रामायण का अर्थ है राम का अयन। अयन मार्ग को कहते हैं। राम जिस मार्ग पर चले उसे रामायण के कर्ता आदिकवि वाल्मीकि समाज को दिखाना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य को रामायण कहा।
- राधा वल्लभ त्रिपाठी।
Kathavarta |
#रामायण
रामायण का अर्थ है राम का अयन। अयन मार्ग को कहते हैं। राम जिस मार्ग पर चले उसे रामायण के कर्ता आदिकवि वाल्मीकि समाज को दिखाना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य को रामायण कहा।
- राधा वल्लभ त्रिपाठी।
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#रामायण
बद्री नारायण को उनकी कविता संकलन "तुमड़ी के शब्द" के लिए हिन्दी का साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया है। बद्री नारायण हमारे समय के जाने माने कवि और समाज विज्ञानी हैं। वह कविता के साथ साथ देश दुनिया के विविध सामाजिक विषय पर विचार करते रहते हैं। पढ़िए उनकी दो चर्चित कविताएं।
(१)
'दुलारी धिया'
पी के घर जाओगी दुलारी धिया
लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के
सपनों का खूब सघन गुच्छा
भुइया में रखोगी पाँव
महावर रचे
धीरे-धीरे उतरोगी
सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया
पोंछा बन
दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी
कछारी जाओगी पाट पर
सूती साड़ी की तरह
पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया
दुलारी धिया
छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें
उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी
पी घर में राज करोगी दुलारी धिया
दुलारी धिया, दिन-भर
धान उसीनने की हँड़िया बन
चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी
अकेले में कहीं छुप के
मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी
सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया
बाबा ने पूरब में ढूँढा
पश्चिम में ढूँढा
तब जाके मिला है तेरे जोग घर
ताले में कई-कई दिनों तक
बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया
पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन
कूटोगी धान
पुरईन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया
पी-घर से निकलोगी
दहेज की लाल रंथी पर
चित्तान लेटे
खोइछे में बाँध देगी
सास-सुहागिन, सवा सेर चावल
हरदी का टूसा
दूब
पी-घर को न बिसारना, दुलारी धिया।
(२)
प्रेमपत्र
किताब से निकाल ले जायेगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खायेगा
चोर आयेगा तो प्रेमपत्र ही चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र ही दांव लगाएगा
ऋषि आयेंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र
बारिश आयेगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आयेगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र ही लगाई जाएंगी
सांप आएगा तो डसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आयेंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे
मुहल्ले
में जिस दिन उसका आगमन हुआ, सबेरे तरकारी लाने के लिए बाज़ार
जाते समय मैंने उसको देखा था। शिवनाथ बाबू के घर के सामने, सड़क
की दूसरी ओर स्थित खँडहर में, नीम के पेड़ के नीचे, एक दुबला-पतला काला आदमी, गंदी लुंगी में लिपटा चित्त
पड़ा था, जैसे रात में आसमान से टपककर बेहोश हो गया हो अथवा दक्षिण
भारत का भूला-भटका साधु निश्चिन्त स्थान पाकर चुपचाप नाक से हवा खींच-खींचकर प्राणायाम
कर रहा हो।
फिर मैंने शायद एक-दो बार और भी उसको कठपुतले की भाँति डोल-डोलकर
सड़क को पार करते या मुहल्ले के एक-दो मकानों के सामने चक्कर लगाते या बैठकर हाँफते
हुए देखा। इसके अलावा मैं उसके बारे में उस समय तक कुछ नहीं जानता था।
रात के लगभग दस बजे खाने के बाद बाहर आकर लेटा था। चैत का महीना, हवा तेज़ चल रही थी। चारों ओर घुप अँधियारा। प्रारंभिक झपकियाँ ले ही रहा था
कि 'मारो-मारो' का हल्ला सुनकर चौंक पड़ा।
यह शोरगुल बढ़ता गया। मैं तत्काल उठ बैठा। शायद आवाज़ शिवनाथ बाबू के मकान की ओर से
आ रही थी। जल्दी से पाँव चप्पल में डाल उधर को चल पड़ा।
मेरा अनुमान ठीक था। शिवनाथ बाबू के मकान के सामने ही भीड़ लगी
थी। मुहल्ले के दूसरे लोग भी शोरगुल सुनकर अपने घरों से भागे चले आ रहे थे। मैंने भीतर
घुसकर देखा और कुछ चकित रह गया। खँडहर का वही भिखमंगा था। शिवनाथ बाबू का लड़का रघुवीर
उस भिखमंगे की दोनों बाँहों को पीछे से पकड़े हुए था और दो-तीन व्यक्ति आँख मूँद तथा
उछल-कूदकर बेतहाशा पीट रहे थे। शिवनाथ बाबू तथा अन्य लोग उसे भयजन्य क्रोध से आँखें
फाड़-फाड़कर घूर रहे थे।
भिखमंगा नाटा था। गाल पिचके हुए, आँखें धँसी हुई और छाती की हड्डियाँ साफ़ बाँस की खपचियों की तरह दिखाई दे रही थीं। पेट नाँद की तरह फूला हुआ। मार पड़ने पर वह बेतहाशा चिल्ला रहा था,
मैं बरई हूँ, बरई हूँ, बरई
हूँ...
“साला छँटा हुआ चोर है, साहब!” शिवनाथ बाबू
मेरे पास सरक आए थे, “पर यह हमारा-आपका दोष है कि आदमी नहीं पहचानते।
ग़रीबों को देखकर हमारा-आपका दिल पसीज जाता है और मौक़ा-बे-मौक़ा खुद्दी-चुन्नी,
साग-सत्तू दे ही दिया जाता है। आपने तो इसको देखा ही होगा, मालूम होता था महीनों से खाना नहीं मिला है, पर कौन जानता
था कि साला ऐसा निकलेगा। हरामी का पिल्ला...!” फिर भिखमंगे की ओर मुड़कर गरज पड़े-
“बता साले, साड़ी कहाँ रखी है? नहीं वह मार पड़ेगी कि नानी याद आ जाएगी।”
उनका गला ज़ोर से चिल्लाने के कारण किंचित बैठ गया था, इसलिए संभवतः थककर वह चुप हो गए। पीटने वालों ने भी इस समय पीटना बंद कर दिया
था, लेकिन शिवनाथ बाबू के वक्तव्य से रामजी मिश्र का शोहदा पहलवान
लड़का शम्भु अत्यधिक प्रभावित मालूम पड़ा। वह अभी-अभी आया था और शिवनाथ बाबू का बयान
समाप्त होते ही आव देखा न ताव, भीड़ में से आगे लपक, जूता हाथ में ले, गंदी गालियाँ देते हुए भिखमंगे को पीटना
शुरू कर दिया।
“एक-डेढ़ हफ़्ते से मुहल्ले में आया हुआ है”, शिवनाथ बाबू जैसे निश्चिन्त होकर फिर बोले- “लालची कुत्तों
की तरह इधर-उधर घूमा करता था, सो हमारे घर में दया आ गई। एक
रोज़ उसे बुलाकर उन्होंने कटोरे में दाल-भात-तरकारी खाने को दे दी। बस क्या था,
परक गया। रोज़ आने लगा। ख़ैर, कोई बात नहीं थी,
आपकी दया से ऐसे दो-तीन भर-भिखमंगे रोज़ ही खाकर दुआ दे जाते हैं। यह
घर में आने लगा तो मौक़ा पड़ने पर एकाध काम भी कर देता था, अब
यह किसको पता था कि आज यह घर से नई साड़ी चुरा लेगा।”
“आपको ठीक से पता है कि साड़ी इसी ने चुराई है?”
