रविवार, 13 जून 2021

कथा समीक्षा : उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर : आधुनिक स्त्री का आदर्श

-डॉ. कुलभूषण मौर्य

प्रवासी कथाकार उषा राजे सक्सेना यूनाइटेड किंगडम में बसी भारतीय मूल की लेखिका हैं। वे अपने लेखन के माध्यम से प्रवासी भारतीयों के अपने देश के साथ सम्बन्धों को पुख्ता करती हैं। प्रवास मेंवाकिंग पार्टनरवह रात और अन्य कहानियाँ के माध्यम से वे अपने देश भारत की सभ्यतासंस्कृति और भाषा के प्रति प्रेम को उजागर करती हैं। साथ ही प्रवासी भारतीयों के मन में घर वापसी की उम्मीद को कायम रखती हैं। उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ वर्तमान की भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में रिश्तों की गर्माहट को बचाये रखने की मर्मस्पर्शी गाथा है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ का अर्थ है- वित्तीय जोखिम उठाने वाला उद्यमी। उषा राजे की कहानी का यह शीर्षक कथा की मूल संवेदना को अपने भीतर समेटे हुए है। कथा नायिका के लिए व्यंग्य के रूप में प्रयोग होने वाला ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ शब्द उस समय एकदम सही साबित होता हैजब वह अपने पति के लिए सचमुच वित्तीय जोखिम उठाती है और अपनी सिंगापुर यात्रा को टाल देती है। वह ऑन्टोप्रेन्योर हैप्रोफेशनल हैकिन्तु पारिवारिक रिश्तों को निभाने में भी पीछे नहीं है।

      ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ रो और तिश नामक दो किशोरों के किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने और अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करते हुए जीवन जीने की कथा है। रो और तिश की जान-पहचान बस से यात्रा करते हुए होती है। दोनों की बात-चीत से पता चलता है कि रो का पूरा नाम रोहन बिसारिया है और तिश का तुशारकन्या राय। यानी कि दोनों भारतीय मूल के हैं और साउथ लंदन के स्ट्रेथम के एक ही इलाके में रहते भी हैं। जिस समय दोनों की प्रथम मुलाकात होती हैदोनों ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के छात्र थे। रो फ्रेंच लिटरेचर में बी.ए. आनर्स कर रहा था तो तिश मीडिया और फैशन डिजाइनिंग में। दोनों की यह जान-पहचान धीरे-धीरे चाहत में बदल जाती है। किन्तु रो अपने पिता के स्वास्थ्य के कारण बात-चीत को आगे बढ़ाने से हिचकता है। रो अपनी घरेलू परेशानियों से घिरा है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे माँ के साथ फार्मेसी की दुकान में हेल्प करनी पड़ती है। रो और तिश दोनों ही अपने कैरियर को लेकर गम्भीर हैं। आर्ट और म्यूजिक के साथ स्पोट्र्स में भी रो की गहरी दखल थी । तिश भी मीडिया और फैशन डिजायनिंग के साथ पब्लिक स्पीकिंग में ए लेवल करती है। साथ ही हर गुरूवार को वह सालसा लैटिन अमेरिकन नृत्य का प्रशिक्षण लेती है। शुक्रवार और शनिवार को हैरडस के एकाउंट डिपार्टमेंट में काम करती है और रविवार को भारतीय विद्या भवन में कथक सीखती है। तिश अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील है और भविष्य को लेकर महात्वाकांक्षी है।  

        रो की किशोरावस्था की जान-पहचान घर से दूर जाकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर डिग्री लेते हुए और घनिष्ठ होती है। वे एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं किन्तु विवाह के नाम पर तिश तैयार नहीं होती क्योंकि वह अपना स्वयं का बिजनेस करना चाहती है। यह बात वह रो से साफ-साफ कह देती है। मास्टर करने के बाद रो क्वींस कॉलेज में कामर्स विभाग में अध्यापन करने लगता है और तिश नॉर्थ लंदन के टैलिस्मान फैशन फर्म में काम करती है। वहाँ दोनों साथ ही रहते हैं। तिश अपना व्यापार स्थापित करने के लिए भारत में मुंबई जैसे शहर को चुनती है और मुंबई चली जाती है। कुछ दिनों के बाद रो भी मुंबई विश्वविद्यालय के कॉमर्स विभाग में फ्रेंच पढ़ाने लगता है। दोनों मुंबई में साथ ही रहते हैं। रो के माता-पिता के दबाव के कारण दोनों विवाह के बन्धन में इस वादे के साथ बँध जाते हैं कि ‘‘शादी के बाद तुम मुझे ट्रेडिशनल पत्नी के रोल मॉडल में ढलने का दबाव नहीं डालोगे और साथ ही मेरे व्यवसाय के मामले में टोका-टोकी नहीं करोगे।’’ रो और तिश का दाम्पत्य जीवन कुछ दिन तो ठीक चलता है किन्तु जैसे-जैसे तिश अपने व्यवसाय को बढ़ाती हैवह काम में उलझती जाती है। वह रो को समय नहीं दे पाती। इससे रो की खिन्नता बढ़ती जाती है। वह अपने को छला हुआ महसूस करता है । जब वह तिश से अपने माता-पिता को मुंबई बुलाने की बात करता है तो तिश मना कर देती हैउल्टे उसे ही लंदन हो आने की सलाह देती है। इससे रो के मन को ठेस पहुँचती है। वह गुस्से में यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकलता है। ड्राइवर को पिछली सीट पर बैठा कर खुद ड्राइव करता है। तेज रफ्तार के कारण गाड़ी टकरा जाती है और रो गम्भीर रूप से घायल हो जाती है। व्यवसाय के सिलसिले में सिंगापुर के लिए निकल रही तिश को जब एक्सिडेंट की सूचना मिलती है तो वह सिंगापुर की यात्रा रद्द कर देती है। स्वयं की जगह अपनी असिस्टेंट को मीटिंग के लिए जाने को कहकर वह अस्पताल पहुँचती है। रो की स्थिति ज्यादा गम्भीर न होने पर वह चैन की साँस लेती है और रो के माता-पिता को मुंबई बुलाने के लिए फोन करती है। वह उनके बीजा से लेकर टिकट तक का प्रबन्ध स्वयं करती है। इससे रो के माता-पिता के मन में तिश के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जो अवधारणा थीवह बदल जाती है। साथ ही रो की सोच में भी परिवर्तन आता है। रो और उसके माता-पिता तिश को न केवल एक सफल व्यवसायी के रूप में देखते हैं एक व्यवहार कुशल पत्नी के रूप में भी वह खरी उतरती है। रो को यह बात समझ में आती है कि स्वयं के खालीपन को भरने के लिए तिश को बन्धन में डालने की बजाय स्वयं को रचनात्मक रूप से सक्रिय करना चाहिए और वह अपने लिए पेंटिंग क्लास शुरू करने की सोचता है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में मुख्य पात्र तिश है। उषा राजे ने तिश को आज के परिवेश की स्त्री के रूप में रचा है। वह कथा की नायिका है। तिश एक महत्वाकांक्षी लड़की है। अपनी पढ़ाई से लेकर कैरियर तक वह लक्ष्य केन्द्रित है। अपने छात्र जीवन से ही वह अपने व्यक्तित्व को निखारने को लेकर तत्पर है। तिश अपने भविष्य पर फोकस्ड एक मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़की है। जीवन के हर क्षण का आनन्द लेते हुए वह आगे बढ़ती है। रो को लेकर वह प्रतिबद्ध तो हैकिन्तु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व खोना नहीं चाहती। वह विवाह के बन्धन में इसलिए बँधना नहीं चाहती कि उसे घर की जिम्मेदारयिाँ उठानी पड़ेंगी। वह एक ऐसी आधुनिक स्त्री के रूप में सामने आती हैजो जीवन के हर क्षेत्र में सफल साबित होती हैं। अपने काम को लेकर वह गम्भीर है। ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ उसके चरित्र के लिए सटीक बैठता है। वह वित्तीय जोखिम उठाने वाली उद्यमी हैइसीलिए वह सफल होती है। लेकिन वह रिश्तों को लेकर कहीं भी लापरवाह नजर नहीं आती। वह रो से कहती है-‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण होपर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं।’’ वह रो से रुकावटें न डालने का वादा लेकर उससे विवाह कर लेती है। रो के माता-पिता की नजर में भी वह व्यवहार कुशल और प्रियदर्शिनी है। तिश को आरम्भ से ही व्यस्त जीवन पसन्द है। वह एक पल भी शान्त नहीं बैठना चाहती। व्यस्त रहते हुए भी घर और परिवार को व्यवस्थित रखती है। उसके चरित्र का सबसे उन्नत पहलू वहाँ सामने आता हैजब वह रो के एक्सिडेंट में घायल होने पर सिंगापुर की अपनी महत्वपूर्ण मीटिंग कैंसिल कर देती है और रो के माता-पिता को बिना किसी तकलीफ के मुंबई बुलाने का प्रबन्ध करती है। यहाँ वह साबित कर देती कि व्यवसाय उसके लिए महत्वपूर्ण होते हुए भी पारिवारिक रिश्तों की अहमियत उसके जीवन में कम नहीं है। वह अपने जीवन साथी के लिए उसकी मुश्किलों में उसके साथ खड़ी है। वह अपने कार्य और पारिवारिक जीवन में संतुलन रखने वाली संवेदनशील और सक्षम स्त्री है। 

