रविवार, 16 फ़रवरी 2025

महाकुंभ के 144 साल

प्रयागराज में लगे हुए #महाकुंभ2025 के संबंध में 144 साल का जुमला बहुत चर्चा में है। सरकार ने इस आयोजन को ऐतिहासिक बताने के लिए कहा कि यह शताब्दियों में एक बार लगने वाला मेला है इसलिए अमृत स्नान किया ही जाना चाहिए। श्रद्धालुओं ने भी तय किया कि चलते हैं

महाकुंभ के 144 साल

#महाकुंभ2025 के आरंभ होने में साथ ही श्रद्धालुओं का रेला चल पड़ा। सरकार और सनातन के समर्थक प्रसन्न। हर हर महादेव और हर हर गंगे की गूंज में जय श्री राम भी सम्मिलित हो गया। सब कुछ सही तरीके से चलने लगा। बेहद अनुशासित। लोग आते। डुबकी लगाते। अपने को धन्य समझते। ऐतिहासिक कुंभ है।

जय श्री राम

अमृत स्नान हुए। अखाड़े सजे। शंख ध्वनि हुई। सब अपने और परमार्थ के हित में चले। 144 साल चल पड़ा। सब ऐतिहासिक था।

ध्यान से देखा जाए तो जीवन का हर क्षण ऐतिहासिक है। जापानी कहावत है कि आप एक नदी में दुबारा स्नान नहीं कर सकते। जो क्षण जीवन में आया, वह दुबारा नहीं आएगा।  हर क्षण ऐतिहासिक है। कोई भी घटना दोहराई नहीं जा सकती।

इस प्रकार कोई भी आवृत्ति असंभव है। फिर भी 144 साल का जुमला चल गया।

हर महाकुंभ या कुंभ या माघ मेला सहस्त्राब्दियों के बाद लगता है। जो पहली बार लगा था, उसके बाद जितने लगते गए, वह सभी ऐतिहासिक हैं। ग्रह, नक्षत्र, राशि और काल की गणना में भी अनूठे। कुछ भी दोहराया नहीं जा सकता। जो वस्त्र एक बार पहन लिया गया है, वह दुबारा नहीं पहन सकते। जो कौर चबा लिया गया है, उसे पुनः नहीं खा सकते। जिस जल में डुबकी लगा दी, वह जल वही नहीं रह गया। जिसके साथ रह लिया, जिसे भोग लिया, वह दोहराया नहीं जा सकता। जिसने एक शब्द उच्चार दिया, वही पुनः नहीं निकलेगा। हर क्षण परिवर्तन चल रहा है। एक अनवरत प्रक्रिया चल रही है। और इसमें कोई वृत्त भी नहीं है। यदि कोई वृत्त है तो वह हमारे बोध से परे है। लेकिन यह सब दार्शनिकों की बातें हैं। भारतीय मन इसे मानता है। इसमें गहराई से विश्वास करता है लेकिन इसी के साथ वह इसे गूढ़ विषय मानकर कहता है कि अपना यह ज्ञान, सूक्ष्म अवलोकन अपने पास रखो। भारतीय मानस एक ऐसा आश्रय खोजता है जो उसे उसके मनोनुकूल आदेश देता हो।


स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जन्मी पीढ़ी ने पहली बार देखा था कि कोई प्रधानमंत्री निषादों के बीच है। सफाई कर्मियों के पांव धो रहा है। उनका आभार प्रकट कर रहा है। कोई मुख्यमंत्री स्वतः रुचि लेकर आयोजनों को मॉनिटर कर रहा है। समूचे अमले को लगा रखा है कि वह संस्कृति के महत्वपूर्ण विषय को गरिमा और उचित आदर से देखे।

ऐसे में उसकी सुप्त भावना को आश्रय मिलता है। वह उठता है और चल पड़ता है अमृत स्नान की खोज में।

भारतीय मानस धर्म की ध्वजा उठाए चल पड़ा है। मैं इस ऐतिहासिकता और सरकारी विज्ञापन के महत्त्व को नहीं भूल रहा हूं लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि यदि भारतीय जनता को 144 साल की ऐतिहासिकता का अभिज्ञान नहीं भी कराया गया होता तो भी श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला वही रहता जैसा कि आज है।

इस #महाकुंभ के आयोजन में आग लग गई। #मौनीअमावस्या के दिन भगदड़ हो गई। कल नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर श्रद्धालु दब गए। मीलों तक वाहनों की कतार लगी। लोग भूखे प्यासे रहने के लिए विवश हुए। उन्हें कल्पना से अधिक श्रम करना पड़ा पर उनका धैर्य और उत्साह बना रहा। क्या रेलगाड़ी, क्या बस, क्या हवाई जहाज हर तरफ श्रद्धालु उपस्थित। उससे अधिक दृष्टिगोचर हुए निजी वाहन से पहुंचने के लिए निकले लोग।

दुनिया दांतों तले उंगली दबाए सोच रही है! यह क्या हुआ है। कितना बड़ा मेला है। ब्राजील में कार्निवल लगता है। देश भर में पचास साठ लाख लोग एकत्रित हो जाते हैं। ब्राजील सांबा करने लगता है। यहां एक दिन में साढ़े सात करोड़ श्रद्धालु आते हैं, स्नान करते हैं और अपने गंतव्य पर चल देते हैं। इतने भर से प्रसन्न हैं कि स्वच्छता है। व्यवस्था में लोग लगे हैं। स्रोतस्विनी अविरल है। वह मोक्षदायिनी है।


क्या उन्हें कोई अपेक्षा है? नहीं। वह मुदित हैं। आभारी हैं। अपने को धन्य मान रहे हैं। दूसरे को धन्यवाद कर रहे हैं। महाकुंभ से अमृत रस झर रहा है। शंखनाद जारी है।

सनातन का शंखनाद

यह अमृतकाल है। अयोध्याजी में रामलला के विग्रह की स्थापना। भारत के मंदिरों का पुनरुद्धार चल रहा है। काशी और महाकाल हमारे समक्ष हैं। नए कालचक्र के उद्गम में दुनिया भर से श्रद्धालु आयेंगे। कोई रोक नहीं सकेगा। स्वतः चल पड़ेंगे।

अब यह हम सबका सामूहिक दायित्व है कि हम उनके मार्ग को फूलों से सजा दें। यदि कोई कांटा आए तो उसे उखाड़ फेंके। जो सरकार इसमें सहायक नहीं होगी, वह जनता के चित्त से उतर जाएगी। जो लोग इसमें सहायक होंगे, वही मित्र, सखा, साथी, संघाती कहे जाएंगे।




शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

सौवें वर्ष में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ


महाकुंभ में मौनी अमावस्या के दिन हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने समूचे देश को क्षुब्ध कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार के पुख्ता इंतजामों के बावजूद ऐसी अप्रिय घटना हो जाना हृदयविदारक है। इस घटना के बाद जहाँ सरकार ने कुम्भ नियमों में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं वहीं ट्रैफिक व्यवस्था में सहयोग हेतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सोलह हजार स्वयंसेवकों ने भी पुलिस के साथ सहयोग करने का फैसला लिया है। इस निर्णय की चारों तरफ प्रशंसा हो रही है,जो संघ की देश एवं समाज के प्रति प्रतिबद्धता को भी दर्शाता है।

