-डॉ रमाकान्त राय
वर्तमान समय में
समूचा विश्व एक विशेष किस्म की महामारी से जूझ रहा है। इसका नाम कोविड_19 रखा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड_19 को वैश्विक महामारी घोषित किया है। कोविड_19 तीन
शब्दों का एक संक्षिप्त नाम है- को का आशय है- कोरोना, वि का
अर्थ वायरस और डी से अभिप्राय डिजिज़ है। इस प्रकार यह कोरोना वाइरस डिजिज़ है। इसका
पता 2019 के दिसंबर में लगा इसलिए इसमें 19 भी जुड़ा है। सबसे पहले वैज्ञानिकों ने
यही परिलक्षित किया कि यह फ्लू का ही एक प्रकार है। फ्लू का अन्य रूप स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इन्फ़्लुएंजा आदि भी है। खांसी जुकाम भी
एक किस्म का फ्लू ही है। कोविड_19 की एक विशेष बात यह है कि
यह एक संक्रामक व्याधि है। संक्रामक व्याधि उसे कहते हैं जो संक्रमण करते हुए एक
दूसरे को चपेट में लेता है। हैजा, चेचक, फ्लू , मलेरिया आदि संक्रामक व्याधियाँ हैं। यह
व्याधियाँ किसी प्रोटोजोआ, कवक, जीवाणु
अथवा विषाणु के माध्यम से फैलती हैं। अपने संक्रामक चरित्र के कारण यह व्याधियाँ
महामारी का रूप धारण कर लेती हैं।
फ्रांसीसी साहित्यकार अल्बेर कामू का
बहुत प्रसिद्ध उपन्यास ‘प्लेग’ है। यह प्लेग
महामारी पर आधारित है। इसी प्रकार रूसी उपन्यासकर अलेक्षान्द्र कुप्रिन ने ‘गाड़ी वालों का कटरा’ नाम से उपन्यास लिखा है जिसमें
यौन संक्रामक बीमारी की विभीषिका वर्णित है। हिन्दी साहित्य में महामारी का उल्लेख
कई प्रसिद्ध रचनाओं मे हुआ है। हिन्दी की पहली आत्मकथा मानी जाने वाली बनारसी दास
जैन की “अर्धकथानक” में लेखक के महामारी
से ग्रस्त होने का प्रसंग आया है। हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों मे परिगणित की
जाने वाली मास्टर भगवान दास की कहानी ‘प्लेग की चुड़ैल’ तो प्लेग की महामारी पर ही आधारित है। यह कहानी सन 1902 में सरस्वती
पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में गाँव में प्लेग का प्रकोप फैलने और
लोगों के भय, आशंका, डर और अमानवीयता
का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। यह कहानी हालांकि घटना प्रधान है और चमत्कार के
प्रभाव से आगे बढ़ती है लेकिन प्लेग महामारी से लोगों में उपज रहे डर और उसकी विभीषिका
को यह बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करती है।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में दो छोटे-छोटे अध्याय महामारी को केन्द्रित कर लिखे हैं। जब वह दक्षिण अफ्रीका के
जोहानिसबर्ग में थे तब फेफड़ों की बीमारी प्लेग का प्रकोप हुआ था। गांधी जी ने इस
व्याधि से ग्रस्त लोगों की सेवा शुश्रूषा शुरू की। उनके देखभाल की परिधि में कुल
तेईस लोग थे। इनमें 21 काल कवलित हुए थे। गांधी जी ने अङ्ग्रेज़ी सरकार द्वारा
महामारी से बचाव के लिए पैसा पानी की तरह बहाये जाने का उल्लेख किया है और महामारी
के समाप्त हो जाने पर उस लोकेशन की होली करने की बात लिखी है, जहां यह महामारी थी। इस क्रम में म्यूनिसपैलिटी को इस होली में लगभग दस
हजार पौंड का नुकसान हुआ।
1918-19 में
इन्फ़्लुएञ्जा नामक महामारी का प्रकोप भारत में हुआ। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने
1939 में प्रकाशित अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्ली भाट’ में इस महामारी के प्रकोप का कारुणिक वर्णन किया है। परिवार के लोगों के
एक-एक कर मरने, गंगा नदी में बहती
लाशों का विवरण रोंगटे खड़ा कर देता है। इसी महामारी में उनकी पत्नी का भी देहांत
हुआ। उनके उपन्यास “अलका” का आरंभ भी एक महामारी के वर्णन से होता है। “महासमर का
अंत हो गया है, भारत में महाव्याधि फैली हुई है। एकाएक
महासमर की जहरीली गैस ने भारत को घर के धुएँ की तरह घेर लिया है, चारो ओर त्राहि त्राहि, हाय हाय – विदेशों से, भिन्न प्रान्तों से जितने यात्री रेल से रवाना हो रहे हैं, सब अपने घरवालों की अचानक बीमारी का हाल पाकर। युक्त प्रांत में इसका और
भी प्रकोप, गंगा, यमुना, सरयू, बेतवा, बड़ी-बड़ी नदियों
में लाशों के मारे जल का प्रवाह रुक गया है। .... गंगा के दोनों ओर दो-दो तीन-तीन
कोस दूर तक जो मरघट हैं, उनमें एक-एक दिन में दो-दो हजार तक
लाशें पहुँचती हैं। जलमय दोनों किनारे शवों से ठसे हुए, बीच
में प्रवाह की बहुत ही क्षीण रेखा, घोर दुर्गंध, दोनों ओर एक-एक मील तक रहा नहीं जाता। जल-जन्तु,
कुत्ते, गीध, सियार लाश छूते तक नहीं”।
महामारी का यह वर्णन रोंगटे खड़े कर देता है। इस रचना में बड़ी संख्या में हुई मौतों
का कारुणिक वर्णन है।
फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास “मैला आँचल” में मलेरिया का मार्मिक वर्णन है। मेरीगंज का नाम जिस मार्टिन की पत्नी मेरी के नाम पर पड़ा है, उसकी मृत्यु मलेरिया ग्रस्त होने से हुई। मार्टिन इस आघात के बाद मेरीगंज में डिस्पेन्सरी खुलवाने के लिए बहुत प्रयास करता है। समूचे उपन्यास में मलेरिया और कालाआजार नामक बीमारियों का अनेकश: उल्लेख है और डॉ प्रशांत उससे मुक्ति के लिए शोधरत है। वह इसमें कुछ हद तक सफल भी होता है हालांकि यह अलग बात है कि वह अपने अनुसंधान में एक अन्य ही व्याधि की तरफ संकेत करता है- “गरीबी और जहालत- इस रोग के दो कीटाणु हैं। एनोफिलीज़ से भी ज्यादा खतरनाक, सैंडफ़्लाइ (कालाआजार का मच्छर) से ज्यादा जहरीले हैं यहाँ के...”। महामारी को केन्द्रीकृत करके फणीश्वर नाथ रेणु ने “पहलवान की ढोलक” शीर्षक से एक कहानी लिखी है। यह कहानी दिसंबर 1944 में साप्ताहिक विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में समूचे गाँव में ‘पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे’ के प्रकोप का वर्णन किया गया है। इस वज्रपात के कारण समूचे गाँव में लोग काल कवलित होने लगे थे। जब पहलवान के दोनों बेटे भी एक दिन हैजे की भेंट चढ़ जाते हैं तो भी पहलवान गाँव वालों को ढाढ़स बंधाने के लिए रात-रात भर ढोलक बजाता रहता है लेकिन एक सुबह पहलवान की चित लाश मिलती है। उसके ढोलक को सियारों ने फाड़ डाला था और पहलवान की जांघ भी काट खाया था। यह कहानी महामारी की विभीषिका में पहलवान की जीवटता का बेहतरीन आख्यान है।
हिन्दी में कमलाकांत त्रिपाठी ने अपने
तीन उपन्यासों- पाहीघर, सरयू से गंगा और तरंग में महामारी को कथानक
का अंग बनाया है। ‘पाहीघर’ और ‘सरयू से गंगा’ में हैजे से गाँव के गाँव नष्ट हो
जाने की बात कथानक का अंश बनकर आई है तो ‘तरंग’ में सन 1896 में फैले प्लेग को एक फ्लैश बैक के रूप मे याद किया गया है। ‘पाहीघर’ उपन्यास में गुरुदत्त बैशाख के एक दिन
भीलमपुर से हैजा लेकर लौटते हैं और अपने डेरे पर आकर दम तोड़ देते हैं। हैजा इस कदर
संयुक्त प्रान्त में जानलेवा हो गया था कि उससे हुई मृत्यु पर रोना वर्जित था।
ग्रामवासियों में दस्तूर था कि हैजे की लाश जलायी नहीं जाएगी।राष्ट्रीय सहारा के सामयिक में प्रकाशित
राही मासूम रज़ा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “आधा
गाँव” में गंगौली में फैली चेचक का जिक्र किया है। शहर से लौटा मासूम जब मुमताज़ को
देखने जाता है तो उसे बताया जाता है कि मुमताज़ को ‘माता’ निकल आई हैं। यह माता चेचक का ग्रामीण संस्करण है। चेचक भी एक महामारी की
तरह ही आई और देश में रही। मुमताज़ को चेचक निकल आई हैं तो घर भर में उससे बचाव के
लिए प्रयास किए जा रहे हैं। मरीज से किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा, फुन्नन मियां नीम की टहनी से हवा कर रहे हैं और घर की रसोई बहुत सादा
भोजन वाली हो गयी है क्योंकि रुकय्ये की शिकायत है कि “चार दिन से तरकारी खाते
खाते नाक में दम आ गवा है”।
इन साहित्यिक कृतियों में एक बात ध्यान
देने योग्य है कि सबमें यह महामारी किसी न किसी रूप में ‘बाहर’ से आई होती है। जान-माल की बेतरह
क्षति के बाद यह महामारी अपना प्रकोप तभी समेटती है जब मौसम बदल जाता है। इन
व्याधियों के आगमन से गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं। महामारी के फैलने पर समाज
में इससे लड़ने का कोई कारगर उपाय नहीं है। लोग देसी उपचार करते हैं और कई बार सफल
भी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की आत्मकथा से पता चलता है कि संक्रामक बीमारी के
प्रकोप से बचाने के क्रम में बहुत खर्चीला उपाय किया जाता था। महात्मा गांधी ने
देसी उपाय कर ही दो बीमारों को प्लेग के प्रकोप से बचा लिया जबकि आधुनिक चिकित्सा
पद्धति का उपयोग करके सभी बीस मरीज बचाए नहीं जा सके। उनकी सेवा शुश्रूषा में रत
नर्स भी इस संक्रमण और ब्राण्डी का सेवन करने के बावजूद बचाई नहीं जा सकी। एक अन्य
महत्त्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए अपनी बात समाप्त करूंगा। जिन भी
रचनाओं का उल्लेख इस आलेख में किया गया है उसमें अधिकांश औपन्यासिक रचनाओं के आरंभ
में ही महामारी के प्रकोप का वर्णन है- यह इसलिए कि महामारी एक जीवन के अन्त की
घोषणा और दूसरे जीवन के आगमन की उम्मीद का नाम है। कोविड_19
का यह नवीनतम संस्करण भी इसी तरह के एक नए जीवन की उम्मीद का अध्याय बनेगा।
-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उ०प्र०
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