रविवार, 13 दिसंबर 2020

कथावार्ता : उदारीकरण की संस्कृति

- डॉ रमाकान्त राय

कहते हैं, बीस वर्षों में एक पीढ़ी बनकर तैयार हो जाती है। आजादी के बीस बरस बाद जो पीढ़ी सामने आई थी, उसमें देश की दशा-दिशा को लेकर गहरी निराशा की भावना थी। रघुवीर सहाय एक कविता आत्महत्या के विरूद्धमें लिखते हैं- दोनों, बाप मिस्तरी और बीस बरस का नरेन/ दोनों पहले से जानते हैं पेंच की मरी हुई चूड़ियाँ/ नेहरु युग के औजारों को मुसद्दीलाल की सबसे बड़ी देन।” मिस्तरी के लिए मरी हुई चूड़ियाँ बहुत मानीखेज बात है। आत्महत्या के विरूद्ध संग्रह सन १९६७ ई० में छपा था। उस कविता ने नेहरु युग की तमाम उपलब्धियों को मरी हुई चूड़ियों में व्यक्त कर दिया है। न सिर्फ रघुवीर सहाय, अपितु सत्तर के दशक के अधिकांश रचनाकारों के यहाँ आजादी के बीस साल बाद की हताशा मुखर होकर दिखाई पड़ती है। राजकमल चौधरी के यहाँ इसे गहरी अनास्था और विचलन में देखा जा सकता है। राही मासूम रज़ा के बहुत प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँवमें यद्यपि आजादी के बाद के बीस साल की कोई कहानी नहीं है लेकिन लगभग इसी अवधि में लिखी गई इस रचना में जिस तरह की गालियाँ मिलती हैं, लोगों का एक बड़ा समूह अपने समय से बहुत क्षुब्ध दिखाई पड़ता है, वह ध्यान दिए जाने लायक है। यह हमेशा ध्यान देने की बात है कि राही मासूम रज़ा के इस बहुत प्रसिद्ध उपन्यास के वही पात्र गालियाँ देते दिखाई पड़ते हैं, जो अपने माहौल से बहुत असंतुष्ट हैं अथवा विक्षिप्ततावस्था की ओर उन्मुख हैं। फुन्नन मियाँ की गालियाँ इसलिए और भी ऊँची आवाज प्राप्त कर लेती हैं कि उनके बेटे मुम्ताज को शहीदों की सूची में नहीं रखा गया है। उसे उल्लेखनीय नहीं समझा गया है जबकि वह थाना फूंकने वाले लोगों के समूह में सबसे अगली कतार में था। बहरहाल, यह कहना है कि यह अनास्था हमें ‘राग दरबारी’ और उस दौर के कई मशहूर उपन्यासों में देखने को मिल सकती है। यह भी देख सकते हैं कि उस दौर के साहित्य में गाली, एब्सर्डनेस और गहन यथार्थवादी तस्वीरें देखने को मिलती हैं।
यहाँ यह कहना है कि आजादी के बीस वर्षों के बाद जिस तरह की अभिव्यक्ति देखने में आई थी, क्या हम कह सकते हैं कि उदारीकरण के बीस साल बीत जाने के बाद हमारे समाज में उसका असर देखने में आ रहा है? देश में उदारीकरण की विधिवत शुरुआत १९९१ से मानी जाती है। तब से अब तक दो दशक से अधिक लम्हा गुजर गया है और पीढी के बदलाव को बखूबी देखा जा सकता है।

उदारीकरण की संस्कृति (जनसंदेश टाइम्स में 17 फरवरी, 2014 को प्रकाशित)

