गुरुवार, 26 मार्च 2020

कथावार्ता : लॉकडाउन में श्री कुबेरनाथ राय को पढ़ते हुए


(डॉ मनोज राय गांधीवादी चिंतक हैं। हिन्द स्वराज पर आपकी एक पुस्तक हिन्द स्वराज अरथ अमित आखर अति थोरे शीर्षक से प्रकाशित है। आपने बापू ने कहा था शीर्षक से गांधी जी के साहित्य से 19 महत्त्वपूर्ण लेखों को चुनकर एक पुस्तक संपादित की है। महात्मा गांधी का सौन्दर्य बोध’, गांधी चिंतन में योग और शांति तथा महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि शीर्षक से आपकी अन्य उल्लेखनीय पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वर्तमान में अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। आपकी कृति महात्मा गांधी की धर्म दृष्टि को मध्य प्रदेश विधानसभा द्वारा गांधी दर्शन पुरस्कार प्राप्त है। आप कुबेरनाथ राय साहित्य के मर्मज्ञ हैं। उनके साहित्य का जैसा अनुशीलन आपने किया है, वह मेरे देखे अनूठा है। आज कुबेरनाथ राय की जयंती पर यह विशेष आलेख मेरा गाँव मेरा देश पर विशेष रूप से आपके लिए।)