मेरे इस प्रश्न से वे बिगड़ गए। बोले- “आप भी ख़ूब बात करते हैं! यही पता लग गया तो चोर कैसा? मैं तो ख़ूब जानता हूँ कि ये सब चोरी का माल होशियारी से छिपा देते हैं और
जब तक इनकी बड़ी पिटाई न की जाए, कुछ नहीं बताते। अब यही समझिए
कि क़रीब नौ बजे साड़ी ग़ायब हुई। जमुना का कहना है कि उसी समय उसने इसको किसी सामान
के साथ घर से निकलते हुए देखा। फिर मैं यह पूछता हूँ कि आज दस वर्ष से मेरे घर का दरवाज़ा
इसी तरह खुला रहता है, लेकिन कभी चोरी नहीं हुई। आज ही कौन-सी
नई बात हो गई कि वह आया नहीं और मुहल्ले में चोरी-बदमाशी शुरू हो गई! अरे, मैं इन सालों को ख़ूब जानता हूँ।”
वह भिखमंगा अब भी तेज़ मार पड़ने पर चिल्ला उठता- मैं बरई हूँ, बरई हूँ, बरई हूँ... स्पष्ट था कि इतने लोगों को देखकर
वह काफ़ी भयभीत हो गया था और अपने समर्थन में कुछ न पाकर बेतहाशा अपनी जाति का नाम
ले रहा था, जैसे हर जाति के लोग चोर हो सकते हैं, लेकिन बरई कतई नहीं हो सकते।
नए लोग अब भी आ रहे थे। वे क्रोध और उत्तेजना में आकर उसे पीटते
और फिर भीड़ में मिल जाते और जब लगातार मार पड़ने पर भी उसने कुछ नहीं बताया तो लोग
ख़ामख़ाह थक गए। कुछ लोग वहाँ से सरकने भी लगे। किसी ने उसे पेड़ में बाँधने और किसी
ने पुलिस के सुपुर्द करने की सलाह दी। मैं भी कुछ ऐसी ही सलाह देकर खिसकना चाहता था
कि शिवनाथ बाबू का मँझला लड़का योगेन्द्र दौड़ता हुआ आया और अपने पिताजी को अलग ले
जाते हुए फुस-फुस कुछ बातें कीं।
कुछ देर बाद शिवनाथ बाबू जब वापस आए तो उनके चेहरे पर हवाइयाँ-सी
उड़ रही थीं। एक-दो क्षण इधर-उधर तथा मेरी ओर बेचारे की तरह देखने के बाद वह बोले-
“अच्छा, इस बार छोड़ देते हैं। साला काफ़ी पा चुका है,
आइंदा ऐसा करते चेतेगा।”
लोग शिवनाथ बाबू को बुरा-भला कहकर रास्ता नापने लगे। मैंने उनकी
ओर मुस्कुराकर देखा तो मेरे पास आकर झेंपते हुए बोले, “इस बार तो साड़ी घर में ही मिल गई है, पर कोई बात नहीं।
चमार-सियार डाँट-डपट पाते ही रहते हैं। अरे, इस पर क्या पड़ी
है, चोर-चांई तो रात-रातभर मार खाते हैं और कुछ भी नहीं बताते।”
फिर बायीं आँख को ख़ूबी से दबाते हुए दाँत खोलकर हँस पड़े- “चलिए
साहब, नीच और नींबू को दबाने से ही रस निकलता है!”
कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि उस दिन की पिटाई के बाद भी खँडहर
का वह भिखमंगा मुहल्ले में टिके रहने की हिम्मत कैसे कर सका? हो सकता है, उसने सोचा हो कि निर्दोष छूट जाने के बाद
मुहल्ले के लोगों का विश्वास और सहानुभूति उसको प्राप्त हो जाएगी और दूसरी जगह उसी
अनिश्चितता का सामना करना पड़ेगा।
चाहे जो हो, उसके प्रति मेरी दिलचस्पी अब और
बढ़ गई थी। मैं उसको खँडहर में बैठकर कुछ खाते या चुपचाप सोते या मुहल्ले से डग-डग
सरकते हुए देखता। लोग अब उसको कुछ-न-कुछ दे देते। बचा हुआ बासी या जूठा खाना पहले कुत्तों
या गाय-भैंसों को दे दिया जाता, परंतु अब औरतें बच्चों को दौड़ा
देतीं कि जाकर भिखमंगे को दे आएँ। कुछ लोगों ने तो उसको कोई पहुँचा हुआ साधु-महात्मा
तक कह डाला।
और धीरे-धीरे उसने खँडहर का परित्याग कर दिया और आम सहानुभूति
एवं विश्वास का आश्चर्यजनक लाभ उठाते हुए, जब वह किसी-न-किसी
ओसारे या दालान में ज़मीन पर सोने-बैठने लगा तो लोग उससे हल्के-फुल्के काम भी लेने
लगे। दया-माया के मामले में शिवनाथ बाबू से पार पाना टेढ़ी खीर है, किंतु भिखमंगा उनके दरवाज़े पर जाता ही न था।
लेकिन एक दिन उन्होंने किसी शुभ-मुहूर्त में उसे सड़क से गुज़रते
समय संकेत से अपने पास बुलाया और तिरछी नज़र से देखते हुए, मुस्कुराकर बोले- “देख बे, तूने
चाहे जो भी किया, हमसे तो यह सब नहीं देखा जाता। दर-दर भटकता
रहता है। कुत्ते-सुअर का जीवन जीता है। आज से इधर-उधर भटकना छोड़, आराम से यहीं रह और दोनों जून भरपेट खा।”
पता नहीं, यह शिवनाथ बाबू के स्नेह से संभव
हुआ या डर से, पर भिखमंगा उनके यहाँ स्थार्इ रूप से रहने लगा।
उन्हीं के यहाँ उसका नाम-करण भी हुआ। उसका नाम गोपाल था, लेकिन
शिवनाथ बाबू के दादा का नाम गोपाल सिंह था, इसलिए घर की औरतों
की ज़बान से वह नाम उतरता ही न था। उन्होंने उसको 'रजुआ'
कहना आरंभ किया और धीरे-धीरे यही नाम सारे मुहल्ले में प्रसिद्ध हो गया।
किंतु रजुआ के भाग्य में बहुत दिनों तक शिवनाथ बाबू के यहाँ टिकना
न लिखा था। बात यह है कि मुहल्ले के लोगों को यह क़तई पसंद न था कि केवल दोनों जून
भोजन पर रजुआ शिवनाथ बाबू की सेवा करे। जब भगवान ने उनके बीच एक नौकर भेज ही दिया था
तो उस पर उनका भी उतना ही अधिकार था और उन्होंने मौक़ा देखकर उसको अपनी सेवा करने का
अवसर देना आरंभ कर दिया। वह शिवनाथ बाबू के किसी काम से जाता तो रास्ते में कोई न कोई
उसको पैसे देकर किसी काम की फ़रमाइश कर देता और यदि वह आनाकानी करता तो संबंधित व्यक्ति
बिगड़कर कहता- “साला, तू शिवनाथ बाबू का ग़ुलाम
है? वह क्या कर सकते हैं? मेरे यहाँ बैठकर
खाया कर, वह क्या खिलाएँगे, बासी भात ही
तो देते होंगे!”
रजुआ शिवनाथ बाबू से अब भी डरता था, इसीलिए उनसे छिपाकर ही वह अन्य लोगों का काम करता। किंतु उसको पीटने का और
व्यक्तियों को भी उतना ही अधिकार था। एक बार जमुनालाल के लड़के जंगी ने रजुआ से तीन-चार
आने की लकड़ी लाने के लिए कहा और रजुआ फ़ौरन आने का वादा करके चला गया। पर वह शीघ्र
न आ सका, क्योंकि शिवनाथ बाबू के घर की औरतों ने उसे इस या उस
काम में बाँध रखा था। बाद में वह जब जमुनालाल के यहाँ पहुँचा तो जंगी ने पहला काम यह
किया कि दो थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिए, फिर गरजकर बोला- “सुअर, धोखा देता है? कह देता नहीं
आऊँगा। अब आज मैं तुझसे दिन-भर काम कराऊँगा, देखें कौन साला रोकता
है! आख़िर हम भी मुहल्ले में रहते हैं कि नहीं?”