यह बात इन दिनों अक्सर परिलक्षित की जा रही है कि एक कमरे में अगर आठ लोग बैठे हों, वह भी एक ही परिवार के या एक समूह के तो ऐसा संभव है कि वे सभी अपने अपने आप में अथवा फोन या नेट सर्फिंग में व्यस्त देखे जा सकते हैं। इन दिनों सोशल मीडिया और मल्टीपरपज मोबाइल फोन ने हमें अपने घर में ही अजनबी बना दिया है। आप देखेंगे कि इधर की फिल्मों और कथा-कहानियों में एकाकीपन का चित्रण बढ़ा है। संयुक्त परिवार गायब हो गए हैं। सही अर्थों में अजनबीपन की स्थिति बनी है। हम घोर अनास्था और मूल्यहीनता की विद्रूपता में फँस गए हैं। हमने एक खिचड़ी संस्कृति विकसित कर ली है। यह भी कि उदारीकरण के बाद जन्मी और पली-बढ़ी पीढ़ी ने इस खिचड़ी और अधकचरी संस्कृति को अजीबो-गरीब संकीर्णता और दकियानूसी भाव की तरह अपनाया है। आप भीतर-बाहर कहीं भी यह देख सकते हैं। आज का युवा किसी अजनबी अथवा परिचित से कैसे संबोधन में वार्तालाप शुरू कर रहा है। हम अंग्रेजी के सरको किसी के संबोधन में जब इस्तेमाल करते हैं, तो उतने भर को पर्याप्त नहीं मानते। सरजीकहकर उसमें नई छौंक लगाते हैं। अंकलशब्द तो इतना चलन में है कि हर एक अजनबी, जो थोड़ा पारंपरिक है, अंकल है। आप अगर सामान्य भेष-भूषा में हैं तो संभव है कि आपकी उमर से भी बड़ा अथवा आपसे बराबर का कोई युवा आपको अंकल कहकर संबोधित करे। दिल्ली विश्वविद्यालय के कैम्पस में यह बात आम चलन में है कि वहाँ सलवार सूट पहने लड़कियों को ‘दीदी’ कहकर सम्बोधित किया जाता है। ऐसा नहीं है कि इस संबोधन में घरेलू भावना और प्यार, स्नेह, सम्मान रहा करता है। इसमें रहती है उपेक्षा। यह हीनता बोध कराने के लिए किया गया संबोधन होता है। ‘भईया जी’ का संबोधन भी इसकी एक बानगी है। वास्तव में यह प्रवृत्ति एक बेहद हिंसक स्वरुप का परिचायक है। यह कहा जा सकता है कि उदारीकरण के नून-तेल से पालित-पोषित आज की ‘यो यो पीढ़ी’ इस कदर निर्मम है कि वह अनायास ही मानसिक रूप से प्रताड़ित करती है। इस मानसिक प्रताड़ना का असर यह होता है कि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग के परिवारों के बच्चे या तो अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं अथवा हीनभावना से ग्रस्त। इसका समावेशी विकास पर गहरा असर पड़ता है।
मैं जब इसे अधकचरी या संस्कृति का घालमेल कहता हूँ तो इसमें यह भावना अन्तर्निहित होती है कि जब हम किसी को अंकल (ध्यान रहे कि चाचा, मामा, फूफा, मौसा आदि नहीं कहते), भईया या दीदी कहते हैं तो हम परिवार के उन मूल्यों को दरकिनार किये रहते हैं, जिनके होने से यह शब्द बहुत आदरपूर्ण बन जाया करते थे। हम उदारीकरण के बाद आये इस बदलाव को इस तरह भी देख सकते हैं कि हमने अंग्रेजी के सरको लिया तो लेकिन अपने परिवेश में उसे आत्मसात नहीं कर पाए। हम आगंतुक का सम्मान करने को बाध्य होते हैं। यह उस सहज स्वतः स्फूर्त भावना से नहीं आता जिस सहज स्फूर्त भावना से हमारे पारिवारिक रिश्ते के संबोधन आया करते थे। अब परिवारों में से चाचा, मामा, फूफा या मौसा जैसे संबोधन भी धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं और यह गायब होना एकल परिवार के साथ साथ हमारे संबंधो में आ रहे आइसोलेशन को भी प्रकट करता है।
इधर के साहित्य में इस तरह की अजनबीयत पहली बार प्रामाणिक तरीके से व्यक्त होकर आ रही है। हम यह नहीं कह सकते कि इससे पहले भी नई कहानी और समानान्तर कहानी के कहानीकारों के यहाँ अजनबीयत का यह रूप अंकित हो चुका है। कमलेश्वर की एक कहानी दिल्ली में एक मौतको रखकर हम कह सकते हैं कि अकेलापन और अजनबीपन तो इसमें भी आया था। आया था लेकिन मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि कमलेश्वर, मोहन राकेश, रमेश बक्षी, मनोहर श्याम जोशी और इसी तरह के अन्य प्रसिद्ध कहानीकारों के यहाँ जो अजनबीपन व्यक्त हुआ है वह पश्चिम की नक़ल है और आयातित है। असली समय भारत में तो अब आया है। ठीक से अकेलेपन और अनास्था को अब महसूस किया जा सकता है। समाज में भी, साहित्य और फिल्म में भी। आप देखेंगे कि इस दौर की कोई भी फिल्म या कथा साहित्य की कोई भी कृति संयुक्त परिवार, सामाजिक नायक अथवा आस्थायुक्त व्यक्ति को केन्द्र में नहीं लेकर चलती। जिनके यहाँ परिवार है, वह विघटन के बाद अपने में सिमट गया परिवार है। मैं यहाँ अपने समय के एक वरिष्ठ कहानीकार एस आर हरनोट की कहानी लोहे का बैलअथवा बिल्लियाँ बतियाती हैंसे सन्दर्भ देकर कहूँ तो कह सकता हूँ कि उनके यहाँ परिवार है तो लेकिन उनमें जो अकेलापन है वह बहुत ह्रदय विदारक है। बिल्लियाँ बतियाती हैंमें बेटा माँ की मदद करने की बजाय उससे ही मदद मांगने आया है। उस पूरे परिवेश में बेटे की चुप्पी और रिश्तों में आया ठहराव देखते बनता है। बीते दिन लंच बॉक्सनामक एक फिल्म देखने को मिली। फिल्म में जिस एक बात ने मेरा ध्यान खींचा, वह थी कि पति के मरने के बाद विधवा का यह कहना कि आज बहुत तेज भूख महसूस हो रही है। हम एक नजरिये से यह कह सकते हैं कि यह तो अपने अस्तित्व को पहचानने का क्षण है, जब एक विधवा लम्बे त्रासदपूर्ण जीवन के बात स्वयं को केन्द्र में रख रही है। लेकिन कुल मिलाकर यह एक एब्सर्ड बात है। हमने उदारीकरण के बाद इसे भी अपने जीवन में समो लिया है और इसे जस्टिफाई भी कर रहे हैं। यह स्त्री, दलित और हाशिये पर पड़े लोगों के लिहाज से तो बेहतरी का संकेत है लेकिन यह भी कहना है कि यह उदारीकरण की देन है।
उदारीकरण ने हमें कई अच्छी अवधारणा दी है। हमने हाशिये के लोगों को पहचानना शुरू कर दिया है लेकिन साथ ही इसने हममें वह अनास्था और अजनबीपन को भी दिया है, जिसके होने ने हमारा जीवन बहुत दूभर कर दिया है। हम आज उदारीकरण और भूमंडलीकरण के व्यूह में फँस गए हैं। छटपटा रहे हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालयइटावा

उत्तर प्रदेश, 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

कथावार्ता : शास्त्र और शस्त्र का द्वंद्व और हम

-डॉ रमाकान्त राय

किसी विवाद में क्या प्रभावी हैशास्त्र अथवा शस्त्रज्ञान का बल अथवा शरीर का बलबहुत मोटे तौर पर हम पूछते हैं- अक्ल बड़ी है या भैंस। प्रथम द्रष्टया शरीर का बल अधिक क्षमतावान और कारगर दिखेगा क्योंकि उसमें तत्काल फल देने का गुण सन्निहित है। आज ऐसे ही एक विशेष प्रकरण को उठाते हैं और महर्षि विश्वामित्र तथा वशिष्ठ के दृष्टांत से समझने का प्रयास करते हैं।

हमारी पौराणिक कहानियों में ऋषि विश्वामित्र अनेकश: उपस्थित हैं। वह महाराजा गाधि के पुत्र थे। गाधि के पिता कुशनाभकुशनाभ के कुश और कुश प्रजापति के पुत्र थे। इस तरह विश्वामित्रप्रजापति के चौथी पीढ़ी के प्रजावत्सल राजा थे। उनका जीवन महाराजामहर्षि से होते हुए ब्रह्मर्षि तक पहुँचता है और अनेकश: घटनाओं से टकराता है। उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग रामकथा से सम्बद्ध है जिसकी थोड़ी सी चर्चा हमने इस ब्लॉग दीपावली: राम के चरित्र का दीपक में की है। वस्तुतः अपने यज्ञपूर्ति के लिए वह राम को बक्सर ले जाते हैं जहाँ ताड़का वध सम्पन्न होता है। आज जिसे लहुरी काशी यानि गाजीपुर कहते हैंवह विश्वामित्र के पिता महाराजा गाधि के नाम पर ही स्थापित हुआ कहा जाता है और जब विश्वामित्र ताड़का से उत्पीड़ित थेउसके विनाश हेतु क्रियाशील होते हैं तो इसका सूत्र भौगोलिक स्तर पर भी संगत बनता है।

