रविवार, 15 मार्च 2020

कथावार्ता : आधा गाँव के हिन्दू



आज 15 मार्च को राही मासूम रज़ा की पुण्यतिथि है। 15 मार्च, 1992 को उनका निधन हुआ था। 'आधा गाँव' उनका बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है। यद्यपि उनका यह उपन्यास शिया मुसलमानों के जीवन की गाथा है लेकिन उसमें गाँव से बाहर के कुछ लोगों की अनिवार्य आवाजाही है। इनमें कुछ हिन्दू चरित्र भी हैं। इस शोध आलेख में आधा गाँव के हिन्दू चरित्रों को समझने की कोशिश की गयी है। राही मासूम रज़ा को विनम्र श्रद्धांजलि सहित यह आलेख!



राही मासूम रज़ा का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आधा गाँव’ (1966) हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में एक है। ‘वर्तमान साहित्य’ के ‘शताब्दी कथा साहित्य’ अंक में सदी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ को स्थान मिला था। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर के एक गाँव ‘गंगौली’ को इसका कथा स्थल बनाया गया है। शिया मुसलमानों की जिन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज यह उपन्यास स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एवं बाद के कुछ वर्षों की कथा कहता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पाकिस्तान के वजूद में आने एवं जमींदारी उन्मूलन ने मियाँ लोगों की जिन्दगी में जो हलचल मचाई,  उसकी धमक इस उपन्यास में सुनाई पड़ती है। मुहर्रम का सियापा;  जो इस उपन्यास का मूल कथा-सूत्र हैअपनी मनहूसियत एवं उत्सव के मिले-जुले रूप के साथ पूरे उपन्यास में पार्श्व संगीत की तरह बजता है और अंततः शोक आख्यान में तब्दील हो जाता है।


राही मासूम रज़ा ने ‘आधा गाँव’ को गंगौली के आधे हिस्से की कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। उनके लिए यह उपन्यास कुछ-एक पात्रों की कहानी नहीं बल्कि समय की कहानी है। बहते हुए समय की कहानी। चूँकि समय धार्मिक या राजनीतिक नहीं होता और न ही उसके सामाजिक वर्ग/जाति विभेद किए जा सकते हैंअतः उसके प्रवाह में आए पात्रों का विभाजन भी संभव नहीं। हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक खाँचे में रखकर देखना तो और भी बेमानी होगा। बावजूद इसके अध्ययन का एक तरीका यह है कि यदि मानव समाज धार्मिक खाँचों में बँटा हैउसकी राजनीतिक चेतना पृथक् है और कालगतदेशगत एवं जातिगत विशिष्टता मूल्य निर्धारण में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करती है तो उन भिन्नताओं में उनको विश्लेषित करना बामानी हो जाता है।
आधा गाँव’  गंगौली के आधे हिस्से की कहानी है जिसमें उत्तरपट्टी और दक्खिनपट्टी के मीर साहेबान रहते हैं। उपन्यास में प्रमुख रूप से इन्हीं मीर साहेबानों की कथा कही गयी है। इस उपन्यास में कई ऐसे पात्र भी आए हैं जो उत्तरपट्टी अथवा दक्खिनपट्टी के नहीं है और कुछ ऐसे हैं जो गंगौली के नहीं हैं और इनमें कई ऐसे भी हैं जो मुसलमान नहीं अपितु हिन्दू हैं। ‘आधा गाँव’ भारतीय संस्कृति के गंगा-जमुनी तहजीब से तैयार एक प्रामाणिक दस्तावेज़ है जिसे यदि मीर साहेबान अर्थात् शिया सैय्यद मुसलमानों के रीति-रिवाजों एवं आंचलिकता के विमर्श से आगे परिभाषित किया जाय तो यह विभाजन एवं साम्प्रदायिकता से सीधा साक्षात्कार करता है। चूँकि विभाजन एवं साम्प्रदायिकता का प्रश्न हिन्दू समुदाय से सीधा जुड़ता है अतः उपन्यास में आए हिन्दू पात्रों पर चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा।
गंगौली में मियाँ लोगों के साथ-साथ जुलाहोंभरोंअहीरों एवं चमारों के घर हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द एवं जमींदारी का चक्र कुछ ऐसा है कि मियाँ लोगों के लिए बेगार ये नीची जाति के हिन्दू करते हैं। मुहर्रम के ताजिए के पीछे लठ्ठबंद अहीरोंभरों एवं चमारों का गोल रहता है जो उत्तरपट्टी-दक्खिनपट्टी के फौजदारी में लाठियाँ चलाने से परहेज नहीं करता। गया अहीरजो हम्माद मियाँ का लठैत हैताजिएदारी के समय होने वाली लड़ाई में जब मौलवी बेदार के ऊपर लाठी छोड़ता है तो वे आश्चर्य से भर जाते हैं। इसका अंकन देखिए- ‘‘गया ने जो ‘बजरंग बली की जय’ बोलकर एक हाथ दिया तो मौलाना घबरा गए। बोले, ‘अबे हरामजादे! तैं हम्मे मरबे!’’ (आधा गाँव, पृष्ठ-76) यहां मौलाना साहब के कथन में हिकारत भी है कि उनपर एक नीची जाति के हिन्दू बेगार ने हाथ उठाया है। वे उन शिया सैय्यदों में हैंजो अछूतों के छू देने भर से अपवित्र हो जाते हैं और अपने घर के पास स्थित हौज में पाक होने के लिए नहाते रहते हैं। लेकिन ये लोग इन मीर साहेबानों की जिन्दगी का अनिवार्य अंग हैं क्योंकि मुहर्रम के ताजिए के पीछे जिन हजार-पाँच सौ आदमियों की भीड़ होती उनमें प्रमुख रूप से ‘‘गाँव की राकिनेंजुलाहिनेंअहीरनेंऔर चमाइनें होती थीं।’’ ताजिए के पीछे एवं आगे लठ्ठबंद अहीरों का गोल रहता था और जब बड़ा ताजिया हिन्दू मुहल्लों से गुजरता था तो लोग न सिर्फ बलाएँ लेते थेमनौतियाँ रखते थे अपितु उलतियाँ गिरवाने के लिए सिफारिशें तक करते थे। राही मासूम रज़ा मुहर्रम के जुलूस ही नहींसमूचे उत्सव को जिस भारतीय त्यौहार की तरह प्रस्तुत करते हैंवह गंगा-जमुनी तहजीब की विशिष्ट पहचान है। गुलशेर खाँ ‘शानी’ के ‘काला जल’ में भी ‘दुलदुल (मुहर्रम का घोड़ा) के पीछे चलने वाली हिन्दू जनमानस का उल्लेख है और बदीउज्जमाँ के ‘छाको की वापसी’ का मुहर्रम भी इन्हीं विवरणों से प्रामाणिक बनता है। मैदानी भारत के सांस्कृतिक जीवन में साम्प्रदायिक सौहार्द की यह बानगी सहज है। मुहर्रम के विषय में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि यह त्यौहार भारत आकर बहुत बदल गया है और मूल रूप में सात दिन का मातम दस दिन का हो गया है। राही मासूम रज़ा इस त्यौहार की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘‘होली,  दिवाली और दशहरा की तरह मुहर्रम भी एक ठेठ हिन्दुस्तानी त्यौहार है। .........मुहर्रम केवल हुसैन की यादगार मनाने का नाम नहीं है। मुहर्रम नाम है मंदिरों की तरह खूबसूरत ताजिए बनाने का। .........मजे की बात यह है कि इन ताजियों पर फूल चढ़ाना एक हिन्दू परम्परा है। बस,  फूल चढ़ते ही बेजान ताजियों में जान पड़ जाती है और ये देवता बन जाते हैं और लोग हिन्दू और हिन्दू आत्मावाले हिन्दुस्तानी मुसलमान इन ताजियों से सवाल करने लगते हैं।’’(राही मासूम रज़ाखुदा हाफिज कहने का मोड़,  पृष्ठ-146-147) लेखक ने इस दस दिनी उत्सव को दशहरा के दस दिनी आयोजन से प्रभावित कहा है। मान्यता है कि इमाम हुसैन के पक्षधर ब्राह्मणों का एक समुदाय हुसैनी ब्राह्मणों के रूप में आज भी कश्मीर में है और शिया मुसलमानों का मानना है कि मुहर्रम के इन दस दिनों में इमाम साहब कर्बला से हिजरत करके भारत आ जाते हैं। आशय यह कि यह त्यौहार पूर्णतः भारतीय रंग में रंग गया है और इसकी पहचान मुसलमान धर्म तक सीमित नहीं है।
