बुधवार, 28 अगस्त 2013

निषाद बाँसुरी : कुबेरनाथ राय




सप्तमी का चाँद कब का डूब चुका है। आधी रात हेल गयी है। सारा वातावरण ऐसा निरंग-निर्जन पड़ गया है गोया यह शुक्ला सप्तमी न होकर शुद्ध नष्ट-चंद्र निशा हो। अभी-अभी हमारी नाव 'झिझिरी' अर्थात् नौका-विहार खेलकर लौटी है। नाव को तट से बाँधकर चंदर भाई फिर 'गलई' अर्थात इसके अग्रभाग पर आ विराजते हैं और प्रस्ताव करते हैं - ''यार, अब सोने कौन जाए? पहर-डेढ़ पहर जो रात बची है, बातें करते-करते काट देंगे।'' इधर चार-पाँच वर्षों से जब मैं घर आता हूँ तो एक पूरी संध्या और उससे जुड़ी हुई रात्रि अपने बाल-सखा चंदर माझी को समर्पित करता हूँ। अपनी प्यारी नदी के सान्निध्य में, जिसकी सेवा वे जन्म से ही बड़े मनोयोगपूर्वक कर रहे हैं, मैं इनका आतिथ्य ग्रहण कर कृतकृत्य होता हूँ और ये मुझे नौका नयन के दो-चार गीत सुनाते हैं, और सबसे बढ़कर चंद्रविगलित ज्योत्स्ना में नदी के एकांत वक्ष पर झिझिरी खेलने का अवसर देते हैं, तब मेरा आदिम निषाद-मन मुझे कुछ क्षणों के लिए पुनः इस जन्म में भी मिल जाता है। मेरा विश्वास है, और मैं इसे 'विश्वासं अप्रमेयम्ं' अर्थात् प्रमाण-अप्रमाण के द्वंद्व से परे का विश्वास मानकर बैठा हूँ, कि किसी जन्म में मैं गंगातीरी निषाद अवश्य था अन्यथा इस नदी के प्रति इतनी मोह-माया, इसमें इतना माँ जैसा भरोसा और बल क्यों अनुभव करता! नदी के प्रति आसक्ति ही शायद यह कारण है कि यह अँगुठियाकेशी, गठीला बदन, निरक्षर निषाद युवक मेरा इतना घनिष्ठ हो उठा है।
यों भी चंदर हैं बादशाही तबीयत वाले। बात के धनी, मन से उदार और विपत्ति में घोर साहसी। हाथ में अंकारी रहने पर जल या थल के किसी श्वापद का सामना करने को तैयार। गत वर्ष, ब्याहने गये एक को, पर लौटे दो के साथ और दोनों बहुओं का क्या ही कवित्वपूर्ण नाम रखा है 'रूपसी' और 'पियासी', जो गंगा की धारा में पायी जाने वाली दो तरह की मछलियों के नाम हैं। कहते हैं कि बेटे का नाम रखेंगे रोहित। ऐसे 'मन को बड़ो महीप' के साथ मेरी दोस्ती न होना ही अस्वाभाविक होता। मुझे लगता है मीन-मिथुन-जैसी दो बहुओं के बीच वे एक पद्मफूल हैं।
आज मैं घंटों नौका विहार करके भी, चंदर भाई के साथ थकावट नहीं महसूस कर रहा हूँ। इस सुनसान निरंग-निर्जन में वे अपने पुरुष कंठ से सीधी नदी को जगाने के लिए एक पुराने गान की आवृत्ति करते हैं। इस निचाट स्तब्धता में यह गान किसी अपदेवता के कंठस्वर जैसा सुनाई पड़ता है और मैं एकाध बार चंदर को अँधेरे में भी देखने की चेष्टा करता हूँ कि चंदर ही हैं न! क्योंकि इस क्षण में और इस जगह पर क्या ठिकाना कब क्या हो जाए। पास में ही मुर्दाघाट है। आखिर रात तो इन्हीं रात्रिचरों के हिस्से में है। हमारे हिस्से में तो दिन है, जिसमें ये सब चुपचाप अदृश्य या निश्चल रहते हैं। पर जैसे-जैसे रात भीगती जाती है, श्वापद-आरण्यक, पेड़-पल्लव, घाट-बाट, भूत-प्रेत सभी धीरे-धीरे जग जाते हैं और उस समय वे या तो काना-फूसी करते हैं अथवा निःशब्द एवं क्रूर आहार-विहार। यदि ऐसे में कोई हँसे, कोई गान गाये, कोई इनके एकांत में खलल डाले तो फिर ये भी उसे दंडित कर सकते हैं। मैं डोंगी के चौड़े तख़्ते पर लेटा हूँ और चंदर 'गलई' पर बैठे-बैठे गान भरपूर खुले कंठ से गा रहे हैं। सुनते हुए मुझे लगता है कि हम दोनों बंधु किसी भी भूत-प्रेत से कम नहीं।
''गंगा मइया,
केई जे सोवेला रन बन,
केई जे बेइलिया बने हो!
केई जे सोवेला बलुआ क रेतवा
' तोहरे सरन धइले हो!
गंगा मइया’
राजा जे सोवेला रन बन,
रानी बेइलिया बने हो!
मलहा त' सोवेला बालू क रेतवा,
' तोहरे सरन धइले हो!''
निषाद प्रार्थना कर रहा है : ''ओ माता, ओ गंगा मैया, सोयी हो या जागी हो? जरा उठो देखो, मेरी बोझी हुई नाव, मेरी 'बरधी' इस बालू के रेत में अटक गयी है। माँ, मैं तुम्हारी शरण में नित्य रहने वाला निषाद हूँ। तुम्हारा ही आश्रय गहकर चलता हूँ। ओ माँ, राजा तो रणभूमि में शिविर में सोता है, रानी महँ-महँ सुवासित बेला-वन में सोती है, पर मैं दीन निषाद तुम्हारे तट की बालूमयी रेती पर सोता हूँ और तुम्हारे बल पर निर्भर रहता हूँ। आज मेरी नौका 'चोर बालू' में फँसी है और बालू नाग की तरह कुंडली मारकर नाव को भीतर खींचता जा रहा है। माँ, अब मैं गया! जगी हो या सोयी हो जल्दी उठो। मैं, मेरी नाव, नाव पर लदा सार्थ, सब तुम्हारी शरण में।'' नदी रात-भर श्वापदों और आरण्यकों को पानी पिलाती रही है। अभी-अभी सोयी है। अभी वह कच्ची नींद या 'बालिका नींद' में है। उसकी 'बारी नींद' में निषाद का करुण आवाहान खलल डाल रहा है। पर नदी को जगना ही पड़ता है। नदी में निषाद के आशीर्वाद के मात्र बाहु-विक्रम से कोई पार नहीं पा सकता। इसी से निषाद कातर कंठ से प्रार्थना कर रहा है : ''माँ, जल्दी कर, अब भरोसा टूट रहा है।'' नदी की 'बारी नींद' टूट जाती है और वह आँख मलती उठती है, पहचानती है कि यह और कोई नहीं उसकी बालू पर आजन्म खेलने-खाने वाली उसकी प्यारी संतान ही है। नदी उठकर भरमुँह, कंठ खोलकर आशीष देती है, नखशिख-रक्षा कवच देती है और साथ ही नाव के अंदर वेग भरती है। इस प्रकार कर्तव्य का, कर्म का भार लादे हुए वह नाव धर्म के घाट जा लगती है जो सबसे सुरक्षित घाट है और सार्थ सुरक्षित पार उतर जाता है।
