रविवार, 31 मार्च 2024

सत की परीक्षा - विजयदेव नारायण साही की कविता

विजयदेवनारायण साही का जन्मशती वर्ष पर उनकी एक कविता साखी संकलन से।


सत की परीक्षा


साधो आज मेरे सत की परीक्षा है

आज मेरे सत की परीक्षा है।


बीच में आग जल रही है 

उस पर बहुत बड़ा कड़ाह रखा है 

कड़ाह में तेल उबल रहा है

 उस तेल में मुझे सब के सामने

 हाथ डालना है

 साधो आज मेरे सत की परीक्षा है।


एक ओर मेरे ससुराल के लोग हैं। 

बड़ी-बड़ी पाग बाँध

 ऊँचे चबूतरे पर बैठे हैं

 मूंछें तरेरे हुए 

भवें ताने हुए हैं 

नाक ऊँची किये हुए।


ससुराल का ब्राह्मण

 ऊँचे गरजते स्वर में 

बेलाग आरोप सुना कर चुप हो गया है 

कि यह जो मेरी छाती पर जड़ाऊ हार है,

 बहुत छिपाने पर भी 

जिसकी आभा बीच-बीच में लहर लेती है

 जिसकी रोशनी से

 मेरे ससुराल वालों की आँखें झपक जाती हैं 

पराये का दिया है

 मेरे कलंक का प्रमाण है।


मेरे कलंक का प्रमाण है।

 दूसरी ओर मेरे मायके के लोग 

बाबा भैया और सारे नातेदार बैठे हैं

 ज़मीन पर टाट बिछा,

 नंगे सिर गर्दन झुकाये। 

उनकी मूँछें नीची हैं

 उन्हें मेरी ओर देखने का 

 कलेजा भी नहीं रह गया है। 

मेरे सातों भाइयों ने

 बहुत कातर स्वर में 

आरोप का उत्तर दे दिया है 

 कि यह लहर लेती चमक

 मेरे पुरखों की थाती है 

जो कभी-कभी दिख जाती है 

लेकिन ऊँची नाक वालों ने कुछ नहीं सुना

 साधो आज मेरे सत की परीक्षा है।


दस पाँच गाँवों के लोग 

आज मेरी चौपाल में इकट्ठा हो गये हैं 

 अब तो सबने आरोप भी सुन लिये।

 चारों ओर चुप्पी है 

हज़ार आँखें मेरी ओर एकटक देख रही हैं

 कड़ाह के नीचे जलती लकड़ी से

 चिनगारी फूटने की आवाज़ सुनायी पड़ रही है।


आज मेरे सत की परीक्षा है।

 कौन-सा साहस करूँ, साधो, 

मैं कौन-सा साहस करूँ?

हज़ार तर्क दिये जा सकते हैं 

यहाँ से लौट जाने के लिए। 

जिन्होंने आरोप लगाये हैं

 उनके अधिकार को चुनौती दी जा सकती है।

 परीक्षा के इस ढंग को

 अनुचित ठहराया जा सकता है। 

इसी भरी पूरी मूँछ-मरोड़ ससुराल पर

 थूका जा सकता है।  

पूछा जा सकता है 

कि सारी बिरादरी में कौन है ऐसा

 जिसके मुँह पर कालिख न हो।

 धरती से फट जाने की प्रार्थना की जा सकती है

 आकाश मार्ग से

 अलोप हो जाया जा सकता है।


इनमें से कौन-सा साहस करूँ, साधो 

मायके और ससुराल और सारी बिरादरी के सामने 

मैं कौन-सा साहस करूँ?


लेकिन साधो ये सारे साहस 

आज ओछे पड़ गये हैं 

मेरा मन इनमें से किसी की गवाही नहीं देता। 

क्योंकि आज मेरे साथ ही साथ 

मेरे मायके, ससुराल और सारी बिरादरी के

पुरखों की लहर लेती रोशनी के सत की परीक्षा है।


सुनो भाई साधो सुनो 

और कोई रास्ता नहीं है

मुझे अपने दोनों हाथ

 इस खौलते कड़ाह में डालने ही हैं 

यदि मेरी छाती पर जड़ाऊ हार की तरह चमकता आन्दोलित प्रकाश

सचमुच मेरे हृदय का वासी हो 

तो यह खौलता हुआ कड़ाह 

हाथ डालने पर 

गंगाजल की तरह ठंडा हो जाय।


ऐसे ही, साधो, ऐसे ही...


-साखी-

बुधवार, 27 मार्च 2024

सच्ची कला


 आचार्य कुबेरनाथ राय का निबंध "सच्ची कला"। यह निबंध उनके संग्रह पत्र मणिपुतुल के नाम से लिया गया है।

