सोमवार, 19 अगस्त 2013

कथ-हुज्जत



-एगो हनुमान जी थे.
-एगो हनुमान जी? हनुमान जी त एकेगो न हैं?
-हाँ भाई, त हम कहाँ कह रहे कि दू गो. हमहूँ त कह रहे हैं कि एगो हनुमान जी ...
-अच्छा, आगे कहिये.
-त दूनों जना नहाये गईले..
-दूनों जाना???..
-हाँ भाई..तूँ कहानी सुनबा की ना..
-सुनब. बाकी बिना सर पैर क ना. अब दूनों जाना कहाँ से आ गईलें?
-अरे भाई, साथ में गणेशो जी न लाग गईले.
-त पहिले न कहे के चाही.
-दिखे नहीं न थे.
-कैसे दिखे नहीं थे? हेतना बड़ा सूंढ़, हतहत बड़ा पेट, आ दिखे ही नहीं??
-अरे भाई, भगवान जी क माया. कभी दिखें आ कभी अलोपित..
-अच्छा.. तब?
-तब तीनों जाना नहा के निकलल लोग..
-तीनों जाना?
-हाँ भाई,  गणेश जी क मूसवा के भुला गईला का..
-हाँ.. जब गणेशे जी ना लउकले,  त मूसवा कईसे लौकाई.
-त चारों जाना वापस लौटे लागल लोग.
-चारों जना? अब ई चौथा कहाँ से?
-अरे, मूसवा क पीछे एगो बिलार न लाग गई.
-हैं..?
-, दूनों जना एक जगह बैठ के सुस्ताये न लागल लोग..
-दूनों जना? आ दू जना?  बताईं?  गणेश जी के मूसवा के मरवा दिहलीं का?
- अरे नहीं भाई! मूसवा,  बिलाई के लखेद न लिया.
-???
-हाँ जी.

-देखिये, जबान संभाल के बात कीजिये.
-का हुआ?
-का हुआ? पूछते हैं. गणेश जी के मूस को कुत्ता कह रहे हैं और पूछते हैं कि का हुआ?
- हम कहाँ कहे?
- ना कहे त का हुआ?  हमको बुझाई नहीं देता है का?  बिलाई को कौन लखेदता है? कुत्ते न!!
- ???
-हाँ, खबरदार, जो मूस को कुत्ता कहा..
.
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बहुत पहले सुनी कहानी. स्मृति में कुछ इसी तरह रह गई है..

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सद्य: आलोकित!

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