आज
देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास
के शयन के बाद जागरण की अवस्था में आते हैं। एकादशी का पौराणिक महत्त्व चाहे जो हो, हमारी तरफ यह एक ऐसा अवसर रहता है, जिस दिन व्रत रहा
जाता है। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने
गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था। एक बार
मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने
को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा
जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी
कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका। तो उसी लालच में
हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे।
एकादशी
व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास ही तो करना है। हम संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस
दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर
कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर
होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे। ऐसी स्थिति के
लिए हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था।
इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना
चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी
व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है। हमलोगों ने भरपेट
गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।
हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह
बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और
डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की
तरफ थे। साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी
शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा
बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई
होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला
भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह
बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला
सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली।
अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा
रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश
रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने
लगे।
तब
हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान
है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है। हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने
की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह
में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो
नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए। माँ ने घी का लेप
किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की
टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए। यह धर्मसंकट था। एकादशी का
व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी
संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो
रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव
आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का
व्रत पूरा हुआ। वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है। हर एकादशी उसकी याद आती
है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें