शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : रोटी (चपाती), हथरोटिया और लिट्टी

आज सुबह नाश्ते में मेरे समक्ष विकल्प था - रोटी या हथरोटिया! हमने हथरोटिया चुना। बरसों हो गए थे खाये! रसोई में लकड़ीवाला चूल्हा और उसपर सिकें हथरोटिया का स्वाद अगर आपने लिया होगा और विकल्प हो कि चाहें तो चुन लें तो उसे पाने के लिए आप जरूर मचल जाएंगे। हमने चुना और मजे में खाया। स्वाद? 'यो ब्रो' वाली पीढ़ी जिसे 'यम्मी' कहती है, वह इस स्वाद से परिचित ही नहीं है। परिचय हो जाये और चबाने के महत्त्व से परिचित हो जाये तो उसे पता चलेगा कि रसोई में हमारी माँ/चाची क्या क्या व्यंजन रान्धती थीं। 
रोटी या चपाती से तो हम परिचित हैं। हथरोटिया अपेक्षाकृत मोटी रोटी होती है। तवे पर सिंकने के बाद इसे चूल्हे में पकने के लिए रखते हैं। आमतौर पर चूल्हे के मुहाने के पास। मद्धिम आंच में पकती है। मीठी होती है। संयुक्त परिवारों में जहां रोटी अधिक पकाना रहता है, बहुएं और रसोई का जिम्मा लेने वाले बाद में हथरोटिया बना लेते हैं। महीन रोटी बेलने के झंझट से निजात मिल जाती है। स्वादिष्ट ऐसी कि पूछिये मत। जिनने नहीं खाया, वह जानते ही नहीं। जान भी नहीं सकते।

एक और चीज है, लिट्टी। गोल। खूब मोटी। समझिए कि दस चपाती की एक मोटी लिट्टी। बेलने के लिए चकला-बेलन आवश्यक नहीं। तवे पर थोड़ी देर सिंकेगी, फिर चूल्हे में। चूल्हे की दीवार के सहारे खड़ी कर दी जाती है। थोड़ी देर देर में उलटते पलटते रहना पड़ता है। जब सिंक कर चइला हो जाये तो खाते हैं। नमक मिर्च भी पर्याप्त है। जिन घरों में पौष्टिक आहार का अभाव था, उसमें लिट्टी हीमोग्लोबिन का जबर स्रोत ठहरी। चूल्हे की आग आयरन की कमी पूरी करती है। नवप्रसूता जब हीमोग्लोबिन की कमी से जूझती थी, यहां उसकी भरपाई करती थी। वे मजदूर जो दिनभर मजूरी करके खटते हैं, शाम को लिट्टी पकाते हैं। जब तक तरकारी पकती है, लिट्टी भी बन जाती है। प्रेमचंद की एक कहानी में मजदूर फावड़े का इस्तेमाल तवे की तरह करते चित्रित हुए हैं। उनपर लिट्टी ही पकेगी, चपाती नहीं। खैर, तो लिट्टी अद्भुत चीज ठहरी। गजब की। स्वाभाविक रूप से मीठी। अन्न कितना मीठा होता है, आप इसे खाकर जान सकते हैं। 
लोगबाग लिट्टी और चोखा से जोड़ सकते हैं। इधर पूर्वांचल का प्रिय व्यंजन है। लेकिन जो लोग अंतर जानते हैं, वह समझ जाएंगे कि यह लिट्टी वह नहीं। लिट्टी चोखा वाली लिट्टी को हम भौरी कहते हैं। आग में नहीं, यह भौर में पकती है। भौर आग के मद्धिम पड़ने पर बची हुई ऊष्मा से बनती है। राख में बची हुई ऊष्मा भौर है। 
बाटी वह है जिसमें पूरन भरते हैं। पूरन आमतौर पर सत्तू का होता है। भौरी में कुछ नहीं डालते। वह स्वयं में पूर्ण होता है। पूरन डाल दिया, यानी उसकी पूर्णता में कोई संदेह था। इसतरह बाटी पूर्ण बनने/बनाने की कोशिश है। जबकि भौरी में शून्य की उपस्थिति है। शून्य मतलब 'कुछ नहीं' नहीं। शून्य का मतलब 'जीरो' नहीं है। यह पूर्णता का प्रतीक है। तो ग्रामीण जिस भौरी का सेवन करते हैं, वह पूर्ण से साक्षात्कार है। हमने कल बाटी खाई। सत्तू का पूरन बना था।

एक और ही व्यंजन है- मकुनी। जब चपाती के बीच में कुछ पूरन भरते हैं तो बनती है मकुनी। सत्तू, आलू, मटर आदि आदि का पूरन हो सकता है। बाद में परांठे बनने लगे तो सब उसी में मिक्स हो गया।
'पूरी' की चर्चा आदरणीय #कुबेरनाथ_राय ने अपने एक निबंध में बहुत मजे से की है।

अब जबकि खाने पीने की चीजों में भी एकरसता आ गयी है। महीन खाने के चक्कर में हम सब अपनी रसोई से विविधता नष्ट कर चुके हैं, एक मोनोपोली कल्चर घर कर गया है और फास्टफूड ने भिन्न स्वाद लेकर हमारे स्वादेन्द्रिय को बदल डाला है, हम इन व्यंजनों से दूर होते जा रहे हैं। 
(चित्र में देखें,हमारे दरवाजे पर खिला हुआ गुलाब और आंवले की हरीतिमा। इस बार आया तो लंगड़ा आम उकठ गया देखा। वह जगह सूनी लग रही।)

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