         रो विदेश में पला-बढ़ा एक संतुलित जीवन जीने वाला युवक है। वह अपनी पढ़ाई को लेकर गम्भीर है। साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारी को समझने वाला है। पिता के खराब स्वास्थ्य के कारण उसे पढ़ाई के साथ ही दुकान पर भी बैठना पड़ता है। वह मास्टर डिग्री और पीएचडी करने के बाद अध्यापन करता है। इसके साथ ही वह भावनात्मक है। वह छात्र जीवन से ही तिश से प्रेम करता है किन्तु अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण बता नहीं पाता। आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने पर वह तिश के साथ के लिए ही क्वींस कॉलेज छोड़कर मुंबई चला जाता है और तिश की हर शर्त को मानते हुए उससे विवाह करता है। किन्तु उसके भीतर कुछ कमजोरियाँ हैं। तिश की व्यस्तता उसे परेशान करती है। वह खिन्न रहता है और स्वयं को छला हुआ महसूस करता है। इतना ही नहीं वह क्रोधी भी है। तिश के व्यवहार से वह अपमानित महसूस करता है और आत्मघाती कदम उठाता है। तिश का गुस्सा गाड़ी के एक्सिलेटर पर निकालता है। फलस्वरूप् दुर्घटना का शिकार होता है। किन्तु दुर्घटना के पश्चात वह पाश्चाताप करता है। रो का व्यक्तित्व से उस समय पुरूष मानसिकता की गंध आती हैजब तिश अपने क्लाइंट के साथ दिल्ली चली जाती है। तिश रो को ‘लेड बैक’ कहती हैजो दस वर्ष पूर्व जहाँ खड़ा थावहीं आज भी है।

       तिश के अलावा कहानी के पात्रों में रो के माता-पितारो का मित्र मनीषशान्ताबाईनईम आदि हैं। रो के माता-पिता शोभना और अभय भारतीय हैंजो अच्छे भविष्य के लिए लंदन में रहते हैं। रिटायर होने के बाद वे फार्मेसी की दुकान चलाते हैं। रो के माता-पिता लंदन के स्व़च्छन्द वातावरण में रहते हुए भी रूढ़ियों और परम्पराओं से बँधे हैं। वे अपने बेटे रो का पारिवारिक जीवन सुखी देखने की मंशा रखने वाले माता-पिता हैं। वे पूर्वाग्रह से मुक्त हैं। तिश को लेकर जो उनके मन मे पूर्व धारणा बनी हैवह तिश की व्यवहार कुशलता को देखकर बदल जाती है। मनीष भारतीय मूल का युवक है। वह अपने परिवार की जिम्मेदारी को उठाने के लिए पढ़ाई के साथ ही पेट्रोल-पम्प पर कार्य भी करता है। वह अपने मित्र के प्रेम को पुख्ता करने की कोशिश करता दिखाई देता हैजैसा कि सभी मित्र होते हैं। शान्ताबाई एक सुरुचिपूर्णकुशलप्रशिक्षितहाउसकीपर हैजो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझती है। नईम तिश का ड्राइवर और मैसेन्जर है। शान्ताबाई और नईम दोनों भरोसेमन्द और जिम्मेदार हैंजिनके ऊपर जिम्मेदारियाँ डालकर निश्चिन्त हुआ जा सकता है।

            उषा राजे सक्सेना संवादों के माध्यम से कहानी को आगे बढ़ाती हैं। कहानी के कथानक के अनुसार लम्बे और छोटे दोनों प्रकार के संवादों की रचना उन्होंने ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी में की है। संवाद के माध्यम से तिशरोउसके माता-पिता और मनीष की जीवन स्थितियाँउनकी मनोदशाभविष्य को लेकर उनके विचार उजागर होते हैं। एक संवाद देखिए-

  रो ने तिश का मन टटोला तो जिश चकित-सी बोली- ‘‘रो हम दोस्त हैं। एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध होते हुए भी स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। शादी के बारे में मैंने कभीं सोचा ही नहीं।

   ‘‘ममा पापा शादी के लिए मुझ पर दबाव डाल रहे हैं। ज्यादा दिन उनको टालना मुश्किल होगातिश।’’

    ‘‘रो हम दोस्त हैं और दोस्त ही रहेंगे। शादी हमारे संबंधों को संकुचित करेगी। वे तुम्हारे ममा पापा हैं। उन्हें हैंडल करना तुम्हारा काम है।’’

  आगे कुछ सोचकर उसने कहा, ‘‘मेरे कैरियर का मेरे जीवन में अहम स्थान है रो। मैं घर की जिम्मेदारियाँ नहीं उठा सकती हूँ। शादी के बाद तुम्हारी अपेक्षाएँ मुझसे बहुत बढ़ जायेंगीं। तुम जानते होमेरा कैरियरमेरा व्यवसाय मेरे लिए महत्वपूर्ण है।’’

  ‘‘और मैंतुम्हारी जिन्दगी में क्या स्थान रखता हूँ तिश।’’ रो ने ठंडी सांस लेते हुए पूछा।

   ‘‘मेरे जीवन में तुम्हारी अपनी जगह है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो। पर मेरे बिजनेस और महत्वाकांक्षाओं से ऊपर नहीं। तुम अभी जैसे होनिश्चिन्त , केयर फ्री स्वभाव केमुझे वैसे ही अच्छे लगते हो। शादी के बाद तुम मेरी चिंता करने का रोल ले लोगेयह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।’’ उसने उसे बाहों में भर कर एक चुलबुलाता हुआ लम्बा चुंबन देते हुए कहा।

    ‘‘सच ?’’