          बहुत कम ऐसे साहित्यकार होंगे जिन्होंने अपने लेखन के शुरू में ही यह घोषित कर दिया हो कि मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार और जीवन भर अपने इस आदर्श पर दृढ़ता पूर्वक बिना किसी लोभ-लालच के डटे रहे । श्री कुबेरनाथ राय को इसका श्रेय प्राप्त है। श्री राय का यह क्रोध या आर्तनाद उनका निजी नहीं है अपितु सम्पूर्ण भारत का है। श्री राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में है। जिस विधा को उन्होने अपने लेखन के लिए अपनाया है उसके प्रति उनके मन में न केवल आकर्षण है अपितु तर्क भी है -निबंध ही किसी जाति के ब्रह्मतेज को व्यक्त करता है । ललित निबंध भी काव्यधर्मी होने के बावजूद इस दायित्व से छुट्टी नहीं पा सकता ललित निबंध क्या चीज हैहमारी सहूलियत के लिए उन्होने इसकी सरल-सुग्राह्य परिभाषा भी दे दिया है-ललित निबंध एक ऐसी विधा है जो एक ही साथ शास्त्र और काव्य  दोनों है। एक ही साथ,आगे पीछे के क्रम में नहीं। निबंध की परिभाषा से ‘शिव के सांड़’ का कोई भी संबंध हो सकता है,इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। पर श्री राय की तो बात ही अलग है- “ विषय के आसपास शिव के सांड़ की भांति मुक्त चरण और विचरण ललित निबंध है। यह परिभाषा बस कामचलाऊ ही है। वह भी इसलिए कि पाठकों को एक देशज छवि की झलक भर मिल जाये। वरना इसकी असल “ परिभाषा करना मानो कालिका की जिह्वा को परिभाषित करना है। कालिका की जिह्वा आस्वादन और वाक् दोनों का प्रतीक है। देह-देह में कालिका बैठी है और वह रसना के माध्यम से रस का आस्वादन कराती है और वाक् बनकर विद्या का रूप धारण करती है। वह महारस और महाविद्या का प्रतीक है। वह परमा प्रकृति है। शब्दरूपरसस्पर्श और गंध इन पाँचों मात्राओं का मूल स्रोत है। लालित्य तो उसकी एक चिद्कला मात्र है। अतः उस भगवती को नमो नमः और उसकी विद्यारूपी रसना को नमोनमः जो लालित्य के आस्वादन का निमित्त कारण है। उसकी परिभाषा कौन करने जाय”। श्री राय ‘सेचन-समर्थ-पुंगव-वृषभ’ चिंतक हैं जो किसी की परवाह नहीं करता है। जब उसका मन हुआ निर्जन रास्ते पर अकेले ...हाथ में एक मजबूत देशी लेकर चिन्मय भारत’ की तलाश में निकल लेता है,(ताकि) यदि किसी मामा (चिन्मय भारत के पार्टिशन या बंदर बाँट में रूचि रखने वाले महंतगण) की इच्छा हो सम्मुख आकर कंठ फाड़कर निमंत्रण देने की तो उनके उपयुक्त प्रत्युत्तर की भाषा इसके माध्यम से दी जा सके।
          श्री कुबेरनाथ राय से मेरा प्रथम परिचय एक स्थानीय अखबार के कोने में छपी उनकी मृत्यु की खबर  से ही हुई थी । एक  ही जिले के होने के बावजूद इससे पूर्व मैंने कभी उनका नाम तक नहीं सुना था। वैसे भी साहित्य से मेरा बादरायण संबंध रहा है। कुछ महीने बाद श्री राय के लेखन के मुरीद डॉ बरमेश्वर नाथ राय ने उनकी एक रचना ‘चिन्मय भारत’ पढ़ने के लिए दिया। ‘चिन्मय भारत’ का ऐसा असर पड़ा कि श्री राय के सम्पूर्ण साहित्य को पढ़ने की इच्छा जाग उठीतबसे उनको पढ़ने का सिलसिला जारी है।  लेकिन श्री राय अध्ययन क्षेत्र इतना विषद और व्यापक है कि दर्जनों बार पढ़ने के बावजूद कुछ पाना शेष ही रह जाता है। पाश्चात्य और पौर्वात्य दोनों साहित्य का जिस गंभीरता से अध्ययन-पाचन श्री राय ने किया है वह अत्यंत दुर्लभ है। महज बत्तीस बसंत पार करते ही एक निबंध-संग्रह  ‘रस-आखेटक’ में होमर-शेक्सपीयर-वर्जिल पर लिखे गए मोनोग्राफ उनके विस्तार और अब एक किनारे मैं भी जम रहा हूँ  जैसे कथन उनके आत्मविश्वास को स्पष्ट कर देते हैं। तुलसी-भूमि पर जन्म लेने का औसत से ज्यादा सार्थक-अभिमान तो उनके अंदर था हीमोहनजोदड़ों के सांड से निकट का परिचय भी था। फलस्वरूप जब मन किया साहित्य के किसी भी बंसवार में माथा टिका देते थे और जब तक उसे जड़ से उखाड़ न ले पीछे नहीं हटते थे।          
          साहित्य जगत में प्राय: श्री राय के योगदान को साहित्य की एक खास विधा ललित-निबंध से जोड़कर देखने की रही है। बहुत हुआ तो ललित-निबंध के लिए प्रसिद्ध  स्वयंभू ‘त्रयी’ के एक महत्वपूर्ण लेखक रूप चर्चा कर इतिश्री कर ली जाती है । मुझे लगता है कि श्री राय के द्वारा संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में उनके दिये गए अप्रतिम योगदान को और वृहत्तर रूप में देखने की जरूरत है। श्री राय की असल चिंता है देश की जातीय और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखना। श्री राय के व्यक्तित्व सटीक मूल्यांकन करते हुए किसी ने ठीक ही लिखा है- वे प्रकृति से अक्खड़स्पष्टवादी पर तत्वाभिनिवेशी दृष्टि के रहें हैं। ...और अपनी स्थापना के कारणों को भी बड़े बेलौस लहजे में उद्घाटित करते रहे हैं।”  कहना न होगा कि उनकी अक्खड़ता,स्पष्टवादिता का ही परिणाम था कि 1974 (विषाद योग का प्रकाशन वर्ष) तक अपने साहित्यिक अवदान के लगभग चरम पर पहुँचने के बाद भी हिन्दी साहित्य के क्षेत्र के वे अज्ञात कुलशील बने रहे। एक दो अपवादों को छोड़ दिया जाय तो शायद ही किसी बड़े विद्वान ने उनके साहित्य के मूल्यांकन में रूचि दिखाई हो।
          श्री राय लिखते हैं, “ मेरा उद्देश्य रहा है हिन्दी-पाठक के हिन्दुस्तानी मन को विश्वचित्त से जोड़ना और उनको मानसिक ऋद्धि प्रदान करना । मेरे निबंध ‘भारतीय मन और विश्वमन’ के बीच एक सामंजस्य उपस्थित करने की कोशिश करते हैं।” इस प्रतिबद्धता के पीछे उनकी यह निर्भ्रांत समझ है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी ‘देह’ में नहीं,उसके ‘चित्त’ में है। उसके चित्त गुण को उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण कराते चलना ही ‘मानविकी’ के शास्त्रों का,विशेषत: साहित्य का मूलधर्म है। इस धर्म के निर्वहन और विषय के अनुरूप कुछ कम प्रचलित शब्दों का प्रयोग उनके साहित्य में देखने को मिलता है। इस बिना पर श्री राय साहब की भाषा के संबंध में यह प्रचारित कर दिया गया है कि वे प्राय: क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं । इसका निराकरण करते हुए उन्होने स्वयं लिखा है, “निबंधकार का एक मुख्य कर्तव्य होता है पाठक की मानसिक ऋद्धि और बौद्धिक क्षितिज का विस्तार करना। मेरे सम्पूर्ण साहित्य में इस कोटि के दो दर्जन से ज्यादा नहीं। इतना किसने नहीं किया है!.... मैंने जहां-2 ऐसा किया है वहाँ उसी वाक्य में या आगे उसका अर्थ खोलता गया हूँ। सच तो यह है कि आधुनिक पीढ़ी का अपनी विरासत और लोक से परिचय ही नाम मात्र का रह गया है। ऐसे दरिद्र शब्द-भंडार लेकर श्री राय के निबंध-कांतार की यात्रा दुर्गम तो होगी ही। श्री राय ने अपने एक निबंध ‘भाषा बहता नीर’ में भाषा को ‘एक प्रवहमान नदी’ ‘बहते हुए जल’ की संज्ञा दी जो बावन तोले पाव रत्ती सही है। दरअसल उनका यह कथन भाषा की बहुसमावेशक क्षमता की ओर संकेत करता है। भाषा का पाट जब चौड़ा होता है तब वह बहुत कुछ को अपने में समेटते-मिलाते हुए गतिमान होती है। इस प्रक्रिया में विवेक के साथ शब्दों का संग्रह-त्याग भी चलता रहता। दरअसल श्री राय ‘मन के दरिद्रीकरण या वंध्याकरण को ही रोकने के लिए नहीं प्रयास-रत थेभाषा के दरिद्रीकरण और वन्ध्याकरण को समाप्त करने के लिए भी उद्यत थे वे लिखते भी हैं,-मैं गाँव-गाँवनदी-नदीवन-वन घूम रहा हूँ । मुझे दरकार है भाषा की। मुझे धातु जैसी ठन-ठन गोपाल टकसाली भाषा नहीं चाहिए। मुझे चाहिए नदी जैसी निर्मल झिरमिर भाषामुझे चाहिए हवा जैसी अरूप भाषा। मुझे चाहिए उड़ते डैनों जैसी साहसी भाषामुझे चाहिए काक-चक्षु जैसी सजग भाषामुझे चाहिए गोली खाकर चट्टान पर गिरे गुर्राते हुए शेर जैसी भाषामुझे चाहिए भागते हुए चकित भीत मृग जैसी ताल-प्रमाण झंप लेती हुई भाषामुझे चाहिए वृषभ के हुंकार जैसी गर्वोन्नत भाषामुझे चाहिए भैंसे की हँकड़ती डकार जैसी भाषामुझे चाहिए शरदकालीन ज्योत्स्ना में जंबुकों कें मंत्र पाठ जैसी बिफरती हुई भाषामुझे चाहिए सूर के भ्रमरगीतगोसाईं जी के अयोध्याकाण्डऔर कबीर की ‘साखी’ जैसी भाषामुझे चाहिए गंगा-जमुना-सरस्वती जैसी त्रिगुणात्मक भाषामुझे चाहिए कंठलग्न यज्ञोपवीत की  प्रतीक हविर्भुजा सावित्री जैसी भाषा......।”  कहना न होगा कि उन्होने इसकी खोज लेखन के आरम्भ से ही शुरु कर दिया था  ।