स्तब्ध निचाट रात में मानव कंठ का ऐसा मुक्त प्रार्थना-संगीत निश्चय ही क्रुद्ध रात्रिचरों को, कपटी कामरूपी अपदेवताओं को और साँप जैसे फण काढ़े वन्या की क्रुद्ध लहरों को सबकुछ को अपने वशीकरण से बाँध सकता है, ऐसा अनुभव करते-करते मैं इस गान को सुन रहा था, और बिना दाद या प्रशंसा की प्रतीक्षा किये हुए चंदर एक गीत के बाद दूसरा गीत उठाते जा रहे थे। लगातार पाँच गीत मैं सुनता रहा, एक से एक अपूर्व। अंतिम गीत का भाव कुछ इस प्रकार था : ''ओ नदी, ओ माता, मेरी नाव पूरब देश से धीमे-धीमे लौट रही है। यह नाव तुम्हारी पूजा के लिए रँगी हुई पियरी से बोझी है, तिरंगी चुनरी से बोझी है, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे शृंगार के लिए हार-फूल से बोझी है, जवाकुसुम और कनेर से बोझी है, तुम्हारी सात पुष्पांजलियों के लिए इस पर केले के पत्तों पर शेफाली के फूल लदे हैं, इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, इस नाव पर तुम्हारी माँग के लिए सिंदूर और श्रीअंगों के लिए हल्दी बोझी गयी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो। ओ माँ, यह नाव तुम्हारे चरणों पर अर्घ्यधार गिराने के लिए लौंग-मधु और दूध के सात घटों से बोझी है। इसे धीमे-धीमे निर्भय चलने का आशीर्वाद दो।''
गान के अंतिम भाग में नदी अपने निषाद-शिशु की बात सुनकर भरमुँह अर्थात् मुक्तकंठ कलकल ध्वनि से आशीर्वाद देती है : ''ओ निषाद, जैसे मेरे जल को कोई काटकर दो टुकड़े नहीं कर सकता वैसे ही तू भी अखंड-अच्छेद्य है। और जब तक मैं हूँ, जब तक मेरी धारा है, तब तक तू भी वर्तमान है।'' गीत सुनकर मुझे लगा कि नदी हाथ उठाकर कुछ और भी कह रही है जिसे चंदर सुनते हैं, समझ नहीं पाते हैं, परंतु मैं खूब समझ रहा हूँ। मुझे लगा कि नदी कह रही है कि ओ निषाद, तेरी संस्कृति, तेरे संस्कार, तेरा मन, सब कुछ इस जल की तरह है, जो टूटता नहीं, कटता नहीं, भले ही दब जाता है और आकृति बदल लेता है, पर अस्तित्वहीन नहीं होता है - यहाँ तक कि सूख जाने पर भी या तो अंतःसलिला का अंग बन जाता है या उड़कर मेघ बनकर पुनः लौटता है।
भारतीय धरती के आदि-मालिक निषाद ही थे। भारतीय भाषाओं में मूल संज्ञाएँ, भारतीय कृषि के मूल और आदिम तरीके और भारतीय मन के आदिम संस्कार उन्हीं की देन हैं।
इस अर्थ में निषाद-द्रविड़-आर्य-किरात इन चारों महाकुलों में निषाद ही अग्रज हैं। परंतु मध्य प्रदेश आदि कुछ क्षेत्रों को छोड़कर इसका इतना घोर आर्यीकरण हो चुका है कि आज यह पहचाना नहीं जा सकता। ऊपर-ऊपर से यह स्वयं निषादत्व खोकर आर्य हो चुका है, पर भीतर-भीतर तथाकथित भारतीय आर्य का अंग विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इस महानायक के अर्थात इस पितर भारतवर्ष के इतिहास वपु की शिरा-धमनी में निषाद-मन प्रवाहित है, स्नायुमंडल की रचना द्रविड़ संस्कृति करती है, अस्थि धर्म की रचना में किरात-संस्कृति की रंग-बिरंगी बनावट है और इसके मनोमय कोषों की रचना आर्य-सरस्वती करती है। चंदर के अंदर तो निषाद-संस्कार ही हैं, वह तो गंगातीरी निषादों की सातों आर्यीकृत 'कुरियों' में से एक से संबंधित ही हैं, जिन्हें रामचंद्र ने पावन कर दिया था। परंतु यह मैं जो अपनी 'स्वधा' को 'वत्स-भृगु-यमदग्नि-च्यवन-आप्नवान' के पंचप्रवर में जोड़ता हूँ मैं भी इस आदिम निषाद से वंचित नहीं हूँ। मेरे संस्कार प्रवाह में भी यह बैठा है। मेरी भाषा, मेरे भोजन-पान, मेरी खेतीबाड़ी-हरबा-हथियार के मध्य वह कृष्णकाय आदिम निषाद अपने को व्यक्त कर रहा है, जिसने विश्व में सर्वप्रथम इसी गंगा की घाटी में धान-चावल का आविष्कार किया था, भैंस को दुधारू बनाया था, जड़ी-बूटियों और फलों को पहचाना था और उन्हें नाम दिया था तथा खेती के औजारों को गढ़ा था। चंदर भाई के गुरु रामदेवाजी के मुँह से मैं निषाद कुल की गरिमा की अनेक ऊल-जलूल बातों को सुनता आ रहा हूँ और आश्चर्य होता है कि कभी-कभी उन बातों का आधुनिक भाषाविज्ञान और पुरातत्त्व से अजब सटीक बैठ जाता है।
चंदर मुझसे अकसर कहा करते हैं : ''अरे हम लोग जरा काले हैं, नहीं तो आप लोगों से नीच थोड़े हैं!..'' और प्रमाण न पूछने पर भी रामदेवाजी की अपूर्व ऊल-जलूल थ्योरी का संदर्भ तुरंत देते हैं, जिसे सुनकर मैं भौचक्का रह जाता हूँ। तर्क करने जाऊँगा तो चंदर डपटकर कहेंगे - ''अरे गोसाईं जी को पढ़ो, गोसाईंजी को! है ? 'तुलसी सुनि केवट के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है।' सोचो जरा, प्रभु जानकी की ओर देखकर क्यों हँसे! क्यों न लक्ष्मण की ओर देखकर हँसे? बोलो?'' और यह सब सुनकर क्या बोलूँ, मेरी तो सरस्वती ही बेहोश हो जाती है। चंदर माझी स्वयं समाधान करते हैं : ''अरे भाई, गोसाईंजी बड़े सावधान लेखक थे। उनके एक-एक 'लफ्ज' का भी मतलब है, बेमतलब तो उन्होंने कुछ कहा ही नहीं है। यहाँ पर मतलब यह है कि'' और तब गुरु रामदेवाजी की शैली में तर्जनी नचाते हुए चंदर भाई तौल-तौलकर शब्दों की चोट करते हैं, ''मतलब यह कि, रामचंद्र जी सीताजी की ओर इशारा कर रहे हैं, कि यह निषाद तो समवर्ण का है, अतः कहीं पाँव धोने के हठ के बहाने कन्यादान करने का उपक्रम तो नहीं कर रहा है? पर इस गूढ़ भाव को सबके सामने कैसे कहें! इसी से सीता की ओर नजर मारकर हँस देते हैं।'' मुझे स्मरण है कि जिस दिन प्रथम बार इस थ्योरी से परिचित हुआ था, उस दिन अपनी सारी पढ़ी हुई विद्या को धिक्कारता हुआ घर लौटा था।