विश्वामित्र के जीवन का एक प्रसंग मेनका नामक अप्सरा से भी सम्बद्ध है। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र ने मेनका नामक अप्सरा को भूलोक में भेजा था। मेनका विश्वामित्र के साथ रहीं और उन्होंने शकुन्तला को जन्म दिया। यह शकुन्तला दुष्यन्त से मिलीं जिनके पुत्र प्रतापी भरत थे। महाभारत की कथा का आधार यहीं है।

विश्वामित्र को गायत्री मन्त्र का द्रष्टा ऋषि कहा जाता है। उनके नाम त्रिशंकु की प्रसिद्ध कथा जुड़ी हुई है। हालांकि हम वर्तमान में त्रिशंकु की स्थिति को बुरी स्थिति मानते हैंलेकिन अगर हम कथा को ठीक से जानें तो हमें विश्वामित्र के योगबल और तपोबल पर मान होगा। जब त्रिशंकु की सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा कोई पूरी नहीं कर रहा था तो विश्वामित्र ने यह बीड़ा उठाया। सबसे बैर लिया। हुआ यूं था कि इछ्वाकुवंशी प्रतापी राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग जाने की कामना की। इसके लिए वह वशिष्ठ के पास पहुँचे। वशिष्ठ ने मना किया तो उनके पुत्रों के पास पहुँचे। त्रिशंकु के इस ढीठाई पर वशिष्ठ के पुत्रों ने उनको शाप दे दिया कि वह चांडाल हो जाएँ। चांडाल बने त्रिशंकु विश्वामित्र के पास पहुँचे और विश्वामित्र ने यह बीड़ा ले लिया। उन्होंने सभी ऋषियों-मुनियों और देवताओं को यज्ञ का भाग ग्रहण करने के लिए बुलाया। वशिष्ठ के पुत्र नहीं आए तो सबको यमलोक भेज दिया। और प्रेतयोनि में भटकने का शाप अलग से दिया। उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का हरसंभव प्रयास किया और जब देखा कि त्रिशंकु की राह में इन्द्र यह कहते हुए खड़े हो गए हैं कि वह गुरु वशिष्ठ के पुत्रों द्वारा शापित हैंइसलिए स्वर्ग में नहीं रह सकते। तो बीच में ही एक स्वर्ग की रचना कर दी। सप्तर्षि का एक नया समूह बना दिया और एक नया इन्द्र बनाने लगे। देवता भयभीत हो गए और विश्वामित्र से अनुनय विनय करने लगे तो सुलह हुई। इस समझौते के अन्तर्गत त्रिशंकु को एक अलग स्वर्ग मिला जहाँ वह अभी राज भोग रहे हैं। उनके बीच में लटके रहने और अधर में रहने की कहानी इतनी भी पीड़ादायी नहीं हैजितना कि यत्र-तत्र उल्लिखित की जाती है।

महाभारत की हस्तलिखित प्रति का एक पृष्ठ

विश्वामित्र और वशिष्ठ के द्वंद्व के आरंभ की कथा महाभारत में है। एक दिन राजा विश्वामित्र अपने दस हजार सैनिकों के साथ शिकार पर निकले और राह भटक गए। भटकते-भटकते वह ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गए। वहाँ वशिष्ठ ने उनका आदर-सत्कार किया और कुछ अवधि तक रुकने का निवेदन किया। विश्वामित्र को उनका आतिथ्य सत्कार पसंद आया। वन में रहने वाले एक तपस्वी के लिए दस हजार सैनिकों और लाव-लश्कर का स्वागत कोई सामान्य बात नहीं थी। विश्वामित्र इससे आश्चर्य में थे। तब उन्होंने इस सत्कार का राज जानना चाहा। वशिष्ठ ने बताया कि यह समृद्धि नंदिनी नामक कामधेनु से है। विश्वामित्र ने कहा कि आप दस हजार गाय ले लीजिये और नंदिनी मुझे दे दीजिये। वशिष्ठ ने कहा कि अगर यह गाय आपके साथ जाना चाहे तो ले जाएँ। नंदिनी ने जाने से अनिच्छा प्रकट की तो विश्वामित्र ने अपने सैनिकों से कहा कि इसे जबरदस्ती ले चलो। नंदिनी ने इस बरजोरी पर कातर आँखों से वशिष्ठ से अनुनय की। वशिष्ठ ने कहा कि हमने सहमति से ले जाने की अनुमति दी थी। कि इस तरह बलात न ले जाएँ। विश्वामित्र को अपनी दस सहस्त्र सशस्त्र सेना पर बहुत अभिमान था। उन्होंने वशिष्ठ को अपशब्द कहा और कहा कि नंदिनी को तो अब किसी कीमत पर ले जायेंगे।

भयंकर युद्ध हुआ और विश्वामित्र हार गए। शास्त्र बल ने शस्त्र के बल को पराजित कर दिया। विश्वामित्र के सौ पुत्र भी काल-कवलित हुए। विश्वामित्र का दर्प चूर-चूर हो गया। ज्ञान की इस ताकत को देख उनको बोध हुआ कि वास्तविक शक्ति तो ज्ञान में निहित है। वह राजपाट छोड़कर ज्ञान अर्जन हेतु वनगमन कर गए। यह झगड़ा बहुत लंबा चला और विश्वामित्र के ब्रह्मर्षि बनने पर शमित हुआ।

विश्वामित्र की कथा इस प्रयोजन से की गयी है कि शास्त्र का बल शस्त्र के बल से अधिक है। जब शास्त्र और शस्त्र में द्वंद्व होगा तो अंततः शास्त्र ही विजयी होगा। शास्त्र के साथ अच्छी बात यह है कि इसकी गति विशिष्ट है। यह हत्या भी करता है तो वह सामान्य तौर पर परिलक्षित नहीं होता। वह हिंसा में नहीं गिना जाता। शास्त्र की मार अदृश्य होती है और बहुत गहरी। शस्त्र शरीर को नष्ट करता हैशास्त्र चाहे तो व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न कर सकता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने शास्त्र के बल पर हमेशा अपना स्थान पूजनीय रखा और वह ऋषि बने रहे। उनसे अधिक क्षमतावान विश्वामित्र व्यक्तित्व की चंचलता और अस्थिरता तथा शस्त्र प्रयोग और मोटी बुद्धि के कारण उस विशेष पद के अधिकारी नहीं हुए जो उन जैसे महर्षि के लिए अपेक्षित था। 