सुनिए।

सोमवार, 25 मार्च 2024

कवीश्वर कपीश्वरौ - आचार्य कुबेरनाथ राय का निबन्ध

                                                                                                                 -आचार्य कुबेरनाथ राय


मानस’ का मंगलाचरण कई अर्थों में बेजोड़ है। यह स्वयं में एक ‘नानापुराण-निगमागम् सम्मतम्’ मंगलाचरण है। प्रथम श्लोक में गणेश-सरस्वती की वंदना है तथा ‘मंगलानाम्’ द्वारा भारत की लोकायत संस्कृति का संकेत किया गया है क्योंकि ‘मंगल’ का अर्थ होता है मांगलिक ‘वस्तुएं’ और ‘मांगलिक उपचार’। द्वितीय श्लोक में शंकर-भवानी की वंदना आगम परंपरा के अनुकरण में है। ‘शक्ति’ अर्थात् ‘इ’ कार से संयुक्त होकर शव का ‘श+ इ +व’ ‘शिव’ हो जाता है। यदि यह भवानी रूपा ‘इ’ कार न रहे तो शव’ का ‘शव ही रह जाएगा जो शिव का निष्क्रिय रूप है। इस तत्त्व का उद्घाटन ‘सौंदर्य लहरी’ के, जो ‘श्री विद्या’ का प्रतिनिधि ग्रंथ है, प्रथम श्लोक में ही हुआ है। इसी बात को गोसाईंजी ‘भवानी शंकरौ’ को युगबद्ध रूप में रखकर मानस के द्वितीय श्लोक में उपस्थित करते हैं। तृतीय श्लोक में ‘बोधमयं नित्यं गुरुम्’ की वंदना की गई है। यह वंदना ज्ञान मार्ग (निगमागम सांख्य) की द्योतक है जिसके अनुरूप गुरु ही साक्षात् ‘सांख्य’ अर्थात् ‘बोध’ है, गुरु के आश्रम से ही जीव को अपने नित्य स्वरूप का बोध होता है और वह ‘गुरु’ स्वयं ‘परम संवित’ या ‘परम शिव’ ही है। फिर आता है चौथा श्लोक अर्थात् ‘कवीश्वर कपीश्वरौ’ की वंदना वाला श्लोक । यह वंदना ‘सांख्य’ या ज्ञान से भिन्न ‘योग मार्ग’ की द्योतक है क्योंकि इसमें ‘विशुद्ध विज्ञान’ की चर्चा है। विज्ञान का अर्थ होता है ‘योगियों द्वारा अनुभूत विशिष्ट ज्ञान’ । इसी योगानुभूति का ही एक विशिष्ट संस्करण है ‘काव्य’ और दूसरा संस्करण है ‘भक्ति’ काव्य और भक्ति दोनों बुद्धि या प्रज्ञा पर निर्भर नहीं हैं। दोनों सांख्य मत के विपरीत अनुभूति-प्रधान और राग-प्रधान प्रक्रियाओं की उपलब्धियां हैं। पांचवां श्लोक है विशिष्टाद्वैत की परंपरा में सीता की राम से संबद्ध (युगबद्ध रूप में) चिद्चिद् विशिष्ट ‘परमा प्रकृति’ या ‘महामाया’ के रूप में वंदना और अंतिम श्लोक रामचंद्र का ‘रामाख्यं ईशम् हरिम्’ ‘राम’ नामधारी ‘ईश्वर’ (शिव) और ‘हरि’ (विष्णु) दोनों के प्रतीक अर्थात् निगम पंथ का ‘परम ब्रह्म’ मानकर उनके वेदांती रूप, को व्यक्त करता है। राम ‘तम’ हैं, ‘शेष’ हैं, ‘कारण’ हैं और ‘ईश्वर’ हैं। राम ‘तम’ (चरम) होते हुए भी तथा सब कुछ के समाप्त हो जाने पर भी ‘शेष’ (हिरण्य- गर्भ) रह जाते हुए भी, वेदांतियों का निष्क्रिय निर्विकार ब्रह्म नहीं, ‘कारण’ ब्रह्म हैं, वे सारी सृष्टि के निमित्त कारण हैं, जबकि उपादान कारण है चिद्-चिद् विशिष्ट परमा प्रकृति। मंगलाचरण के प्रथम दो श्लोक आगम मार्ग से संबंधित हैं तो ये दोनों अंतिम श्लोक निगम मार्ग से। बीच के दोनों श्लोक ‘सांख्य-योग’ हैं जो आगम और निगम दोनों पंथों की संयुक्त संपत्ति हैं। ये सांख्य योग निगमागम-ओतप्रोत हैं और साथ ही निगम और आगम के बीच की कड़ी या संयोजक भी हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि गोसाईंजी का यह मंगलाचरण लोकायत धर्म, आगम, सांख्य योग और निगम, इन सबका प्रतीक है, इन सबके तत्त्वों का सूक्ष्म संकेत इसके अंदर विद्यमान है और हम कह सकते हैं कि यह महाकाव्य तो ‘नानापुराणनिगमागम सम्मतम्’ है ही, ‘मंगलाचरण’ भी निगमागम सम्मतम् है। हम यहां पर इसके चौथे श्लोक की कुछ विस्तृत चर्चा कर रहे हैं।

सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ ।

वन्दे विशुद्ध विज्ञानौ कवीश्वर कपीश्वरौ ।।”

इस श्लोक में कवीश्वर अर्थात् वाल्मीकि और कपीश्वर अर्थात् हनुमान जी की वंदना है। इन दोनों को कवि ने विशुद्ध विज्ञानी कहा है। ये दोनों ‘सीताराम गुणग्राम पुण्यारण्य’ में विहार करते हैं। हनुमान तो शाखा मृग हैं ही, वाल्मीकि भी परंपरा से कविता-वन के सिंह हैं और कविता शाखा के ‘कोकिल’ भी।

वाल्मीकि मुनि सिंहस्य कविता वन चारिणः,

शृणुवन् रामकथानाद को न यान्ति परागतिम् ।

कूजतं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्

आसध्य कविता शाखां वन्दे वाल्मीकि कोकिलम् ।।”

 


गोसाईंजी ने मुख परंपरा से प्रचलित इन विरुदों को सुनकर ही उनको भी ‘पुण्यारण्य विहारी’ माना है और आरण्यक देवता हनुमान के साथ कर दिया है। वाल्मीकिजी वीर गाथा के कवि हैं। सिंह जैसी महिमा, बल, तेज और साहस वाले चरित्रों की सृष्टि उन्होंने की है। वाल्मीकि के काव्य में कोई भी श्वान-शृगाल नहीं, यहां तक कि उनके द्वारा अंकित प्रतिपक्षी रावण और उसका सारा राक्षस कुल भी हीनता और क्षुद्रता से मुक्त है। जिस हीनता और क्षुद्रता का आरोपण बाद के अन्य कवियों ने किया है, वह वाल्मीकि के काव्य में अनुपस्थित है। रावण के अंदर उन्होंने एक ट्रेजडी का ‘बीज’, एक मोह-बीज अवश्य स्थापित किया है, परंतु उसे श्वान-शृगाल की श्रेणी में रखना उन्होंने उचित नहीं समझा। उनकी सिसृक्षा के भीतर ‘सिंहत्व’ के ही समानांतर करुण रस से ओतप्रोत एक गीतात्मकता (Lyricism) भी चलती है और इसके कारण उन्हें कविता कोकिल कहा गया है। यह करुण गीतात्मकता राम के जीवन के माध्यम से व्यक्त हुई है। राम के इसी चरित्र के ढांचे को भवभूति विकसित करके अपने नाटक ‘उत्तरराम चरित’ में ‘पुटपाक प्रतीकाश रामस्य करुणो रसः’ की स्थापना करते हैं। रामायण वीर-रस और करुण-रस दोनों रसों का महाकाव्य है। साथ ही इसमें दांपत्य-प्रेम, मातृ-प्रेम, सखा-प्रेम आदि अनेक कोमल भावों को भी पर्याप्त स्थान मिला है। इसी से यह संपूर्ण दैनंदिन जीवन का महाकाव्य भी ज्ञात होता है। इसी दैनंदिन जीवन का महाकाव्य (Epic of day-today life) के तथ्य को रवीन्द्रनाथ ‘पारिवारिक जीवन का महाकाव्य’ कहकर व्यक्त करते हैं। क्योंकि इसके भीतर ‘समस्त जीवन का कल कूजन समाविष्ट हो गया है।’ ऐसी अवस्था में वाल्मीकि को कविता कानन का कल कूजन कहना उचित ही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि मुनि कोमल-कठोर दोनों रूपों में स्थित हैं। भारतीय संस्कृति की महत्ता, उपलब्धियां, आरण्यक उपलब्धियां हैं। वाल्मीकि का अरण्य है सीता-राम-गुणग्राम का पुण्यारण्य । इसके तृण, तरु, लता और पुष्प सीता-राम के शीलमण, रूपगण और आदर्शगण सौंदर्य को व्यक्त करते हैं। वाल्मीकि और हनुमान दोनों के मानस लोक में स्थित सीता राम का यह चरित्र उपवन या छोटी-सी वाटिका नहीं बल्कि एक सघन अरण्य है, एक महिमामय अगम-अथाह विस्तीर्ण महाकांतार है जिसमें नित्य सरयू प्रवाहित है, नित्य अयोध्या है, नित्य पंचवटी है; नित्य अश्रुसिक्त गोदावरी-तट और नित्य पंपा-सलित प्रत्यक्ष होता है; नित्य माल्यवंत गिरि, नित्य सागरवेला, नित्य सुबेल शैल और बार-बार भस्म होती हुई भी नित्य-स्वर्ण लंका है; सबसे बढ़कर नित्य राम-रावण समर है और नित्य भरत मिलाप पुण्याभिषेक और रामराज्य स्थापना है। इस नित्य लीला को मानसभूमि में प्रतिदिन देखते हुए कवि और भक्त विचार करते हैं। इस अगम, उदात्त, आकाश-स्पर्शी महाशाखाओं वाली, सर्वफलदायिनी कल्पवृक्षों वाली लीला-अरण्यानी का उनके मन में नित्य निवास है। इसी से महाकवि और महाभक्त वाल्मीकि हनुमान के लिए गोसाईजी ने लिखा है : ‘सीता- राम गुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ’। इस काव्यांश में ‘सीताराम’ शब्द उस ‘पुण्यारण्य’ की ‘नित्यता’ का भाव संकेत द्वारा व्यक्त करता है।

