विरासत में मिली हुई है, मैनेजर पाण्डेय ने इस संकलन से उसे और समृद्ध किया है। यह संकलन मुग़ल बादशाहों के विषय में एक दूसरी ही छवि निर्मित करता है और उनके खानदान में काव्य की परम्परा को रेखांकित करता है। विशेष यह है कि यह संकलन हिंदी कविता की परम्परा से जुड़ता है और विशुद्ध भारतीय अवधारणा से नाभि-नालबद्ध दिखता है। मैनेजर पाण्डेय का यह संकलन भारतीय कविता परम्परा और इतिहास बोध के निर्माण के लिहाज से बहुत मूल्यवान है।
समीक्षित कृति- मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता
संकलन और संपादन- मैनेजर पाण्डेय
प्रकाशक- राजकमल पेपरबैक्स, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली
मूल्य- 125 रु.
पहला संस्करण- 2016
(पक्षधर पत्रिका में प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

गौरव तिवारी ने कहा…

बहुत जरूरी पुस्तक की बहुत अच्छी समीक्षा। कल मृत्युञ्जय ने अज्ञेय सहचर की बतकही में इसी पुस्तक की चर्चा की थी।

Shatrughn Singh ने कहा…

आपकी इस महत्वपूर्ण पुस्तक-समीक्षा से प्रतीत होता है कि यह पुस्तक बेहतरीन है। इससे मुगल बादशाहों की साहित्यिक अभिरुचि, उनकी लोकदृष्टि का पता चलने के साथ ही रीतिकालीन कविता का एक और पहलू समझने का अवसर प्राप्त हो रहा है। आपको बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं!

सद्य: आलोकित!

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