 कथा का लब्बो लुआब यह है कि बहस मेंचाहे वह असहिष्णुता की हो या सांस्कृतिकराजनीतिकआर्थिक मुद्दे कीआपको जीतना है तो ज्ञान को अपनाना पड़ेगा। लाठी लेकर पिल पड़नागाली-गलौज (गलौच शब्द गलत है) और भोथरे मजाक करना शस्त्र से युद्ध करना है। प्रतिपक्षी के छद्म प्रचार को विनम्रता से सुनिए और उसे अधिक सहिष्णुता से ख़ारिज कीजिये। लोहे को लोहा काटता है लेकिन आग से आग नहीं बुझती। उनके लगाए आग पर पानी डालना सीखिये।

 

असिस्टेंट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय

इटावाउत्तर प्रदेश 206001 

royramakantrk@gmail.com 9838952426

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

कथावार्ता : पंडितराज जगन्नाथ और मनोरमा कुच मर्दन

-डॉ रमाकान्त राय

      संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और शास्त्री पण्डितराज जगन्नाथ खूब चर्चित रहे हैं। वह दक्षिण भारत में जन्मेमुगल शासक शाहजहाँ के दरबार में रहेदाराशिकोह की मित्रता पाई और शाहजहाँ की एक बेटी लवंगी से विवाह किया। उन्होंने शस्त्र और शास्त्र दोनों में महारत पाई। ऐसी मान्यता है कि दरबार में रहते हुए ही शाहजहाँ के राजकीय मल्ल को पटखनी दी थी। शाहजहाँ ने उन्हें 'सार्वभौम श्री शाहजहाँ प्रसादाधिगतपण्डितराज पदवीविराजितेनकी उपाधि दी। उन्होंने काव्य की परिभाषा करते हुए लिखा था- रमणीयार्थ  प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्। यह परिभाषा साहित्यिक दुनिया में बहुत समादृत हुई।

      पण्डितराज जगन्नाथ की रचनाओं में काव्यात्मक उत्कर्ष और भावगत प्रौढ़ता के दर्शन होते हैं। उनकी कविता प्रसादगुण से युक्त है।पण्डितराज ने अपनी रचना रसगंगाधर में काव्य के स्वरूपकारणभेद-प्रभेदवाणियों के भेदरसभावगुणलक्षणउपमा और अलंकारों का विवेचन किया है। यह पूरा ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं है। इस अधूरे ग्रंथ के सहारे भी कहा जा सकता है कि सूत्रवृत्ति शैली में रचित इस ग्रंथ में विषय का बहुत ही सूक्ष्मगम्भीर और पांडित्यपूर्ण विवेचन किया गया है। रसगंगाधर संस्कृत साहित्य की आलोचना का प्रौढ़तम उदाहरण है। इसमें इनकी साहित्यिक प्रतिभा का चरम उत्कर्ष दिखलाई पड़ता है।

     उनकी लिखी पुस्तकों में रस गंगाधरभामिनि विलासपीयूष लहरीयमुना वर्णनरतिमन्मथ और मनोरमा कुच मर्दन प्रसिद्ध हैं। उनकी लिखी पुस्तकों की सूची निम्न है-

 

पण्डितराज जगन्नाथ विरचित ग्रंथ

    जगन्नाथ लवंगी से प्रेम करते थे। लवंगी शाहजहाँ की बेटी थी। मुगलों में शासकों की बेटियाँ विवाह नहीं कर पाती थीं। उनकी 'हैसियतका दूल्हा नहीं मिल पाता था। रक्त की शुद्धता के प्रति मुगल अतिशय आग्रही थे। ऐसे में यह प्रेमसम्बन्ध  मुगल काल के दौरान चर्चा में था। त्रिलोकनाथ पांडेय के उपन्यास 'प्रेमलहरीमें इस प्रकरण सहित उनके जीवन और रचना पर सरस चर्चा है। प्रेमलहरी वस्तुतः पण्डितराज के जीवन पर ही केन्द्रित ऐतिहासिक चरित गल्प है। इस उपन्यास के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं - ऐतिहासिक चरित गल्प : प्रेमलहरी

      एकदा पण्डितराज जगन्नाथ को मुसलमान युवती से प्रेम रखने पर काव्याचार्य भट्टोजी दीक्षित ने भरी सभा में प्रकारान्तर से "म्लेच्छ" कह दिया। पण्डितराज ने इसका बुरा माना। वह चाहते तो धोबी पछाड़ दाँव से वहीं दीक्षित जी को चित्त कर देते और मामला फरिया दिया होता। लेकिन उन्होंने इसका रचनात्मक प्रतिशोध लेना तय किया।

      पण्डितराज ने भट्टोजी दीक्षित की 'सिद्धान्त कौमुदीकी टीका 'प्रौढ़ मनोरमाकी न्यूनताओं का उद्घाटन "मनोरमा कुच मर्दन" में किया। मनोरमा कुच मर्दन में जगन्नाथ ने भट्टोजी दीक्षित की स्थापनाओं को छिन्न-भिन्न कर दिया है! 

