-गौरव तिवारी
#the_Kashmir_Files
हमने देखा है, लाज़िम था तो हमने भी देखा है।
कश्मीर फाइल्स कश्मीर पर बनी एक जरुरी फ़िल्म है। निर्देशक विवेक
रंजन अग्निहोत्री ने साहस और शोध दोनों को लेकर यह फ़िल्म बनाई है। उनका कहना है कि
फ़िल्म के एक एक दृश्य पुष्ट और प्रामाणिक होने पर ही खींचे गए हैं। फ़िल्म की कोई
बात लफ्फाजी नहीं है । दिखाई गई प्रत्येक घटना के दस्तावेज/ प्रमाण उनके पास हैं।
फ़िल्म का रचनाकार कश्मीर के पंडितों की समस्या पर बेचैन है और
बहुत कुछ कहने के लिए व्याकुल भी। 30 वर्ष पूर्व
साम्प्रदायिकता और जेहाद के झंडाबरदारों द्वारा एक समुदाय विशेष के लोगों को बहुत
ही अमानुषिक ढंग से कश्मीर से निकाला गया। फ़िल्म कहती है कि "इस जन्नत को
जहन्नुम बनाने वाले ने भी जिहाद इसलिए किया कि उन्हें जन्नत मिले" और दुनिया
देखती रही।डॉ गौरव तिवारी
कश्मीर पर विधु विनोद चोपड़ा जैसे महारथी के द्वारा मिशन कश्मीर, शिकारा जैसी फिल्में भी बनी। अन्यों ने भी बनाया। लेकिन मूल समस्या और
पीड़ितों के पक्ष को इतनी तन्मयता से नहीं दिखाया गया था। उनमें प्रेम कहानी के
नेपथ्य में कश्मीरियत की छौंक थी।
देश में प्रगतिशील और सेकुलर चादर ओढ़े कलाकार/ रचनाकार/
बुद्धिजीवी जिस औजार से, जिस हथियार से, जिस ढंग से
अपने पक्ष को रखने के लिए जाने जाते रहे हैं, यह फ़िल्म उन
सबका इस्तेमाल करके उनको उनकी भाषा में प्रत्युत्तर देने की सफल कोशिश है। कश्मीर
फाइल्स को देखते हुए मुझे जाने क्यों बार बार लग रहा था कि "अंधेरे में"
कविता में जिस प्रकार मुक्तिबोध बहुत कुछ कहने के लिए, शोषितों
का पक्ष बनने के लिए, शोषकों को नंगा करने के लिए बेचैन हैं
और अनेक दृश्यों, फ्लैशबैक पद्धतियों, नाटकीयता
और प्रतीकात्मकता के साथ अपनी बात कहते जाते हैं, वैसे ही
लेखक और निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री भी यहां उपस्थित हैं।
यह फ़िल्म कश्मीर की मूल समस्या को भुलाकर उसके लिए अलग ढंग का
नैरेटिव गढ़ कर समस्या के प्रत्यक्ष या परोक्ष कारणों के विक्टिम (पीड़ित) बनाने के
दर्द को, सही खबर छुपाकर फेक खबर को बार-बार कहते जाने और फिर
उसे ही सही मान लिए जाने की पीड़ा को लिये हुए है। तथ्यों के सहारे इनका पर्दाफाश
करते हुए यह फ़िल्म कहती भी है कि "यह नरेटिव का वार है बहुत खराब वार है यह।
तथाकथित सेकुलरों और प्रगतिशील लोगों द्वारा विक्टिमहुड की कहानियां खरीदी और बेची
जाती हैं यहां।" और उसी ने एक पर्दा लगा रखा है जिससे कश्मीरी विस्थापितों की
पीड़ा लोग नहीं देख पाते। फ़िल्म कहती भी है कि "हम पीड़ित थे लेकिन हमने हथियार
नहीं उठाया।.... दुनिया ने हमें सुनने की, हमारी पीड़ा को
जानने की कोशिश भी नहीं की।"
कश्मीर का प्राचीन इतिहास, वहाँ की समृद्धि
संस्कृति, वहाँ की ज्ञान परम्परा, उसकी
कश्मीरियत, वहाँ की "नदरु" आदि को कलात्मकता और
कहीं कहीं नैरेशन के साथ बताती यह फ़िल्म कश्मीरी पंडितों की जरूरत थी।
कश्मीर को धर्म विशेष की अफीम को चखने और उसमें डूबे रहने वाले
आतंकियों ने किस हैवानियत के साथ समाप्त कर दिया और "फ्रेंडशिप विफोर
नेशन" वाली नेताओं की थियरी ने कैसे उसे नष्ट होने में भूमिका अदा की यह
फ़िल्म इसका पर्दाफाश करती है। "धर्मान्तरण करो, छोड़ दो या
मर जाओ", "कश्मीर को पाकिस्तान बनाना है, उनके मर्दों के बिना, उनकी औरतों के साथ" जैसे
नारे के बीच वहाँ की लोमहर्षक हैवानियत "कश्मीर में जिंदा रहने से ज्यादा
मुश्किल का काम कोई है नहीं पंडितों के लिए" के साथ यह फ़िल्म यह भी बताती है
कि कैसे उदार कहे जाने वाले सूफियों के तलवारों से हिंदुओं को यहाँ धर्मांतरित
किया गया। यासीन मलिक के किरदार का महिला को उसके पति के खून से सने चावल खिलाने
और 24 महिला, पुरुष, बच्चों को माथे पर गोली से उड़ा देने का दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाला है।
"देश की तकदीर वही बदल सकता है जिसके पास पॉवर है,
पोलिटिकल पॉवर है। बाकी सब बकवास है।" जैसे संवादों के बीच
अपनी मिट्टी में वापस जाने की कश्मीरियों की उस पॉवर की ओर टकटकी इस फ़िल्म में है।
इस फ़िल्म का एक पात्र जो अपने पिता की हत्या के बाद माँ और दादा
के निर्वासित होने के लिए अभिशप्त था, जब प्रगतिशील
शिक्षा संस्थानों में नए गढ़े गए नैरेशन्स में वहाँ की वास्तविकता से अनभिज्ञ होता
है और "इनमें से मेरे पैरेंट्स कौन हैं" की स्थिति में आ जाता है तब यह
फ़िल्म आज की पीढ़ी के अपने जड़ो से कट जाने की बेचारगी को भी दर्शाती है। और उसे
अपनी जड़ों का ज्ञान होने पर "मेरी माँ का नाम शारदा (ज्ञान की देवी सरस्वती)
था यह उसकी कहानी है, मेरे भाई का नाम शिव (भारतीय संस्कृति
के प्रतिनिधि व्यक्तित्व) था यह उसकी कहानी है।" कहते हुए दुनिया के सामने अपने
दर्द को बयाँ करता है तो फ़िल्म अति यथार्थ और संकेत के साथ थोड़े में बहुत कुछ कहती
भी दिखती है।
आज जब जड़ों से कटकर भौतिक सुख में रहना, आज को ही ओढ़ना, आज को ही बिछाना, आज ही में सोचना, अपने इतिहास, संस्कृति से कटकर सब कुछ पूरी दुनिया में एक जैसा होता जा रहा है। यह
फ़िल्म हमें अपनी जड़ों से जुड़ने का माद्दा भी दे रही है।
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-एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी
(सम्बद्ध) गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
1 टिप्पणी:
बहुत अच्छा व सटीक लिखा।
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