गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

कथावार्ता : चल टमकिया टामक टुम


(डिक्लेरेशन-इस कहानी के कई संस्करण हो सकते हैं)

     चल टमकिया टामक टुम

एक थी बुढ़िया।
बहुत सयानी।
घाट घाट का पीकर पानी।
बन गयी थी सबकी नानी।
एक दिन की बात है।
सच्ची-सच्ची बात है।
नहीं है कुछ भी झूठा-मूठा
पतियाओ या चूसो अंगूठा।
वह चली अपने मायके।
बहुत समय बितायके।
राह में मिल गया एक सियार।
बोला अपना दाँत चियार।
'बुड्ढी तुझको खाऊंगा।
अपनी क्षुधा मिटाऊंगा।'
बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार!
मैं जाती अपने गाँव
लौटूंगी उलटे पाँव।
जब मैं वापस आऊँगी
तब मुझको खा लेना
अभी बहुते काम है
बाद में क्षुधा मिटा लेना।
सियार का दिल पसीज गया
  वह कुछ सोचा फिर रीझ गया।

बुढ़िया उसके बाद अपने गाँव गयी। वह थोड़ा परेशान थी। उसके भाई-भतीजे मिले। सबने आशीष लिया। सबने कुशल क्षेम जाना। भौजाई ने ठिठोली की। भाई ने चिन्ता का कारण पूछा। बुढ़िया ने सब कहानी कह सुनाई।
तब भाई ने मंगाया एक कद्दू। 
एक बड़ा कद्दू। 
एक बहुत बड़ा कद्दू।
कद्दू को काटकर बनाई गई एक टमकी। बुढ़िया उसी में बैठकर वापस लौटी।
वह टमकी गाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?
टमकी गाती जाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?

तब बुढ़िया संगत करती और जवाब देती-
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।

टमकी लुढ़कते लुढ़कते चली। सियार का डेरा आ गया। वह जबर खुश हो गया। उसने गाना सुना तो नाचने लगा।- 'आज सुरन्ह मोहि दीन्हि अहारा'...

बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार, हमने अपना वचन पूरा किया है। अब तुम मुझे अपना आहार बना सकते हो। लेकिन अच्छा यह रहेगा कि मैं गंगा स्नान कर आऊँ। पवित्र हो जाऊँ और आखिरी प्रार्थना भी कर लूं।'

सियार ने कहा- 'ठीक बात! आई विल वेट!'

बुढ़िया गंगा स्नान को गयी और जितना नहाया- उससे अधिक समय उसने अपने पिछवाड़े में बालू भरने में लगाया। जब खूब बालू भर लिया तो आयी। सियार अपने दांत तेज कर चुका था। बुढ़िया ने अपने को प्रस्तुत करते हुए पूछा- 'सिर की तरफ से खाओगे या धुसू की तरफ से?' 

अब सियार का माथा चकराया।
इसका रहस्य क्या है, उसने हाथ नचाया।
बुढ़िया ने कहा-
जो तीता-तीता खाना है तो सिर की तरफ से खाओ।
और मीठा मीठा पाना है तो धुसू की तरफ़ मुंह लाओ।
सियार ने सोचा-इसमें क्या बुरा है।
अच्छा शिकार है और डेरे में सुरा है।
तो उसने कहा- धुसू की तरफ से खाऊँगा।
बुढ़िया ने कहा- तब हो जाओ तैयार।
ज्योंहि सियार ने मुँह लगाया- 
बुढ़िया बोली भड़ाम
बालू छोड़ी धड़ाम!

सब बालू सियार के आंख-मुँह में भर गया। वह रोते बिलखते भागा..


शनिवार, 30 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण जीवन का आईना है - लोकऋण

        ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास लोकऋण कई मायने में विवेकी राय के ललित निबंधकार व्यक्तित्व का आईना है। ग्रामीण जीवन विवेकी राय के समूचे रचनाकर्म में बसा हुआ है और उसकी अभिव्यक्ति भी उन्होंने बहुत मार्मिक तथा ग्रामीण प्रगल्भता के साथ की है। उनके ललित निबंधों- विशेषकर- फिर बैतलवा डाल पर और मनबोध मास्टर की डायरी तथा वृहदाकार उपन्यास सोना-माटी में विवेकी राय का ग्रामीण जीवन बहुत कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास में भी यह यत्र-तत्र देखी जा सकती है।
     लोकऋण; देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण की तर्ज पर परिकल्पित है। जहाँ की मिट्टी में जन्म लिया, पले-बढ़े, यश और गौरव हासिल किया। एक निर्बाध और सफल जिंदगी जी, उस मिट्टी का, उस वातावरण का, उस परिवेश का, उसमें रचे-बसे आब-ओ-बतास का कर्ज लोकऋण है।
      उपन्यास में आजादी के बाद बह रहे विकास की अनियंत्रित बयार में गाँव में हो रहे बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। आजादी के बाद लोगों में सामूहिकता की भावना के क्षय के कारण ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं और उससे उत्पन्न स्थितियों की कथा इस उपन्यास में कही गयी है। यह उपन्यास सन 1971-72 के आस पास के समय को अपनी कथा का काल और गाजीपुर के एक गाँव 'रामपुर' को केंद्र ने रखकर लिखा गया है। कथा का प्रमुख चरित्र गिरीश इलाहाबाद में अध्यापन करता है और अपनी तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन के प्रति मोहाविष्ट है। वह गाँव की दिक्कतों से आजिज आकर इलाहाबाद में बसने की पूरी तैयारी कर लेता है, यहाँ तक की अवकाश की प्राप्ति के कुछ समय पहले वह एक घर अपने नाम लिखवा भी लेता है लेकिन मन उसका गाँव में रमता है।
       गाँव में सभापति का चुनाव होने को होता है और गिरीश सहित गाँव के गणमान्य व्यक्तियों का मानना है कि यह चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए। लेखक गाँधीवादी विचारधारा का हिमायती है अतः वह स्पष्ट रूप से मानता है कि ग्रामीण समस्याएं आपस में मिल बैठकर हल की जानी चाहिए। इसीलिए चकबंदी के प्रकरण में या सुरेंद्र के रेहन रखे खेत के प्रकरण में यही होता दीखता भी है। सभापति के चयन में पूर्व सभापति और गिरीश के दबंग भाई के बीच मुकाबला होना लगभग तय हो जाता है और इसके लिए तमाम दुरभिसंधियां होने भी लगती हैं। गाँव खेमे में बंट जाता है और ऐसे माहौल में बहुत सी अप्रिय घटनाएं हो जाती हैं। गिरीश को ऐसे माहौल में ऐसे द्वंद्व का सामना करना पड़ता है कि वह आजिज आकर भाग जाता है लेकिन ऐन नामांकन से पहले लौटता है। गाँव के प्रबुद्ध लोगों की गंभीर सभा में यह तय होता है कि वह निर्विरोध सभापति बनेगा। इस निर्वाचन के समय ही उसकी अवकाश प्राप्ति है अतः कोई दूसरी बाधा भी नहीं है।
       अचानक, गिरीश के सभापति बनने की बात से एक चीज तो स्पष्ट लगती है और कथाकार ने ऐसी मान्यता रखी भी है कि पढ़े लिखे लोगों को वापस गाँव लौटना चाहिए ताकि वह 'लोकऋण' उतार सकें और अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से ग्रामीण जीवन में उजाला भर सकें। सबको वापस लौटना ही चाहिए। गिरीश का लौटना इसी ऋण को उतारने के लिए है। वह शिक्षा की रोशनी को पुनः गाँव में लाना चाहता है और समरसता बनाने का इच्छुक है। पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान कोशिशों में एक पहल ग्रामीण जीवन में वापसी भी है, जहां अभी भी समाज पूरी तरह से उपभोक्तावादी नहीं हुआ है और प्रकृति की एक स्वाभाविक कड़ी गतिमान है।
        उपन्यास में विवेकी राय ने बहुत चतुराई से ऐसी संरचना की है कि आखिर में गिरीश गाँव लौट आये। यद्यपि रामपुर गाँव गाँधीवादी आंदोलनों से संचालित होता रहा है और ग्रामीण उत्थान के तमाम काम वहां शुरू हो चुके थे लेकिन कालांतर में यह क्षीण पड़ रही थी, जिसे और धार देने की जरूरत सब महसूस करते हैं।यह उपन्यास गाँधीवादी विचारधारा को लेकर चलता है और उसका सम्यक निर्वाह करता है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपने कहन में बहुत ईमानदारी से मौजूद है और गाँव की सोंधी सुगंध को लेकर चलता है। कथाकार गाँव की कथाएं, कहावत और मुहावरे तथा लोकोक्तियों को बहुत रस लेकर कहता-सुनता चलता है। खासकर जहाँ सुर्ती-बीड़ी, नसा-पताई का जिक्र होता है, जहाँ कउड़ा जलने की बात होती है, पहल पड़ने और कथा कहने सुनने की बात होती है, वहां उनका ग्रामीण और निबंधकार मन खूब रमता है।
       गाँव की संस्कृति को जानना समझना हो तो इसे जरूर पढ़ा जाय।