पहली बार यह बात ऊटपटाँग अवश्य लगी थी। परंतु कालांतर में भारत की मौलिक जातियों के संबंध में श्री बी.एस. गुहा, डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या और डॉ. हटन आदि के प्रबंधों को पढ़ने पर मुझे लगा कि इक्ष्वाकुओं और निषादों की कुल परंपरा के संदर्भ में यह थ्योरी अक्षरशः सत्य भले ही न हो, परंतु यह सारी बात बिल्कुल वृषभ-दुग्ध या शश-शृंग-जैसी भित्तिहीन नहीं। आधुनिक पंडितों का विचार है कि रामायण की मिथक निषादकल्पना से प्रसूत है।
निषाद वृषाकपिदेवों और अपदेवताओं को पूजने वाली जाति है। वैदिक आर्यों में अवतारवाद स्वीकृत ज्ञात होता है, परंतु अत्यंत हलके तौर पर। '`त्र्विक्रम विष्णु' या 'गोपा विष्णु' के उल्लेख अवतार के द्योतक न होकर देवता के बहुरूपी रूपांतर के द्योतक हो सकते हैं। देवता प्रेममय है और हमारे त्राण के लिए वह 'माया वपु' धारण करता है, इस तथ्य का दृढ़ आधार वैदिक मंत्रों में नहीं मिलता है। इसी से आधुनिक विद्वानों की कल्पना है कि भारतीय संस्कारों में अवतारवाद का प्रवेश निषादों-जैसी आनंदवादी और द्रविड़ों जैसी भाववादी जातियों की कल्पना की दान है।
इस संदर्भ में स्मरण रखने की बात यह है कि रामायण के मिथक के प्रधान संपादक वाल्मीकि की छंद सरस्वती का जागरण एक निषाद द्वारा किये गये क्रौंचवध के फलस्वरूप ही संभव हुआ था। पूरी रामायण की कथा भले ही निषाद-कल्पित न हो, परंतु उसके ताने-बाने में कुछ प्रसंग और कुछ विश्वास तो अवश्य ही ऐसे हैं जो निषादों में प्रचलित रहे होंगे। संभवतः वाल्मीकि के समय निषादों में किसी उनके ही रंग के अनुरूप ''नील सरोरुह श्याम तरुण अरुण वारिज नयन'' देवता की कल्पना एवं उसके महा अवतरण में विश्वास प्रचलित रहा होगा, जो आकर इन निषादों को पाप-ताप से मुक्त करके गले लगाएगा और पंक्ति-पावन कर देगा।
किसी चरम देवता अथवा परम पुरुष के अवतरण की प्रतीक्षा बहुत काल से निषाद जाति कर रही थी। किसी 'दूर्वादलश्यामं' देवता के आगमन की, उसके द्वारा महिमा-मंडित और पुण्यशाली बनाये जाने की कल्पना पुरुष प्रति पुरुष निषाद जाति करती आ रही थी, और इसी बीच में इक्ष्वाकुओं के आर्यकुल में एक प्रतापशाली राजपुरुष का जन्म हुआ, और उसके शील-स्नेह और चरित्र में तथा शताब्दियों प्रतीक्षित देव कल्पना में साम्य दिखाई पड़ा, और यह साम्य निषादों में प्रचलित अवतार की कल्पना के चौखटे में पूरा-पूरा उतर गया तथा उन्होंने उक्त इक्ष्वाकुवंशीय कुमार को, उसके अलौकिक कर्म को, अपने महादेवता के अवतरण के रूप में देखा। ऐसा होना असंभव नहीं।
परंपरा के अनुसार वाल्मीकि ने जब राम को अपने महाकाव्य का नायक चुना, तो उनकी प्रज्ञा में उक्त-निषाद विश्वास निरंतर सक्रिय रहा और उन्होंने गौरवपूर्ण आर्यवंशीय कुमार को दूर्वादलश्यायम एवं नीलोत्पलश्याम रूप में देखा, तथा कथा के अंदर वृषाकपियों का प्रसंग लाकर निषाद-कल्पना को पुनः नया संस्कार दिया। वाल्मीकि गंगा और तमसा के बीच के अरण्य में रहते थे और प्रचलित निषाद-विश्वासों से उनका न प्रभावित होना ही अस्वाभाविक होता। रामकथा इस बात का प्रमाण है कि गंगातीर के निषादों का जीवन रामचंद्र द्वारा ही संस्कार समृद्ध किया गया है। अतः राम का उनकी कल्पना के केंद्र में प्रवेश कर जाना असंभव नहीं। हो सकता है कि निषादों की कल्पना रही हो कि उनका प्रिय देवता जब माया-मनुष्य बनेगा, तो उसे विमाता दुःख देगी, उसे वन-वन भटकना पड़ेगा, वह दुःखी देवता ही निषादों का आलिंगन करके उन्हें परम पावन और शुद्ध बनाएगा और वही देवता ऐसा सुशासन स्थापित करेगा कि धरती पर से रोग-शोक-पाप की छाया हट जाएगी और दुःखी कोई नहीं रहेगा। और इस निषाद-कल्पना को राम के ऐतिहासिक चरित्र में वाल्मीकि ने संभवतः अंतर्भुक्त कर दिया है।
यह तो सभी जानते हैं कि असम, बंगाल या अन्य प्रदेश की निषाद जातियों यथा कैवर्तों, धीवरों, तीयरों या मध्यप्रदेश के मुंडा, कोल आदि को जो भी माना जाता रहा हो, परंतु सनातन से गंगातीरी केवटों और माझियों को पवित्र माना जाता रहा है, तथा उनके द्वारा स्पर्श किया हुआ जल सनातन काल से ग्रहण किया जाता रहा है, क्योंकि रामचंद्र और बाद में इक्ष्वाकुओं के कुल पुरोहित वशिष्ठजी ने निषादराज का आलिंगन करके उनकी अस्पृश्यता समाप्त कर दी थी और उन्हें आर्य-महिमा से मंडित कर दिया था। राम नाम की सील मुहर के आगे मनुस्मृति भी नतमस्तक है। इस मिथकीय प्रसंग का ऐतिहासिक तात्पर्य यह है कि इक्ष्वाकुवंशीय आर्यों के संसर्ग में आकर गंगातीर के निषादगण आर्य सभ्यता के अंतर्गत आ गये। यहाँ तक कि निषादों ने अपनी भाषा भूलकर आर्य भाषा को ही मातृभाषा मान लिया। उनका खान-पान, रहन-सहन आर्यों की पद्धति पर यथासामर्थ्य चला गया। गंगातीर के केवट कहते हैं कि रामचंद्र जी ने उन्हें दो हुक्म दिये थे। एक तो नाव को तट पर बाँधकर भी जल में ही छोड़ देना, घसीटकर बालू पर नहीं करना। दूसरा यह कि कच्ची मछली कभी मत खाना। सदा नमक-हल्दी-सरसों देकर मछली खाना या भूनकर मछली नमक के साथ खाना। यह दूसरी आज्ञा देखने में भले ही साधारण लगे, पर उनके अंदर नागरिकता और आर्य रीति के प्रवेश कराने का प्रयत्न है। अन्य प्रदेशों के निषादों की अपेक्षा गंगातीर के निषादों के चाल-चलन, कथन-भंगिमा आदि में विशिष्ट गौरव झलकता है। अन्य जातियों के अपने-अपने लोककाव्य हैं, यथा अहीरों की 'लोरकी', कहारों का 'बिहुला' आदि। निषादों में नौकानयन और प्रेम संबंधी फुटकल गीत अवश्य है, परंतु कथा-काव्य की जगह वे तुलसीदास की रामायण ही गाते हैं। राम ही उनके लोकनायक हैं, अन्य कोई नहीं। राम के प्रति उनमें एक सहज समर्पण और मोह है ''तुम केवट भव सागर केरे। नदी नाव के हम बहुतेरे।''
