गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' पढ़कर
उद्विग्न हूँ। बसंत पंचमी के दिन पौराणिक आख्यान पर केंद्रित इस नाटक को पढ़ने के
लिए लिया था। दो अंक पढ़कर आगे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई थी। कल रविवार को पुनः लिया
और पढ़ ही लिया। देर शाम पढ़कर जैसी उद्विग्नता ने अपना पाँव पसारा, वह देर रात तक प्रभावी रहा और आज भी यदा कदा छा जाता था।
गिरीश कर्नाड का नाटक 'हयवदन'
इससे पहले पढ़ चुका था और उसमें जो प्रयोग किया गया था, उससे परिचित था। यद्यपि उस बेहतरीन नाटक में गिरीश कर्नाड ने विवादित
बनाने के लिए मसाला डाला है लेकिन उसे भी अभिनव प्रयोग माना मैंने। जैसे अच्छे
खासे पौराणिक आख्यान लगने वाले हयवदन में राष्ट्रगीत, देश
प्रेम आदि को लेकर चुभने वाली बातें की गयी हैं।
ययाति पढ़ते हुए मेरे मनोमस्तिष्क में ययाति की कथा थी। ययाति होना एक मानसिक सिंड्रोम है। वृद्धावस्था से सब भयभीत होते हैं और युवा बने रहना चाहते हैं। ययाति की कथा में आता है कि लंबे समय तक भोग विलास में लिप्त रहने के बाद भी सुखोपभोग की उनकी कामना तृप्त नहीं हुई थी। उन्होंने अपनी पत्नी देवयानी, जो राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य की बेटी थीं; की सखी शर्मिष्ठा को अपनी वासना का शिकार बनाया। एक शर्त के अनुसार शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर रहना था। ययाति ने शर्मिष्ठा की सुंदरता पर मोहित होकर याचना की थी। शर्मिष्ठा के साथ वह कुछ वर्षों तक क्रीड़ामग्न रहे। जब देवयानी को पता चला तो उन्होंने शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य से ययाति को शाप दिया था कि यदि वह देवयानी के अतिरिक्त किसी के साथ संभोग करेंगे तो वह वृद्ध हो जाएंगे। शर्मिष्ठा से संबंध बनाने के क्रम में ययाति वृद्ध हो गए। लेकिन उनकी क्षुधा शमित नहीं हुई थी। अतः उन्होंने अपने पुत्रों से याचना की कि उनमें से कोई अपनी जवानी उन्हें दान कर दे और बदले में उनका बुढापा ले ले। उनके छोटे पुत्र पुरु ने ऐसा ही किया। कथा में है कि एक सहस्त्र वर्ष तक सुखोपभोग करने के बाद ययाति को ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा-
"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥"
अर्थात, 'हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं!' इस ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने पुरु को उनका वय लौटा दिया और स्वयं वैरागी हो गए।
ययाति की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होती है कि भोग और तृष्णा कभी नहीं मरती। हमें इस सार्वभौमिक सत्य को ध्यान में रखना चाहिए। ययाति का चरित्र इस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
जब गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' हाथ में आया तो मैं हयवदन के प्रयोगों से
परिचित था। इसलिए मुझे कुछ चौंकाने वाले प्रसंगों की अपेक्षा थी। इस नाटक का आरम्भ
भी देवयानी और शर्मिष्ठा के इसी तरह के लगभग झोंटा-झोंटव्वल से शुरू होता है। दो
सखियों का संवाद- जो कालांतर में एक शर्तवश मालकिन और दासी की भूमिका में हैं-