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

कथावार्ता : आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की

     
दोपहर को भोजन पर बैठे तो थाली सामने आने से पहले ही वसु ने जल ग्रहण करना शुरू कर दिया। उन्हें सबने मना किया कि 'खाना खाने से पहले पानी नहीं पीना चाहिए।
          "क्यों?" वसु का सहज और तुरंता सवाल था। सब मेरा मुँह देखने लगे। मैंने कहा कि, "भोजन से पहले जल ग्रहण करने से जठराग्नि मद्धिम पड़ जाती है। अतएव भोजन ठीक से नहीं पचता।" 
          "पापा, यह जठराग्नि क्या होती है?" वसु पूछ बैठे। हमने कहा कि, भोजन कर लेने के बाद इसका उत्तर दिया जाएगा। हमारी परम्परा में भोजन के समय वार्तालाप की मनाही है। यद्यपि मैंने कुछ विदेशी संस्कृति को रेखांकित करने वाली पुस्तकें पढ़ीं तो उसमें देखा कि कठिन मसले डाइनिंग टेबल पर ही सुलझाए जाते हैं। खैर, तो हमने कहा कि खाना खा लिया जाए तो बताऊंगा। भोजन के उपरांत वही सवाल मेरे सामने था। अग्नि के स्थान भेद से कई रूप हैं। जंगल में लगे तो दावाग्नि, पानी में लगे तो बड़वाग्नि, पेट में लगे तो जठराग्नि। तुलसी बाबा का एक बहुत प्रसिद्ध पद है। 'आगि बड़वागि ते बड़ी है आग पेट की।' बहुत पहले एक अध्यापक ने बड़वाग्नि के बारे में बताया था कि वह आग जो पानी में लगती है। 
          "पानी में कौन आग लगती है भला?" 
          "समुद्र में कई बार खनिज तेल तिरते रहते हैं, उन्हीं में आग लग जाती है, वही बड़वाग्नि है। बहुत खतरनाक होती है।" शिक्षक ने बताया था। हमने वही मान लिया था। बाद में इस व्याख्या को अक्षम माना हमने और अग्नि का अर्थ ऊर्जा, क्षमता, पॉवर से लगाया और पानी की ताकत को बड़वाग्नि कहा। तुलसीदास कहते हैं कि पेट की आग, पानी की आग से भी बड़ी होती है। सही बात है। पेट की आग तो मानवीयता तक को भस्म कर सकती है। खैर
          "जठराग्नि, भूख लगने पर जाग्रत होती है। जब हम पानी पी लेते हैं तो क्षुधा कुछ समय के लिए तृप्त हो जाती है। और फिर खाद्य पदार्थ पेट में जाकर सही पाचन नहीं कर पाते।" वसु मुँह खुला रखकर कुछ सोचते रहे तो मैंने महाभारत से अग्नि देवता से जुड़ा एक प्रसंग सुनाया। -"एक बार अग्नि देवता को यज्ञ का घी खाते खाते अजीर्ण हो गया।" 
          "अजीर्ण माने?" वसु ने पूछा। 
          "भूख न लगने की बीमारी।" 
          "यह क्या होता है?"
       "एक बीमारी होती है, जिसमें भोजन करने की इच्छा नहीं होती।"
          ......

          "तो अग्नि अजीर्ण के कारण पीले पड़ गए। जब अग्नि सबसे मद्धिम होती है तो उसकी लौ पीली होती है। "अच्छा बताओ, जब सबसे तेज होती है तो किस रंग की होती है?"
          "नीले रंग की!" वसु की माँ ने वसु की मदद की। 
          "हाँ! नीला रंग सबसे शक्तिशाली और रहस्यमयी होता है। 
          "तो, अग्नि ने इसकी शिकायत अश्विनी कुमारों से की। अश्विनी कुमारों ने इन्द्र को बताया और इन्द्र ने कहा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण से मिलिए। वह लोग खाण्डव वन जला देंगे। यह वह समय था जब अर्जुन पांडवों को ताकतवर बनाने के लिए गली गली घूम रहे थे और सबसे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर रहे थे। अग्नि ने अर्जुन से कहा। अर्जुन और कृष्ण ने खाण्डव वन को घेर लिया और आग लगा दी। जीव जन्तु जलकर भस्म होने लगे। हाहाकार मच गया। वन में ही तक्षक नाग परिवार सहित रहता था। उसने इन्द्र को पुकारा। इन्द्र मदद के लिए भागे आये। वह वर्षा के देवता हैं तो बारिश शुरू कर दी। आग मद्धिम पड़ने लगी। अग्नि ने अर्जुन की ओर देखा। अर्जुन ने कृष्ण की तरफ। अब अर्जुन और इन्द्र में द्वन्द्व छिड़ गया। किसी किसी तरह तक्षक को बचाने पर सहमति बनी। खाण्डव जलकर खाक हो गया। अग्नि ताकतवर हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने अर्जुन को कई आग्नेयास्त्र दिए। उधर तक्षक नाग ने अर्जुन से दुश्मनी साध ली। और जब महाभारत युद्ध हुआ तो वह कर्ण के पास पहुँचा। उसने कहा कि मुझे एक बाण पर संधान करके छोड़ो। मैं जाकर अर्जुन को डंस लूंगा। कर्ण ने ऐसा ही किया। कृष्ण अच्छे सारथी थे। उन्होंने ऐन वक्त पर रथ एक बित्ता जमीन में गड़ा दिया। बाण सहित तक्षक अर्जुन के मुकुट को ले उड़ा। अर्जुन बच गए। तक्षक ने फिर से कर्ण से अनुरोध किया लेकिन इस बार कर्ण ने उसकी बात न मानी। "तो इस तरह से अग्नि को भी प्रज्ज्वलित करने के लिए खाद्य सामग्री चाहिए होती है।" 
          कहानी खत्म हो गई थी। भोजन भी सम्पन्न हो चुका था। सब अपने काम पर लग गए।


बुधवार, 27 नवंबर 2019

कथावार्ता : पितृभक्त कुणाल

       
कल शाम वसु के साथ यूँ ही बेसबब घूमते हुए हम एक होटल के नजदीक से गुजरे। बड़े अक्षरों में वहाँ KUNAL लिखा हुआ था। वसु इन अक्षरों को पहचानने लगे हैं तो हिज्जे करने के बाद उन्होंने पूछा कि इसका क्या हुआ?
         "कुणाल" मैंने बताया। "इसका मतलब"- उनका बहुत भला प्रश्न था। "जिसकी आँखें हमेशा 'सुंदर' देखती हैं। इसका एक अर्थ सुंदर आंखों वाली एक चिड़िया भी है।" 
       "किसकी आँखें पापा?" -वसु के पास बात जारी रखने के लिए प्रश्नों की अंतहीन सीरीज हैं। 
        "कुणाल की।" मैंने कहा। "कुणाल, सम्राट अशोक का बेटा था। उसकी माँ तिष्यरक्षिता ने उसकी आँखें फोड़वा दी थीं।"
            कहानी दिलचस्प हो गयी थी। अब वसु के पास स्वाभाविक प्रश्न थे। -"क्यों?" मैंने कहानी याद करने की कोशिश की। हमलोगों के पास अपने इतिहास को कहने-जानने के लिए कहानियों का अभाव है। बल्कि कहा जाए तो कहानियों को कहने-सुनने के अभ्यास का अभाव है। हम किस्से और गप्प में भरोसा रखने वाले लोग हैं। तो याद आने के बाद मैंने कुछ खिचड़ी बनाकर कहानी सुना दी।- "कुणाल जब बड़ा हुआ तो उसके विवाह का प्रस्ताव आया। कपड़े, गहने और नारियल लेकर तिष्यरक्षिता के पिता अशोक के पास आये। मजाक मजाक में अधेड़ अशोक ने कहा कि 'क्या यह प्रस्ताव मेरे लिए है?' राजसभा में यह बात हँसी के फव्वारे में उड़ गई किन्तु धार्मिक प्रवृत्ति के कुणाल ने इसे गंभीरता से लिया। उसने कहा कि मजाक मजाक में ही पिता ने तिष्यरक्षिता को अपनी पत्नी के रूप में कामना की है। अतः मैं तिष्यरक्षिता से विवाह कैसे कर सकता हूँ? राजसभा में यह हड़कम्प मचा देने वाला मसला बन गया।" 
       वसु के लिए यह सब अब अझेल होने लगा और समझ से बाहर लेकिन वह हुँकारी भरते रहे और अपनी उत्सुकता प्रकट करते रहे तो मैंने कहानी आगे बढ़ा दी। "राजसभा में इस स्थिति की मीमांसा हुई और तय पाया गया कि कुणाल ठीक कह रहे हैं। एक विद्वान ने महाभारत की एक कथा सुनाई।" 
       अब वसु को एक अन्य सिरा मिल गया था। उन्होंने चहकते हुए कहा- "एक और कहानी?" -"हाँ, महाभारत में एक कहानी आती है कि दो भाई थे। एक संन्यासी और एक गृहस्थ। एक बार संन्यासी अपने गृहस्थ भाई से मिलने आया। गृहस्थ के बगीचे में अमरूद के पेड़ थे। उनपर अमरूद फला हुआ था। संन्यासी के मन में इच्छा हुई कि काश यह खाने को मिल जाता। और यह इच्छा प्रकट करते ही वह 'धर्मच्युत' हो गया। उसे अपनी मानसिक पतन का आभास हो गया। तो भाई के आने के बाद उसने इस गलती की बात बताई। भाई ने विचार किया और दण्ड का विधान किया कि संन्यासी के दोनों हाथ काट दिए जाएं। ऐसा ही हुआ। लेकिन उस कहानी में फिर सब चीजें सामान्य हो गयीं क्योंकि दोनों भाइयों की धर्मपरायणता ने यथास्थिति कर दिया।" 
          वसु को कुछ समझ में आया बहुत कुछ नहीं। लेकिन उन्होंने पूछ लिया कि कैसे हुआ यह। तो मैंने पूछा कि कुणाल की कहानी सुननी है या नहीं
    "सुननी है।" 
   "तो, तय हुआ कि तिष्यरक्षिता का विवाह अशोक के साथ हो। तिष्यरक्षिता कुणाल की सौतेली माँ बनकर आयी। वह क्रोध में थी। कुणाल से विवाह नहीं होने से दुःखी थी। 
    "एक बार कुणाल पढ़ने के लिए उज्जैन गए। राजा अशोक ने एक पत्र लिखा और भेजा। उस पत्र में तिष्यरक्षिता ने कुछ हेर फेर कर दिया। 'अधीयु' की जगह 'अंधीयु' कर दिया था। कुणाल ने यह पढ़ा तो स्वयं ही अपनी आँखें फोड़ लीं।" 
     "खुद से?" 
    "हाँ! खुद से। पापा की बात कैसे न मानता? फिर वह संन्यासी बन गया। बहुत साल बाद अशोक के राजसभा में लौटा। अशोक ने उसके नवजात बेटे 'सम्प्रति' को मौर्य वंश का उत्तराधिकारी बना दिया। अशोक का एक बेटा महेन्द्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए।" 
        हम वापस लौट आये थे। वसु के पास कई दूसरे काम थे। मैं कुणाल के बहाने कई दुनियावी बातों में उलझ गया। भारत में प्राचीन काल में बहुत से प्रतापी राजा हुए हैं लेकिन उनके प्रति उपेक्षा और विशेष दृष्टि सम्पन्न इतिहासकारों ने उनका ठीक मूल्यांकन नहीं किया। हमारी पीढ़ी और बाद की पीढ़ी शायद ही उन्हें जान पाए।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण चेतना का मास्टर ‘मनबोध’- विवेकी राय



