आमिष : मानस शब्द संस्कृति |
गीध अधम खग आमिष भोगी। |
#मानस_शब्द #संस्कृति
आमिष : मानस शब्द संस्कृति |
गीध अधम खग आमिष भोगी। |
#मानस_शब्द #संस्कृति
पूर्णकाम: मानस शब्द संस्कृति |
पूरनकाम राम सुख रासी।
मनुज चरित कर अज अबिनासी।।
जो सब कुछ पा चुके हैं, जिनकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो गई हैं, वे श्रीराम सुख की राशि हैं। यह दुर्लभ स्थिति है।
नागार्जुन की बहुत प्रसिद्ध कविता है, उन्हें प्रणाम। इस कविता में उन्होंने लिखा -
"जो नहीं हो सके #पूर्णकाम
उन्हें प्रणाम।"
यह कविता सामान्य जन का अभिवादन करती है इसलिए प्रगतिवादी मानी जाती है। आधुनिक युग ने यह बोध दिया है कि पूर्णकाम होना मनुष्य की असफलता नहीं है। उसकी नियति है और यह स्वीकार कर लेने के बाद कोई हीन भावना नहीं रहती।
तुलसीदास जी श्रीराम को सदैव पूर्णकाम, सुख सागर, भक्त वत्सल, प्रणतपाल आदि कहते रहते हैं। यह ईश्वर की विशेषता है। श्रीराम जो अजन्मा और अविनाशी हैं, वह मनुष्य का अवतार लेकर लीला कर रहे हैं, #मर्यादा की स्थापना कर रहे हैं।
#मानस_शब्द #संस्कृति
श्रीफल : मानस शब्द संस्कृति |
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं।
#मानस_शब्द #संस्कृति
°
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरंश्चरैवेति ॥
[शयन की अवस्था कलियुग के समान है, जगकर सचेत होना द्वापर के समान है, उठ खड़ा होना त्रेता सदृश है और उद्यम में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग/सत्ययुग के समान है । अतः तुम चलते ही रहो!]
उज्जैन |
°
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगश्चरैवेति ॥
[जो मनुष्य बैठा रहता है उसका सौभाग्य भी रुका रहता है। जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है। जो शयनरत रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है। और जो विचरण करता है उसका सौभाग्य भी चलने लगता है। अतः तुम चलते ही रहो!]
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ऐतरेय ब्राह्मण, तृतीय अध्याय
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Chintha Chettu is Tamarind tree in Telugu. Chintha is Tamarind and Chettu is tree.
now read the lesson.
Chintha Chettu
Chintha Chettu is a tamarind tree.
This famous tamarind tree is in Gwalior.
It grows over Tansen’s tomb.
Tansen was a great singer.
People in Gwalior say:
"Eat the leaves of this tamarind tree
And you’ll also sing like Tansen!"
म्लेच्छ : मानस शब्द संस्कृति |
गीधराज सुनि आरत बानी।
रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हें जाई।
जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।
#मानस_शब्द #संस्कृति
लक्ष्मण रेखा : मानस शब्द संस्कृति |
बचन जब सीता बोला।
हरि प्रेरित लछमन मन डोला।।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू।
चले जहां रावन ससि राहू।।
स्वर्णमृग के आर्तस्वर को सुनकर सीता जी ने लक्ष्मण को मर्म वचन कहे। लक्ष्मण सीता को "वन और दिशाओं को सौंपकर" श्रीराम की सुधि लेने गए।
यहां लोक में #लक्ष्मणरेखा की चर्चा मिलती है। वह रेखा जिसे लक्ष्मण खींच गए थे और कहा था कि इसे पार नहीं करना है। जिसे रावण पार नहीं कर सकता था।#श्रीरामचरितमानस में यह युक्ति अथवा पद नहीं है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
पञ्चवटी : मानस शब्द संस्कृति |
पावन पंचवटी तेहि नाऊँ।।
दंडकारण्य में गोदावरी नदी तट पर पांच विशाल वट वृक्ष वाले स्थान का नाम #पञ्चवटी है। यहीं गीधराज जटायु से भेंट हुई। यहीं सूपनखा आई और फिर स्वर्णमृग, मारीच वध तथा सीता हरण हुआ। यह स्थान श्रीराम के जीवन में बड़े उतार चढ़ाव की भूमि है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
ज्ञान : मानस शब्द संस्कृति |
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।
देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
ज्ञान क्या है? दुनिया की सभी सभ्यताओं में इसके अभिलाषी हैं। #श्रीरामचरितमानस में कहा गया है कि #ज्ञान वह है जहां मान, दंभ, हिंसा, टेढापन आदि एक भी दोष न हो और जो सबमें समानरूप से ब्रह्म को देखता है।
श्रीमद्भागवतगीता में मनुष्य के 18 दोष गिनाए गए हैं। इन दोषों से मुक्त होना ही #ज्ञान है। जो भी इन दोषों से मुक्त हो जाता है, परमपद को प्राप्त हो जाता है। इस निमित्त इंद्रिय निग्रह के लिए कहा गया है। नित्य अध्यात्म की स्थिति को चुनना और तत्त्व को जानना होता है।
#संस्कृति
#मानस_शब्द #संस्कृति
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता हैं । हम जब किसी आदमी को पल्ले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं । गधा सचमुच बेवकूफ हैं, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी हैं, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता । गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती हैं । कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर हैं, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ जाता हैं, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना । जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा । उसके चहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुःख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गये है, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता हैं। सद् गुणों का इतना अनादर कहीं नहीं देखा। कदाचित् सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं हैं। देखिये न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है। क्यों अमरीका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता हैं, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे ईट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल सामने हैं । एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया।
लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी हैं, जो उससे कम गधा हैं और वह है बैल । जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताउ' का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं हैं। बैल कभी-कभी मारता भी हैं और कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता हैं। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।-- प्रेमचंद। दो बैलों की कथा में.