इस साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना को सौ साल पूरा हो जाएगा। बीते सौ सालों में संघ ने कई उत्तर-चढ़ाव देखे हैं हालांकि किसी भी तरह की नकारात्मकता को त्यागकर संघ ने प्रत्येक मौके पर देश की जरूरत में हाथ बँटाया है,जिससे संघ की प्रासंगिकता एवं लोकप्रियता में कभी गिरावट नहीं आयी ।स्थापना की एक शताब्दी बाद भी किसी संगठन की वैचारिकी एवं प्रतिबद्धता में दृढ़ता का उदाहरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अलावा समूचे विश्व में विरले ही मिलेगा। उपर्युक्त कथन की विवेचना करने पर आभास होता है कि संघ ने इन सौ सालों में समाज की जरूरत के हिसाब से बदलाव में सफलता पाई है। बदलाव के इस दौर में संघ ने मूलभूत भारतीय मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया और भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के बचाव में एक मजबूत स्तंभ बनकर खड़ा रहा। संघ के सौ सालों के इतिहास में ऐसे कई कारक हैं जो इस संगठन एवं इसके कार्यकर्ताओं को खास बनाते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विकसित भारत की परिकल्पना में शिक्षा के भारतीयकरण के महत्व को समझा तथा इस दिशा में व्यापक कार्य किये। वर्तमान समय में संघ द्वारा संचालित हजारों स्कूल जातीय एवं धार्मिक भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान कर रहे हैं तथा सशक्त भारत के निर्माण में अपना योगदान दे रहे हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं के समय संघ ने सुरक्षा बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आई भारी तबाही के वक्त संघ ने राहत कार्यों में भरपूर सहयोग किया था। आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए संवेदनशील राज्य केरल में आई बाढ़ के वक्त स्वयंसेवकों के बचाव कार्यों की चारों ओर प्रशंसा हुई थी। कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के बीच भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने अपनी जान जोखिम में डालकर लोगों के सेवार्थ कार्य किया। इस दौरान कोरोना वायरस से कई स्वयंसेवकों की जान भी गई किंतु उनके हौसलों में कमी नहीं आई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी सक्रिय रहा है। संघ ने स्वास्थ्य कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई पहल की है। संघ के विभिन्न प्रकल्पों जैसे सेवा भारती इत्यादि की स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी रही है। जिसने समय-समय पर स्वास्थ्य शिविरों के आयोजन से लेकर शहरी झोपड़-पट्टियों, आदिवासी समुदायों एवं समाज के कमजोर वर्ग के लिए कार्य किया है।

आरएसएस ने महिला सशक्तिकरण के महत्व को समझते हुए ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते,रमन्ते तत्र देवता’ के तहत बीते कुछ सालों से महिलाओं के शिक्षा,बेहतर स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की दिशा में कार्यों का निष्पादन किया है। संघ द्वारा मार्गदर्शित भाजपा सरकार ने उज्ज्वला योजना, ड्रोन दीदी एवं तीन तलाक खत्म करने जैसे क्रांतिकारी कार्यों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है।

इसके अलावा भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर समय एवं जरूरत को देखते हुए रक्तदान शिविरों का आयोजन,सामूहिक एवं सर्वजातीय विवाह,कौशल प्रशिक्षण एवं विभिन्न जागरूकता कार्यक्रमों का सफल आयोजन एवं उनके उच्च प्रबंधन आरएसएस एवं उसके प्रकल्पों के महत्वपूर्ण कार्य हैं। आधुनिक भारतीय समाज में जातीय विभेद गहनता से देखने को मिलता है जिस जातीय भेद को तोड़ने की पृष्ठभूमि भी आरएसएस ने तैयार किया है जहाँ सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने हेतु पक्षपातरहित कार्यक्रमों का आयोजन होता है सामूहिक भोज के वक्त जात-पात तथा ऊंच-नीच के भेद टूट जाते हैं एवं कार्य का निष्पादन एक-दूसरे की सहायता से सम्पन्न होते हैं। अनुशासन एवं समयबद्धता का आचरण भी आरएसएस के कार्यकर्ताओं में सामान्यतः देखा जा सकता है। इसे देखकर 1934 में महाराष्ट्र के वर्धा में आरएसएस के शिविर का दौरा करने के दौरान गांधी जी ने आरएसएस की खूब प्रशंसा की थी। बाद में, उन्होंने 16 सितंबर 1947 को दिल्ली में स्वीपर्स कॉलोनी में आरएसएस की एक बैठक को संबोधित भी किया।

स्वयंसेवक शब्द का शाब्दिक अर्थ निःस्वार्थ भावना से दूसरों की सेवा करना होता है। डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्थापना के समय हिन्दू समाज को मजबूत बनाने एवं उसमें सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक,धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों के विस्तार तथा समाज के विभिन्न चुनौतियों के प्रति सचेत रहने हेतु सशक्त एवं एकजुट होने पर जोर दिया। जिन मूल्यों के निष्पादन हेतु संघ की स्थापना की गई उन मूल्यों पर आज भी गंभीरता से अमल किया जा रहा है। वर्तमान समय मे भी संघ की प्रगतिवादी सोच ने प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण करते हुए आधुनिकता को आत्मसात किया है। संघ के विभिन्न आनुषंगिक संगठन समाज एवं राष्ट्र के प्रत्येक क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं एवं भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को प्रज्ज्वलित कर रहे हैं। यही कारण है कि संघ की स्थापना के दौर में जहाँ एक तरफ अनेक संस्थाएं बनी जो समय के साथ कदमताल मिला पाने में असफल रहीं एवं अपने मूल्यों के साथ समझौता करके वैचारिक रूप से नष्ट हो गईं, वहीं दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मूल्यों को बचाये रखा तथा समाज मे प्रगति का सकारात्मक द्वीप जलाए रखा जिससे संघ की प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।