          ललित निबंधों के माध्यम से पाठकों के  इतिहास-बोध  को परिष्कृत करना भी श्री राय का एक खास उद्देश्य रहा है। वे अपने ढंग से इतिहास-बोध की आवश्यकता का ही प्रतिपादन नहीं करते अपितु उसके समझने की प्रक्रिया को भी स्पष्ट रूप में सामने रखते हैं। उनकी दृष्टि में हम आज भी बौद्धिक उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हुए हैं और हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को हम अपनी आँख से कम और विदेशी आँखें से अधिक देखने के लिए अभिशप्त हैं। मेरे एक परिचित ने उनके इतिहास-विषयक निबंधों पर एक अनजान प्रश्न खड़ा करते हुए लिखते हैं- अन्य विधाओं की ओर उनकी दृष्टि नहीं गई है। इसका कारण यह है कि वे साहित्य के स्थान पर इतिहास की ओर उन्मुख हो गए हैं। भाषा-विज्ञान और नृतत्वशास्त्र का सहारा लेकर उसमें कुछ इस तरह रमें हैं कि किसी दूसरी ओर देखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला है। इस कतर-व्योंत से उनका ललित लेखन भी प्रभावित हुआ है। ......अगर राय साहब हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र की तरह अन्य विधाओं की ओर उन्मुख हुए होतेजिनकी उनमें क्षमता थीतो उनकी परिधि के रचनात्मक आयामों का बहुविध विस्तार हुआ होता और साहित्य की प्रकृति को और निकटता से वे समझ सके होते।’’ मुझे लगता है कि प्रश्नकर्ता हिन्दी साहित्य जगत की नैसर्गिक राजनीति के आतंक के साये से उबर नहीं पाया है। दरअसल श्री राय किसी की रिप्लिका बनने के पंड-श्रम से मुक्त चिंतक थे। उनकी चिंता ‘भारत’ की चिंता है। विधा सिर्फ एक माध्यम भर है, उस चिंता को व्यक्त करने की। यह मानी हुई बात है कि जिस भी जाति के प्रज्ञा-पुरुषों का इतिहास-बोध प्रखर नहीं होताजिनका अपने गतिशील सांस्कृतिक-दाय का बोध नहीं होता वह अंधश्रद्धा और परंपरा से ग्रस्त होकर जल्दी ही अवनति के गर्त में समा जाती है। इस बात से कौन अपरिचित है कि भारतीय संस्कृति के दाय को विकृत करने का प्रयास शताब्दियों से चलता आ रहा है। हमारे पूर्वज उन विपरीत परिस्थतियों में भी रहकर अपनी अस्मिता को बचाने में सफल रहे। पर आज की लड़ाई थोड़ी भिन्न है। अपने ही अन्दर के जयचन्दों ने स्वार्थ का ऐसा वितण्डावाद खड़ा कर दिया है कि उससे लड़ पाना मुश्किल हो रहा है। श्री राय ऐसे ही लोगों से लड़ते हुए ‘चिन्मय-भारत’ की तलाश में लगे थे। श्री राय की तो यह इच्छा है कि भविष्य में कोई ‘माई का लाल’ आगे बढ़कर भौतिक शास्त्र-जीव विज्ञान आदि अनुशासनों में भी ललित-निबंध लिखे । इस विस्तार तक जाने और उसकी वकालत करने की क्षमता उसी लेखक में हो सकती है जिसकी दृष्टि ‘मूल दृष्टि’ से ‘अभिसार’ करती हो। उन्होंने चेतावनी के स्वर में हमें आगाह किया, ‘‘अगली शताब्दी नए ढंग और नयी शब्दावली माँगती है। .......  भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय साहित्यकार के लिए वह आधार भूमि भारतीय प्रज्ञा की देशी जमीन ही हो सकती हैअन्य और कोई नहीं। ........ इसी से मैं यहाँ और अपने लेखन में अन्यत्र भी मूल की ओर लौटने की बात करता हूँमूल संश्लिष्ट होने की बात करता हूँ।’’
          श्री राय गांधीवादी चिन्तन से विशेष रूप से प्रभावित हैंऔर आज की अधिकांश समस्याओं के निदान के रूप में वे उसकी वकालत करते थे। घर-गृहस्थी से लेकर सुरसामुखी बेरोजगारी जैसे गंभीर विषयों पर पत्र-शैली में उन्होने पत्र मणिपुतुल के नाम से एक पुस्तिका लिखी है। अद्भुत पुस्तक है यह। इस पुस्तक में रस-शिल्प-सही हिन्दू-सत्य और विद्या माई से लेकर पांत के आखिरी आदमी की चिंता बहुत ही सरल शब्दों में की गई है।  एक चिट्ठी में वे लिखते है-अपनी चिंता करने के साथ ही महुआ के सूर्य,चंद्र की चिंता करो जिसे शताब्दियों पूर्व व्यवस्था के राहु ने चबा डाला था और जिसकी मनबुद्धि क्या शिरा-धमनी में भी अंधकार का महातमस प्रवाहित है। यहाँ महुआ जनता की प्रतीक है जो आज भी व्यवस्था के लॉकडाउन-चक्रव्यूह में फंसी पड़ी है। गांधी के हवाले से वह लगातार यह चिंता जाहिर करते रहें हैं कि हिंदुस्तान की समस्या का असली समाधान वृहदाकार यंत्र नहीं अपितु कुटीर उद्योग कर सकते हैं। यंत्र मनुष्य को सर्जक न रखकर एक पुर्जा बना डालते हैं जिसका कुप्रभाव बहुआयामी होता है जिसकी तरफ एक सदी पूर्व डॉ आनंद कुमारस्वामी ने भी इशारा किया था। श्री राय के लिए गांधी ‘भारतीयता’ के प्रतीक हैं। वह उनमें ‘राम जैसा होने’ और ‘बहुत कुछ सफल होने को’ देखता है। वे यह मानकर चलते हैं कि “एक दिन ऐसा कि सभी को सर्वोदय और गांधी की जरूरत अनिवार्य लगेगी।”
          पिछली सदी के छठे दशक में जब श्री राय लेखन-क्षेत्र के किनारे खद्दर-वेश में प्रवेश कर रहे थे तो उनके सामने था हिन्दी साहित्य जगत का वह विशाल क्षितिज जहां पश्चिमी साहित्यमार्क्सवादी साहित्य,संगठन शास्त्रवादियों की गिद्ध-मंडली शिकार की तलाश में मंडराती रहती थीं।  यह एक तथ्य है कि शस्य-श्यामला धरती पर श्री  राय को ‘अभिमन्यु की तरह इन सभी महारथियों से जूझना पड़ा है। क्षत-विक्षत होकर भी वे पराभूत नहीं हुए हैं। इसके अनेक कारण हैं जिसके विस्तार में यहाँ जाना संभव नहीं है। एक संकेत ही काफी है-सच पूछो तो मेरे अन्दर एक अविराम अविच्छिन्न समुद्र-मंथन चल रहा है। जबसे मैंने होश संभाला तभी से। मन ही मन्दराचल हैउसमें सर्पशिशुवत लिपटी मेरी कामना ही वासुकि हैऔर इन्द्रिय-इन्द्रियस्नायु-स्नायु में बैठे देवता और असुर अविराम मंथन में लीन हैं। इस मंथन द्वारा श्रीमणिरंभाशंखऐरावत और उच्चैःश्रवा तो कभी नहीं मिलेएकाध बूँद अमृत और जहर जरूर कभी-कभी मिला थावारुणी सदैव मिलती रही है। इसकी कमी नहीं हुई। फलतः मेरे जीवन में देवता तो प्रायः तृषित ही रह गएपरन्तु मन के रसातल में भैंसे की तरह मँड़िया मारते हुए असुरों ने छककर उस वारुणी का पान किया है और लगातार करते जा रहे हैं। अर्थात् इन असुरों की पुष्टि-तुष्टि के लिए ही मेरा जन्म हुआ।  श्री राय की बनावट ही अद्भुत है। उनको किसी की परवाह नहीं है। हार-जीत से वे ऊपर हैं-आखिर इतना प्रकाश ले कर क्या होगा ? अखण्ड प्रकाश और अखण्ड जागरण कितनी बड़ी यंत्रणा है। मैं तप्त और तृषित हूँ। मुझे अंधकार की तृषा हैघनघोर निद्रा की तृषा है। माना कि प्रकाश सुरक्षा है ज्ञान हैअमृत है- सब सही। पर इतना आलोकइतनी सुरक्षाइतना ज्ञान और इतना अमृत लेकर क्या होगा?”  उनके चिंतन का धरातल बड़ा उदात्त है । वे लिखते हैं-जीवन ही एक सलीब है जिस पर असहाय रूप में हम ठोंक दिए गए हैंअपने ही पापों की नहींऔरों के पापों की कीलों से भी। राजा-रंक सभी के कंधे पर क्रॉस हैपर बिरला ही ऐसा होता है जो औरों को पाप-मुक्त करने के लिएइस व्यथा को भोगता है। तब वह पुरुष नीलकण्ठ बन जाता है और यातना का रूपान्तर हो जाता है एक ज्योतिर्मय महिमा में। यह प्रतीक हमें शिक्षा देता है कि क्रॉस  तो ढोना ही हैजब जन्म लिया है तो इस नियति से नहीं बच सकतेपर इसे ऐसे ढोओ कि यातना महिमा बन जाय।’’ नीलकंठ बनने के आग्रही  श्री राय का रास्ता ही अलग है। उनकी पसंद ही कुछ और है-‘‘शोभा और श्रृंगार के प्रतीक इन पुष्पों के रहते हुए भी मैं नीम के पुष्प-गुच्छ का तिरस्कार नहीं कर पाता हूँ। ... नीम का मामूली फूल साहित्य की उस नयी विधा का प्रतीक हैजो समूची निराशा और पराजय का अतिक्रमण करके जीवन में जीने योग्य क्षणों के दानों को एक-एक करके चुन रही है।’’ इसलिए वे अविराम यात्रा पर अकेले चल पड़े हैं- ‘‘जन्म से मरण तक इस पंचभोग्या याज्ञसेनी सृष्टि का परिधान पर परिधान हरण करते जाओ, ‘स्व’ का दुःशासन थक जायगा परन्तु इसके भीतर का सार कहाँ हैपता नहीं।’’
          श्री कुबेरनाथ का चिन्तन इतना बहुआयामी है कि उसे समग्रता में प्रस्तुत करना आसान नहीं है। उनके निबंध पाठक से उसके अध्ययन-चिंतन की मांग करते हैं। कहानी-उपन्यास की तरह सिरहाने रखने से श्री राय पकड़ में नहीं आते हैं। श्री राय ने कला-साहित्य-दर्शन-गणित-भूगोल आदि का तलस्पर्शी अवगाहन किया है। यह लगभग असामान्य घटना है। उनके समकालीनों में शायद ही किसी का बूता हो जिसने इस गहराई से विविध विषयों का अध्ययन किया हो और उसे ललित शैली में प्रस्तुत किया हो। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि उनकी कोई निजी लोभ या तृषा नहीं थी- ‘‘मैंने चतुर्दिक हँसती राका-निशि में किसी का हाथ पकड़कर कोई प्रतिज्ञा की थीपर क्षमाहीन अर्थव्यवस्था और शासनतन्त्र के बीच कुछ कर नहीं पाया और दमित कामना का पाप ढोता हुआ इच्छाओं के फूल जैसे शिशुओं की निरन्तर हत्या करता हुआ जी रहा हूँ।’’ लेकिन उनके निबंधों में पाठक बहुत महत्वपूर्ण है। पाठकों के लिए ‘मणि (भारतीयता के विशिष्ट आयाम) की खोज में घाट-घाट का पानी पीते रहे और इतिहास से ‘मधु’ निचोड़कर प्रस्तुत करते रहे। और अंत में एक दिन चुपचाप चले भी गए-‘‘मुझे जाना ही होगा क्योंकि कहीं कोई प्रेषित पति का रूप में हृदय पर नमस्कार मुद्रा में जुड़े बीस नखों के अक्षत और अपने नारियल युग्म लिए मेरी प्रतीक्षा करती होगी। जाना ही होगा क्योंकि यह काम रूपिणी सृष्टि कहीं भविष्य की मातृका बनकर तो कहीं भविष्य की प्रेमिका बनकर प्रतीक्षारत है। ......... मृगशिरा की दुपहरिया में  कोयल कूक जायेगीपर मैं नहीं रहूँगा।