अमिताभ बच्चन द्वारा गुजरात वाइल्ड लाइफ सेंचुरी में गधों का प्रचार इससे बहुत प्रभावित है और माननीय मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बयान किससे प्रभावित है, आप तय करें। मेरी अपील है कि उनसे मुनासिब बेरहमी से पेश आयें।
तीसरा स्थान यू नो.....
नंदीग्राम : मानस शब्द संस्कृति |
नंदिगावँ करि परन कुटीरा।
कीन्ह निवास धरम धुर धीरा।।
#चित्रकूट से #चरणपीठ लेकर भरत जब लौटे तो उन्होंने नियमपूर्वक रहने का निश्चय किया। इस निमित्त उन्होंने जहां अपनी #पर्णकुटी बनाई, उस स्थान का नाम #नन्दिग्राम था। विगतवर्षों में बंगाल के इस गांव की चर्चा है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
चरणपीठ अथवा खड़ाऊं |
जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के।।
जो #चरणपीठ अर्थात #खड़ाऊं श्रीराम ने भरत को दिए वह जैसे समस्त प्रजाजन के लिए पहरेदार थे। पांव की सुरक्षा के लिए पहना जाने वाला एक विशेष प्रकार की पनही, चप्पल #खड़ाऊं है। यह लकड़ी का बनता है। सुपरिचित है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
दुघड़िया: मानस शब्द संस्कृति |
दुघरी साधि चले ततकाला।
किए बिश्राम न मग महिपाला।।
#मानस_शब्द #संस्कृति
ईति भीति : मानस शब्द संस्कृति |
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी।
त्रिविध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।
तुलसीदास जी ने बताया है कि #ईति_भीति से प्रजा दु:खी हो जाती है! अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहों का उत्पात, टिड्डियों का हमला, तोतों की अधिकता और दूसरे राजा का आक्रमण- खेतों को क्षति पहुंचाने वाले छ: उपद्रव ईति हैं। तीनों ताप, आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक; क्रूर ग्रहों का दोष और महामारियों से पीड़ित प्रजा। दुःख के कई प्रकारों का उल्लेख है।
इनका भय दु:खद है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
वल्कल : मानस शब्द संस्कृति |
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा।
जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा।।
श्रीराम का वस्त्र उनका #वल्कल है, सिर पर जटा है और श्यामल देह (जैसा भरत ने देखा)। ऐसा प्रतीत होता है कि कामदेव और रति ने मुनिवेश धारण किया है।
त्वचा का दूसरा नाम वल्कल है। इसका अपभ्रंश है बोकला। छिलका।
श्रीराम वनवासी हैं तो उनकी त्वचा ही उनका वस्त्र हो गई है। यह स्वाभाविक ही है। सिर पर बरगद के दूध से जो केश बांधा था, वह जटा अब जटिल हो गई है। लट सुलझने योग्य नहीं। शरीर तो पहले ही कृष्ण वर्ण का था; कठिन जीवन व्यतीत करने पर यह और भी श्यामल हो गया है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
वानप्रस्थ : मानस शब्द संस्कृति |
मिलहिं किरात कोल बनवासी।
बैखानस बटु जती उदासी।।
सनातन #संस्कृति में चार आश्रम निर्धारित हैं। जीवन के उत्तर पक्ष में गृहस्थ जीवन के बाद #वानप्रस्थ की व्यवस्था है जिसमें व्यक्ति जंगल में रहकर अपने जीवन के अनुभव परिपक्व करता, संजोता है।
भरत को मार्ग में कोल, किरात, भील, वनवासी, वानप्रस्थ आश्रम में रहने वाले लोग, व्रत धारी, छोटे छोटे बटुक आदि मिलते हैं।
बाहरी आक्रांताओं ने भारत की सामाजिक व्यवस्था नष्ट भ्रष्ट कर दी। ऐसी अव्यवस्था कर दी कि यह सब विलुप्त हो गया।
#मानस_शब्द
कर्मनाशा : मानस शब्द संस्कृति |
उत्तर प्रदेश और बिहार की विभाजक, एक शापित नदी जिसे त्रिशंकु के लार से निकला हुआ बताया जाता है, #कर्मनाशा नाम से विख्यात है। गंगा की इस सहायक नदी में भयानक बाढ़ आती है। इस नदी का स्पर्श, स्नान वर्जित है।
शिविका : मानस शब्द संस्कृति |
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी।
चढ़ि चढ़ि चलत भईं सब रानी॥
ययाति : मानस शब्द संस्कृति |
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ।
पितु अग्यां अघ अजसु न भयऊ।।