अपनी रचनाओं में मिट्टी की सोंधी महक और गवईं जीवन को अभिव्यक्त करने वाले निबंधकारकथाकारआलोचक मनबोध मास्टर विवेकी राय न सिर्फ हिंदी अपितु भोजपुरी के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1924 को उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद के भरौली नामक ग्राम में हुआ था। उनका बचपन गाजीपुर के सोनवानी ग्राम में बीता और आजीवन वह गाजीपुर का होकर रह गए। साहित्यिक क्षेत्र में उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदीविद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की निबंध परम्परा को समृद्ध किया और मनबोध मास्टर की डायरी’, ‘फिर बैतलवा डाल पर’, ‘गंवई गंध गुलाब’, जैसे ललित निबंध लिखे। सोनामाटी’, ‘समर शेष है’, ‘पुरुष पुराण’ और लोकऋण’ उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। भोजपुरी में अमंगलहारी’ शीर्षक से उनका बहुत चर्चित उपन्यास है। उन्होंने कुल 85 ग्रंथों का प्रणयन किया। गाजीपुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा लेने वाले और महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठवाराणसी के पहले शोधार्थी विवेकी राय ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में गांधीजी से प्रेरणा लेकर भागीदारी की और बतौर शिक्षक अपना योगदान शुरू किया। गाजीपुर के स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में अध्यापन करते हुए विवेकी राय ने कई विधाओं में रचनाएँ कींलेकिन ललित निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति ऐतिहासिक है। वह भोजपुरी और हिंदी में समान रूप से समादृत किये जाने वाले रचनाकार हैं।


          अपनी रचनाओं में नगरीय जीवन के ताप से तपाई हुई मनोभूमिपर ग्रामीण जीवन की मजबूत उपस्थिति रखांकित करने वाले विवेकी राय के निबंध मिट्टी की खुशबू लिए हुए हैं। उनके निबंध ग्रामीण जीवन के लोकाचार, रीति-रिवाज को समझने की दृष्टि से बहुत विशिष्ट हैं। इन निबंधों में सहज आत्मीयता और अल्हड़पन से भरी मस्ती मिलती है। लोक से उनका लगाव उनके निबन्धों में सहज झलकता है। ग्रामीण लोगों की इच्छा, आकांक्षा और जीवनानुभव के वह कुशल लेखाकार हैं। उनके निबंधों के स्तम्भ, जिनका संग्रह मनबोध मास्टर की डायरीशीर्षक से हुआ है; ने तो सत्ता संस्थानों तक को हिला डाला था। फिर बैतलवा डाल परमें ग्रामीण जीवन और लोक का जैसा चित्रण मिलता है, वह दुर्लभ है। लोक और ग्राम की यह चेतना उन्हें विशिष्ट निबंधकार बनाती है। उनके निबंधों में लालित्य है। यह लालित्य लोक में रचे बसे होने से पगा हुआ है। उनके ललित निबन्ध विचार और भाव के स्तर पर बहुत प्रौढ़ हैं। विवेकी राय के उपन्यासों में भी गाँव की कथा ही है। सोना-माटीहो या लोकऋणदोनों ही उपन्यास गाँव की कथा कहते हैं। लोकऋणमें उन्होंने देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण की तर्ज पर लोकऋण की संकल्पना ली है। इस उपन्यास में उनका गाँधीवादी चिन्तक का रूप दिखता है। उनका बहुत स्पष्ट मानना था कि पढ़े-लिखे लोगों को गाँव का कर्ज उतारने के लिए ही सही गाँव लौटना चाहिए और अंधाधुंध पलायन रोकने के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के उत्थान में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। उनके उपन्यास लोकऋण का नायक सतीश लोक का कर्ज चुकाने के लिए गाँव वापस लौटता है और एक नयी लकीर खींचने के लिए प्रतिबद्ध दिखता है। लोक ऋण उपन्यास कई दृष्टि से बहुत जरुरी उपन्यास है। सोनामाटीउनका वृहदाकाय उपन्यास है। अपनी रचनाओं में गाँव की सोंधी गंध को ढाल देने वाले ऐसे विरले रचनाकार ने आंचलिकता को व्यापक बना दिया था। उन्होंने अपनी रचनाओं में गाजीपुर को जिस शिद्दत से अभिव्यक्त किया है वह सराहनीय है। राही मासूम रज़ाकुबेरनाथ राय के बाद विवेकी राय ने इस जनपद का ऋण बखूबी चुकाया है। वह बेहद सुचिंतित आलोचक भी थे।


           
उत्तर प्रदेश सरकार ने विवेकी राय के विपुल साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें यश भारती से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण सम्मान आदि पुरस्कार भी मिले थे।
          लोक के इस अद्भुत चितेरे का महाप्रयाण 22 नवम्बर, 2016 को हो गया था। उन्होंने ९२ वर्ष की एक रचनात्मक जिन्दगी व्यतीत की। आज विवेकी राय की पुण्यतिथि है। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।

रविवार, 10 नवंबर 2019

कथावार्ता : लोक के अप्रतिम कथाकार- बिज्जी

         
आज १० नवम्बर को 'बिज्जी' यानी विजयदान देथा की पुण्यतिथि है। बीते कुछ सालों में वह एकमात्र ऐसे भारतीय साहित्यकार थे जिन्हें नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था और हम आशान्वित भी थे। हालांकि उन्हें मिला नहीं। साहित्य का नोबल बीते कुछ वर्षों में ऐसे ऐसे लोगों को मिला है, जिनसे एक बड़ी जनसंख्या को निराशा हुई है। बिज्जी को मिला होता तो क्या ही बात होती। उन जैसा लोक संग्रही, लोक का रचनाकार, किस्सागो बीते पचास साल में कम से कम हिन्दी में कोई नहीं है। उन्होंने 'बातां री फुलवारी' शीर्षक से राजस्थानी लोक की कथाएँ १४ भागों में पुनर्लिखित की है।

हमने उनकी कहानियों का संग्रह 'सपनप्रिया' जो ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित है- सबसे पहले पढ़ा था। फिर उनकी कहानी 'पहेली' पर शानदार कलाकार निर्देशक अमोल पालेकर ने कमजोर अभिनेता शारुख खान और रानी मुखर्जी को लेकर फीचर फिल्म बनाई। पहेली से बिज्जी बहुत चर्चित हुए थे। बिज्जी की कहानियों का एक संग्रह वाग्देवी प्रकाशन से आया था जिसमें एक लंबी भूमिका पत्र शैली में है। बिज्जी की कलम क्या खूबसूरत कमाल करती है-उस पत्र को पढ़कर समझा जा सकता है। अगर नोबल समिति उन्हें इस पुरस्कार के लिए चुनती तो वह स्वयं समृद्ध होती। आज उनकी पुण्यतिथि पर भावपूर्ण स्मरण।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

कथावार्ता : देवोत्थान एकादशी और हम

     
आज देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के शयन के बाद जागरण की अवस्था में आते हैं। एकादशी का पौराणिक महत्त्व चाहे जो हो, हमारी तरफ यह एक ऐसा अवसर रहता है, जिस दिन व्रत रहा जाता है। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था। एक बार मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका। तो उसी लालच में हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे। 
एकादशी व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास ही तो करना है। हम संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे। ऐसी स्थिति के लिए हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था। इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है। हमलोगों ने भरपेट गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।
      हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की तरफ थे। साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली। अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने लगे। 
तब हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है। हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए। माँ ने घी का लेप किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए। यह धर्मसंकट था। एकादशी का व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का व्रत पूरा हुआ। वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है। हर एकादशी उसकी याद आती है।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : सात दिन सात किताबें : चयन डॉ रमाकान्त राय

फेसबुक पर सात दिन में अपनी पसंद की सात पुस्तकों का उल्लेख करने का आवाह्न मित्र गौरव तिवारी की ओर से प्राप्त हुआ तो हमने अपनी पसंद के सात कृतियों का चयन किया। यह अलग अलग विधाओं की बेहतरीन पुस्तकें हैं। इनका मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी विशेष स्थान है। आप इस अभियान को चाहें तो बढ़ा सकते हैं।

पहला दिन

किताब का नाम- सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
लेखक- महात्मा गांधी

#सात_दिन_सात_किताबें

यह रोचक शृंखला बहुत दिन से चल रही है और यह जानकर बहुत अच्छा लगता है कि लोग बहुत सी ऐसी कृतियों का उल्लेख करते हैं जो वाकई बदल देने का माद्दा रखती हैं। गौरव तिवारी और Yogesh Pratap Singh ने मुझे भी इस क्रम में नामित कर दिया तो कुछ सोच-विचार के बाद मैंने भी इस क्रम में हर दिन एक कृति के साथ उतरने का फैसला किया है।

यूँ तो यह चयन बहुत कठिन है कि अब तक पढ़ी गयी कृतियों में से सात को चुना जाए और उनके बारे में यहां बताया भी जाये। फिर भी...

आज पहली पुस्तक 'आत्मकथा' से। आत्मकथा लिखना बहुत साहसिक कार्य है। निपट ईमानदारी और अपने को खोलकर रख देने का साहस ही एक 'आत्मकथा' है। देश-विदेश के कई चर्चित-अचर्चित हस्तियों की आत्मकथा (इनमें से कुछ विशेष का उल्लेख किया जाना चाहिए- रूसो की आत्मकथा, विनोबा भावे की आत्मकथा-अहिंसा की तलाश, मेरी कहानी- जवाहरलाल नेहरू, आत्मकथा-राजेन्द्र प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के चार खण्ड, प्रभा खेतान-अन्या से अनन्या, मैत्रेयी पुष्पा-गुड़िया भीतर गुड़िया, ओम प्रकाश वाल्मीकि-अछूत, निज़ार कब्बानी-शायरी की राह में, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा आदि) पढ़ने के बाद मुझे आज भी महात्मा गांधी की आत्मकथा "सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा" सबसे अधिक प्रभावित करती है। यह आत्मकथा सभ्यता विमर्श की सबसे जरूरी किताब है। अंग्रेजी सभ्यता के चकाचौंध और ईसाई-इस्लामी व्यवस्था के बीच एक वैष्णव किस तरह अपने लिए मार्ग प्रशस्त करता है और अपने को इस सब दबाव के बीच अडिग रखता है, उसे यहां से जाना जा सकता है। महात्मा गांधी की आत्मकथा का हर अध्याय एक प्रकाश स्तंभ है। वह इतने सीधे-सरल भाषा में अपनी बात करते हैं कि ध्यान उनके द्वारा निर्दिष्ट तत्त्व पर ही टिकती है। उन्होंने १९२१ के बाद के जीवन को आत्मकथा में सम्मिलित नहीं किया है क्योंकि वह जीवन अतिशय सार्वजनिक है। अब तक गांधी की निर्मिति हो चुकी है। इस तरह गांधी की आत्मकथा उनकी निर्मिति प्रक्रिया की शाब्दिक परिणति है। महात्मा गांधी ने इस रचना में घर-परिवार, शिक्षा, आदतें, धर्म, खान-पान, साजिश और संघर्ष समेत जीवन के विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। जब वह अपनी कहानी लिखते हैं तो हम उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शी व्यक्तित्व की झलक पा जाते हैं।
सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी के आश्रम में रोज सायं प्रार्थना के समय इस आत्मकथा के एक अंश का पाठ किया जाता है और उसका प्रभाव बिना वहाँ उपस्थित रहे, नहीं जाना जा सकता।
अगर आप अनजाने-बिना पढ़े-दूसरे लोगों द्वारा बनाई धारणा के आधार पर महात्मा गांधी को नापसंद करते हैं तो आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।