और सचमुच जंगी ने उससे दिन-भर काम लिया। शिवनाथ बाबू को सब पता
लग गया, लेकिन उनकी उदार व्यावहारिक बुद्धि की प्रशंसा किए बिना नहीं रहा जाता,
क्योंकि उन्होंने चूँ तक नहीं की।
ऐसी ही कई घटनाएँ हुई, पर रजुआ पर किसी
का स्थाई अधिकार निश्चित न हो सका। उसकी सेवाओं की उपयोग-संबंधी खींचातानी से उसका
समाजीकरण हो गया। मुहल्ले का कोई भी व्यक्ति उसे दो-चार रुपए देकर स्थाई रूप से नौकर
रखने को तैयार न हुआ, क्योंकि वह इतना शक्तिशाली क़तई न था कि
चौबीस घंटे नौकर की महान ज़िम्मेदारियाँ सँभाल सके। वह तेज़ी के साथ पचीस-पचास गगरे
पानी न भर सकता था, बाज़ार से दौड़कर भारी सामान-सौदा न ला सकता
था, अतएव लोग उससे छोटा-मोटा काम ले लेते और इच्छानुसार उसे कुछ-न-कुछ
दे देते। अब न वह शिवनाथ बाबू के यहाँ टिकता और न जमुनालाल के यहाँ, क्योंकि उसको कोई टिकने ही न देता। इसको रजुआ ने भी समझ लिया और मुहल्ले के
लोगों ने भी। वह अब किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं, बल्कि सारे मुहल्ले
का नौकर हो गया।
रजुआ के लिए छोटे-मोटे कामों की कमी न थी। किसी के यहाँ खा-पीकर
वह बाहर की चौकी या ज़मीन पर सो रहता और सवेरे उठता तो मुहल्ले के लोग उसका मुँह जोहते।
नौकर-चाकर किसी के यहाँ बहुत दिनों तक टिकते नहीं थे और वे भाग-भागकर रिक्शे चलाने
लगते या किसी मिल या कारख़ाने में काम करने लगते। दो-चार व्यक्तियों के यहाँ ही नौकर
थे, अन्य घरों में कहार पानी भर देता, लेकिन वह गगरों के
हिसाब से पानी देता और यदि एक गगरा भी अधिक दे देता तो उसका मेहनताना पाई-पाई वसूल
कर लेता। इस स्थिति में रजुआ का आगमन जैसे भगवान का वरदान था।
लोग उससे छोटा-बड़ा काम लेकर इच्छानुसार उसकी मज़दूरी चुका देते।
यदि उसने कोई छोटा काम किया तो उसे बासी रोटी या भात या भुना हुआ चना या सत्तू दे दिया
जाता और वह एक कोने में बैठकर चापुड़-चापुड़ खा-फाँक लेता। अगर कोई बड़ा काम कर देता
तो एक जून का खाना मिल जाता, पर उसमें अनिवार्य रूप से एकाध चीज़
बासी रहती और कभी-कभी तरकारी या दाल नदारत होती। कभी भात-नमक मिल जाता, जिसे वह पानी के साथ खा जाता। कभी-कभी रोटी-अचार और कभी-कभी तो सिर्फ़ तरकारी
ही खाने या दाल पीने को मिलती। कभी खाना न होने पर दो-चार पैसे मिल जाते या मोटा-पुराना
कच्चा चावल या दाल या चार-छः आलू। कभी उधार भी चलता। वह काम कर देता और उसके एवज़ में
फिर किसी दिन कुछ-न-कुछ पा जाता।
इसी बीच वह मेरे घर भी आने लगा था, क्योंकि मेरी श्रीमतीजी बुद्धि के मामले में किसी से पीछे न थीं। रजुआ आता
और काम करके चला जाता। एक-दो बार मुझसे भी मुठभेड़ हुई, पर कुछ
बोला नहीं।
कोई छुट्टी का दिन था। मैं बाहर बैठा एक किताब पढ़ रहा था कि इतने
में रजुआ भीतर आया और कोने में बैठकर कुछ खाने लगा। मैंने घूमकर एक निगाह उस पर डाली।
उसके हाथ में एक रोटी और थोड़ा-सा अचार था और वह सूअर की भाँति चापुड़-चापुड़ खा रहा
था। बीच-बीच में वह मुस्कुरा पड़ता, जैसे कोई बड़ी मंज़िल
सर करके बैठा हो।
मैं उसकी ओर देखता रहा और मुझे वह दिन याद आ गया, जब चोरी के अभियोग में उसकी पिटाई हुई थी। जब वह खाकर उठा तो मैंने पूछा,
“क्यों रे रजुआ, तेरा घर कहाँ है?”
वह सकपकाकर खड़ा हो गया, फिर मुँह टेढ़ा करके
बोला- “सरकार, रामपुर का रहने वाला हूँ!
और उसने दाँत निपोर दिए।”
“गाँव छोड़कर यहाँ क्यों चला आया?”
मैंने पुनः प्रश्न किया।
क्षण-भर वह असमंजस में मुझे खड़ा ताकता रहा, फिर बोला- “पहले रसड़ा में था, मालिक!” जैसे रामपुर से सीधे बलिया आना कोई
अपराध हो। उसके लिए संभवतः 'क्यों' का कोई महत्त्व नहीं था, जैसे गाँव छोड़ने का जो भी कारण
हो, वह अत्यन्त सामान्य एवं स्वाभाविक था और वह न उसके बताने
की चीज़ थी और न किसी के समझने की।
“रामपुर में कोई है तेरा?” मैंने एक-दो क्षण
उसको ग़ौर से देखने के बाद दूसरा सवाल किया।
“नहीं मालिक, बाप और दो बहनें थीं, ताऊन में मर गई।” वह फिर दाँत
निपोरकर हँस पड़ा।
उसके बाद मैंने कोई प्रश्न नहीं किया। हिम्मत नहीं हुई। वह फ़ौरन
वहाँ से सरक गया और मेरा हृदय कुछ अजीब-सी घृणा से भर उठा। उसकी खोपड़ी किसी हलवाई
की दुकान पर दिन में लटकते काले गैस-लैंप की भाँति हिल-डुल रही थी। हाथ-पैर पतले, पेट अब भी हँडिया की तरह फूला हुआ और सारा शरीर निहायत गंदा एवं घृणित... मेरी
इच्छा हुई, जाकर बीवी से कह दूँ कि इससे काम न लिया करो,
यह रोगी... फिर टाल गया, क्योंकि इसमें मेरा ही
घाटा था। मैं जानता था कि नौकरों की कितनी क़िल्लत थी और रजुआ के रहने से इतना आराम
हो गया था कि मैं हर पहली या दूसरी तारीख़ को राशन, मसाला आदि
ख़रीदकर महीने-भर के लिए निश्चिन्त हो जाता।
“इनख़िलाफ़ ज़िंदाबाद! महात्मा गान्ही की जै!”
कुछ महीने बाद एक दिन जब मैं अपने कमरे में बैठा था कि मुझे रजुआ के नारे
लगाने और फिर 'ही-ही' हँसने
की आवाज़ सुनाई दी। मैं चौंका और मैंने सुना, आँगन में पहुँचकर वह ज़ोर से कह रहा है- “मलिकाइन,
थोड़ा नमक होगा, रामबली मिसिर के यहाँ से रोटियाँ
मिल गई हैं, दाल बनाऊँगा।” मेरी पत्नी चूल्हे-चौके में लगी हुई
थी। उसने कुछ देर बाद उसको नमक देते हुए पूछा- “रजुआ,
सच बताना, तुझे नहाए हुए कितने दिन हो गए?”
“खिचड़ी की खिचड़ी नहाता हूँ न, मलिकाइनजी!” वह नमक
लेकर बोला और हँसते हुए भाग गया।
मैं कमरे में बैठा यह सब सुन रहा
था। संभवतः उसको मेरी उपस्थिति का ज्ञान न था, अन्यथा वह ऐसी बातें न करता। लेकिन यह बात साफ़ थी कि अब वह मुहल्ले में जम
गया है। उसको खाने-पीने की चिंता नहीं है। इतना ही नहीं, अब वह
मुहल्ले-भर से शह पा रहा है। लोग अब उससे हँसी-मज़ाक भी करने लगे हैं और उसे मारे-पीटे
जाने का किंचित मात्र भी भय नहीं। अवश्य यही बात थी और वह स्थिति में परिवर्तन से लाभ
उठाते हुए ढीठ हो गया था। इसीलिए उसने अपने आगमन की सूचना देने के लिए राजनीतिक नारे
लगाए थे, जैसे वह कहना चाहता हो कि मैं हँसी-मज़ाक का विषय हूँ,
लोग मुझसे मज़ाक करें, जिससे मेरे हृदय में हिम्मत
और ढाढस बँधे।
मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। लेकिन कुछ ही दिन बाद मैंने उसकी एक
और हरकत देखी, जिससे मेरे अनुमान की पुष्टि होती थी।
सायंकाल दफ़्तर से आ रहा था कि जीउतराम के गोले के पास मैंने रजुआ
की आवाज़ सुनी। पतिया की स्त्री बर्तन माँज रही थी और उसके पास खड़ा रजुआ टेढ़ा मुँह
करके बोल रहा था- “सलाम हो भौजी, समाचार है न!” अंत में बेमतलब 'ही-ही' हँसने लगा।
पतिया की बहू ने थोड़ी मुस्की काटते हुए सुनाया- “दूर हो पापी, समाचार पूछने का तेरा ही मुँह है?
