मैं यह लेख लिखने के लिए अपने कंप्यूटर पर जिस तकनीक का
सहारा ले रहा हूँ, वह गूगल
का ट्रांसलिट्रेशन सॉफ्टवेयर है। यह कई भारतीय भाषाओँ के लिए उपलब्ध है। इस तकनीक
में, मैं कोई शब्द रोमन लिपि में टाइप करता हूँ और वह देवनागरी में बदल जाता है।
इस तकनीक में एक सहूलियत यह भी है कि मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर उस लिखे गए रोमन
शब्द के पांच संभावित उच्चारण भी बतौर विकल्प उभरते हैं। इससे यह सुविधा रहती है
कि मैं अपनी जानकारी का सही वर्तनी वाला शब्द चुन लूँ और उसे लिखकर आगे बढ़ा लूँ।
यह लेख यूनिकोड में लिखा जा रहा है। इसका फायदा यह है कि यह सभी तरह के कम्यूटर
में सुपाठ्य है यानि कि इसे सहेजने/पढ़ने के लिए किसी अन्य सॉफ्टवेयर की आवश्यकता
नहीं है। मैं इससे पहले कृतिदेव के विविध फॉण्ट में लिखा करता था। और कभी कभी
देवनागरी नामक फॉण्ट में भी। हिन्दी के लिए कृतिदेव और देवनागरी विशेष तौर पर
डिजाइन किया गया सॉफ्टवेयर है। क्रुतिदेव के साथ दिक्कत यह थी कि इसका फॉण्ट वाला
सॉफ्टवेयर हर जगह नहीं मिलता था। तकनीक ने यह भी कर दिया है कि अगर आपका लेख कृतिदेव में है तो वह उसे आपके मनचाहे फॉण्ट में बदल देगा। मैं समझता हूँ कि
तकनीक के पचार-प्रसार ने हिन्दी को वैश्विक स्तर पर सुगम और सहज बना दिया है।
यह इसलिए है कि वैश्विक स्तर पर हिन्दी कई चुनौतियों से
रूबरू हो रही है। भारत जैसे देश में जहाँ भाषा को लेकर इतनी राजनीति और पेंच है,
वहाँ अपनी भाषा और लिपि को सुरक्षित रखना अपनी जिम्मेदारी है। बाजार का दबाव ऐसा
है कि वह एक समृद्ध परम्परा को लील जाने को तैयार है। यह महसूस किया जा रहा है कि
तकनीक के इस तरह आमजन में पैठ बना लेने ने तकनीक के बादशाहों को अपना खेल खेलने की
खुली छूट दे दी है। तकनीक के यह बादशाह निःसंदेह वे हैं, जो आर्थिक रूप से समृद्ध
हैं। इस खेल में एक बड़ा अध्याय लिपि और भाषा का है। इस खेल की राजनीति जानने वाले
इसे महसूस कर रहे हैं कि यह किस तरह हिन्दी भाषा और उसकी वैज्ञानिक लिपि देवनागरी
को नष्ट कर रहे हैं।
कंप्यूटर और अंतर्जाल के
आधुनिक समय में हिन्दी की स्थिति का आकलन करना एक जरूरी कदम है। हिन्दी में
कम्यूटिंग का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वास्तव में हिन्दी के कुछ अनाम
शुभेच्छुओं ने इसे लगातार विकसित करते रहने का सराहनीय काम किया है। हिन्दी में
कम्प्यूटिंग की शुरुवात १९८३ई० से मानी जाती है, जब पहलीबार ‘अक्षर’ और ‘शब्दरत्न’
का पदार्पण हुआ। १९८६ ई० में भारतीय भाषाओँ के लिए कंप्यूटर में कुंजीपटल भी मान
लिया गया। लेकिन १९९१ई० में यूनिकोड के आगमन ने भारतीय भाषाओं के लिए क्रान्तिकारी
काम किया। यह एक साथ देवनागरी, बंगला, गुरुमुखी, तमिल, कन्नड़, मलयालम और उड़िया
भाषाओँ के लिए कारगर था। इसमें प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष संख्या रहती है। अब
चाहे
कोई भी कम्प्यूटर प्लेटफॉर्म, प्रोग्राम अथवा कोई भी भाषा हो। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह था कि इस
कोड के आ जाने से किसी भी भाषा का टेक्स्ट पूरे संसार में बिना भ्रष्ट हुए चल जाता
है। यह सारे संसार में एक तरह से काम करता है। यूनिकोड को बालेंदु शर्मा दाधीच ने
विकसित किया था। आज दुनिया में तमाम लोग इन्टरनेट पर यूनिकोड का इस्तेमाल करते हैं
और हिन्दी समेत कई भाषाओँ के लिए यह जीवनदायी बन गया है। हिन्दी के टंकण और
कंप्यूटर पर इसके दोस्ताना सम्बन्ध विकसित करने की दृष्टि से यूनिकोड का महत्त्व
