शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : रोटी (चपाती), हथरोटिया और लिट्टी

आज सुबह नाश्ते में मेरे समक्ष विकल्प था - रोटी या हथरोटिया! हमने हथरोटिया चुना। बरसों हो गए थे खाये! रसोई में लकड़ीवाला चूल्हा और उसपर सिकें हथरोटिया का स्वाद अगर आपने लिया होगा और विकल्प हो कि चाहें तो चुन लें तो उसे पाने के लिए आप जरूर मचल जाएंगे। हमने चुना और मजे में खाया। स्वाद? 'यो ब्रो' वाली पीढ़ी जिसे 'यम्मी' कहती है, वह इस स्वाद से परिचित ही नहीं है। परिचय हो जाये और चबाने के महत्त्व से परिचित हो जाये तो उसे पता चलेगा कि रसोई में हमारी माँ/चाची क्या क्या व्यंजन रान्धती थीं। 
रोटी या चपाती से तो हम परिचित हैं। हथरोटिया अपेक्षाकृत मोटी रोटी होती है। तवे पर सिंकने के बाद इसे चूल्हे में पकने के लिए रखते हैं। आमतौर पर चूल्हे के मुहाने के पास। मद्धिम आंच में पकती है। मीठी होती है। संयुक्त परिवारों में जहां रोटी अधिक पकाना रहता है, बहुएं और रसोई का जिम्मा लेने वाले बाद में हथरोटिया बना लेते हैं। महीन रोटी बेलने के झंझट से निजात मिल जाती है। स्वादिष्ट ऐसी कि पूछिये मत। जिनने नहीं खाया, वह जानते ही नहीं। जान भी नहीं सकते।

एक और चीज है, लिट्टी। गोल। खूब मोटी। समझिए कि दस चपाती की एक मोटी लिट्टी। बेलने के लिए चकला-बेलन आवश्यक नहीं। तवे पर थोड़ी देर सिंकेगी, फिर चूल्हे में। चूल्हे की दीवार के सहारे खड़ी कर दी जाती है। थोड़ी देर देर में उलटते पलटते रहना पड़ता है। जब सिंक कर चइला हो जाये तो खाते हैं। नमक मिर्च भी पर्याप्त है। जिन घरों में पौष्टिक आहार का अभाव था, उसमें लिट्टी हीमोग्लोबिन का जबर स्रोत ठहरी। चूल्हे की आग आयरन की कमी पूरी करती है। नवप्रसूता जब हीमोग्लोबिन की कमी से जूझती थी, यहां उसकी भरपाई करती थी। वे मजदूर जो दिनभर मजूरी करके खटते हैं, शाम को लिट्टी पकाते हैं। जब तक तरकारी पकती है, लिट्टी भी बन जाती है। प्रेमचंद की एक कहानी में मजदूर फावड़े का इस्तेमाल तवे की तरह करते चित्रित हुए हैं। उनपर लिट्टी ही पकेगी, चपाती नहीं। खैर, तो लिट्टी अद्भुत चीज ठहरी। गजब की। स्वाभाविक रूप से मीठी। अन्न कितना मीठा होता है, आप इसे खाकर जान सकते हैं। 
लोगबाग लिट्टी और चोखा से जोड़ सकते हैं। इधर पूर्वांचल का प्रिय व्यंजन है। लेकिन जो लोग अंतर जानते हैं, वह समझ जाएंगे कि यह लिट्टी वह नहीं। लिट्टी चोखा वाली लिट्टी को हम भौरी कहते हैं। आग में नहीं, यह भौर में पकती है। भौर आग के मद्धिम पड़ने पर बची हुई ऊष्मा से बनती है। राख में बची हुई ऊष्मा भौर है। 
बाटी वह है जिसमें पूरन भरते हैं। पूरन आमतौर पर सत्तू का होता है। भौरी में कुछ नहीं डालते। वह स्वयं में पूर्ण होता है। पूरन डाल दिया, यानी उसकी पूर्णता में कोई संदेह था। इसतरह बाटी पूर्ण बनने/बनाने की कोशिश है। जबकि भौरी में शून्य की उपस्थिति है। शून्य मतलब 'कुछ नहीं' नहीं। शून्य का मतलब 'जीरो' नहीं है। यह पूर्णता का प्रतीक है। तो ग्रामीण जिस भौरी का सेवन करते हैं, वह पूर्ण से साक्षात्कार है। हमने कल बाटी खाई। सत्तू का पूरन बना था।

एक और ही व्यंजन है- मकुनी। जब चपाती के बीच में कुछ पूरन भरते हैं तो बनती है मकुनी। सत्तू, आलू, मटर आदि आदि का पूरन हो सकता है। बाद में परांठे बनने लगे तो सब उसी में मिक्स हो गया।
'पूरी' की चर्चा आदरणीय #कुबेरनाथ_राय ने अपने एक निबंध में बहुत मजे से की है।