 


श्लोक का सारा रहस्य केंद्रित है ‘कवीश्वर-कपीश्वरौ’ की उपाधि ‘विशुद्ध- विज्ञानौ’ पर। ‘विशुद्ध विज्ञान’ या ‘विज्ञान’ एक विशिष्ट शब्द है। आज इसको Science के प्रतिशब्द के रूप में ग्रहण करते हैं। परंतु इसका मौलिक अर्थ भिन्न है। ‘विज्ञान’ शब्द का साधारण अर्थ है विशेष प्रकार का ज्ञान। भारतीय वाङ्मय में इसका प्रयोग दो प्रकार का है। एक तो है औपनिषदिक परंपरा में पंचकोषात्मक अस्तित्व की चर्चा के संबंध में। और दूसरा ‘अमर- कोष’ में शिल्पादि के ज्ञान के अर्थ में। भारतीय दर्शन में अस्तित्व को पंच-कोषात्मक माना गया है। अन्नमय (Physical) प्राणमय (Vital ( अर्थात् प्राण, श्वास, स्नायु, संबंधी मनोमय (Mental), विज्ञानमय (Supra-mental), आनंदमय (Spiritual)। अस्तित्व के एक कोष के भीतर दूसरा कोष है समकेंद्रिक वृत्तों की भांति। केंद्र है ‘आत्मा’ का निर्विकार शांत आनंदमय कोष। ये पांच श्लोक मिलकर सारे ‘अस्तित्व’ या सारी ‘सत्ता’ को रचते हैं। यहां विज्ञान का अर्थ है सामान्य मानसिक जगत् से ऊर्ध्वतर की मानसिक प्रक्रियाएं। यदि मनोमय कोष को हम ‘नार्मल मन’ मान लें, तो विज्ञानमय कोष में ‘अवचेतन’ और ‘ऊर्ध्वचेतन’, स्वप्न, प्रातिभज्ञान, (Revelation) अंतर्भुक्त माने-जाने जाएंगे। योगियों की अनुभूतियां, कवियों की कल्पना और सिद्धों का मानसिक वैभव इसी ‘विज्ञान’ के अंतर्गत कहा जाता है। ‘अवचेतन’ की धारणा नवीन है। अतः भारतीय वाङ्मय में विज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है सिर्फ ऊर्ध्वचेतन (Super concious) के अर्थ में, जिसकी मानसिक प्रक्रियाएं ही ‘प्रातिभज्ञान’ (Intuition) और ‘दिव्य दृष्टि’ (Revelation) कही जाती है। यही विज्ञान आनंदमय कोष या आध्यात्मिक जगत् का प्रवेश-द्वार है। यह ‘विज्ञान जगत्’ ही योगियों का मनोलोक है, प्रज्ञा पारमिता की दस भूमियां इसी में स्थित हैं, भक्तगण और कविगण इसी लोक में स्थित होकर प्राप्त करते हैं। इस विज्ञान की अनुभूति प्रारंभ होती है मूलाधार में सुप्त कुंडलिनी जगने पर अथवा भक्ति के महाभाव में स्थित होने पर और कवि के विषय में भावानुप्रवेश करने पर। विज्ञान का लोक कुंडलिनी से आज्ञा चक्र तक है। इसके बाद आती है सहस्रार में प्रवेश की अवस्था और वही है आनंदमय कोष की स्थिति। अतः ‘विज्ञान’ का अर्थ हुआ योगी अथवा योगियों जैसे ही अति मानसिक (Supra-mental) गति मार्ग पर विहार करने वाले अन्य प्राणी यथा ‘भक्त’ और ‘कवि’। तीनों में अवश्य ही साधन-भेद और मात्रा-भेद है। योगी का साधन है ‘हठयोग’, भक्त का ‘महाभाव’ और कवि का ‘भाव’। योगी और भक्त जितनी ऊंचाई तक चढ़ते हैं उतनी ऊंचाई तक कवि का गमन नहीं हो सकता। पर है वह भी सतीर्थ्य और समानधर्मा इसी से वाल्मीकि और हनुमान दोनों को ‘विशुद्ध विज्ञानी’ कहा गया है।

 