आधा गाँव’ के हिन्दू पात्रों का विवेचन इस दृष्टिकोण से करना और भी महत्वपूर्ण होगा कि बहुप्रचारित साम्प्रदायिक मानसिकता का कैसा रूप उनमें है। क्या वैसा ही जैसा कि आज साम्प्रदायिकता फैलाने वाले सामुदायिक हितों के आधार रूप में रखते हैं। उपन्यास के कुछ प्रमुख हिन्दू पात्रों का विवरण इस प्रकार है-
1. ठाकुर हरनारायन प्रसाद- ठाकुर हरनारायन प्रसाद थाना कासिमाबाद के दारोगा हैं। गाज़ीपुर का यह थाना जिस तालुका में आता है वह करइल मिट्टी वाला है। यह करइल क्षेत्र खूब उपजाऊ है। यह फ़ौजदारी,  क़तल,  डकैती,  और जमींदारी ठाठ के लिए विख्यात है। ‘‘करइल का इलाका था। काली मिट्टी पानी पड़ते ही सोना उगलने लगती थी। इसलिए इन लोगों के पास वक्त बहुत था और लोग थे बीहड़। कानून अपनी जगह लेकिन अगर कोई बात शान के खिलाफ़ हो गई तो थाना फुँक गया।’’ उपन्यास में ठाकुर हरनारायन प्रसाद से पहले के दो दारोगाओं का उल्लेख है, जिन्हें फुन्नन मियाँ ने नीचा दिखाया था। इस कारण फुन्नन मियाँ सहज ही सरकार की नज़र में चढ़े हुए थे जिनका रौबदार और बहादुर चरित्र सत्ता से सीधे टकरा जाने से और भी भव्य हो गया है। हरनारायन प्रसाद की दिलचस्पी भी फुन्नन मियाँ में है। साम्प्रदायिकता जैसी कोई भावना उनमें नहीं,  हालांकि वे कट्टर हिन्दू हैं। वे मुसलमानों का छुआ नहीं खाते,  इसीलिए जब कभी उनका दौरा गंगौली के लिए होता था,  हिंदुओं की सेवाएँ ली जाती थीं, जो ठाकुर साहब के लिए खाने-पीने का इंतजाम करते थे। (‘‘पंडित मातादीन बुलाए गए। उन्होंने ठाकुर साहब के लिए शरबत बनाया। तमोली उनके लिए पान लाया और खुद बेचू हलवाई एक दोने में गुड़ के ताज़ा लखटे लाया।’’ आधा गाँव,  पृष्ठ-83) उनके सहयोगी समीउद्दीन खाँ शिया मुसलमान हैं। ठाकुर साहब की उनसे खूब अच्छी बैठती है। खुशनुमा क्षणों में वे धर्म आदि मुद्दों पर मज़ाक भी कर लेते हैं- ‘‘वाह! यह भी कोई मजहब हुआ कि खुद पैगम्बर साहब ने नौ-नौ ब्याह कर डाले और बाक़ी मुसलमानों को चार शादियों पर टरका दिया।’’ कट्टर हिन्दू ठाकुर साहब की रखैल गुलाबी जान भी कट्टर मुसलमान है। इसके बावजूद ठाकुर साहब को उसके साथ सोने से परहेज नहीं था। अलबत्ता गुलाबी जान ठाकुर साहब के साथ सोने के बाद नहाती थी। सहअस्तित्व का यह जीवन निर्बाध और अकुण्ठ भाव से चल रहा था। राही संकेत करते हैं कि अपने-अपने धार्मिक वैयक्तिकता को सुरक्षित रखते हुए लोग जिए जा रहे थे।
ठाकुर हरनारायन प्रसाद अंग्रेजी हुकूमत के प्रतिनिधि हैं। वे अंग्रेजी शोषण के माध्यम भी हैं और उपभोक्ता भी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत के लिए चंदा उगाही करते समय उनका शोषक एवं घूसखोर चरित्र स्पष्टतः उभरता है। ‘‘उन्होंने तय किया था कि गोबरधन को सिर्फ़ हजार की रसीद दी जाएगी। .......उन्होंने तय किया कि वार-फंड के लिए बीस हजार और अपने लिए तीस हजार जमा करेंगे। गोबरधन की रकम से उनके तीस हजार पूरे हो रहे थे और वार-फंड भी अठारह हजार तक पहुँच रहा था।’’ वे इस किस्म के घूसखोर हैं कि दोनों पक्षों से रिश्वत ले लेने में गैरत नहीं महसूस करते। इस प्रक्रिया में यदि किसी बेकसूर को फाँसी भी हो जाए तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। ‘‘जिस तरह थानेदार कासिमाबाद को उत्तरपट्टी के मोहर्रम के बजट से एक सौ रूपये दिए गए थे,  उसी तरह दक्खिनपट्टी की ताजिएदारी की मद से थानेदार क़ासिमाबाद को तीन सौ रूपये दिए गए कि कोमिला को फाँसी तो न हो,  लेकिन सजा जरूर हो जाय। थानेदार ठाकुर हरनारायन प्रसाद सिंह ने सोचा कि इसमें आखि़र उनका क्या नुकसान है इसीलिए यह बात भी तय हो गई।’’
दारोगा हरनारायन प्रसाद की फुन्नन मियाँ के प्रति दुर्भावना राजभक्ति से प्रेरित थी। फुन्नन मियाँ ने दारोगा शिवधन्नी सिंह और शरीफुद्दीन को नीचा दिखाया था और ठाकुर साहब के लिए भी परेशानी का सबब बने हुए थे। इसलिए उनकी व्यक्तिगत सी प्रतीत होने वाली खुन्नस में साम्प्रदायिकता खोजना बेमानी है। सन् बयालीस के आंदोलन में जब थाना क़ासिमाबाद फूँक दिया गया और ठाकुर साहब को जि़न्दा जला दिया गया तो इसके परिपार्श्व में कतई हिन्दू-मुसलमान का भाव नहीं था बल्कि भीड़ में से अधिकांश थानेदार और अंग्रेज बहादुर के सताए हुए लोग थे। ‘‘इस मजमें में ऐसे लोग कम थे जिन्हें ‘हिन्दुस्तान छोड़ दो’ के नारे की खबर रही हो। उनमें ऐसे लोग भी नहीं थेजिन्हें आजादी का मफ़हूम मालूम हो। ये लोग वे थे,  जिनसे ड्योढ़ा लगान लिया गया था,  जिनके खेतों का अनाज छीन लिया गया था,  जिनसे जबरदस्ती वार-फंड लिया गया था,  जिनके भाई-भतीजे लड़ाई में काम आ गए थे या काम आने वाले थे और जिनसे थाना-क़ासिमाबाद कई पुश्तों से रिश्वत ले रहा था।’’ इस शोषक चरित्र की वजह से जिन्दा जला दिए जाने के बाद भी उनके लिए सहानुभूति नहीं होती।

2. बारिखपुर के ठाकुर (कुँवरपाल सिंहपृथ्वीपाल सिंहजयपाल सिंहहरपाल सिंह)- बारिखपुर गंगौली से कुछ दूरी पर स्थित गाँव है जहाँ के जमींदार ठाकुर कुँवरपाल सिंह हैं। वे फुन्नन मियाँ के मित्र और प्रतिद्वन्द्वी दोनों हैं। दोनों ने एक ही अखाड़े से लाठी-चलाने की कला सीखी थी। ‘‘चौधरी और फुन्नन एक ही गुरू के चेले थे। यानी चौधरी ने भी फुन्नन मियाँ के बाप ही से लकड़ी चलाने की कला सीखी थी।’’ यह बताता है कि एक पीढ़ी पहले इस क्षेत्र में हिन्दू-मुसलमान का भेद नहीं था। दो जमींदार,  जो पृथक् धर्मानुयायी थे,  एक ही अखाड़े में शिक्षा ले सकते थे। हालांकि ‘आधा गाँव’ में ठाकुर कुँवरपाल सिंह का चित्रण बहुत कम है तथापि उनकी उपस्थिति इतनी सशक्त है कि सहज ही दिलो-दिमाग पर छा जाती है।
 जमींदारी ठसक और सांमती सम्मान की रक्षा में ठाकुर कुँवरपाल सिंह फुन्नन मियाँ के हाथों मारे जाते हैंलेकिन फुन्नन मियाँ की इबादतों में वे अनिवार्य रूप से सम्मिलित हो जाते हैं- ‘‘पाक परवरदिगार! मुहम्मदो आले मुहम्मद के सदके में ठाकुर कुँवरपाल सिंह को बख्श दे!’’ फुन्नन मियाँ जब हिन्दुओं की सम्प्रदाय निरेपक्षता की बात करते हैं तो सबसे पहले ठाकुर कुँवरपाल सिंह को याद करते हैं- ‘‘तू त ऐसा कहि रहियो जैसे हिन्दुआ सब भुकाऊँ हैं कि काट लीहयन। अरे ठाकुर कुँवरपाल सिंह त हिन्दुए रहे।’’