अब जबकि खाने पीने की चीजों में भी एकरसता आ गयी है। महीन खाने के चक्कर में हम सब अपनी रसोई से विविधता नष्ट कर चुके हैं, एक मोनोपोली कल्चर घर कर गया है और फास्टफूड ने भिन्न स्वाद लेकर हमारे स्वादेन्द्रिय को बदल डाला है, हम इन व्यंजनों से दूर होते जा रहे हैं। 
(चित्र में देखें,हमारे दरवाजे पर खिला हुआ गुलाब और आंवले की हरीतिमा। इस बार आया तो लंगड़ा आम उकठ गया देखा। वह जगह सूनी लग रही।)

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : सात दिन सात किताबें- चयन डॉ गौरव तिवारी

                               

पहला दिन
पुस्तक का नाम- परम्परा का मूल्यांकन
लेखक-रामविलास शर्मा

      अगर यह खेल है तो यह बहुत प्यारा खेल है। आज के मोबाइल और सोशलमीडिया के युग में इस तरह के खेल बहुत जरूरी हैं। एंड्रॉयड फोन के माध्यम से इतना कुछ हमारी मुट्ठी में हो गया है कि लोगों और किताबों से वास्तविक रूप से कटते हुए हम खुद इसकी मुट्ठी में हो गए हैं । ऐसे में उन किताबों, जिन्होंने हमें प्रभावित किया है -की बातें करना अपने अंदर झांकना भी है।
मित्र शंखधर दुबे जी ने सात दिन सात किताबों की अपनी शृंखला में आज मुझे जोड़ा है तो सबसे पहले मैं उस किताब की बात करूंगा जिसने मुझे बहुत हद तक बदला। यह किताब है "परम्परा का मूल्यांकन"। इसके लेखक हैं डॉ रामविलास शर्मा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की कक्षाओं के दौरान मित्र नीलाभ के माध्यम से हिंदी के बड़े अध्येता और आलोचक डॉ नन्दकिशोर नवल सर से परिचय हुआ। नवल जी पटना से इलाहाबाद में संगोष्ठी में आते थे। उनके आने पर हम दोनों उनके आगे पीछे लगे रहते थे। उनके साथ रहना हमें सहज रूप से बहुत अच्छा लगता था। वे सुदर्शन व्यक्तित्व के बुजुर्ग विद्वान थे।  हम लोगों के प्रति उनका स्नेह इतना था कि हर बार हमारे लिए वे कोई न कोई किताब भी लाते थे। हम उनके थकने तक उनसे बात करते। उनकी ट्रेन पटना कुर्ला एक्सप्रेस के रात 12 बजे के आसपास आने तक स्टेशन पर उनसे लिपटे रहते। उनसे जुड़ी कई बातें हैं वे फिर कभी।
एक बार जब वे आए हुए थे। सहज जिज्ञासा से यह पूछने पर कि कुछ ऐसी किताबें बताइये जिन्हें हमें पढ़ना चाहिए। उन्होंने रामविलास जी की "परम्परा का मूल्यांकन" और "भाषा और समाज" का नाम लिया। हमने तुरन्त परम्परा का मूल्यांकन का पेपरबैक संस्करण लिया और उसे पढ़ गए। मुझे लगता है यह 1999-2000 की बात है। उस वक्त मैं बीए भाग तीन में था।
आज सोचता हूँ तो महसूस होता है कि इस किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसने मुझसे हिंदी साहित्य और भारतीय परम्परा का नए ढंग से परिचय कराया। हमें खूब पढ़ने की प्रेरणा दी और भारतीयता के प्रति गर्व की भावना भरी। इस पुस्तक से प्राप्त ज्ञान से हमारी मानसिक बुनावट ही नहीं प्रभावित हुई विषय विशेष पर लिखने का संस्कार भी मिला। जबसे थोड़ी बहुत समझ बनी है तबसे मुझे लगता है कि वाक्य निर्माण, विराम चिह्नों का प्रयोग, पैराग्राफ बदलने का संस्कार आदि बहुत कुछ मुझे इस पुस्तक से प्राप्त हुआ। ऐसी पुस्तक को पढ़कर भी यदि नालायक हूँ तो यह मेरी सीमा है। मुझे लगता है कि साहित्य के विद्यार्थियों को ही नहीं, सबको यह किताब पढ़नी चाहिए। आज एक अध्यापक के रूप में जब मैं अपनी कक्षाओं में टेस्ट लेता हूँ तो सबसे ज्यादा नम्बर पाने वाले के लिए मेरा एक उपहार "परम्परा का मूल्यांकन" भी होता है।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं मित्र रमाकान्त राय डॉ रमाकान्त राय जी जो कि खूब पढ़ते हैं, को जोड़ता हूँ।