नागेश भट्टजिन्होंने रसगंगाधर की टीका की हैने इस प्रकरण को छंदोबद्ध किया है-

मनोरमाकुचमर्दन का स्पष्टीकरण  

पण्डितराज जगन्नाथ ने भट्टोजी दीक्षित को जो रचनात्मक लताड़ पिलाईउसका उल्लेख राहुल सान्कृत्यायन ने घुमक्कड़ शास्त्र में इस तरह किया है- "भट्टोजी दीक्षित की भूल दिखलाने के लिए उन्‍होंने बहुत निम्‍नतल पर उतरकर मनोरमा के विरुद्ध 'मनोरमा-कुचमर्दनलिखा।" जगन्नाथ अप्पय दीक्षित से भी खिन्न थे या नहींयह तो ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता तथापि जिस तरह उन्होंने चित्रमीमांसाखण्डन में उनकी स्थापनाओं का खण्डन किया हैप्रतीत होता है कि वह उनके प्रति भी खासे अनुदार थे।

        राहुल सान्कृत्यायन न जाने क्यों कुछ खिन्न से हैं वह जगन्नाथ को पण्डितराज और संस्कृत का अंतिम महान कवि तो मानते हैं किन्तु उनका लहजा कुछ उखड़ा हुआ है- "शाहजहाँ के दरबारी पंडितपण्डितराज जगन्‍नाथ विचारों में कितने उदार थेयह इसी से मालूम होगा कि उन्‍होंने स्वधर्म पर आरूढ़ रहते एक मुसलमान स्‍त्री से ब्‍याह किया। उनकी सारे शास्त्रों में गति थी और वह वस्‍तुत: पण्डितराज ही नहीं बल्कि संस्कृत के अंतिम महान कवि थे।" अस्तु!

       आचार्य मधुसूदन शास्त्री ने पण्डितराज जगन्नाथ के इस ग्रंथ का परिचय देते हुए लिखा है- "मनोरमा कुच मर्दन भट्टोजी दीक्षित के सिद्धान्त कौमुदी की व्याख्या प्रौढ़ मनोरमा के कुचस्वरूप पंचसंधिप्रकरण का मर्दनात्मक खण्डन ग्रंथ है।"

      पण्डितजी ने शाहजहाँ की बेटी लवंगी से विवाह कियाराज्य त्याग दिया और छद्म रूप में बंगाल तथा काशीवास किया। कहते हैं कि उन्हें सपत्नीक जलसमाधि लेनी पड़ी। पण्डितराज जगन्नाथ ने प्रेम की भारी कीमत चुकाई।

      आज मनोरमा कुच मर्दन के बारे में फिर से पढ़ने को मिला तो यह सब लिखने का विचार उपजा।

 

असिस्टेण्ट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

+91 9838952426, royramakantrk@gmail.com

रविवार, 15 नवंबर 2020

 कथावार्ता : ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें

 -डॉ रमाकान्त राय 

          कल 'दीया दीवारीथीआज बुद्धू बो की पारी है! प्रात:काल ही उठ गया। दरिद्दर खेदा जा रहा था। माँ सूप पीटते हुए घर के कोने कोने से हँकाल रही थीं। आवाज करते हुए प्रार्थना कर रही थीं। यह प्रार्थना दुहराई जा रही थी। -ईश्वर पैसें दरिद्दर निकलें- ईश्वर का वास होदरिद्र नारायण बाहर निकल जाएँ। दरिद्र भी नारायण हैं। रात में दीप जलेपूजा हुईखुशियाँ मनाई गयींराम राजा हुए। लक्ष्मी का वास हुआ। अब दरिद्रता का नाश हो। यह निर्धनता नहीं है। यह मतलब नहीं निकलना चाहिए कि हमारी गरीबी दूर हो गयी। निर्धनता और दरिद्रता में अंतर है। निर्धनता में व्यक्ति का स्वाभिमान बना रहता है। दरिद्रता व्यक्ति की गरिमा को नष्ट कर देती है। उसका आत्मबल छीन लेती है। निर्धन होना अच्छा हो सकता हैदरिद्र होना कतई नहीं। राम राजा हुए हैं तो स्वाभिमान लौटा है। ऐसे में दरिद्रता कैसे रह सकती है। हमने उसे हँकाल दिया है।

          मैं माताजी के साथ हो लिया। दरिद्रनारायण को करियात से बाहर हँकाल दिया गया। सूप लेकर हम छोटे भाई के साथ गाँव के बाहरी छोर पर चले गए। वहां बालकनवयुवकयुवतियाँमहिलायें दरिद्र नारायण को हँकालते हुए इकठ्ठा हुई थीं। सूपदौरी आदि को जलाया जा रहा था। दीया पर अंजन बना रहे थे लोग। कोई खुरपी तो कोई हँसुआ पर दीये की लौ सहेजकर अंजन बना रहा था।

दीया पारती भद्र महिलाएं

          अंजन यानि काजल बनाना एक कला हैविज्ञान हैकार्रवाई है। हर गृहस्थिन को यह विद्या सहज प्राप्त हो जाती है। आज का बना हुआ काजल सालभर आँखों की ज्योति को सुरक्षित रखेगा। अंजन बनते ही बच्चों को उनकी माएँ टीका लगा रही थीं। बच्चे आतिशबाजी कर रहे थे। कुछ ने जलती लौ में पटाखे फेंके और लोगों की बड़बड़ाहट का मजा लिया। खूब उधम हुआ। एक बूढ़ी माँ ने खरी-खोटी सुनाई। सबको यह आशीष जैसा लगा।

(वीडियो देखें)

दरिद्दर हँकालने के बाद अंजन निर्माण 

     दलिद्दर खेदने के बाद गंगा स्नान के लिए जाना रहता है। अब यह प्रथा बन्द हो गयी। तीन चार किमी दूर जाकर गंगा स्नान करना जोखिम भरा तो है हीबोरिंग भी है। अब नदी में क्रीड़ा करना जॉयफुल नहीं रहा। समाचार पत्रोंमीडिया की सूचनाएँ डराती हैं। और वह आनंद अभीष्ट भी नहीं रहा।

          दरिद्दर खेदनेगंगा स्नान करने के बाद आज दोपहर भर बहनें सरापेंगी। वह व्रती हैं। अन्न जल ग्रहण नहीं करना है। दोपहर के बाद गोधन कूटे जायेंगे। तब जो सराप (शाप) उन्होंने दिया थागोधन कूटते हुए अपने ऊपर लेंगी। 'मेरे भईयाजीवन में हर कठिनाई से मुक्त रहें। हर बलाय हम सहें।'

गोधन कूटने की तैयारी में माताजी

          दरिद्र नारायण को खेदने की जगह इकठ्ठा युवकों की बातचीत के केन्द्र में कई चीजें हैं। कई ने रात में जुआ खेलनेसजे फड़ पर अपनी टिप्पणियां दी। कौन फड़ पर रात भर जमा रहा। कौन कितना हारा और कितना जीतकर भाग निकला। एक तो सुबह चार बजे आया। तड़ातड़ दाँव बदे और फिर एक बड़ी रकम जीतकर निकल गया। किस तरह दीया/बल्ब की रोशनी करने वाले ने हर तीसरी बाजी के बाद लगान वसूली की और इसको लेकर झगड़ा हुआ। किसने किसने चिल्लर का जनम छुड़ा लिया आदि आदि।