इक्ष्वाकुवंश में महाराजा नहुष के पुत्र #ययाति हुए। उनके जीवन से त्याग और भोग की प्रेरणादायी कहानी जुड़ी है। सुखोपभोग हेतु उन्होंने अपने पुत्र पुरु से से यौवन मांगा था और भोग करने के बाद "त्याग में सुख है", सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस नाम से एक सिंड्रोम है जो वृद्धावस्था में यौवन की तीव्र कामना से संबंधित है।
ययाति की पत्नी राक्षसकुल के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थीं। देवयानी की सखी शर्मिष्ठा ने भी ययाति से विवाह किया।
इस कहानी को केंद्र में रखकर मराठी के प्रसिद्ध नाटककार गिरीश कर्नाड ने ययाति नाम से एक नाटक लिखा है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
कर्णधार : मानस शब्द संस्कृति |
करनधार तुम अवध जहाजू।
चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू।।
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू।
नाहिं त बूड़िहि सब परिवारू।।
नौका/जहाज को पानी में यत्र तत्र के जाने के लिए जो चप्पू प्रयुक्त होता है, वह भी कर्ण है। उसे धारण करने वाला, नौका को दिशा देने वाला #कर्णधार। उसका ही दायित्व रहता है कि वह नौका को जहां चाहे ले जाए। पार उतारे या डुबोए, उसका कौशल है।
#मानस_शब्द #संस्कृति
प्रसंगवश कौशल्या कहती हैं कि राम के वियोग रूपी समुद्र में अयोध्या रूपी जहाज के कर्णधार राजा दशरथ हैं।
बुलडोजर न्याय कोई न्याय नहीं है। यह खासा हिंसक है और दूरगामी प्रभाव डालता है। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। लेकिन पत्थरबाजी जैसे बर्बर और अमानुषिक कृत्य का कोई दूसरा इलाज भी नहीं है।
आइए पत्थरबाजी और बुलडोजर न्याय को समझने का प्रयास करते हैं।
#एक_धागा
#बुलडोजर #पत्थरबाज
पत्थर आदिम मानव का अस्त्र था। मानव सभ्यता के इतिहास में नियंडरथल किस्मों ने पत्थर का बढ़िया उपयोग किया था। इतिहास और नृतत्त्वशास्त्र के विद्यार्थी अच्छी तरह जानते हैं कि पत्थरों का कैसा और कितना सुघड़ उपयोग आदिममानव ने किया था। फिर तांबे, कांसे और लोहे का युग आया।
सभ्यताएं प्रगति करती रहीं। उसके अस्त्र शस्त्र आधुनिक होते गए। आज हम मिसाइल और परमाणु बम के युग से भी संक्रमण कर रहे हैं। चीन ने जैविक अस्त्र का परीक्षण दुनिया भर में किया जिसे #COVID19 का नाम दिया गया।
समाज आज पत्थरयुग से लगभग बाहर निकल आया है। लाठी मनुष्य का सहारा बना।
यदि आग्नेयास्त्रों को छोड़ दें तो अन्य सभी अस्त्रों में (और शस्त्र में भी) तकनीक काम करती है लेकिन पत्थर वाला पारंपरिक अस्त्र अभी भी उसी आदिम तरीके से चलाया जा रहा है। हालांकि दिल्ली में बीते दिनों हुए दंगे में #पत्थरबाजी करने के लिए गुलेल की तकनीक भी अपनाई गई थी। अस्तु,
अरब समाज में आज भी यह सबसे प्रमुख अस्त्र/शस्त्र है। मक्का में शैतान को पत्थर मारते हैं और यह एक बहुत प्रसिद्ध "फंक्शन" है, जिसमें दुनिया भर के मुसलमान एकत्रित होते हैं और पत्थर फेंकने की रस्म अदायगी करते हैं। शरिया वाले समाज में #संगसार करना न्याय का तरीका है।
कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को..
तथाकथित पापियों को संगसार करके सजा देना शरिया का हिस्सा है। तो जब किसी प्रदर्शन/दंगा/लूट आदि में पत्थर चलता है तो इसका केवल यह अर्थ नहीं है कि पत्थर सर्वसुलभ है, घातक है, पहचान छिपाता है इसलिए चलता है; बल्कि इसका एक सांस्कृतिक पक्ष है।
पत्थरबाजी करने में एक लाभ है कि आप कभी भी अस्त्र/शस्त्र हीन/युक्त हो सकते हैं। इसकी कोई विशेष तैयारी नहीं है। अभी खाली हाथ थे, अभी पत्थर युक्त हो गए। निशाने पर फेंका और हाथ झाड़कर मासूम बन गए। कोई सबूत नहीं बचा। विकासशील समाजों में पत्थर मिलने की संभावना बहुत अधिक रहती है।
अब यह सब जानते हैं कि हमारे देश में शरिया क़ानून व्यवस्था नहीं है। लेकिन दंगा, उपद्रव, सामूहिक हिंसा तो आम है। अभी कुछ साल पहले तक लाठी चलाने वाले लोगों का एक समूह यदि विपक्षी को सबक सिखाना रहता था तो धावा बोलता था और विपक्षी भी लाठियों से सुसज्जित होकर भिड़ता था।