दूसरा दिन
पुस्तक का नाम- आधा गाँव
लेखक- राही मासूम रज़ा

सात दिन सात किताब शृंखला के अंतर्गत मित्र शंखधर दुबे द्वारा दिये गए उत्तरदायित्व के अंतर्गत आज मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहूंगा वह है  डॉ राही मासूम रजा का उपन्यास "आधा गाँव"। स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात के बदलते भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव 'गंगौली' के शिया मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मुझे 'हिंदी के मुस्लिम उपन्यासकारों के उपन्यास' पर शोध कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा।
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि पिछले कई दशकों से भारतीय समाज में अलग अलग धर्मों को लेकर इतना खुलापन नहीं है कि भिन्न भिन्न धर्मों के सामान्य लोगों में अपने से भिन्न धर्म वालों के लिए अनेक अफवाहें न हों। मुस्लिम समाज के प्रति मुझ जैसे पृष्टभूमि वाले सामान्य गैर मुस्लिमों में ढेर सारी जिज्ञासाएं और अफवाहें तैरती थीं। इसलिए 'आधा गाँव' मेरे लिए एक अपरिचित दुनिया खोलने वाला उपन्यास था। इसके पहले मेरे लिए मुहर्रम सिर्फ हुसैन साहब की याद में लगने वाला मेला मात्र था। मुहर्रम मेले से ज्यादा एक अलग दुनिया भी है, यह 'आधा गाँव' ने बताया। देश में अलगाव के बीज कैसे बोए गए, परिवार कैसे तबाह हुए, गंगा यमुनी तहजीब को कैसे कलंकित करने की पटकथा रची गई यह सब इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व के भारत में हिन्दू मुस्लिम सह अस्तित्व का स्वरूप, गांवों और परिवारों में अवैध सम्बन्धों की दुनिया, भारत विभाजन का दंश, समय के साथ तादात्म्य न बैठा पाने के कारण पतनोन्मुख होते मुस्लिम जमीदार परिवार के साथ  जिंदादिल और मनबढ़ पत्रों की बेलौस-बिंदास गालियाँ, ये सब एक वास्तविक दुनिया की आत्मीय सैर कराते हैं।
मुझे लगता है आज के दौर में साहित्य के प्रत्येक प्रेमी को तो इस उपन्यास को पढ़ना ही चाहिए। यह उपन्यास मुहर्रम की तरह आपको गमगीन भी करेगा और एक अलग दुनिया में लेजाकर मेला भी कराएगा।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं सात अलग अलग किताबों की चर्चा के लिए मैं अपने पढ़ाकू मित्र डॉ अखिलेश शंखधर जी को नामित करता हूँ।

तीसरा दिन
पुस्तक का नाम- दीवार में एक खिड़की रहती थी 
लेखक-विनोद कुमार शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला में मेरी आज की किताब है हिन्दी के विशिष्ट कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास "दीवार में एक खिड़की रहती थी"। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी में अपने तरह के अकेले लेखक हैं। भाव और भाषा में वे इतने सरल हैं कि अर्थ गाम्भीर्य के प्रतिमान बन जाते हैं।
उक्त उपन्यास के नायक रघुवर प्रसाद हैं जो एक छोटे कस्बे के महाविद्यालय में अध्यापक हैं।  वे नवविवाहित हैं ।उनकी पत्नी का नाम सोनसी है। दोनों एक कमरे के मकान में किराये पर रहते हैं। यह कमरा ही रघुवर और सोनसी की दुनिया है। इसी कमरे में उनका चूल्हा-चौका और शयनकक्ष हैं। कमरे में एक दरवाजा और एक ही खिड़की है। कमरे के अंदर उनकी वास्तविक दुनिया है तो खिड़की के बाहर उनकी कल्पना की दुनिया। कमरे में जीवन का यथार्थ है तो खिड़की के बाहर प्रकृति की गोद में प्यार का आकाश है। खिड़की से बाहर जाने पर रघुवर और सोनसी को एकांत और प्यार के क्षण मिलते हैं। रघुवर जब दरवाजे से बाहर  निकलते हैं तो उनके साथ निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष होता है और जब खिड़की से बाहर निकलते हैं तो निम्नमध्यवर्गीय प्यार,आशाएं और आकांक्षाएं होती हैं।
कथा कहने की विनोद जी की अपनी शैली है। यह शैली इतनी विशिष्ट है कि उपन्यास पढ़ते-पढ़ते नायक-नायिका से ही नहीं, लेखक से भी प्यार हो जाता है । पहली बार पढ़ने के बाद यह उपन्यास मुझे इतना पसंद आया कि मैंने अपने अनेक मित्रों को उपहार रूप में भी दिया। पतला सा यह उपन्यास आपसे आपका एकांत मांगकर आपको अपने एकांत में ले जाता है। इस एकांत में आज के समय की आपाधापी और शोर-शराबा नहीं है। तेज आँधी वाले आज के चिलचिलाते समय में यह उपन्यास फूलों की वादियों से निकली हुई भोर की शीतल मंद बयार है। अगर आपने यह उपन्यास नहीं पढ़ा तो हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि से वंचित रह गए।
सात दिन सात उपन्यास की इस शृंखला को बढ़ाने के लिए आज मैं अनुज मित्र https://www.facebook.com/profile.php?id=100007161274232 को नामित करता हूँ।