एक साथी को इस शृंखला से जोड़ना भी है तो मैं आदित्य कुमार गिरि का नाम सुझाता हूँ।


दूसरा दिन

किताब का नाम- गीता प्रबन्ध
लेखक- महर्षि अरविन्द

#सात_दिन_सात_किताबें

आज दूसरे दिन चर्चा करते हैं महर्षि अरविन्द की किताब 'गीता प्रबंध' की। जय भारत अथवा महाभारत का विशेष अनुभाग 'श्रीमद्भागवतगीता' सदियों से भारतीय और विदेशी लोगों के लिए  महत्वपूर्ण कृति रही है। उसका 'निष्काम कर्मयोग' का सिद्धांत दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा और आश्चर्य का विषय रहा है। महात्मा गांधी इस कृति से बहुत प्रभावित थे और यत्र तत्र उसके उद्धरणों से अपने पक्ष को मजबूत करते थे। 'अनासक्ति योग' नामक किताब में उन्होंने गीता का अनुवाद और भाष्य किया है। विनोबा भावे ने तो गीताई मंदिर में गीता के श्लोक का मराठी अनुवाद कर चिनवा दिया है। लोकमान्य तिलक गीता के मर्मज्ञ थे और उन्होंने इसका उपयोग स्वाधीनता संग्राम में खूब किया। डॉ संपूर्णानंद और डॉ राधाकृष्णन ने भी गीता की अपनी व्याख्या की है लेकिन महर्षि अरविंद द्वारा गीता की व्याख्या विशिष्ट है। वह इस किताब की विवेचना करते हुए धार्मिक भी हैं और स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी। गीता और महाभारत पर उनके निबंधों में धर्मराज्य, ऋत और सत्य के राज्य की स्थापना के सूत्र हैं।
उत्तरपाड़ा संभाषण के बाद महर्षि अरविंद के विचार 'सनातन धर्म' के प्रति दृढ़तर होते गए थे और उसकी प्रतिच्छाया इस किताब में मिलती है। महर्षि अरविंद ने पॉण्डिचेरी में रहते हुए शिक्षा और धर्म पर विशेष काम किया था। गीता प्रबंध में इस सबकी झलक है।
यह पुस्तक एक प्रतिमान है। महर्षि अरविंद के बहाने श्रीमद्भागवत गीता को समझने के लिहाज से इस रचना को पढ़ा जाना चाहिए।
मैं जब गीता-प्रबंध की बात करता हूँ तो लगे हाथ इसमें श्रीमद्भागवत गीता के अठारह अध्याय में विस्तृत 'श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद' को भी गुनने की अनुशंसा करता हूँ।
इस शृंखला में मैं अनुज शत्रुघ्न सिंह का आवाह्न करता हूँ। वह इसकी बाँह पकड़ें और अपनी चुनी किताबों के बारे में बताएं।

तीसरा दिन

किताब का नाम- एक किशोरी की डायरी
लेखक- अने फ्रांक

#सात_दिन_सात_किताबें

इस शृंखला में तीसरे दिन आज डायरी विधा की एक विशिष्ट रचना 'एक किशोरी की डायरी'। इसे लिखा था 14-15 वर्षीय किशोरी अने फ्रांक ने। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब नाजियों ने नीदरलैंड (हॉलैंड) पर अधिकार कर लिया और यहूदी लोगों पर नाजी अत्याचार बढ़ा तो फ्रांक का परिवार इसकी जद में आ गया। उनका परिवार एम्सटर्डम में छिपकर रहने लगा। यहीं अने फ्रांक को डायरी मिली और उन्होंने लिखना शुरू किया। बाद में एक दिन जब नीदरलैंड के एक मंत्री ने लोगों से अपने ऊपर हुए अनाचारों को लिपिबद्ध करने को कहा तो इस डायरी के प्रति अने फ्रांक का दृष्टिकोण बदल गया।
यह डायरी एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में यहूदी लोगों के साथ कैसा व्यवहार हुआ था। अने फ्रांक का परिवार एक घर के तहखाने में छिपकर रोज ही मृत्यु को अपने आसपास महसूस करता था। फ्रांक ने डायरी विधा के अनुरूप इसमें वही घटनाएं और अनुभव दर्ज किए हैं जो नितांत निजी हैं। इस डायरी में परिवार की खीझ, मंडराता खतरा, आये दिन होने वाली बमवर्षा, प्रेम का आकर्षण, अपने शरीर में आ रहे बदलाव और अन्य तमाम गतिविधियाँ दर्ज हैं।
अने फ्रांक की डायरी जब मेरे हाथ लगी तो मैं इस कृति से नितांत अपरिचित था। बाद में पता चला कि प्रकाशित होने के बाद यह 'बेस्ट सेलर' बन गई थी और इतने अहम तथ्यों का पिटारा है। मुझे एक और चीज ने बहुत आश्चर्य में डाल दिया था कि उस कमसिन बालिका ने 14 वर्ष की वय में ही भारत की राजनीति के बारे में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। वह अपने विवरणों में महात्मा गांधी का उल्लेख भी करती है और भारत के स्वाधीनता संघर्ष का भी। वह तहखाने में रेडियो सेट के साथ थी और उसके प्रसारण सुना करती थी। कम वय में भी अपने आसपास के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर भी ध्यान केंद्रित रखने वाली यह बालिका निश्चय ही विशिष्ट है। अने फ्रांक बाद में नाजियों द्वारा पकड़ ली गयी और एक यातना घर में भेज दी गयी। वहीं उसकी मृत्यु हुई।
आज जो हम हिटलर की क्रूरताओं के विवरण पढ़ते-सुनते हैं, उसमें बड़ा योगदान इन निजी विवरणों का भी है और उन निजी विवरणों में यह डायरी सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक और मासूम है।
अने फ्रांक की डायरी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं भी डायरी लिखूँ। लिखते हुए मैंने जाना कि यह बहुत जोखिम भरा और दुष्कर कार्य है। लेकिन इसी आदत ने मुझे 'लिखना' सिखाया।
इस डायरी ने मुझे बहुत प्रभावित किया। आप सबको भी इसे जरूर पढ़ना चाहिए। एक सामान्य बालिका के निजी अनुभव किस कदर दुनिया के लिए कीमती हो सकते हैं, इसे पढ़कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
तीसरे दिन मैं डॉ Roopesh Kumar का नाम इस अभियान में जोड़ता हूँ।


चौथा दिन

किताब का नाम- काला जल
लेखक- गुलशेर खान शानी

#सात_दिन_सात_किताबें

आज चौथे दिन हमने जिस पुस्तक को चुना है वह उपन्यास विधा से है। इस कृति को डॉ गौरव तिवारी द्वारा सुझाये गए दो उपन्यासों- 'आधा गाँव' और 'राग दरबारी' के क्रम में देखा जाना चाहिए क्योंकि उन दो उपन्यासों का उल्लेख कर दिए जाने के बाद मुझे 'मैला आँचल' और 'काला जल' में से एक को चुनना था और मैंने 'काला जल' चुना।
गुलशेर खान शानी का यह उपन्यास एक परिवार के तीन पीढ़ियों के निरन्तर टूटने और ढहते जाने की त्रासदी का आख्यान है। इसमें कथा का विस्तार 1910  ई० के आसपास से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद तक है। इस उपन्यास को भारतीय मुस्लिम समुदाय का पहला प्रामाणिक उपन्यास माना जाता है। उपन्यास तीन खण्ड में है- 'लौटती लहरें', 'भटकाव' और 'ठहराव'। यह उपन्यास शब-ए-बारात की एक रस्म 'फातिहा' के सहारे चलती है। फातिहा ठीक पिण्डदान जैसी रस्म है जिसमें मृतक को याद करते हुए उसके लिए 'रोटियां' बदली जाती हैं। बब्बन इस कथा को उठाता है और ठहरे हुए परिवार की कथा को झंझोड़ देता है। इस क्रम में जैसी बातें उभरती हैं, वह उस समाज की वास्तविकता को प्रकट कर देती है। ऐसा समाज जिसमें अंधविश्वास और कुरीतियों की जकड़न है। जो विकासहीन है। जिस पर किसी अभिशाप की अदृश्य छाया मंडरा रही है और लोग उस अजगर की कुण्डली में जकड़कर दम तोड़ देते हैं। 
यथास्थिति से विद्रोह करने वाले दो पात्र हैं- सल्लो आपा और मोहसिन। यह दोनों लीक छोड़कर अलग राह अपनाना चाहते हैं। सल्लो आपा जिस तरह मुक्ति का प्रयास करती हैं, वह प्रसंग इतना तरल है कि पाठक छटपटाने लगता है और जब इसकी कारुणिक परिणति होती है, मन आर्द्र हो जाता है। मोहसिन काला जल के परिवेश से बाहर आने की छटपटाहट में बड़े लड़कों की संगत करता है- नायडू के कहने पर राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ता है-जागृति की कोशिश में गीता प्रवचन तक का आयोजन करवाता है लेकिन फिर उसे महसूस होता है कि वह तो अचानक से छिन्नमूल हो चुका है। उसके पास एकमात्र रास्ता बचा है- पाकिस्तान। क्या मोहसिन पाकिस्तान जाएगा? बब्बन उससे कहता है- "लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठगे गए तो फिर कहाँ जाओगे-अरब या ईरान?"
'काला जल' की कहानी जितनी सशक्त है-उसका वातावरण भी उतना ही सघन और कारुणिक। काला जल में मोती तालाब है जिसका ठहरा हुआ जल उस परिवार को और गहरा अर्थ देता है। विशेष यह है कि मोती तालाब से इतर हर कथास्थल पर कल-कल करती जलधारा है। यह बहाव, उस ठहरे हुए को और अधिक विडम्बनापूर्ण बना देती है।
जब मैने इस उपन्यास को पढ़ा तो लंबे समय तक इसके प्रभाव से बाहर नहीं निकल पाया था। यह उपन्यास जिस प्रार्थना भाव में लिखा गया है, इसका प्रभाव उसी के अनुरूप है। बस हम उस काला जल से बाहर निकलने की छटपटाहट में तड़पते हैं। 'काला जल' कई मायने में क्लासिक और विलक्षण उपन्यास है। इस उपन्यास को सल्लो आपा के किरदार की खूबसूरती, फातिहा की रस्म को जानने और दुलदुल के घोड़े यानि मुहर्रम के विवरणों के लिए भी पढ़ा जाए तो मुझे लगता है कि यह कुछ चुनिंदा श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है।
चौथे दिन इस कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए मैं कवि, सम्पादक और इतिहासविद Santosh Chaturvedi का आवाह्न करता हूँ।




