रविवार, 10 जुलाई 2022

हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते और कट्टरता

 - डॉ रमाकान्त राय

    वर्तमान समय में हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच एक विशेष सम्बन्ध देखने को मिल रहा है, जहां मुस्लिम कट्टरता के प्रत्युत्तर में एक उग्र नवहिन्दू स्वर है। भारत में इस तरह का व्यवहार सर्वथा नया है। हिन्दू समाज बहुत सहिष्णु समाज के रूप में जाना जाता रहा है, जो अपने साम्प्रदायिक प्रतीकों और मान्यताओं पर किए जाने वाले प्रहार को बहुत सहजता से झेलता रहा है। इसके पीछे उच्च और समृद्ध ज्ञान-विज्ञान तथा समावेशी जीवन दर्शन प्रमुख कारक तो रहा ही है, लंबे समय से केंद्रीय सत्ता से दूरी से उपजी दासता भी इसके लिए बराबर ज़िम्मेवार रही है। गुजरात के गोधरा नरसंहार के बाद एक विशिष्ट भाव-भंगिमा देखी गयी है। बीते दिन नूपुर शर्मा से संबन्धित विवाद में भी दुनिया भर के लिए अनपेक्षित था कि कोई इस प्रकार उग्र और कटु वचन व्यक्त करेगा। इससे समाज में एक नयी बहस चली है और दोनों समुदायों में कट्टरता पर विमर्श होने लगा है। हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों और सामुदायिक कट्टरता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए।

ऐतिहासिक सम्बन्ध और कट्टरता का स्वरूप-

          भारत के पश्चिमी तट पर इस्लाम के उदय देश अरब के समुद्री मार्ग से आनेवाले व्यापारी अच्छा व्यवसाय करते थे। काली मिर्च और चन्दन का निर्यात होता था और अरब में पाये जाने वाले उत्कृष्ट कोटि के घोड़े की भारत में बहुत मांग थी। जब अरबों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया तो उनके व्यवहार और उद्देश्य में बदलाव देखा गया। वह राजनीतिक और सांप्रदायिक शक्ति के विस्तार के लिए उद्धत दिखने लगे। राजनीतिक रूप से सबसे पहले सन 656ई0 में खलीफा उमर के शासनकाल में मुंबई के निकट थाणे पर आक्रमण हुआ जिसमें अरब पराजित हुए और खदेड़ दिये गए। पराजित होने के बाद भी अरब साम्राज्य विस्तार में लगे रहे और 712 ई0 में उन्हें सबसे पहले मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में सफलता मिली, जब उन्होंने सिंध के शासक दाहिर को हराया। दाहिर की सेना बहादुरी से लड़ी। उनकी पत्नी ने भी संघर्ष किया किन्तु पराजित हुए। कासिम ने संपत्ति लूटने के बाद सिंध के निवासियों को इस्लाम अथवा मृत्यु में से एक चुनने के लिए बाध्य किया। सामान्य जन के साथ इस्लाम का यह पहला संपर्क था। बड़ी संख्या में लोगों ने मृत्यु का वरण किया।

          नवीं सदी में केरल के मालाबार का राजा चेरामन पेरूमल को धोखे से मुसलमान बना दिया गया। उसने अरबों को धर्म प्रसार के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान कीं। जामोरिन के शासनकाल में तो धीवर (जुलाहा) परिवार के लिए शासनादेश आया कि घर का एक व्यक्ति इस्लाम अवश्य स्वीकार करे। फिर तो राजनीतिक संरक्षण में मस्जिद आदि का निर्माण होने लगा। पीर-औलिया आदि अस्तित्व में आ गए। उनका एकेश्वरवाद और भेदभाव रहित समाज की संकल्पना वाला सम्प्रदाय अपने दर्शन से प्रभावित भी करने लगा। इस्लाम और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। अरबों के काम को तुर्कों ने आगे बढ़ाया और व्यवस्थित तरीके से पूर्ण किया। तुर्क आक्रमणकारी सुबुक्तगीन और महमूद गजनवी ने भारत में इस्लाम के लिए राजमार्ग बनाया। महमूद गजनवी के अत्याचार की कहानियाँ तो किंवदंती हैं। उसने सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर को लूटा और अकूत धन लेकर गया। तुर्कों का एक अन्य शक्तिशाली आक्रमण मुहम्मद गोरी ने किया और तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराया। यह विजय भारत में मुसलमानों के स्थायी शासन की शुरुआत थी। यहीं से दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी जिसे मुगलों ने और अधिक मजबूत किया।