          मैं वहां से हटा तो फड़ की तरफ बढ़ा। वहाँ दीया जल रहा था। 'आधा गाँवके फुन्नन मियाँ की याद आयी। हर दीवाली की रात को वह जुआ खेलते थे और फड़ पर लक्ष्मी की फोटो के नीचे बैठते थे। यहाँ कोई फुन्नन नहीं था। सब गोबर्धन साह थे। दस बीस का जुआ खेल रहे थे और बातें हजारो की कर रहे थे। कुछेक "गुण्डा" के नन्हकू सिंह बनने की फिराक़ में भी थे लेकिन वहाँ लोकतंत्र था। मैं थोड़ी देर रहकर चला आया। अभी भी वहाँ मजमा जुटा हुआ है। 

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          आओ हम-तुम भी जुआ खेलते हैं। अगर तुम जीतीं तो हम तुम्हारे हुए और मैं जीता तो तुम मेरी। है मंजूर!! आओ समर्पण की दीवाली मनाते हैं।

 

-असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा

उत्तर प्रदेश, 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

शनिवार, 14 नवंबर 2020

कथावार्ता : दीपावली : राम के चरित्र का दीपक

-डॉ रमाकान्त राय

      दीपावली प्रकाश पर्व है।

     प्रकाश पर्व। जगमगाते दीपों का समूह हर अंधेरे को नष्ट कर डालता है। अंतर-बाहर दीप्त हो उठता है। सब कुछ प्रकट हो जाता है। उद्घाटित। आज 14 वर्ष का वनवास काटकर श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता सहित अयोध्या लौटे थे। राम लौटे तो अयोध्या ने खुशियाँ मनाई। घर घर में दीप जलाए गये। खील बतासे बाँटे गये। राम का आगमन चराचर जीवन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रकाश का आगमन है। उसकी अभिव्यक्ति अमावस्या की घुप्प अंधेरी रात में दीप का प्रकाश है। तुलसीदास इस भाव को सटीक शब्द देते हैं-

     राम नाम मनि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।

     तुलसी भीतर-बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार।।

राम नाम मनि दीप धरु!


        एक दीपक देहरी के द्वार पर रखना है। चौखट पर। जहाँ से प्रवेश है। अंतर और बाह्य दोनों प्रकाशित हो उठेगा।
है अंधेरी रात, पर दीया जलाना कब मना है!
    राम का जीवन अद्भुत है। कल वसु राम की कथा सुना रहे थे। विश्वामित्र द्वारा ताड़का संहार की कथा जोड़ते हुए उन्होंने कभी मेरी सुनाई हुई कथा में कुछ जोड़ते घटाते हुए कहा- तब दशरथ ने कहा कि ताड़का का संहार ही करना है तो मैं अतिरथी, महारथी विकट वीरों को आपके साथ भेज देता हूँ, स्वयं चलता हूँ- बालक राम और लक्ष्मण को क्यों गाढ़े में डालते हैं। तब विश्वामित्र ने कहा- नहीं, हमें तो राम ही चाहिए। दशरथ ने कहा कि आपको राम चाहिए अथवा ताड़का से मुक्ति? चतुर महर्षि ने कहा- "राम द्वारा ताड़का से मुक्ति!" यह बात कहते हुए वसु स्मित मुस्कान से भर आए। उन्हें इस वक्रोक्ति का आशय मिल गया था। खूब नानुच करने के बाद विश्वामित्र को राम लक्ष्मण मिले।

      यह पहला वनवास था। यद्यपि राम अपने भाइयों के साथ वशिष्ठ के आश्रम में रह आए थे और उन्हें 'अल्प काल विद्या सब आई' तथापि वह प्रवास वनवास नहीं था। विश्वामित्र उन्हें वन में ले जा रहे थे। बक्सर। आज के बिहार में। हमारा जनपद उसी से लगा हुआ है। मान्यता  है कि एक रात्रि राम त्रिमुहानी के गंगा तट पर रुके भी थे। उसकी स्मृति में भाद्रपद की द्वादशी को दंगल होता है और अगले दिन मेला लगता था। उसके अगले दिन चतुर्दशी का व्रत भी करने की बात है। लोक का मन इस सबको सहेज लेता है। अस्तु,

        राम को यह पहला वनवास मिला था लेकिन उनके साथ ऋषि-मुनियों का प्रकट सहयोग था। लेकिन यह उस समूचे संघर्ष की पूर्व पीठिका थी। समझने में सहायक कि अगर इसी तरह के वातावरण से सामना हुआ तो स्मृति में यह वन रहेगा। इस वनवास के बाद सीता मिलीं। अगला वनवास हुआ तो सीता की पुनर्प्राप्ति हुई।

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है!

राम का जीवन इस मायने में भी अद्भुत है कि उन्हें जो मिला, स्नेही मिला। श्री कृष्ण के जन्म से पहले ही कुचक्री क्रियाशील थे और उनका बचपन चमत्कारों से भरा हुआ है। वह कालिया नाग और इन्द्र के अहं को भी इसी काल में विगलित करते हैं। असंख्य असुरों का संहार करते हैं। कंस से उद्धार के लिए वृन्दावन से मथुरा की छोटी सी यात्रा होती है। लेकिन राम का जीवन जैसे ठोक पीटकर निर्मित किया जा रहा है!