ठाकुर कुँवरपाल सिंह उपन्यास में पहले चौधरी के रूप में तब आते हैं जब गुलाब हुसैन खाँ को चिरौंजी घेर लेता है। वे अपने पूरे खानदान के साथ उसे बचाने आ जाते हैं। यह जानकर कि चिरौंजी फुन्नन मियाँ का आदमी है,  वे उस पर हाथ नहीं उठाते- ‘‘चौधरी ने सोचा कि अगर इस जगह उन्होंने चिरौंजी को घेर लिया तो कल फुन्नन मियाँ के आगे आँख नीची हो जाएगी,  इसलिए चौधरी ने उन्हें चला जाने दिया।’’ यह सामंती मन का उज्ज्वल पक्ष है। बराबरी का आग्रह रखता है। ठाकुर साहब क्षयमान होती सामंती व्यवस्था के स्तम्भ हैं। चाहे यह व्यवस्था कितनी थी अमानवीय क्यों न रही होइसमें अनेक बुराइयाँ हो,  रियाया के शोषण पर आधारित हो;  अपने ठाठशान-शौकत और मर्यादा में सहज ही आकर्षित कर लेती है। फुन्नन मियाँ को एकान्त में खलीफाई तय करने के लिए ललकारना और पराजित होने पर लेशमात्र भी दुर्भावना न रखना कुँवरपाल सिंह को महान बनाती है। बराबरी के युद्ध में जहाँ ‘‘लाठियाँ टकराती रहीं। कोई चोट नहीं खा रहा था। दोनों ही एक अखाड़े के थे और दोनों ही खलीफ़ा के चहेते थे। तुले हुए हाथ चल रहे थे। तेल पिलाई हुई लाठियाँ डूबते हुए चाँद की रोशनी में चमक रही थीं’’ कुँवरपाल सिंह घायल होकर पड़ जाते हैं तो सहज मन से वीरतापूर्वक स्वीकार करते हैं- ‘‘खलीफाई मुबारक होए!’’ पुलिस को दिए बयान में वे फुन्नन को निर्दोष बताते हैं और आखिरी समय में याद करते हैं- ‘‘हम जात हएँ खलीफ़ा।’’ लोगों को जब बाद में ख़्याल आता है तो वे ठाकुर कुँवरपाल सिंह के बयान से असहमत होते हैं क्योंकि ‘‘चार-छः आदमियों के लिए तो अकेले ठाकुर साहब काफ़ी थे।’’
  ठाकुर साहब वीर सामंत हैं। वसूल के पक्के हैं। अपने महाप्रयाण के बाद वे अपने बेटे-पोतों को भी इसका अंश दे जाते हैं। टाट-बाहर कर दिए गए फुन्नन मियाँ की बेटी रजि़या के मरने के बाद कंधा देने वालों में पृथ्वीपाल सिंह आगे रहते हैं थाना फूँकने वाली भीड़ का नेतृत्व हरपाल सिंह करते हैं। हरपाल सिंह इस मुहिम में शहीद भी हो जाते हैं। रजि़या को कब्र में उतारते समय पृथ्वीपाल सिंह का यह कहना, ‘‘हम उतारब अपनी बहिन के’’ उपन्यास के मार्मिक स्थलों में से एक है और हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को रेखांकित करती है।
 ठाकुर कुँवरपाल सिंह और उनका परिवार उस सामंती परिवेश की बानगी पेश करता है जिसके विषय में अनेकशः कहा जाता है कि भारतीय समाज के बहुलतावादी सम्प्रदाय निरेपक्ष स्वरूप का ताना-बाना इसी व्यवस्था का गढ़ा हुआ है। वीरेन्द्र यादव लिखते हैं- ‘‘आधा गाँव के औपन्यासिक कथ्य में अन्तर्निहित यह तथ्य भी विचारणीय है कि भारतीय समाज के जिस बहुलवाद व मेल-जोल की संस्कृति को अक्सर महिमा मंडित किया जाता हैवह सामंती सामाजिक संरचना का अनिवार्य परिणाम है या कि भारतीय संस्कृति के उदारतावाद की देन। ‘आधा गाँव’ के ठाकुर जयपाल सिंह किस मानसिकता के चलते अपने गाँव के जुलाहों,  कुँजड़ों व हज्जामों की रक्षा करते हैं,  इसका खुलासा अपनी परजा के उनके इस संबोधन से होता है- ‘गाँव से जाए का नाम लेबा लोग त माई चोद के ना रख देइब। हई देखा भुसडि़यावालन काजात बाड़न लोग मऊमुबारकपुर गाँड़ मराए।’’ (वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमान,  अभिनव कदम,  अंक6-7पृष्ठ-325) यह सच है कि धर्मसभा के लिए भोजन आदि की व्यवस्था जयपाल सिंह करते हैं और सभा में मुसलमानों को समूल उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाता है लेकिन जयपाल सिंह यह सब जमींदारी शान में करते हैं। स्वामी जी का भाषण अपनी जगह है किन्तु जयपाल सिंह यह नहीं बर्दाश्त कर सकते कि उनके गाँव के कुँजड़ोंमुसलमानों पर कोई हाथ उठाए। इसीलिए बफ़ाती के घिर जाने पर वे हिन्दुओं को ललकार लेते हैं- ‘‘ई तूँ लोगन रूक काहे गइलाभैया? ........आवत जा लोग!’’ वे हिन्दू मर्यादा के औचित्य को व्यापकता देते हुए नैतिक आधार से सम्बद्ध करते हैं- ‘‘बड़ बहादुर हव्वा लोग अउर हिन्दू-मरियादा के ढेर ख़्याल बाए तुहरे लोगन केत कलकत्ते-लौहार जाए के चाही। हियाँ का धरल बाए की चढ़ आइल बाड़ा तू लोग।’’  जाहिर है बारिखपुर के ठाकुरों के यहाँ हिन्दू-मुसलमान का द्वन्द्व नहीं है। वस्तुतः सामंती संरचना में प्रजा के प्रति व्यवहार किसी विमर्श से प्रभावित नहीं होता। यही कारण है कि फुन्नन मियाँ भी छिकुरिया से पूछ लेते हैं- ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’ उसके यह कहने पर कि वह हिन्दू है लेकिन..........। फुन्नन मियाँ कहते हैं- ‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तैं लड़बे न हमरे साथ की तहूँ हिन्दू हो जय्यबे।’’
3. परसुराम एवं उसका परिवार- परसुराम हरिजन हैकांग्रेस का नेता है और स्वतंत्र भारत में विधायक चुना जाता है। वह कुशल राजनीतिज्ञ है और मियाँ लोगों को साधने में सफल है। वह गाँधी टोपी पहनता हैभाषण देता है और दलितों के उत्थान हेतु प्रयासरत है। वह प्रगतिशील चेतना से युक्त है। एक मियां साहब उनके विषय में यह कहते हैं- ‘‘ऊ सब अछूत ना हैं.........हरिजन हो गए हैं..........उन्होंने मुर्दा खाना भी छोड़ दिया है और कोई महीना भर पहले चमारों का एक गोल परूसरमवा की लीडरी में पंडिताने के कुँए पर चढ़ गया और पानी भर लाया।’’ वह साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल भी है। फुन्नन मियाँ अब्बास से कहते हैं- ‘‘ऐ भाईओ परसरमुवा हिन्दुए न है कि जब शहर में सुन्नी लोग हरमजदगी कीहन कि हम हजरत अली का ताबूत न उठे देंगे,  काहे को कि ऊ में शीआ लोग तबर्रा पढ़त हएँत परसरमुवा ऊधम मचा दीहन कि ई ताबूत उठ्ठी और ऊ ताबूत उठ्ठा।’’ ज्यों-ज्यों उसकी राजनीति चमकती हैवह द्विज श्रेणी में शामिल होता जाता है। उसकी जीवन-शैली आभिजात्य होती जाती है। वह आदरणीय बनता जाता है। यह सब मियाँ लोगों को खटकता है। फुन्नन मियाँ इस चिड़चिड़ाहट को यूँ व्यक्त करते हैं- ‘‘ए भाई! अल्ला के कारखाने में दखल देवे वाले तूँ कौन ? ऊ अपने गधे को चने का हलवा खिला रहें।’’ वरिष्ठ आलोचक कुँवरपाल सिंह इस बदलाव को लक्षित करते हैं, ‘‘युग परिवर्तन के कारण परसुराम गाँव की सबसे बड़ी हस्ती हो गया है। वह गंगौली नहींपूरे क्षेत्र के विषय में निर्णय लेता है। छोटे अफसर और थानेदार तक उसकी चिरौरी करते हैं। मियाँ लोगों के लिए यह  मर्मान्तक पीड़ा भी है।’’ (कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005पृष्ठ-42) उसकी बिरादरी में उसके प्रति आदर की वज़ह से बोलने का लहजा बदल गया है। राही ने इस बदलाव को इस तरह रेखांकित किया है- ‘‘परूसराम आइल बाड़न।’ बाहर से धनिया चमार ने आवाज दीजो जमींदारी के खातमे के बाद भी अब्बू मियाँ से चिपका हुआ था। ‘आईल बाड़न!’ अब्बू मियाँ ने अपनी आँखें नचा कर कहा।’’ अब्बू मियाँ का आँखें नचाना उन हिकारतों को संकेतित करता है जो परसुराम समेत तमाम निम्न जातियों के लिए उच्च वर्णों में है।
  परसुराम के द्विज हो जाने का प्रमाण उसके यहाँ लगने वाला दरबार है- ‘‘उसका दरबार गाँव का सबसे बड़ा दरबार होता। उसके दरबार में लखपति भी आते और फाकामस्त सैय्यद साहिबान भी। ये लोग कुर्सियों पर बैठते और सिगरेट पीते और रेडियो सुनते। उनसे थोड़ी ही दूर पर गाँव के गरीब-गु-र-बा होतेजो पहले ही की तरह जमीन ही पर ऊँकड़ू बैठतेखैनी खाते और बीड़ी पीते। उनकी किस्मत में जमीन पर बैठना ही लिखा था।’’ विधायक होने के बाद वह न सिर्फ मियाँ लोगों के झगड़े सुलझाता है बल्कि हम्माद मियाँ को डाँट भी देता है। वह बेअदबी भरे लहजे में कहता है- ‘‘गया के पास जाने का जी चाह रहा है क्या आपका?’’ गया तब जेल में था। यह एक तरह की धमकी थी जो परसुराम हम्माद मियाँ को देता है। परसुराम की बढ़ती शक्ति की यह एक बानगी है।
   एक पेशेवर राजनेता की तरह परसुराम सत्ता सुख पाने के सभी हथकण्डे अपनाता है। वह कांग्रेस के उस चरित्र का द्योतक है कि पार्टी सतही तौर पर तो लोकतांत्रिक प्रतीत होती है किन्तु बुनियादी तौर पर यथास्थितिवाद को पोषित करती है। इसीलिए परसुराम को बुरा लगता है कि ‘‘मियाँ लोगों में पाण्डेयजी का आना-जाना बहुत हो रहा है आजकल।’’ चूँकि पाण्डेयजी कम्यूनिस्ट नेता हैं और उसके खिलाफ़ जनान्दोलन खड़ा करने की कोशिश करते हैं अतः परसुराम को बुरा लगता है।
  उपन्यास में बहुत सजगता से दिखाया गया है कि परसुराम दलित उभार का प्रतीक होकर भी दलितों के लिए कुछ नहीं करता। फिर भी उसके जाति समुदाय के लोगों को इस बात का संतोष था कि ‘‘उनका एक आदमी मियाँ लोगों की कुर्सी पर बैठता है और मियाँ लोग उसके दरवाजे पर आते हैं और फ़र्क यह हुआ था कि वह मियाँ लोगों के सामने बीड़ी पीने लगे थे।’’ वास्तव में परसुराम उसी राजनीतिक व्यवस्था का अंग होकर रह जाता है। यही कारण है कि वर्चस्व की लड़ाई में वह हम्माद मियाँ से मात खा जाता है। उसे जेल हो जाती है।
  विधायक होने के बाद परसुराम के घरवालों का रहन-सहन बदल जाता है। उसकी पत्नी ने ‘‘ऩफीस साडि़याँ पहनना सीख लिया था। उसके जिस्म पर बड़े नाजुकखूबसूरत और कीमती जेवर थे। उसे लिपिस्टिक लगाना नहीं आता थाइसलिए उसके होठों पर लिपिस्टिक थुपी हुई थी।’’ वह अपना वर्गान्तरण कर चुकी थी इसलिए उसका मानना था कि वह मियाँ/बीबी लोगों की बराबरी में बैठ सकती है। यही मानसिकता उसे हम्माद मियाँ के यहाँ पलंग पर बिठा देती है। कुबरा के दुरदुरा देने से उसमें नवधनाढ्य वाली अकड़ दिखती है- ‘‘अ-भ-ईं तक आप लोगन का दिमाग ठीक ना भया।’’ वह इस प्रकार का वर्गान्तरण कर चुकी है कि उसे अहसास तक नही है कि मियाँ लोगों को परसुराम की द्विज स्थिति कितनी चुभ रही है। ‘‘दलित चेतना का विमर्श रचते हुए राही मासूम रज़ा इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि भारतीय समाज की सामंती संरचना हिन्दू व मुस्लिम का भेद किए बिना दलितों के राजनीतिक उभार को लेकर कितनी असहज थी।’’ परिणामतः होता यह है कि कुबरा उसे खूब खरी-खोटी सुनाती हैं।
 परसुराम का पिता सुखराम बेटे के एम0एल0ए0 बन जाने से धनी हो गया है। हकीम अली कबीर उसके कर्जदार हैं। वह कर्जअदायगी हेतु सम्मन भिजवाता है। धनी हो जाने एवं आभिजात्य जीवन-शैली अपना लेने के बाद भी उसके पुरातन संस्कार समाप्त नहीं होते। कुर्सियों पर वह पाँव रखकर बैठता है और मियाँ लोगों के आ जाने पर हड़बड़ाकर खड़ा हो जाता है। जब परसुराम हम्माद मियाँ से उलझ रहा होता हैवह परसुराम को प्यार भरे शब्दों में डाँटता है- ‘‘तू हूँ बुरबके रह गयो परसुराम। च-ल बैयठा-व मियाँ के। चलींमियाँहियाँ काहे ठाड़ बाड़ीं।’’ वह अभी भी प्राचीन पीढ़ी का व्यक्ति है।
आधा गाँव के प्रमुख पात्रों में परसुराम इसलिए भी महत्व रखता है कि स्वतंत्र भारत में सत्ता का केन्द्र न सिर्फ बदलकर उसके तबके के पास आ गया है अपितु प्रमुख भूमिकाएं भी निभाने लगा है।
4. झिंगुरिया एवं छिकुरिया- झिंगुरिया फुन्नन मियाँ का लठैत है। चूँकि फुन्नन मियाँ के सामंती सरोकार सहज ही क़तलफौजदारीलूटडकैती आदि से जुड़े हैं अतः झिंगुरिया का महत्त्व पक्का साथी होने के कारण अधिक है। वह बहुत सधा हुआ सेंधमार है। गोबरधन के यहाँ वह आठ बार सेंधमारी कर चुका था। वह गुलबहरी के लिए भी सेंधमारी करता है। यह सेंधमारी फुन्नन मियाँ के कहने पर होती है। इस अभियान में इसको फाँसी हो जाती है। यह घटना इतनी सहज प्रतीत होती है कि उसके बेटे छिकुरिया को ‘‘बाप के फाँसी पा जाने का ऐसा मलाल नहीं था। उसे तो एक दिन फाँसी पानी ही थी।’’ झिंगुरिया के बाद छिकुरिया फुन्नन मियाँ के लिए उसी भूमिका में आ जाता है। वह फुन्नन मियाँ को अपना सर्वेसर्वा स्वीकार कर लेता है। चूँकि ‘‘हम्माद मियाँ ने फुन्नन मियाँ के खिलाफ़ गवाही दी थी। इसलिए हम्माद मियाँ के किसी भी आदमी की तरफ से छिकुरिया का दिल साफ नहीं था।’’ यह सामंती परिपाटी थी कि अपने जमींदार के प्रति निष्ठा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती थी। छिकुरिया उसका सहज ही अनुगमन कर रहा था। अपने जमींदार के प्रति उसकी स्वामी भक्ति धर्म की संकीर्णताओं से परे थी। फुन्नन मियाँ के साथ एक संवेदनशील मुद्दे पर उसकी बातचीत इस बात को प्रमाणित कर सकेगी- ‘‘बारिखपुर-वालन को अइसे दिन लग गए की ऊ अब सलीमपुर पर चढ़ाई करे लायक हो गए। तोरा कोई आदमी हुआँ है की ना?’’
 ‘‘दस जन हव्वन!’’ छिकुरिया ने कहा, ‘‘बाकी जउन हिन्दू-मुसलमान के नाम पर लकड़ी चल गइलत बड़ी मुश्किल पड़ी।’’
 ‘‘हिन्दू-मुसलमान करके कोई क ठो झाँट टेढ़ी कर लीहे!’’ फुन्नन मियाँ ने अपनी मूँछों पर ताव दिया, ‘‘तैं हिन्दू है की मुसलमान?’’
 ‘‘हम त हिन्दू हई मीर साहब बाकी.........’’
‘‘बाकी-ओकी के रहे दे। तै लड़बे न हमरे साथ कि तहूँ हिन्दू हो जय्यबे?”