उपनिषदों के बाद महत्त्वपूर्ण श्रुति है ‘गीता’। क्योंकि परंपरा से यह भी पुरुषोत्तम के मुख से संभव है। गीता के सातवें अध्याय में ज्ञान और विज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है। परंतु गीताकार ने ज्ञान-विज्ञान के भेद की अपेक्षा शुद्ध ज्ञान और शुद्ध विज्ञान की एकता पर ही जोर दिया है। गीता की दृष्टि में असत्व योग और असत्व सांख्य परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक तथ्य के दो रूपांतर हैं; वैसे ही ज्ञान और विज्ञान भी शुद्ध रूप में एक ही हैं। ज्ञान-विज्ञान के भेद जानने के लिए गीता के मूल पाठ की अपेक्षा गीता के भाष्यकारों से अधिक सहायता मिलेगी। प्रथम महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं भगवत्पाद शंकराचार्य। उन्होंने कहा है कि शब्द के साधन से, परोक्ष रीति से जो प्राप्त होता है (अर्थात् जो आप्तवाक्य, शास्त्रवाक्य और अनुमान द्वारा लब्ध होता है) वह है ‘ज्ञान’ और जो प्रत्यक्षानुभूति द्वारा प्राप्त होता है वह है, ‘विज्ञान’ अर्थात् विशेष ज्ञान। निर्विशेष ब्रह्म का ज्ञान शुद्ध शब्दाश्रित है वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अतः यह ‘ज्ञान’ का विषय हुआ। परंतु सविशेष ब्रह्म का ज्ञान और माया जगत् का ज्ञान प्रत्यक्षानुभूति हो सकता है। अतः ये ‘विज्ञान’ के विषय हैं। योगीगण और कविगण प्रत्यक्षानुभूति द्वारा बोध प्राप्त करते हैं अतः उनका बोध भी ‘विज्ञान’ है। परंतु जो तर्क, बुद्धि या प्रज्ञा द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह है ज्ञान। स्मरण रहे कि यहां प्रत्यक्षानुभूति की सीमा ऐंद्रियक अनुभवों से विस्तृत है और कल्पना, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि आदि मानसिक अनुभवों को भी इसी श्रेणी में रखते हैं। संक्षेप में तर्क या बुद्धि पर आश्रित ज्ञान ‘ज्ञान’ है और प्रत्यक्ष (ऐंद्रियक या काल्पनिक या प्रातिभ) अनुभूति ‘विज्ञान’ है। विज्ञान ‘साक्षात्कार’ है, ‘स्वानुभव’ है पर ज्ञान एक बौद्धिक उपलब्धि है। संक्षेप में शंकराचार्य ने जो कुछ कहा है उसका मतलब यही है। शंकराचार्य के बाद दूसरे महत्त्वपूर्ण भाष्यकार हैं श्रीमद् रामानुजाचार्य। उनके अनुसार सत्ता के स्वरूप का ज्ञान (विविधता के मध्य ‘एक’ सत्ता का ज्ञान) ही ‘ज्ञान’ है। परंतु उसी सत्ता के चिद्चिद् रूप का पृथक-पृथक ज्ञान (स्वयं सत्ता के भीतर घटित होती हुई विविधता का ज्ञान) विज्ञान है। अतः गीता के अध्याय 7, श्लोक 4 और 5 में वर्णित अष्टधा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है और अगले श्लोकों (6 और 7 ) में व्यक्त प्रकृति की उस विविधता के माध्यम एक परमात्मा का ज्ञान ‘ज्ञान’ है पर यह बोध शब्द या शुद्ध चिंतन या तर्क से ही नहीं प्राप्त हो सकता। यह भक्त की अनुभूति से भी प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार रामानुज ने ज्ञान और विज्ञान की एक नयी धारणा उपस्थित की। शंकराचार्य ने ज्ञान-विज्ञान का भेद तकनीक के आधार पर किया है ज्ञान अर्थात् शब्द-आश्रित बोध, विज्ञान अर्थात् प्रत्यक्षानुभूति-आश्रित बोध।  रामानुज ने इस भेद को विषयगत कर दिया है। ‘ज्ञान’ अर्थात् एक परमात्मा का बोध; ‘विज्ञान’ अर्थात् विविधता यानी उसी परमात्मा की आस्था प्रकृति का पृथक- पृथक बोध। अर्थात् परमात्मा की चरम सत्ता का ज्ञान ‘ज्ञान’ है और उनकी चिदचिद् अपरा प्रकृति का ज्ञान ‘विज्ञान’ है।’

 


विज्ञान’ शब्द की आधुनिक घारणा का बीज ‘अमरकोश’ की परिभाषा में विद्यमान है : “मोक्षेधीर्ज्ञानं अन्य विज्ञानं शिल्पशास्त्रयो”- मोक्षवती प्रज्ञा को ‘ज्ञान’ तथा शिल्पशास्त्र के ज्ञान को ‘विज्ञान’ कहते हैं। परंतु इस धारणा के पीछे भी ‘विज्ञान’ की उपर्युक्त दार्शनिक धारणा ही है। यदि शंकर और रामानुज के मतों को मिलाकर हम देखें तो ज्ञात होगा, प्रत्यक्षानुभूति पर आश्रित (शंकरमतानुरूप) और अपरा प्रकृति के तत्त्वों का पृथक-पृथक ज्ञान (रामानुज मतानुसार) ही ‘विज्ञान’ है। शंकर-रामानुज के इस सम्मिलित सूक्ष्म आइडिया को ‘अमरकोश’ में बहुत स्थूल ढंग से कह दिया गया है कि मोक्ष का ज्ञान ‘ज्ञान’ है, शेष शिल्पशास्त्रविद् ज्ञान ‘विज्ञान’ है। परमहंसों, योगियों, कवियों, अवैदिक विद्याओं-शिल्पों और दर्शनों के आविष्कर्ता मुनिगण, आगमपंथी, साधकगण और आचार्यगण (जिनके लिए ‘मुनि’ शब्द आता है जबकि ‘ऋषि’ शब्द मूलतः वैदिक विद्याओं के आचार्यों के लिए सुरक्षित है), ये सभी के सभी विज्ञानी हैं और ‘विज्ञान’ शब्द का अर्थ ‘विशिष्ट ज्ञान’, ‘अपरा प्रकृति का ज्ञान’, ‘अति मानवीय’ ‘दिव्यदृष्टि’ (Revelation), योगदृष्टि, प्रातिभ ज्ञान (Intuition) और कल्पना के साथ-साथ ‘भिन्न’ (विशिष्ट) प्रकार का ज्ञान तथा शिल्प आयुर्वेदादि का ज्ञान, यह सभी कुछ हो सकता है। शब्द को मूलतः तो सूक्ष्मतम प्रातिभ अनुभूतियों के बोध के लिए प्रयोग किया गया था। पर बाद में इसका विकास स्थूल अर्थ तक हो गया ।

 