चला जा, नहीं तो झूठ की काली हाँडी चलाकर वह मारूँगी
कि सारी लफंगई...” यहाँ उसने एक गंदे मुहावरे का इस्तेमाल किया।
लेकिन, मालूम पड़ता था कि रजुआ इतने ही
से ख़ुश हो गया, क्योंकि वह मुँह फैलाकर हँस पड़ा और फिर तुरंत
उसने दो-तीन बार सिर को ऊपर झटका देते हुए ऐसी किलकारियाँ लगाई जैसे घास चरता हुआ गदहा
अचानक सिर उठाकर ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता है।
फिर तो यह उसकी आदत हो गई। सारे मुहल्ले की छोटी जातियों की औरतों
से उसने भौजाई का संबंध जोड़ लिया था। उनको देखकर वह कुछ हल्की-फुल्की छेड़ख़ानी कर
देता और तब वह गधे की भाँति ढीचूँ-ढीचूँ कर उठता।
कुएँ पर पहुँचकर वह किसी औरत को कनखी से निहारता और अंत में पूछ
बैठता- “यह कौन है? अच्छा, बड़की भौजी हैं?
सलाम, भौजी। सीताराम, सीताराम,
राम-राम जपना पराया माल अपना।” इतना कह वह दुष्टतापूर्वक हँस पड़ता।
वह किसी काम से जा रहा होता, पर रास्ते में किसी
औरत को बर्तन माँजते या अपने दरवाज़े पर बैठे हुए या कोई काम करते हुए देख लेता तो
एक-दो मिनट के लिए वहाँ पहुँच जाता, बेहया कि तरह हँसकर कुशल-क्षेम
पूछता और अंत में झिड़की-गाली सुनकर किलकारियाँ मारता हुआ वापस चला जाता। धीरे-धीरे
वह इतना सहक गया कि नीची जाति की किसी जवान स्त्री को देखकर, चाहे वह जान-पहचान की हो या न हो, दूर से ही हिचकी दे-देकर
किलकने लगता।
मेरी तरह मुहल्ले के अन्य लोगों ने भी उसके इस परिवर्तन पर ग़ौर
किया था और संभवतः इसी कारण लोग उसे रजुआ से 'रजुआ साला'
कहने लगे। अब कोई बात कहनी होती, कितने गंभीर काम
के लिए पुकारना होता, लोग उसे 'रजुआ साला'
कहकर बुलाते और अपने काम की फ़रमाइश करके हँस पड़ते। उनकी देखा-देखी
लड़के भी ऐसा ही करने लगे, जैसे 'साला'
कहे बिना रजुआ का कोई अस्तित्व ही न हो और इससे रजुआ भी बड़ा प्रसन्न
था, जैसे इससे उसके जीवन की अनिश्चितता कम हो रही हो और उस पर
अचानक कोई संकट आने की संभावना संकुचित होती जा रही हो।
और अब लोग उसे चिढ़ाने भी लगे। “क्यों बे रजुआ साला, शादी करेगा?”
लोग उसे छेड़ते। रजुआ उनकी बातों पर 'खी-खी'
हँस पड़ता और फिर अपनी आदत के अनुसार सिर को ऊपर की ओर दो-तीन बार झटके
देता हुआ तथा मुँह से ऐसी हिचकी की आवाज़ निकालता हुआ, जो अधिक
कड़वी चीज़ खाने पर निकलती है, चलता बनता। वह समझ गया था कि लोग
उसे देखकर ख़ुश होते हैं और अब वह सड़क पर चलते, गली से गुज़रते,
घर में घुसते, काम की फ़रमाइश लेकर घर से निकलते
और कुएँ पर पानी भरते समय ज़ोरों से चिल्लाकर उस समय के प्रचलित राजनीतिक नारे लगाता
या कबीर की कोई ग़लत-सलत बानी बोलता या किसी सुनी हुई कविता या दोहे की एक-दो पंक्तियाँ
गाता। ऐसा करते समय वह किसी की ओर देखता नहीं, बल्कि टेढ़ा मुँह
करके ज़मीन की ओर देखता मुँह फैलाकर हँस जाता, जैसे वह दिमाग़
की आँखों से देख रहा हो कि उसकी हरकतों को बहुत-से लोग देख-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं।
***
सायंकाल दफ़्तर से आने और नाश्ता-पानी करने के बाद मैं हवा-ख़ोरी
करने निकल जाता हूँ। रेलवे लाइन पकड़कर बाँसडीह की ओर जाना मुझे सबसे अच्छा लगता है।
सरयू पार करके गंगाजी के किनारे घूमना-टहलना कम आनंददायी नहीं है, लेकिन उसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि बरसात में दोनों नदियाँ बढ़कर समुद्र
का रूप ले लेती हैं और जाड़े में इतने दलदल मिलते हैं कि जाने की हिम्मत नहीं होती।
लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मुझे देर हो जाती है या अधिक चलने-फिरने की कोई इच्छा
नहीं होती और स्टेशन के प्लेटफ़ार्म का चक्कर लगाकर वापस लौट आता हूँ।
पंद्रह-बीस दिन के बाद एक दिन सायंकाल स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर
टहलने लगा। स्टेशन के फाटक से प्लेटफ़ार्म पर आने के बाद मैं बायीं तरफ़ जी․आर․पी. की चौकी की ओर बढ़ चला किंतु
कुछ क़दम ही चला था कि मेरा ध्यान रजुआ की ओर गया, जो मुझसे कुछ दूर
आगे था। वह भी उधर ही जा रहा था। मुझे कुछ आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि शहर के काफ़ी लोग दिशा-मैदान के लिए कटहरनाला जाते थे, जो स्टेशन के पास ही बहता है। मैं धीरे-धीरे चलने लगा।
पर रजुआ कटहरनाला नहीं गया, बल्कि जी․आर․पी․की चौकी के पास कुछ ठिठककर खड़ा हो
गया। अब मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। क्या वह किसी मामले में पुलिसवालों के चक्कर में आ गया
है? मेरी समझ में कुछ न आया और उत्सुकतावश मैं तेज़ चलने लगा। आगे बढ़ने पर स्थिति
कुछ-कुछ समझ में आने लगी।
चौकी के सामने एक बेंच पर बैठे पुलिस के दो-तीन सिपाही कोई हँसी-मज़ाक
कर रहे थे और उनसे थोड़ी ही दूरी पर नीचे एक नंगी औरत बैठी हुई थी। वह औरत और कोई नहीं, एक पगली थी, जो कई दिनों से शहर का चक्कर काट रही थी।
उसको मैंने कई बार चौक में तथा एक बार सरयू के किनारे देखा था। उसकी उम्र लगभग तीस
वर्ष होगी और वह बदसूरत, काली तथा निहायत गंदी थी। वह जहाँ जाती,
कुछ लफंगे 'हा-हू' करते उसके
पीछे हो जाते। वे उसको चिढ़ाते, उस पर ईंट फेंकते और जब वह तंग
आकर चीख़ती-चिल्लाती भागती तो लड़के उसके पीछे दौड़ते।
रजुआ उस पगली के पास ही खड़ा था। वह कभी शंकित आँखों से पुलिसवालों
को देखता, फिर मुँह फैलाकर हँस पड़ता और मुटर-मुटर पगली को ताकने लगता। परंतु पुलिसवाले
संभवतः उसकी ओर ध्यान न दे रहे थे।
मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई, किंतु मैं इतना समीप
पहुँच गया था कि अचानक घूमकर लौटना संभव न हो सका। असली बात जानने की उत्सुकता भी थी।
मैं शून्य की ओर देखता हुआ आगे बढ़ा, लेकिन लाख कोशिश करने पर
भी दृष्टि उधर चली ही जाती।
रजुआ शायद पुलिसवालों की लापरवाही का फ़ायदा उठाते हुए आगे बढ़
गया था और सिर नीचे झुकाकर अत्यन्त ही प्रसन्न होकर हँसते हुए पुचकारती आवाज़ में पूछ
रहा था- “क्या है पागलराम, भात खाओगी?”