बहुत छिछले स्तर का है। हम राजघरानों या कुलीन परिवारों के विषय में ऐसी छवि के
साथ रहते हैं कि यहां विवाद भी सभ्य शब्दावली में होते हैं लेकिन देवयानी और
शर्मिष्ठा का संवाद सड़क छाप मवालियों जैसा है। यह कहीं से नहीं लगता कि यह मालिक
और दास का संवाद है। फिर उनके पूर्व जीवन का प्रसंग ऐसा ध्वनित होता है जैसे दोनों
में समलिंगी रिश्ता रहा हो। ययाति भी एक लुच्चे राजा की तरह चित्रित हुए हैं।
शर्मिष्ठा छल से उन्हें आवेष्टित करती है। इसमें प्रसंग आया है कि देवयानी को
शर्मिष्ठा ने ईर्ष्यावश कुंए में धकेल दिया था। वह कुंए में पड़ी कराह रही थी कि
ययाति उधर से गुजरे। उन्होंने देवयानी का दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर खींचा। देवयानी
ने कहा कि दाहिना हाथ पकड़ने के प्रभाव से आप ने मुझे अंगीकृत किया है। ययाति
देवयानी को ब्याह कर ले आये। शर्मिष्ठा भी आई। दासी बनकर। नाटक में शर्मिष्ठा वही
जुगत लगाती है। वह जहर खाने का उपक्रम करती है और उसे बचाने में ययाति दाहिना हाथ
पकड़कर रोकते हैं। वह इसी आधार पर उनसे प्रणय निवेदन करती है। ययाति उसके साथ आबद्ध
हो जाते हैं। यह जानकर देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य के साथ चली जाती है। शाप
मिलता है। उसी दिन पुरु अपनी नवविवाहिता चित्रलेखा के साथ लौटता है। चित्रलेखा ने
पुरु का वरण राजसी ठाठबाट के चक्कर में किया है। वह पुरु को हीन मानती है। सब
घटनाएं इस तरह पिरोई गयी हैं कि सभी पात्र छुद्र दिखने लगते हैं। पुरु ययाति का
शाप ओढ़ लेता है। चित्रलेखा विषपान कर लेती है। तब ययाति पुरु को उसकी जवानी वापस
कर देते हैं।
नाटक में समयावधि को तर्कसंगत बनाने के
लिए यह सब एक ही दिन में घटित होते हुए दिखाया गया है। और ययाति इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान भोग की पराकाष्ठा
पर पहुंचने से प्राप्त ज्ञान नहीं है- यह कलह से प्राप्त ज्ञान है। -"त्याग
से डरकर भोग की ओर गया पर इस अकाल यौवन से वह भी प्राप्त नहीं हो सका।"
इस नाटक को पढ़ते हुए बारम्बार यही ध्यान बनता
रहा कि क्षुद्र मानसिकता के साथ क्या महान विचार आ सकते हैं? कदापि नहीं।
गिरीश
कर्नाड इसी न्यूनता का शिकार बन गए हैं।
नाटक की भाषा भी गजब है। जहां वैचारिक स्तर पर
क्षुद्रताओं का बोलबाला है, कोई सतही और स्तरहीन बात की जा
रही है वहाँ भाषा श्लिष्ट और तत्सम प्रधान है। जहां वैचारिक रूप से कोई मूल्यवान
अंकन किया जा रहा है वहाँ साधारण। नाटक के आखिर में ययाति कहते हैं- "अपने
किए पापों को अरण्य में व्रत करके धोना है। यौवन इस नगर में बिताया है, बुढ़ापा अरण्य में बिताऊँगा।" मुझे यहां अरण्य शब्द का प्रयोग खटका।
लेकिन यह तो एक बानगी है। समूचे नाटक में कई स्तरों पर कई ऐसे बिंदु मिलते हैं,
जो खटकते हैं और विचार करने को उकसाते हैं कि आखिर इस नाटक को इस
रूप में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी!
ययाति पढ़कर जैसी उद्विग्नता कल पूरे दिन रही-
वैसा मैंने पिछले कुछ वर्षों में कभी अनुभूत न की थी।
एक उदात्त अवधारणा का इतना पतनशील रूप - ओह!