लेकिन सामंती समाज के विघटन के बाद शत्रु अदृश्य हो गए। कोई किसी को कभी भी बिना बताए नुकसान पहुंचा सकता है। यदि आपको #आधा_गांव उपन्यास की याद हो तो उसमें फुन्नन मियां और कुंवरपाल सिंह एक दूसरे को सावधान कर लाठी चलाते हैं। यही तरीका था। बचने/प्रत्युत्तर के लिए स्पेस मिलता था।पूंजीवादी व्यवस्था ने नैतिकता नष्ट कर दी।
लेकिन हम पत्थरबाजी और दंगे की बात कर रहे थे।
आधुनिक प्रदर्शनों में दंगाई पत्थर का इसलिए भी प्रयोग करते हैं कि इससे लैस होना और मुक्त होना बहुत क्षिप्र गति से संभव है। जब तक फेंकते नहीं, यह हथियार नहीं है। अरब समाज में यह नैपकिन है।
पत्थर फेंकने का कोई प्रमाण नहीं रहता। यह दंगाइयों के लिए सबसे #आदर्श स्थिति है। मारो और भीड़ में छिप जाओ। यदि वीडियो न बने तो पता नहीं चल सकता कि वास्तव में पत्थर किसी को आहत करने के लिए चलाया गया है। वीडियो बने भी तो वह सिर्फ यह बता सकता है कि #पत्थर फेंका गया है।
इसलिए बीते दिनों में अराजकता वादी समूहों ने #पत्थरबाजी को एक फेवरेट टूल की तरह अपनाया है। पत्थरबाजी में और वह भी समूह द्वारा की गई पत्थरबाजी में अनुशासन का अभाव होता है इसलिए इसमें प्रहार और बचाव का कोई नियम नहीं है। सब अंधाधुंध है। यह सुरक्षाबलों के लिए चुनौती हो जाती है।
जब आपके हाथ बंधे हों, बचाव करना एकमात्र रास्ता हो तो पत्थरबाजी एक चक्रव्यूह है और आप अभिमन्यु हैं। जहां क्षत विक्षत होना ही अंतिम परिणति है। जहां क्रूरता है, अट्टहास है और नंगानाच।
सुरक्षा बलों को दंगाइयों का इसी तरह सामना करना पड़ता है। मारना नहीं है। संभव भी नहीं।
ऐसे में, पत्थरबाजी चुनकर दंगाइयों ने मौके का खूब फायदा उठाया है। बीते कुछ समय से इस वृत्ति ने म्लेच्छों में अपार लोकप्रियता हासिल कर ली है। शासन एक तो सॉफ्टकॉर्नर रखता था और फिर यह लूपहोल उसे नख दंत विहीन कर देता था।
अब शासन ने काट खोज ली है। यह उपाय है #बुल्डोजर तकनीक ने शासन के #बुलडोजर अभियान को अपेक्षाकृत न्यायशील बनाया है। दंगा, उपद्रव, अराजकता, बलात्कार, गंभीर अपराध में संलिप्तता का प्राथमिक साक्ष्य मिलते ही कार्रवाई के लिए अनुमति मिल जाती है।
चूंकि न्यायिक प्रणाली धीमी है और बहुत लंबी खिंच जाती है, इसलिए यह न्याय आया है।
शासन ने दंगाइयों, उपद्रवी और अराजक लोगों की संपत्ति नष्ट करने का एक तरह से संकल्प लिया है। न्याय होगा, पहले आपको इसका फल चखा दिया जाए। सम्पत्ति किसी भी व्यक्ति के शक्ति का आधार है। शासन आरोपी के अचल सम्पत्ति को ध्वस्त करती है और चल को जब्त। इससे उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है।
चूंकि शासन कोई कार्य द्वेषवश, विभेदकारी तरीके से और अन्याय करते हुए नहीं कर सकती तो इसके लिए उसने अवैध निर्माण और अतिक्रमण का एक ऐसा मार्ग चुना है जिसमें अपार संभावनाएं हैं। अवैध निर्माण बताना तो इतना आसान है कि इसकी कोई काट नहीं। न्यायालय भी इसके आगे विवश रहेगा।
#पत्थरबाजी में जितनी अराजकता और स्वच्छंदता है, #बुल्डोजर में भी वही है। शासन के हाथ यह विशिष्ट तरीका लगा है। इसमें अच्छी बात यह है कि #बुलडोजर_बाबा चलते हैं तो लोग प्रसन्न होते हैं क्योंकि यह आततायी, अत्याचारी, गुण्डा, माफिया आदि को पंगु करता है, लोगों को निर्भय बनाता है।
लोग मुझसे पूछते हैं कि यह न्याय कहां तक जाएगा? मुझे भस्मासुर की कथा याद आ जाती है। उसे वरदान मिला था कि वह जिसके सिर पर हाथ रख देगा, वह भस्म हो जाएगा। उसे वरदान का सदुपयोग करना था। उसकी तपस्या का यह फल मजेदार होना था किन्तु उसने बहकावे में आकर गलत पंगा ले लिया। भस्म हुआ।
तो #बुलडोजर शासन को प्राप्त एक अपरिमित शक्ति से युक्त वरदान है। शासन इसका वरदान की तरह प्रयोग करे तो वह सुशासन बनाए रखने में सहायक होगा। दुरुपयोग करेगा, जैसा महाराष्ट्र में कंगना राणावत के साथ किया तो भस्मासुरी अन्त होगा।
वरदान रूप में मैं बुलडोजर के साथ हूं और आप?