निर्विवाद है। वर्तमान में, हिन्दी, आधुनिक तकनीक के क्षेत्र में अंग्रेजी से
टक्कर ले रही है। आज अधिकांश मोबाइल फोन अपना सॉफ्टवेयर विकसित करते हुए इसका
ध्यान रख रहे हैं कि इसमें देवनागरी में लिखने-पढ़ने में सुविधा रहे। हिन्दी के
प्रचलन के दृष्टिकोण से वर्ष २००७ई० एक महत्त्वपूर्ण वर्ष है। एक आकलन में यह पाया
गया कि इंटरनेट पर चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद हिन्दी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा
प्रयोग की जाने वाली भाषा है। हिन्दी को
कंप्यूटर के क्षेत्र में सक्षम बनाने के क्षेत्र में जिन लोगों ने महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाई उनमें विनय छजलानी, हेमन्त कुमार, वासु
श्रीनिवास, बालेन्दु शर्मा दाधीच, देवेन्द्र पारख, अभिषेक चौधरी और डॉ॰
श्वेता चौधरी, कुलप्रीत सिंह, राघवन एवं सुरेखा, रमण कौल, रवि रतलामी
आदि का नाम प्रमुख
है।
हिन्दी में कम्प्यूटिंग आसान
हो जाने का एक लाभ यह हुआ है कि इस भाषा से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री इन्टरनेट
पर आने लगी है। कई एक किताबें सहज ही ई फॉर्म में उपलब्ध हैं और उन पुस्तकों को
यहाँ वहां ले जाना आसान हो गया है। कई संस्थानों ने शब्दकोश और थिसारस तक अपलोड कर
दिया है। हिन्दीसमय.कॉम ने तो एक बीड़ा उठाया है कि वह हिन्दी में मौजूद विश्व स्तर
की सामग्री को ई फॉर्म में पाठकों के लिए सुलभ कराएगी। हिन्दीसमय.कॉम भारत सरकार
के अधिनियम से स्थापित महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का एक
महत्वाकांक्षी उपक्रम है। वह इसे निरंतर कार्यान्वित करने में जोर-शोर से जुटी हुई
है। लगभग सभी प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र और पत्रिकाओं ने अपना URL विकसित कर रखा है
और उनको पढ़ने वाले समूचे विश्व में लोग मौजूद हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में
इन्टरनेट का योगदान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकेले हिन्दी में
चिट्ठाजगत पर १०००० से ज्यादा ब्लॉग पंजीकृत हो गए हैं। यह संख्या इस बात का संकेत
है कि हिन्दी ने तकनीक को किस खूबसूरती से अपना लिया है। हिन्दी के कई एक ब्लॉग तो
उम्दा साहित्यिक-सांस्कृतिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। हिन्दी के इन प्रमुख
ब्लॉगस में अनुनाद, सिताबदियारा, पहलीबार, बुद्धू-बक्सा, लिखो-यहाँ वहां, वांग्मय,
कॉफ़ी हॉउस, पढ़ते-पढ़ते, पाखी, भड़ास मीडिया, रेडियोवाणी, मेरा गाँव मेरा देश आदि
बहुत लोकप्रिय हैं। कई एक प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने सम्पादकीय पन्ने पर ब्लॉग
के स्तम्भ शुरू किये हैं। जनसत्ता द्वारा इस मामले में किया जाने वाला पहल सराहनीय
है। जनसन्देश टाइम्स भी इस दिशा में सराहनीय काम कर रहा है। इसके अलावा कई
पत्रिकाओं ने ब्लॉग से स्तम्भ शुरू किया है। पाखी और समकालीन सरोकार तो बाकायदा इस
दुनिया से मुद्दे लेकर बहस करते-कराते हैं।
तकनीक के साथ आसानी से
सामंजस्य बिठा लेने से एक फायदा यह भी हुआ है कि दुनिया के लगभग सभी विकसित एवं
विकासशील देशों ने अपने देश में मीडिया द्वारा हिन्दी में समाचार चैनल, समाचार के
ई फॉर्म में अखबार आदि छापना शुरू कर दिया है। वस्तुतः विश्व के सभी बड़े देश यह मानते
हैं कि हिन्दी में अपार संभावनाएं हैं। सबसे पहली तो यह कि यह दुनिया की सबसे
ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओँ में शुमार है और दूसरे यह कि इस तरह से यहाँ बाजार
