पर्णकुटी : मानस शब्द संस्कृति |
जेहिं बन जाइ रहबि रघुराई।
परनकुटी मैं करबि सुहाई।।
वनवास के क्रम में श्रीराम जब निषादराज को वापस लौटने के लिए कहते हैं तो वह अनुरोध करते हैं कि उन्हें कुछ दिन साथ रहने दिया जाए। जहां रघुराय रहेेंगे वहां वह पर्णकुटी निर्मित कर देंगे। इसके बाद वह उनकी आज्ञा मान लेंगे।
पेड़ पौधों की पत्तियों से निर्मित आवासीय संरचना #पर्णकुटी है। यह अस्थायी और बहुत कम व्यय में रहने की व्यवस्था है। भारत के ग्रामीण जीवन का अधिकांश इससे परिचित है। पक्के आवास और तकनीक के युग में इनका अस्तित्व समाप्त होने को है।
तुलसीदास जी ने कवितावली में भी पर्णकुटी शब्द को बहुत भावपूर्ण तरीके से प्रयुक्त किया है जहां सीता मार्ग में चलने के श्रम से थक गई हैं और श्रीराम से पूछती हैं। कवितावली का पद है -
पुर तें निकसी रघुबीर–बधू, धरि धीर दए मग में डग द्वै।
झलकीं भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।।
फिर बूझति हैं— "चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित ह्वै?"
तिय की लखि आतुरता पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै।।
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