गोसाईजी ‘विज्ञानी’ शब्द का प्रयोग ‘अमरकोश’ वाले स्थूलार्थ में नहीं करते हैं। उनके ‘विज्ञानी’ का संबंध सीधे-सीधे ‘अतिमानस’ और ‘पराभौतिक’ जगत् से है जो योगियों और कवियों का अनुभव जगत् है। योग और प्रत्यक्षानुभूति है। योग का अर्थ ही है प्रमाता और प्रमेय के प्रत्यक्ष योग-सूत्र की स्थापना। योगी अपने का प्रत्यक्षदर्शी होता है वह अनुमान या शब्द प्रमाण के फेर में नहीं पड़ता। गोसाईजी ने ‘विज्ञानी’ शब्द को इसी ‘योगी’ और ‘मुनि’ के अर्थ में लिया है। ‘उचित कहेउ मुनिवर विज्ञानी।’ ‘वैद न देइ सुनहु मुनि योगी।’ ‘तुम विज्ञान रूप नहिं मोहा।’ आदि प्रयोगों में तथा भगवान् को बार-बार ‘विज्ञान धामा वुभौ’ कहने से पता चलता है कि गोसाईंजी ने ‘विज्ञान’ शब्द का प्रयोग इसके प्राचीन एवं सूक्ष्म अर्थ में ही किया है और इसका संबंध ‘ऊर्ध्वचेतन’ (Super-concious) से है जो सारे प्रातिभ ज्ञानों (Intuition) और दिव्य दृष्टियों (Revelation) का मूल है एवं जिसे श्रीमद्भागवत ने ‘सरस्वती’ या ‘सिसृक्षा-प्रज्ञा’ के रूप में देखा है :

 

प्रचोदिता येन पुरा ‘सरस्वती’ वितन्वता कस्य स्मृति हृदि

स्वलक्षणा प्रादुर्भूत किलास्यतः समें ऋषीणाम् ऋषभः प्रसीदताम्।”

 

यहां ‘सरस्वती’ का तात्पर्य है ‘विज्ञान’ (प्रातिभज्ञान और दिव्यदृष्टि) जिसको ब्रह्मा के मन में प्रभु ने आदिकाल में ही जागृत किया। यह ‘विज्ञान’ या ‘सरस्वती’ तर्कबुद्धि (Reason) प्रमाण और बुद्धि पर आश्रित नहीं बल्कि उससे अधिक श्रेष्ठता, मानसिक शक्ति हैं जो पंडितों और ज्ञानमार्गी संन्यासियों को नहीं; बल्कि मुनियों, कवियों और योगियों तथा मंत्रों को ही प्राप्त होती हैं। इसी से गोसाईंजी कहते हैं :

 

तिन्हमँह द्विज, द्विज मँह श्रुतिधारी।

तिनमँह निगम धर्म-अधिकारी।।

तिनमँह पुनि विरक्त पुनि ज्ञानी।

ज्ञानिहुँ ते प्रिय मोंहि विज्ञानी।।

तिन्हते प्रिय पुनि मोहि निजदासा।

जेहि गति मोहि न दूसर आसा।।”

यहां ‘द्विज’ का अर्थ है ‘ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य’। श्रुतिधारी का अर्थ है वैदिक विद्याओं का ज्ञाता ब्राह्मण-क्षत्रिय वैश्य। निगम-धर्म अधिकारी का अर्थ है संस्कार प्राप्त द्विज (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) जिसे वैदिक धर्म पालन करने का अधिकार है। मुनि का अर्थ है अवैदिक विद्याओं का, सांख्ययोगादि शास्त्रों का एवं काव्य-संगीत-शिल्प आदि का पंडित। ये गृहस्थ भी हो सकते हैं, विरक्त भी। विरक्त मुनियों में दानी श्रेष्ठतर है और ज्ञानी विरक्तों में भी जो ‘विज्ञानी’ है, जो ‘योगी’ है, जिसे सांख्य-योग-काव्य आदि की मूल अनुभूतियों का प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि पाने की क्षमता प्राप्त है, वे श्रेष्ठतर हैं। परंतु इन सारे लोगों से परमशरणागति में आश्रित भक्त ही श्रेष्ठतर है चाहे वह जिस जाति, कुल, शिक्षा और पदवी वाला हो। भक्त चाहे डोम-चमार- धोबी क्यों न हो, चाहे वह निरक्षर और भिखमंगा क्यों न हो, वह किसी भी द्विज, विरक्त, मुनि, ज्ञानी, विज्ञानी से श्रेष्ठतर है। यही गोसाईजी की उक्तियों का मर्म है। जीव गोस्वामी का ‘रासपंचाध्यायी’ की टीका में कथन है कि ब्रह्म से श्रेष्ठ है परमात्मा, परमात्मा से श्रेष्ठ है भगवान्। अतः ब्रह्म के ज्ञाता ‘ज्ञानी’ से श्रेष्ठ है परमात्मा का ज्ञाता ‘विज्ञानी’ (योगी) और ‘विज्ञानी’ या योगी से भी श्रेष्ठतर है भगवान् के प्रति समर्पित ‘भक्त’। ‘विज्ञानी’ तो ज्ञान की ‘बुद्धि’ से भी श्रेष्ठतर मनोभूमि ऊर्ध्वचेतन, प्रातिभ ज्ञान और दिव्यदृष्टि से संपन्न होता है।

 


