(आज 26 मार्च को आधुनिक भारत के ऋषि, ललित निबंधकार आचार्य कुबेरनाथ राय की जयंती है। वह एक भारतवादी चिंतक और भारतीयता के भाष्यकार थे। उनके जन्मजयंती पर पढ़िये यह आलेख)
साहित्य में गद्य की कसौटी निबंध को कहा
गया है। कसौटी का अर्थ है, परख करने वाला। वास्तव में सोने की शुद्धता
की जांच कसौटी पर की जाती है। इस लक्षणा से बेहतरीन, ललित और
सुगम गद्य की पहचान की कसौटी निबंध हैं। आचार्य कुबेरनाथ राय ने अगर उनके एकमात्र
कविता संग्रह ‘कंथामणि’ को छोड़ दिया
जाये तो सिर्फ एक विधा ‘निबन्ध’ को
अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनके निबन्ध लालित्य और पांडित्य का अद्भुत संगम
हैं। कई बार उनको पढ़ते हुए लोग उनकी पंडिताई से किंचित आक्रांत हो जाते हैं और
उनकी विद्वता को आतंकित करने वाला मानने लगते हैं, लेकिन यह
बात वही करते हैं जो उनके साहित्य की समुचित परख नहीं करते। आज जब निबन्ध और उसमें
भी ललित निबन्ध की विधा सबसे हाशिये की विधा हो गयी है और इसे लिखना सबसे दुष्कर तथा आउट ऑफ फैशन माना जाने लगा
है, तब आचार्य कुबेरनाथ राय योगदान को समझना, रेखांकित करना एक बहुत जरूरी काम बन जाता है।
आचार्य कुबेरनाथ राय का जन्म गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के मतसा नामक गाँव में आज के दिन 26 मार्च, 1935 को हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह
पहले नलबारी, असम और फिर गाजीपुर में उच्च शिक्षा में अध्यापन
की वृत्ति में रहे। 05 जून 1996 को गाजीपुर में अपने पैतृक आवास पर ही उनका
देहावसान हुआ।
आचार्य कुबेरनाथ राय आधुनिक भारत के
ब्रह्मर्षि थे। उन्होने मराल, प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद
बांसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, किरात नदी में चंद्रमधु, मनपवन की नौका, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु और रामायण महातीर्थम शीर्षक से निबन्ध संग्रह लिखे। उन्हें
भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त
उत्तर प्रदेश शासन से उनके निबंध संकलन प्रिया नीलकंठी, गंधमादन और विषाद योग
को भी पुरस्कृत किया गया था। उनके निबन्ध भारतीयता, सनातन
धर्म और विश्व बंधुता उच्च कोटि के दार्शनिक, साहित्यिक और
ललित भाष्य हैं।
अपने निबंधों में आचार्य कुबेरनाथ राय
ने वृहत्तर भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया है। उन्होंने ‘मनपवन की नौका’ में वृहत्तर भारत की
पहचान की है। वह प्राचीन भारत का विस्तार स्याम, जावा, सुमात्रा, मलाया, कम्बोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया तक रेखांकित करते हैं और इसका
साक्ष्य विभिन्न वाङ्मय और ऐतिहासिक उदाहरणों से प्रस्तुत करते हैं। वह तमाम ऐसे
द्वीपों के साक्ष्य रखते हैं, जहां भारतीयता की छाप है। उनका
मानना था कि भारतीयता एक संयुक्त उत्तराधिकार है जिसके रचनाकर आर्यों के अलावा
द्रविड़, निषाद और किरात हैं। उन्होंने भारतीय अवधारणा में
नगरीय सभ्यता, कला शिल्प, और भक्ति योग
जैसे तत्त्वों को द्रविड़ों की देन
माना है। अपने एक निबन्ध ‘स्नान : एक सहस्त्रशीर्षा अनुभव’