   ‘‘हाँसच।’’ उसने ईमानदारी से कहा।

               यह संवाद रो और तिश के प्रेम को उजागर करने के साथ ही तिश के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को उजागर करती है। इस संवाद के माध्यम से तिश एक सशक्त और संभावनाओं से भरी हुई आधुनिक युवती के रूप में सामने आती है। पूरी कहानी इस तरह के संवादों से भरी है। संवाद विषय के अनुरूप कहानी को आगे बढ़ाने वाले हैं।

        विदेशी पृष्ठभूमि पर रची गयी ‘ऑन्टोप्रेन्योर की कहानी साउथ लंदन के स्ट्रेथम से होते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ ही क्वींस कॉलेज और नॉर्थ लंदन तक घूमती है। कहानी में रो और तिश की बात-चीत में यूनाइटेड किंगडम के स्वच्छन्द परिवेश की झलक मिलती है। साथ ही यूनाइटेड किंगडम की वेलफेयर एस्टेट की सुख-सुविधाओं का भी जिक्र हुआ हैजो बृद्धजनों को जीने का सहारा देती है। कहानी का अन्त भारत में हुआ है। भारत को एक उभरते हुए राष्ट्र के रूप में चित्रित किया गया हैजिसमें भविष्य की अपार संभावनाएँ छिपी हैं। कहानी किशोरों और युवाओं के मनोभावों को व्यक्त करती है।

       ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी का शीर्षक ही अंग्रेजी भाषा का है। पूरी कहानी में हिन्दी और अंग्रेजी के मिले-जुले शब्दों का प्रयोग करके भाषा को बोलचाल की भाषा बनाया गया है। भाषा विषयानुकूल है। किशोरों और युवाओं के आपसी संवाद में जिस तरह के अश्लील शब्दों का प्रयोग बढ़ा हैउषा राजे ने भाषा भी उसी के अनुकूल रखी है। ‘नितम्ब’ के लिए ‘बम’ जैसे शब्दों का प्रयोग किशोर मानसिकता का ही परिचायक है। लंदन के परिवेश पर आधारित कहानी में अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग अधिक होयह स्वाभाविक ही है। कोई भी वाक्य बिना अंग्रेजी शब्दों के पूरा नहीं हुआ है। कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का है। कहानीकार ने नितम्ब के लिए ‘पिछवाड़ा’ और ‘चूतड़’ जैसे भदेस शब्दों का भी प्रयोग किया है। उषा राजे ने कहानी में वर्णनात्मक और संवादात्मक दोनों शैलियो का कुशल निर्वाह किया है। संवादों की अधिकता कहानी को कहीं भी उबाऊ नहीं होने देती।

        ‘ऑन्टोप्रेन्योर’ कहानी को उषा राजे ने एक सार्थक दिशा देते हुए अपने उद्देश्य तक पहुँचाया है। तिश के माध्यम से उन्होंने एक सशक्त स्त्री चरित्र को रचा हैजो स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती है। स्त्री-विमर्श में जहाँ इस बात की चर्चा होती रहती है  कि स्त्री को कितनी स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता लेनी चाहिएउसकी कार्य-शैलीपहनावा कैसा होना चाहिएउसकी सेक्स लाइफ कैसी होनी चाहिएउषा राजे तिश के माध्यम से स्त्री की एक नई छवि पेश करती हैं। तिश एक ऐसी उद्यमी है जो अपने रिश्तों को लेकर भी प्रतिबद्ध है। वह घर से लेकर बाहर तक सबकुछ व्यवस्थित रखती है। वह ट्रेडिशनल पत्नी नहीं बनना चाहतीपारिवारिक बन्धनों में नहीं बँधना चाहती किन्तु शारीरिक सम्बन्धों को लेकर स्वच्छन्दता भी नहीं चाहती। वह जहाँ बिना बताये दिन्ली चली जाती हैवहीं रो का एक्सिडेंट होने पर सिंगापुर की महत्वपूर्ण यात्रा भी स्थगित कर देती है। तिश के रूप में उषा राजे वर्तमान के अन्ध आधुनिकतावादी दौर में संवेदनशील और सक्षम स्त्री का चरित्र रचती हैंजो एक व्यवहार-कुशल ऑन्टोप्रेन्योर है। यह आधुनिक स्त्री का आदर्श स्वरूप हो सकता है।

       भौतिकतावादी दौर में जहाँ भारत का युवा वर्ग विेदेश जाने के सपने देखता हैउषा राजे तिश और रो की भारत वापसी दिखाकर भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में चित्रित करती हैंजिसमें अपार संभावनाएँ निहित हैं। तिश कहती है-‘‘इंडिया आज संभावनाओं से भरा एक ऐसा शक्तिशाली देश बनकर उभरा है कि सारा संसार उसकी तरफ नजरें उठाए देख रहा है। पश्चिम का ब्रेन ड्रेन भारत का ब्रेन गेन है।’’ यह कथन भारत की आर्थिक शक्ति को प्रमाणित करता है। कहानी में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति की ओर आकर्षित हो रही युवा पीढ़़ी के लिए यह संदेश है कि भारत भी अपनी संस्कृति और नयी सोच एवं आर्थिक गतिविधियों से विदेश में निवास करने वालों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे देश भी भारत में आउट सोर्सिंग कर रहे हैंइंवेस्टमेंट कर रहे हैं। कहानी में भारतीय युवाओं के लिए जो सबसे बड़ा संदेश छिपा हैवह है- रो और तिश का पढ़ाई के प्रति समर्पण। दोनों अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इतना ही नहीं व्यक्तित्व के निखार के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ करते हैं। तिश की जीवन शैली अनुकरणीय हो सकती है। वह सबके बीच संतुलन बनाते हुए अपने आप को व्यस्त रखती है। रो के मन में जो खिन्नता हैउसका कारण यही है कि वह खाली है। नौकरी के अलावा उसने दूसरी रुचि नहीं विकसित की है। यदि हम अपने को व्यस्त रखते हैं तो अनावश्यक तनाव और खिन्नता से अपने आप को बचा सकते हैं और आज के तनाव भरे माहौल में भी स्वयं को प्रसन्न रख सकते हैं। हमें अपनी खुशी के लिए दूसरे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहींकहानी घर वापसी का स्वप्न देख रहे भारतीय मूल के निवासियों के मन में भी आशा पल्लवित करती है।

डॉ कुलभूषण मौर्य

(मूलतः आजमगढ़ के निवासी डॉ कुलभूषण मौर्य युवा आलोचक और प्रतिभावान प्राध्यापक हैं। वह वर्तमान में  के० बी० झा महाविद्यालय, कटिहार में सहायक प्राध्यापक हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ मौर्य की एक पुस्तक "भारतीय स्वाधीनता आंदोलन और अमरकांत" नाम से प्रकाशित हो चुकी है। कुलभूषण मौर्य समसामयिक विषयों और आधुनिककालीन साहित्यिक विमर्शों पर लगातार लिखते रहते हैं। उनका संपर्क- मो. नं. 8004802485 है।

#कथावार्ता #Kathavarta1 पर उनका पहला लेख। इस लेख में उन्होंने उषा राजे सक्सेना की कहानी ऑन्टोप्रेन्योर पर आधुनिक स्त्री विमर्श और वृत्ति के आलोक में देखने का प्रयास किया है। यह कहानी प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में भी है, यह आलेख विद्यार्थियों के लिए आवश्यक सामग्री बनेगी, यह विश्वास है। 

ऑन्टोप्रेन्योर: उषा राजे सक्सेना की कहानी यहाँ क्लिक करके पढ़ी जा सकती है - सम्पादक।)

बुधवार, 9 जून 2021

नन्हें राजकुमार की बड़ी बातें


पीयूष कान्त राय

"नन्हा राजकुमार" फ्रांसीसी लेखक सैंतेक्जूपैरि द्वारा मूलतः बच्चों के लिए लिखी गयी किताब हैजिसमें एक 6-7 साल के बच्चे के माध्यम से तथाकथित द्वितीय विश्व युद्ध के कतिपय गंभीर विषयों को व्यंग्य द्वारा पेश किया गया है।