चौथा दिन
पुस्तक का नाम- सत्य के साथ मेरे प्रयोग
लेखक- महात्मा गांधी

सात दिन सात किताबें के चौथे दिन मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूँ वह महात्मा गाँधी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" है।
आधुनिक भारत में गाँधी का व्यक्तित्व वटवृक्ष के समान है। वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है। एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं। गांधी जी ऐसे ही थे। गीता, ईशावास्योपनिषद और बुद्ध ने ही नहीं अन्य धर्मों के सांस्कृतिक ग्रन्थों ने भी उनका निर्माण किया था। वे आधुनिक भारत में भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में स्थापित होते हैं और आगे की पीढ़ियों के लिए प्रतिमान रखते हैं। उनसे निकलने वाली शाखाएं अर्थात सच्ची गांधीवादी धारा भी वैसी ही शीतलता प्रदान करती है।
गांधी मनुष्य थे और गलतियां उनसे भी हुई हैं। इन गलतियों के बावजूद वे बहुत बड़े हैं। उनकी निर्मित सामान्य मनुष्य की निर्मिति नहीं है। उनकी निर्मिति को समझने के लिए उक्त पुस्तक आधार पुस्तक है। अगर आज के रीढ़हीन, मूल्यहीन और मनुजताहीन होते समय में हमें महान भारतीय संस्कृति को यदि उसके स्वभाविकता के साथ बचाए रखना है तो हम गांधी को छोड़ नहीं सकते। गांधी को इस पुस्तक के बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस पुस्तक में वे अपनी श्रेष्ठता और न्यूनता के साथ सामने आते हैं।
चुँकि यह पुस्तक भारत की प्रायः प्रत्येक भाषा में उपलब्ध है इसलिए प्रत्येक भारतीय को इस पुस्तक  को जरूर पढ़ना चाहिए।

सात दिन सात किताबों की इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपने मित्र आलोक तिवारी https://www.facebook.com/alok.tiwari.79656921 को नामित करता हूँ।

पांचवाँ दिन
पुस्तक का नाम- हिन्दी कहानी संग्रह
लेखक/सम्पादक- भीष्म साहनी

सात दिन सात किताबें शृंखला के पाँचवे दिन मैं एक सम्पादित किताब का जिक्र करना चाहता हूँ। यह किताब है प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी द्वारा सम्पादित "हिन्दी कहानी संग्रह" जिसे साहित्य अकादमी ने छापा है।
कहने को तो यह एक किताब है लेकिन कथाभूमि और संवेदना के स्तर पर यह विशाल फलक को स्पर्श करती है। साथ ही एके साथ आपको अनेक किताबों से मिलने वाला सुख देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लिखी गई हिंदी की तीस श्रेष्ठ कहानियों को आप यहाँ पर एक साथ पा सकते हैं। ये सभी कहानियां अपने में बेजोड़ हैं और अपने रचनाकारों की रचनात्मकता का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करती हैं। रेणु जी की "लाल पान की बेगम", निर्मल वर्मा की "परिन्दे", मोहन राकेश की "मलबे का मालिक", अमरकांत की "दोपहर का भोजन ", शानी की "दोज़खी", शैलेश मटियानी की "प्रेत मुक्ति", भीष्म साहनी की "वाङ्गचू", राजेन्द्र यादव की "जहाँ लक्ष्मी कैद है", मन्नू भंडारी की "त्रिशंकु", कृष्णा सोबती की "बादलों के घेरे", उषा प्रियम्वदा की "वापसी", मार्कण्डेय की "हंसा जाई अकेला", गिरिराज किशोर की "पेपरवेट", शेखर जोशी की "कोसी का घटवार"...... एक से बढ़कर एक कहानियां हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए आप भावनाओं के समंदर में गोते लगाने को मजबूर होंगे। इनमें से अधिकांश कहानियां आपको हिला देंगी और आपको मनुष्य बनने पर मजबूर करने का प्रयास करेंगी। अगर आप स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हिंदी कहानियों में कुछ को नहीं पढ़ पाए हैं या अधिकांश को पढ़ना चाहते हैं तो यह संग्रह आपके लिए है। इसी तरह का एक और कहानी संग्रह एक दुनिया समानांतर भी है जिसे राजेन्द्र यादव ने सम्पादित किया है। दोनों संग्रहों की लगभग आधी कहानियां समान हैं लेकिन यहां जिस संग्रह की बात की जा रही है उसमें "एक दुनिया समानांतर" से सात-आठ अधिक महत्वपूर्ण कहानियां हैं और इसका मूल्य भी उसके एक तिहाई है।