#कथा #वार्ता #कथावार्ता
मानस शब्द संस्कृति: कहानी |
श्रीराम वनवास काल में "बड़ा" होने का दायित्व बहुत अच्छी तरह निभा रहे हैं। राजघराने के अभ्यस्त लक्ष्मण और सीता को नई परिस्थिति में जो रुचिकर लगे, सुख मिले, वह सब उपक्रम वह करते हैं। वह कथाएं सुनाते हैं। यह सब चरित्र को उज्ज्वल बनाने वाले वृत्त हैं। राम इसी नाते आदर्श हैं।
#मानस_शब्द #संस्कृति
प्रेमचंद स्मृति कथा-सम्मान
वक्तव्य : ज्ञानरंजन
(बांदा : 04 फरवरी-24)
प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद |
प्रेमचंद स्मृति सम्मान के सदस्यों, मंच पर आसीन मित्रों और साथियों :
प्रेमचंद के बारे में कुछ तितरी बितरी, तिनका तिनका बातें शुरूआत में रखूँगा, इसलिए भी कि मेरे सम्मान के साथ इस महान कथाकार का नाम जुड़ा है।
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सबसे पहले आपका ध्यान आकर्षित करूँगा कि मुंशी जी 1936 में दिवंगत हुए और संयोग से 1936 मेरा जन्म हुआ। हमारे पूर्वज बनारस के थे और मेरे स्व. पिता श्री रामनाथ सुमन की जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद से निकटता थी। मेरे पिता ने प्रेमचंद पर यत्र तत्र लिखा है, अपने संस्मरण में। जब मैं किशोर हुआ तो पिता की लाइब्रेरी में भटकते हुए मुझे उसमें प्रेमचंद का उपन्यास रंगभूमि मिला, जिसके भीतरी पृष्ठ पर लाल सियाही से प्रेमचंद का हस्ताक्षर था। बाद में शिवरानी देवी की किताब पढ़ने को मिली।
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अभी लगभग तीन चार वर्ष पूर्व जापान से मेरे सहपाठी और अभिन्न मित्र का फ़ोन आया और उन्होंने अपने पास कवि रत्न मीर की (मेरे पिता द्वारा लिखी) एक अंतिम दुर्लभ प्रति होने की सूचना दी, जो मेरे पास नहीं थी और जिसे उन्होंने मुझे डाक से भेज दी। यह पुस्तक, पुस्तक-भण्डार लहेरिया सराय, बिहार से प्रकाशित थी, जो काफ़ी दिनों पहले बंद हो चुका है। दुर्भाग्य से हमारे इस संवाद के बाद लक्ष्मीधर का जापान में निधन हुआ। इस सजिल्द पुस्तक की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी है और लगभग 75 वर्ष बाद कवि रत्न मीर का नया संस्करण ज्ञानपीठ ने छापा।
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सोवियत लैण्ड पुरस्कार से जुड़ी सोवियत रूस की यात्रा में मुझसे कई बार यह सवाल पूछा गया कि आप की कहानियाँ किस तरह प्रेमचंद की परम्परा से जु़ड़ी हैं। मैंने इसका विस्तार से जवाब दिया है।
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प्रेमचंद हमारे जीवन में कितने भीतर तक प्रवेश कर चुके हैं इसका एक रोचक किस्सा सुनिये। मेरी दादी सुखदेवी ने प्रेमचंद को समग्र कई कई बार पढ़ा था। उन्होंने किसी स्कूल या विद्यापीठ में पढ़ाई नहीं की थी पर प्रेमचंद की रचनाओं से वे दिलचस्प उद्धरण देती थीं। वे मेरी प्रिय थीं और हमारा परस्पर विनोदपूर्ण रिश्ता था। मैं उन्हें बूढ़ी काकी कहता था। वे भूख लगने पर तड़प उठती थीं, अपनी बहू यानी मेरी माँ पर शब्दबाण फेंकने लगती थीं। मेरे बाबा भोजपुरी बोलते थे और फारसी गणित के ज्ञाता थे। वे घर के बाहरी हिस्से में रहते थे और केवल भोजन के लिए आते थे। उनका जीवन ‘पूस की रात’ के हल्कू जैसा था। एक दिन वे ठिठुर ठिठुर के जाड़ों की रात में जलते हुए दिवंगत हो गये। वे सूखे पत्तों को इकट्ठा करके तापते थे।
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प्रेमचंद प्रसंग अभी समाप्त नहीं है। कई दिलचस्प संयोग हैं। इसलिए भी कि हम सभी प्रेमचंद की रचनाकार संतानें हैं। प्रेमचंद ने कहानियाँ लिखीं; हमने भी उनकी परम्परा में कुछ कहानियों को जोड़ा। प्रेमचंद ने प्रगतिशील संगठन की मशाल जलाई, हमने कई दशक तक प्रलेसं के पदाधिकारी के रूप में संगठन को मजबूत बनाने का काम किया। प्रेमचंद ने सुप्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ का अविस्मरणीय संपादन किया; हमने भी ‘पहल’ को चालीस वर्ष सम्पादित किया। जब ज्ञानपीठ ने मुझे हरिशंकर परसाई की रचनाओं का संकलन संपादन करने का दायित्व सौंपा तो मैंने उसका शीर्षक ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ दिया। उसके अनेक संस्करण हुए हैं।