सर्वप्रथम सन 1943 ई० में अमेरिका में प्रकाशित हुई इस किताब का पहला पन्ना ही आकर्षित करता हैजहाँ लेखक यह पुस्तक अपने वयस्क मित्र को समर्पित करने से पहले बच्चों से क्षमा माँगते हुए कहता है कि फ्रांस का वयस्क फिलहाल भूख और सर्दी से जूझ रहा है। किसी वयस्क को समर्पित करने हेतु लेखक दूसरा तर्क यह देता है कि "वह सब कुछ समझ सकता है।" दूसरे, तर्क में छिपे व्यंग्य का पता तब चलता है जब लेखक कथावाचक के माध्यम से यह दर्शाता है कि छः साल की उम्र में उसके द्वारा बनाई गई तस्वीर को आज तक किसी वयस्क ने नहीं समझा जिसमें अजगर एक हाथी को निगलकर पचाने की कोशिश करता है। अजगर के पेट में हाथी एक विशेष प्रतीक है।अजगर के पेट में हाथी दिखाने के पीछे शायद लेखक की संभवत: मंशा यह भी रही हो कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने फ्रांस के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में ले रखा था जिसे पचा पाना उसे मुश्किल हो रहा था।

नन्हा राजकुमार

इस कहानी का रोमांच शुरू होता है सहारा के रेगिस्तान सेजहाँ कथावाचक का जहाज़ खराब हो गया है और उस जहाज़ में वह अकेला होता है। उसके पास सिर्फ 8 दिन तक पीने योग्य पानी बचा है। उसे एक बच्चा मिलता हैप्यारा साजो उस निर्जन स्थान पर बिना डर या भय की मुद्रा के कथावाचक को एक भेंड़ की तस्वीर बनाने के लिए कहता है। भेड़ों की एक खास बात होती है कि जहाँ एक भेंड़ चलने लगे सभी उसका अनुसरण करने लगती हैं। यहाँ भी लेखक ने भेंड़ का जिक्र करके दुनिया के अन्धानुसरण की तरफ संकेत किया है और इस तरह कथावाचक का उस बच्चे (नन्हें राजकुमार ) साथ परिचय होता है। जब नन्हें राजकुमार को पता चलता है कि कथावाचक हवाई जहाज़ सहित नीचे गिरा है तब वह हँसता हुआ पूछता है, “तू आसमान से गिरा है?” इसके माध्यम से लेखक ने इस उपन्यास में भद्र लोगों की निकृष्ट सोच को भी बड़े ही कोमलता से दिखाया है।

बातचीत मेंकथावाचक को उस 'नन्हें राजकुमारके विषय मे पता चलता है कि वह किसी दूसरे ग्रह से आया है जो बहुत छोटा है और एक घर जितना ही बड़ा है। वह अपने ग्रह पर बाओबाब के पौधों को लेकर चिंतित है क्योंकि बाओबाब के पौधे बहुत विशाल होते हैं। बाओबाब के पौधों से उसके ग्रह के फटने की भी संभावना है। इन पौधों के एक बार बड़े हो जाने पर नष्ट करना भी मुश्किल होता है। नन्हा राजकुमार बताता है कि प्रत्येक ग्रह पर अच्छे और बुरे दोनों तरह के बीज होते हैं जिन्हें काफी संभाल कर रोपण की आवश्यकता होती है। वास्तव में लेखक यहाँ बच्चों की शिक्षा एवं संस्कारों की बात करता हैजिसे समय-समय पर देखते रहने और उसमें सुधार करते रहने की जरूरत होती है।

उपन्यास में कथावाचक ने कुछ नन्हें राजकुमार की बातों और कुछ अपनी कल्पना से  सोचना शुरू किया कि कैसे वह राजकुमार अपने द्वारा लगाए लगे किसी फूल से नाराज होकर अपना ग्रह छोड़  दिया होगा। अनेकों ग्रहों का चक्कर लगाते हुए वह इस ग्रह पर आ गया होगा। आगे की कहानी में एक-एक ग्रह पर नन्हें राजकुमार की उपस्थिति के एवं वहाँ रह रहे लोगों से उसकी बातचीत के द्वारा राज्यसत्तान्यायसामाजिक व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार इत्यादि के विषय मे बात की गई है ।

कई ग्रहों पर अपना ठिकाना ढूंढने में असफल होने के पश्चात यात्रा के सातवें चरण में राजकुमार पृथ्वी पर आता है। राजकुमार का फूललोमड़ी एवं लाइनमैन के साथ वार्तालाप के माध्यम से लेखक सामाजिकआर्थिक एवं राजनैतिक मूल्यों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है और इस तरह "बच्चों के लिए लिखे गएइस उपन्यास की गंभीरता का आभास होता है और यह आज 21वीं सदी के तथाकथित आधुनिक दौर में भी प्रासंगिक लगता है।

मूल रूप से फ्रेंच में लिखा गया यह उपन्यास दुनिया के लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवादित हो चुका है। इसकी भाषा न सिर्फ सहजता से कथ्य का बोध कराती है बल्कि इसकी व्यंग्यात्मक शैली पाठकों को बाँधे रखती है।

यह उपन्यास इतना छोटा है कि किसी बड़ी कहानी जैसा लगता है। इतने कम शब्दों में समाज में उपजी कुरीतियों के साथ-साथ सामाजिक मूल्यों को उजागर करना दुनियाँ के कुछ ही लेखकों के सामर्थ्य में है और सैंतेक्जूपैरि को इस कला में महारत हासिल है।

पीयूष कान्त राय

पाद-टिप्पणी- 

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) का अन्त जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ 08 मई1945 में हुआ। हिटलर ने 1933ई० के अक्तूबर में ब्रिटेन और फ्रांस के साथ निरस्त्रीकरण की वार्ताएं भंग कर दी और लीग ऑफ नेशन्स की सदस्यता भी छोड़ दी। इससे पहले प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी पर कई अपमानजनक संधियाँ थोप दी गयी थींजिसके बोझ तले जर्मनी कराह रहा था। समूचा यूरोप दुनियाभर में अपना उपनिवेश बनाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध कर निकल पड़ा था जिसमें इंग्लैण्डफ्रांसपुर्तगाल और हॉलैंड ने सबसे अधिक सफलता प्राप्त की। अधिकार की इस अंतहीन लड़ाई में जर्मनी कसमसा रहा था। इसकी प्रतिक्रिया में हिटलर ने कुछ ऐसे कदम उठाए जो विश्व के दूसरे कई देशों को नागवार गुजरे। आस्ट्रिया और जर्मनी प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही अपमानित अनुभव कर रहे थे।

       जब हिटलर प्रतिकार करने के लिए उठ खड़ा हुआ तो तथाकथित मित्र राष्ट्रों ने अपने औपनिवेशिक राज्य विस्तार पर भी खतरा अनुभव किया। इसके अतिरिक्त हिटलर बहुत तेजी से अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा रहा था। यदि हिटलर ने यहूदियों के विरुद्ध घृणा नहीं की होती तो दुनिया की तस्वीर कुछ दूसरी होती और इस पुस्तक का नैरेशन भी पृथक होता। तब हाथी और अजगर का प्रतीक दूसरी कहानी कह रहा होता।

       हम इतिहास की घटनाओं को यदि प्रचलित मान्यताओं से किंचित इतर देखें तो कई चीजें विमर्श का विषय बनेंगी और ज्ञान जगत में नए गवाक्ष खुलेंगे।

      इस कृति और समीक्षा को उक्त के आलोक में भी पढ़ने की आवश्यकता है- संपादक

      (पीयूष कान्त राय मूलतः गाजीपुरउत्तर प्रदेश के हैं। उनकी पाँखें अभी जम रही हैं। साहित्य और साहित्येतर पुस्तकें पढ़ने में रुचि रखते हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयकाशी में फ्रेंच साहित्य में परास्नातक के विद्यार्थी हैं। वह फ्रेंच भाषायात्रा और पर्यटन प्रबन्धन तथा प्राचीन भारतीय इतिहाससंस्कृति और पुरातत्त्व के अध्येता हैं और फ्रेंच-अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद सीख रहे हैं। साहित्य और संस्कृति को देखने-समझने की उनकी विशेष दृष्टि है।