पूर्वी उत्तरप्रदेश के गंगातीरी निषादों में सात कुल हैं : केवट, चाँई, बथवा, धीवर, तीयर, सोरहिया और मुंडार (मुंडार शब्द 'मुंडा' से मिलता-जुलता है, जो मध्यप्रदेश की एक आर्यत्व वंचित निषाद शाखा का नाम है और हो सकता है कि सुदूर अतीत में इनसे कोई संबंध भी रहा हो।)। इन सात कुलों में रामचंद्र का सखा निषादराज गुह किस कुल का था? चंदर भाई तो कहते हैं कि निषादराज चाँई थे। हमारे गाँव में चाँई और केवट दोनों हैं और दोनों यह गौरव लेना चाहते हैं। चाँई कहते हैं कि जेठे तो हमीं लोग हैं। शृंगवेर पुर वाले केवट हैं या चाँई, मुझे पता नहीं। ये गोस्वामी जी ने साफ लिखा है : 'माँगी नाव न केवट आना।' अतः मैं कहता हूँ कि शृंगवेरपुर का निषाद चाँई नहीं, केवट ही था। तब चंदर के लिए इतने बड़े कुल-गौरव को छोड़ना मुश्किल हो जाता है और वे हठपूर्वक कहते हैं : ''यहीं पर जरा-सी बिल्कुल जरा-सी, भूल गोसाईंजी से हो गयी है। बात यह है कि वे ब्राह्मण थे और हम लोगों की कुरी वगैरह भीतरी बातें वे क्या जानें? उन्हें लिखना चाहिए था 'चाँई' तो लिख दिया 'केवट'। आखिर जेठी कुरी तो हम चाँई ही हैं। सभा का सरदार तो चाँई ही होता आया है।'' चंदर के अनुसार शुद्ध पाठ होना चाहिए, 'माँगी नाव न चाँई आना।' या 'तुलसी सुनि चाँइहि के वर बैन हँसे प्रभु जानकि ओर हहा है' आदि। मैं समझता हूँ कि भाई चंदर, चाँई लोग तो इससे भी बृहत्तर गौरव के अधिकारी हैं। यह चाँई निषाद ही था, जिसके बाणों से क्रौंचवध हुआ और फल हुआ वाल्मीकि की छंद-सरस्वती का जन्म। चाँई नहीं होता तो रामायण ही लिखी नहीं जाती। अतः चाँई का कम महत्त्व नहीं। परंतु तो भी चाँई कुल-कमल-दिवाकर चंदर निषाद इस प्रश्न पर संधि नहीं करते और अपनी ही फेंटते जाते हैं कि गुह निषाद उनके ही कुल 'चाँई' का पूर्वपुरुष था। अंत में मुझे चाँई-गौरव के प्रति नतमस्तक होकर चुप हो जाना पड़ता है।
मैं अपनी जन्मभूमि गंगातट से प्रायः दूर रहने को बाध्य हूँ और जीविकोपार्जन के लिए इस किरातारण्य से घिरे आर्यों के बीच, लौहित्य तट पर, निवास कर रहा हूँ। मेरे पैरों में चक्र है और मुझे दर-दर भटकने का शाप मिला है। इस शाप भोग में भी बड़ा रस है, बड़ा सुख है। परंतु फिर भी कभी-कभी थक जाता हूँ और मन उदासी का व्यूह काटने में असमर्थ हो जाता है। तब अपने भीतर आत्मा को चींथते-फाड़ते कुत्तों को सम्मोहन में लाकर फिर थपकी देकर सुला देने के लिए मुझे किसी श्लोक, किसी गान अथवा किसी दृश्य का चिंतन करना पड़ता है और ऐसे वेदना विकल क्षणों में अपनी प्यारी नदी की ज्योत्स्ना विगलित रजत-धारा, चंदर की बातें और मीन-मिथुन जैसी दोनों भाभियों रूपसी और पियासी के गाये गीतों की मनोरम स्मृतियाँ बड़े काम की साबित होती हैं। जब मेरे मन के अंदर उन दोनों द्वारा गाये गये किसी गीत की स्मृति जगती हैं, और मन भीतर ही भीतर उसे गाने लगता है तो लगता है कि आत्मा और मन के सारे नख-दंत-क्षतों पर अपनी प्यारी नदी की झिर-झिर धार प्रवाहित होने लगी। लगता है कि वेदना-विकल मस्तक में किसी सुखद शीतल देवधुनी का जन्म हो रहा है, ऊपर से कोई फूल बरसा रहा है, नीचे रूपसी-पियासी के कंठ से निःसृत गान की डोर पर खिंची चंदर भाई की पाल तनी नाव धीमे-धीमे आ रही है, उनके लिए हल्दी, सिंदूर और मेरे लिए भोग-प्रसाद का भार लादे हुए। यह ध्यान-लब्ध दृश्य मुझे तीनों लोकों का राजा बनाकर निहाल कर जाता है, और मैं भूल जाता हूँ अपने कंठस्वर की अष्टावक्र भंगिमा को और मैं भी गुनगुनाने लगता हूँ उन्हीं से सुना हुआ एक गान :
''राधे-रुकमिनि चलेनी नहनवा, सुखा के गंगा ना।
भइली बलुआ क रेतवा, सुखा के गंगा ना!
रोवेली अटइन-रोवेली बटइन, रोवे कुआँ क पनिहारिन ना।
मुँहवा रुमलिया देके रोवेला केवटवा
कि मोरी बोझल नइया अगम भइली ना!''
- ''राधा और रुक्मिणी स्नान को चली हैं, पर गंगाजी सूख गयी हैं, यह पापहरा नदी मृत हो चुकी है, चारों ओर बालू की रेती है, चारों ओर तृषा ही तृषा है, अटवी-कन्या रो रही है, बटोही की वधू रो रही है, मुँह पर रूमाल रखकर बेचारा निषाद रो रहा है कि उसकी बोझी नौका अब अगम हो गयी!'' फिर गीत आगे चलता है और राधा अपने आँचल की खूँट में बँधी सात फूल लौंग रुक्मिणी को देती हैं। रुक्मिणी लौंग को रगड़कर पीसती हैं। राधा और रुक्मिणी नतजानु होकर नदी माता को लौंग-धार का अर्घ्य देती हैं। और तब, गीत की अंतिम कड़ी में :
''राधे रुकमिनि कइली पूजनिया, छछा के गंगा ना
भइली दूनो नख आर-पार, छछा के गंगा ना!
हँसेले अटइन, हँसेले बटइन, हँसे कुआँ क पनिहारिन ना!
फेंक के रुमलिया हँसेला केवटवा,
कि मोर बोझल नइया ऊपर भइली ना!''
