गुरुवार, 26 मार्च 2020

कथावार्ता : लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए


(डॉ मनोज राय गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे शीर्षक से प्रकाशित है। आपने बापू ने कहा था शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, गांधी चिंतन में योग और शांति तथा महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया है, वह मेरे देखे अनूठा है। आज कुबेरनाथ राय की जयंती पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

          बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने अपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। जिस विधा को उन्होने अपने लेखन के लिए अपनाया है उसके प्रति उनके मन में न केवल आकर्षण है अपितु तर्क भी है -निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है । ललित निबंध भी काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता ललित निबंध क्या चीज हैहमारी सहूलियत के लिए उन्होने इसकी सरल-सुग्राह्य परिभाषा भी दे दिया है-ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य  दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं। निबंध की परिभाषा से ‘शिव के सांड़’ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांड़ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है। यह परिभाषा बस कामचलाऊ ही है। वह भी इसलिए कि पाठकों को एक देशज छवि की झलक भर मिल जाये। वरना इसकी असल “ परिभाषा करना मानो कालिका की जिह्वा को परिभाषित करना है। कालिका की जिह्वा आस्वादन और वाक् दोनों का प्रतीक है। देह-देह में कालिका बैठी है और वह रसना के माध्यम से रस का आस्वादन कराती है और वाक् बनकर विद्या का रूप धारण करती है। वह महारस और महाविद्या का प्रतीक है। वह परमा प्रकृति है। शब्दरूपरसस्पर्श और गंध इन पाँचों मात्राओं का मूल स्रोत है। लालित्य तो उसकी एक चिद्कला मात्र है। अतः उस भगवती को नमो नमः और उसकी विद्यारूपी रसना को नमोनमः जो लालित्य के आस्वादन का निमित्त कारण है। उसकी परिभाषा कौन करने जाय”। श्री राय ‘सेचन-समर्थ-पुंगव-वृषभ’ चिंतक हैं जो किसी की परवाह नहीं करता है। जब उसका मन हुआ निर्जन रास्ते पर अकेले ...हाथ में एक मजबूत देशी लेकर चिन्मय भारत’ की तलाश में निकल लेता है,(ताकि) यदि किसी मामा (चिन्मय भारत के पार्टिशन या बंदर बाँट में रूचि रखने वाले महंतगण) की इच्छा हो सम्मुख आकर कंठ फाड़कर निमंत्रण देने की तो उनके उपयुक्त प्रत्युत्तर की भाषा इसके माध्यम से दी जा सके।
          श्री कुबेरनाथ राय से मेरा प्रथम परिचय एक स्थानीय अखबार के कोने में छपी उनकी मृत्यु की खबर  से ही हुई थी । एक  ही जिले के होने के बावजूद इससे पूर्व मैंने कभी उनका नाम तक नहीं सुना था। वैसे भी साहित्य से मेरा बादरायण संबंध रहा है। कुछ महीने बाद श्री राय के लेखन के मुरीद डॉ बरमेश्वर नाथ राय ने उनकी एक रचना ‘चिन्मय भारत’ पढ़ने के लिए दिया। ‘चिन्मय भारत’ का ऐसा असर पड़ा कि श्री राय के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने की इच्छा जाग उठीतबसे उनको पढ़ने का सिलसिला जारी है।  