बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

कथावार्ता : महात्मा गांधी और विभिन्न सम्प्रदाय

    
       महात्मा गांधी जब इंग्लैण्ड और दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहां उन्हें ईसाई और मुस्लिम समुदाय के कई ख्यातिनाम लोगों ने लालच दिया और प्रेरित किया कि गांधी धर्मांतरण कर लें। गांधी को प्रोटेस्टेंट प्रार्थना सभा में ले जाया गया। यह बताना जरूरी है कि वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को मि० बेकर ले गए थे। बेकर जिस संघ का सदस्य था, उस संघ का सदस्य रविवार को यात्रा नहीं करता था। (कोई विद्वान यह बताए कि तथाकथित 'आधुनिक' 'यह ईसाई' 'रविवार' को यात्रा क्यों नहीं करते थे।) बेकर गांधी को लेकर जब गए तो उन्हें इस बात के लिए भी लताड़ा गया कि वह 'काले' व्यक्ति के साथ यात्रा कर रहे हैं। वेलिंग्टन स्टेशन में गांधी को पहले घुसने नहीं दिया गया और होटल में साथ खाने भी नहीं दिया गया। (यह बात इसलिए भी बता रहा हूँ कि 'आधुनिक सभ्यता' वाले अंग्रेज कितने बर्बर थे।)
       वेलिंग्टन कन्वेंशन में गांधी को निराशा हुई। ईसाई धर्म के ज्ञानी लोग भी गांधी की शंका का समाधान नहीं कर सके। गांधी की नजर में न तो सिद्धांत और न त्याग की दृष्टि से ईसाई धर्म हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ ठहरा। गांधी पर ईसाई प्रार्थना का दांव भी असफल रहा। उनको यह बात अतार्किक लगी कि अकेले ईसा ही भगवान के पुत्र हैं। गांधी के विचार में यदि कोई एक ईश्वर का पुत्र हो सकता है तो धरती पर सभी मानवी ईश्वर का पुत्र हैं।
       ईसाई समुदाय गांधी को गिरिजाघर ले जाने पर तुला था तो उनके विश्वस्त सहयोगी 'अब्दुल्ला सेठ' ने उन्हें इस्लाम से परिचित करवाया। गांधी ने कुरान तो पढ़ा, ईसाई धर्म की दूसरी किताबें भी पढ़ीं लेकिन इस सबसे गांधी के हिन्दू मतों की पुष्टि ही हुई। रायचन्द भाई ने गांधी को जो वाक्य लिख भेजा था, उसका भावार्थ था कि "निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिंदू धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्मों में नहीं है।"
दूसरे धर्म के मिशनरियों के दबाव के बीच गांधी बहुत दृढ़ थे। उन्होंने सबकी सुनी लेकिन आस्था गीता के श्लोकों पर अधिक रखी। उनकी आत्मकथा में गीता के दूसरे अध्याय का 35वां श्लोक बेलाग अनुवाद के साथ आया है, यह पढ़ा जाना चाहिए और धर्म/मिशनरीज/ आधुनिकता/संपन्नता के कई बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है।-
    श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मातस्वानुष्ठितात।
    स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह:।।
(श्रीमद्भागवतगीता, अध्याय- ३, श्लोक- ३५)

   (ऊँचे परधर्म से नीचा स्वधर्म अच्छा है। स्वधर्म में मौत भी अच्छी है, परधर्म भयावह है।)

महात्मा गांधी को 150 वीं जन्मजयंती पर नमन।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

गांधी जी के इस पक्ष पर बात नहीं होती। आपने परिचर्चा का प्रारम्भ कर साहस का परिचय दिया है।

Satyagraphy ने कहा…

������������
👍

Jitendra Kumar ने कहा…

Nice discussion

Kathavarta
Dr Rama Kant Roy sir

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