- ''राधे और रुक्मिणी ने छछाकर अर्थात् हुलासपूर्वक गंगा का पूजन किया। नदी ने भी उल्लासपूर्वक आशीष देकर दोनों तटों को नखानख (लबालब) जल से परिपूर्ण कर दिया। चारों ओर प्रसन्नता छा गयी। जीवन लौट आया। अटवी कन्या हँस पड़ी। बटोही की वधू हँस पड़ी। कुएँ की पनिहारिन भी हँस पड़ी और सबसे बढ़कर नदी की संतान केवट मुँह पर से रूमाल फेंककर मुक्तकंठ से ठहाका लगाकर हँस पड़ा कि उसकी बोझी नौका अब ऊपर हो गयी, अब यह नदी का अगम जल ही तरणी का सुगम मार्ग बन गया, अब उसकी नाव गंतव्य दिशा की ओर बाणवेग से छूटेगी।''
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चंदर माझी के गुरु रामदेवाजी एक अद्भुत जीव हैं। उनके लिए 'व्यक्ति' कहकर सर्वभूतमय 'जीव' शब्द का प्रयोग ही मुझे अधिक उपयुक्त जँचता है। अंतिम विश्लेषण में हम सब जीवात्मा ही ठहरते हैं और यही कारण है कि इस देश में 'जय जीव' श्रेष्ठतम अभिवादन वाक्य माना जाता था। साक्षी हैं गोस्वामीजी जिनके महाकाव्य 'मानस' में राजा दशरथ के मंत्री 'जय जीव' कहकर शीश झुकाते हैं। 'जय जीव!' अर्थात् भीतर की जीवात्मा नामक महासत्ता की जय हो जो हममें, आपमें, पशु-पक्षी में, तृण-तरु सबमें हैं। यह शुद्ध वेदांती प्रमाण है। आज भी हिंदी भाषा में हम जिसे बड़ा मानते हैं जिसमें ब्रह्म के अलौकिक स्फुरण का स्पष्टतः हमें भान होता है, उसके नाम के पीछे 'जी' लगाते हैं जो 'जीव' का ही रूपांतर है। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा था कि एक गणतंत्रवादी पुरुष के लिए 'मिस्टर' अर्थात् 'श्री' से बढ़कर कोई उपाधि नहीं, इसके आगे 'जनाब', 'सर', 'स्कॉयर', 'बाबू', 'महाराजा' आदि सब तुच्छ हैं। उसी दृष्टि से एक वेदांती के लिए 'जी' से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाधि हो ही नहीं सकती। एक वेदांती के लिए किसी भी व्यक्ति के अन्य विरुद मिथ्या हैं, मोहमाया हैं, रज्जु-सर्प या शुक्ति-रजत जैसी भ्रांतियाँ हैं। उसका तो एक ही विरुद असली है और वह है 'जीवात्मा' जिसका संक्षिप्त रूप है 'जी' या 'जीव'। अतः जब मैं गुरु रामदेवाजी को 'जीव' कहकर पुकारता हूँ, तो इसमें उनकी तौहीनी नहीं, उनकी सर्वोच्च गरिमा का द्योतन है। साथ ही, इससे हमारा और उनका परस्पर अपनत्व व्यक्त होता है। अतः जब मैं रामदेवाजी को 'अद्भुत जीव' कहता हूँ तो 'जीव' से हमारा तात्पर्य अँगरेजी का 'क्रीचर' शब्द नहीं, वेदांत का 'जीवात्मा' होता है। और 'अद्भुत' इसलिए कि वे कभी-कभी मुझे साक्षात अद्भुत रस का सगुण रूपांतर लगते हैं।
वे जन्म से ही अद्भुत हैं, जब वे भूमिष्ठ हुए तो हल्ला हो गया कि बच्चा मरा हुआ जनमा है। दाई बच्चे को हाँडी में कसकर गाँव के बाहर परती जमीन में गयी, गड्ढा खोदा गया। हाँडी गड्ढे में रख दी गयी। पता नहीं दाई के मन में कौन-सी प्रेरणा आयी कि उसने मिट्टी भरने के पूर्व हाँडी का ढक्कन एक बार खोलकर देखा तो पाया कि बच्चा टुकुर-टुकुर ताक रहा है। बस, फिर क्या था, उसने जल्दी-जल्दी बच्चे को बाहर निकाला। दूसरे क्षण, उसी वंध्या 'परती' भूमि में शिशु का प्रथम कंठ फूटा एवं कुछ मिनट के बाद ही केवटों का उदास मुहल्ला ढोलक और सोहर से पुनः मुखरित हो उठा। जीवन का प्रथम स्तवगान उन्होंने वंध्याभूमि में किया था और आज भी इस अस्तोन्मुख वेला में वे चिर-कुमार ही हैं।
उनकी भोजन-पान की रुचि भी विचित्र है। सुरती-तंबाकू से घोर वैराग्य, परंतु 'ताड़ी' और 'कारन' (देव-अर्पित मदिरा) खूब चलते हैं। दूध से जितना वैर हैं, घोर खट्टी दही से उतनी ही आसक्ति। सबको 'सजाव' अर्थात् ताजी-मीठी दही अच्छी लगती है, तो इनकी मान्यता है कि मीठी दही असली दही नहीं है। ''अरे दही हो तो ऐसी हो कि एक बार मुरदे की जबान पर रख देने पर वह भी चैतन्य होकर उठ बैठे!... दही जितनी खट्टी होगी उतना ही उसमें ताड़ी का मजा आयेगा।'' रामदेवाजी कबके छब्बीस से खब्बीस हो गये, सुर्खाब पर झुर्रियाँ पड़ गयीं, परंतु मन में चिरयुवा, मौज-मस्ती को परम धर्म मानने वाला आदिम निषाद अब भी रह-रहकर जोर मारता है। वही ठहाका, वही दुस्साहस, वही छत्तीसा, वही ताल-पखावज जो सारी जवानी देश-विदेश नौका खेते हुए और गंगा-ब्रह्मपुत्र की चंचल धार से लड़ते हुए व्यक्त होते रहे, आज भी रह-रहकर अभिव्यक्त हो जाते हैं। उनका चिरकुमार मन अब भी छोकरा है, पर भुजाएँ थक गयी हैं। अब पाँच-छह साल से बाहर नहीं जाते। यही गंगा तट पर 'छाड़न' भूमि में परवल, करैले, खरबूजे उगाकर गुजर कर लेते हैं। न आगे नारी रूपी 'नकेल' है और न पीछे परिवार रूपी खूँटा-पगहा है। रात्रिचरों अर्थात शृगालों, श्वापदों और आभीर बालकों के उत्पात से जो कुछ बच रहता है उसमें एक आदमी की गुजर हो ही जाती है, और कभी अपने दैवी, अर्धदैवी या मानवी इष्ट मित्रें को षोडशोपचार सामग्री में कुछ कमी हो जाए तो चंदर जैसे 'मन को बड़ी महीप' शिष्य हैं ही।
देखने में रामदेवाजी छोटे कृष्णवर्ण, गठा शरीर, पकहर केश, रतनार नयन, चौड़ा जबड़ा, पर नुकीली नाक वाले टिपिकल गंगातीरी निषाद हैं। माथे पर सिंदूर और कंधे पर पीला या गुलाबी गमछा लगाये निर्भीक कंठ से देवी का 'पचरा' गाते हैं और क्षण-प्रतिक्षण साँवली होती हुई संध्या में नदी जल के भीतर 'कारन' वारि गिराकर पता नहीं, किसकी पूजा करते हैं, दीप जलाते हैं और हमारे जैसों को चना-गुड़ का प्रसाद देते हैं। उस समय साँझ के सँवराते अर्ध-तमस वातावरण में, जब वहाँ मुझे छोड़कर और कोई तीसरा नहीं रहता, कोई शाबर-मंत्र बुदबुदाते हुए वे अचानक रतनार आँखें खोलते हैं, तो उस क्षण वे मुझे नदी के साक्षात अपदेवता की तरह ज्ञात होते हैं।
कृष्ण पक्ष की रात में नदी के तट पर मैं अकेले उनके साथ बैठकर उनकी बातें सुनता हूँ। उनकी निरक्षर, पर अद्भुत कल्पनाप्रवण शैली से ऐसा भयस्तब्ध या अद्भुत-मौन वातावरण बन जाता है कि कभी-कभी मन के असावधान क्षण में मुझे लगता है कि नदी की धारा में या हवा में कोई खिलखिलाकर अभी-अभी हँस पड़ा है अथवा अभी-अभी नदी जल से निकलकर कोई पास से गुजरा है या अभी-अभी मेरे अवचेतन में ठहक लाल पाढ़ साड़ी पहने कोई अपना अस्तित्व जता गयी है। उनकी बातें ही ऐसी होती हैं कि सुनने वाले की कल्पना शक्ति अति जाग्रत हो जाती है, चेतन स्तर नशे में ढलने लगता है, और अवचेतन के जीव रह-रहकर झाँक जाते हैं। दूसरे ही क्षण पुनः सावधान हो जाने पर कहीं कुछ नहीं। प्रवाद है कि उन्होंने भूत-डामरविद्या को 'कामरूकमच्छा' अर्थात् कामरूप में जाकर 'गुणियों' से सीखा है। प्रति पूर्णिमा को नदी के उस पार जाकर वे 'यक्षिणी-साधन' करते हैं जो पता नहीं क्या बला है। पर यदि वह यक्षिणी 'मेघदूत' के यक्षों की लीलावधू हो और मंत्रबल से अलका छोड़कर ऐसे सुपुरुष के पास उसे आना पड़े तो उसकी किस्मत में लाल 'बोरो' चावल का नैवेद्य, भुनी मछली, 'कारन' एवं जवाकुसुम या पीत कनेर का हारफूल, यही सब उपलब्ध होगा! और ऐसी अवस्था में कल्पवृक्ष शीतल छाया, मंदाकिनी का मणिमय तट और 'मधु रतिफलं' की मदिरा को त्यागकर इस मर्त्य महीरुह-स्थाणु के पास वह आएगी ही क्यों? पर रामदेवाजी का विश्वास है कि इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में वे यक्षिणी को वशीभूत कर ही लेंगे। एक ही जन्म की साधना से थोड़े कुछ होता है! अरे, 'जनम जनम मुनि जतन कराहीं!'