 


पीयूष कान्त राय

शोध छात्र, फ्रेंच साहित्य

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

ए सखि पेखल एक अपरूप!

विद्यापति : भाग- सात

हमने बताया है कि विद्यापति के अपरूप वर्णन में ध्यान कच, कुच, कटि पर टिक गया है। पीन पयोधर दूबरी गता और नितंब पर वह मुग्ध हैं। जहां मिलन, संयोग का प्रसंग है वहां राधा आश्रय हैं। वह कृष्ण से उनके मिलन का प्रसंग निकालते हैं। मिलना होता है। दर्शन पाने के बाद कृष्ण व्यथित से, उद्विग्न हैं। सजनी को अच्छी तरह देख न पाया!

ए सखि पेखल एक अपरूप!

सजनी भल कए पेखल न भेल।
फिर सजनी के उन्हीं अंग प्रत्यंग का उल्लेख है। "चंचल पवन के चकोर से वस्त्र गिर गया। अचानक राधा की सुचिक्कन देहयष्टि दिखाई पड़ गई। केशपाश से घिरी हुई वह देहयष्टि, लगा जैसे नए श्याम जलधार के नीचे बिजली की रेखा चल रही है।* इस गजगामिनी कामिनी को देख श्रीकृष्ण कहते हैं - उसके चरणों का जावक, मेरे हृदय को पावक की तरह दग्ध कर रहा है- "चरन जावक हृदय पावक, दहय सब अंग मोर।" चरणों का जावक, आलता। वह लाल रंग जिसे महावर की तरह प्रयुक्त करते हैं, को देखकर उनका अंग अंग जलता है। लाल रंग का कितना सुघड़ बिम्ब है।

और राधा! वह तो हर क्षण कुछ अद्भुत करती हैं। कभी तिरछी नजर से देखती हैं तो कभी अपना वस्त्र संभालती हैं। अनायास ही।
खने खने नयन कोन अनुसरई।
खने खने वसन धूलि तनु भरई।।
वह बायां पैर रखती हैं और दाहिना उठाती हैं तो लज्जा होती है। क्यों? रूप की राशि जैसे खनक जाती है। कृष्ण को देखने के बाद राधा व्यग्र हो उठती हैं। विद्यापति लिखते हैं -
नगर के बाहर न जाने कितने लोग आते जाते हैं, कृष्ण की ओर देखते हैं। एक मेरा देखना सबको चुभता है?
पुर बाहर पथ करत गतागत
के नहिं हेरय कान।
तोहर कुसुम सर कतहुं न संचर
हमर हृदय पेंच बान।।

राधा ऐसी हैं कि उन्होंने अपनी कटाक्ष से कन्हाई को कीन लिया है।

विद्यापति के पद पढ़कर, उन्हें प्रत्यक्ष कल्पित कर ही इस आनंद की कल्पना हो सकती है। मिलन के प्रसंग इतने रसीले और मादक हैं कि झूम जाएं।

पुर बाहर कत करत गतागत

पहले भी कहा था हमने कि संयोग के प्रसंग में विद्यापति अति प्रगल्भ हैं। यह प्रगल्भता अंतरंग क्षणों में चुकती नहीं। राधा कृष्ण को देखकर पुलकित हो उठती हैं। इस पुलक में "चूनि चूनि भए कांचुअ फाटलि, बाहु बलआ भांगु।" वाणी कंपित हो गई है, बोली नहीं फूटती। वह रति प्रसंग का वर्णन सखियों में करती हैं -
जब नीवी बंध खसाओल कान
तोहर शपथ हम किछु जदी जान।

विद्यापति के यहां प्रेम का इतना सरस और उन्मुक्त वर्णन उन्हें घोर शृंगारी बनाता है। इस शृंगार के रस का अवगाहन कोई कोई ही कर पाता है।