छिकुरिया के सामंती सरोकार जाने-अनजाने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल बनते हैं। जैसा कि पहले कहा गया हैभारतीय समाज की संरचना में साम्प्रदायिक सौहार्द सामंती व्यवस्था की देन हैछिकुरिया इसका सर्वाधिक उपयुक्त उदाहरण है। शहर में जब उसकी मुलाकात मास्टर साहब से होती है तो वह बहुत मायूस लौटता है। वह अपनी स्पष्ट मान्यता को मास्टर जी के समक्ष रखता है- ‘‘आकिस्तान-पाकिस्तान हम ना जनतेई। बाकी जो कोई पाकिस्तान बुरी चीज बाय त मत बने दे ईं। हम छाती ठोंक के कहत बाड़ीपीछे हट जायीं त आपन बाप का ना कहलायींचलीं।’’ वह इमाम साहब के प्रति असीम श्रद्धावान है और मानता है कि ‘‘इमाम साहब मुसलमान नहीं हो सकते। मुसलमान तो मौलवी बेदार हैं जो हिन्दुओं का छुआ नहीं खाते। मुसलमान तो हकीम अली कबीर हैं जो बात-बात पर दरवाजे के हौज़ मेंअपने को पाक़ रखने के लिएनहाते रहते हैं।’’ वह मास्टर जी से दो टूक शब्दों में कहता है- ‘‘जहाँ फुन्नन मियाँ का पसीना गिरी नाहुआँ समूच भर टोली मर ना जायी।’’ उसकी स्वामीभक्ति अंत तक बनी रहती है। अंततः वह फुन्नन मियाँ के साथ ही मारा जाता है- ‘‘मर गए फुन्नन मियाँ।
   ‘‘मर गया छिकुरिया।
   ‘‘दोनों के खून मिल गएमगर कोई तीसरा रंग पैदा नहीं हुआ। क्योंकि दोनों के खून का रंग एक ही था।’’
  वस्तुतः छिकुरिया और झिन्गुरिया दोनों ही फुन्नन मियाँ की रियाया (प्रजा) हैं जो उनके लिए बलिदान हो जाते हैं। इनके चरित्र से सामंती संरचना की परतें ही नहीं उद्घाटित होतीं अपितु साम्प्रदायिक सौहार्द की स्थिति का भी पता-चलता है। गंगौली के मियाँ लोगों के लिए ही नहीं छिकुरिया के लिए भी पाकिस्तान एक पहेली है- ‘‘हम त समझत बाड़ीं की ई पाकिस्तान कउनो महजिद-ओहजिद होई।’’
   झिंगुरिया और छिकुरिया हिन्दू नहीं हैंवे मुसलमान भी नहीं हैवे फुन्नन मियाँ के आदमी हैं और उनकी चेतना भी फुन्नन मियाँ से सम्बद्ध है।
  5. गोबरधनगंगौली के बनिया गोबरधन की इतनी हैसियत है कि ‘‘वह मियाँ लोगों के यहाँ आता तो पाइँती  जगह पाता। यह एक ऐसा ऐज़ाज था जो गंगौली में किसी गैर षिया को अब तक नहीं मिला था।’’ वह गंगौली में घर जमाई बनकर रह रहा था। वह व्यापार में हजारों के नफे-नुकसान की चर्चा करता था। उसकी ख्याति थी कि वह लाखों का माल छिपाए था। झिंगुरिया के बार-बार सेंध मारने और खाली हाथ लौटने के बावजूद उसकी ख्याति बढ़ती जाती थी। उसके व्यापार की पोल तब खुलती है जब अंग्रेज सरकार के लिए चंदा उगाहते समय ठाकुर हरनारायन प्रसाद दस हजार की माँगकर बैठते हैं। वह अपनी कारोबारी बही और एक थैली लेकर पहुँचता है- ‘‘हमार कुल कारोबार एही में बायसरकार।’’ गोबरधन ने कहा, ‘‘और पूँजी थैलिया माँ और गिन लियन चार सौ अगारा रूपिया है। अब हम का कहें।’’ .........उसका कारोबार एक ख्वाब था। एक बेज़रर ख्वाब।’’ थानेदार और हकीम साहब के सामने हक़ीकत खुलने पर वह गंगौली छोड़कर संन्यासी बन जाता है।
       बाबा के वेष में उसका अवतरण समीप के एक गाँव में मंदिर पर होता है जो चमत्कारी किस्म का है। अपने तथाकथित चमत्कारों से वह लोकप्रिय होता जाता है। जब थानेदार का छापा पड़ता है तो वह भाग जाता है। उसकी बही से पता चलता है कि वह अब भी अपने स्वप्नजीवी व्यापार से मोह त्याग नहीं पाया था। जब थाना क़ासिमाबाद फूँका जा रहा था तो उसे फूँकने वाली भीड़ में गोबरधन भी शामिल था। पुलिस की ओर से होने वाली गोलीबारी में वह मारा जाता है। वह शहीद बन जाता है। बालमुकुन्द वर्मा उसकी प्रशस्ति करते हैं- ‘‘अमर है वह गाँव और धन्य हैं वे माता-पिता जिन्होंने मातृभूमि पर हरिपाल और गोबरधन जैसे सपूतों की आहुति दी! धन्य है कासिमाबाद की यह पवित्र भूमिजिसके माथे पर गोबरधन और हरिपाल के रक्त का तिलक लगा हुआ है।’’
6. गया अहीर- गया अहीर हम्माद मियाँ का लठैत है। उसकी स्थिति बहुत कुछ झिंगुरिया और छिकुरिया की सी है। वह ताजियादारी के दौरान हुई फौज़दारी में हकीम साहब पर लाठी उठाने से गुरेज नहीं करता लेकिन मियाँ लोगों का बहुत सम्मान करता है। ‘‘यह वास्तव में विडम्बनात्मक है कि जो गया अहीर सैय्यद अशरफ़ के भृत्य व सेवक के रूप में स्वयं इस भेदभाव का शिकार थावही अनजाने ही इस ऊँच-नीच को बरकरार रखने के ऐच्छिक साधन के रूप में इस्तेमाल हो रहा था। जिन हम्माद मियाँ का रोबदाब गया अहीर की लाठी के बल पर कायम था वही हम्माद मियाँ हकीम साहब से अपने झगड़े का ठीकरा गया अहीर के सिर फोड़ते हैं।’’(वीरेंद्र यादव, अभिनव कदम) गया स्वयं निम्न कुलोत्पन्न हैकिन्तु जाति या वर्ग की आधुनिक चेतना के बजाय वह परम्परागत कुलीन तंत्र को बनाए रखने का हिमायती है। वह मासूम को कबड्डी खेलनेवाले लड़कों से छुड़ाता है और कड़ी फटकार लगाता है। वह मासूम को भी समझाता है- ‘‘आप मियाँ हुईंआप के ई ना चाही।’’
  गया सामंती संरचना का अनिवार्य अंग है। वह वर्ग चेतना से पूर्णतया अनभिज्ञ है। उसके हित अनिवार्यतः मियाँ लोगों से सम्बद्ध हो गये हैंइसलिए वह जब कभी सोचता है तो उसमें मियाँ लोगों के बदहाल होते जाने का मलाल है- ‘‘गया अहीर मजलिस के इन हंगामों से जरा हटकर गुसलखाने के दरवाज़े पर बैठा लौंडों को गलिया-गलियाकर चुप करवा रहा था। बड़ा सुफैद फरहरा हवा में लहरा रहा था। फरहरा कई जगह से फट गया था और गया सोच रहा था कि इस जंग ने तो मोहर्रम की रौनक छीन ली है। वरना भला बड़के फाटक पर फटा हुआ फरहरा लग सकता था।’’ वह जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी हम्माद मियाँ के साथ लगा रहता है क्योंकि उसकी चेतना मियाँ लोगों के हितार्थ है।
  इन पात्रों के अलावा उपन्यास में कई अन्य पात्र हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं। चिरौंजी फुन्नन मियाँ का लठैत है। कोमिला चमार बेवजह हकीम अली कबीर के लिए फाँसी चढ़ जाता है। इनके जेल जानेफाँसी चढ़ जाने से कोई हलचल नहीं होती क्योंकि इनका अपना कोई व्यक्तित्व-अस्तित्व नहीं। जमींदारी का चक्र इतना प्रभावशाली है कि पंडित मातादीन को मियाँ लोगों की टहल बजानी पड़ती है। दारोगा ठाकुर हरनारायन प्रसाद के लिए शरबत बनाने के लिए उन्हें बुलाया जाता है। तमोली पान बनाने एवं पेश करने के लिए बुलाया जाता है। गंगौली के मीर साहेबान के यहाँ हड्डी की शुद्धता और अपने अशरफ़ होने का इतना गर्व है कि निम्न जाति के हिन्दुओं का कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं बन पाता। जवाद मियाँ की रखैल बन जाने के बीसियों वर्ष बाद भी कम्मो की माँ रहमान बो ही रहती है। इसी तरह सुलेमान के झंगटिया बो को घर में डाल लेने पर भी वह झंगटिया बो बनी रहती है।
 ‘आधा गाँव’ में लोगों का सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकार संकीर्णताओं से परे हैं। उनके आपसी सम्बन्ध को धार्मिकता प्रभावित नहीं कर पाती। इसीलिए छिकुरिया मास्टर जी से मिलकर उदास लौटता है। स्वामी जी के प्रवचन से उत्तेजित लोगों को जयपाल सिंह खदेड़ लेते हैं। बालमुकुंद वर्मा शहीदों के उल्लेख में जब मुमताज का एक भी बार नाम नहीं लेते तो फुन्नन मियाँ को बुरा अवश्य लगता है लेकिन वे इसे भाव नहीं देते। वस्तुतः जमींदारी का सामंती ढाँचा साम्प्रदायिकता को प्रसरित नहीं होने देता।
  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जमींदारी उन्मूलन के परिणामस्वरूप नयी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था लोगों में बुनियादी परिवर्तन की चेतना का संचार करती है। दलितों का एक वर्ग तेजी से धनाढ्य बन रहा है। लखना चमार जमीन खरीद रहा है। सुखरमवा हकीम साहब पर कर्ज अदायगी हेतु सम्मन भिजवा रहा है और एक वर्ग सीधे-सीधे परसुराम से कह रहा है- ‘‘ई जमींदार लोगन का मिजाज जमींदारी के चल जाए से भी ठीक ना भया है।’’ यही वर्ग फुस्सू मियाँ से जूते खरीद रहा है और अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेर रहा है।
  वास्तव में, ‘आधा गाँव’ के शिया सैय्यदों की इस कहानी में हिन्दुओं का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ ध्यातव्य है कि पाकिस्तान विमर्श साम्प्रदायिक सौहार्द और गंगा-जमुनी तहजीब की जो तस्वीर इस उपन्यास से उभरती है वह हिन्दुओं के चरित्रांकन के अभाव में सम्भव नहीं। हिन्दुओं के उल्लेख के अभाव में उस सामंती संरचना का भी निदर्शन संभव नहीं था जिसमें लोगों के सम्बन्ध धार्मिकता से नहींबल्कि सहअस्तित्व एवं परस्पर निर्भरता से प्रभावित होते थे। इन सम्बन्धों में जमींदार और प्रजा का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों से ऊपर था। राही मासूम रज़ा ‘आधा गाँव’ में ही नहीं अपने समग्र साहित्य में जिस भारतीयता को रेखांकित करते हैं वह दोनों समुदायों के आपसी तालमेल से ही बना है।

संदर्भ-सूची
1.  राही मासूम रज़ाआधा गाँवभूमिकाराजकमल प्रकाशननई दिल्लीतीसरा संस्करण.