      -डॉ मनोज राय
एसोसिएट प्रोफेसर
अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा
डॉ मनोज राय



कथावार्ता : कुबेरनाथ राय होने का अर्थ

(आज 26 मार्च को आधुनिक भारत के ऋषि, ललित निबंधकार आचार्य कुबेरनाथ राय की जयंती है। वह एक भारतवादी चिंतक और भारतीयता के भाष्यकार थे। उनके जन्मजयंती पर पढ़िये यह आलेख)

          साहित्य में गद्य की कसौटी निबंध को कहा गया है। कसौटी का अर्थ है, परख करने वाला। वास्तव में सोने की शुद्धता की जांच कसौटी पर की जाती है। इस लक्षणा से बेहतरीन, ललित और सुगम गद्य की पहचान की कसौटी निबंध हैं। आचार्य कुबेरनाथ राय ने अगर उनके एकमात्र कविता संग्रह कंथामणि को छोड़ दिया जाये तो सिर्फ एक विधा निबन्ध को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनके निबन्ध लालित्य और पांडित्य का अद्भुत संगम हैं। कई बार उनको पढ़ते हुए लोग उनकी पंडिताई से किंचित आक्रांत हो जाते हैं और उनकी विद्वता को आतंकित करने वाला मानने लगते हैं, लेकिन यह बात वही करते हैं जो उनके साहित्य की समुचित परख नहीं करते। आज जब निबन्ध और उसमें भी ललित निबन्ध की विधा सबसे हाशिये की विधा हो गयी है और इसे लिखना सबसे दुष्कर तथा आउट ऑफ फैशन माना जाने लगा है, तब आचार्य कुबेरनाथ राय योगदान को समझना, रेखांकित करना एक बहुत जरूरी काम बन जाता है।


          आचार्य कुबेरनाथ राय का जन्म गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के मतसा नामक गाँव में आज के दिन 26 मार्च, 1935 को हुआ था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह पहले नलबारी, असम और फिर गाजीपुर में उच्च शिक्षा में अध्यापन की वृत्ति में रहे। 05 जून 1996 को गाजीपुर में अपने पैतृक आवास पर ही उनका देहावसान हुआ।
          आचार्य कुबेरनाथ राय आधुनिक भारत के ब्रह्मर्षि थे। उन्होने मराल, प्रिया नीलकंठी, रस आखेटक, गंधमादन, निषाद बांसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, किरात नदी में चंद्रमधु, मनपवन की नौका, दृष्टि अभिसार, त्रेता का वृहत्साम, कामधेनु और रामायण महातीर्थम शीर्षक से निबन्ध संग्रह लिखे। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश शासन से उनके निबंध संकलन प्रिया नीलकंठी, गंधमादन और विषाद योग को भी पुरस्कृत किया गया था। उनके निबन्ध भारतीयता, सनातन धर्म और विश्व बंधुता उच्च कोटि के दार्शनिक, साहित्यिक और ललित भाष्य हैं।