कल कुछ दूसरे पदों की सहायता से इस शृंगार के वियोग पक्ष को स्पष्ट करेंगे।

#विद्यापति #vidyapati #मैथिल_कोकिल #प्रेम


नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

विद्यापति की कीर्ति का आधार है पदावली। इस पदावली में भक्ति और शृंगार के पद हैं। शृंगार के पदों में जहां राधा और कृष्ण हैं, वहीं राजा शिवसिंह और लखिमा देवी हैं। इसी में अपरूप सौंदर्य का वर्णन  है।

वस्तुतः विद्यापति अपरूप सौंदर्य के कवि हैं। शृंगार वर्णन के क्रम में जब वह रूप वर्णन करते हैं तो उनकी दृष्टि प्रगल्भ हो उठती है। वह मांसल भोग करने लगते हैं। सौंदर्य वर्णन में वह "सुन्दरि" की अपरूप छवि के बारे में अवश्य ही बताते हैं -
"सजनी, अपरूप पेखलि रामा!"
"सखि हे, अपरूप चातुरि गोरि!"

अपरूप अर्थात ऐसा रूप जो वर्णन से परे है। अपूर्व है। अवर्णनीय है। जातक ग्रंथों में अनुत्तरो शब्द आता है। सबसे परे। यह सुन्दरी राधा हैं। राधा की व्यंजना अपने अपने अनुसार हो सकती है। वह राधा के रूप को देखकर कहते हैं कि उन्हें बनाने में जैसे विधाता ने धरती के समस्त लावण्य को स्वयं मिलाया हो।

रूप वर्णन करते हुए विद्यापति अपरूप का व्यक्त करते हैं और उनकी दृष्टि #स्तनों पर टिक जाती है। #कुच वर्णन में जितना उनका मन रमा है, हिंदी में ही नहीं, संभवतः किसी भी साहित्य में द्वितीयोनास्ति! जब शैशव और यौवन मिलता है तब नायिका मुकुर अर्थात आईना हाथ में लेकर, अकेले में जहां और कोई नहीं है अपना उरोज देखती है, उसे (विकसित होते) देखकर हंसती है -
"निरजन उरज हेरइ कत बेरि, बिहंसइ अपन पयोधर हेरि।
पहिलें बदरि सम पुन नवरंग, दिन दिन अनंग अगोरल अंग।"
पहले बदरि समान अर्थात बैर के आकार का। फिर नारंगी।..
वह वयःसंधि में अपने बाल संवारती और बिखेर देती है। उरोजों के उदय स्थान की लालिमा देखती है।
नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

रूप वर्णन में #विद्यापति का मन इस अंग के वर्णन में खूब रमा है। वह पदावली में अवसर निकाल निकाल कर एक पंक्ति अवश्य जोड़ देते हैं। दूसरा, अंग जिसपर #विद्यापति की काव्य प्रतिभा प्रगल्भ है, वह #नितंब हैं।
"कटिकेर गौरव पाओल नितंब, एकक खीन अओक अबलंब।" कटि अर्थात कमर का गौरव नितम्बों ने पा लिया है। एक क्षीण हुआ है तो अन्य पर जाकर आश्रित हो गया है।

विद्यापति की यह सुन्दरि पीन पयोधर दूबरि गाता है। वह क्षण क्षण की गतिविधि को अंकित करते हैं। सौंदर्य की यही तो परिभाषा कही गई है - प्रतिक्षण नवीन होना। सौंदर्य वहीं है जहां नित नूतन व्यवहार है, रूप है, दर्शन है।

इसी के प्रभाव से जो रूप बना, वह मनसिज अर्थात कामदेव को मोहित कर लेने वाला है। मुग्धा नायिकाओं के चरित्र को विद्यापति बहुत सजल होकर अपने पदों में व्यक्त करते हैं और इसे अपरूप कहकर रहस्यात्मक और अलौकिक बना देते हैं।