2.  वीरेन्द्र यादवविभाजनइस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमानअभिनव कदम,
3. कुँवरपाल सिंहराही मासूम रज़ा मोनोग्राफसाहित्य अकादमीनई दिल्लीप्रथम संस्करण2005


मंगलवार, 3 मार्च 2020

कथावार्ता : तकनीक की दुनिया और हिन्दी



मैं यह लेख लिखने के लिए अपने कंप्यूटर पर जिस तकनीक का सहारा ले रहा हूँ, वह गूगल का ट्रांसलिट्रेशन सॉफ्टवेयर है। यह कई भारतीय भाषाओँ के लिए उपलब्ध है। इस तकनीक में, मैं कोई शब्द रोमन लिपि में टाइप करता हूँ और वह देवनागरी में बदल जाता है। इस तकनीक में एक सहूलियत यह भी है कि मेरे कंप्यूटर स्क्रीन पर उस लिखे गए रोमन शब्द के पांच संभावित उच्चारण भी बतौर विकल्प उभरते हैं। इससे यह सुविधा रहती है कि मैं अपनी जानकारी का सही वर्तनी वाला शब्द चुन लूँ और उसे लिखकर आगे बढ़ा लूँ। यह लेख यूनिकोड में लिखा जा रहा है। इसका फायदा यह है कि यह सभी तरह के कम्यूटर में सुपाठ्य है यानि कि इसे सहेजने/पढ़ने के लिए किसी अन्य सॉफ्टवेयर की आवश्यकता नहीं है। मैं इससे पहले कृतिदेव के विविध फॉण्ट में लिखा करता था। और कभी कभी देवनागरी नामक फॉण्ट में भी। हिन्दी के लिए कृतिदेव और देवनागरी विशेष तौर पर डिजाइन किया गया सॉफ्टवेयर है। क्रुतिदेव के साथ दिक्कत यह थी कि इसका फॉण्ट वाला सॉफ्टवेयर हर जगह नहीं मिलता था। तकनीक ने यह भी कर दिया है कि अगर आपका लेख कृतिदेव में है तो वह उसे आपके मनचाहे फॉण्ट में बदल देगा। मैं समझता हूँ कि तकनीक के पचार-प्रसार ने हिन्दी को वैश्विक स्तर पर सुगम और सहज बना दिया है।
यह इसलिए है कि वैश्विक स्तर पर हिन्दी कई चुनौतियों से रूबरू हो रही है। भारत जैसे देश में जहाँ भाषा को लेकर इतनी राजनीति और पेंच है, वहाँ अपनी भाषा और लिपि को सुरक्षित रखना अपनी जिम्मेदारी है। बाजार का दबाव ऐसा है कि वह एक समृद्ध परम्परा को लील जाने को तैयार है। यह महसूस किया जा रहा है कि तकनीक के इस तरह आमजन में पैठ बना लेने ने तकनीक के बादशाहों को अपना खेल खेलने की खुली छूट दे दी है। तकनीक के यह बादशाह निःसंदेह वे हैं, जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। इस खेल में एक बड़ा अध्याय लिपि और भाषा का है। इस खेल की राजनीति जानने वाले इसे महसूस कर रहे हैं कि यह किस तरह हिन्दी भाषा और उसकी वैज्ञानिक लिपि देवनागरी को नष्ट कर रहे हैं।
          कंप्यूटर और अंतर्जाल के आधुनिक समय में हिन्दी की स्थिति का आकलन करना एक जरूरी कदम है। हिन्दी में कम्यूटिंग का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। वास्तव में हिन्दी के कुछ अनाम शुभेच्छुओं ने इसे लगातार विकसित करते रहने का सराहनीय काम किया है। हिन्दी में कम्प्यूटिंग की शुरुवात १९८३ई० से मानी जाती है, जब पहलीबार ‘अक्षर’ और ‘शब्दरत्न’ का पदार्पण हुआ। १९८६ ई० में भारतीय भाषाओँ के लिए कंप्यूटर में कुंजीपटल भी मान लिया गया। लेकिन १९९१ई० में यूनिकोड के आगमन ने भारतीय भाषाओं के लिए क्रान्तिकारी काम किया। यह एक साथ देवनागरी, बंगला, गुरुमुखी, तमिल, कन्नड़, मलयालम और उड़िया भाषाओँ के लिए कारगर था। इसमें प्रत्येक अक्षर के लिए एक विशेष संख्या रहती है। अब  चाहे कोई भी कम्प्यूटर प्लेटफॉर्म, प्रोग्राम  अथवा कोई भी भाषा हो। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यह था कि इस कोड के आ जाने से किसी भी भाषा का टेक्स्ट पूरे संसार में बिना भ्रष्ट हुए चल जाता है। यह सारे संसार में एक तरह से काम करता है। यूनिकोड को बालेंदु शर्मा दाधीच ने विकसित किया था। आज दुनिया में तमाम लोग इन्टरनेट पर यूनिकोड का इस्तेमाल करते हैं और हिन्दी समेत कई भाषाओँ के लिए यह जीवनदायी बन गया है। हिन्दी के टंकण और कंप्यूटर पर इसके दोस्ताना सम्बन्ध विकसित करने की दृष्टि से यूनिकोड का महत्त्व निर्विवाद है। वर्तमान में, हिन्दी, आधुनिक तकनीक के क्षेत्र में अंग्रेजी से टक्कर ले रही है। आज अधिकांश मोबाइल फोन अपना सॉफ्टवेयर विकसित करते हुए इसका ध्यान रख रहे हैं कि इसमें देवनागरी में लिखने-पढ़ने में सुविधा रहे। हिन्दी के प्रचलन के दृष्टिकोण से वर्ष २००७ई० एक महत्त्वपूर्ण वर्ष है। एक आकलन में यह पाया गया कि इंटरनेट पर चीनी और अंग्रेजी भाषा के बाद हिन्दी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा प्रयोग की जाने वाली भाषा है।  हिन्दी को कंप्यूटर के क्षेत्र में सक्षम बनाने के क्षेत्र में जिन लोगों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई उनमें विनय छजलानी, हेमन्त कुमार, वासु श्रीनिवास, बालेन्दु शर्मा दाधीच, देवेन्द्र पारख, अभिषेक चौधरी और डॉ॰ श्वेता चौधरी, कुलप्रीत सिंह, राघवन एवं सुरेखा, रमण कौल, रवि रतलामी  आदि का नाम प्रमुख है।
          हिन्दी में कम्प्यूटिंग आसान हो जाने का एक लाभ यह हुआ है कि इस भाषा से सम्बंधित बहुत सारी सामग्री इन्टरनेट पर आने लगी है। कई एक किताबें सहज ही ई फॉर्म में उपलब्ध हैं और उन पुस्तकों को यहाँ वहां ले जाना आसान हो गया है। कई संस्थानों ने शब्दकोश और थिसारस तक अपलोड कर दिया है। हिन्दीसमय.कॉम ने तो एक बीड़ा उठाया है कि वह हिन्दी में मौजूद विश्व स्तर की सामग्री को ई फॉर्म में पाठकों के लिए सुलभ कराएगी। हिन्दीसमय.कॉम भारत सरकार के अधिनियम से स्थापित महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का एक महत्वाकांक्षी उपक्रम है। वह इसे निरंतर कार्यान्वित करने में जोर-शोर से जुटी हुई है। लगभग सभी प्रमुख हिन्दी समाचारपत्र और पत्रिकाओं ने अपना URL विकसित कर रखा है और उनको पढ़ने वाले समूचे विश्व में लोग मौजूद हैं। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में इन्टरनेट का योगदान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकेले हिन्दी में चिट्ठाजगत पर १०००० से ज्यादा ब्लॉग पंजीकृत हो गए हैं। यह संख्या इस बात का संकेत है कि हिन्दी ने तकनीक को किस खूबसूरती से अपना लिया है। हिन्दी के कई एक ब्लॉग तो उम्दा साहित्यिक-सांस्कृतिक सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। हिन्दी के इन प्रमुख ब्लॉगस में अनुनाद, सिताबदियारा, पहलीबार, बुद्धू-बक्सा, लिखो-यहाँ वहां, वांग्मय, कॉफ़ी हॉउस, पढ़ते-पढ़ते, पाखी, भड़ास मीडिया, रेडियोवाणी, मेरा गाँव मेरा देश आदि बहुत लोकप्रिय हैं। कई एक प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने सम्पादकीय पन्ने पर ब्लॉग के स्तम्भ शुरू किये हैं। जनसत्ता द्वारा इस मामले में किया जाने वाला पहल सराहनीय है। जनसन्देश टाइम्स भी इस दिशा में सराहनीय काम कर रहा है। इसके अलावा कई पत्रिकाओं ने ब्लॉग से स्तम्भ शुरू किया है। पाखी और समकालीन सरोकार तो बाकायदा इस दुनिया से मुद्दे लेकर बहस करते-कराते हैं।