          अपने निबंधों में आचार्य कुबेरनाथ राय ने वृहत्तर भारत की संकल्पना को मूर्त रूप दिया है। उन्होंने मनपवन की नौका में वृहत्तर भारत की पहचान की है। वह प्राचीन भारत का विस्तार स्याम, जावा, सुमात्रा, मलाया, कम्बोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया तक रेखांकित करते हैं और इसका साक्ष्य विभिन्न वाङ्मय और ऐतिहासिक उदाहरणों से प्रस्तुत करते हैं। वह तमाम ऐसे द्वीपों के साक्ष्य रखते हैं, जहां भारतीयता की छाप है। उनका मानना था कि भारतीयता एक संयुक्त उत्तराधिकार है जिसके रचनाकर आर्यों के अलावा द्रविड़, निषाद और किरात हैं। उन्होंने भारतीय अवधारणा में नगरीय सभ्यता, कला शिल्प, और भक्ति योग जैसे तत्त्वों को द्रविड़ों की देन माना है। अपने एक निबन्ध स्नान : एक सहस्त्रशीर्षा अनुभव में वह लिखते हैं- भोगों में स्नान और विद्याओं में दर्शनशास्त्र, इन दो के प्रति इस जाति का घनघोर प्रेम की सीमा को पार कर गया है यह जाति प्रत्येक कर्म के पूर्व स्नान करती है और प्रत्येक कर्म के पीछे दार्शनिक युक्ति खोजती है इस स्नान प्रेम का मूल उद्गम वर्तमान भारतीय जाति की आदि संस्कृति निषाद संस्कृति में है निषादों की स्नान शैली थी गाहन अर्थात नदी या सरोवर में स्नान द्रविड़ों ने जन्म मज्जन-मार्जन को स्नानागारों में स्थान दिया और स्नान का रूप अवगाहन से प्रक्षालन हो गया वह स्थापना देते हैं कि “आर्यों की अग्नि उपासना अर्थात यज्ञ का रूपांतर हुआ 'हवन'। निषादों और द्रविड़ों का स्नान प्रेम बना 'तीर्थ'। द्रविड़ों की भाव-साधना बनी 'कीर्तन' या 'भजन' और आर्यों की चिंतनशीलता बनी दर्शन। इस प्रकार हवन-तीर्थ-कीर्तन-दर्शन के चार पहियों पर हिन्दू धर्म की बैलगाड़ी चल पड़ी और चलती रहेगी निरन्तर”। वह मानते हैं कि आरण्यक शिल्प और कला संस्कारों में किरातों का मूल है तथा आर्यों के मूल में निषाद हैं। वह मानते थे कि भारतीय धरती के आदिमालिक निषाद ही थे। गंगा मूलतः निषादों की नदी है। गंगा शब्द भी निषादों की देन है।
          आचार्य कुबेरनाथ राय आर्य, किरात, निषाद और द्रविड़ सांस्कृतिक चिंतन के क्रम में अपने वैष्णव होने को बहुत गहरे रेखांकित करते हैं। उन्होंने रामकथा को अपने लेखन का प्रमुख विषय बनाया था। वह मानते हैं कि “राम शब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना। मेरे लेखन की एक दूसरी प्रमुख दिशा इसी राम की महागाथा से संयुक्त है। राम मनुष्यत्व के आदर्श की चरम सीमा हैं। सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से बिलकुल अलग तथ्य है। यह सर्वोत्तम मनुष्यत्व है। पूर्ण भारतीय बनने का अर्थ है राम जैसा बनना”। वह अपने को वैष्णव मानते हैंवे स्वयं को तमोगुणी वैष्णव कहते हैं और उनके मत में मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध हैनहीं तो अन्तर का हाहाकार। उन्होंने अपने क्रोध को सारे हिन्दुस्तान के क्रोध से जोड़ने की हिमायत की है। क्रोध वैसे तो सुनने में आक्रान्त करता हैलेकिन रस दृष्टि से यह वीरता का अनुषंगी है। और इस तरह से यह व्यापक सरोकार वाला साहित्य बन जाता है। उनका मानना है- तुलसीदास और समर्थ गुरु रामदास को छोड़कर और किसी वैष्णव के मन में यह बात नहीं आई कि विनयअभिमानहीनता और समर्पण भाव के साथ-साथ वीरता भी जरूरी है। बिना वीरता के विनय दीनता का प्रतीक है। और इसी विनय ने चाटुकारिता कोइसी शुद्धता ने मानव निरपेक्ष व्यक्तिवाद कोइसी सात्विकता ने अज्ञान को हमारे नैतिक और व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कराया है। भारतीय जाति का चरित्र दूषित हो गया है। वह कृष्ण की बजाय राम को पूर्णावतार मानते हैं। वह मानते हैं कि “एस्थेटिक-एथिकल-स्प्रीचुअल तीनों स्तरों पर पूर्णता व्यक्त करने वाला व्यक्तित्व ही पूर्णावतार है। इस दृष्टि से राम ही पूर्णावतार लगते हैं, कृष्ण नहीं”। वह रामायण को एक ऐसा मिथक मानते हैं- जिसके केंद्र में सूर्य है। उनका एक निबन्ध युग संदर्भ में मानस उनकी विद्वता, तर्कशीलता और विवेचन की विलक्षणता  का अद्भुत उदाहरण है।