          वाल्मीकि कवि हैं और हनुमान यती और भक्त। यतता और जितेंद्रियता दोनों योग मार्ग के गुण हैं। ये दोनों गुण मारुति में विद्यमान हैं परंतु इनसे भी बढ़कर उनके चरित्र का केंद्रीय गुण है ‘भक्ति’। योग दर्शन के विभूति पाद में वर्णित काव्य संपदा (रूपलावण्यबलवज्ज्र संहननत्वादि… जितेंद्रियता, मनोजवित्व, पंचभूत-जय, अष्टसिद्धि आदि) मारुति को उपलब्ध है। परंतु ये सब उनकी प्रासंगिक विशेषताएं हैं। मूल विशेषता है ‘भक्ति’। भक्ति का योगानुभूति से क्या संबंध है? योग-दर्शन के अनुसार समाधि दो प्रकार की होती है- सविकल्प और निर्विकल्प। भक्ति और काव्य दोनों ‘सविकल्प समाधि’ से संबंधित है। ‘विकल्प’ का अर्थ है, ‘विकल्पना’ या ‘कल्पना’। पातंजलि योगदर्शन में कहा गया है: “शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।” अर्थात् विकल्प का ज्ञान शब्द (संज्ञा-सर्वनाम-क्रियादि) के अनुरूप ही होता है परंतु वह वस्तु शून्यता में (वस्तु की अनुपस्थिति या आवर्त्तमानता में) घटित होता है। अर्थात् अविद्यमान वस्तु की ज्ञात शब्द-बिम्बों के आधार पर कल्पना करना विकल्प है। जब समाधि में स्थूल रूपों (यथा फूल, चंदन, तारा, नारी, मनुष्यलोक, गंधर्वलोक आदि) का विकल्प प्राप्त हो तो वह ‘सविकल्प’ समाधि है। जब समाधि में सूक्ष्म रूपों का या ईश्वर को अशरीरी उपस्थिति के आभास का या निर्वैयक्तिक परम सत्ताओं का (जैसे गीता का विभूति दर्शन योग) विकल्प प्राप्त होने लगे तो यह ‘सविचार’ समाधि है। ‘सविचार’ और ‘सविकल्प’ दोनों प्रकार की समाधियां ‘सबीज’ समाधि के भेद हैं। कवि और योगी का प्रवेश दोनों में है, परंतु प्रथम है काव्य की मूल मनोभूमि और दूसरी है योगी की। भक्त की अबाधगति दोनों क्षेत्रों में है। योगी इनके अतिरिक्त निर्विकल्प -निर्विकार समाधियों में विचरण करता है तथा इन चारों को पार कर शुद्ध निराकार निर्गुण की भूमि ‘निर्बीज’ समाधि में भी प्रवेश कर जाता है। परंतु कवि को ‘सविकल्प’ और ‘सविचार’ समाधियों से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ‘निर्बीज’ समाधि तो शब्दातीत, रूपातीत, निर्गुण, निराकार, अनुभवों का क्षेत्र है जिसकी भाषा है मौन, एक ऐसा अगाध-अतल मौन जिसकी अभिव्यक्ति देने में भाषा के सारे बिंब और अनुभव के सारे ‘सांचे’ अक्षम हैं। अतः उस समाधि से भाषा के उपासक कवि का और सगुण परमात्मा के उपासक भक्त का क्या सरोकार? कवि और भक्त को तो ‘भावानुप्रवेश’ और ‘ध्यान’ चाहिए और ध्यान-योग के सारे उपकरण सविकल्प और सविचार समाधियों में ही प्राप्त हो जाते हैं। इसके आगे की समाधि में योगीजन प्रवेश करते हैं। कवि और भक्त का उद्देश्य इतने से ही सिद्ध हो जाता है। इसके बाद यदि भक्त को कुछ चाहिए तो वह है भगवद् करुणा। वह योग, यत्न या प्रयत्न से नहीं आती बल्कि वह ऊपर से बरसती है। यह भगवद् करुणा योगी के लिए भी आवश्यक है। इसके बिना उसका योग मात्र हठयोग रह जाता है। रामचरितमानस में कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान को ‘विज्ञानी’ अर्थात् ‘योगी’ कहकर कविता और भक्ति की इसी यौगिक ‘मर्मी’ विशेषता या ‘रहस्य’ को उद्घाटित किया गया है। यह ‘विशुद्ध विज्ञानौ’ उपाधि इस बात का संकेत करती है कि कविता, भक्ति और योग तीनों के बीच मात्रागत भेद अवश्य है परंतु तत्त्वतः तीनों एक ही प्रकार की उपासनाएं हैं जिनका प्रस्थान एक है। भगवान् की भक्ति स्वयं में एक कविता है, संभवतः विशुद्धतम कविता। इसी अर्थ में किसी ने कहा है: “Christionity is a pathetic poem sung by Jesus.” सारा वैष्णव धर्म ही एक मनोहर ‘काव्य’ है और एक रागतरंगायित ‘भाव-योग’ है।

 

अनेक ज्ञानमार्गी आचार्यों ने भी भक्ति को ज्ञान से योग से बढ़कर कहा है और ज्ञान से भी श्रेष्ठतर माना है। मधुसूदन सरस्वती जैसे वेदांती ने, जिन्होंने सुरेश्वराचार्य के वार्तिक की टीका लिखी है, अपने निर्गुण निराकार ब्रह्म को मानते हुए भी अंत में स्वीकार किया है-

 

ध्यानाभ्यास वशीकृतेन मनसा यत् निर्गुणं निष्क्रियं।

ज्योतिः किञ्चन योगिनो यत् परं पश्यन्ति पश्यन्तुते।

अस्माकं तु तदैवलोचन चमत्काराय भूयाच्चिरम्।

कालिन्दी पुलिनेषु यत् किमपि तन्नीलमहो धावति।”

 

यह सही है कि ‘निर्विकार’ समाधि के बाद ‘ऋतंभरा प्रज्ञा’ का उदय होता है जो ‘निर्बीज’ समाधि का द्वार खोल देती है और योगी को महाविदेहा स्थिति में ले जाती है एवं कैवल्य परम पद प्राप्त करती है। परंतु भक्तिमार्गी इस कैवल्य परम पद को बार-बार अस्वीकृत करके पुनः पुनः जन्म लेना चाहता है लीला-रस के आस्वादन के लिए। इसी से वैष्णव लोगों के अनुसार ऋतंभरा प्रज्ञा-प्राप्त योगीगण भी भक्तों से नीचे हैं। भक्त ‘विज्ञानी’ या ‘योगी’ से भी श्रेष्ठतर विशुद्ध विज्ञानी होता है। महाविदेह स्थिति के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ बोध में ‘अहं’ रह ही जाता है यद्यपि उस अहं में नाम-रूप-आकृति सब कुछ विराट् ब्रह्ममय हो जाता है। परंतु भक्ति में इतनी क्षमता है कि ब्रह्म या भगवान् से भिन्न रहकर भी भक्त अपने ‘अहं’ को प्रसाद बना देता है और उसे समस्त सृष्टि में जन-जन को बांट देता है। यह स्वयं का वितरण निश्चय ही ‘अहं’ के दमन द्वारा त्याग से श्रेष्ठतर और स्वस्थतर है।

 


परमहंसों, योगियों और गोसाइयों का सौंदर्यबोध श्रेष्ठतम काव्य होता है। ये सविकल्प समाधि में प्रवेश करके अपने ‘ह्लादिनी’ बोध या सौंदर्यबोध को काव्य-रूपक में प्रस्तुत करते हैं। जीवात्मा अपने जन्म-जन्मांतर की मधुमयी रात्रियों का मधु एक बिंदु पर केंद्रित करके अपनी विकल्प रूपी प्रेमिकाओं के साथ इसी सविकल्प समाधि के भीतर रास रचती है। यह जीवात्मा ही प्रत्येक हृदय में स्थित श्रीकृष्ण है और ‘ह्लादिनी’ के विविध बिंब, जो सविकल्प समाधि में उदित होते हैं, विविध ‘लीला-वधुएं’ हैं। सविकल्प समाधि एक क्षीर समुद्र है जिस पर यह नित्य काव्यानुभूति अभिनीत होती है। वल्लभाचार्य ने अपनी ‘कारिका’ के प्रारंभ में इसी तथ्य का संकेत किया है-

 