में वह लिखते हैं- “भोगों में स्नान और विद्याओं में दर्शनशास्त्र, इन दो
के प्रति इस जाति का घनघोर प्रेम की सीमा को पार कर गया है।
यह जाति प्रत्येक कर्म के पूर्व स्नान करती है और प्रत्येक कर्म के पीछे दार्शनिक
युक्ति खोजती है। इस स्नान प्रेम का मूल उद्गम वर्तमान भारतीय जाति
की आदि संस्कृति निषाद संस्कृति में है।
निषादों की स्नान शैली थी अवगाहन
अर्थात नदी या सरोवर में स्नान। द्रविड़ों
ने जन्म मज्जन-मार्जन को स्नानागारों
में स्थान दिया और स्नान का
रूप अवगाहन से
प्रक्षालन हो गया”।
वह स्थापना देते हैं कि “आर्यों की अग्नि उपासना अर्थात यज्ञ का रूपांतर हुआ 'हवन'।
निषादों और द्रविड़ों का स्नान प्रेम बना 'तीर्थ'। द्रविड़ों की भाव-साधना बनी 'कीर्तन' या 'भजन' और आर्यों की चिंतनशीलता बनी ‘दर्शन’। इस प्रकार
हवन-तीर्थ-कीर्तन-दर्शन के चार पहियों पर हिन्दू धर्म की बैलगाड़ी चल पड़ी और चलती
रहेगी निरन्तर”। वह मानते हैं कि आरण्यक शिल्प और कला संस्कारों में किरातों का मूल
है तथा आर्यों के मूल में निषाद हैं। वह मानते थे कि भारतीय धरती के आदिमालिक
निषाद ही थे। गंगा मूलतः निषादों की नदी है। गंगा शब्द भी निषादों की देन है।
आचार्य
कुबेरनाथ राय आर्य, किरात, निषाद और द्रविड़ सांस्कृतिक चिंतन के क्रम
में अपने वैष्णव होने को बहुत गहरे रेखांकित करते हैं। उन्होंने रामकथा को अपने लेखन का प्रमुख विषय बनाया था। वह मानते हैं कि “राम शब्द
के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना।
मेरे लेखन की एक दूसरी प्रमुख दिशा इसी राम की महागाथा से संयुक्त है। राम
मनुष्यत्व के आदर्श की चरम सीमा हैं। सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से बिलकुल अलग
तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्व है। पूर्ण भारतीय बनने का अर्थ है ‘राम’ जैसा बनना”। वह अपने को वैष्णव मानते हैं। वे स्वयं को तमोगुणी वैष्णव कहते हैं और
उनके मत में “मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अन्तर का हाहाकार।” उन्होंने
अपने क्रोध को सारे हिन्दुस्तान के क्रोध से जोड़ने की हिमायत की है। क्रोध वैसे तो
सुनने में आक्रान्त करता है, लेकिन रस दृष्टि से यह
वीरता का अनुषंगी है। और इस तरह से यह व्यापक सरोकार वाला साहित्य बन जाता है।
उनका मानना है- “तुलसीदास और समर्थ गुरु रामदास को
छोड़कर और किसी वैष्णव के मन में यह बात नहीं आई कि विनय, अभिमानहीनता और समर्पण भाव के साथ-साथ वीरता भी जरूरी है। बिना वीरता
के विनय दीनता का प्रतीक है। और इसी विनय ने चाटुकारिता को, इसी शुद्धता ने मानव निरपेक्ष व्यक्तिवाद को, इसी सात्विकता ने अज्ञान को हमारे नैतिक और व्यावहारिक जीवन में प्रवेश
कराया है। भारतीय जाति का चरित्र दूषित हो गया है।” वह कृष्ण की बजाय राम को पूर्णावतार मानते हैं। वह मानते
हैं कि “एस्थेटिक-एथिकल-स्प्रीचुअल तीनों स्तरों पर पूर्णता व्यक्त करने वाला
व्यक्तित्व ही पूर्णावतार है। इस दृष्टि से राम ही पूर्णावतार लगते हैं, कृष्ण नहीं”। वह रामायण को एक ऐसा मिथक
मानते हैं- जिसके केंद्र में सूर्य है। उनका एक निबन्ध ‘युग
संदर्भ में मानस’ उनकी विद्वता,
तर्कशीलता और विवेचन की विलक्षणता का अद्भुत उदाहरण है।
