रविवार, 25 अगस्त 2013

The Children Of Heaven-- तीसरी दुनिया का सिनेमा



प्रथम आना आसान है लेकिन तृतीय स्थान पर रहना और भी कठिन. अली रेस में तृतीय स्थान आना चाहता है ताकि पुरस्कार के तौर पर जूता पा सके. जूता वह अपनी बहन के लिए जीतना चाहता है. उसी ने उसका जूता खो दिया है. वह तृतीय नहीं आ पाता. प्रथम आ जाता है. प्रथम आने की उसे कोई ख़ुशी नहीं होती. वह बहुत दुखी है. सब खुश हैं, वह दुखी है. ट्रेजेडी. ट्रेजेडी यही है कि सबके लिए जो खुश होने की चीज है वह अली के लिए नहीं है. मैडल और शील्ड पाकर वह बहुत दुखी है. उसने अपनी बहन से वायदा किया है कि वह तृतीय आएगा और जूता ही जीतेगा. वह नहीं जीत पाता. फिल्म के आखिर में जिस मनहूसियत के साथ वह लौटता है वह उसके ट्रैजिक अहसास को कई गुना बढ़ा देता है. यद्यपि उसके अब्बा ने जूता खरीद लिया है, वह प्रथम आया है और उसकी खुशियाँ परिवार में मनाई जाएँगी लेकिन फिल्म वह नहीं दिखाती. फिल्म हैप्पी एन्डिंग तक जाते जाते ख़तम हो जाती है.
किसी फिल्म के शुरुवात में ही अगर कैमरा एक मामूली घटना पर केन्द्रित हो जाए और कई एक फुटेज तक खा जाये तो वह जाहिरा तौर पर फिल्म या कहानी का महत्त्वपूर्ण संकेतक होगा. फिल्म के आरंभ में जूता जिस तन्मयता से रिपेयर किया जाता है, धागे की सहायता से सिलकर और ठोंक पीट कर तैयार किया जाता है. वह फिल्म का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. जूता बनवाकर जिस संतुष्ट अहसास के साथ अली लौटता है वह देखने लायक है. जूते से शुरू हुई कहानी जूते के साथ ही ख़तम होती है. जूते के लिए जाहरा जिस तेजी से दौड़ लगाती है और उसे पहनकर क्लास में देर से न पहुँचने के लिए अली जो भागमभाग करता है वह भी फिल्म में कई दफ़ा फिल्मांकित किये जाने के बावजूद सार्थकता की एक कोटि बनाता है.
पूरी फिल्म में जूता हावी है. आते-जाते, पढ़ते-पढ़ाते और हर पल हर छिन ख्याल में. आप देखेंगे कि भाषा सम्प्रेषण के आड़े नहीं आएगी. अली और जाहरा के मनोभाव इतने स्पष्ट है कि भाषा की कोई खास जरूरत नहीं है. इसलिए बात-चीत चाहे इरानी भाषा में हो या किसी और में, क्या फरक पड़ता है. हाँ, सुविधा के लिए अंग्रेजी में subtitle उपलब्ध हो तो कोई कसर नहीं रहती.
मैं माजिद मजीदी की फिल्म The Children Of Heaven की बात कर रहा हूँ. मैं धन्यवाद दूंगा Vikas Singh को, जिन्होंने यह बेहतरीन फिल्म मुझे दी और Ramji Tiwari सर को जिन्होंने कई एक उल्लेखों से कोंच-कोंचकर प्रेरित किया कि इसे जरूर देखा जाना चाहिए. बीते दिन सिताब दियारा पर यानि अपने ब्लॉग पर उन्होंने माजिद मजीदी की चर्चा छेड़कर इस फिल्म को देखने की बेसब्री और बढ़ा दी थी. उनकी किताब "ऑस्कर अवार्ड्स : यह कठपुतली कौन नचावे" ने तो कमाल ही कर दिया था.
आप भी देखें. अगर बेहतरीन सिनेमा देखना चाहते हैं और मार-धाड़ से इतर कुछ बेहतर संवेदनशील फ़िल्में देखना चाहते हों तो..

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सद्य: आलोकित!

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