          कुबेरनाथ राय ने अपनी अनुजवधू मणिपुतुल को संबोधित करते हुए कुछ पत्र शैली में निबन्ध लिखे हैं। यह संग्रह गांधीवादी चिंतन की विशिष्टताओं को उद्घाटित करता है। इसके निबंधों में उन्होंने गांधी के विभिन्न पहलुओं पर ललित शैली में विचार किया है। पाँत का आखिरी आदमी’, शान्तम, सरलम, सुन्दरम’, वह रसमय पुरुष थे’, 'स्वच्छ और सरल' आदि उसके विशिष्ट निबन्ध हैं। उस संग्रह के आखिरी निबन्ध वे एक सही हिन्दू थे में जवाहरलाल नेहरू को आधुनिक हिन्दू बताते हैं और गांधी को सही हिन्दू। वह कहते हैं कि गांधी में यह जो सद्भावना है, इसके मूल में हिन्दू होना ही है। यदि गांधीजी हिन्दू न होते, या भारतीय न होते तो तो उनकी चिंता और और कर्म पद्धति के अंग प्रत्यंग में ऐसी एकसूत्रता या हारमनी नहीं आ पाती या आती भी तो यह भिन्न स्वरूप की होती। हिन्दू होने के कारण ही उनकी चिंता पद्धति का रूप संकेंद्रित वृत्तों का है”। वह मानते हैं कि गांधीजी का समन्वयात्मक दृष्टिकोण उनके सही हिन्दू होने का सुपरिणाम है।
          आचार्य कुबेरनाथ राय के निबन्ध में लोक का तत्त्व बहुत स्नेहिल तरीके से अंतर्गुंफित है। अपनी जमीन के प्रति यह संलग्नता उन्हें बहुत आत्मीय निबंधकार और सच्चा भारतवादी बनाती है। विद्वता के साथ जमीनी जुड़ाव का यह समंजन उनके निबंधों को ललित बनाता है। अपने निजी जीवन में भी वह बहुत हंसमुख और चुटीली बात करने वाले व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुबेरनाथ राय के निबंधों के मर्मज्ञ और गांधीवादी विचारक डॉ मनोज राय ने एक बार उनके जीवन से जुड़े कई प्रसंग सुनाये थे।  उन्होंने एक दिलचस्प प्रसंग साझा करते हुए बताया था कि उनके एक सगे संबंधी ने उन्हें सलाह दी कि कुछ प्रातःकालीन भ्रमण आदि हो जाया करे ताकि शरीर स्वस्थ रहे। तो उन्होंने कहा कि चिंतन प्रक्रिया में इतनी अंतर्यात्रा हो जाती है कि बाहरी भ्रमण के लिए अवकाश नहीं रहता। उनकी अंतरयात्राएं बहुत मूल्यवान हैं। कुब्जा-सुंदरी शीर्षक निबन्ध सहित कई निबंधों में इस अंतर्यात्रा के कई उदाहरण हैं।  इस निबंध में वह प्रसिद्ध दार्शनिक निम्बार्काचार्य के बारे में बताते हैं कि घने जंगल में वह सूर्य नमस्कार करने के लिए नीम के पेड़ पर चढ़कर सूर्य का दर्शन करते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करते थे। उसका अनुचिंतन करते हुए कुबेरनाथ राय अपने दरवाजे पर लेटे हुए नीम के तने के बीच की जगह से चंद्रमा का दर्शन करते हुए अपना लक्ष्य प्राप्त करते हैं। 
          आज उनकी जन्मजयंती पर इस भारतवादी विचारक को प्रणाम!





डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
इटावा, उ०प्र०

गुरुवार, 19 मार्च 2020

कथावार्ता : ‘कवि जा रहा है’ मैंने हवा से कहा


(आज 19 मार्च को समकालीन हिन्दी कविता के विशिष्ट हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह की पुण्यतिथि है। 2018 में आज के दिन उनका निधन हुआ था। उनके देहावसान की सूचना के बाद एक त्वरित टिप्पणी मैंने मित्रों के आग्रह पर किया था जिसे पढ़कर गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर आदरणीय प्रो दीपक प्रकाश त्यागी ने उसका विस्तार करने को कहा। उसी के अनुक्रम में यह श्रद्धांजलि आलेख लिखा था। अपने ब्लॉग पर यह आप सबके के लिए साझा कर रहा हूँ।)

हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में केदारनाथ सिंह सबसे चमकदार नाम है। नयी कविता की यथार्थवादी चेतना, जीवन के प्रति गहरी आसक्ति, अनुभव की प्रमाणिकता, सादगी और सहजता के साथ जटिल भावनाओं की अभिव्यक्ति की प्रवृत्तियों के साथ केदारनाथ सिंह ने शुद्ध कविता से प्रतिबद्ध कविताकी ओर चलने की सलाह दी। अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरे सप्तक में पदार्पण के साथ उन्होंने प्रतिबद्धता का पक्ष लेना शुरू किया। यह प्रतिबद्धता उन्हें जीवन से बहुत गहरे सम्पृक्त करती है और आत्मीय कवि बनाती है। वह उन गिने-चुने कवियों में हैं जो सहज ही जीवन से जुड़ जाते हैं और जिनकी कविताएँ हमारे जीवन का अंग बन जाती हैं। केदारनाथ सिंह ग्रामीण और शहरी दोनों संस्कार से आप्लावित कवि हैं और जिस आदिम भाव की मांग कविता करती है, उनके यहाँ सहजता से उपलब्ध है। प्रेम उनकी कविताओं का एक प्रमुख विषय रहा है। गहन प्रेम के क्षणों में केदारनाथ सिंह की कविताएं संबल रही है। वह प्रेम के अद्भुत कवि हैं। उनकी कविताएँ बारम्बार उद्धृत की जाने वाली कविताएँ हैं। ऐसा इसलिए कि इन कविताओं में प्रेम की गरिमा और सहज संवेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। तुम आयींशीर्षक कविता प्रेम के पगने और मुक्त करने को जिस तरीके से अभिव्यक्त करती है, वह सहज ही आकर्षित करता है। तुम आयीं/ जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/ आता है रस।प्रेम का यह परिपाक मुक्त करने में जाकर संपन्न होता है।-
और अंत में
जैसे हवा पकाती है गेहूं के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाए जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे खुद से अलगाया।
प्रेम की बात हो तो केदारनाथ सिंह तरुण मन को बहुत पसंद आने वाले कवि थे। उनकी कविताओं में इसके लिए बहुत अवकाश था। केदारनाथ सिंह की कविताओं में तरुण प्रेम की सी ताजगी है, टटकापन है। यह टटका और खिला हुआ रूप उनकी कविता को बहुत सान्द्र और रसपगा बनाता है। प्रेम किशोर मन में जैसे उमगता है, उसको शब्दों में पिरो देना सफल अभिव्यक्ति ही तो है-
ओस भरे
कँपते गुलाब की टहनी पर
तितली के पंखों-सी सटी हुई
धूप!
एक नाम है छोटा-सा
मेरे बेस्वाद खुले होठों पर
          तेरे लिए!’ (अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नाम)
उनकी एक दूसरी कविता नए दिन के साथको भी इस क्रम में देखा जाना चाहिए। वह लिखते हैं-
नए दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का
सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो’ (नए दिन के साथ)