          सैंतेक्जूपैरि की पुस्तक नन्हा राजकुमार को उन्होंने मूल रूप में यानि फ्रेंच वर्जन पढ़ा है और कथावार्ता के लिए विशेष रूप से यह समीक्षा लिखी है। इससे पहले वह रामचन्द्र गुहा की पुस्तक भारत : गांधी के बाद की समीक्षा कथावार्ता : नेहरू युग की रोचक कहानी कथावार्ता के लिए कर चुके हैं।

          इस समीक्षा पर आपकी प्रतिक्रिया उन्हें उत्साहित करेगी।)

रविवार, 6 जून 2021

'मनु'स्मृति, भाग- दो

सम्यक शर्मा की कहानी मनुस्मृति - भाग -१ 'चीतोदय' में आपने पढ़ा कि कथानायक मनु हथौड़े को बल्ला मानकर कल्पना लोक में विचरण कर रहे थे। आगे क्या हुआजानने के लिए पढ़ें- भाग -२ चीतत्व भंग। इस मनुस्मृति में कहानी हैबचपन की मधुर स्मृतियाँ हैं और शब्दों के साथ गेंदबाजी-बल्लेबाजी और कमेंट्री है। आनन्द लें।  - सम्पादक

 

भाग -२ चीतत्व भंग

          लुहार की दुकान से चीतासत्त्व प्राप्त कर मनु आगे बढ़े। वे भारत को प्राप्त हुई नवीनतम जीत की अद्भुत छटा का स्मरण कर प्रसन्नचित्त थे। चाल में भी उछाल थी, गाबा समान। थोड़ा आगे बढ़ते ही एक पी.सी.ओ. बूथ आया जिसमें चीताप्रसू अपने मायके की खोज-खबर लेने हेतु दाखिल हुईं। मनु उसके किवाड़ से चिपक कर ही बाहर खड़े रहे और क्षण भर में ही अपने पदार्पण स्थल पर पुनः पहुँच गए, कारण कि मैच समाप्त होने के पश्चात् प्रसाद-वंटन की रीति अभी बची थी।

          अब वे ‘मैन ऑफ़ दी मैच’ पाने की जुगत भिड़ाने लगे। चीता हो जाने के उपरांत वे स्पेस-टाइम की चादरों पर और भी तीव्र गति से दौड़ने में सक्षम हो गए थे। अतः पाँच ही नैनोसेकंडों में वे मैच की पहली पारी में पहुँचे जहाँ खटाखट अपने चीतत्व से दो कैच लपक व तीन रनआउट प्रभावित कर क्षेत्ररक्षण में अपना लोहा मनवा वापिस लौट आये रीतिस्थल। इस प्रकार उन्होंने अपने मै.ऑ.दी.मै को न्याय्य (जस्टिफ़ाइड्) बनाया। हालाँकि साढ़े तीन फुटिये मनु से पारितोषिक में मिला पाँच फुटिया चैक संभल नहीं रहा था, उनकी छोटी-छोटी हथेलियों से बार-बार खिसक जाता। मनु की चिंता में वृद्धि तब हुई जब उनके समक्ष यह प्रश्न आ खड़ा हुआ कि "इस लंम्म्म्म्बे चैक को हाथ में पकड़कर घर कैसे लाएँगे? सीधा ऐसे ही ले चले तो बीच में गिर जाएगा, और यदि बीच में से मोड़कर ले चले तो कहीं गत्ता ही न फट जाए?"  इसी मौन एकालाप के मध्य उनकी माता ने फोन काटा और बूथपति को आठ रुपए दो मिनट फ़ोन करने के व दो रुपए पॉपिंस के सहित कुल दस का नोट थमाया और सुत संग आगे बढ़ चलीं। पॉपिंस के खट्टे-मीठे रसों ने चैक की चिंता को उड़नछू कर दिया था। कुछ गोलियाँ दन्तप्रहार से तोड़ कर खाईं, तो कुछ का एक ओर गाल में दबाकर रसपान किया, स्स्स्स्स्प्प्...स्स्स्स्स्प्प्। गोलियों का रंग बदलता गया और क्रमशः मुँह का स्वाद।

          इस जिह्वानंद के दौरान मनु की चीतामय दृष्टि गई दीवार पर लगे जादूगर ओ.पी. शर्मा के अति रंगीन विचित्र से चित्र पर। भड़कीली सी पोशाक, गुलाबी कलगी से लैस चमकीली सी पगड़ी, खुले हुए दोनों पंजे, नाक के दाईं ओर और आँख के नीचे उपस्थित एक मध्यमाकार मस्सा, मस्तक पर काला टीका, रक्ताभ ओंठ...यह भयानक छवि किसी भी सामान्य खरगोश-बिल्ली को भयाक्रांत कर सकती थी, किन्तु चीते के लिए यह बड़े ही कौतूहल का विषय थी। वह अत्यंत रुचि से उसे निहारता और मंत्रमुग्ध हो जाता। अब वह स्वयं को उसी वेशभूषा में पा चुका है। हाथ में जादुई छड़ी लिए वह इंद्रजाल का बौना पुरोधा दो रूसी सहायकों (ललनाएँ ऑफ़कॉर्स्!) के साथ सूरसदन हॉल के मंच पर पहुँचता है। इससे पहले कि वह सैकड़ों दर्शकों को अपने मायापाश में फाँस वशीभूत कर पाता उसे अपने पैर के पिछले भाग पर कुछ लिबलिबा सा संचलन (मूवमेंट्) महसूस हुआ। वह तुरंत ठिठका तथा एक श्वाना को अपना पैर चाटते देख ज़ोर से बिदका। तत्क्षण भरी-बजरिया आरम्भ हुई अनिश्चित दूरी की तेजचाल प्रतियोगिता। चीता आगे, श्वाना पीछे। दोनों की गतियों में सकारात्मक प्रवणता सहित रैखीय सम्बन्ध (लीनियर् रिलेशन् विद् पॉज़िटिव् स्लोप्) स्थापित हो गया था। निर्देशांक ज्यामितियू नो!

          वह तो भला हो उस बिजली के खंभे का जो प्रतियोगितामार्ग में मिला तो श्वाना व्यस्त हुई और चीते को "पितृदेव संरक्षणम्" का जाप करते हुए भाग निकलने का अवसर प्राप्त हुआ अन्यथा बीच-बजार उस चंचल चीते का चीतत्व चौपट हो जाता। थैंक् गॉड्!!! बहरहाल, जैसे-तैसे अपना चीतत्व बचाते हुए मनु वहीं पास ही भारद्वाज चौराहे पर शाक-क्रय में व्यस्त अपनी मम्मी के जा पहुँचे। पल्लू की ओट लेकर उन्होंने एक आँख से अपनी पीछे दौड़ रही (भावी) चीतेशमर्दिनी की ओर मुड़कर देखा, वह नदारद थी। माँ का आँचल और श्वाना को अपनी दृष्टि से ओझल पा मनु की हृदयगति सामान्य हुई और चीतत्व पुनर्जीवित। कुल आधा मिनट तक उस वृद्ध शाक-विक्रेता की बनियान में बनी चोर-ज़ेब का पर्यवेक्षण करने के बाद उन्होंने अपनी बाईं ज़ेब में हाथ डाला और बाहर निकली एक प्लास्टिक की मूल्य दो रुपए वाली गेंद। हुआ यूँ था कि पॉण्ड्स पॉडर छिड़कने के पश्चात् मनु चप्पल निकालने हेतु पलंग के नीचे घुसे थे, वहीं यह गेंद भी धरी थी। यह देखते ही उनकी बड़ी-बड़ी आँखें टिमटिमा गईं और वे उसे अपनी बाईं ज़ेब में धर लाये।

          "अब तक तो आप समझ ही गए होंगे कि कैसे एक योजनाबद्ध रूप से मनुदेव ने जीवात्मा से चीतात्मा बनने तक का सफ़र तय किया है? हैंह्...हैंह्...हैंह्!" ~ रवीशचंद (लाल माइक वाले)