लेकिन श्री राय अध्ययन क्षेत्र इतना विषद और व्यापक है कि दर्जनों बार पढ़ने के बावजूद कुछ पाना शेष ही रह जाता है। पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों साहित्य का जिस गंभीरता से अध्ययन-पाचन श्री राय ने किया है वह अत्यंत दुर्लभ है। महज बत्तीस बसंत पार करते ही एक निबंध-संग्रह  ‘रस-आखेटक’ में होमर-शेक्सपीयर-वर्जिल पर लिखे गए मोनोग्राफ उनके विस्तार और अब एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ  जैसे कथन उनके आत्मविश्वास को स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी-भूमि पर जन्म लेने का औसत से ज्यादा सार्थक-अभिमान तो उनके अंदर था हीमोहनजोदड़ों के सांड से निकट का परिचय भी था। फलस्वरूप जब मन किया साहित्य के किसी भी बंसवार में माथा टिका देते थे और जब तक उसे जड़ से उखाड़ न ले पीछे नहीं हटते थे।          
          साहित्य जगत में प्राय: श्री राय के योगदान को साहित्य की एक खास विधा ललित-निबंध से जोड़कर देखने की रही है। बहुत हुआ तो ललित-निबंध के लिए प्रसिद्ध  स्वयंभू ‘त्रयी’ के एक महत्वपूर्ण लेखक रूप चर्चा कर इतिश्री कर ली जाती है । मुझे लगता है कि श्री राय के द्वारा संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में उनके दिये गए अप्रतिम योगदान को और वृहत्तर रूप में देखने की जरूरत है। श्री राय की असल चिंता है देश की जातीय और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखना। श्री राय के व्यक्तित्व सटीक मूल्यांकन करते हुए किसी ने ठीक ही लिखा है- वे प्रकृति से अक्खड़स्पष्टवादी पर तत्वाभिनिवेशी दृष्टि के रहें हैं। ...और अपनी स्थापना के कारणों को भी बड़े बेलौस लहजे में उद्घाटित करते रहे हैं।”  कहना न होगा कि उनकी अक्खड़ता,स्पष्टवादिता का ही परिणाम था कि 1974 (विषाद योग का प्रकाशन वर्ष) तक अपने साहित्यिक अवदान के लगभग चरम पर पहुँचने के बाद भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र के वे अज्ञात कुलशील बने रहे। एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही किसी बड़े विद्वान ने उनके साहित्य के मूल्यांकन में रूचि दिखाई हो।
          श्री राय लिखते हैं, “ मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध ‘भारतीय मन और विश्वमन’ के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करने की कोशिश करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है। इस धर्म के निर्वहन और विषय के अनुरूप कुछ कम प्रचलित शब्दों का प्रयोग उनके साहित्य में देखने को मिलता है। इस बिना पर श्री राय साहब की भाषा के संबंध में यह प्रचारित कर दिया गया है कि वे प्राय: क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं । इसका निराकरण करते हुए उन्होने स्वयं लिखा है, “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। मेरे सम्पूर्ण साहित्य में इस कोटि के दो दर्जन से ज्यादा नहीं। इतना किसने नहीं किया है!.... मैंने जहां-2 ऐसा किया है वहाँ उसी वाक्य में या आगे उसका अर्थ खोलता गया हूँ। सच तो यह है कि आधुनिक पीढ़ी का अपनी विरासत और लोक से परिचय ही नाम मात्र का रह गया है। ऐसे दरिद्र शब्द-भंडार लेकर श्री राय के निबंध-कांतार की यात्रा दुर्गम तो होगी ही। श्री राय ने अपने एक निबंध ‘भाषा बहता नीर’ में भाषा को ‘एक प्रवहमान नदी’ ‘बहते हुए जल’ की संज्ञा दी जो बावन तोले पाव रत्ती सही है। दरअसल उनका यह कथन भाषा की बहुसमावेशक क्षमता की ओर संकेत करता है। भाषा का पाट जब चौड़ा होता है तब वह बहुत कुछ को अपने में समेटते-मिलाते हुए गतिमान होती है। इस प्रक्रिया में विवेक के साथ शब्दों का संग्रह-त्याग भी चलता रहता। दरअसल श्री राय ‘मन के दरिद्रीकरण