गुरुवार, 25 जनवरी 2024

साँथरी : मानस शब्द संस्कृति

 

साँथरी


गुहँ संवारि साँथरी डसाई।
कुस किसलयमय मृदुल सुहाई।।

सोने से पूर्व वस्त्रादि से जोड़कर बना हुआ बिछौना #साँथरी कहा जाता है। आज उन्नत गद्दे और रजाई/चादर आ गए हैं।  पहले धोती/साड़ी आदि को जोड़कर लेवा, कथरी, सुजनी आदि बिछौने बनते थे। सुंदर और सुरचित साँथरी निषादराज गुह ने संवारकर बिछाया।
तुलसीदास जी ने डासने अर्थात बिछाने का बहुत मार्मिक चित्रण किया है। अपनी एक कविता में वह बिछावन बिछाते बिछाते रात बीत जाने का वर्णन करते हैं। यह व्याकुलता है, छटपटाहट है। डासत ही बीति निसा सब, कबहूं न नाथ नींद भर सोयो।
श्रीरामचरितमानस में यह अयोध्याकांड में आया है २.८९ पर।

#मानस_शब्द #संस्कृति


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