पाँचवाँ दिन

किताब का नाम- रस-आखेटक
लेखक- कुबेरनाथ राय

#सात_दिन_सात_किताबें

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'निबंध' को गद्य की कसौटी कहा है। आधुनिक युग के साहित्य की यह विशिष्ट विधा थी जिसमें पण्डिताई और लालित्य का अद्भुत समंजन रहता था। इसमें ललित निबंध तो विज्ञ और सुजान समुदाय के बीच बहुत समादृत होते थे। जब से साहित्य में तथाकथित प्रगतिशीलता ने उभार लिया, ललित निबंधों के प्रति उदासीनता बढ़ती गयी है। तो आज पांचवें दिन मैंने 'ललित निबंध' की विशिष्ट कृति 'रस-आखेटक' को चुना है। रस-आखेटक के रचनाकार  कुबेरनाथ राय हैं।
यूँ तो ललित निबन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम सबसे पहले और प्रमुखता से लिया जाता है लेकिन कुबेरनाथ राय को पढ़ना लालित्य के सागर में अवगाहन करना है। उनके बारे में आलोचकों ने 'पाण्डित्य का आतंक' जैसा पद प्रचारित कर दिया है और यही कारण है कि वह अपेक्षाकृत कम पढ़े गए हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि कुबेरनाथ राय के निबंध पाण्डित्य और लालित्य का मणिकांचन संयोग का उदाहरण हैं। उन्होंने साहित्य सृजन के लिए एकमात्र विधा- निबंध को चुना है। उनकी सभी रचनाएं मूल्यवान हैं किंतु रस-आखेटक मेरी दृष्टि में सबसे विशिष्ट है। इस संग्रह के निबंधों में उनका भारतीय गंवई मन और बहुपठित, सुचिंतित ऋषि रूप दिखता है। वह ठेठ ग्रामीण विषय हों या शुद्ध काव्य-शास्त्रीय अथवा दार्शनिक; बहुत सजल प्रविधि से अपनी बात निकालते जाते हैं। उनके निबंध हमें एक साथ लोक और जन के बीच ले जाते रहते हैं और हम कभी वाग्वैदग्ध्य से तो कभी उच्च चिन्तनसरणी से आश्चर्यचकित, रसमग्न होते रहते हैं। रस आखेटक में रसोपनिषद शीर्षक से भूमिका है और यह भूमिका ही एक बेहतरीन निबंध है। 
देह-वल्कल, मृगशिरा, एक महाश्वेता रात्रि, मोह-मुद्गर, हरी-हरी डूब और लाचार क्रोध, तमोगुणी, कवि तेरा भोर आ गया आदि बेहतरीन निबंध इसी संग्रह में हैं। इसी संग्रह में यूनानी कवि 'होमर', वर्जिल और शेक्सपियर पर मोनोलॉग हैं। यह मोनोलॉग पश्चिमी साहित्य के प्रति उनके अनुराग और ज्ञान का परिचायक भी हैं।
कुबेरनाथ राय के इस संग्रह को पूर्वांचल (गाजीपुर) की ऋषि परम्परा, निषाद-कोल-भील संस्कृति, असमिया और उड़िया संस्कृति को आत्मसात करने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
जयदेव ने गीत-गोविन्द के लिए कहा था - 
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्। मधुरकोमलकान्तपदावलीं शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
उसी तरह अगर आपको साहित्य में कुछ सरस, ज्ञानवर्धक तथा भारतीय संस्कृति के गूढ़ रहस्यों की प्राप्ति करनी हो तो आप 'रस-आखेटक' से मिलें। मेरा मानना है कि आप एक बेहतरीन संसार से रूबरू होंगे।
इस शृंखला में मैं आज ललित निबंधों में विशेष रुचि रखने वाले, खूब पढ़ाकू अनुज डॉ Rajiv Ranjan को नामित करता हूँ।

छठा दिन

किताब का नाम- रश्मिरथी
लेखक- रामधारी सिंह दिनकर
#सात_दिन_सात_किताबें

आज छठे दिन मैंने मित्र गौरव तिवारी और योगेश प्रताप सिंह द्वारा दिए गए दायित्व के पालन के अनुक्रम में रामधारी सिंह दिनकर का खण्ड काव्य 'रश्मिरथी' को चुना है। कवि के रूप में रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी के केंद्रीय पात्र 'कर्ण' किसी के परिचय का मोहताज नहीं हैं। महाभारत का सबसे प्रतिभावान और त्रासद पात्र कर्ण है। सूर्य का पुत्र और कुन्ती का जाया कर्ण आजन्म त्रासदी का शिकार रहता है और युद्ध भूमि में भी शापग्रस्त होकर विवश, असहाय मृत्यु को प्राप्त होता है। परिस्थितियां उसके इस कदर विपरीत हैं कि उसका सारथी तक उसे हतोत्साहित करता रहता है और परिवार, वचनबद्धता, द्वन्द्व और मित्रता का दबाव उसे चौतरफा चपेट में लेता रहता है। सूतपुत्र होने का ठप्पा उसे अनेकशः अपमानित किया करता है। ऐसे में त्रासदी से परिपूर्ण पात्र कर्ण को केन्द्र में रखकर रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' नामक खण्ड काव्य लिखा है और उसे महाभारत की त्रासदी युक्त चरित्र से इतर एक नैतिक और विश्वसनीय पात्र के रूप में स्थापित कर दिया है। कर्ण आज सामान्य भारतीय जन के लिए जिस तरह आदर और सहानुभूति का पात्र बन गया है, उसमें बहुत बड़ा योगदान 'रश्मिरथी' का है। रश्मिरथी का आग्रह है कि कर्ण का मूल्यांकन वंश आधारित न करके आचरण और कर्म आधारित हो। वह स्वयं ऐसा करते हुए कर्ण को सामान्य मानवी से महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। रश्मिरथी में कुल सात सर्ग हैं जिसमें तृतीय सर्ग को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई।
इस काव्य ग्रंथ में रामधारी सिंह दिनकर का काव्य कौशल चरम पर है। रश्मिरथी की पंक्तियाँ- जिसमें कृष्ण की चेतावनी वाला प्रसंग -

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

और

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

-तो सहज ही कंठस्थ हो जाती हैं। रश्मिरथी के बहुत से काव्यांश जन जन की जिह्वा पर रहते हैं और प्रसंगवश दुहराए जाते हैं। -

"जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।"

जब रश्मिरथी की शुरुआत में ही रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-
"तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।"
-तो वह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि कुल-जाति से इतर कर्म के मूल्यांकन में है। और ऐसा करते हुए ही वह कर्ण का परम्परागत मूल्यांकन से इतर और मानवीय भावभूमि पर करने में सफल हुए हैं। इस खण्डकाव्य में कर्ण के चरित्र पर दिनकर ने लिखा है, - "कर्णचरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है।”
कविता में नाद-सौन्दर्य उसकी आयु बढ़ा देते हैं। रश्मिरथी इस दृष्टि से भी बहुत सशक्त काव्य है। वह विमर्श को एक अलग दृष्टि देने वाला काव्य है। रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि हैं और उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा पक्ष रश्मिरथी से भी जुड़ा है।
आज छठे दिन मैं अनुज Param Prakash Rai को इस कड़ी को विस्तारित करने लिए जोड़ता हूँ।



सातवाँ दिन

किताब का नाम- स्कन्दगुप्त
लेखक- जयशंकर प्रसाद

#सात_दिन_सात_किताबें

"अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है, अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।" -इसी पुस्तक से।

आज मैं दृश्य काव्य (नाटक) से एक कृति ले आया हूँ। यह 'स्कन्दगुप्त' है। प्रणेता हैं- जयशंकर प्रसाद। स्कन्दगुप्त का सीधा सम्बन्ध गाजीपुर से है। सैदपुर भीतरी में वह शिलालेख और स्तंभ आज भी मौजूद है- जिसपर अंकित है कि गुप्त वंश के इस 'विक्रमादित्य' ने हूणों को पराजित किया था।
जयशंकर प्रसाद के बारे में बात करते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले, बनारस में तम्बाकू का पैतृक व्यवसाय संभालने वाले जयशंकर प्रसाद अपनी रचनाओं में भारतवर्ष के अतीत की व्याख्या करने पर क्यों अपना खून जलाते हैं? अपने सभी ऐतिहासिक नाटकों, विशेषकर- चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी में वह इतिहास की तत्कालीन व्याख्याओं से क्यों टकराते हैं। वह इतिहासविद नहीं हैं लेकिन वह अन्तःसाक्ष्य का प्रयोग अकाट्य प्रयोग करते हैं और मार्शल, भण्डारकर, कीथ, टॉड, अलबरूनी, स्मिथ, हार्नेली, काशी प्रसाद जायसवाल, अबुल हसन अली आदि के तर्कों और स्थापनाओं का प्रत्याख्यान करते हैं। जो काम कायदे से इतिहासकार समुदाय को करना था, वह एक नॉन अकादमिक व्यक्ति कर रहा था। जयशंकर प्रसाद का मूल्यांकन इस दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए और छायावाद के शताब्दी वर्ष में इस पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए कि जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा का स्रोत क्या था! वह उपनिवेशवादी पाठ का भरसक विरोध कर रहे थे और रचनात्मक लेखन से उसका प्रतिपक्ष बना रहे थे।
'स्कन्दगुप्त' गुप्तवंश का प्रतापी सम्राट था जिसके शासनकाल में हूणों का आक्रमण हुआ और उसने सफलतापूर्वक उसका सामना किया। यह नाटक एक तो स्कन्दगुप्त की अमर गाथा की स्मृति के लिए है और दूसरे 'कालिदास' के काल निर्धारण की भ्रांति को दूर करने के लिए। इस नाटक में स्कन्दगुप्त एक भावुक, वीर, स्वाभिमानी, कला संरक्षक, देशप्रेमी और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने वाले शासक के रूप में प्रदर्शित किया गया है।इस नाटक में स्कन्दगुप्त और देवसेना का प्रेम तो छायावाद कालीन भावना के अनुरूप है ही- सबसे महत्त्वपूर्ण है- 'भारतवर्ष' की हुंकार।
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हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।
जातियों का उत्थान पतन, आंधियां झड़ी प्रचंड समीर।
खड़े देखा, झेला हंसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।
हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिए तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।