या वंध्याकरण को ही रोकने के लिए नहीं प्रयास-रत थेभाषा के दरिद्रीकरण और वन्ध्याकरण को समाप्त करने के लिए भी उद्यत थे वे लिखते भी हैं,-मैं गाँव-गाँवनदी-नदीवन-वन घूम रहा हूँ । मुझे दरकार है भाषा की। मुझे धातु जैसी ठन-ठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए। मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषामुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा। मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषामुझे चाहिए काक-चक्षु जैसी सजग भाषामुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषामुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी ताल-प्रमाण झंप लेती हुई भाषामुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नत भाषामुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषामुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्स्ना में जंबुकों कें मंत्र पाठ जैसी बिफरती हुई भाषामुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीतगोसाईं जी के अयोध्याकाण्डऔर कबीर की ‘साखी’ जैसी भाषामुझे चाहिए गंगा-जमुना-सरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषामुझे चाहिए कंठलग्न यज्ञोपवीत की  प्रतीक हविर्भुजा सावित्री जैसी भाषा......।”  कहना न होगा कि उन्होने इसकी खोज लेखन के आरम्भ से ही शुरु कर दिया था  ।
          ललित निबंधों के माध्यम से पाठकों के  इतिहास-बोध  को परिष्कृत करना भी श्री राय का एक खास उद्देश्य रहा है। वे अपने ढंग से इतिहास-बोध की आवश्यकता का ही प्रतिपादन नहीं करते अपितु उसके समझने की प्रक्रिया को भी स्पष्ट रूप में सामने रखते हैं। उनकी दृष्टि में हम आज भी बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हुए हैं और हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को हम अपनी आँख से कम और विदेशी आँखें से अधिक देखने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे एक परिचित ने उनके इतिहास-विषयक निबंधों पर एक अनजान प्रश्न खड़ा करते हुए लिखते हैं- अन्य विधाओं की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई है। इसका कारण यह है कि वे साहित्य के स्थान पर इतिहास की ओर उन्मुख हो गए हैं। भाषा-विज्ञान और नृतत्वशास्त्र का सहारा लेकर उसमें कुछ इस तरह रमें हैं कि किसी दूसरी ओर देखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला है। इस कतर-व्योंत से उनका ललित लेखन भी प्रभावित हुआ है। ......अगर राय साहब हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की तरह अन्य विधाओं की ओर उन्मुख हुए होतेजिनकी उनमें क्षमता थीतो उनकी परिधि के रचनात्मक आयामों का बहुविध विस्तार हुआ होता और साहित्य की प्रकृति को और निकटता से वे समझ सके होते।’’ मुझे लगता है कि प्रश्नकर्ता हिन्दी साहित्य जगत की नैसर्गिक राजनीति के आतंक के साये से उबर नहीं पाया है। दरअसल श्री राय किसी की रिप्लिका बनने के पंड-श्रम से मुक्त चिंतक थे। उनकी चिंता ‘भारत’ की चिंता है। विधा सिर्फ एक माध्यम भर है, उस चिंता को व्यक्त करने की। यह मानी हुई बात है कि जिस भी जाति के प्रज्ञा-पुरुषों का इतिहास-बोध प्रखर नहीं होताजिनका अपने गतिशील सांस्कृतिक-दाय का बोध नहीं होता वह अंधश्रद्धा और परंपरा से ग्रस्त होकर जल्दी ही अवनति के गर्त में समा जाती है। इस बात से कौन अपरिचित है कि भारतीय संस्कृति के दाय को विकृत करने