          तकनीक के साथ आसानी से सामंजस्य बिठा लेने से एक फायदा यह भी हुआ है कि दुनिया के लगभग सभी विकसित एवं विकासशील देशों ने अपने देश में मीडिया द्वारा हिन्दी में समाचार चैनल, समाचार के ई फॉर्म में अखबार आदि छापना शुरू कर दिया है। वस्तुतः विश्व के सभी बड़े देश यह मानते हैं कि हिन्दी में अपार संभावनाएं हैं। सबसे पहली तो यह कि यह दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओँ में शुमार है और दूसरे यह कि इस तरह से यहाँ बाजार की बड़ी संभावना है। यही कारण है कि भारत में प्रबंधन का गुण एवं पाठ पढ़ाने वाली कई एक संस्थाएं हिन्दी में भी पाठ्यक्रम शुरू कर रही हैं और सफलतापूर्वक उसे क्रियान्वित कर रही हैं। यह हिन्दी और तकनीक के आपसी तालमेल से संभव हो सका है।
          इधर फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल माध्यमों ने हिन्दी की ग्राह्यता बढ़ाई है। फेसबुक पर देवनागरी में लिखने वाले लोग लाखों की संख्या में हैं। फेसबुक और ट्विटर ने लोगों को एक बेहतरीन मंच प्रदान किया है। अपना अनुभव, रोजमर्रा का जीवन और त्वरित प्रतिक्रियाओं से लोग लगातार वहां लिख-पढ़ रहे हैं और भाषा की स्वीकारता बढ़ा रहे हैं। हिन्दी वहां भी अपने तकनीकी रूप में सफलता से काम कर रही है। अब इन माध्यमों में लिखने पढ़ने वाले लोग अभिव्यक्ति के लिए देवनागरी की मदद ले रहे हैं और हिन्दी के प्रचार प्रसार में मदद दे रहे हैं।
          भाषा के विकसित होने और भूमंडलीकरण के दौर में अन्य भाषाओँ की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दी तकनीक को बेहतर तरीके से अपनाए। देश के आजाद होने के समय यह संकट हिन्दी के साथ बना हुआ था। वास्तव में, लेखन में तकनीक के हस्तक्षेप के बाद से ही यह जरूरत महसूस की जाने लगी थी कि देवनागरी के वर्णों और मात्राओं को कम किया जाए ताकि टंकण और मुद्रण में आसानी हो। देवनागरी इतनी वैज्ञानिक लिपि है कि उसमें किसी तरह का भ्रम नहीं प्रकट होता। उच्चारण और लेखन दोनों स्तर पर। इसी को देखते हुए काका कालेलकर द्वारा गठित एक आयोग ने यह अनुशंसा की थी कि इस लिपि के मात्राओं को एक रूप कर दिया जाए। यथा ‘इ’ ‘ई’, ’उ’, ’ऊ’ की जगह अ पर ही इ, ई, उ, ऊ ए ऐ आदि की मात्रा लगा दी जाए। आज भी गुजराती ने इसे अपनाया हुआ है। कम्प्यूटिंग ने नई तकनीक विकसित करके इस गड़बड़झाले से उबार लिया है। अब हिन्दी में टंकण के इतने विकल्प मौजूद हैं कि कोई कठिनाई ही नहीं रह गयी है। टंकण की कठिनाइयों को ध्यान में रखकर ही हिन्दी के एक प्रसिद्ध विद्वान ‘असगर वजाहत’ ने सुझाव दिया था कि हिन्दी को भी रोमन लिपि में लिखा जाना चाहिए। इससे, उनका मानना था कि हमारी भाषा वैश्विक बन सकेगी। अभी हाल में ही, नये जमाने के लुगदी साहित्यकार चेतन भगत ने भी देवनागरी की बजाय रोमन में लिखने की वकालत की है। असगर वजाहत और चेतन भगत की इस अवधारणा का चौतरफा विरोध किया गया है। वैसे भी तकनीक पर काम करने वाले विद्वानों ने हिन्दी को देवनागरी में लिखने को इतना आसान बना दिया है कि यह सुझाव एक हास्यास्पद सुझाव बन कर रह गया।
          आज चौतरफा कम्प्यूटरीकृत समय में यह बहुत जरूरी है कि हम अपनी भाषा को इसके काबिल बनाएं ताकि यह वैश्वीकरण के वातावरण में ढल सके। वास्तव में, हिन्दी को वैश्विक समाज में अपनी जगह बनाने के लिए तकनीक की दुनिया से कदम मिलकर चलना होगा। तकनीक की यह पहुँच भाषा के लिए संजीवनी का काम करेगी। जिस भाषा में इतना उच्च कोटि का साहित्य और विपुल मात्रा में पाठक तथा बोलने वाले मौजूद हों उस भाषा का तकनीक से लैस होना अत्यंत आवश्यक है। यह सुखद है कि हिन्दी के प्रति समर्पित कई एक विद्वान इस भाषा को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए निरंतर सक्रिय हैं और बेहतर काम कर रहे हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया कि आज अंग्रेजी और चीनी के बाद हिन्दी सर्वाधिक प्रयोग में आने वाली भाषा है। इसमें अपार संभावनाएं हैं।

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : रस आखेटक : ललित निबन्ध का रम्य दारुण स्वर



          निबंध को आचार्य शुक्ल ने ‘गद्य की कसौटी’ कहा है। हिन्दी में निबंध लेखन भारतेंदु युग से शुरू हो गया था। गद्य के आरंभिक प्रयोगों की दृष्टि से यही उपयुक्त भी था। अपने आरंभिक समय में जो निबंध लिखे गए उनमें मनमौजीपन और वैचारिकता का अद्भुत संयोग दिखता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंधों को एक मानक रूप दिया। प्रसिद्ध निबंध संग्रह चिन्तामणि में उन्होंने अपने निबंधों कोअंतर्यात्रा में पड़ने वाले प्रदेश’ कहा है और बुद्धि तथा हृदय का मणिकांचन योग बनाया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसके इतर लालित्य को प्रमुखता दी। द्विवेदी जी के समय तक निबंध के स्वरुप और आंतरिक बुनावट कुछ इस तरह प्रतिमानीकृत हो चुके थे कि उनमें ज्यादा प्रयोग की गुंजाईश नहीं के बराबर रही। लेकिन ललित निबंधों के इस ठस हो चुके स्वरुप के बावजूद बीते दशक में निबंध को अपने लेखन की मुख्य विधा बनाने वाले कुबेरनाथ राय के निबंधों को मुक्त कंठ से सराहा गया है। उनके निबंधों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सा लालित्य और स्वअर्जित पाण्डित्य एक साथ आया है। यद्यपि कुबेरनाथ राय के निबंधों को पाण्डित्य के आतंक से भरपूर कहा गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पण्डिताई को एक बोझ कहा है। लेकिन द्विवेदी जी यह भी कहते हैं कि ‘जब यह जीवन का अंग हो जाती है तो सहज हो जाती है।’ कुबेरनाथ राय के निबंधों में पाण्डित्य कुछ प्रयत्न मात्र से सहज हो जाता है। यहाँ मैं कुबेरनाथ राय के एक निबंध संग्रह ‘रस-आखेटक’ के बहाने अपनी कुछ बातें रखने की कोशिश करूंगा।