इतने में पुलिसवालों में से एक ने कड़ककर प्रश्न किया- “कौन है बे साला, चलता बन, नहीं
तो मारते-मारते भूसा बना दूँगा।”
रजुआ वहाँ से थोड़ा हट गया और हँसते हुए बोला- “मालिक, मैं रजुआ हूँ।”
“भाग जा साले, गिद्ध की तरह न मालूम
कहाँ से आ पहुँचा।” संभवतः दूसरे सिपाही ने कहा और फिर वे सभी ठहाका मारकर हँस पड़े।
मैं अब काफ़ी आगे निकल गया था और इससे अधिक मुझे कुछ सुनाई न पड़ा।
मैं जल्दी-जल्दी प्लेटफ़ार्म से बाहर निकल गया।
किंतु, मामला यहीं समाप्त नहीं हो गया।
घर आकर मैंने आँगन में चारपाई डाल, बड़ी मुश्किल से आधा घंटा
आराम किया होगा कि मेरी पत्नी भागती हुई आर्इ और कुछ मुस्कुराती हुई तेज़ी से बोली-
“अरे, ज़रा जल्दी से बाहर आइए तो,
एक तमाशा दिखाती हूँ। हमारी क़सम, ज़रा जल्दी उठिए।”
मैं अनिच्छापूर्वक उठा और बाहर आकर जो दृश्य देखा उससे मेरे हृदय
में एक ही साथ आश्चर्य एवं घृणा के ऐसे भाव उठे जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर सकता। रजुआ
स्टेशन की नंगी पगली के आगे-आगे आ रहा था। पगली कभी इधर-उधर देखने लगती या खड़ी हो
जाती तो रजुआ पीछे होकर पगली की अँगुली पकड़कर थोड़ा आगे ले आता और फिर उसे छोड़कर
थोड़ा आगे चलने लगता तथा पीछे घूम-घूमकर पगली से कुछ कहता जाता। इसी तरह वह पगली को
सड़क की दूसरी ओर स्थित क्वार्टरों की छत पर ले गया। वे क्वार्टर मेरे मकान के सामने
दूसरी पटरी पर बने थे और वे एक-दूसरे से सटे थे। उनकी छतें खुली थीं और उन पर मुहल्ले
के लोग जाड़े में धूप लिया करते और गर्मी में रात को लावारिस लफंगे सोया करते थे।
तभी रजुआ नीचे उतरा, किंतु पगली उसके
साथ न थी। हम लोगों की उत्सुकता बढ़ गई थी कि देखें, वह आगे
क्या करता है। हम लोग वहीं खड़े रहे और रजुआ तेज़ी से स्टेशन की ओर गया तथा कुछ ही
देर में वापस भी आ गया। इस बार उसके हाथ में एक दोना था। दोना लेकर वह ऊपर चढ़ गया
और हम समझ गए कि वह पगली को खिलाने के लिए बाज़ार से कुछ लाया है।
इसके बाद दो-तीन दिन तक रजुआ को मैंने मुहल्ले में नहीं देखा।
उस दिन की घटना से हृदय में एक उत्सुकता बनी हुई थी, इसलिए एक दिन मैंने
अपनी पत्नी से पूछा- “क्या बात है, रजुआ
आजकल दिखाई नहीं देता। अब यहाँ नहीं आता क्या?”
पत्नी ने थोड़ा चौंककर उत्तर दिया- “अरे, आपको नहीं मालूम, उसको किसी
ने बुरी तरह पीट दिया है और वह बरन की बहू के यहाँ पड़ा हुआ है।”
“क्यों, क्या बात है?” मैंने अपनी उत्सुकता प्रकट किए बिना धीमे स्वर में पूछा।
पत्नी ने मुस्कुराकर बताया- “अरे, वही बात है। रजुआ उस पगली को छत पर छोड़ नरसिंह बाबू के यहाँ काम करने लगा।
नरसिंह बाबू की स्त्री बताती हैं कि वह उस दिन बड़ा गंभीर था और काम करते-करते चहककर
जैसे किलकारी मारता है, वैसे नहीं करता था। उसकी तबीअत काम में
नहीं लगती थी। वह एक काम करता और मौक़ा देख कोई बहाना बनाकर क्वार्टर की छत पर जाकर
पगली का समाचार ले आता। नरसिंह बाबू की स्त्री ने जब उसे खाना दिया तो उसने वहाँ भोजन
नहीं किया, बल्कि खाने को एक काग़ज़ में लपेटकर अपने साथ लेता
गया। उसने वह खाना ख़ुद थोड़े खाया, बल्कि उसको वह ऊपर छत पर
ले गया। रात के क़रीब ग्यारह बजे की बात है। रजुआ जब ऊपर पहुँचा तो देखा कि पगली के
पास कोई दूसरा सोया है। उसने आपत्ति की तो उसको उस लफ़ंगे ने ख़ूब पीटा और पगली को लेकर
कहीं दूसरी जगह चला गया।”
“तुम्हें यह सब कैसे मालूम हुआ?” मेरा हृदय एक अनजान
क्रोध से भरा आ रहा था।
“बरन की बहू बता रही थी।” पत्नी ने उत्तर दिया और अकारण ही हँस
पड़ी।
****
बहुत दिन हो गए थे। गर्मी का मौसम था और भयंकर लू चलना शुरू हो
गई थी। छत पर मार खाने के चार-पाँच दिन बाद रजुआ फिर मुहल्ले में आकर काम करने लगा
था। लेकिन उसमें एक ज़बरदस्त परिवर्तन यह हुआ कि उसका स्त्रियों के साथ छेड़ख़ानी करके
गधे की भाँति हिचकना-किलकना बंद हो गया।
“रजुआ ने आजकल दाढ़ी क्यों रख छोड़ी है?”