इधर मैंने बी.एस. गुहा, डॉ. हटन, डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के कुछ प्रबंधों को पढ़ा है और निषाद अर्थात 'आस्ट्रिक' और किरात अर्थात 'इंडो-मंगोलीय' संस्कृतियों के संबंध में भाषावैज्ञानिक और पुरातत्त्व संबंधी तथ्यों की चर्चा तथा पढ़ने-सुनने का भी थोड़ा-बहुत अवसर मुझे मिला है। यों मेरा सारा ज्ञान पल्लवग्राही ही रहा है परंतु इस सबमें मुझे चंदर माझी और रामदेवाजी की ऊल-जलूल बातों की 'हुंकारी' मिल जाती है और रामदेवाजी के ऊल-जलूल तथा गुहा-हटन-चाटुर्ज्या आदि के ऊहापोह में कोई न कोई संबंध अवश्य है और वह संबंध बादरायण संबंध मात्र न होकर कोई तत्त्वगत सार्थक संबंध है, ऐसी मेरी धारणा है।
हमारे गंगातीरी या उत्तर भारतीय निषाद, जिन्हें हम आम तौर से 'मल्लाह' कहते हैं, मूलतः 'आस्ट्रिक' या 'अग्निकोणीय' नस्ल के हैं, जो भारतीय धरती के आदि मालिक थे। उत्तर भारत में हर अर्थ में इनका इतना आर्यीकरण हो चुका है कि इनके अंदर निषादत्व का अस्तित्व बहुत कम रह गया है। भाषा बदलने से संस्कृति बदल जाती है। इनकी भाषा आर्यभाषा हो गयी। वे अपनी उस आदिम भाषा-भूषा-भोजन को त्याग चुके हैं जो अब भी मुंडा-कोल आदि मध्यप्रदेशीय 'आस्ट्रिकों' या 'निषादों' में वर्तमान है। इस आर्यीकरण का प्रतीकात्मक संकेत है राम द्वारा निषादराज के कुल को पावन करने की कथा में। आर्य-निषाद मिश्रण महाभारत में व्यापक तौर पर स्वीकृत था। और इस मिश्रित नस्ल के सबसे महिमामय फल हैं द्वैपायन कृष्ण व्यास। आज के मध्यप्रदेश अर्थात् त्रेता के जन्मस्थान और दंडकारण्य में यह प्रक्रिया उतनी ही तीव्र नहीं चली फलतः वहाँ अब भी 'निषाद संस्कृति' अपनी निषाद भाषा-भूषा-भोजन के साथ अक्षुण्ण है। परंतु उत्तर भारत में आर्यीकरण हो जाने के बावजूद भारतीय भाषा, भारतीय चिंतापद्धति और भारतीय स्वभाव पर इनका बड़ा प्रभाव है। लगता है कि इतिहास का आदिम निषाद राजनैतिक स्तर पर पराजित होकर भी हमारे मन और बुद्धि में प्रवेश कर इतनी सीमा तक विजयी हो गया कि विजेता आर्यत्व के कायाकल्प और मानसकल्प दोनों एक साथ घटित हो गये एवं उत्तर भारत की देह, वाणी, मन और बुद्धि का चतुरंग रूपांतर हो गया। 'मल्लाह' शब्द तो पेशावाचक शब्द है। मध्य युग में जब जलयात्रा और जहाजरानी पर अरबों का पूर्ण आधिपत्य हो गया तो इस शब्द का 'नाविक' के अर्थ में अधिक प्रचलन हो गया। मूलतः यह अरबी शब्द है। इसका प्रचलन भी हिंदी प्रदेशों तक ही सीमित है। असल संज्ञा है निषाद।
बुद्ध के समय उत्तर भारतीय निषाद आर्यघराने के अविभक्त अंग बन चुके थे। प्रायः कारीगर तथा कमकर इन्हीं में से आते थे। इनके स्वभाव में आर्यों जैसी चिंतन-प्रवणता तथा महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। द्रविड़ों की तरह इनमें भावुकता तथा कवित्व नहीं था। ये तो शुद्ध आनंदवादी थे। नाचो, कूदो, परिश्रम करो, मौज उड़ाओ... जोगीड़ा सररर! उत्तर भारतीय त्योहार होली की विशिष्ट भंगिमा का मूल स्रोत निषाद स्वभाव ही है। दिन के लिए खाने को हो तो कल की फिक्र करने वाला जोरू का भाई!
द्रविड़ संचयवादी थे, कल की फिक्र करते थे, फलतः व्यापार और नगर संस्कृति की रचना उन्होंने की। पर निषाद आरण्यक तबीयत के थे। जो कमाया उसे संवत्सर के भीतर व्यय करके नये संवत्सर के साथ नवान्न का भोग करो - यह थी उनकी दृष्टिभंगी। आज भी मतसा के केवट चार मास बाहर तरबूज बेचकर या नौका खेकर हजार रूपये लेकर लौटते हैं तो उसे जल्दी से जल्दी मछली-भात, ताड़ी और जुआ में मास-डेढ़ मास में खर्च कर देने की कोशिश करते हैं। उनको भय होता है कि उनका कमाया रुपया कहीं जमकर दही न बन जाए, या सड़ न जाए, अतः फेंको इसे जल्दी बाजार में। परंतु भारतीय खेती का सूत्रपात करने वाले निषाद ही हैं। गंगातट के जंगलों को साफ करके पहले-पहल इन्हीं के द्वारा कृषि कर्म का श्रीगणेश हुआ। खेती के औजारों के नाम उन्हीं की देन है। विविध बीजों और अन्नों का जंगली घासों के भीतर उन्होंने ही आविष्कार किया। उनमे मुख्य है 'धान'! 'यव' और 'गोधूम' आर्य शब्द हैं, 'ब्रीहि' (धान) द्रविड़ शब्द हैं जो अँगरेजी 'राइस' का आदि बिंदु है : ब्रीहि-रीहि-रीसि-'राइस'। परन्तु भाषावैज्ञानिकों का कथन है कि 'चावल' शब्द निषाद (आस्ट्रिक) शब्द है जिसके मूल में है 'जोम' या 'जाम' (खाना) जो मुंडा-कोल बोली में अब भी प्रचलित है। जोम-झजाम-झचाम-झ चाव-झचावल। यही नहीं, आधुनिक भाषावैज्ञानिकों की दृष्टि में कदली, नारिकेल, ताल, तांबूल, वातिड्गण (बैंगन), आलाबु (लौका), निंबुक, जंबू, कर्पास, शाल्मली इत्यादि अनेक वृक्षों और तरकारियों के नामों का मूल स्रोत निषाद भाषा ही है। गंगातीर पर पाया जाने वाला काँटेदार वृक्ष 'बबूल', जिसके लिए असमिया भाषा में एक सुंदर नाम है 'तरुकदंब', शुद्ध निषाद शब्द है। हिंदी में 'बबूल' कहते हैं, बाँगला में 'बाबला''अश्व' आर्य शब्द है। परन्तु 'साद' (टट्टू) निषाद शब्द है। 'साद' से ही 'सातवाहन' अर्थात् घुड़सवार शब्द निकला है। कुक्कुट, मोर, मातंग, गज शब्द भी निषाद बोलियों से संबंधित हैं। 'बाण' और 'लगुड़' (भोजपुरी 'लउर' अर्थात् लाठी) शब्द जिनसे क्रमशः बाँगला और हिंदी के पुरुष चिह्न द्योतक शब्द निकले हैं, निषाद शब्द है। निषादों ने न केवल खेती करना बल्कि गुड़ बनाना, पान का प्रयोग, 'कोड़ी' (बीस) में गिनने की पद्धति, बुनाई कला, भैंस और हाथी पालना आदि का भी समारंभ किया है। ए.एल. बाशम के अनुसार संसार में सर्वप्रथम गंगा की घाटी के निषादों ने ही भैंस को पालतू बनाया।