आज मैं इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पढ़ाकू मित्र और एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व Bano Sahiba को इस आशा से नामित करता हूँ कि उनके चयन हमें समृद्ध करेंगे।
छठा दिन
पुस्तक का नाम- मुर्दहिया
लेखक- तुलसीराम
सात दिन सात किताब शृंखला में आज छठें दिन मेरे द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आज की किताब एक बहुत महत्वपूर्ण आत्मकथा है इसका नाम "मुर्दहिया" है। इसके लेखक प्रो तुलसीराम हैं जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आचार्य रहे हैं।
"मुर्दहिया" हमारे समाज की अत्यंत गरीब और  अस्पृश्य समझी जा रही जाति में जन्में एक ऐसे व्यक्ति के संघर्षों की दास्तान है जो हमारे समाज की गंदगी के कारण सामाजिक रूप से उपेक्षा और घृणा का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दलित समझी माने जाने वाली जाति में में जन्में डॉ तुलसीराम जो बचपन में ही चेचक की गिरफ्त में आकर काने और बदसूरत हो गए थे, ने कलेजा निकाल लेने वाली अपनी इस आत्मकथा में हमारे इस समाज की विद्रूपता और दोमुंहेपन को नंगा करते हुए प्रस्तुत किया है।
दलित कही जाने वाली जातियों के साथ सवर्ण और सामंती कहे जाने वाले लोगों का पाशविक आचरण और व्यवहार हमारे समाज की एक ऐसी सचाई रही है जिससे मुक्ति की कामना के साथ सिर्फ शर्मिंदा ही हुआ जा सकता है। समाज में शिक्षा और आर्थिक स्थिति में हुए परिवर्तनों ने यद्यपि कि इसकी अमानवीय प्रवृत्ति को बहुत कम किया है लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
डॉ तुलसीराम इस आत्मकथा में अपनी जन्मभूमि के इतिहास और भूगोल के साथ ही नहीं वहाँ के रीति-रिवाज, भाषा, रहन-सहन और समाज की कुरीतियों के साथ उपस्थित होते हैं। उन्होंने अपनी इस कृति में बड़े संयत भाव और ईमानदारी से अपने जीवन संघर्ष को प्रस्तुत किया है।
मुझे लगता है जातिगत भेदभाव से युक्त अपने समाज में प्रत्येक व्यक्ति को इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह कृति हमें स्नेह पूर्वक शर्मिंदा करते हुए अपनी न्यूनताओं से मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करती है और समतामूलक समाज के स्थापना की प्रेरणा देती है।

इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए मैं अध्ययनशील और विवेकवान Pritosh Paritosh Mani सर को नामित करता हूँ।

सातवाँ दिन
पुस्तक का नाम- राग दरबारी
लेखक- श्रीलाल शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला के सातवें दिन मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहता हूँ वह व्यंग्य विधा की शास्त्रीय कृति 'राग दरबारी'  है। 'राग दरबारी' हिंदी उपन्यास साहित्य का एक बहुमूल्य नगीना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर चर्चा के दौरान व्यंग्य की परिभाषा देते हुए व्यंग्य उसे माना है जब व्यंग्यकार अधरोष्ठों से मुस्करा रहा हो सुनने वाला तिलमिला जाय लेकिन उसके पास जबाब न हो।
व्यंग्य चुटकुला नहीं है। चटकुला में केवल हास्य होता है। व्यंग्य में व्यवस्था के प्रति पीड़ा से युक्त आक्रोश होता है जो हास्य के भाव के साथ उपजता है। व्यंग्य वह सागर है जो ऊपर से खिलखिलाता तो है लेकिन हृदय में जो है उसे बदलने के लिए बेचैनी और रुदन के साथ। राग दरबारी भी ऐसा ही उपन्यास है।
अटल बिहारी बाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो रविवार को रेडियो पर उनके साक्षात्कार का प्रसारण हो रहा था। साक्षात्कार लेने वाले ने उनसे पूछा कि आप खाली समय में क्या करते हैं ? उन्होंने जबाब दिया कि रागदरबारी पढ़ता हूँ। उन्होंने यह टिप्पणी भी की कि रागदरबारी में जो व्यंग्य है वह अद्वितीय है। उसी साक्षात्कार से प्रभावित होकर मैंने रागदरबारी खरीदा।

रागदरबारी का सबसे प्रमुख पात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक कस्बा शिवपालगंज है। यह शिवपालगंज देश का कोई भी कस्बा हो सकता है। इस कस्बे की पूरी व्यवस्था जिसमें ग्राम प्रधानी भी है और विद्यालय भी, सहकारी बैंक भी है और कारोबार भी, सामंतवाद भी है और अनेक सरकारी अमले भी, पुलिस भी है और न्यायपालिका भी -को  उनके स्वभाविक पतित रूप में लेखक ने सिद्धहस्तता के साथ प्रस्तुत किया है। व्यवस्था में जड़ जमा चुकी अनैतिकता इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है। उपन्यास का प्रत्येक पात्र व्यवस्था को अपने अनुसार करने के लिए कृतसंकल्पित है। ऐसा वह इतनी स्वभाविक निर्लज्जता से करना चाहता है कि व्यंग्य का रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होता है।
इस उपन्यास के पात्र इतने स्वभाविक हैं कि हम आज भी प्रत्येक दूसरे या तीसरे कस्बे में वैद्य जी, प्रधानाचार्य, रंगनाथ, रुप्पन बाबू, लंगड़, छोटा पहलवान और शनिचर आदि को देख लेते हैं। ये पात्र इतने जीवंत हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए आप उन्हें जीने लगते हैं। यह उपन्यास एक ऐसी काल्पनिक कथा है जो किसी प्रमाणिक दस्तावेज से भी अधिक प्रमाणिक है। व्यवस्था के प्रति ऐसा मोहभंग, इतनी निर्ममता और उसे व्यक्त करने की इतनी प्रतिबद्धता मुझे और कहीं नहीं दिखती। रबरस्टम्प जैसे लोगों से व्यवस्था पर नियंत्रण, आर्थिक ताकत और बाहुबल से व्यवस्था को मुट्ठी में रखना, सबसे भ्रष्ट और अनैतिक व्यक्ति द्वारा मञ्च पर सबसे आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत होना आदि अनेक ऐसी बातें हैं जो आज भी वैसी की वैसी बनी हुई हैं। पचास वर्ष पूर्व लिखे गए इस उपन्यास के ढेर सारे रूप पूरे देश में आज भी वैसे ही मौजूद हैं।
यह उपन्यास हम जैसे कइयों का प्यार है। इसलिए कि यह उसी तरह नंगा है जैसे हम अपनी नजरों में होते हैं। इलाहाबाद में मित्रों के साथ पढ़ाई के दौरान देर रात को जब हम थक जाते थे तो हमारा मनोरंजन यह उपन्यास होता था। हम मित्रों में कोई एक, कोई भी चार-छः पृष्ठ वाचन करता था और इन पृष्ठों के व्यंग्य से जो ठहाके निकले थे वे पेट के दर्द और आंखों से निकले आंसुओं के बाद भी देर तक शांत नहीं होते थे। यह उपन्यास कई मामलों में अद्वितीय है। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो यह आपका दुर्भाग्य है।