भारतवर्ष की इसी हुंकार, गौरवशाली इतिहास और संसृति के अनूठे देश की कहानी गढ़ने वाले जयशंकर प्रसाद मेरे लिए विशेष आदरणीय हैं। जब मैं उनका आख्यान पढ़ता हूँ तो स्वाधीनता के लिए उनकी छटपटाहट साफ देख पाता हूँ। वह अपने नाटकों, कहानियों, कविताओं में इसके लिए अवकाश निकाल लेते हैं।
चंद्रगुप्त नाटक में -"हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।"- की बात हो या इसी नाटक में -
"विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूंको
हमें सब भीति बंधन से छुड़ा दो।"
जयशंकर प्रसाद के यहां स्वाधीनता, अतीत का गौरवपूर्ण आख्यान, हिन्दू जनमानस का खोया स्वाभिमान, स्त्री जाति के कुल-शील की रक्षा आदि विषय इतने गरिमापूर्ण तरीके से आये हैं कि हममें एक विशेष भावना का प्रवाह होने लगता है। आधुनिक शोध जब इस बात को स्थापित कर रहे हों कि आर्य के कहीं से आने की थियरी गढ़ी हुई है और जयशंकर प्रसाद के यहां हम पढ़ते हैं कि 'हम कहीं से आये नहीं थे' तो हमें उनकी विश्लेषण क्षमता, उनके सातत्य बोध पर गर्व होने लगता है। स्कन्दगुप्त इसलिए भी पढ़ना चाहिए।
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शृंखला की आखिरी कड़ी तक आ गया। सात पुस्तकों का चयन किञ्चित दुष्कर कार्य है। अपने निर्माण के साथ-साथ जन की अपेक्षा का भी ध्यान रखना पड़ता है। हालांकि इस मामले में मैंने पूरी छूट ली और सभी सात किताबें 'रचनात्मक साहित्य' की कोटि से निकाल लाया। आत्मकथा, टीका, उपन्यास, डायरी, निबन्ध, कविता और नाटक विधा से हमने अपनी पसंद की कृतियों का उल्लेख किया। अगर अधिक अवकाश रहता तो विश्व साहित्य से 'मेरा दागिस्तान' 'तोत्तो चान' 'आदि विद्रोही' और 'अन्ना कैरेनिना' को भी शामिल करता। भारतीय वाङ्गमय में 'ईशावास्य उपनिषद' 'भतृहरिशतकं' 'पंचतंत्र' जरूर सुझाता। मेरी इच्छा थी कि विजयदान देथा की 'सपनप्रिया' पर परिचयात्मक टिप्पणी करूँ। मुझे कई आत्मकथाओं, राजनीतिक पुस्तकों में 'आपातकाल का धूमकेतु' और जीवनी साहित्य में 'कलम का सिपाही' पर भी बात करना था। यात्रावृत्त में मैं 'अरे यायावर रहेगा याद', नर्मदा के तीरे तीरे' और 'आजादी मेरा ब्राण्ड' की बात करनी थी। मुझे बहुत सी पुस्तकों के बारे में बताना था- जिन्हें लेकर मैं 'प्रलयकाल' में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी तक जाना चाहता। मैं 'सूत्रधार' जैसे उपन्यास पर लिखना चाहता था और 'काशी का अस्सी' तथा 'उपसंहार' पर भी। अस्तु।

आखिरी दिन मैं Amrendra Kumar Sharma सर को नामित करता हूँ और आग्रह करता हूँ कि वह अपनी पसंद की सात पुस्तकों से हमें परिचित करावें।
आप सबको इस सफर में सहभागी बने रहने के लिए धन्यवाद।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2975283512486063&id=100000133301478

शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : बड़का चाचा

इस अग्नि को लगातार प्रज्ज्वलित करना पड़ रहा है। लोबान डालकर आसपास की वायु को सुगन्धित रखने की कोशिश हो रही है। खुले आसमान में रख दिया गया है। एक तरफ जल एक मटकी में रख दिया जायेगा। अब मिट्टी ही शेष है।

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वह कल तक हमारे घर के 'मलिकार' थे। पिछले लगभग चालीस साल से वह हमारे घर के निर्विवाद मलिकार रहे। बाबा के निधन के बाद मुफलिसी में भरे घर के मलिकार से सफर शुरू किया और एक प्रतिष्ठित परिवार में तब्दील करने की अनवरत कोशिश में संलग्न रहे। बाबा ने विरासत में बस प्रतिष्ठा छोड़ी थी। अभी तो मेरा जन्म भी न हुआ था, जब वह मलिकार बन गए। विवाह भी नहीं किया। उनकी अनवरत कोशिश और संकल्पना में खुद का विवाह शामिल ही नहीं था।
बाबूजी ने घर की मुफलिसी को दूर करने के लिए कलकत्ता में चटकल की राह पकड़ी। चाचाजी ने अथक प्रयास से ntpc में सरकारी नौकरी पाई और सबसे छोटे चाचाजी ने वहीँ रहकर हाथ बँटाना शुरू किया। गाँव रहते हुए, तमाम दुरभिसंधियों से जूझते, लड़ते और अंततः अपराजेय रहते हुए उन्होंने घर को गाँव ही नहीं आसपास के गाँव में भी बहुत सम्मानित घर बनवाया। कुछ संपत्ति भी जोड़ने में सफलता पाई। मुकदमे, कचहरी के चक्कर में रहे और कानून के ठीकठाक जानकार बन गए थे। संपत्ति के कई बेमिसाल मुकदमे में घर की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सफल रहे।
गाँव की राजनीति के केंद्र में रहे लेकिन खुद को किसी भी ऐसे मामले से अलग रखा। जिसे किंगमेकर कहते हैं, वह सच्चे अर्थों में थे। गाँव और क्षेत्र की विकास योजनाएं उनसे सलाह लेकर बनती थीं यद्यपि अधिकांश समय वह प्रतिपक्ष की राजनीति के भीष्म पितामह थे। अब जबकि माननीय मनोज सिन्हा केंद्रीय मंत्री बने थे, वह अशक्त हो गए थे और उनसे बहुत आशान्वित थे।
वह परिवार संस्था के सबसे बड़े संगठक, संरक्षक और आखिरी आदर्श कड़ी थे।
यद्यपि मुझे अपने बचपन का बहुत कम समय उनके संरक्षण में बिताने का मौका मिला लेकिन किशोरावस्था के जिस अवधि को उनके संरक्षकत्व में मैंने व्यतीत किया वह मेरे निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण काल था। वह ऐसे ही निर्माण के पक्षधर थे। उन्होंने हमें ऐसे बनाया कि हम हर परिस्थिति में डटे रहे सकें। दीदी प्रतिभा और भैया Shashi Kant को उनका सबसे अधिक सानिध्य मिला और अब भी वह हमारे घर में ही नहीं आसपास के गाँव में भी मिसाल हैं।
मैं मानता हूँ कि हममें पढ़ने लिखने के प्रति जज्बा और कुछ कर गुजरने के लिए संकल्प उन्होंने दिया। वह हमारे लिए छतनार थे।

वह हमारे 'बड़का चाचा' थे।

बड़का चाचा के निर्माण का तरीका बहुत अलहदा था। शायद दुनिया के सभी मलिकार की यह नियति हो! उनके संरक्षण में पलने वाले उनके तौर तरीके से खिन्न रहते हैं लेकिन यह निष्ठा भी उन्होंने दी थी कि असहमत रहते हुए भी उनके आदेश का पालन हो। मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने हम भाई-बहनों पर कभी हाथ उठाया हो लेकिन उनका गजब का आतंक था। उनके आदेश का पालन तुरन्त होना चाहिए था वरना वह अव्यक्त आतंक रहता था। मैं आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने उनकी नाफरमानी की हो। अगर कभी हुई भी होगी तो वह हमारी अक्षमता से। उन्होंने सिखाया कि आखिरी समय तक दिए गए टास्क को करना है, चाहे रोते गाते करिये या जैसे भी। वह अपनी नाफरमानी को जिस सहजता से लेते थे, लगता था कि अब कोई आदेश न देंगे लेकिन वह अगले पल में यह करते थे। और उसी धौंस के साथ।
उन्होंने दोस्तों और सम्बन्धियों की एक बड़ी संख्या कायम की थी। कल देर शाम हम याद करते रहे तो पाया कि उनमें से अधिकांश या तो अशक्त हो रहे थे या साथ छोड़कर चले गए थे। बाबू यमुना प्रधान, सुरेश प्रधान, शिवबचन प्रधान उनके ऐसे संगी थे जिनके साथ उनकी बैठकी सुबह ही शुरू होती तो दोपहर तक चलती रहती। चाय पर चाय का दौर चलता रहता। बातें, ख़त्म ही नहीं होतीं थीं। अगली सुबह फिर यह बैठकी हो जाती थी। अब इन तीनों में से कोई नहीं है।
जिन मित्रों को मैं याद कर पा रहा हूँ, उनमें महात्मा प्रधान (कोठियां) फौजदार यादव (पूर्व प्रधान), चंद्रजीत राय (कठउत), अवधबिहारी राय (खरडीहा), सुरेंद्र यादव (एडवोकेट, जल्लापुर) ॐ प्रकाश यादव (जल्लापुर) जग्गन राजभर (मीरपुर), एनामुल हक़ (हुसैनपुर), रामाधार साव (डारीडीह), रमाशंकर यादव (सरैयां) रामबृक्ष गिरी(डारीडीह) लालमुनि यादव (पूर्वप्रधान और अब दिवंगत), जनार्दन यादव (पूर्वप्रधान) रामगहन कुशवाहा(जल्लापुर अब दिवंगत),  रामेश्वर यादव(कलपुरा, दिवंगत) शिवपूजन गिरी (अब दिवंगत) बुच्ची बिन्द (कलपुरा) सबसे पहले उभर रहे हैं।
वह अजातशत्रु नहीं थे। गाँव गिरांव में रहते हुए बहुत से लोग उनसे शत्रु भाव रखते थे लेकिन उनके जीवन में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने उन्हें ठीक से आँख उठाकर देखने की हिम्मत की हो। यह वही थे जो शत्रु भाव में भी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते थे।
हम परिवारवालों के लिए वह बहुत रहस्यमयी व्यक्तित्व के व्यक्ति थे, जिसे ठीक से समझने का दावा कोई नहीं कर सकता था। वह ऐसे थे कि जिनकी इच्छा सबसे ऊपर थी। आपको झक मारकर उसे पूरा करना था।
उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा लेकिन हमेशा जोड़ते रहते थे।
आज उनको याद कर रहा हूँ तो हिचकी ले रहा हूँ। सब ऐसे ही कोना पकड़कर रो रहे हैं। जो जहाँ है, वहीँ उनको याद करके बिसूर रहा है। हम उनके आजीवन ऋणी रहेंगे। यह कर्ज कभी नहीं उतर सकता।
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हमारे बड़का चाचा बाबू रमाशंकर राय ने कल पहली जनवरी, 2017 की सुबह पौ फटने से पहले इस असार संसार को विदा कह दिया। उन्होंने इस संसार को कभी असार नहीं माना। जिया और भरपूर जिया। उनमें जिजीविषा बनी हुई थी लेकिन शरीर को लेकर वह बहुत संजीदा नहीं थे इसीलिए आखिरी समय तक शरीर का कहा भी नहीं मानते थे। अन्ततः शरीर ने उन्हें त्याग दिया।
वह हमारे बीच हैं। बने रहेंगे। जब तक गाँव गिरांव के लोग परिवार की बात करेंगे, बाबू रमाशंकर राय का उदाहरण देते रहेंगे।