ऐसा नहीं है कि केदारनाथ सिंह की कविताएं सिर्फ प्रेम कविताएं हैं, पहली उद्धृत कविता अपनी छोटी बच्ची के लिए एक नामतो वात्सल्य में पगी हुई कविता है. प्रेम के व्यापक क्षेत्र का विस्तार सहज ही देखा जा सकता है। उनकी कविताओं में प्रेम प्रमुख विषय जरुर है। यह वात्सल्य हो सकता है, तरुणाई का अथवा शुद्ध श्रृंगार का। प्रेम बहुत गहन क्षणों की अभिव्यक्ति चाहता है और अपनी गरिमामयी स्थिति के प्रति बेहद सचेत रहता है। अगर उसकी गम्भीरता और एकनिष्ठता तथा समर्पण को कहीं से भी न्यून दिखाया जाए तो वह बेअसर हो जाये। केदारनाथ सिंह इस मामले में बहुत सुलझे हुए कवि हैं, इसीलिए उनकी कविताओं में कहीं छिछलापन नहीं है।
केदारनाथ सिंह का संबंध उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद से था। वह भोजपुरी में जीते थे। बहुत चाहते थे अपने गांव-जवार को। गांव आकर रहते थे। यह पता चलने पर कि सामने वाला व्यक्ति भोजपुरी क्षेत्र का है, उससे भोजपुरी में बात करते थे। ठेठ ग्रामीण भाव-भाषा में। दिल्ली में भी गांव उनके यहां था। इस तरह उनकी कविताओं में ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति के साथ नागर जीवन की जटिलता भी बहुत सादगीपूर्ण तरीके से अभिव्यक्त हुई है। ग्रामीण जीवन और नगरीय बोध ने उनके अनुभव क्षेत्र का व्यापक प्रसार किया है। गाँव से शहर तक उनकी कविताओं की व्याप्ति है। परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदारनाथ सिंह शायद हिन्दी के समकालीन काव्य-परिदृश्य में अकेले ऐसे कवि हैं, जो एक ही साथ गाँव के भी कवि हैं और शहर के भी। अनुभव के ये दोनों छोर कई बार उनकी कविता में एक ही साथ और एक ही समय दिखाई पड़ते हैं। शायद भारतीय अनुभव की यह अपनी एक विशेष बनावट है जिसे नकारकर सच्ची भारतीय कविता नहीं लिखी जा सकती।नागर और ग्रामीण जीवन को समकालीन परिदृश्य में वह एक साथ कैसे पिरो लेते हैं, यह सहज द्रष्टव्य है। उनकी प्रसिद्ध कविता है- फर्क नहीं पड़ता। इस कविता की पंक्तियाँ हैं-
पर सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फर्क नहीं पड़ता
तुमने जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता।
मेरे युग का मुहाविरा है
फर्क नहीं पड़ता।
प्यारकी जगह सड़कलिखने का आशय क्या है? बहुधा हम इस काव्यपंक्ति को अभिधा में दुहराते हैं और पाते हैं कि तब भी इसका अर्थ कामचलाऊ हो आता है। लेकिन इसके गहरे निहितार्थ का जब उदघाटन होता है, तब समझ में आता है कि कवि का नागर और ग्रामीण संस्कार कैसे एक जगह जमा हो गया है। प्यारमांग करता है, एकनिष्ठता की। उसमें प्रिय के प्रति, विशिष्ट जन के प्रति समर्पण की आकांक्षा है। इसलिए वह एकान्तिक है। जबकि सड़कप्रतीक है सार्वजनीन होने का, उसमें सबकी आवाजाही है। उसकी सार्थकता ही इसमें है कि उसका कितना अधिक और बेहतर उपयोग हो रहा है। तो जहाँ प्यार लिखा है, वहां सड़क लिख देने का आशय है एकान्तिक से सार्वजनीन करना। प्रेम को बाजारू बनाना। तारीफ की बात यह है कि कवि इसे युगीन मुहावरे से सम्बद्ध कर देता है। उसके युग का मुहावरा है- फर्क नहीं पड़ता। वस्तुतः यह समकालीन मुहावरा बन गया है कि ऐसी त्रासदी से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मुहावरा बनने का अर्थ है- एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो जाना। केदारनाथ सिंह नागर संस्कृति के इस उत्तरआधुनिक चरित्र को भलीभांति पहचानते हैं।
केदारनाथ सिंह ने अपने काव्य संसार को एक विस्तृत आयाम दिया है। उन्होंने महज प्रेम कविताएँ नहीं लिखी हैं लेकिन यहाँ यह कहते हुए आगे विचार करना है कि उनकी प्रेम कविताएँ जीवन की सबसे सान्द्र अनुभूति वाली कविताएँ हैं और सहज ही साधारणीकृत हो जाने वाली। जहाँ उन्होंने किसी व्यक्ति अथवा संज्ञा को कविता के केंद्र में रखा है, वहां भी उनकी काव्यात्मक छटा देखते बनती है। सन 47 को याद करते हुएकविता में नूर मियां से संवाद हो अथवा जगरनाथशीर्षक कविता में सपाटबयानी से आगे एक आत्मीयतापूर्ण बातचीत, केदारनाथ सिंह के काव्यक्षेत्र के विस्तार को आसानी से महसूस किया जा सकता है। नदी, पुल, पहाड़, झरने उनकी कविता में अनेकशः आये हैं। उनकी कविताओं में जीवन की स्वीकृति है। सहजता, सरलता और साधारणता से भरा जीवन किन्तु विराट। धरती और अपने लोगों के पहचान से निःसृत कविताएँ। उन्होंने बनारस पर एक बहुत प्यारी कविता लिखी है। यह कविता बनारस की महानता और पवित्रता को आईना दिखाती हुई सी प्रतीत होती है। -
इस शहर में बसंत
अचानक आता है
और जब आता है तो मैंने देखा है
कि लहरतारा या मंडुवाडीह की तरफ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है।
उनकी कई कविताएं हमारे दैनंदिन में उभरती हैं और छा जाती हैं। अपने परिवेश की छोटी-छोटी चीजों को कविता का हिस्सा बनाना और उनमें जीवन का रंग भर देना केदारनाथ सिंह को बड़ा कवि बनाती हैं। सरलता और सहजता उनकी कविताओं का विशेष गुण है। सरल और सहज शब्दों वाली उनकी कविताएँ अनुभव और कल्पना का विराट संसार रचने वाली कविताएँ हैं। उनकी यह कविता तो कविता-प्रेमियों के बीच सैंकड़ों बार दुहराई गयी है। दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होने की आकांक्षा में जो अर्थ व्यंजना है, वह चमत्कृत कर देने वाली है।-
उसका हाथ
अपने हाथ मे लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और सुंदर होना चाहिए।


इसी प्रकार जानाशीर्षक कविता में जा रही हूँऔर जाओहिन्दी के व्याकरण  की खौफनाक क्रिया भर नहीं है, खौफनाक जीवनानुभव भी है। एक पद खौफनाकसे कवि पाठक को समृद्ध कर देता है।-
मैं जा रही हूँ- उसने कहा
जाओ- मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है।

केदारनाथ सिंह की कविता के विषय में वरिष्ठ आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव लिखते हैं- केदार की कविता जो पहली बार रूप या तंत्र के धरातल पर एक आकर्षक विस्मय पैदा करती है, क्रमशः बिम्ब और विचार के संगठन में मूर्त होती है और एक तीखी बेलौस सच्चाई की तरह पूरे सामाजिक परिदृश्य पर अंकित होती चली जाती है। केदार कल्पना का इस्तेमाल जरुर करते हैं और देखा जाए तो कल्पना की जो पूँजी उनके यहाँ है, वह उनके सुपरिचित समकालीनों के यहाँ विरल है। पर कल्पना का इस्तेमाल वे जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाने के लिए नहीं करते, परिवेश की जटिल वास्तविकता को अधिक तीखे अर्थ में ग्राह्य बनाने के लिए करते हैं। उनकी कविता को नाम देने के लिए शास्त्र की दुनिया में जाने की जरूरत नहीं, सीधे हाट-बाजार में निकलने की जरूरत है, जहाँ केदार की कविता है।बारिश-धूप, हवा-पानी पर उनकी कविताएँ शास्त्रीयता की नहीं, सहज संपृक्तता की मांग करती हैं। वर्षा की दो छवि द्रष्टव्य है-
1.
जब वर्षा शुरू होती है
कबूतर उड़ना बंद कर देते हैं
गली कुछ दूर तक भागती हुई जाती है
और फिर लौट आती है।
मवेशी भूल जाते हैं चरने की दिशा
और सिर्फ रक्षा करते हैं उस धीमी गुनगुनाहट की- (जब वर्षा शुरू होती है)
2.
वह अचानक शुरू हुई
बकरियां उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं थीं
वे देर तक चीखती-चिल्लाती रहीं
मगर पानी पूरी ताकत के साथ
गटर और उसके गोश्त में उतरता जा रहा था। (बारिश)