सस्कृतिक विस्तार और भागीदारी-

          हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों में राजनीतिक विस्तार सबसे महत्त्वपूर्ण घटक है। केंद्रीय सत्ता की स्थापना के बाद इन सम्बन्धों में अधिक निकटता हुई। फिर सांस्कृतिक विस्तार अधिक प्रभावी बना। मुगल बादशाहों ने हिन्दू परिवारों में वैवाहिक सम्बन्ध बनाए। जन्माष्टमी, होली-दीपावली आदि उत्सवों में सहभागिता की तथा भारतीय धर्म-दर्शन आदि को समझने के लिए गंभीर प्रयास किए। धर्मग्रंथों का अनुवाद हुआ और उनके संरक्षण आदि पर ध्यान दिया। राजनीतिक संरक्षण में विदेश से आया एक समुदाय तेजी से अपना विस्तार करता रहा। सूफी, संत और फकीर तथा औलिया विभिन्न माध्यमों से हिंदुओं के संपर्क में आते रहे। इस्लाम एक विशेष कट्टर सोच के साथ चल रहा था तो सूफी-पीर-औलिया उसमें प्रेम का रस भरने का प्रयास कर रहे थे। चूंकि केंद्रीय सत्ता उनका संरक्षण कर रही थी इसलिए उनकी कट्टरता को स्वाभाविक माना जा रहा था। तैमूर, नादिरशाह, औरंगजेब आदि आक्रमणकारी/शासक की गतिविधियां शासकीय क्रूरता मानकर निबाही जा रही थीं। हिन्दू भी पराजित जाति की तरह इसे सहने के लिए बाध्य थे।

अंग्रेजों का आगमन और सांप्रदायिकता-

          18वीं सदी में जब केंद्रीय सत्ता पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने लगा तो हिन्दू और मुस्लिम समाज में एक नए सम्प्रदाय का प्रवेश हुआ। यह ईसाई थे। कायदे से तो सामाजिक स्तर पर क्लेश ईसाई और हिन्दू-मुसलिम समुदाय में होना चाहिए था किन्तु अंग्रेजों की चतुराई और फूट डालो, राज्य करो के क्रियान्वयन में यह सांप्रदायिक भाव हिन्दू और मुसलमानों में सतह पर दिखने लगा। अंग्रेज़ निरंतर इसे प्रज्ज्वलित करते रहे और इन दोनों समुदायों के बीच जो खाई थी, उसे ठीक से खोदकर रख दिया। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय में एक बड़ा अंतर समाज के खुलेपन से जुड़ा था। मुस्लिम समाज हद दर्जे तक बंद समाज था। अपने धर्म की रक्षा के अनुक्रम में केंद्रीय सत्ता से विहीन हिन्दू भी कछुआ धर्म अपना रहे थे, तथापि उनका समाज बहुत खुला और उदार था। इसाइयों को अपने विस्तार के लिए यह समुदाय सॉफ्ट केक की तरह मिला। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने अपने सम्प्रदाय के विस्तार के लिए हिन्दू और मुसलमान समुदायों के विभेद को हवा दी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की स्थापना को प्रोत्साहित किया और सांप्रदायिकता के बीज बोये। अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह भाव बहुत गहराई तक पैठा हुआ है।

उदारीकरण की विसंगतियाँ-

          विगत कुछ सालों से, उदारीकरण के बाद, जब से पूंजी का स्वरूप आवारा किस्म का हुआ है, इसने दुनिया के दूसरे देशों को सांप्रदायिक आधार पर प्रभावित करना शुरू किया है। जब से शक्ति विस्तार में मूलतः सांप्रदायिक चेतना को पाया गया है, तब से हिन्दू-मुसलमान सम्बन्धों में एक नया मोड़ दिखाई देने लगा है। दुनिया लगभग दो ध्रुवीय हो गयी है। ईसाइयत और इस्लाम का द्वंद्व बहुत तेजी से दुनिया में फैला है। इससे अलग साम्प्रदायिक पहचान रखने वाले समाज तीसरी दुनिया के समाज हैं। अमेरिका के खाड़ी के देशों पर आक्रमण के बाद से यह ध्रुव बहुत स्पष्ट देखे गए हैं। ईसाइयत का केंद्र वेटिकन है और इस्लाम का अरब अथवा तुर्की। भारत में मैकाले की शिक्षा नीति के बावजूद हिन्दू समुदाय विविध तरीके से अपने को बचाने की कोशिश में संलग्न है।

रिश्तों का वर्तमान और भविष्य-

          लंबे समय से सत्ता से च्युत समुदाय पहली बार मुखर होने के लिए छटपटा रहा है। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के आरोप से दो चार हो रहा है, अपनी अस्मिता और प्राचीन धरोहरों के लिए एकत्र हो रहा है और स्वयं का ध्रुवीकरण कर रहा है। इस ध्रुवीकरण से एक संकीर्णता उदित हुई है जिससे आपसी सम्बन्ध की कटुता सतह पर आ गयी है। देश और दुनिया में बीते दिनों हुए कई घटनाक्रमों ने हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के एक नए युग में प्रवेश की पटकथा रच दी है जो दोनों समुदायों में अधिक कट्टरता, विभेद और संघर्ष की तरफ ले जाएगी।

राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में 
 राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में आलेख का लिंक


असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

पंचायत राज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावा

9838952426

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

वर्तमान के परिदृश्य में प्रासंगिक विवेचना करता सारगर्भित उत्तम लेख है।

सद्य: आलोकित!

सच्ची कला

 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है। सुनिए।

आपने जब देखा, तब की संख्या.