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साथियों, उपरोक्त उदाहरण इसलिए ध्यान आकर्षित करने के योग्य हैं कि मैं एक लुम्पेन किशोर था। अपनी नौजवानी तक। और मैंने ‘तारामण्डल के नीचे एक आवारागर्द’ संस्मरण में इस बात को लिखा भी है। पर विचारधारा ने मुझे एक छोटे मोटे पर विश्वसनीय लेखक के रूप में स्वीकृति दी। पुरस्कार, सम्मान के मौक़े हमें यदा कदा छोटे मोटे जश्न करने की अनुमति देते हैं। मैं बांदा में अपने साथियों के इस जश्न में शामिल होकर ख़ुश हूँ। पश्चिमी भाषाओं की तरह हिन्दी में अपने लेखकों को सेलिब्रेट करने की प्रथा कुछ कम है। केवल पुरस्कारों से नहीं, हम दूसरे बहुत अन्य शानदार तरीक़ों से यह आयोजन अपने दूसरे अप्रतिम युवा लेखकों के लिए कर सकते हैं। यह मेरा सुझाव है।
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मेरी यह समझ है कि लेखक या किसी भी अन्य व्यक्ति के लिए उसका पिछला समय, उसका वर्तमान समय और उसका भावी समय बहुत अहमियत रखता है। इसमें हमारा परिवार, फिर शहर, फिर देश, फिर विश्व का समय शामिल है। समय की कोख से ही हमारी रचनाएँ जन्म लेती हैं। समय ही हमारी रचनात्मक बेचैनियों का सबब है। वह कभी हमें प्रफुल्ल करता है, कभी अधमरा। कभी वह हमारी ख़रीद फ़रोख़्त भी करता है। आज हमारा समय ख़रीद फ़रोख़्त से भरा है। इसी को हम बाज़ार भी कहते हैं। दुर्योग से मेरा प्रसव काल ख़त्म हो गया है, पर मैं समय का पीछा तो कर ही रहा हूँ। सरसरी तौर पर इसकी चर्चा करता हूँ। यह निरक्षरता का समय है। अगर रोग मानें तो इसे डिमेन्शिया और अलज़ाइमर का विस्फोटक समय भी कह सकते हैं।
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मोटी मोटी बातें देखिये। देखिये कि रोज़ जो लिखा जा रहा है, बोला जा रहा है, उसमें झूठ का प्रतिशत कितना है। असंख्य झूठ आपके देखते-देखते सच्चाइयों में तब्दील हो रहे हैं, या हो चुके हैं। सबसे ख़तरनाक दो शब्द लगते हैं - नया और विकास। ये शब्द धूर्तता से भरे हैं। निरंतर धूल झोंकी जा रही है। नया शब्दकोश, नये संग्रहालय, नया पाठ्यक्रम, नई शिक्षा, नई सड़कें, नये शहर, नया यातायात। यह सूची अनंत है। पहले ज़मीनों पर कब्ज़ा होता था अब धर्म पर कब्ज़ा है। अतीतवादी लोग ही अतीत पर प्रहार कर रहे हैं। आलोचना देशद्रोह है। कड़वी चीज़ें बर्दाश्त नहीं। लड्डू और दीये हमारे सबसे बड़े चित्र हैं। कथा कहानी के घीसू माधव विकराल रूप में पुनर्जीवित हो गये हैं। जनता सियारों के झुण्ड में बदल चुकी है। कुछ अलग आवाज़ें अगर हैं तो यू ट्यूब में घुसड़ गई हैं या फ़ेस बुक में। फिराक़ साहब का मशहूर शेर जीवित हो गया है – ‘हमीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात’। मज़ा ये है कि हम इसमें ख़ुश हैं, सफ़ल हैं। मध्यवर्ग ने वास्तविक जनता को अदृश्य बना दिया है। जबकि मोटा मोटी यह समय की एक आउटर लाइन मात्र है। उसका कैरीकेचर। यह बालकृष्ण मुख का ब्रह्माण्ड नहीं है। मित्रों, इसीलिए मैं आग्रह करता हूँ आप सबसे, जो लिखते हैं, या पढ़ते हैं, या कुछ भी नहीं करते; उन्हें अपने समय के उजले-अंधेरे झरोखों में झाँकना चाहिए। इससे परिवर्तन हो या न हो तसल्ली मिलती है और आत्मरक्षा होती है। अगर हमारा समय हमें होशियार, चौकन्ना, बनावटी और काइयाँ बना रहा है तो हमें सावधान हो जाना चाहिए।
देवीप्रसाद मिश्र की एक ताज़ा कविता का नया जुमला है : कि दो गुजराती देश को बेच रहे हैं और दो गुजराती देश को ख़रीद रहे हैं। दोस्तों यह केवल दो चार व्यक्तियों का प्रसंग नहीं है, इसके निहितार्थ गहरे और भयानक हैं। इसे व्यंग्य भी न समझें।
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दोस्तों, मैं बार-बार ‘समय’ शब्द को रिपीट कर रहा हूँ। इसलिए कि समय विशाल, विकराल और जटिल है। मैं उसे एक दो उदाहरणों से कैसै परिभाषित करूँ...? पर, मुझे समय की शिला को चूर चूर करना है। जो भी चाहे शिला-लेख बना लेता है और उसे बदल देता है। इसलिए पहले मैं उसके टुकड़े करूँगा और फिर आगे बढ़ूँगा। एक टुकड़ा उदाहरण है हमारे समय का, जिसे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण कहते हैं। यह मामूली जुमला नहीं है। इसी में सारी दुनिया उलट-पलट हो रही है। यह संगीन यात्रा समय है। आप से आग्रह है मेरी यात्रा कहानी पढ़ें। आज का दृश्य देखें - गेट मीटिंग हो रही है... काली पट्टी पहनी जा रही है... पुराने नारों को शोर है…, क्रमशः ये शस्त्र बेकार हो चुके हैं। ये पाषाण-कालीन लगते हैं। पर मूर्ख राजनीति इसकी व्यर्थता को बता नहीं पा रही है। यही समय है; दुभाग्यपूर्ण समय; सुनहरा समय नहीं। हरिशंकर परसाई की शैली में अगर मैं कहानी बनाऊँ वे वह ऐसी होगी :