सात दिन सात किताबों में यह मेरी सातवीं किताब थी। आज मैं इस शृंखला को बढ़ाने के लिए खूब पढ़ने लिखने वाले https://www.facebook.com/vivekanand.upadhyay.73 सर को नामित करता हूँ।
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मैंने जिन सात पुस्तकों की चर्चा सात दिनों में की है  वह उन सातों की अलग अलग विशिष्टता के कारण की है। मैं इन सातों से खुद बहुत प्रभावित हूँ। इनमें गांधी जी की आत्मकथा को छोड़कर शेष सभी स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हैं।
इस चर्चा में रामचरित मानस, राग-विराग, गोदान, शेखर : एक जीवनी, मेरा देश : मेरा जीवन, महाभोज, नाच्यौ बहुत गोपाल, स्त्री उपेक्षिता आदि का जिक्र भी मैं करना चाहता था लेकिन जिनकी चर्चा मैंने की वह फिलहाल मुझे ज्यादा जरूरी लगी।
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शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : धूम धड़क्का डेढ़ सौ

   जब से कॉन्वेंट वाले छैला टू वंजा टू, टू टूजा फोर पढ़ने लगे तब से वह सब मजा जाता रहा जो हिंदी पहाड़े पढ़ते, याद करते और सुनने-सुनाने में मिला करता था। बच्चे पाँच, दस, पन्द्रह और बीस का पहाड़ा सहज ही याद कर लेते थे। नौ और तेरह का पहाड़ा याद हो चाहे नहीं, पन्द्रह और बीस का खूब अच्छे से याद रहता था। कारण था उनकी संगति, तुक और सीधाई।
   दस और बीस का पहाड़ा तो बहुत आसान था। एक और दो के पहाड़े जैसा। लेकिन पन्द्रह का पहाड़ा आसान था अपनी लय और रवानी के कारण।
    पन्द्रह एकम पन्द्रह
    दूना के तीस
    तियाँ पैंतालीस 
    चौके साठ
      जैसी गीतात्मकता किसी अन्य के साथ नहीं है। जब पचे पचहत्तर, छक्का नब्बे की धुन बनती थी तो सत्ते पंजा, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा लहर में चल पड़ती थी और इस आखिरी धप्पे के लिए हम उमगे रहते थे- धूम धड़क्का डेढ़ सौ। जब धूम धड़क्का डेढ़ सौ आता था तो गर्व, ज्ञान और श्रेष्ठता का भाव आस पास मंडराने लगता था। सुनने वाला तारीफ करते नहीं अघाता था क्योंकि उसे इस होनहार पर बहुत स्नेह उमड़ता था। वह स्नेह दिखता था। आसपास की हवा में मधुरता घोल देता था। हमें अपने उस सगे पर गर्व होता था और रिश्ता थोड़ा और मजबूत हो जाता था। फिर बुझौवल सवाल शुरू होते थे। सवाल कुछ यूं होते थे- क नवां मुँह चुम्मा-चुम्मी? क सते गंड़धक्का-धक्की? फिर खुसुर फुसुर, ही ही ही ही शुरू होता।
       आज ऐसे ही चुहल के एक प्रसंग में निकल आयी मुँहचुम्मा-चुम्मी वाली संख्या। जब हम तिरसठ ६३ लिखते हैं तो ६ और ३ की एक सी आकृति आमने-सामने होती है और यह दो संख्याएं एक दूसरे से प्रेम करती प्रतीत होती हैं। जरूर यह किसी प्रेमी जीव की संकल्पना रही होगी जो संख्याओं के साहचर्य को प्रेम और तज्जनित झगड़े से जोड़कर देखने का आग्रह करता है। प्रेमी जीव ऐसे ही होते हैं। हर तरफ प्रिय की छवि देखने वाले। चर-अचर जगत में हर गति प्रेम के क्रियाकलाप से संचालित होती है।
       ललित निबंध की एक किताब देख रहा था। ललित निबंधकार और कई विशेषताओं के साथ एक और खूबी समेटे रहते हैं। कविता की जैसी रससिद्ध व्याख्या ललित निबंधकार करता है वह आलोचक जैसे भूसा भरे रसहीन व्यक्तित्व के पास कहाँ। ललित निबंधकार अपनी मस्ती में दुनिया भर के वाङ्गमय से मन लायक चीजें जोह लाता है और क्रमशः परोसता जाता है। वह किसी भी विषय पर कहीं भी लिखने के लिए स्वतंत्र होता है और उसे संदर्भ देने की आवश्यकता भी नहीं होती। अस्तु,
ललित निबंधकार के यहां एक प्रसंग में 'धर्म' के लक्षणों की विवेचना होने लगी। तमाम पढ़ाकू और विद्वतजन धर्म की परिभाषा के लिए मनु, पाराशर, याज्ञवल्क्य और महाभारत की शरण में जाते हैं और दो पंक्ति में अपनी बात कहकर निकल लेते हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की परिभाषा की गई है कि वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है। जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है। तो उस निबंधकार के यहां यह मूल संस्कृत में था और मेरी दुगुनी ऊर्जा उसका अर्थ संधान करने में लगी। उसका पहला पाठ/उच्चारण ही असामाजिक लगेगा। और अपन उसके अर्थ संधान में लगे रहे। पाया कि बात तो उचित ही कही गयी है, बस तनिक वक्रतायुक्त। खैर।
निबंधकार सामान्य काव्य पंक्ति का विस्तार से अर्थ और व्याख्या करेगा और कठिन तथा उत्सुकता वाले हिस्से को आधा ही कहकर छोड़ देगा। आप खोजते फिरिये कि कालिदास ने 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमललूनं कररुहै रनामुत्तं रत्रं मधु नवमनास्वादितरसम्' लिखा तो इसका अर्थ क्या हुआ। उसका अंश उद्धृत करके वह ललित कुमार आतंक क्यों जमा रहा है और पाठक की क्षुधा शांत क्यों नहीं करता। बहरहाल।