कुबेरनाथ राय ने अपनी अनुजवधू मणिपुतुल
को संबोधित करते हुए कुछ पत्र शैली में निबन्ध लिखे हैं। यह संग्रह गांधीवादी
चिंतन की विशिष्टताओं को उद्घाटित करता है। इसके निबंधों में उन्होंने गांधी के विभिन्न
पहलुओं पर ललित शैली में विचार किया है। ‘पाँत का आखिरी आदमी’, ‘शान्तम, सरलम, सुन्दरम’, ‘वह रसमय पुरुष थे’, 'स्वच्छ और सरल' आदि उसके विशिष्ट निबन्ध
हैं। उस संग्रह के आखिरी निबन्ध ‘वे एक सही हिन्दू थे’ में जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक हिन्दू बताते हैं और गांधी को ‘सही’ हिन्दू। वह कहते हैं कि गांधी में यह जो सद्भावना
है, इसके मूल में हिन्दू होना ही है। “यदि
गांधीजी हिन्दू न होते, या भारतीय न होते तो तो उनकी चिंता और
और कर्म पद्धति के अंग प्रत्यंग में ऐसी एकसूत्रता या ‘हारमनी’ नहीं आ पाती या आती भी तो यह भिन्न स्वरूप की होती। हिन्दू होने के कारण ही
उनकी चिंता पद्धति का रूप संकेंद्रित वृत्तों का है”। वह मानते हैं कि गांधीजी का समन्वयात्मक
दृष्टिकोण उनके सही हिन्दू होने का सुपरिणाम है।
आचार्य कुबेरनाथ राय के निबन्ध में लोक का
तत्त्व बहुत स्नेहिल तरीके से अंतर्गुंफित है। अपनी जमीन के प्रति यह संलग्नता उन्हें
बहुत आत्मीय निबंधकार और सच्चा भारतवादी बनाती है। विद्वता के साथ जमीनी जुड़ाव का यह
समंजन उनके निबंधों को ललित बनाता है। अपने निजी जीवन में भी वह बहुत हंसमुख और चुटीली
बात करने वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुबेरनाथ राय के निबंधों के मर्मज्ञ और गांधीवादी
विचारक डॉ मनोज राय ने एक बार उनके जीवन से जुड़े कई प्रसंग सुनाये थे। उन्होंने एक दिलचस्प प्रसंग साझा करते हुए बताया था कि उनके
एक सगे संबंधी ने उन्हें सलाह दी कि कुछ प्रातःकालीन भ्रमण आदि हो जाया करे ताकि शरीर
स्वस्थ रहे। तो उन्होंने कहा कि चिंतन प्रक्रिया में इतनी अंतर्यात्रा हो जाती है कि
बाहरी भ्रमण के लिए अवकाश नहीं रहता। उनकी अंतरयात्राएं बहुत मूल्यवान हैं। ‘कुब्जा-सुंदरी’ शीर्षक निबन्ध सहित कई निबंधों में इस अंतर्यात्रा के कई उदाहरण हैं। इस निबंध में वह प्रसिद्ध दार्शनिक निम्बार्काचार्य
के बारे में बताते हैं कि घने जंगल में वह सूर्य नमस्कार करने के लिए नीम के पेड़ पर
चढ़कर सूर्य का दर्शन करते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करते थे। उसका अनुचिंतन करते हुए
कुबेरनाथ राय अपने दरवाजे पर लेटे हुए नीम के तने के बीच की जगह से चंद्रमा का दर्शन
करते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
आज उनकी जन्मजयंती पर इस भारतवादी विचारक
को प्रणाम!
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डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उ०प्र०
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर लेख और ज्ञानवर्धक जानकारी.
बहुत धन्यवाद आपका। जुड़े रहें।
बहुत ही सरलतम एवं सुंदर ढंग की प्रस्तुति कि आपने अपने इस लेख में बहुत अच्छा लगा हमे आपके इस लेख को पढ़कर अच्छी जानकारी दी है।
kubernath rai ki smriti ko naman! thanks kathavarta.
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