की बड़ी संभावना है। यही कारण है कि भारत में प्रबंधन का गुण एवं पाठ पढ़ाने वाली कई
एक संस्थाएं हिन्दी में भी पाठ्यक्रम शुरू कर रही हैं और सफलतापूर्वक उसे
क्रियान्वित कर रही हैं। यह हिन्दी और तकनीक के आपसी तालमेल से संभव हो सका है।
इधर फेसबुक और ट्विटर जैसे
सोशल माध्यमों ने हिन्दी की ग्राह्यता बढ़ाई है। फेसबुक पर देवनागरी में लिखने वाले
लोग लाखों की संख्या में हैं। फेसबुक और ट्विटर ने लोगों को एक बेहतरीन मंच प्रदान
किया है। अपना अनुभव, रोजमर्रा का जीवन और त्वरित प्रतिक्रियाओं से लोग लगातार
वहां लिख-पढ़ रहे हैं और भाषा की स्वीकारता बढ़ा रहे हैं। हिन्दी वहां भी अपने
तकनीकी रूप में सफलता से काम कर रही है। अब इन माध्यमों में लिखने पढ़ने वाले लोग
अभिव्यक्ति के लिए देवनागरी की मदद ले रहे हैं और हिन्दी के प्रचार प्रसार में मदद
दे रहे हैं।
भाषा के विकसित होने और
भूमंडलीकरण के दौर में अन्य भाषाओँ की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यह आवश्यक
है कि हिन्दी तकनीक को बेहतर तरीके से अपनाए। देश के आजाद होने के समय यह संकट हिन्दी
के साथ बना हुआ था। वास्तव में, लेखन में तकनीक के हस्तक्षेप के बाद से ही यह
जरूरत महसूस की जाने लगी थी कि देवनागरी के वर्णों और मात्राओं को कम किया जाए
ताकि टंकण और मुद्रण में आसानी हो। देवनागरी इतनी वैज्ञानिक लिपि है कि उसमें किसी
तरह का भ्रम नहीं प्रकट होता। उच्चारण और लेखन दोनों स्तर पर। इसी को देखते हुए
काका कालेलकर द्वारा गठित एक आयोग ने यह अनुशंसा की थी कि इस लिपि के मात्राओं को
एक रूप कर दिया जाए। यथा ‘इ’ ‘ई’, ’उ’, ’ऊ’ की जगह अ पर ही इ, ई, उ, ऊ ए ऐ आदि की
मात्रा लगा दी जाए। आज भी गुजराती ने इसे अपनाया हुआ है। कम्प्यूटिंग ने नई तकनीक
विकसित करके इस गड़बड़झाले से उबार लिया है। अब हिन्दी में टंकण के इतने विकल्प
मौजूद हैं कि कोई कठिनाई ही नहीं रह गयी है। टंकण की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर
ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान ‘असगर वजाहत’ ने सुझाव दिया था कि हिन्दी को भी
रोमन लिपि में लिखा जाना चाहिए। इससे, उनका मानना था कि हमारी भाषा वैश्विक बन
सकेगी। अभी हाल में ही, नये जमाने के लुगदी साहित्यकार चेतन भगत ने भी देवनागरी की
बजाय रोमन में लिखने की वकालत की है। असगर वजाहत और चेतन भगत की इस अवधारणा का
चौतरफा विरोध किया गया है। वैसे भी तकनीक पर काम करने वाले विद्वानों ने हिन्दी को
देवनागरी में लिखने को इतना आसान बना दिया है कि यह सुझाव एक हास्यास्पद सुझाव बन
कर रह गया।
आज चौतरफा कम्प्यूटरीकृत समय
में यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी भाषा को इसके काबिल बनाएं ताकि यह वैश्वीकरण के
वातावरण में ढल सके। वास्तव में, हिन्दी को वैश्विक समाज में अपनी जगह बनाने के
लिए तकनीक की दुनिया से कदम मिलकर चलना होगा। तकनीक की यह पहुँच भाषा के लिए
संजीवनी का काम करेगी। जिस भाषा में इतना उच्च कोटि का साहित्य और विपुल मात्रा
में पाठक तथा बोलने वाले मौजूद हों उस भाषा का तकनीक से लैस होना अत्यंत आवश्यक है।
यह सुखद है कि हिन्दी के प्रति समर्पित कई एक विद्वान इस भाषा को वैश्विक स्तर पर
प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। जैसा कि ऊपर
बताया गया कि आज अंग्रेजी और चीनी के बाद हिन्दी सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली
भाषा है। इसमें अपार संभावनाएं हैं।
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