मैंने पत्नी से पूछा। रजुआ की बात छिड़ने पर मेरी बीवी अवश्य हँस देती।
मुस्कुराकर उसने उत्तर दिया- “आजकल वह भगत हो गया है। बरन की
बहू को उसके कृत्य की सज़ा देने को उसने दाढ़ी बढ़ा ली है और रोज़ाना शनीचरी देवी पर
जल चढ़ाता है।”
मेरे प्रश्नसूचक दृष्टि से देखने पर पत्नी ने अपनी बात स्पष्ट
की- “बात यह है कि रजुआ पिछले महीनों से रात को बरन की बहू के यहाँ ही सोता था और
उससे बुआ का रिश्ता भी उसने जोड़ लिया था। रजुआ दो-चार आने जो कुछ कमाता, वह अपनी 'बुआ' के यहाँ जमा करता
जाता। वह बताता है कि इस तरह करते-करते दस रुपए तक इकट्ठे हो गए हैं। एक बार उसने बरन
की बहू से अपने रुपए माँगे तो वह इंकार कर गई कि उसके पास रजुआ की एक पाई भी नहीं।
रजुआ के दिल को इतनी चोट लगी कि उसने दाढ़ी रख ली। वह कहता है कि जब तक बरन की बहू
को कोढ़ न फूटेगा, वह दाढ़ी न मुड़ाएगा। इसी काम के लिए वह शनीचरी
देवी पर रोज़ जल भी चढ़ाता है।”
शनीचरी देवी का जहाँ तक संबंध है, मुझे अब ख़याल आया। शनीचरी अपने ज़माने की एक प्रचण्ड डोमिन थी। ताड़का की
तरह लंबी-तगड़ी और लड़ने-झगड़ने में उस्ताद। वह किसी से भी नहीं डरती थी और नित्य ही
किसी-न-किसी से मोर्चा लेती थी। एक बार किसी लड़ाई में एक डोम ने शनीचरी की खोपड़ी
पर एक लट्ठ जमा दिया, जिससे उसका प्राणान्त हो गया। लेकिन एक-डेढ़
हफ़्ते बाद ही उस डोम के चेचक निकल आई और वह मर गया। लोगों ने उसकी मृत्यु का कारण
शनीचरी का प्रकोप समझा। डोमों ने श्रद्धा में उसका चबूतरा बना दिया और तब से वह छोटी
जातियों में शनीचरी माता या शनीचरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी।
मैं कुछ नहीं बोला, लेकिन पत्नी ने संभवतः
कुछ उदास स्वर में कहा- “उसको आजकल थोड़ा बुख़ार रहता है। उसका
विश्वास है कि बरन की बहू ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। वह कहता है कि शनीचरी बहुत
चलती देवी हैं। अरे, एक महीने में ही बरन की बहू कोढ़ से फूट-फूटकर
मरेगी।”
पता नहीं, उसका ज्वर टूटा कि नहीं, मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की। बीमार तो वह सदा ही का था। सोचा, शायद उतर गया हो, क्योंकि काम तो वह उसी तरह कर रहा था। हाँ, बीच में उसके चेहरे पर जो चुस्ती और ख़ुशी चमक-चमक उठती, वह तिरोहित हो गई थी। न वह उतना चहकता था, न उतना बोलता था। अपेक्षाकृत वह अधिक गंभीर और सुस्त हो गया। उसकी रुचि धर्म की ओर मुड़ गई और शनीचरी देवी की मन्नत मानते वह अच्छा-भला भगत बन बैठा।
मेरे घर के सामने, सड़क की दूसरी ओर
क्वार्टर में एक पंडित जी रहते हैं। यूँ तो वह लकड़ियाँ बेचते हैं, लेकिन साथ-साथ सत्तू-नमक-तेल वग़ैरा भी रखते हैं। फलस्वरूप उनके यहाँ इक्के-ताँगेवालों
और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती है, जो पंडितजी के यहाँ से सत्तू
लेकर अपनी भूख मिटाते हैं और उनकी दुकान के छायादार नीम के नीचे पाँच-दस मिनट विश्राम
करते हुए ठट्ठा-मज़ाक भी करते हैं। रात को वहीं उनकी मजलिस लगती है।
उस रात गर्मी इतनी थी कि आँगन में दम घुटा जा रहा था। मैं खाने
के पश्चात चारपाई को घसीटते हुए लगभग सड़क के किनारे ले गया। उमस तो यहाँ भी थी, पर अपेक्षाकृत शांति मिली।
मुझे लेटे हुए अभी दो-चार मिनट ही बीते होंगे कि पंडितजी की दुकान
से आती हुई आवाज़ सुनाई पड़ी- तो का हो रज्जू भगत, गोसाई जी का कह
गए हैं? महाबीरजी समुंदर में कूदते हैं तो ताड़का महरानी का कहती
हैं?
सुनो-सुनो, प्रश्नकर्ता की बात के उत्तर में
रजुआ (शायद वह भगत कहलाने लगा था) तत्काल जोश से ऐसे बोला,
जैसे आशंका हो कि यदि वह देर कर देगा तो कोई दूसरा ही बता देगा—“बजरंगबली बड़े जबर थे। वह समुंदर में कुछ दूर तक तैर लेते हैं तो उनको ताड़का
महरानी मिलती हैं। ताड़का महरानी अपना रूप दिखाती हैं तो बजरंगबली किससे कम हैं?
ये मियाँ एढ़े तो हम तुमसे ड्यौढ़े, बजरंगबली भी
उतने ही बड़े हो जाते हैं। इसके बाद ताड़का महरानी और बड़ी हो जाती हैं तो बजरंगबली
मच्छर बनकर ताड़का महरानी के कान से बाहर निकल आते हैं।”
“तो ए रज्जू भगत, गान्ही महात्मा भी
तो जेहल से निकल आते हैं?” किसी दूसरे ने पूछा।
रजुआ ने और ज़ोर से बताया- “सुनो-सुनो,
गान्ही महात्मा को सरकार जब जेहल में डाल देती है तो एक दिन क्या होता
है कि सभी सिपाही-प्यादा के होते हुए भी गान्ही महात्मा जेहल से निकल आते हैं और सबकी
आँखों पर पट्टी बँधी रह जाती है। गान्ही महात्मा सात समुंदर पार करके जब देहली पहुँचते
हैं तो सरकार उन पर गोली चलाती है। गोली गान्ही महात्मा की छाती पर लगकर सौ टुकड़े
हो जाती है और गान्ही महात्मा आसमान में उड़कर ग़ायब हो जाते हैं।”
इसके पूर्व महात्मा गाँधी की मृत्यु का ऐसा दिलचस्प क़िस्सा मैंने
कभी नहीं सुना था, यद्यपि गाँधी की हत्या हुए चार वर्ष
गुज़र गए थे।
उसकी दाढ़ी जैसे-जैसे बढ़ती गई, रजुआ के धर्म-प्रेम
का समाचार भी फैलता गया। निचले तबक़े के लोगों में अब वह 'रज्जू
भगत' के नाम से पुकारा जाने लगा। बड़े लोगों में भी कोई-कोई हँसी-मज़ाक
में उसको इस नाम से सम्बोधित करता, लेकिन उनके कहने पर वह शरमाकर
हँसते हुए चला जाता। पर छोटी जातियों के समाज में वह कुछ-न-कुछ ऐसी कह गुज़रता जो सबसे
अलग होती। अक्सर उनकी मजलिसें रात को पंडितजी की दुकान के आगे जमतीं और रजुआ उनसे राम-सीताजी
की चर्चा करता, भूत-प्रेत, बरनडीह के महत्त्व
पर प्रकाश डालता और झाड़-फूँक, मंत्र-जप की महत्ता समझाता। वे
नाना प्रकार की शंकाएँ प्रकट करते और रजुआ उनका समाधान करता।
लेकिन इतनी धार्मिक चर्चाएँ करने, शनीचरी देवी पर जल चढ़ाने तथा दाढ़ी रखने के बावजूद उसकी मनोकामना पूरी न हुई।
****
शाम को दफ़्तर से लौटा ही था कि बीवी ने चिंतातुर स्वर में सूचना
दी- “अरे, जानते नहीं, रजुआ को हैज़ा
हो गया है।”
उन दिनों गर्मी अपनी चरम सीमा पर थी और गड्ढे तथा बमपुलिस की गली
में, जो शहर के अत्यधिक गंदे स्थान थे, हैज़े की कई घटनाएँ
हो गई थीं। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि रजुआ को हैज़ा न
होता तो और किसको होता!
“ज़िंदा है या मर गया?” मैंने उदासीन स्वर
में पूछा।
मेरी पत्नी ने अफ़सोस प्रकट करते हुए कहा- “क्या बताएँ, मेरा दिल छटपटाकर रह गया। वहीं खँडहर में
पड़ा हुआ है। क़ै-दस्त से पस्त हो गया है। लोग बताते हैं कि आध-एक घंटे में मर जाएगा।”
“कोई दवा-दारू नहीं हुई?”
“कौन उसका सगा बैठा है जो दवा-दारू करता? शिवनाथ बाबू के यहाँ काम कर रहा था, पर जहाँ उसको एक
क़ै हुई कि उन लोगों ने उसको अपने यहाँ से खदेड़ दिया। फिर वह रामजी मिश्र के ओसारे
में जाकर बैठ गया, लेकिन जब उन लोगों को पता लगा तो उन्होंने
भी उसको भगा दिया। उसके बाद वह किसी के यहाँ नहीं गया, खँडहर
में पेड़ के नीचे पड़ गया।”
मैंने जैसे व्यंग्य किया- “तुमने अपने यहाँ क्यों
न बुला लिया?”