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जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा देकर गाँव आया तो यहाँ बड़का चाचाजी का पूर्णकालिक सानिध्य मिलना शुरू हुआ। बड़े भैया उसी साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर इलाहाबाद जा रहे थे। उन्होंने ही सुझाया कि राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज, गाजीपुर से मैं भी आगे की पढाई वाणिज्य संवर्ग से करूँ और बाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट के लिए तैयारी की जायेगी। मैंने प्रवेश लिया और रोज पढ़ने जाने लगा। मैंने बस से आना जाना तय किया। सुबह निकलता था और शाम पाँच बजे तक वापस आ सकना होता था। गाजीपुर जाने आने में ज्यादा समय लगता था लेकिन ट्रैक बंधा हुआ था। उसी नियत रास्ते से आना जाना होता था।
घर पर बताया गया था कि चाचाजी रोज ही गाजीपुर मुहम्मदाबाद में होते हैं। तो किसी भी दिन मिल सकते हैं। कहीं भी।
उस दिन मैं शाम को लौटा था। घर आया तो अभी किताब रखा भी नहीं था कि बड़का चाचा ने बुलवा लिया। वह अमरुद के उस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे बैठे थे, जिसे बाद में काट दिया गया था और तब उससे प्रभावित होकर मैंने कवितायेँ लिखना शुरू किया था। मेरी पेशी हुई। सहमा हुआ मैं पहुँचा। जाते ही उन्होंने सवाल दाग दिया- "घरे चोखा मिलेला?" जाहिर है-जवाब हाँ था तब अगला सवाल था -"और पूरी?" उसका जवाब भी हाँ था तो अगला सवाल यह पूछा गया कि -"क गो समोसा खइले ह?" यह ऐसा सवाल था जो मेरे लिए भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था। विद्यालय से आते हुए उस दिन मैंने चट्टी पर समोसा खाया था। एक दो नहीं, छः समोसे। लेकिन यह खबर उन तक पहुँची कैसे? मैंने वहाँ समोसा खाने के बाद तिरकट्ठे भागा था और सबसे तेज घर पहुंचा था। इतनी जल्दी कौन था जिसने उन्हें सूचित कर दिया था? यह रहस्य मैं आज तक नहीं सुलझा सका हूँ। 
बहरहाल, उस दिन मुझे पता चल गया कि जरूर इनको पता चल गया है और मैंने सच सच बता दिया। यद्यपि मैं सफ़ेद झूठ बोल सकता था, बोलता भी था लेकिन उनके सामने हिम्मत न हुई।
उन्होंने बहुत प्यार से समझाया कि समोसे कैसे बनते हैं और वह कितने हानिकारक होते हैं।
उसके बाद मेरा समोसा खाना छूट गया। बरसों छूटा रहा। चट्टी पर अब भी कभी समोसा खाने बैठ जाना पड़ा तो उनकी सीख याद आती है। 
बड़का चाचा ने सार्वजनिक जीवन में गाजीपुर मुहम्मदाबाद में बहुत समय व्यतीत किया था और वह जानते थे कि यह जगह कैसी खतरनाक है। वह कभी नहीं चाहते थे कि चट्टी का चटोरा स्वाद हमें भी अपने गिरफ्त में ले ले। इसलिए वह बहुत चौकन्ने रहते थे। आज भी हम कभी भी वहां इसलिए नहीं होते कि यहाँ रहकर समय पास हो जायेगा। टाइम पास जैसी चीज उन्होंने कभी महसूस ही न होने दी।
कभी याद करूँगा कि कैसे वह हम सबको व्यस्त रखते थे।

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घर में इसे परिलक्षित किया गया कि वह कुत्ता जो बड़का चाचा का शैडो था, अंतिम संस्कार वाले दिन के बाद नहीं देखा गया है। वह उनका विश्वस्त सहयोगी था और हमेशा उनके साथ रहता था। छोटा भाई बता रहा था कि जब कभी वह उसे कौरा देना भूल जाता था, बड़का चाचा वापस उसके लिए घर भेजते थे, कौरा लाने के लिए।
बड़का चाचा का पशु प्रेम गजब था। मुझे याद आता है, उन्होंने एक गाय पाल रखी थी, जिसके बारे में मशहूर था कि इसे दूसरा कोई नहीं रख सकता। एक तो इसलिए कि ऐसा भोज्य कोई नहीं परोसने वाला और ऐसा रखरखाव भी करना संभव नहीं। वह थोड़ी थोड़ी देर पर पिसान उसके भोज्य पर छिड़कते रहते थे। दिन में कई बार नाद पर बांधते थे और उसके लिए हमेशा धुँआ की व्यवस्था करते थे। उनके रहते, दुआर पर हमेशा कउड़ा जलता रहता था और हमलोगों का जिम्मा था कि पंखे से हवा करके धुँआ उधर ही जाने दें जिधर गाय बंधी हो।
उन्होंने गोशाला की व्यवस्था भी गजब कर रखी थी। उसे स्वाभाविक रूप से सूखा रखते थे। स्वाभाविक रूप से सूखा रखने का मतलब गाय गोशाला में गोबर तो कर सकती थी लेकिन पेशाब नहीं। वह अनुमान करके गाय को बाहर निकालते थे, उसके पेशाब करने का इंतजार करते तब अंदर बाँधते थे। कई बार यह इंतजार बहुत चुभता था। उन्होंने गाय को ट्रेंड कर दिया था। पेशाब कराने के लिए उनका नुस्खा बहुत कारगर था। उन्होंने एक कटोरे की व्यवस्था की थी। उसके कई छेद कर दिया था। इस कटोरे को पानी वाली नाद में डुबो कर ऊपर उठाते थे तो पानी कई धार में चूता था। दो तीन दफा ऐसा करने पर गाय स्वतः पूँछ उठा देती थी। वह पेशाब कर लेती थी और तब उसे बाँध दिया जाता था। देखने वाले इस प्रयोग पर हैरत करते थे और हँसते थे। चाचाजी के रहते अगर गाय ने अंदर गीला किया  तो शामत हमसब पर आती थी।
इस रखरखाव का असर यह हुआ कि एक बार एक सज्जन ने यह गाय खरीदा और तीन दिन बाद वापस पहुँचा गए। उस गाय ने हमारे खूँटे पर अंतिम साँस ली। फिर चाचा ने किसी गाय के प्रति वह स्नेह नहीं दिया। तब बाबूजी ने चरन की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी।
इसी क्रम में याद आता है, एकबार एक कुत्ता बार-बार घर में घुस जाता था। हम सब ने उसे घेर लिया। बड़का चाचा उसका नेतृत्व कर रहे थे। कुत्ता हम सबको चकमा देकर दरवाजे से निकलकर भागा कि अप्रत्याशित लाठी प्रहार से कें कें करता उलट गया। बड़का चाचा भी इससे बहुत विचलित हो गए। पता चला कि यह अचानक प्रहार हमारे चक्रव्यूह में चुपके से शामिल हुए अशोक【झगड़ू】भैया ने किया था। बड़का चाचा ने उन्हें देखा और कहा- 'लईको से लईका और पाड़ो से पाड़ा!' झगड़ू भइया के लिए हम सब बहुत दिन तक ऐसा ही संबोधन करके चिढ़ाते रहे।
बड़का चाचा कुत्तों को हमेशा दुआर से भगाते रहते थे लेकिन हर सर्दी में उनके भूसे में एक कुतिया पपी जनती थी और तब घर को उस कुतिया के लिए पौष्टिक आहार पकाना होता था। बच्चे जी जाते थे और उन्हें भगाने का काम मिल जाता था। यह क्रम अब भी चल रहा है।
अपनी अशक्तावस्था में भी वह दुआर पर बँधी गाय के लिए परेशान रहते थे। कल जब उस कुत्ते को लापता चिह्नित किया गया तो उनके पशु प्रेम को याद किया गया। वह अद्भुत थे।