श्री विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय ने अपने एक संस्मरणपरक उपन्यास 'आरण्यक' में बताया है कि कुछ आदिवासियों के अंदर, जिनका संबंध 'आस्ट्रिकों'-निषादों से जोड़ा जा सकता है, 'टांडवारो' नामक एक अपदेवता की काष्ठ मूर्त्तियाँ स्थापित करने की प्रथा है। ये जंगली भैंसों के देवता हैं। महिष बलि, महिषमर्दिनी दुर्गा की पूजा, शीतला की पूजा अपने आदि रूप में निषाद संस्कृति से प्रारंभ होती है। देह पर विवाह के अवसर पर हल्दी लगाना आर्यों में भी प्रचलित था। पर यह उन्होंने जलजीवी जाति निषादों से सीखा होगा। देह पर हल्दी मलकर जल में कूदने पर हल्दी की गंध से घड़ियाल-मगर आदि पास नहीं फटक सकते। संभवतः सिंदूर का प्रयोग भी आदिम निषादों ने ही प्रारंभ किया था।
बात कर रहा था रामदेवाजी की और बहककर चला गया गुहा-हटन-चाटुर्ज्या आदि का हरा-भरा खेत चरने। तो भी जो कुछ मैंने इधर-उधर की बातें कहीं हैं वे हँसुए के ब्याह में खुरपी का गीत निश्चय ही नहीं। बूँद में समुद्र का आह्वान और गुणधर्म भरा होता है। रामदेवाजी की ऊल-जलूल बातों और आधुनिक नृतत्वशास्त्र भाषाविज्ञान की ऊहा की बीच यही बूँद और समुद्र का संबंध है। रामदेवाजी का टोना-टोटका और भूत-डामर विशुद्ध निषाद-प्रतिभा की उपज है। और इसकी परंपरा पाँच हजार वर्ष पुरानी है एवं रामदेवाजी के शब्दों में व्यतीत पाँच हजार वर्षों के संस्कार मूर्त होते हैं। (स्मरण रहे कि 'टोना', 'टोटका' तथा अँगरेजी के 'टोटेम', 'ताबू' आदि शब्दों का मूल उत्स भी निषाद या आस्ट्रिक है) ये निषाद संस्कार हम सबकी शिरा-धमनी में हमारे षड्रिपुओं के साथ-साथ सहअस्तित्व बनाकर सक्रिय हैं।
रामदेवाजी अपनी अजीब 'अड़बी-तड़बी' बोली में जो कुछ कहते हैं उसका आधा ही मैं समझ पाता हूँ, पर जो समझता हूँ वह अपूर्व लगता है। वे कहते हैं, ''एक अनदेखा चन्द्रमंडल है आकाश केंद्र में। उसमें 'मृगा' है। 'मृगा' पर सवार है देवी और देवी पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण चारों ओर मुट्ठी-मुट्ठी बीज प्रतिक्षण फेंक रही है - न केवल गाछ-पात, लता-तरु के बीज बल्कि आदमी, जानवर, पंख-पखेरू सबके बीज। ये बीज चारों दिशाओं में चौदहों भुवन में निरंतर बिखरते रहते हैं और रूप लेते रहते हैं। देवी के नयनों से सात रंग बरसते रहते हैं। उसकी नजर से ही ये सारे रूप अपना-अपना रंग लेते हैं, रंग बदलते हैं, रंग उड़ते हैं और निरंग हो जाते हैं।'' रामदेवाजी आविष्ट की तरह अर्धनिमीलित चक्षु होकर यह सब कहते जाते हैं और तब अचानक आलू जैसी बड़ी-बड़ी लाल आँखें खोलकर मेरी ओर ताकते हैं और वर्णन पूरा करते हैं। ''देवी की दायीं आँख रंग-बिरंग नजरें मारती हैं, सृष्टि को रंग प्रदान करती है। देवी की बायीं आँख उन रंगों का भक्षण करती है। और देवों की तीसरी आँख ललाट में स्थित है जो सूर्य के रथ का नियंत्रण करती है। दिन-रात का आना-जाना उसी आँख के इशारे पर होता है। मौसम उसी आँख की भंगिमा देखकर बदलते हैं... हम-तुम, ये चिड़िया-चुरुंग, पशु-प्राणी सभी उसी चंद्रमंडल से बिखरे बीजों के लता-पता हैं।'' और इस प्रकार का कथन समाप्त करते हुए रामदेवाजी अपना मस्तक श्रद्धा से झुका लेते हैं।
चंद्रमंडल के इस महत्त्व की वार्ता सुनकर मुझे बहुत-सी बातें स्मरण हो आती हैं, जिन्हें मैंने डॉ. सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के एक निबंध में पढ़ा था। वर्तमान युग में पोलीनीशिया में आस्ट्रिक या निषाद पंचांग अब भी चालू है और उनकी तिथि गणना चंद्रमा पर आधारित है। सृष्टि और काल का मूल उत्स है चंद्रमंडल, ऐसा पुराने निषादों (आस्ट्रिकों) का विश्वास था। वे चंद्रमा की कलाओं के आधार पर तिथि-गणना करते थे। आश्चर्य है कि सुदूर पोलीनीशिया में चालू पंचांग में पूर्ण चंद्र और नष्ट चंद्र तिथियों के लिए जो शब्द आते हैं वे हैं 'राका' और 'कुहू'। इससे सिद्ध होता है कि 'राका' और 'कुहू' निषाद भाषा के शब्द हैं। आर्यों ने निषाद संस्कृति को आत्मसात् करने की प्रक्रिया में इन्हें अपनी भाषा में दाखिल कर लिया। हमारे ज्योतिष शास्त्र में 'मातृका' नक्षत्र मंडल है, जिसे पोलीनिशियन पंचांग में अब भी 'मातरिकी' कहते हैं। चाटुर्ज्या महाशय की यह सूचना रामदेवाजी की 'अड़बी-तड़बी' रहस्यवाणी के संदर्भ में मेरे लिए और अर्थवान हो उठती है।
आर्य लोग चंद्रमा को औषधियों का स्वामी मानते हैं। मुझे लगता है यह विश्वास निषादों से अनुप्रेरित है। इस देश की जड़ी-बूटियों, घास-पात, पेड़-पौधों के पहले जानकार तो निषाद ही थे, कृषि कर्म के प्रथम नायक भी निषाद ही थे। ऐसी अवस्था में औषधियों का संबंध चंद्रमा के साथ पहले-पहल उन्हीं की कल्पना द्वारा जोड़ा गया होगा। औषधियों से आरोग्य होता है, अतः उनमें अमृत का अंश है। सोम या चंद्रमा औषधियों का राजा है, या 'अनदेखे चंद्रमंडल' में औषधियों का बीज है, अतः सोमकला या चंद्रमा में भी अमृत है। यह कल्पना संभवतः निषादों ने की होगी। उनके मन में प्रश्न आया होगा - यह चंद्रमा आया कहाँ से? समुद्र से। अतः समुद्र-मंथन करके अमृत-कुंभ और उसका सहोदर अमृत कलावाला चंद्रमंडल का निकाला जाना उन्होंने ही पहले-पहल कल्पित किया होगा। अमृत-मंथन की मिथक भारतीय आर्यकुल में ही प्रचलित है, नार्डिक या ग्रीक घराने में नहीं। अतः यह समुद्र मंथन का 'मिथक' शुद्ध देसी प्रतिभा, संभवतः निषाद-प्रतिभा की उपज है। चंद्रमा का पिता समुद्र है, तो समुद्र के नीचे क्या है? निषाद-कल्पना ने उत्तर दिया होगा, समुद्र के नीचे पाताल है जहाँ पर भी एक अमृतकुंभ है, जहाँ मणियाँ हैं, जहाँ अतुलित बलशाली नाग हैं, जो इन दोनों अलभ्य वस्तुओं की रक्षा करते हैं। क्योंकि उन्हें छोड़कर धरती के भीतर गहरी बामी में और कोई जीव नहीं रहता। इस प्रकार कल्पना-दर-कल्पना चलती रही और सबका उत्स रहा निषादों का चंद्र-प्रेम। आर्य ऊषा और आदित्य के उपासक थे। सोम नामक जड़ी का पान करके वे क्षणिक देवत्व का आवेश भोग कर लेते थे। निषादों के संसर्ग में आकर उन्होंने 'सोम' का संबंध चंद्रमंडल से जोड़ा और सोम का अर्थ हुआ चंद्र।