नागिन की लहर जैसे विद्यापति के पद

विद्यापति का यह रूप वर्णन इतना मांसल है कि कालांतर में यह सभा समाज से गोपनीय रखा जाने लगा।
यह विचार करने की बात है कि जिस समय विद्यापति थे, लगभग उसी समय खजुराहो और कोणार्क के मंदिर बन रहे थे। रूप वर्णन और काम कला के अंकन में कैसी अकुंठ भावना थी। समाज कितना आगे था। फिर बाहरी आक्रमण हुए, स्त्रियों को वस्तु मानने वाले लोगों का आधिपत्य हुआ, समाज में दुराचारी और बर्बर लोगों का हस्तक्षेप हुआ, लुच्चे और लंपट आततायी लोग आए और सामाजिक ताना बाना बिखर गया। नए बंधन मिल गए। घूंघट और पर्दा की प्रथा बन गई। मुक्त समाज बचने के लिए सिकुड़ता चला गया।

विद्यापति के रूप वर्णन को मुक्त मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति मानना चाहिए। वह बहुत आधुनिक कवि हैं। उनसा कोई और नहीं है। बाद के कवियों ने बहुत प्रयास किया, नख शिख वर्णन में कोशिश की लेकिन वह सहजता, स्वाभाविकता नहीं आई। यह स्वाभाविकता मुक्त सामाजिक व्यवस्था से आती है, जिसकी छवि विद्यापति के यह दिखती है।

#vidyapati #पदावली #रूप_वर्णन
#सौन्दर्य
#अपरूप

विद्यापति : भाग छह


कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व

विद्यापति : भाग पांच

अपनी पहली रचना कीर्तिलता में विद्यापति ने आश्रयदाता राजा कीर्ति सिंह की कीर्ति कथा की है। इसमें राजा कीर्ति सिंह द्वारा अपने पिता का वध करके राज्य हड़पने वाले अरसलान को पराजित करने और राज्य वापस पाने की कथा है जिसमें जौनपुर के शासक इब्राहिम शाह की सहायता मिली है। इस रचना में विद्यापति ने अपने समय और समाज की गाथा सुनाई है। कीर्तिकथा के बीच-बीच में जौनपुर शहर का वर्णन तद्युगीन समाज का प्रतिबिंब है।

कीर्तिलता में वर्णित नगर जौनपुर ही है। इस रचना में एक ऐसी घटना का संदर्भ है जिसमें ओइनवार राजा, राजा गणेश्वर, को तुर्की सेनापति मलिक अरसलान ने 1371 ई में मार दिया था। 1401ई तक, विद्यापति ने जौनपुर सुल्तान इब्राहिम शाह ने अरसलान को उखाड़ फेंकने और गणेश्वर के पुत्रों, वीरसिंह और कीर्तिसिंह को सिंहासन पर स्थापित करने में योगदान दिया। सुल्तान की सहायता से, अरसलान को हटा दिया गया और सबसे बड़ा पुत्र कीर्ति सिंह मिथिला का शासक बने।

कीर्ति सिंह ने अपनी वीरता से अरसलान को पराजित किया। यह सच्चाई है। इस कृति में नगर वर्णन की चर्चा बारंबार इसलिए होती है क्योंकि नगर की जिस गहमा गहमी की बात उन्होंने की है, वह अद्भुत वर्णन के साथ है। सबसे अधिक मन वैश्याओं के रूप वर्णन में रमा है। रूप वर्णन करते हुए विद्यापति का ध्यान मांसल रूप पर अधिक है। मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत में भी यह किया है। रसिकों को आकर्षित करने के लिए यह होता होगा। शिवपूजन सहाय के अनुसार इस रचना के तृतीय पल्लव में पहली बार बिहार शब्द का प्रयोग स्वतंत्र राज्य के रूप में हुआ है।

दूसरे, इस ग्रंथ में जौनपुर के शासक के 'शांतिप्रिय समुदाय वाले' सैनिकों की लुच्चई को भी विद्यापति ने अपने पर्यवेक्षण में छोड़ा नहीं है। यह रचना विद्यापति की पहली कृति है। इसमें चार पल्लव हैं। भृंग भृंगी की कहानी में कीर्ति सिंह "सुपुरिस" हैं। सुपुरुष, अर्थात? सु की व्याख्या अच्छे अर्थ में जितनी कर ली जाए।