केदारनाथ सिंह ने बाघशीर्षक से लम्बी कविता लिखी है। पंचतंत्र की संरचना से युक्त इस कविता में आधुनिक जीवन की जटिलता को अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रदीर्घ कविता के केंद्र में बाघ है पर पाठक देखेंगे कि सिर्फ बाघ नहीं है। आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतना दूर आ गया है कि बाघ उसके लिए हवा-पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता भी है, जिसके साथ हमारे होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।वह स्वयं मानते हैं कि- आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है।यह एक बहुलार्थी कविता है जिसपर पंचतंत्र का प्रभाव है। बाघ कविता कई टुकड़ों में है। इसके हरेक अंश में बाघ अलग इकाई के रूप में चित्रित हुआ है लेकिन एक अंतर्दृष्टि के साथ।

बीते दिन 19 मार्च, 2018 को हमारे इस अतिप्रिय कवि ने इस असार संसार को अलविदा कहा। उन्हें याद करना एक सुपरिचित को याद करना है, उन्हें खो देना एक आत्मीय को। उस सुबह यह कवि उठा और अपना वायदा पूरा करने निकल पड़ा-
और एक सुबह मैं उठूंगा
मैं उठूंगा पृथ्वी समेत
जल और कच्छप समेत मैं उठूंगा
मैं उठूंगा और चल दूंगा उससे मिलने
जिससे वादा है
कि मिलूंगा।

कवि केदार को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ रमाकान्त राय
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय
इटावा, उ०प्र०

बुधवार, 18 मार्च 2020

कथावार्ता : साफ–सफाई, गोबर, गौमूत्र और हम


देश - दुनिया की बड़ी जनसंख्या एक समयांतराल के बाद यह कतई नहीं मानेगी कि हम अपने घरों को साफ और पवित्र करने के लिए गाय के गोबर से लीपते थे। चौका पूरने के लिए गोबर से लीपना अपरिहार्य था। पंचगव्य एक आवश्यक औषधि थी। इसमें दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र का प्रयोग होता था। मेरे एक मित्र को बवासीर हो गया था तो वह स्वमूत्र चिकित्सा करते थे और अपने पेशाब से शौच करते थे। जब हम छोटे थे तो खेलने कूदने में कहीं चोटिल हुए तो चोट ग्रस्त स्थान पर सूसू कर लेते थे कि यह बहुत अच्छा एंटीसेप्टिक है। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई तो स्वमूत्र को औषधि की तरह लेते थे।
हम यह भी नहीं मानेंगे कि अपने घरों की दीवार गड़ही की मिट्टी से पोता करते थे और वह चमकदार लगती थी। कि सबसे अच्छी खाद मल से बनती थी। हमने वह जगह खूब अच्छे से देखी है जहां निरन्तर मूत्र विसर्जन करने से खेत का एक हिस्सा पीला पड़ जाता था और हम विज्ञान की भाषा सीखते हुए कहा करते थे कि यूरिया के प्रभाव से यह होता है और यह अच्छा उर्वरक है। गोइंठा, उपला, चिपरी, गोहरौर यह सब हमारी रसोई का अनिवार्य ईंधन था और सब गाय/भैंस के गोबर से बनता था। एलपीजी ने इसे भी हतोत्साहित किया है।
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत बनाए जाने वाले शौचालयों ने ऊपरी तौर पर भले हमें एक साफ-सुथरी दुनिया उपलब्ध कराई है लेकिन उसने एक स्वाभाविक चेन को तोड़ दिया है। यह अच्छा है कि इन शौचालयों में एकत्रित मल वहीं बनाए एक टंकी में एकत्रित होता रहता है और भविष्य में उसका उपयोग कर लिया जाएगा लेकिन तब भी वह जो एक इकोसिस्टम बना था, वह इस क्रम में टूट जाएगा। हम जानते हैं कि माला का एक भी मोती अगर अपनी जगह से हटता है तो वह समूची संरचना को प्रभावित कर तहस नहस कर देता है। शौचालय, तो एकबारगी हमें ठीक भी लगेगा लेकिन जिस तरह हम गोबर और पशुओं के उत्सर्जित अपशिष्टों से घृणास्पद व्यवहार कर रहे हैं, वह हमें एक दूसरी ही दुनिया में धकेल रहा है।
हमारा इकोसिस्टम : एक समावेशी चेन

दरअसल
, हमने अपनी जीवनशैली ऐसी बदल ली है, हम ऐसे उपभोक्ता में परिणत हो गए हैं कि हम परम्परागत समावेशी प्रणाली से दूर हो गए हैं। हम भारी मात्रा में कूड़ा उत्पादक जीव बने हैं। ऐसे में हमने "घृणा" की एक सर्वथा नवीन चीज डेवलप की है। इससे हमने एक नए तरीके का स्वच्छता वाला माहौल भी बनाया है। इसमें उपयोगिता वाला तत्त्व विलुप्त हो गया है। हमने कूड़ा का एक अद्भुत संसार बनाया है। महज तीस साल पहले यह कूड़ा उपयोगी था। आवश्यक हिस्सा था। अब वह घृणा की वस्तु में परिवर्तित हो चुकी है।
          हमारी उपभोक्ता वाली जीवन प्रणाली सबसे घातक प्रणाली है। हम चीजों का उपभोग कर रहे हैं। यही मानसिकता हमें समावेशी विकास पद्धति से दूर करती है। याद कीजिये, बीस पच्चीस साल पहले कितना कम कचरा हमारे आसपास होता था और हम घूरा को एक संपत्ति की तरह देखते थे। दीपावली पर तो हम एक दिन पहले यम का दिया निकालते थे और घूरा को प्रकाशित करते थे। वह खेत की मिट्टी की संरचना ही बदलने में सक्षम था।  आज हमारा घूरा एक घृणास्पद स्थल है। यह सब हमने नयी शिक्षा पद्धति में सीखा और आत्मसात किया है। इनसे घृणा सीखाने वाले उस शिक्षा पद्धति के सबसे उज्ज्वल मोती हैं।
         

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : दूसरा दोहा

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार। बल बुधि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।। श्री हनुमान चालीसा शृंखला। दूसरा दोहा। श्रीहनुमानचा...

आपने जब देखा, तब की संख्या.