      तो पहाड़े में मुँहचुम्मा चुम्मी और गंड़धक्का-धक्की का मतलब क्या है। हमारी ग्यारहों इंद्रियां रीजनिंग के इस सवाल से जूझती थीं। सभी संभावित अंक में ऐसी रोचक संभावना तलाश होती थी तब तक कोई नया सवाल हमारे लिए तैयार रहता था। कब हम तर्कशक्ति और रीजनिंग की योग्यता प्राप्त कर लेते थे, कब यह सब हमारे ज्ञान जगत का हिस्सा बन जाता था- क्या कहा जा सकता है।
इसलिए आज जब यह पूछने का अवसर आया तो पहाड़े की प्रकृति, पढ़ने के परम्परागत तरीके पर बहुत लाड़ आया। किंडरगार्टन की वर्तमान बोनसाई इन सुखों से वंचित है।
अच्छा! स्मृतियों पर जोर देकर बताइये तो सही 'क नवां इटोलसे?'

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : कद्दू की स्वादिष्ट तरकारी बनाने की विधि!

     रामचरित मानस की बहुत प्रसिद्ध अर्धाली है-
    'इहाँ कुम्हड़ बतिआ कोउ नाहीं।
     जे तरजनी देखि मर जाहीं।।'
     शिव धनुष टूटने के बाद भगवान परशुराम और लक्ष्मण का संवाद चल रहा है। लक्ष्मण परशुराम से कह रहे हैं कि यहां कुम्हड़े के बतिया यानी नवजात फल की बात नहीं हो रही कि तर्जनी दिखा देने से वह मुरझा जाएगा। आप सूर्यवंशी राजकुमारों से बात कर रहे हैं। बहरहाल, रामचरित मानस की यह चौपाई पढ़-सुनकर कुम्हड़े या कद्दू से जैसे वितृष्णा हो गयी थी। यह कोई तरकारी है या फल? कूष्माण्ड फल और बनती है तरकारी। और तो और इस कूष्माण्ड फल का आकार इतना बड़ा होता है कि बिना सामूहिक आयोजन के खप ही नहीं सकता। प्रतापगढ़ और प्रयागराज के विप्र समुदाय के बीच पूड़ी के साथ इसकी तरकारी के कॉम्बिनेशन की लोकप्रियता से मन किञ्चित ललचाया था लेकिन तब भी मैं इसकी तरकारी से चिढ़ता था। भैया को यह पसंद थी। वह जब तब यह लेते आते थे तो एक दिन हमने इसमें कुछ प्रयोग किये और पाया कि कद्दू को कुछ यूं पकाया जाए तो वह जिह्वा पर चढ़ जाती है। आप फॉलो करें!