यह रचना अवहट्ट में है। विद्यापति देसिल बयना यानी लोक की बोली को मीठा मानते हैं। इसीलिए यह रचना अवहट्ट में हुई।
"देसिल बयना सब जन मिट्ठा।
ते तैसन जम्पओ अवहटट्ठा।।”
काव्य में सरसता का भाव भाषा के माध्यम से भी हो आया है। इसी कृति में विद्यापति ने कहा है कि बाल रूप में चंद्रमा (द्वितीया का चांद) और विद्यापति की भाषा पर दुर्जनों के उपहास का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
बाल चंद विज्जावइ भाषा,
दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा।

आगामी शृंखला में पदावली की चर्चा करते हुए विद्यापति के प्रिय शब्द "अपरूप" की चर्चा करेंगे। यह शब्द उन्होंने राधा और कृष्ण दोनों के लिए किया है।

कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व


#विद्यापति #मैथिल_कोकिल #Vidyapati #साहित्य #कीर्तिलता

विद्यापति : भाग पांच

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कीर्तिलता : पहली रचना का महत्त्व



विद्यापति : रचनाएं

   विद्यापति : भाग चार

      वैसे तो विद्यापति की तीन कृतियों, कीर्तिलता, कीर्तिपताका और पदावली की ही चर्चा होती है लेकिन हम उनकी पुस्तक "पुरुष परीक्षा" से आरंभ करेंगे। यह विद्यापति की तीसरी पोथी है जिसको लिखने की आज्ञा शिव सिंह ने दी थी। यह धार्मिक और राजनीतिक विषय पर कथाओं की पोथी है। ध्यान रहे कि इसमें भी शृंगार विस्मृत नहीं है। पुरुष परीक्षा नामक पोथी का बहुत आदर है। सन 1830 में इसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ और प्रसिद्ध फोर्ट विलियम कॉलेज में यह पढ़ाई जाती थी। बंगला के प्राध्यापक हर प्रसाद राय ने 1815 ई० में इसका भाषानुवाद किया।

कीर्तिलता विद्यापति की प्रथम रचना है। प्राकृत मिश्रित मैथिली, जिसे उन्होंने अवहट्ट नाम दिया है, में राजा कीर्तिसिंह प्रमुख हैं। इसी में विद्यापति ने "देसी बोली सबको मीठी लगती है" जैसा सिद्धांत प्रतिपादित किया है - देसिल बयना सब जन मिट्ठा! इस रचना में जौनपुर का वर्णन है। मेरे मित्र सुशांत झा ने विद्वानों के हवाले से बताया है कि यह जौनपुर असल में जौनापुर है, जो दिल्ली अथवा उसके निकट का कोई उपनगर है। अगली कड़ी में इस पर स्वतंत्र रूप से लिखेंगे।

दूसरी पोथी नैतिक कहानियों की है- भू परिक्रमा शीर्षक से। चौथी कृति कीर्तिपताका है। इसमें प्रेम कविताएं हैं। पांचवीं लिखनावली है जिसमें चिट्ठी लिखने की विधि बताई गई है। शिवार्चन पर संस्कृत में रचित 'शैवसर्वस्वसार' एक पूर्ण पुस्तक है, जिसमें विविध पुराणों के आधार पर शिवार्चन की पद्धति बतायी गयी है।

संस्कृत कृतियों में विभासागर, दान वाक्यावली, पुराणसंग्रह, गंगा वाक्यावली, दुर्गाभक्ति, तरंगिनी, मणिमंजरी, गयापत्तलक, वर्णकृत्य तथा व्यादिभाक्ति, विभाग सार आदि विद्यापति की अन्य प्रमुख कृतियां हैं जो उनकी विद्वता का परिचय देती हैं।

इन सबसे ऊपर है- पदावली! यही विद्यापति की लोकप्रियता का आधार और लंब सब कुछ है। इसमें गेय पद हैं, राग रागिनियों में आबद्ध। हम इसे केंद्र में रखकर आगे चर्चा करेंगे और कुछ सरस पदों की व्याख्या भी।
#विद्यापति #Vidyapati #maithil
#मैथिल_कोकिल
विद्यापति : चार
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विद्यापति : रचनाएं

सद्य: आलोकित!

महाकुंभ के 144 साल

प्रयागराज में लगे हुए #महाकुंभ2025 के संबंध में 144 साल का जुमला बहुत चर्चा में है। सरकार ने इस आयोजन को ऐतिहासिक बताने के लिए कहा कि यह शता...

आपने जब देखा, तब की संख्या.