पत्नी को यह आशा नहीं थी कि मैं ऐसा प्रश्न करूँगा, इसलिए स्तंभित होकर मुझे देखने लगी। अंत में बिगड़कर बोली- “मैं उसे यहाँ बुलाती, कैसी बात करते हैं आप? मेरे भी बाल-बच्चे हैं, भगवान न करे, उनको कुछ हो गया तो?”
मैं हँस पड़ा, फिर उठ खड़ा हुआ।
ज़रा देख आऊँ, दरवाज़े की ओर बढ़ता हुआ बोला।
“आपके पैरों पड़ती हूँ, उसको छुइएगा नहीं
और झटपट चले आइएगा।” पत्नी गिड़गिड़ाने लगी।
जब मैं खँडहर में पहुँचा तो दो-तीन व्यक्ति सड़क के किनारे खड़े
होकर रजुआ को निहार रहे थे। वे मुहल्ले के नहीं, बल्कि रास्ते चलते
मुसाफ़िर थे, जो रजुआ की दशा देखकर अकर्मण्य दया एवं उत्सुकता
से वहाँ खड़े हो गए थे।
“रजुआ?” मैंने निकट पहुँचकर पूछा।
लेकिन उसको किसी बात की सुध-बुध न थी। वह पेड़ के नीचे एक गंदे
अँगोछे पर पड़ा हुआ था और उसका शरीर क़ै-दस्त से लथपथ था। उसकी छाती की हड्डियाँ और
उभर आई थीं, पेट तथा आँखें धँस गई थीं और गालों में गड़हे बन गए
थे। उसकी आँखों के नीचे भी गहरे काले गड़हे दिखाई दे रहे थे और उसका मुँह कुछ खुला
हुआ था। पहले देखने से ऐसा मालूम होता था कि वह मर गया है, लेकिन
उसकी साँस धीमे-धीमे चल रही थी।
मैं कुछ निश्चय न कर पा रहा था, क्या किया जाए कि
मालूम नहीं कहाँ से शिवनाथ बाबू मेरी बग़ल में आकर खड़े हो गए और धीरे-से उन्होंने
अपनी सम्मति भी प्रकट की- “ही कान्ट सरवाइव—यह बच नहीं सकता।”
मैंने तेज़ दृष्टि से उनको देखा। शिवनाथ बाबू पर तो मुझे ग़ुस्सा
आ ही रहा था, लेकिन अपने ऊपर भी कम झुँझलाहट न थी। कभी जी होता था
कि जाकर घर बैठ रहूँ, जब और लोगों को मतलब नहीं तो मुझे ही क्या
पड़ी है! लेकिन उसे यूँ अपनी आँखों के सामने मरते हुए नहीं देखा जाता था। पर मैं उसका
इलाज भी क्या करवा सकता था? मैं लगभग सौ रुपए वेतन पाता था,
इसके अलावा महीने का अंतिम सप्ताह था, मेरे पास
एक भी पाई नहीं थी। पर उसे अस्पताल भी तो भिजवाया जा सकता है? अचानक मन में विचार कौंधा, मेरी झुँझलाहट जैसे अचानक
दूर हो गई और मैं घूमकर तेज़ी से अस्पताल रवाना हो गया।
अस्पताल पहुँचकर मैंने संबंधित अधिकारियों को सूचित किया। वहाँ
से अस्पताल की मोटरगाड़ी पर बैठकर मैं स्वयं साथ आया। रजुआ की साँस अब भी चल रही थी।
अस्पताल के दो मेहतरों ने, जो साथ आए थे उसको खींचकर गाड़ी
पर लाद दिया। जब गाड़ी चली गई तो मैंने संतोष की साँस ली, जैसे
मेरे सिर से कोई बड़ा बोझ हट गया हो।
सबकी यही राय थी कि रजुआ बच नहीं सकता, परंतु वह मरा नहीं। यदि अस्पताल पहुँचने में थोड़ा भी विलंब हो गया होता तो
बेशक काल के गाल से उसकी रक्षा न हो पाती। अस्पताल में वह चार-पाँच दिन रहा फिर वहाँ
से बरख़ास्त कर दिया गया।
किंतु उसकी हालत बेहद ख़राब थी। वह एकदम दुबला-पतला हो गया था।
मुश्किल से चल पाता और जब बोलता तो हाँफने लगता। न मालूम क्यों, वह अस्पताल से सीधे मेरे घर ही आया। यद्यपि मेरी पत्नी को उसका आना बहुत बुरा
लगा, लेकिन मैंने उससे कह दिया कि दो-चार दिन उसे पड़ा रहने दे,
फिर वह अपने-आप ही इधर-उधर आने-जाने तथा काम करने लगेगा।
वह चार-पाँच दिन रहा, खाने को कुछ-न-कुछ
पा ही जाता। वह कोई-न-काई काम करने की कोशिश करता, पर उससे होता
नहीं। किसी को घर में बैठकर मुफ़्त खिलाना मेरी श्रीमतीजी को बहुत बुरा लगता था,
परंतु सबसे बड़ा भय उनको यह था कि उसके रहने से घर में किसी को हैज़ा
न हो जाए! और एक दिन घर आने पर रजुआ नहीं दिखार्इ पड़ा। पूछने पर बीवी ने बताया कि
वह अपनी तबीअत से पता नहीं कब कहीं चला गया।
वह कहीं गया न था, बल्कि मुहल्ले ही
में था। लेकिन अब वह बहुत कम दिखाई पड़ता। मैंने उसको एक-दो बार सड़क पर पैर घिसट-घिसटकर
जाते हुए देखा। संभवतः वह अपना पेट भरने के लिए कुछ-न-कुछ करने का प्रयत्न कर रहा था
और फिर एक दिन मैंने उसे खँडहर में पुनः पड़ा पाया।
शिवनाथ बाबू अपने दरवाज़े पर बैठकर अपने शरीर में तेल की मालिश
करा रहे थे। मैंने उनसे जाकर नमस्कार करते हुए प्रश्न किया- “रजुआ खँडहर में क्यों पड़ा हुआ है? उसे फिर हैज़ा हुआ
है क्या?”
शिवनाथ बाबू बिगड़ गए- “गोली मारिए साहब,
आख़िर कोई कहाँ तक करे? अब साले को खुजली हुई।
जहाँ जाता है, खुजलाने लगता है। कौन उससे काम कराए! फिर काम भी
तो वह नहीं कर सकता। साहब, अभी दो-तीन रोज़ की बात है,
मैंने कहा एक गगरा पानी ला दो। गया ज़रूर, लेकिन
कुएँ से उतरते समय गिर गए बच्चू। पानी तो ख़राब हुआ ही, गगरा
भी टूट-पिचक गया। मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया कि मेरे घर के अंदर पैर न रखना,
नहीं पैर तोड़ दूँगा। ग़रीबों को देखकर मुझे भी दया-माया सताती है,
पर अपना भी तो देखना है!”
मैं कुछ नहीं बोला और चुपचाप घर लौट आया। इस बार मेरी हिम्मत नहीं
हुई कि जाकर उसे देखूँ या उससे हालचाल पूछूँ।
घर आकर मैंने पत्नी से पूछा- “तुमने रजुआ से कुछ
कहा-सुना तो नहीं था?” मुझे शक था कि बीवी ने ही उसको भगा दिया
होगा और इसीलिए वह मेरे घर नहीं आता। मेरी बात सुनकर श्रीमतीजी अचकचाकर मुझे देखने
लगीं, फिर तिनककर बोलीं- “क्या करती,
रोगी को पालती? कोई मेरा भाई-बंधु तो नहीं!”
मैं क्या कहता?