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यों तो बड़का चाचा बहुत कम घर पाये जाते थे लेकिन जिस दिन पाये जाते थे उस दिन उनके हाथ में खुरपी, कुदाल, फावड़ा, टांगीं-टाँङ्गा देखा जा सकता था। वह दुआर को चिक्कन रखने में भरोसा रखते थे और स्वच्छ भारत अभियान के ब्राण्ड एम्बेसडर हो सकते थे। उनकी प्रेरणा से दुआर पर फूलों की क्यारी पल्लवित पुष्पित थी और हमारा दुआर करियात का एकमात्र दुआर था जहाँ गुलाब, बेला, चमेली और गेंदा जैसे फूल पाये जा सकते थे। वह अड़हुल और कनेर में विश्वास नहीं रखते थे लेकिन पुजारियों के लिए उसे भी जिलाया हुआ था। वह क्यारियों में निराई गुड़ाई के निरीक्षक और प्रमुख थे। उन्होंने अपने हाथों से आम, अमरुद, श्रीफल, मुसम्बी, नींबू, नीम जैसे बेहद जरुरी फलों के वृक्ष लगवाए थे और इस तरह हमारा घर गर्मियों में भी एक बड़ा आकर्षण बन गया था। आम के प्रति मेरा प्रेम उन्हीं के कारण जवान हुआ है।
दुआर पर एक बगीचा बनाने के बाद जब दसेक साल पहले उन्होंने पूरापर ट्यूबवेल स्थापित करवाया तो वहां भी आम, जामुन, श्रीफल, नीम, कटहल, बड़हर, गूलर, शिरीष, बाँस लगाया। अब पूरापर एक बहुलतावादी वृक्षसमूह का स्थान है, जहाँ हम जाने के लिए विवश हो जायेंगे। कहने का मतलब यह कि चाचाजी ने वृक्षारोपण के लिए खूब स्पेस रखा। उनका मन रमता था। जिस दिन वह घर होते थे, काम निकाल लेते थे। कुछ न हुआ तो निराई करने से जो घास निकलती थी, हमें जिम्मा देते थे कि हम एक गड्ढा खोदकर उसमें इस घास को दबा दें। कई बार गड्ढा खोदते हुए हम रागदरबारी के उस प्रसंग से रूबरू होते जिसमें प्रिंसिपल वृक्षारोपण के लिए गड्ढा खोदवाते हैं और खोदने वाला पूछता है- 'बस?' तो प्रिंसिपल कहते हैं,- 'यह कोई गड्ढा है? चिड़िया भी मूत दे तो उफना जाए!!' और ज्यादा खोद जाए तो यह कि इसमें किसी को दफन करना है क्या? हम गड्ढा खोदने को बेहद गैरजरूरी काम मानते लेकिन उनके आदेश का पालन करते।

बड़का चाचा के लिए उनका आदेश सर्वोपरि था। वह उसका पालन होते देखना चाहते थे। कई बार वह इसका ख्याल भी नहीं रखते थे कि इससे हमारा कैसा नुकसान होगा। एक वाकया याद करना चाहूँगा- वह सन 1997 था। उस साल की एक त्रासद याद यह है कि हमारा इण्टर का बोर्ड था और दूसरा यह कि उस साल आलू की पैदावार इतनी ज्यादा थी कि किसान को यह लगता था कि शीत गृह में रखने की बजाय खेत में सड़ने देना ज्यादा श्रेयस्कर है। उस साल कई ऐसे मसले सुनने में आये कि चोरों ने बोरे चुरा लिए और आलू छोड़ गए। हमारी त्रासदी यह भी थी कि हमारे एक बीघे खेत में महज 35 कट्टा आलू हुआ था, जबकि औसतन 100 कट्टा होना चाहिए था। कम पैदावार से आशंकित बड़का चाचा ने खुदाई स्वयं करने का निर्णय लिया और रोज सुबह कुदाल लेकर खेत में चले जाते। मेरी परीक्षाएं 2 बजे से होना तय थीं और इसके लिए मुझे 10 साढ़े 10 तक घर से निकलना रहता था। मुझे गाजीपुर जाना रहता था परीक्षा देने। चाचाजी सुबह खेत पर जाने से पहले मुझे कहकर जाते कि चाय लेकर आना। खेत पर चाय लेकर जाने का मतलब था, एक घंटा आने जाने का खर्च करना। उसी में वह कहते, 'जब तक बाड़े तबतक दू जोड़ा खन दे!' और कुदाल पकड़ने का मतलब होता थकान। फिर परीक्षा के लिए तैयारी का एल के डी हो जाता। एक दिन मना कर दिया तो बहुत समय तक मन खिन्न रहा और लगा कि इससे अच्छा था कि कुदाल लेकर कुछ जोड़े खोद ही दिया होता! खैर, परीक्षा हुई और मैंने पहला और आखिरी सेकेण्ड डिवीजन वहीँ से हासिल किया।
आज बड़का चाचा को याद कर रहा हूँ, फिर अपनी कई असफलताओं को याद करता हूँ, अपने संघर्ष को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ऐसा कूल कैसे रह सका। कभी विचलित नहीं हुआ तो आकलन करता हूँ कि बड़का चाचा ने हमें ऐसी दुसहस्थितियों के लिए ऐसे ट्रेंड किया था। वह कभी कभी अपने दोस्तों से कहते थे- इनलोगों को ऐसा बनाया है कि कहीं भी इज्जत की दो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेंगे।

बड़का चाचा ने हमें सिखाया कि लोगों की इज्जत कैसे की जाती है। हममें जो सामंती संस्कार थे, उसे उन्होंने लगातार क्षीण करने में महती भूमिका निभाई। एक बार मैंने रामाधार साव के आने पर जब उन्हें बताया कि 'रमधार आइल हऊँवन' तो उन्होंने छूटते ही कहा कि वह तुमसे छोटे हैं? कि तू उनके दिया देखवले हउवे! हमने उसके बाद दुआर पर आने वाले सभी बड़े बुजुर्गों के लिए यथोचित संबोधन की परंपरा शुरू की और पाया है कि यह आदर देने और पाने का सबसे बेहतरीन तरीका है।
कल आपको बताऊंगा कि बड़का चाचा कैसे विरुद्धों का सामंजस्य थे और उनके यहाँ दो विपरीत ध्रुव के लोग एक साथ रह सकते थे।
अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि बड़का चाचा के पचास साल तक अभिन्न मित्र रहे जग्गन राजभर (सोखा) के निधन की खबर आई है। बड़का चाचा के निधन के एक सप्ताह बाद उनका जाना दो दोस्तों  के आपसी ट्यूनिंग का अपूर्व उदाहरण कहा जा रहा है। हम आज उन्हें देखने भी गए थे। तुलसी गंगाजल देकर लौटे थे।
हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि सोखा बाबा को।

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बड़का चाचा को याद करते हुए आज बार बार रामअवतार गिरी और उनके भतीजे बद्री गिरी का स्मरण हो रहा है। यह चाचा भतीजा जोड़ी अद्भुत थी। रामअवतार काका को 'मुंडी' और बद्री काका को 'खस्सी' कहकर चिढ़ाते थे गाँव में लड़के। इन्हें चिढ़ाने के लिए बच्चों को कुछ करना नहीं होता था, बस कुछ टिटकारी भरनी होती थी। रामअवतार काका हमेशा रंग से सराबोर रहते थे। नाटे कद के थे, गोरे रंग के। लाठी कंधे पर रखकर चलते थे माँजते हुए। बद्री काका भी लाठी रखकर चलते थे। यह दोनों ही अलसुबह हमारे यहाँ आ जाते थे, उधर से कुल्ला करते हुए। सुबह की चाय हमारे यहाँ बड़का चाचा के साथ लेते थे और हमारे साथ साथ आसपास के लोगों के लिए मनोरंजन का मसाला तैयार हो जाता था। जिस तरह से दोनों भिड़ते थे, वह बेहद आक्रामक होता था। जब एक लाठी लेकर आगे बढ़ता, दूसरा भागता; जब दूसरा थम जाता तो पहला सहम कर वापस लौटता। यह क्रम बहुत देर तक चलता। बड़का चाचा निस्पृह भाव से यह होते देखते। हम सब मजा लेकर।
वैसे बड़का चाचा के हँसने, मजा लेने का ढंग अनूठा था। जब वह हमें किसी ऐसी बात पर डाँटते जिसमें हँसी मजाक हो रहा होता तो डाँट सुनते हुए भी हमारी हँसी न रुकती तो वह एक विशेष तरीके से डाँटते। बाद में हमने जाना कि इस विशेष तरीके से डाँटने में वह अपनी स्मित मुस्कराहट शामिल कर लेते और इस समय संयम का अद्भुत परिचय देते। हमें उनके इस हँसने से बहुत डर लगता! वह अपने दोस्तों के साथ होते तो खुलकर हँसते लेकिन हम सबके बीच नहीं। गंभीरता बनाये रखने के लिए हँसना मना रहता है!
यों बड़का चाचा हमलोगों से बहुत कम बात करते थे लेकिन अपने संगी साथियों के बीच रहते तो किसी प्रसंग पर गाली देना होता तो विशेष अंदाज में देते! उनका प्रिय सुभाषितानि था- ओकरी माई की बेटी की बहिन की बेटी की ऐसी की तैसी! हम जब भी यह गाली सुनते, पहिले रिश्ते की रीजनिंग समझने में उलझ जाते।
बड़का चाचा के दोस्त अलग थे, संगी अलग! परिचितों की संख्या बहुत थी। कौन उनका दोस्त है, कौन संगी या परिचित इसका पता लगाना कठिन था लेकिन रामअवतार काका और बद्री काका के मसले में मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने कभी भी रामअवतार काका को कुछ नहीं कहा। जब भी कुछ कहना हुआ, बद्री काका को कहा और चिढाना हुआ तो खस्सी कहकर! एक साम्यता यह थी कि तीनों बीड़ी और चाय के शौकीन थे।
मुझे वह रात कभी नहीं भूलती जब तकरीबन दो ढाई बजे मुझे चारा मशीन के चलने की आवाज सुनाई पड़ी। वह गर्मियों की रात थी और हम छत पर सोते थे। रात के इस प्रहर में चारा मशीन चलता देख मैंने सहज अनुमान किया कि बड़का चाचा ने बिना समय देखे गाय नाद पर लगा दी है। वह गाय को ताजा चारा खिलाते थे। मैं उठकर आया कि चारा बालने में मदद कर दूं तो देखा कि चारा रामअवतार काका काट रहे हैं। उन्होंने पड़ोस के खेत से चारा चुराकर काटा था और बालकर अपने घर ले जाने को थे! मैंने इसे सामान्य घटना मानकर इग्नोर किया और छत पर सोने पहुँच गया।
कुछदेर बाद ही लाठियों की आवाज और ऊँची आवाज में बहसें सुनाई पड़ीं तो पता चला कि बद्री काका भी कहीं से चले आये थे और दोनों एक दूसरे को चोर कहकर गरिया रहे थे! उस देर रात हम तमाशाई थे और इस तमाशे में अपना आनंद था। हम बच्चे थे और हमारे लिए तमाशा कभी भी हो, आनंददायी था! मैंने देखा और आज भी सोचता हूँ कि बड़का चाचा ने उस रात नींद में खलल पड़ने के बाद भी दोनों को कुछ न कहा और करवट बदल बदल कर मजा लेते रहे। बाद में बद्री काका को बीड़ी पिलाया और जाने कैसे मामला सलटाया!
खैर, बड़का चाचा को ऐसी स्थितियों में भी मैंने कूल रहते और बिना विचलित हुए चाय परोसते और बीड़ी सुलगाते देखा। यह बड़का चाचा थे जो दोनों को साध सकते थे और आसपास बैठाकर घंटों उलझाये रख सकते थे, वह भी गंभीर रहकर। वह गंभीरता भी दुर्लभ चीज है।
उन्हें पुनः प्रणाम!!

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.