          अब आरम्भ होता है चीताभ्यास। मनु ने गेंद 15 से.मी. हवा में उछाली और लपक ली तथा इस उपलब्धि को चार-पाँच बार दोहराया। लय बनने लगी तो एक कुशल खिलाड़ी की भाँति अपने खेल को उच्च स्तर तक ले जाने के लिए क्रमशः एक और फिर डेढ़ फुट तक गेंद का अंतरिक्ष में प्रक्षेपण कर उसे सफलतापूर्वक लपकते गए। ऐसी भीड़भाड़ और हलचल के बीच ऐसे जौहर दिखाना कोई बाएँ हाथ का खेल नहीं था, इसमें दोनों हाथ प्रयुक्त होते थे, ताकि गेंद सुरक्षित लपकी जाए।

          अब उन्हें खेल में कठिनाई का स्तर और ऊँचा कर अपने को और परिपक्व क्षेत्ररक्षक बनाना था, सो गेंद को धरती पर टिप्पा खिलाकर लपकने का निश्चय किया। गेंद पटकी, और लपकी, आत्मविश्वास में हुई वृद्धि। यूँ मानिए कि उनके शरीर में (अजय) जडेजा-तत्त्व का प्रस्फुटन हो रहा था। गेंद को पटकने और लपकने का चक्र चल पड़ा था जिसकी आवृत्ति समय के संग एक स्थिर गति से बढ़ती जा रही थी। प्रत्येक पटक में स्फूर्ति, प्रत्येक लपक में चपलता, वह भी जडेजा तनु। पटक, लपक व दोनों हाथों के सभी क्रमचय-संचय (पर्म्यूटेशन्-कॉम्बिनेशन् यू नो!) अपनाए जा रहे थे जैसे कभी दाएँ से पटक व बाएँ से लपक, तो कभी बाएँ से पटक व दाएँ से लपक आदि। सटीक पटक, सटीक लपक, सटक-पटक, सटक-पटक! इतने में न जाने कब भावातिरेक में गेंद की पटक एक गिट्टी पर हो गई कि पता ही नहीं चला। गेंद ने कोण बदला और चीतेश की परीक्षा लेने सड़क की ओर गमन करने लगी। इस पटक-लपक के खेल से उनका हस्त-नयन समन्वय गेंद को लपकने में इतना अभ्यस्त हो चुका था कि क्षण भर में ही वे गेंद की दिशा को परखते हुए उसकी ओर दौड़े, उस तक पहुँच पाते इससे पहले ही टिप्पा ले लिया था गेंद ने। परंतु 'वन् टिप् वन् हैंड्' सरीखे भ्रष्ट पैंतरे से अभी भी अपने रिकॉर्ड को बेदाग़ रखने के लिए उन्होंने अपना दायाँ हाथ आगे तो फेंका, किन्तु हाथ निराशा ही लगी, गेंद नहीं। दो टिप्पे हो चुके थे, रिकॉर्ड धूमिल हो इससे पहले चीताधिराज ने जागृत की कुंडलिनी और साधा सीधा आज्ञा चक्र। अब क्या था, तत्क्षण ऐकिक नियम (यूनिट्री मैथड्) का उत्कृष्ट उपयोग उन्होंने 'टू टिप् टू हैंड्' नामक माइंड् = ब्लोन् कर देने वाली विधा का सृजन किया और गेंद की दिशा में स्वयं को झोंक दिया...

          गेंद मनु के हाथों को छू पाती इससे एक साइकिल उनके माथे को छू गई, अर्थात् ठोक गई। उस साइकिल ने चीतत्व को भले ही ठोकर मारी थी, लेकिन वो चीता ही क्या जो ठहर जाए! अतः पाँच-सात सेकण्ड की लघु-मूर्छा से जागृत हो उन्होंने सर्वप्रथम गेंद ढूँढी और उसे पाकर निश्चिंतता की साँस ली, परन्तु

          "चोट सर में लगीऽऽऽ, दर्द होने लगाऽऽऽ..." ~ अलीशा चिनॉय का गायन

          अब हाथ में गेंद व मस्तक में पीड़ा लिए वे शाक का थैला लिए खड़ी अपनी मम्मी के पास पहुँचे, जिसे देखकर वे चिंताभाव से चल्लाईं "कहाँ गायब हो गया था रे नैक सी ही देर में? और खून कैसे आ रहा है माथे पर? कैसे लगा ली?" अचरज एवं अविश्वास में मनु ने माथे को हाथ से टटोला और कुछ गीलापन अनुभव किया। अब खून से लथपथ अपनी हथेली देख मनु को काटो तो खून नहीं। चीतत्व छिन्न-भिन्न, क्योंकि माथे से खून आना मतलब डायरेक्ट मौत! यही तो होता है सन्नी देवल की फिल्मों में। यह सोचते ही मनु के नेत्रों में मोटे-मोटे अश्रुओं की धारा थी व कंठ में कर्कश क्रंदन। बिलखता देख उसे माँ ने तुरंत गोद में उठाया, पल्लू माथे पर रख रक्तस्राव की रोकथाम की और दौड़ पड़ीं उसी चौराहे पर स्थित भारद्वाज अस्पताल की ओर पट्टी कराने। वेदना अधिक नहीं थी किन्तु मृत्यु की आशंका ने उसके विलाप-स्वर को चौरानवे डेसिबल के पार पहुँचा दिया था, जिसे सुनकर माँ ने उसे पुचकारते हुए कहा "कोई बात नहीं बेटा, चींटी मर गईं और कुछ नहीं हुआ। रोये मत बेटू, हॉस्पिटल आ गया।"

          "आखिर हम किस समाज में रहते हैं? जहाँ पिपीलिका-मर्दन से पौरुष प्राप्त होता है? जहाँ अपनी पीड़ा भुलाने के लिए पिपीलिकाओं की (कथित ही सही) मृत्यु पर उल्लास होता है? हम क्या बीज बो रहे हैं अगली पीढ़ियों के अंदर? छः!!!" ~ रैंडम् ऐनिमल् ऐक्टिविस्ट्

          ख़ैर घाव साफ़ हुआ, फिर पट्टी हुई, मनु मरा नहीं, तब जा जाकर वह सामान्य रूप से बोलने योग्य हुआ। डॉ. भारद्वाज के पूछे जाने पर उसने बतलाया कि कैसे-कैसे गेंद को लपकने के चक्कर में वह चलती साइकिल से ठुक गया था। यह इक़बाल-ए-जुर्म सुनते ही उसकी माँ के मुख पर एक भाव आया कि यदि घर में ऐसा किया किया होता तो पहले पूजा होती, फिर पट्टी। नम आँखें, सूखे होंठ, रुँधा हुआ गला लिए और मम्मी की अंगुली थामे अंततः वह लौट आया चुपचाप घर। चीतत्व भी बीच चौराहे पर अंततः भंग हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि तभी मनु मिस्टर पलंग पर लेटे-लेटे सोचते हैं कि "पट्टी के ऊपर हेल्मेट तो पहनी नहीं जा सकती, चलो अंपायर के जैसी गोल टोपी पहन कर ही खेला जाएगा...!"