का प्रयास शताब्दियों से चलता आ रहा है। हमारे पूर्वज उन विपरीत परिस्थतियों में भी रहकर अपनी अस्मिता को बचाने में सफल रहे। पर आज की लड़ाई थोड़ी भिन्न है। अपने ही अन्दर के जयचन्दों ने स्वार्थ का ऐसा वितण्डावाद खड़ा कर दिया है कि उससे लड़ पाना मुश्किल हो रहा है। श्री राय ऐसे ही लोगों से लड़ते हुए ‘चिन्मय-भारत’ की तलाश में लगे थे। श्री राय की तो यह इच्छा है कि भविष्य में कोई ‘माई का लाल’ आगे बढ़कर भौतिक शास्त्र-जीव विज्ञान आदि अनुशासनों में भी ललित-निबंध लिखे । इस विस्तार तक जाने और उसकी वकालत करने की क्षमता उसी लेखक में हो सकती है जिसकी दृष्टि ‘मूल दृष्टि’ से ‘अभिसार’ करती हो। उन्होंने चेतावनी के स्वर में हमें आगाह किया, ‘‘अगली शताब्दी नए ढंग और नयी शब्दावली माँगती है। .......  भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय साहित्यकार के लिए वह आधार भूमि भारतीय प्रज्ञा की देशी जमीन ही हो सकती हैअन्य और कोई नहीं। ........ इसी से मैं यहाँ और अपने लेखन में अन्यत्र भी मूल की ओर लौटने की बात करता हूँमूल संश्लिष्ट होने की बात करता हूँ।’’
          श्री राय गांधीवादी चिन्तन से विशेष रूप से प्रभावित हैंऔर आज की अधिकांश समस्याओं के निदान के रूप में वे उसकी वकालत करते थे। घर-गृहस्थी से लेकर सुरसामुखी बेरोजगारी जैसे गंभीर विषयों पर पत्र-शैली में उन्होने पत्र मणिपुतुल के नाम से एक पुस्तिका लिखी है। अद्भुत पुस्तक है यह। इस पुस्तक में रस-शिल्प-सही हिन्दू-सत्य और विद्या माई से लेकर पांत के आखिरी आदमी की चिंता बहुत ही सरल शब्दों में की गई है।  एक चिट्ठी में वे लिखते है-अपनी चिंता करने के साथ ही महुआ के सूर्य,चंद्र की चिंता करो जिसे शताब्दियों पूर्व व्यवस्था के राहु ने चबा डाला था और जिसकी मनबुद्धि क्या शिरा-धमनी में भी अंधकार का महातमस प्रवाहित है। यहाँ महुआ जनता की प्रतीक है जो आज भी व्यवस्था के लॉकडाउन-चक्रव्यूह में फंसी पड़ी है। गांधी के हवाले से वह लगातार यह चिंता जाहिर करते रहें हैं कि हिंदुस्तान की समस्या का असली समाधान वृहदाकार यंत्र नहीं अपितु कुटीर उद्योग कर सकते हैं। यंत्र मनुष्य को सर्जक न रखकर एक पुर्जा बना डालते हैं जिसका कुप्रभाव बहुआयामी होता है जिसकी तरफ एक सदी पूर्व डॉ आनंद कुमारस्वामी ने भी इशारा किया था। श्री राय के लिए गांधी ‘भारतीयता’ के प्रतीक हैं। वह उनमें ‘राम जैसा होने’ और ‘बहुत कुछ सफल होने को’ देखता है। वे यह मानकर चलते हैं कि “एक दिन ऐसा कि सभी को सर्वोदय और गांधी की जरूरत अनिवार्य लगेगी।”
          पिछली सदी के छठे दशक में जब श्री राय लेखन-क्षेत्र के किनारे खद्दर-वेश में प्रवेश कर रहे थे तो उनके सामने था हिन्दी साहित्य जगत का वह विशाल क्षितिज जहां पश्चिमी साहित्यमार्क्सवादी साहित्य,संगठन शास्त्रवादियों की गिद्ध-मंडली शिकार की तलाश में मंडराती रहती थीं।  यह एक तथ्य है कि शस्य-श्यामला धरती पर श्री  राय को ‘अभिमन्यु की तरह इन सभी महारथियों से जूझना पड़ा है। क्षत-विक्षत होकर भी वे पराभूत नहीं हुए हैं। इसके अनेक कारण हैं जिसके विस्तार में यहाँ जाना संभव नहीं है। एक संकेत ही काफी है-सच पूछो तो मेरे अन्दर एक अविराम अविच्छिन्न समुद्र-मंथन चल रहा है। जबसे मैंने होश संभाला तभी से। मन ही मन्दराचल हैउसमें सर्पशिशुवत लिपटी मेरी कामना ही वासुकि हैऔर इन्द्रिय-इन्द्रियस्नायु-स्नायु में बैठे देवता और असुर अविराम मंथन में लीन हैं। इस मंथन द्वारा श्रीमणिरंभाशंखऐरावत और उच्चैःश्रवा तो कभी नहीं मिलेएकाध बूँद अमृत और जहर जरूर कभी-कभी मिला थावारुणी सदैव मिलती रही है। इसकी कमी नहीं हुई। फलतः मेरे जीवन में देवता तो प्रायः तृषित ही रह गएपरन्तु मन के रसातल में भैंसे की तरह मँड़िया मारते हुए असुरों ने छककर उस वारुणी का पान किया है और लगातार करते जा रहे हैं। अर्थात् इन असुरों की पुष्टि-तुष्टि के लिए ही मेरा जन्म हुआ।  