आप कहते हैं कि हमारा यह सामान, हमारी यह सम्पत्ति ले लेंगे। वो कहते हैं कि नहीं लेंगे। ख़रीदने की उनकी शर्तें हैं। उनका कहना है कि पहले ढाँचे को उन्नत करो, या पुराना ढाँचा गिराओ और नया बनाओ। नई मशीनें लगाओ, बाहर से बुलाओ। श्रमिकों की छटनी करो; इनकी जनसंख्या ज़रूरत से अधिक है। ज़मीनें अधिग्रहीत करो। प्लेटफॉर्म बढ़ाओ, पटरियाँ बिछाओ, रेलगाड़ी के डब्बों को सुखद और शानदार करो, हर ओर वंदे वंदे चलाओ, ड्रेस कोड सुन्दर करो, प्लेटफॉर्म पर लिफ्ट और एक्सलेरेटर लगाओ, उसे मॉल की तरह सजाओ, जहाँ यात्री आराम से परफ्यूम, पेस्ट्री, फ़ोटोफ्रेम और मदिरा ख़रीद सकें। सामान के बोझ के लिए ट्रालियाँ लगाओ, कुलियों को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे सभ्यता पर बदनुमा दाग़ हैं। उसके बाद हमारे संतुष्ट होने पर हस्तांतरण होगा।
एक भव्य समारोह में, एक देश प्रमुख और तमाम सी.ई.ओ. की हाज़िरी में सजे हुए मंच पर आपके घर की एक विशाल काल्पनिक चाभी उन्हें सौंपी जायेगी और आपको घर के बाहर कर दिया जायेगा। आपका काम है ताली बजाना और ठुमरी गाना। यही है साथियों, राष्ट्रीयकरण और निजीकरण का समय।
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बहुत सारे विविध उदाहरण दिये जा सकते हैं, मेरे साथियों; पर ऐसा करते जाने से समय असमय हो जायेगा।
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हमारे समय की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमने अस्वीकार करना बंद कर दिया है। हमारी गोद स्वीकृतियों, उपहारों, फूल-फलों से भरी है। अभी मैं आपको कुछ उदाहरण दूँगा, लेखकों का, जिन्होंने अस्वीकृतियों के प्रतिमान बनाए।
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अमेरिका के बारे में लोर्का कहते हैं कि यह डरावना और शैतान है। यहाँ खो जाना लाज़िम है। यह देश संसार का सबसे बड़ा झूठ है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने लिखा है - साहित्यिक न्यूयार्क टेपवर्म से भरी बोतल है जिसमें वे एक-दूसरे को खाते रहते हैं। मार्क ट्वेन लिखते हैं कि बोस्टन में पूछा जाता है - आप कितने ज्ञानवान हैं? न्यूयार्क में पूछा जाता है कि - आपकी कूबत, क़ीमत क्या है?
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एक अमरीकी लेखक लिखता है कि 6 करोड़ लोगों का यह शहर न्यूयार्क कौतूहल और संदिग्धता से भरा हुआ; यहाँ कोई लैण्डस्केप नहीं; सभी लैण्डमार्क हैं। इस शहर में कोई बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े भी जवान हैं। यहाँ विपन्न को अतीत के डस्टबिन में डाल दिया जाता है।
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एनरैण्ड के फाउंटेन हेड में मैंने जो पढ़ा था, आपको यथावत् कोट कर रहा हूँ : -
‘‘न्यूयार्क के डिटेल्स एकत्र करना असंभव है। वे इतने गडमड हैं कि उन्हें एकबारगी स्वतंत्र नहीं देखा जा सकता। न्यूयार्क की विवरणिका नहीं बनाई जा सकती। यह दुनिया भगवान से टकरा रही है। न्यूयार्क के आसमान पर मनुष्य निर्मित इच्छाएँ हैं। हमें और किस धर्म की ज़रूरत है।’’
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मैंने लगभग एक दर्जन बड़े लेखकों के वाक्यों को एकत्र किया है जो शहरों के बारे
में हैं। प्रसिद्ध शिल्पी जिसने चंडीगढ़ की परिकल्पना की थी, ने कहा कि स्काई क्रीपर्स धनोपार्जन की मशीनें हैं।
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क्या हमारे यहाँ रचनाकारों, शिल्पियों और वास्तुकारों ने छोटे-बड़े, नये-पुराने किसी ने भी शहरों के बारे में - यानी विकास के ऐसे छायाचित्र और नक्शों के बारे में टिप्पणी की है? हमने घीसू-माधव द्वारा भेजी गई स्मार्ट योजनाओं का जम कर स्वागत किया और ठुमरी गाई। अब सब बदरंग हो चुका है और भ्रष्टाचार का सबब है। इसने वास्तविक जनता को देश से दूर ठेल दिया है। शहरीकरण की आंधी में कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्राकृतिक सौन्दर्य के असंख्य चित्र लुप्त हो गये हैं। यह पहले से हो रहा था; मद्धम...मद्धम...! पर अब यह बुलेट की तेज़ी से हो रहा है।
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हमारी राजधानी दिल्ली जो दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नगरी है, राजसत्ता की मनमानी रोशनियों से धधक रही है। मुझे याद आता है मिर्ज़ा ग़ालिब और रामधारीसिंह दिनकर की कविता ने ही दिल्ली पर सवाल उठाए; पर यह सूची बहुत संक्षिप्त है। ग़ालिब के अशआर अभी भी धूमिल नहीं हुए और दिनकर की लम्बी कविता दिल्ली को लोग भूल गये। ये सब मैं आपको इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि ये हमारे समय के सवाल हैं। और शुरू में मैंने कहा था कि एक लेखक को अपने समय की पड़ताल करनी चाहिए। अपने गुज़श्ता, वर्तमान और भावी समय की पहचान करनी चाहिए। यह हमारे लेखन का एक अनिवार्य हिस्सा है। क्या हम चौकन्नापन, काइयाँपन और कृत्रिमताओं को देख रहे हैं। शास्ता के मुक़ाबिले शासित जनता ज़ादा अपराधी है।