          चीतोपदेश - चीतत्व अक्षय है और चीतात्मा अमर।

          जय दाऊजी की।

सम्यक शर्मा


  (सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।" - सम्पादक)



'मनु'स्मृति

सम्यक् शर्मा

सम्यक शर्मा कथावार्ता पर इससे पहले दिशाभेद के एक दो और तीन सुललित निबंधों के साथ पदार्पण कर चुके हैं। दिशाभेद में उन्होंने अपने चिन्तन और शब्दक्रीड़ा से अपने इरादे स्पष्ट कर दिये थे। वह शब्दों से खेलते हैं और उनका बेहतरीन प्रयोग करते हैं। क्रिकेट उनका दूसरा प्यार है। पहले प्यार के बारे में हम बाद में बताएँगे।

'मनु'स्मृति में कहानी हैबचपन की मधुर स्मृतियाँ हैं और शब्दों के साथ गेंदबाजी-बल्लेबाजी और कमेंट्री है। दो खण्ड में है। सम्यक के निबंधकार से कहानीकार की यात्रा का आनन्द लें।  - सम्पादक

 

भाग -१ 'चीतोदय'

 

ज्ञापन नुमा : इस कहानी के सभी पात्र एवं घटनाएँ वास्तविक हैं, जिनका हमसे पूरा-पूरा सम्बन्ध है। मने यह सत्य घटनाओं पर आधारित है। भई आधारित क्या, सत्य ही है। अतः मुलाहिज़ा फ़रमाएँ...

डाबर आँवला चुपड़कर बाल काढ़ ही रहे थे मनु कि बाहर चौखट पर खड़ी मम्मी ने पुकारा "सज लिया? कि अभी रह गयी है नैक और सजावट? जल्दी चल, नहीं तो अकेले ही चली जाऊँगी।" सायं साढ़े पाँच हो रहे थे, हाट के लिए निकलना थाफल, शाक आदि के क्रय हेतु। मम्मी के हड़काते ही त्वरित बाल काढ़कर और पॉण्ड्स का पॉडर (आगरे में बॉडी टैल्क कोई नहीं कहता) छिड़ककर सुगन्धित व सँवरे पाँच वर्षीय मनु चल दिए हाट को। अल्पवयस्क एवं शिष्ट थे इसलिए मम्मी की अंगुली पकड़कर ही सैर किया करते थे।

          सैयद तिराहे से अंदर ढलान की ओर मुड़ते ही दुकानें आरम्भ होती थीं। ढलान पर थोड़ा सा उतरते ही एक फल वाले की ठेल पर पहुँचे। मम्मी की क्रय-क्रिया (पर्चेज़िंग) आरम्भ हुई और मनु की पर्यवेक्षण-क्रिया (ऑब्सर्वेशन)। ठेल के सामने ही लुहार की दुकान थी (वर्कशॉप भी कोई नहीं कहता), जहाँ वह लुहार हथौड़े से पीट-पीटकर किसी छड़ को नरक के समान ऋजु (स्ट्रेट ऐज़ हैल!) किए दे रहा था। हथौड़े की ऐसा अद्भुत क्षमता देख मनु वशीभूत हो गए, विचारने लगे, "यदि मैंने इस हथौड़े को बल्ला बनाकर बल्लेबाज़ी की, तो क्या-क्या कर सकता हूँ।" हास्यास्पद यह कि माननीय मुंगेरीलाल ने इससे पहले कभी गली-क्रिकेट भी नहीं खेली थी, किन्तु कल्पना वानखेड़े पर दूधिया प्रकाश में एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय खेलने से नीचे की नहीं करते थे। खेलते भी कैसे, गली होती आस-पास तब न, घर के आगे तो दिल्ली से कलकत्ता जोड़ने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 2 बिछा दिया था प्रशासन ने। रक्तरंजित उन्नतिशील (ब्लडी प्रोग्रेसिव!)!

          अस्तु! ...दर्शकों से खचाखच भरे वानखेड़े मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध बल्लेबाजी करने उतर चुके हैं हथौड़ापाणि मनु। हाई कार्बन स्टील से निर्मित 10 से.मी. व्यास का वह लौह-बल्ला भारत को अंतिम गेंद पर जीतने हेतु चार रन दिलाने में अति सक्षम है। बस कनेक्ट हो जाए एक बार। स्टांस लेते समय साढ़े तीन फुटिये मनु चेते कि यदि यॉर्कर आ गई तो यह डेढ़ फुटिया हत्था धोखा ही दे जाएगा। अतएव तुरंत ड्रैसिंग रूम की ओर संकेत कर उन्होंने दो फुटिया हत्था मँगवा लिया। आप सोचिये कि मंगूस बल्ले की परिकल्पना के भी एक दशक पूर्व मनु क्या-क्या कल्पित कर लेते थे! मनु मनु नहीं थे, वे स्वयं (के) कल्पतरु थे। वे स्वयं से याचना कर जो माँगते थे, उसे तत्काल पा लेते थे, कल्पनाओं में। जैसे वानखेड़े पर पदार्पण, हथौड़ा, यॉर्करानुकूल लंबा हत्था इत्यादि-इत्यादि।

          बहरहालयुवा ब्रैट ली अंतिम गेंद फेंकने हेतु बढ़ चले तथा सुन्दर एक्शन से अंदर की ओर रिवर्स होती यॉर्कर फेंकी। मनु ने प्रकाश की गति से गेंद की लाइन एन्ड लेंथ परखी व ध्वनि की गति से डेढ़ कदम आगे बढ़ाए। अब वह तथाप्रक्षिप्त यॉर्कर एक अक्षम लो फ़ुल-टॉस बन मनु के चरणों में थी। गेंद चरण-कमलों को स्पर्श करती इससे पहले ही मनु की गदा ने उस पर प्रहार करके उसे गऊ-कॉर्नर की दिशा में भेजा। बलाघात इतना क्रूर था कि वह एक छक्के में तो प्रतिफलित हुआ ही, साथ ही उसने गेंद को अरब सागर में भेज उसे गेंद-योनि से मुक्त करा दिया। अभागन पचास ओवरों से कष्ट ही पा रही थी! कल्पनाओं में ही सही मनु ने जो चमत्कार किया वह भारत में अनगिनत पुरोधाओं के होते हुए भी अभूतपूर्व था। सचिन-फचिन जो सामान्यतः 'मात्र' डेढ़ किलो का ही बल्ला उठा पाते थे, वे क्या थे मनु के आगे, जिन्होंने साढ़े चार किलो के हथौड़े से छक्का जड़ ऑस्ट्रेलिया को नेस्तनाबूत कर दिया? (वह बात और है कि मनु को यह भी ज्ञात न था कि "साढ़े-चार" कितने होते हैं या "किलो" क्या होता है?)

          ख़ैर जीत सुनिश्चित होते ही दर्शकों में उन्माद था और चहुँ दिशाओं में चीत्कार। मनु भी मन में शौर्य व आँखों में गौरव लिए हथौड़ा हवा में लहराकर दर्शकों का अभिवादन कर रहे थे। मनु अब मनु नहीं रहे थे, वे चीता हो चले थे। जी हाँ, चीते का उदय अर्थात् चीतोदय हो चुका था। चीता ज्यों ही दूसरे छोर पर स्तब्ध खड़े अपने साथी बल्लेबाज़ की ओर बढ़ा, त्यों ही उसके कंधे पर मम्मी का हाथ आया और कानों में उनका स्वर " चल बेटा आगे, ले लिए फल।"

          आगे के घटनाक्रम के लिए बने रहें, हाट अभी शेष है।

 

हथौड़े के आगे जहाँ और भी है,

अभी चीते के इम्तहाँ और भी हैं।

                                                                                                                   जारी......