नमामि हृदयशेषे लीला क्षीराब्धि शायिनम्,

लक्ष्मी सहस्र लीलाभिः सेव्यमानं कलानिधिम्।”

 

सौंदर्यबोध ‘योग’ का ही एक भेद है जिसे जीवात्मा की सोमकला रूप ‘श्रीकृष्ण’ नित्य भोग रहे हैं, परंतु इस भोग का सचेत अनुभव होता है कवि को सविकल्प समाधि में प्रवेश करके। योगानुभूति और काव्यानुभूति दोनों सजातीय हैं। अवश्य ही शुद्ध रसबोध की स्थिति में ही यह संभव है जब मन रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वोद्रेक से समृद्ध होता है और वासना-पंक से रहित और निर्मल रहता है। नित्यनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का क्षेत्र योग की सविकल्प समाधि ही है। डॉ0 नगेन्द्र का मत है कि काव्यशास्त्र में प्रचलित ‘प्रतिभा’ की धारणा का विकास योगदर्शन की ‘प्रज्ञा’ और प्रातिभ-ज्ञान की धारणाओं के आधार पर कल्पित हुआ ज्ञात होता है ।

 

गोसाइँजी के दोनों विशुद्ध ‘विज्ञानी’ कवि वाल्मीकि और भक्त हनुमान सीताराम के गुणग्राम के पुण्यारण्य में नित्य विहार करते हैं। यह पुण्यारण्य है भक्त का अपना मानस चित्रकूट, जिसमें मानसी मंदाकिनी प्रवाहित है। अयोध्याकांड में रामचंद्र वाल्मीकि से पूछते हैं कि वे अपने अरण्यवास के लिए आश्रम कहां पर निर्मित करें। इस प्रश्न का वाल्मीकि जो उत्तर देते हैं वह चमत्कारपूर्ण होने के साथ-साथ उस ‘मानस चित्रकूट’ का सांगोपांग वर्णन है (अयोध्याकांड : दोहा संख्या 126 से 130 तक)। इन चौपाइयों में भक्ति के 14 आदर्श उपस्थित किए गए हैं और वाल्मीकि का निवेदन है कि ऐसे लक्षणों से संपन्न मानस अरण्य में ही राम अपना ‘बासा’ बांधे। उनकी उपस्थिति से समृद्ध मानस अरण्य में भक्त भी नित्य विहार करता है, क्योंकि भक्त वहीं रहेगा जहां उसका भगवान्। एक समय था कि वाल्मीकि अपने काम, क्रोध, लोभ आदि संगियों के साथ नित्य घोर अरण्य-विहार करते थे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनके मन में ही कल्पवृक्षों का एक अद्भुत वन उगाया जा सकता है। तब उनका मानस एक तृषा-दग्ध मरु था। परंतु राम-राम जपते हुए उन्होंने इस मर्म को आविष्कृत किया कि उनके मानस मरु में कल्पवृक्षों के अंकुर फूट रहे हैं और जब यह जप चरम सीमा पर पहुंचा तो वे अंकुर कल्प-पारिजातों में परिवर्धित हो गए और उन्होंने उस कल्प-पारिजात वन के मध्य अपने परम पवित्र देवता और नायक का सिंहासन स्थापित किया ‘रामायण’ लिखकर।  इसी मानस कल्पवन् या मानस चित्रकूट को इस श्लोक में ‘पुण्यारण्य’ कहा गया है। यह पुण्यारण्य प्रत्येक कवि, कलाकार और भक्त के मन में सहज रूप से और अनिवार्य रूप से आता है और वृद्धि पाता है। यही सविकल्प समाधि का चित्रकूट है। वाल्मीकि और हनुमान ही नहीं, गोसाईं तुलसीदास के मानस लोक में भी ऐसा ही एक पुण्यारण्य था, जिसके कल्पवृक्षों के पत्तों पर ‘मानस पत्रिका’, ‘कवितावली’ आदि लिख-लिखकर उन्होंने अपने अंतर की तमसा को पराजित किया और बाहर-बाहर के युग के हृदय में व्याप्त तमोगुण से लड़ने की प्रेरणा भविष्य के उत्तरकालीन पुरुषों को प्रदान की है। यही कारण है कि महाकाव्य के अंतिम श्लोक में उन्होंने ‘स्वांतः तमः शान्तये’ की बात की है ‘स्वांतः सुखाय’ की नहीं । यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो ‘सुख’ अंतर की क्रुद्ध तमसा की ‘शांति’ का ही दूसरा नाम है।


                             

(जनवरी 1975, वीणा में पहली बार प्रकाशित। ‘महाकवि की तर्जनी’ संग्रह में संकलित )

गुरुवार, 21 मार्च 2024

सुन्दरकांड सम्पूर्ण

श्लोक –

 

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।।

 

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में

कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।।

 

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।।

 

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई।।

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा। चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।
बार बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना।।

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।

 

दो0- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।।

 

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।।
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।
कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।
जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।।
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।

 

दो0-राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।

 

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।
गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।।

 

छंद- कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।।

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।2।।

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।।

 

दो0-पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।

 

नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।

मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।।
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।।
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।

 

दो0-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।

 

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।।
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।
मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।
सयन किए देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।

 

दो0-रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।5।।

 

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।
मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।
राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।
एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।।
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।।

 

दो0-तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।।

 

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।

 

दो0-अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।

 

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।।
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा।।
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही।।
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता।।
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवनसुत बिदा कराई।।
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ।।
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।।
कृस तन सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी।।

 

दो0-निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।।

 

तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।।
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा।।
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।।
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा।।
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।
सठ सूने हरि आनेहि मोहि। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।

 

दो0- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।।

 

सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना।।
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।।
स्याम सरोज दाम सम सुंदर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।।
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।
चंद्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।।
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।।
सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा।।
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।
मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।

 

दो0-भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहि धरहिं रूप बहु मंद।।10।।

 

त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।।
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।।
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई।।
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।
यह सपना में कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी।।
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं।।

 

दो0-जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।।

 

त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।।
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी।।
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।।
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।।
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा।।
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी।।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।।
नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।।

 

सो0-कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ।।12।।

 

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी।।
जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।।
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।।
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कहि सो प्रगट होति किन भाई।।
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ।।
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।
नर बानरहि संग कहु कैसें। कहि कथा भइ संगति जैसें।।

 

दो0-कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।।

 

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयउ तात मों कहुँ जलजाना।।
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।।
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।
सहज बानि सेवक सुख दायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक।।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता।।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।।
जनि जननी मानहु जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।

 

दो0-रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।।

 

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।।
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।।

 

दो0-निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।।

 

