आज
१० नवम्बर को 'बिज्जी' यानी विजयदान देथा की
पुण्यतिथि है। बीते कुछ सालों में वह एकमात्र ऐसे भारतीय साहित्यकार थे जिन्हें
नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था और हम आशान्वित भी थे। हालांकि उन्हें
मिला नहीं। साहित्य का नोबल बीते कुछ वर्षों में ऐसे ऐसे लोगों को मिला है,
जिनसे एक बड़ी जनसंख्या को निराशा हुई है। बिज्जी को मिला होता तो
क्या ही बात होती। उन जैसा लोक संग्रही, लोक का रचनाकार,
किस्सागो बीते पचास साल में कम से कम हिन्दी में कोई नहीं है।
उन्होंने 'बातां री फुलवारी' शीर्षक से
राजस्थानी लोक की कथाएँ १४ भागों में पुनर्लिखित की है।
हमने
उनकी कहानियों का संग्रह 'सपनप्रिया' जो ज्ञानपीठ प्रकाशन
से प्रकाशित है- सबसे पहले पढ़ा था। फिर उनकी कहानी 'पहेली'
पर शानदार कलाकार निर्देशक अमोल पालेकर ने कमजोर अभिनेता शारुख खान
और रानी मुखर्जी को लेकर फीचर फिल्म बनाई। पहेली से बिज्जी बहुत चर्चित हुए थे।
बिज्जी की कहानियों का एक संग्रह वाग्देवी प्रकाशन से आया था जिसमें एक लंबी
भूमिका पत्र शैली में है। बिज्जी की कलम क्या खूबसूरत कमाल करती है-उस पत्र को
पढ़कर समझा जा सकता है। अगर नोबल समिति उन्हें इस पुरस्कार के लिए चुनती तो वह
स्वयं समृद्ध होती। आज उनकी पुण्यतिथि पर भावपूर्ण स्मरण।
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