कोई भी कवि हो सकता है- अशोक वाजपेई.
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विनोद तिवारी द्वारा सम्पादित #पक्षधर ने क्रमशः अपनी पुख्ता जमीन पा
ली है. पत्रिका के जनवरी-दिसम्बर,२०१३
(संयुक्तांक) कई मायने में विशिष्ट है. इस अंक में उल्लेखनीय है-
१- अशोक वाजपेई से सूर्यनारायण और विवेक निराला
की बात-चीत.
२- राधाबल्लभ त्रिपाठी का व्याख्यान
३- अल्पना मिश्र के उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' और
४- अशोक वाजपेई और विवेक निराला की कवितायेँ.
पक्षधर के इस नवीनतम अंक में प्रसिद्द
आलोचक और कवि अशोक वाजपेई से सूर्यनारायण सर और विवेक सर की बातचीत छपी है. यह
बातचीत बेहद साफगोई से सम्पन्न है. प्रश्न बहुत सारगर्भित हैं और उत्तर उतने ही
बेबाक. अशोक वाजपेई, अज्ञेय के बाद दूसरे ऐसे चिन्तक हैं जो
भाषा को भी अपने चिंतन के केन्द्र में रखकर बात करते हैं. उनके यहाँ कविता को
जाँचने के दो मानकों में से एक भाषा है. उनकी बात सुनी जानी चाहिए- "भाषा का
संकट एक स्तर पर विचार का भी संकट है. बासी पड़ गए विचारों से आज आप सचाई नहीं
पकड़-समझ सकते. साफ सुथरा गद्य तक इन दिनों कम नजर आता है. ऐसे समय में जब शब्दों
का टोटा पड़ रहा है, कविता का एक काम शब्द को केन्द्र में
वापस लाना है, यानि शब्द का उसकी मानवीय ऊष्मा और
गरिमा में, उसकी अर्थ बहुलता और अनेक
अंतर्ध्वनियों में, उसकी मानवीय अर्थवत्ता में पुनर्वास
करना है. हमें ऎसी कविता चाहिए जो प्रश्नाकुल और प्रश्नवाची हो, जो आत्मबोध और आत्माकलन से निकलती हो
और जिसमें अंतःकरण विन्यस्त होता हो."
यह पूरी बातचीत कविता, आज के समय और बहस को ठीक से सामने रखती
है. अशोक वाजपेई ने तमाम संगठनों और स्कूलों को बहुत तटस्थ होकर देखा है और बेबाकी
से स्वीकार किया है कि इन संगठनों में जो राजनीति है, वह कहीं से भी साहित्य के लिए हितकर
नहीं रही है. विवेक निराला के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने सच ही कहा है कि
"हिन्दी में साहित्य जगत तो है, बौद्धिक
जगत नहीं". हालिया घटनाओं पर सुधीजनों की राय देखें तो स्पष्ट पता चलता है कि
वे सही कह रहे हैं. पक्षधर का यह अंक इस बात-चीत के लिए ही पढ़ा जाना चाहिए.
"मेरे घर में छिपकली जैसी है
चुहिया,
चुहिया जैसी है बिल्ली.
बिल्ली जैसी है कुतिया और कुतिया जैसी
है पत्नी.
और बाकी के लिए क्या कहूँ?
धरती पर बिलखते-बिलबिलाते, उचटी नींद वाले,
भूख से अशक्त पर कुछ कह पाने में
असमर्थ
बच्चे तकते हैं, अपनी माँ को."
इसी अंक में प्रो० राधाबल्लभ त्रिपाठी
का व्याख्यान छपा है. यह व्याख्यान उन्होंने पिछले साल इलाहाबाद में प्रो०
सत्यप्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यानमाला में दिया था. मैं उस समय श्रोता के रूप में
वहां था. उस व्याख्यान को सुनने के बाद यहाँ पढ़ने का मौका यहाँ मिला. यह बेहद
उम्दा व्याख्यान है जो संस्कृत कविता में जनजीवन के निरूपण व प्रतिरोध की परम्परा
के नाम से है. इस व्याख्यान में संस्कृत कविता से उन लोकधर्मी पक्षों को उठाया गया
है, जिन्हें एक साजिश के तहत या अभिजात्य
से प्रेरित होकर अक्सर छोड़ दिया जाता है. प्रो० त्रिपाठी का यह लेख संस्कृत को एक
अभिजात्य भाषा के साथ लोकधर्मी परम्परा से भी जोड़ता है. उपरोक्त अंश के अलावा अन्य
कई एक उद्धरणों से जिस रोचक तरीके से अपनी बात रखी गयी है, वह अद्भुत है. इस लेख को अवश्य पढ़ा
जाना चाहिए. इस नाते से भी कि संस्कृत में सब अभिजात्य ही नहीं है. वह लोक की
परम्परा से भी गहरे जुड़ा हुआ है. और इस साहित्य में प्रतिरोध का जो स्वर मिलता है, वह आज भी दुर्लभ है और वर्तमान के
रचनाकारों के लिए एक मिसाल भी.
अल्पना मिश्र का उपन्यास अंधियारे तलछट
में चमका मुझे निराश करने वाला लग रहा है. चालीस पेज पढ़ने के बाद भी कोई एक दृश्य
नहीं छाँट पाया हूँ जो उल्लेखनीय लगे या कहीं से काबिले-जिक्र हो.
अशोक वाजपेई और विवेक निराला की
कवितायेँ पढ़ी जानी चाहिए. कुछ लेख भी.
कुल मिलाकर यह एक संग्रहणीय अंक है.
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