श्री राय की बनावट ही अद्भुत है। उनको किसी की परवाह नहीं है। हार-जीत से वे ऊपर हैं-आखिर इतना प्रकाश ले कर क्या होगा ? अखण्ड प्रकाश और अखण्ड जागरण कितनी बड़ी यंत्रणा है। मैं तप्त और तृषित हूँ। मुझे अंधकार की तृषा हैघनघोर निद्रा की तृषा है। माना कि प्रकाश सुरक्षा है ज्ञान हैअमृत है- सब सही। पर इतना आलोकइतनी सुरक्षाइतना ज्ञान और इतना अमृत लेकर क्या होगा?”  उनके चिंतन का धरातल बड़ा उदात्त है । वे लिखते हैं-जीवन ही एक सलीब है जिस पर असहाय रूप में हम ठोंक दिए गए हैंअपने ही पापों की नहींऔरों के पापों की कीलों से भी। राजा-रंक सभी के कंधे पर क्रॉस हैपर बिरला ही ऐसा होता है जो औरों को पाप-मुक्त करने के लिएइस व्यथा को भोगता है। तब वह पुरुष नीलकण्ठ बन जाता है और यातना का रूपान्तर हो जाता है एक ज्योतिर्मय महिमा में। यह प्रतीक हमें शिक्षा देता है कि क्रॉस  तो ढोना ही हैजब जन्म लिया है तो इस नियति से नहीं बच सकतेपर इसे ऐसे ढोओ कि यातना महिमा बन जाय।’’ नीलकंठ बनने के आग्रही  श्री राय का रास्ता ही अलग है। उनकी पसंद ही कुछ और है-‘‘शोभा और श्रृंगार के प्रतीक इन पुष्पों के रहते हुए भी मैं नीम के पुष्प-गुच्छ का तिरस्कार नहीं कर पाता हूँ। ... नीम का मामूली फूल साहित्य की उस नयी विधा का प्रतीक हैजो समूची निराशा और पराजय का अतिक्रमण करके जीवन में जीने योग्य क्षणों के दानों को एक-एक करके चुन रही है।’’ इसलिए वे अविराम यात्रा पर अकेले चल पड़े हैं- ‘‘जन्म से मरण तक इस पंचभोग्या याज्ञसेनी सृष्टि का परिधान पर परिधान हरण करते जाओ, ‘स्व’ का दुःशासन थक जायगा परन्तु इसके भीतर का सार कहाँ हैपता नहीं।’’
          श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है। यह लगभग असामान्य घटना है। उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि उनकी कोई निजी लोभ या तृषा नहीं थी- ‘‘मैंने चतुर्दिक हँसती राका-निशि में किसी का हाथ पकड़कर कोई प्रतिज्ञा की थीपर क्षमाहीन अर्थव्यवस्था और शासनतन्त्र के बीच कुछ कर नहीं पाया और दमित कामना का पाप ढोता हुआ इच्छाओं के फूल जैसे शिशुओं की निरन्तर हत्या करता हुआ जी रहा हूँ।’’ लेकिन उनके निबंधों में पाठक बहुत महत्वपूर्ण है। पाठकों के लिए ‘मणि (भारतीयता के विशिष्ट आयाम) की खोज में घाट-घाट का पानी पीते रहे और इतिहास से ‘मधु’ निचोड़कर प्रस्तुत करते रहे। और अंत में एक दिन चुपचाप चले भी गए-‘‘मुझे जाना ही होगा क्योंकि कहीं कोई प्रेषित पति का रूप में हृदय पर नमस्कार मुद्रा में जुड़े बीस नखों के अक्षत और अपने नारियल युग्म लिए मेरी प्रतीक्षा करती होगी। जाना ही होगा क्योंकि यह काम रूपिणी सृष्टि कहीं भविष्य की मातृका बनकर तो कहीं भविष्य की प्रेमिका बनकर प्रतीक्षारत है। ......... मृगशिरा की दुपहरिया में  कोयल कूक जायेगीपर मैं नहीं रहूँगा।


      -डॉ मनोज राय
एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
डॉ मनोज राय



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