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पुरस्कृत व्यक्ति थोड़ा वाचाल हो जाता है; इसलिए मैंने कुछ अधिक कहा। मैं इतना बड़ा लेखक नहीं हूँ कि पुरस्कार को आलू का बोरा कह कर इतिश्री कर सकूँ।
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बहरहाल, जो व्यक्ति जिन शीर्षकों के अन्तर्गत पुरस्कृत हुआ है उसे आलोचक या अध्यापक की तरह नहीं बोलना चाहिए। उसका क्षेत्रफल ही अलग है। वह अपनी कहानियों से उत्पन्न दुनिया, जिसमें आप सब शामिल हैं, नये अन्वेषण करेगा। वह अपनी कहानियों में बार-बार लौट सकता है। क्योंकि कहानियाँ मरती या समाप्त नहीं हो जातीं। वे नये गलियारे बना सकती हैं। मुझे आपको एक उदाहरण देना है। इलाहाबाद कॉफ़ी हाउस में उन दिनों हमारा अड्डा था। अलग टेबुल पर बैठने वाले आलोचक विजयदेव नारायण साही याद आते हैं। संयोग से यह उनका जन्मशती वर्ष भी है। साही जी जबलपुर परसाई जी से मिलने आये थे। बारिश हो रही थी। हम एक रिक्शे पर बैठ कर बतिया रहे थे। कॉफ़ी हाउस में हम दोनों ने कभी एक टेबुल शेयर नहीं किया, पर यहाँ हम एक रिक्शे पर थे। साही जी ने कहा - ज्ञान तुम्हारी कहानी ‘बहिर्गमन’ अभी बची है, ख़त्म नहीं हुई है। मेरा सुझाव है कि जहाँ ‘बहिर्गमन’ समाप्त होती है, उसके आगे उसका दूसरा भाग लिखो। ‘मनोहर’ का परदेस में क्या हुआ, वह लौटा या मर गया। कुल मिला कर उसके बकाया जीवन का क्या हुआ। दूसरा भाग इस अंधकार को फाड़ने वाली कहानी हो सकती है। ‘बहिगर्मन’ का दूसरा हिस्सा मैंने लिखने की कोशिश की, पर बात बनी नहीं। मेरे पास मृत संजीवनी सुरा नहीं थी या हनुमान जी वाली बूटी, जो कहानी को फिर से जीवित कर पाती। मैं काहिल भी हूँ, संभवतः आलस्य इस काम में बाधा बना हो। जो भी हो अब मैं आपके सामने हूँ।
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लम्बे वक्तव्य से बचते हुए अंत में, दोस्तों, मेरा मानना है कि आपने मुझे पुरस्कृत किया, इससे साबित होता है कि आपको पुरानी दुनिया नापसंद नहीं है। संभव है कि आप यह भी मानते हों कि विकास की वर्तमान अवधारणा एक छद्म अवधारणा है। वाल्टर बैंजामिन भी अपनी समीक्षा में लगभग यही निष्कर्ष निकालते हैं। हमने पश्चिम की नक़ल करते हुए उसका आवरण सनातन बनाने का प्रयास किया है। अगर पुरानी दुनिया से हमें आगामी दुनिया में आना ही है तो हमारे स्वप्न, हमारे आग्रह, हमारी कामनाएँ भिन्न होंगी। पुराने से हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि हम लालटेन की वापसी चाहते हैं।
- ज्ञानरंजन
जोहार |
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे।
प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे।।
चित्रलिखे जनु जंह तंह ठाढ़े।
पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।
वनवासी समुदायों में अभिवादन का प्रचलित तरीका #जोहार है। जब लोग आपस में संपर्क करते हैं तो प्रकृति को सर्वोपरि मानने वाला यह उद्घोष करते हैं। यह प्रणाम, नमस्ते की तरह का एक व्यवहार है। झारखंड में अभिवादन हेतु यही राजाज्ञा है।
जोहार में सेवा भावना प्रमुख है। इसका मोटे तौर पर अर्थ है कि हमारा अभिवादन स्वीकार करें और कहिए, क्या सेवा करें।
जब श्रीराम ने चित्रकूट में निवास हेतु कुटी बनाई तो कोल और किरात लोग उनसे मिलने आए, जोहार किया और अपने साथ लाए उपहार भेंट किया।
#मानस_शब्द #संस्कृति
चित्रकूट |
चित्रकूट गिरि करहु निवासू।
तंह तुम्हार सब भांति सुपासू।।
सैलु सुहावन कानन चारू।
करि केहरि मृग बिहग बिहारू।।
प्रयाग में श्रीराम ने #त्रिकालज्ञ महर्षि #भरद्वाज के दर्शन किए और पूछा कि कहां जाऊं तो विविध भांति से #चित्रकूट की महिमा का बखान कर कहा कि वह यहीं ठहरें। यह स्थान सब तरह से अच्छा कहा गया है, सुहावना पर्वत, सुंदर वन। विहार स्थल।
#मानस_शब्द #संस्कृति
आज चित्रकूट का परिक्षेत्र उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में है। वह भगवान श्रीराम के जीवन में एक विशेष अध्याय का रोपण करने वाला स्थान है।
संकर सुवन केसरी नंदन। तेज प्रताप महा जग वंदन।। छठी चौपाई श्री हनुमान चालीसा में छठी चौपाई में हनुमान जी को भगवान शिव का स्वरूप (सुवन) कहा ग...