        राम सबका निर्वाह करते हैं। वह सहज हैं। जीवन में कोई छल-प्रपंच नहीं है। छोटा भाई आगे बढ़कर राजा जनक का मुँह बन्द कर देना चाहता है कि बहुत देखे ऐसे धनुष। अभी इसकी प्रत्यंचा चढ़ाता हूँ तो राम रोकते हैं। गुरु विश्वामित्र की आज्ञा तो होने दो। लेश मात्र भी घमंड रहता तो कहते- इस धनुष को तो मेरा अनुज ही साध लेगा। नहीं कहा। प्रतीक्षा की। सहज रहे। सीता के प्रति अपनी अभिलाषा को भी प्रकट नहीं किया।

       राम बहुत विशिष्ट हैं। उनका नेतृत्व तो अनूठा है। वह वानरों को साथी बना लेते हैं। उनके भी इष्ट  हो जाते हैं। राम का काम ही हमारा काम है। कपि, भालू, वानर, रीछ सब उनके सहयोगी हैं। लक्ष्मण को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य एक भी नहीं। विभीषण असुर हैं। भीषण युद्ध में उनका सारथी देवकुल का है। बन्दरों से पुल बनवा लेना, सर्वाधिक अनुशासन वाला क्षेत्र सेना में सम्मिलित करना बहुत बड़ी बात है। वह रावण पर जो विजय प्राप्त करते हैं वह व्यक्ति नहीं वृत्ति की जय है।

         ऐसे राम, उत्कट योद्धा राम, रघुकुल के उज्ज्वल नक्षत्र राम, वचन के पक्के राम, स्नेही राम, प्रेमी राम घर लौट रहे हैं। वनवास हुआ तो दशरथ उनका वियोग नहीं सह पाये। अब अयोध्या में माँ प्रतीक्षा कर रही हैं। जब वनगमन हुआ तो दो अनुज ननिहाल में थे। अब जब लौटेंगे तो सब मिलेंगे। एक संक्षिप्त भेंट हुई थी सबसे चित्रकूट में। किन्तु वह वापसी नहीं थी।

         राम लौट रहे हैं। सबकी अपनी प्रतीक्षा थी, जिसकी घड़ी पूरी हुई है। सबने अपने घर में उजाला कर रखा है। 14 वर्ष का विकट अंधकार आज दूर हुआ है। अंतर बाहिर सब प्रकाशित है।

दीपावली पाँच दिन का पर्व है। धनतेरस पर धन्वंतरि के आयुष्मान से शुरू हुआ। "पहला सुख- निरोगी काया"। धनतेरस इस सुख का सहेजक है।

       धन्वंतरि समुद्र मंथन में मिले थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि धनतेरस आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन नए बर्तन ख़रीदते हैं और उनमें पकवान रखकर भगवान धन्वंतरि को अर्पित करते हैं, यह उत्तम स्वास्थ्य और धन धान्य से परिपूर्ण रहने की कामना का पर्व है। आखिर सबसे बड़ी नेमत तो निरोगी काया है!

       चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी भी कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर के अत्याचार से आज के दिन मुक्ति दी थी। वह प्राग्ज्योतिषपुर का विकट शासक था। 16000 स्त्रियों का जीवन नरक कर चुका था। श्री कृष्ण ने पट्टमहिषी सत्यभामा के साथ मिलकर यह उद्धार किया। समस्त कन्याओं को अंगीकृत किया। उनकी 16008 रानियों की जो बात कही जाती है, उसमें 16000 यही हैं।

     नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पहले स्नान कर लेना रहता है। नरक से मुक्ति रहती है। आयुष पर्व का पहला पाठ यही है। सूर्योदय से पहले नित्यक्रिया से निवृत्ति। अब नयी जीवन पद्धति में यह सब बातें यूटोपिया प्रतीत होती हैं लेकिन महज दो दशक पहले तक यह स्वाभाविक था। गाँव में हम सबमें यह प्रतिस्पर्धा रही कि कम से कम नरक चतुर्दशी के दिन बच्चे तक स्नान कर लेंगे। दिन कितना बड़ा हो जाता है।

    दीपावली लक्ष्मी गणेश की पूजा का भी पर्व है। आज ईश्वर के वास का दिन है।

ज ईश्वर आ जाएं तो कल सुबह दलिद्दर भी खेद देंगे। कहीं कहीं नरक चतुर्दशी को ही दलिद्दर खेद देते हैं। वैसे भी ईश्वर के प्रवेश के बाद दलिद्दर को स्वयं ही निकल जाना चाहिए था लेकिन लोगों ने यह उपक्रम भी करना तय किया। भोर में ही सूप पीटते हुए यह सम्पन्न होता है। 

मिट्टी का दीया 
फिर भैया दूज भी है। यह श्री कृष्ण की कथा से जुड़ गया है। गोधन की कुटाई का दिन। बहनों का शाप देना और फिर सब अपने पर ले लेना। पाँच दिन के इस पर्व में बंगाली भद्रलोक लोक्खी पूजा मनाता है। यह जो हिन्दू धर्म बहुदेववादी है, अलग अलग अवसरों पर अलग अलग देवी-देवताओं के साथ उल्लास से भर कर लोगों के साथ बना रहता है, उसमें कहीं भी वर्चस्व का, एकाधिकार का झगड़ा नहीं है। कहीं भी सर्वशक्तिमान होने की प्रतिष्ठा नहीं है। जो ऐसी भावना करता है, मुँह की खाता है। गोधन की तो बल भर कुटाई होती है। दीपावली पर्व में सर्वेषाम के कल्याण की कामना है।

               गोधन कुटाई 

     आइए, इस प्रकाशपर्व पर आनंद करें। सुख पाएं। सुख दें। जिएं। जीने दें। राम का गुणगान करें। उनके चरित को धारण करें। उनके चरित्र से प्रकाशित हों। जीवन को उज्ज्वल रस से भर दें। खूब प्यार करें। मस्त रहें। दूसरों को स्पेस दें किन्तु अतिक्रमण करने वालों का फण कुचल दें। प्रणाम।

 



असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटावा,

उत्तर प्रदेश 206001

royramakantrk@gmail.com, 9838952426

 

 


सोमवार, 9 नवंबर 2020

कथावार्ता : अश्वत्थामा की कहानी से क्या सीखना है?

-डॉ रमाकान्त राय


        महाभारत में युद्ध के अठारहवें दिन दुर्योधन को भीम ने बुरी तरह मारा था। वह पीड़ा से तड़प रहा था। उसकी जाँघ टूट गयी थी। दुर्योधन आखिरी दिन सेनापति था। अब युद्ध समाप्तप्राय था कि शाम ढलने के बाद उसे खोजते हुए शेष बचे तीन कुरुपक्षी, महारथी और अतिरथी आए- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। अश्वत्थामा द्रोण का पुत्र था। कृपाचार्य कुलगुरु थे और कृतवर्मा वृष्णिवंशी वीर था। कृतवर्मा के कहने पर दुर्योधन ने अश्वत्थामा को प्रधान सेनापति बनाया। अश्वत्थामा को उस हससम एक विचित्र घटना दिखी। एक उल्लू कौवे के घोंसलें में रखे अंडों को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा था। उसी से प्रेरणा पाकर उसने आधी रात को पांडव पक्ष पर आक्रमण करना तय किया। इन तीनों ने आधी रात को पांडवों की अनुपस्थिति में जमकर मारकाट की और सबको मार दिया। अश्वत्थामा पांडवों के पाँच पुत्रों का सिर लेकर दुर्योधन के पास पहुँचा। उसे विश्वास था कि उसने पांडवों को मार दिया है। जब दुर्योधन ने जाँचकर बताया कि यह पांडव नहीं हैं, तब वह अति उद्विग्न हो गया।