रजुआ को भयंकर खुजली हो गई थी, लेकिन उसने मुहल्ला
नहीं छोड़ा। वह अक्सर खँडहर में बैठकर अपने शरीर को खुजलाता रहता। खाने की आशा में
वह इधर-उधर चक्कर भी लगाता। कभी-कभी वह मेरे घर के सामने लकड़ी वाले पंडित के यहाँ
आता और पंडितजी थोड़ा सत्तू दे देते। मैंने भी एक-दो बार अपने लड़के के हाथ खाना भिजवा
दिया। इस तरह उसके पेट का पालन होता रहा। उसका चेहरा भयंकर हो गया था-एकदम पीला और
हाथ-पैर जली हुई रस्सी की तरह ऐंठे हुए। वह बाहर कम ही निकलता और जब निकलता तो उसको
देखकर एक अजीब दहशत-सी लगती, जैसे कोई नर-कंकाल चल रहा हो।
***
आषाढ़ चढ़ गया और बरसात का पहला पानी पड़ चुका था। शनिवार का दिन, सवेरे लगभग आठ बजे मैं दफ़्तर का काम लेकर बैठ गया। लेकिन तबीअत लगी नहीं।
बाहर नाली में वर्षा का पानी पूरे वेग से दौड़ रहा था और शरीर पर पुरवाई के झोंके आ
लगते, जिससे मैं एक मधुर सुस्ती का अनुभव कर रहा था। मैंने क़लम
मेज़ पर रख दी और कुर्सी पर सिर टेककर ऊँघने लगा।
यदि एक आहट ने चौंका न दिया होता तो मैं सो भी जाता। मैंने आँखें
खोलकर बाहर झाँका। बाहर ओसारे में खड़ा एक तेरह-चौदह वर्ष का लड़का कमरे में झाँक रहा
था। लड़के के शरीर पर एक गंदी धोती थी और चेहरा मैला था।
मुझे संदेह हुआ कि वह कोई चोर-चाई है, इसलिए मैंने डपटकर पूछा- “कौन है रे, क्या चाहता है?”
लड़का दुबककर कमरे में घुस आया और निधड़क बोला- “सरकार, रजुआ मर गया। उसी के लिए आया हूँ।” मैंने आश्चर्य
से मुँह बाकर एक ही साथ उससे कई प्रश्न किए।
लड़के ने फिर हँसते हुए कहा- “हाँ, सरकार, मर गया। मालिक, इस कारड
पर उसके गाँव एक चिट्ठी लिख दीजिए।”
मैंने इसके आगे रजुआ के संबंध में कुछ न पूछा। मैं अचानक डर गया
कि यदि मैंने मामले में अधिक दिलचस्पी दिखाई तो हो सकता है कि मुझे उसकी लाश फूँकने
का भी प्रबंध करना पड़े।
लड़के के हाथ में एक पोस्टकार्ड था, जिसको लेते हुए मैंने सवाल किया, इस पर क्या लिखना होगा?
उसके गाँव का क्या पता है?
“मालिक, रामपुर के भजनराम बरई के यहाँ लिखना
होगा। लिख दीजिए कि गोपाल मर गया।” लड़के की आवाज़ कुछ ढीठ हो गई थी।
“गोपाल!”
“जी, वहाँ तो उसका यही नाम है।”
मैंने पोस्टकॉर्ड पर तेज़ी से मज़मून तथा पता लिखा और पत्र को
लड़के के हवाले कर दिया।
मैं लड़के से पूछना चाहता था कि तू कौन है? रजुआ कहाँ मरा? उसकी लाश कहाँ है? परंतु मैं कुछ नहीं पूछ सका, जैसे मुझे काठ मार गया हो।
सच कहता हूँ, रजुआ की मृत्यु का समाचार सुनकर
मेरे हृदय को अपूर्व शांति मिली जैसे दिमाग़ पर पड़ा हुआ बहुत बड़ा बोझ हट गया हो।
उसको देखकर मुझे सदा घृणा होती थी और कभी-कभी सोचकर कष्ट होता था कि इस व्यक्ति ने
सदा ऐसे प्रयास किए, जिससे इसको भीख न माँगनी पड़े और उसको भीख
माँगनी भी पड़ी है तो इसमें उसका दोष क़तई नहीं रहा है। मैंने उसकी दशा देखकर कई बार
क्रोधवश सोचा है कि यह कमबख़्त एक ही मुहल्ले में क्यों चिपका हुआ है? घूम-घूमकर शहर में भीख क्यों नहीं माँगता? मुझे कभी-कभी
लगता है कि वह किसी का मुहताज न होना चाहता था और इसके लिए उसने कोशिश भी की,
जिसमें वह असफल रहा। चूँकि वह मरना न चाहता था, इसलिए जोंक की तरह ज़िंदगी से चिमटा रहा। लेकिन लगता है, ज़िंदगी स्वयं जोंक-सरीखी उससे चिमटी थी और धीरे-धीरे उसके रक्त की अंतिम बूँद
तक पी गई।
****
रजुआ को मरे तीन-चार दिन हो गए थे। सारे मुहल्ले में यह समाचार
उसी दिन फैल गया था। मुहल्ले वालों ने अफ़सोस प्रकट किया और शिवनाथ बाबू ने तो यहाँ
तक कह डाला कि जो हो, आदमी वह ईमानदार था!
रात के क़रीब आठ बजे थे और मैं अपने बाहरी ओसारे में बैठा था।
आसमान में बादल छाए थे और सारा वातावरण इतना शांत था जैसे किसी षड्यंत्र में लीन हो!
बग़ल की चौकी पर रखी धुंधली लालटेन कभी-कभी चकमक कर उठती और उसके चारों ओर उड़ते पतंगे
कभी कमीज़ के अंदर घुस जाते, जिससे तबीअत एक असह्य खीझ से भर
उठती।
मैं भीतर जाने के उद्देश्य से उठा कि सामने एक छाया देखकर एकदम
डर गया। रजुआ की शक्ल का नर-कंकाल भीतर चला आ रहा था। सच कहता हूँ, यदि मैं भूत-प्रेत में विश्वास करता तो चिल्ला उठता, 'भूत-भूत!' मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रहा था। नर-कंकाल
धीरे-धीरे घिसटता बढ़ा आ रहा था। यह तो रजुआ ही था-ठठरी मात्र! क्या वह ज़िंदा है?
वह मेरे निकट आ गया। संभवतः मेरी परेशानी भाँपकर बोला- “सरकार, मैं मरा नहीं हूँ, ज़िंदा
हूँ।” अंत में वह सूखे होंठों से हँसने लगा।
“तब वह लड़का क्यों आया था?” मैंने गंभीरतापूर्वक
प्रश्न किया।
उसने पहले दाँत निपोर दिए, फिर बोला- “सरकार, वह गुदड़ी बाज़ार के वचनराम का लड़का है। मैंने
ही उसको भेजा था। बात यह हुई सरकार कि मेरे सिर पर एक कौवा बैठ गया था। हुज़ूर कौवे
का सिर पर बैठना बहुत अनसुभ माना जाता है। उससे मौअत आ जाती है!”
“फिर गाँव पर चिट्ठी लिखने का क्या मतलब?”
मेरी समझ में अब भी कुछ न आया था।
उसने समझाया- “सरकार, यह मौअत वाली बात किसी सगे-संबंधी के यहाँ लिख देने से मौअत टल जाती है। भजनराम
बरई मेरे चाचा होते हैं। मालिक, एक और कारड है, इस पर लिख दें सरकार कि गोपाल ज़िंदा है, मरा नहीं।”
मैंने पूछना चाहा कि तू क्यों नहीं आया, लड़के को क्यों भेज दिया? लेकिन यह सब व्यर्थ था। संभवतः
उसने सोचा हो कि उसका मतलब कोई न समझे और लोग बात को मज़ाक समझकर कहीं दुरदुरा न दें।
मैंने पोस्टकार्ड लेकर उस पर उसकी इच्छानुसार लिख दिया।
पोस्टकार्ड लौटाते समय मैंने उसके चेहरे को ग़ौर से देखा। उसके
मुख पर मौत की भीषण छाया नाच रही थी और वह ज़िंदगी से जोंक की तरह चिमटा था—लेकिन जोंक वह था या ज़िंदगी? वह ज़िंदगी का ख़ून चूस
रहा था या ज़िंदगी उसका? मैं तय न कर पाया।
(अमरकांत की यह कहानी राजेंद्र यादव द्वारा संपादित
‘एक दुनिया
समानांतर’ संकलन में है। यह कहानी उत्तर प्रदेश के
विश्वविद्यालय के परास्नातक के पाठ्यक्रम का अंग है। विद्यार्थियों की सुविधा के
लिए यह कहानी यहाँ अविकल रखी जा रही है। इस कहानी का पाठ आप कथावार्ता के यू ट्यूब चैनल पर भी सुन सकेंगे। - सम्पादक)
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