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।।
रामबान रबि उएँ जानकी। तम बरूथ कहँ जातुधान की।।
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।
मोरें हृदय परम संदेहा। सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।

 

दो0-सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।।

 

मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।।
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।

 

दो0-देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु।।17।।

 

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।।
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।
नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।।
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे।।
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।।
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।।
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।।
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।

 

दो0-कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।।

 

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।।
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही।।
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।।
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा।।
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई।।
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।

 

दो0-ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।।19।।

 

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।।
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।।
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।।
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।

 

दो0-कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।।

 

कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहिं के बल घालेहि बन खीसा।।
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही।।
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।।
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचित माया।।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन।।
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।।

 

दो0-जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।।

 

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।।
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।।
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।।
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।।
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।।
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।।

 

दो0-प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।।

 

राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राज तुम्ह करहू।।
रिषि पुलिस्त जसु बिमल मंयका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका।।
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।।
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषण भूषित बर नारी।।
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।।
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गए पुनि तबहिं सुखाहीं।।
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।।
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।

 

दो0-मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।।

 

जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहुँ मूढ़ कर प्राना।।
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।।
आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई।।
सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर।।

दो-कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।।

 

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।।
जिन्ह कै कीन्हसि बहुत बड़ाई। देखेउँûमैं तिन्ह कै प्रभुताई।।
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।।
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला।।
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी।।
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी।।
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघु रुप तुरंता।।
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भई सभीत निसाचर नारीं।।

 

दो0-हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।।

 

देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला।।
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहि अवसर को हमहि उबारा।।
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।।
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।।
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।
ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।।
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।

 

दो0-पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।।

 

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।।
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।
तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।।
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।।
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।

 

दो0-जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।।

 

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।।
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलकिला कपिन्ह सुनावा।।
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।।
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।।
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।।
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा।।
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।।
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।

 

दो0-जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।।

 

जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई।।
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।।
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा।।
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।।
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।।
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा।।
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।

 

दो0-प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।
पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।।

 

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।।
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रेलोक उजागर।।
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी।।
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए।।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए।।
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।

 

दो0-नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।।

 

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही।।

नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहि अपराध नाथ हौं त्यागी।।
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करिहिं हठि बाधा।।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।।
नयन स्त्रवहि जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता के अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।

 

दो0-निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।।

 

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।।
बचन काँय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं।।
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।

 

दो0-सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत।।32।।

 

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर।।
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।।
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।।
साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।

 

दो0- ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल।।33।।

 

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।
यह संवाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा।।
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा।।
अब बिलंबु केहि कारन कीजे। तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे।।
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।।

 

दो0-कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।।

 

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गरजहिं भालु महाबल कीसा।।
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।।
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना।।
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।।
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं।।
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहि सोई।।
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहि बानर भालु अपारा।।
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।।
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।

छं0-चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।।1।।

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई।।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी।।2।।

 

दो0-एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।।

 

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब ते जारि गयउ कपि लंका।।
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।।
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई।।
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी।।
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।।
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहु।।
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी।।
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई।।
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।

 

दो0–राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।।

 

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।।
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।।
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।।
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही।।

 

दो0-सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।।

 

सोइ रावन कहुँ बनि सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।।
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।।
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरुप कहउँ हित ताता।।
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।।
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाई।।
चौदह भुवन एक पति होई। भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई।।
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।

 

दो0- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।।38।।

 

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपासिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।।
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन।।

 

दो0-बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39(क)।।

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39(ख)।।

 

माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।।
तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ।।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना।।
तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।।
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।

 

दो0-तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार।।40।।

 

बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।।

सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहि निकट मुत्यु अब आई।।
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।।
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाही।।
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।।

 

दो0=रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मै रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।।41।।

 

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयूहीन भए सब तबहीं।।
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।।
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।।
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।।
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।।
जे पद परसि तरी रिषिनारी। दंडक कानन पावनकारी।।
जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।।
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मै देखिहउँ तेई।।

 

दो0= जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।।42।।

 

एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा।।
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।
ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।।
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।।
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।।
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया।।
भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा।।
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी।।
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।।

 

दो0=सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।।

 

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू।।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।।
जौं पै दुष्टहदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा।।
जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते।।
जौं सभीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाई।।

 

दो0=उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि चले अंगद हनू समेत।।44।।

 

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर।।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता।।
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।
सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।।
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।।
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।।

 

दो0-श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।।

 

अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।।
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।।
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।।
बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।।

 

दो0-तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।

 

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।।
ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।।
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा।।

 

दो0–अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिब सेब्य जुगल पद कंज।।47।।

 

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।।
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवे सभय सरन तकि मोही।।
तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना।।
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी।।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।
अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें।।
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।

 

दो0- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।।

 

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी।।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा।।
सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी।।
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।

 

दो0-रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेहु राजु अखंड।।49(क)।।

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।49(ख)।।

 

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना।।
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी।।
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।।
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।।
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँती।।
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।।
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।।

 

दो0-प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।।

सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।।
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई।।
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।।
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए।।

 

दो0-सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।।

 

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।।
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने।।
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर।।
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए।।
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।।
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।।
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए।।
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।

 

दो0-कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलेहु न त आवा काल तुम्हार।।52।।

 

तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।।
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जब कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी।।

 

दो0–की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर।।53।।

 

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना।।
श्रवन नासिका काटै लागे। राम सपथ दीन्हे हम त्यागे।।
पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई।।
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी।।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा।।
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।

 

दो0-द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।54।।

 

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।।
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रेलोकहि गनहीं।।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर।।
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।।
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा।।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहीं न त भरि कुधर बिसाला।।
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।।

 

दो0–सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहु जीति सकहिं संग्राम।।55।।

 

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई।।
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर।।
तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पंथ कृपा मन माहीं।।
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।
सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें।।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।
रामानुज दीन्ही यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।।
बिहसि बाम कर लीन्ही रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।

 

दो0–बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56(क)।।

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56(ख)।।

 

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई।।
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।।
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।

 

दो0-बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।

 

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।

 

दो0-काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।।

 

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।।

 

दो0-सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।।

 

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाई रिषि आसिष पाई।।
तिन्ह के परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
मैं पुनि उर धरि प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ।।
एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।
देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।।
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा।।

छं0-निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ।।
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना।।

 

दो0-सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।।

 

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
पञ्चमः सोपानः समाप्तः ।
सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ
(इति सुन्दरकाण्ड समाप्त)

 

 

Sunderkand Lyrics

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