        पांडवों को इस हत्याकाण्ड की सूचना मिली तो उसमें से अर्जुन अश्वत्थामा के वध के लिए उद्धत हो गया। प्रतिज्ञा की। कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। अश्वत्थामा से घनघोर युद्ध हुआ। पराजय का आसन्न संकट देख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र चला दिया।

           आज यह कहानी इसी बिन्दु से शुरू करना चाहता था। ब्रह्मास्त्र की अपनी मर्यादा होती है। उसके नियम कानून होते हैं। वह प्रयोग की वस्तु नहीं है। आजमाया नहीं जाता। वह अन्तिम उपाय है। साम-दाम-दण्ड-भेद सब चुक जाये, आखिरी प्रयास भी निष्फल हो जाये तो भी एक क्षण विचार करने, चेतावनी देने के बाद का अस्त्र है। इसलिए इस अस्त्र को धारण करने वाले के लिए कई अर्हताएँ रखी गयी हैं। साथ ही यह व्यवस्था भी थी कि इसे वापस भी बुलाया जा सकता है। लेकिन दुर्भावना और कुंठा तथा हीन भावना से ग्रस्त, चंचल स्वभाव वाला, कलुषित और उदण्ड अश्वत्थामा ने अर्जुन के सम्मुख पराजय देख उसे चला दिया। प्रतिउत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। महामुनि व्यास को हस्तक्षेप करना पड़ा। अर्जुन ने तो यह अस्त्र वापस कर लिया किन्तु अश्वत्थामा वापस लेना नहीं जानता था। उसने यह सीखा ही नहीं था।

          अश्वत्थामाओं को इसका ज्ञान सदैव रहना चाहिए कि ब्रह्मास्त्र चलाना एक उद्वेग में हो सकता है, क्षणिक आवेश में इसका निर्णय लिया जा सकता है किन्तु एक बार इसका संधान कर लिया जाये तो उसे वापस बुलाना उतना आसान नहीं। इसके लिए सच्ची वीरता आवश्यक है। द्रोण अश्वत्थामा से परिचित थे। वह उसे यह विद्या देना नहीं चाहते थे किन्तु मोहवश, अपना पुत्र जान, अजेय बनाने के लिए प्रदान किया था। सभी द्रोणाचार्यों को इसका अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि विद्यादान में उपयुक्त पात्र का विशेष महत्त्व है। और अधिकार के मामले में तो यह अत्यन्त ही ध्यातव्य है। द्रोण ने इसका कुछ ध्यान रखा था इसलिए अर्जुन को सभी विद्या दीं। वह इसके सर्वथा योग्य था। किन्तु अश्वत्थामा को पुत्रमोह में दी। महाभारत में पुत्रमोह कई स्थलों पर दिखाई देता है।

          अर्जुन के साथ छिड़े युद्ध में ब्रह्मास्त्र छोड़ देने के बाद अश्वत्थामा निरुपाय था। तब उससे कहा गया कि वह इस अस्त्र की दिशा मोड़ दे। कुटिल और कुंठित अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश वृक्ष को नष्ट करना चाहा और उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु को निशाना बनाया। यह श्रीकृष्ण थे, जिन्होंने उत्तरा के गर्भस्थ शिशु को जीवन दान किया। सभी अर्जुनों को ध्यान रखना चाहिए कि एक श्रीकृष्ण अत्यावश्यक है। 

        अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण इतने क्षुब्ध हुए कि उन्होंने अर्जुन से कहा कि इसके प्राण हर लो। ‘हे अर्जुन! धर्मात्मासोए हुएअसावधानमतवालेपागलअज्ञानीरथहीनस्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया हैसोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।' (सौप्तिक पर्वमहाभारत) अर्जुन ने द्रोपदी से पूछा। द्रोपदी के केश दुःशासन के रक्त से धोए जा चुके थे। दुर्योधन की जंघा टूट गयी थी। पर्याप्त रक्तपात हो चुका था। अब करुणाजनित शान्ति पसर रही थी। और हत्या असहनीय हो रही थी। अर्जुन ने गुरुपुत्र से पूर्वकाल का स्नेहब्राह्मणकुमारगुरुमाता का ध्यान आदि कर अश्वत्थामा के केश कतर दियेभीम ने मणि निकाल ली। श्रीकृष्ण ने छ: हजार वर्षों तक भटकने का शाप दिया।

          अश्वत्थामा महामुनि व्यास के साथ व्यास वन चला गया। कहते हैं कि आज भी उसके माथे से मवाद रिसता है। वह श्रीहीन होकर विक्षिप्त अवस्था में मुक्ति की कामना करता हुआ यत्र-तत्र विचरण कर रहा है। सभी अश्वत्थामा इसी गति को प्राप्त होते हैं।


          मैंने यह कथा क्यों सुनाईजिन-जिन अश्वत्थामाओं को यह कथा विस्मृत हो गयी हैवह पढ़ें तो उन्हें जीवन को समझने में सहायता मिलेगी। ब्रह्मास्त्र छोड़ने से पहले विकल्प आजमाएँगे। माथे से मवाद का रिसना कोई दिव्य चमत्कार नहीं हैयह शापित जीवन का बहुत बड़ा कष्ट है। कृपाचार्य पुन: हस्तिनापुर के कुलगुरु हुएकृतवर्मा द्वारिका चले गए और कृष्ण के निकट रहे। जो महारथी थासेनापति बनाजिसने बिना सोचे-समझे ब्रह्मास्त्र छोड़ा वह वन-वन भटकता रहा। भटकने के लिए अभिशप्त हुआ।

          अश्वत्थामा महाभारत के अमर पात्रों में हैं। उनके लिए अमरता अभिशाप बन गयी। वह हमारे लिए आकाशदीप हैं।

 

असिस्टेण्ट प्रोफेसरहिन्दी

राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

इटावाउत्तर प्रदेश

+91 9838952426, royramakantrk@gmail.com

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

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