 

सम्यक शर्मा (Samyak Sharma)


(
सम्यक शर्मा  पर क्लिक करने पर ट्विटर पर पाये जाते हैं। उन्होंने अपने बारे में लिख भेजा है- ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ- "सम्यक् शर्मा। आगरावासी। ब्रजभाषी। शहरी एवं ग्रामीण के बीच का हलुआ। दसवीं-बारहवीं आगरा से ही करी। यांत्रिक अभियांत्रिकी में बी.टेक. ग़ाज़ियाबाद के अजय कुमार गर्ग इंजीनियरिंग कॉलेज से करी। क्यों ही करी! क्रिकेट का आदी। फ़िज़िक्स और हिंदी से विशेष प्रेम। गणित से लगाव। बस।" - सम्पादक)

शनिवार, 29 मई 2021

पतंजलि का उत्पाद - मुल्तानी मिट्टी साबुन

कोरोना महामारी के भीषण दिनों में पतंजलि योगपीठ के बाबा रामदेव, एलोपैथ और आयुर्वेद के बहाने आईएमए (इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन) और कुछ बौद्धिक लोगों के निशाने पर हैं। महामारी के नियंत्रण में एलोपैथ ने सराहनीय भूमिका निभाई है, तथापि उसकी कार्यशैली और अल्टप्पू तरीके ने बहुत संदेह का वातावरण और आशंकाओं का घटाटोप बनाया है।

बाबा रामदेव और उनके योगपीठ ने आयुर्वेद, योगासन और जनता की जीवन शैली में अभूतपूर्व जगह बनाई है। उनका व्यापार भी बहुत तीव्र गति से फला-फूला है। यह सब बहुत सी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, एलोपैथ के ठेकेदारों को नागवार गुजरा है। परिणामस्वरूप द्वंद्व बढ़ता जा रहा है। ऐसे में पतंजलि के ब्रांड तले एक साबुन पर हमने कभी अपना अनुभव साझा किया था, जो पठनीय है।

अब पतंजलि के उत्पादों में वह गुणवत्ता नहीं रही और कुछ हमारी अपेक्षाएं भी बढ़ गई हैं, किंतु चार वर्ष पहले तो यह नॉस्टेल्जिक लगता था।

पढ़िए!

बाबा रामदेव

बाबा रामदेव ने एक साबुन उतारा है, नहाने के लिए। मुल्तानी मिट्टी के नाम/रूप से। महंगा है। 35 कीमत है। आज तीसरे दिन इस्तेमाल किया। 'मन पवन की नौका' (यह पद आचार्य कुबेरनाथ राय ने अपने एक निबंध संग्रह के लिए प्रयुक्त किया है। इसी नाम से उनका एक निबंध भी है) पर आरूढ़ हुआ तो यह साबुन लेकर गया गंगा किनारे, जल्लापुर गाजीपुर जहाँ हम यदा कदा नहाने जाया करते थे। वहां गंगा किनारे की मिट्टी में लोटते थे, उसी को साबुन/उबटन की तरह प्रयोग में लाते थे। किसी बाजारू साबुन की जरूरत ही न पड़ती थी। यह साबुन कुछ वैसा ही है। कुछ कुछ वैसा जैसा हम पीठ खुझलाने या एड़ियाँ घिसने के लिए झावाँ का इस्तेमाल करते हैं। क्या सुखद अहसास है। आपका मन करता रहेगा कि साबुन घिसते रहें घिसते रहें। कुछ वैसा सुख जैसा हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अनामदास का पोथा में पीठ घिसने का वर्णन किया है।

फोम और शॉवर जेल के इस जमाने में ऐसी स्पृहा पालना वैसे तो गवाँर होना/दिखना है लेकिन इस सुख को पा लेना अपने आप में एक नेमत है। जिनका जीवन शहरों में रहते रहते बहुत सॉफिस्टिकेटेड हो गया है, त्वचा नरम मुलायम हो गयी है और तनिक खरोंच भी जिनको लालिमा से भर देती है उनको यह सुख शायद ही मिले लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसी नाजुकी बस कहने की होती है।

तो लाइए बाबा रामदेव के पतंजलि उत्पाद श्रृंखला की यह अद्भुत पेशकश, जो आपको मन पवन की नौका पर बिठाकर अपने ग्रामीण बचपन में ले जायेगी।

महीनों न नहाने वाले 'बामपंथी' साथियों के लिए यह और शानदार अनुभव देगा।




(#Kathavarta, #कथावार्ता, #बाबा रामदेव, Ramakant Roy, Rama Kant Roy, रमाकांत राय,)

सोमवार, 24 मई 2021

घनानन्द की तेरह कविताएं

 

निसि द्यौस खरी उर माँझ अरीछबि रंगभरी मुरि चाहनि की।

तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैंढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की। 

चट दै कटि पै बट प्रान गएगति सों मति में अवगाहनि की।

घन आनंद जान लख्यो जब तेंजक लागियै मोहि कराहनि की।।

 

 

कान्ह परे बहुतायत मेंइकलैन की वेदन जानौ कहा तुम ?

हौ मनमोहनमोहे कहूँ नबिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम ?

बौरे बियोगिन्ह आप सुजान ह्वैहाय कछू उर आनौ कहा तुम ?

आरतिवंत पपीहन कोघन आनंद जू ! पहिचानौ कहा तुम ?

 

 

मंतर में उर अंतर मैं सुलहै नहिं क्यों सुखरासि निरंतर,

दंतर हैं गहे आँगुरी ते जो वियोग के तेह तचे पर तंतर। 

जो दुख देखति हौं घन आनंद रैनि-दिना बिन जान सुतंतर,

जानैं बेई दिनराति बखाने ते जाय परै दिनराति कौ अंतर।

 

 

सावन आवन हेरि सखीमनभावन आवन चोप विसेखी।

छाए कहूँ घनआनंद जानसम्हारि की ठौर लै भूलनि लेखी।

बूंदैं लगैसब अंग दगैंउलटी गति आपने पापनि पेखी।

पौन सों जागत आगि सुनी हीपै पानी सों लागत आँखिन देखी॥

 

निसि द्यौस खरी उर माँझ अरीछबि रंगभरी मुरि चाहनि की।

तकि मोरनि त्यों चख ढोरि रहैंढरिगो हिय ढोरनि बाहनि की।

चट दै कटि पै बट प्रान गएगति सों मति में अवगाहनि की।

घनआनंद जान लख्यो जब तेंजक लागियै मोहि कराहनि की।।

 

 

वहै मुसक्यानिवहै मृदु बतरानिवहै

लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।

वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,

वहै हँसि दैनहियरा तें न टरति है।

वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,

वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।

आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की

सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।

 

 

बहुत दिनान की अवधि-आस-पास परे,

खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।

कहि-कहि आवन सँदेसो मनभावन को,

गहि-गहि राखत हैं दै-दै सनमान कौ।

झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,

अब न घिरत घन आनंद निदान कौ।

अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,

चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान कौ।।

 

 

छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद

तृषित चषनि लालकबधौ दिखाय हौ।

चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही

मुरली अधर धरे लटकत आय हौ।

लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्यायनेह

भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ।

बिरह जरत जिय जानिआनि प्रान प्यारे,

कृपानिधिआनंद को धन बरसाय हौ।।

 

 

घन आनंद जीवन मूल सुजान कीकौंधनि हू न कहूँ दरसैं।

सु न जानिये धौं कित छाय रहेदृग चातक प्रान तपै तरसैं।

बिन पावस तो इन्हें थ्यावस हो नसु क्यों करि ये अब सो परसैं।

बदरा बरसै रितु में घिरि कैनितहीं अँखियाँ उघरी बरसैं॥

 

१०

 

अति सूधो सनेह को मारग हैजहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौझिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।

घन आनंद प्यारे सुजान सुनौयहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो कहौमन लेहु पै देहू छटाँक नहीं।।

 

११

 

भोर तें साँझ लौ कानन ओर निहारति बावरी नेकु न हारति।

साँझ तें भोर लौं तारनि ताकिबो तारनि सों इकतार न टारति।

जौ कहूँ भावतो दीठि परै घनआनँद आँसुनि औसर गारति।

मोहन-सोहन जोहन की लगियै रहै आँखिन के उर आरति।।

 

१२

 

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ

कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।

तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार

सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।

चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो

सुजान रूप-बावरोबदन दरसायहौ।

बिरह नसायदया हिय मैं बसायआय

हाय ! कब आनंद को घन बरसायहौ।।

 

१३

 

मीत सुजान अनीत करौ जिनहाहा न हूजियै मोहि अमोही!

डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही!

एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही!

हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही !!

 

घनानंद

सद्य: आलोकित!

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