सामग्री (दो जन के लिए)-
       एक करछुल से कुछ कम सरसों तेल,
पंचफोरन, (पंचफोरन जीरा, कलौंजी, मेथी, सौंफ और राई का बराबर मिश्रण आता है, लेकिन इस व्यंजन के लिए जीरा हटाकर अजवायन का प्रयोग किया जाए।)
कद्दू- आधा किग्रा,
आलू- दो-तीन मंझले आकार के।
लहसुन एक पोटी,
हरी मिर्च,
अदरख और 
नमक स्वादानुसार।

विधि-
        कद्दू और आलू को अलग अलग काट लें। आकार ठीक वैसा हो जैसा पपीता खाने के लिए काटते हैं। नॉन स्टिक कड़ाही में तेल गरम होने के लिए डालें। पंचफोरन डालें। पंचफोरन न हो तो मेथी से काम चला सकते हैं, जीरा नहीं डालना है। फिर लहसुन-मिर्च-अदरक के कटे टुकड़े  डालें। भुनते हुए जब लालिमा झलकने लगे तो आलू डालें। कुछेक मिनट के अंतराल पर कद्दू डाल दें। ध्यान दें कि सारी सामग्री पड़ जाने तक करछुल का प्रयोग नहीं करना है। इस तरह जो परत होगी, उसका क्रम यों होगा-
पंचफोरन-लहसुन-मिर्च-अदरख-आलू और कद्दू। आंच न्यूनतम। ढँक दें। कुछ अंतराल के बाद नमक छिड़क दें। ढँक दें। पकने दें। देखेंगे कि इतना सत्व बन गया है कि तरकारी पक सके। धैर्य रखें। देखते रहें कि कड़ाही से चिपक तो नहीं रहा। जब सत्व कम हो जाये, करछुल का प्रयोग करें। एकाध बार चला दें। सबको मिल जाने दें। कुछ अंतराल के बाद जब आलू पक जाए, (कद्दू पक चुका होगा) उतार लें। अगर हरी धनिया है- बारीक काटकर छिड़क लें। ढँक दें। पाँचेक मिनट के बाद रोटी के साथ  खाएं।
फिर मेरी तारीफ करें।
     धन्यवाद।

नोट- अपने रिस्क पर पकाएं।

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : महात्मा गांधी और विभिन्न सम्प्रदाय

    
       महात्मा गांधी जब इंग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के कई ख्यातिनाम लोगों ने लालच दिया और प्रेरित किया कि गांधी धर्मांतरण कर लें। गांधी को प्रोटेस्टेंट प्रार्थना सभा में ले जाया गया। यह बताना जरूरी है कि वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को मि० बेकर ले गए थे। बेकर जिस संघ का सदस्य था, उस संघ का सदस्य रविवार को यात्रा नहीं करता था। (कोई विद्वान यह बताए कि तथाकथित 'आधुनिक' 'यह ईसाई' 'रविवार' को यात्रा क्यों नहीं करते थे।) बेकर गांधी को लेकर जब गए तो उन्हें इस बात के लिए भी लताड़ा गया कि वह 'काले' व्यक्ति के साथ यात्रा कर रहे हैं। वेलिंग्टन स्टेशन में गांधी को पहले घुसने नहीं दिया गया और होटल में साथ खाने भी नहीं दिया गया। (यह बात इसलिए भी बता रहा हूँ कि 'आधुनिक सभ्यता' वाले अंग्रेज कितने बर्बर थे।)
       वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को निराशा हुई। ईसाई धर्म के ज्ञानी लोग भी गांधी की शंका का समाधान नहीं कर सके। गांधी की नजर में न तो सिद्धांत और न त्याग की दृष्टि से ईसाई धर्म हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ ठहरा। गांधी पर ईसाई प्रार्थना का दांव भी असफल रहा। उनको यह बात अतार्किक लगी कि अकेले ईसा ही भगवान के पुत्र हैं। गांधी के विचार में यदि कोई एक ईश्वर का पुत्र हो सकता है तो धरती पर सभी मानवी ईश्वर का पुत्र हैं।
       ईसाई समुदाय गांधी को गिरिजाघर ले जाने पर तुला था तो उनके विश्वस्त सहयोगी 'अब्दुल्ला सेठ' ने उन्हें इस्लाम से परिचित करवाया। गांधी ने कुरान तो पढ़ा, ईसाई धर्म की दूसरी किताबें भी पढ़ीं लेकिन इस सबसे गांधी के हिन्दू मतों की पुष्टि ही हुई। रायचन्द भाई ने गांधी को जो वाक्य लिख भेजा था, उसका भावार्थ था कि "निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिंदू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है।"
दूसरे धर्म के मिशनरियों के दबाव के बीच गांधी बहुत दृढ़ थे। उन्होंने सबकी सुनी लेकिन आस्था गीता के श्लोकों पर अधिक रखी। उनकी आत्मकथा में गीता के दूसरे अध्याय का 35वां श्लोक बेलाग अनुवाद के साथ आया है, यह पढ़ा जाना चाहिए और धर्म/मिशनरीज/ आधुनिकता/संपन्नता के कई बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।-
    श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मातस्वानुष्ठितात।
    स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:।।
(श्रीमद्भागवतगीता, अध्याय- ३, श्लोक- ३५)

   (ऊँचे परधर्म से नीचा स्वधर्म अच्छा है। स्वधर्म में मौत भी अच्छी है, परधर्म भयावह है।)

महात्मा गांधी को 150 वीं जन्मजयंती पर नमन।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

कथावार्ता : कृष्ण की चेतावनी


रामधारी सिंह "दिनकर"


वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

कथावार्ता : एक बूँद- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।

दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।

लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : पहला दोहा

श्री गुरु चरण सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनउं रघुबर बिमल जस, जो दायक फल चारि।।  श्री हनुमान चालीसा शृंखला परिचय- #श्रीहनुमानचालीसा में ...

आपने जब देखा, तब की संख्या.