ग्रीक महाकाव्यों का 'नेक्टार' और आर्यों का 'सोमरस' केवल देवोपम निश्चिंतता और आनंदयुक्त मत्तता देते हैं। पर अमृत की कल्पना कुछ और ही है। अमृत की कल्पना में औषधि तत्त्व का संकेत है क्योंकि वह अमृत रस हमें जरा-मरण से ऊपर और परे ले जाता है, रोग और मृत्यु के पाश से हमें मुक्त कर सकता है। किसी औषधिधर्मी रस के द्वारा जरा-मरण के ऊपर विजय एक निराली कल्पना है और ऐसी कल्पना करने वाली जाति के मन में ही अमृत मंथन की कल्पना और अमृत कुंभ से युक्त पातालपुरी की कल्पना - जो मात्र भोगलोक है जिसकी राजधानी ही भोगावती है - प्रथम-प्रथम आयी होगी। बाद में द्रविड़ों ने, जो भावुकता प्रधान, 'कवित्वपूर्ण, रईसतबीयत, मणि-माणिक-लोभी, नगर रचने वाली और व्यापार करने वाली जाति थी - इस कल्पना को विकसित किया होगा और उन्होंने कल्पित किया होगा कि समुद्र-मंथन के साथ न केवल अमृत बल्कि तरह-तरह के अलभ्य रत्न भी निकले थे और पाताल लोक न केवल अमृत कुंभ का लोक है बल्कि 'भोगी' जाति का चरम भोगलोक है, जहाँ मणि-माणिक माथे पर धारण करे रईसतबीयत नाग कुल अमृत पान करता है और सुख भोगता है और तब आर्यों का चिंताशील दार्शनिक मन आया होगा। और उसने इस समुद्र मंथन की पूर्व पीठिका में देवासुर संग्राम के रूप में शिव और अशिव के द्वंद्व तथा आर्य और अनार्य द्वंद्व के दार्शनिक और राजनैतिक तत्त्व को इस मिथ से संयुक्त कर दिया होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आज की भारतीयता का पिता है आर्य, पितामह है द्रविड़ और प्रपितामह है निषाद। अवश्य ही पूर्वी भारत में एक चौथा तत्त्व भी सक्रिय रहा है जो आर्य पिता का समकालीन है और वह है 'किरात' अर्थात 'इंडो-मंगालीय' तत्त्व, जो लद्दाख से अरुणाचल (नेफा) तक की पतली हिमालय की पट्टी और समूचे ब्रह्मपुत्र क्षेत्र (असम और बंगाल तथा बाँगला देश) के इतिहास में प्राधान्य लाभ किये हुए है। परंतु इस समय हम उत्तर भारत अर्थात ठेठ हिंदुस्तान की ही चर्चा कर रहे हैं, जिसका पिता है आर्य, पितामह है द्रविड़ और प्रपितामह है निषाद।
सुनीति बाबू लिखते हैं और रामदेवाजी तथा उनके चंदर-मंदर जैसे शिष्यगण इसे करके दिखाते हैं कि निषाद मन एक ओर तो बड़ा परिश्रमी तथा धीर मन रहा है, दूसरी ओर वह खुशमिजाज, बेपरवाह, मनमौजी, सदैव 'अरे, वाह वाह' गीत गुंजरित, नृत्यकंपित और कभी-कभी उन्मत्त-प्रमत्त भी रहने का आदी है। इसका रसवाद प्रायः मुक्त हास्य और आदिरस से संयुक्त रहा है और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति होती है 'होली' त्योहार के अंदर, जिसे अब भी कुछ लोग चतुर्थ वर्ण का त्योहार कहते हैं। उस दिन चांडाल-स्पर्श पुण्य माना जाता है। ऐसा मानसिक भावात्मक खुलापन वाला त्योहार, निषाद संस्कारों की ही उपज है।
मैं समझता हूँ चार्वाक ऋषि की उनके जीवन काल में निषादों के बीच बड़ी इज्जत रही होगी क्योंकि उनका 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' दर्शन निषादों के मनमौजी स्वभाव के समानांतर है। आज भी मतसा गाँव के निषाद एक दिन का खाना भी घर पर मौजूद हो तो बैठकर ताश खेलेंगे। तेल में मछली कल्हारी जाएगी और अड्डाबाजी होगी। उस समय रायजी, मिसिर जी, वर्माजी, जा-जाकर इनकी देहरी पर शीश पटकेंगे कि चल भाई, मेरा मकान गिर रहा है, मेरी छत चू रही है, या मेरी फसल खेत में झड़ रही है, परंतु सब व्यर्थ! क्योंकि आदिम निषाद इनके मन में जाग उठा है और ये नहीं सुनेंगे। ये ही क्यों, रायजी, मिसिरजी, वर्माजी भी इस निषाद से परित्यक्त नहीं। उनकी देह में यह हो या न हो, पर उनके मन का चालीस प्रतिशत इसकी राजधानी है। यह आदिम निषाद उनके संस्कारों में जब प्रबल और उन्मत्त हो उठता है तो ये भी दो बीघा बेचकर होली-दीवाली के दिन 'चमर नट' या नर्तकी का नाच कराते हैं, दावतें देते हैं और स्वयं भी छानते-फूँकते-पीते हैं।
मेरे मन की गहन गुहा में कहीं पर बैठा हुआ यह आदिम निषाद मुझे भी छात्र जीवन में बड़ा तंग करता था। मुझे स्मरण है कि एक ग्रीष्मावकाश के बाद बनारस कैंट स्टेशन पर उतरकर अपने सहपाठी जयमल राय के साथ मैंने प्रतिज्ञा की कि इस वर्ष हम दोनों सिनेमा देखेंगे ही नहीं। पर ज्यों ही हमारा रिक्शा कैंट स्टेशन से आगे बढ़ा और एक-से-एक बढ़िया चलचित्रों के सम्मोहक पोस्टर आने लगे, हमारी प्रतिज्ञा ढीली होने लगी, आदिम निषाद हमारे मन का मंथन करने लगा और अंत में 'प्रकाश टॉकीज' तक आते-आते हमारे विचारों में आमूल परिवर्तन हो गया और जयमल को मैंने वहीं पर उतार दिया और कहा, 'यार, तू लाइन लगा, मैं सामान रखकर अभी आया।' आज मैं वयस की प्रौढ़ता के कारण कर्तव्यपरायण हो गया हूँ, परंतु अब भी छुट्टी के दिनों में अरण्यवीथी, या नदी तट पर निकल जाता हूँ तो अकेले में मेरी आत्मा में निरंतर वर्तमान आदिम निषाद मेरी शिरा-धमनियों में प्रवेश करके अविराम नौका-क्रीड़ा करने लगता है और मेरे मन में बज रही उसकी अविराम बाँसुरी के अस्तित्व के प्रति सचेत हो जाता हूँ।
('निषाद बाँसुरी' : कुबेरनाथ राय का यह निबंध संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है, से साभार) 



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