कुबेरनाथ राय ने अपने निबंधों को क्रुद्ध-ललित स्वभाव वाला निबंध कहा है। वे स्वयं को तमोगुणी वैष्णव कहते हैं और उनके मत में “मेरा सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध हैनहीं तो अन्तर का हाहाकार।” उन्होंने अपने क्रोध को सारे हिन्दुस्तान के क्रोध से जोड़ने की हिमायत की है। क्रोध वैसे तो सुनने में आक्रान्त करता हैलेकिन रस दृष्टि से यह वीरता का अनुषंगी है। और इस तरह से यह व्यापक सरोकार वाला साहित्य बन जाता है। उन्होंने स्वयं को वैष्णव कहा है। तमोगुणी वैष्णव। उनका मानना है- “तुलसीदास और समर्थ गुरु रामदास को छोड़कर और किसी वैष्णव के मन में यह बात नहीं आई कि विनयअभिमानहीनता और समर्पण भाव के साथ-साथ वीरता भी जरूरी है। बिना वीरता के विनय दीनता का प्रतीक है। और इसी विनय ने चाटुकारिता कोइसी शुद्धता ने मानव निरपेक्ष व्यक्तिवाद कोइसी सात्विकता ने अज्ञान को हमारे नैतिक और व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कराया है। भारतीय जाति का चरित्र दूषित हो गया है।” (तमोगुणीपृष्ठ- १३८) ऐसे में जब वे अपने साहित्य को क्रोध कहते हैं तो उनके सरोकार को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। वे भारतीय चरित्र में शुचिता-पवित्रता के समर्थक हैं लेकिन गौरव के साथ। उनके इस इसरार को तुलसीदास और निराला की परंपरा में देखा जाना चाहिए।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में पण्डिताई कूट-कूट कर भरी हुई है। उनके अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है। उनके निबंधों में भारतीय और पाश्चात्यदोनों सन्दर्भ खूब आते हैं। भारतीय पौराणिकता का पूरा सम्मान करते हुए अपने बहाव में वे वेदउपनिषद्पुराण और लौकिक साहित्य से उद्धरण और उदाहरण देते चलते हैं। उनकी प्रस्तुति इस उदाहरणों में उदात्तता से भरपूर होती है। वे भारतीय संस्कृति के उन मौलिक तत्त्वों की ओर लगातार संकेत करते चलते हैंजिन्हें हमने अपने क्षुद्र स्वार्थों और जीवन की जटिलताओं से घबराकर सरलीकृत कर लिया है। वे अपने सभी निबंधों में उस तंतु को छूने की कोशिश करते हैंजिसका एक सिरा व्यापक मानवीयता से जुड़ा हुआ है। कई बार उनके भारतीय साहित्य के ज्ञान पर आश्चर्य हो उठता है। वे एक साथ ही प्राचीन और नवीन को एक जगह ले आकर प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनके सभी निबंधों में इसे देखा जा सकता है। वे कई बार अपने बहाव में विदेशी साहित्य के उद्धरण भी ले आते हैं। हरी हरी दूब और लाचार क्रोध में इसे देखा जा सकता हैजब वे संस्कृत के एक श्लोक के साथ तुलसीकबीर और वाल्ट व्हिटमैन की कवितायेँ भी उद्धृत करते हैं। वे इसी के साथ असमिया लोकगीत को भी ले आते हैं। यह उनके निबंधों में विविधता का परिचायक भी है।
कुबेरनाथ राय बहुपठित और बहुश्रुत व्यक्तित्व के धनी हैं। रस-आखेटक में ही उन्होंने होमरवर्जिल और शेक्सपियर के मोनोलॉग रखे हैं। कुछ अन्य के विषय में लिखने की सूचना भी दी है। पाश्चात्य साहित्य पर उनका आधिपत्य इसलिए भी संभव हुआ कि वे अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे। भारतीय वांगमय पर उनका अधिकार है ही। वे असमिया संस्कृति से भी गहरे प्रभावित हैं। कोलकिरात और आदिवासी जीवन में उनकी गहरी रुचि है। असमिया संस्कृति से उनका लगाव अक्सर निबंधों में परिलक्षित होता है। वे वहां के लोकगीतोंलोक परम्पराओं से न सिर्फ परिचित हैंअपितु गहरे अनुरक्त हैं। उनकी यह अनुरक्ति भूपेन हजारिका के स्वर में गाये एक गीत को मार्मिक अंदाज में परोसने से देखी जा सकती है। प्राकृत और अपभ्रंश के साहित्य से वे न सिर्फ उद्धरण देते चलते हैंअपितु उनकी सूक्ष्म व्याख्या करते हुए अपनी बात को पुष्ट करते हैं। उनका सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन भी व्यापक है। वे अपने एक निबंध जम्बुक में यामिनी राय के हवाले से एक कथन रखते हैं- “यामिनी राय की इस उक्ति में बहुत कुछ सार है कि संस्कृति के हिसाब से ‘विश्व को मात्र दो भागों में बांटा जा सकता है : भारतीय और अभारतीय।” (जम्बुकपृष्ठ- १३१) वे अक्सर अपनी बात को पुष्ट करने के लिए सुनीति कुमार चाटुर्ज्यायामिनी रायनिहाररंजन रेताराशंकर बनर्जी आदि का उल्लेख करते चलते हैं। उनके निबंध न सिर्फ साहित्यिक अपितु सांस्कृतिक दृष्टि से भी मूल्यवान बन पड़े हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में यह पाण्डित्य न सिर्फ उद्धरणों में दीखता है बल्कि विचारों की प्रस्तुति में भी झलकता है। जब वे अपनी बात मनवाने के लिए लगातार सरणियाँ देते रहते हैं तो उन्हें समझने के लिए ठहरना पड़ता है। उनके विचार-प्रवाह में एक अजीब तीव्रता है। वह कई बार बहा ले जाता है। हम बहते चले जाते हैं। फिर उसे ठीक से समझने के लिए किंचित अवकाश मांगते हैं। यह किंचित अवकाश ही सम्भवतः पण्डिताई के बोझ बनने से उबरने का अवकाश है। यद्यपि कुबेरनाथ राय लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि चीजों को बहुत सहजता से परोसा जाय। जब वे इसकी कोशिश करते हैंतब उनकी भाषा बहुत सहज और लहजा एकदम नरम हो जाता है। हमें उनकी बाते सहजता से समझ में आती भी हैं। फिर उनका विद्वान मानस हुंकार भरता निकलता है और वे तीव्रता के आवेग में तत्समबहुल शब्दों को ठेलते हुए बढ़ते जाते हैं। कुबेरनाथ राय के यहाँ प्राचीन को नए अर्थों में सहेजने की कोशिश झलकती है। वे पुराकथाओं को नए संदर्भो में समझने की वकालत करते हैं। रसोपनिषद के सभी उपांगों में इसी पर जोर है। कर्म पारिजात में वे अपने ही अंदाज में व्याख्या करते हैं। उनके ही शब्द हैं- “तब सबको सुव्यवस्थित करके नारदजी का साहित्यिक हिन्दी में भाषण हुआ- ‘यादवोंपारिजात नकली नहींअसली ही है। परन्तु इस धरती पर आकर इसका प्राण-धर्म बदल गया है। धरती की माया हैजन्मप्रणय और मृत्यु। सो इस माया का प्रवेश इस स्वर्ग पारिजात में भी धरती की जलवायु में आते-आते हो गया।..... धरती कर्मभूमि है और देवलोक भोगभूमि। भोगभूमि में कल्पवृक्ष बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपने आप बढ़ता हैफूलता है और मुरझाता नहीं। परन्तु धरती पर तो इसे आलबाल बनाकर पानी देना होगासमय समय पर गोड़ना होगा। तब यह हरा-भरा रहेगा। इसे गहगहा कुसुमित और हराभरा रखना है तो करमजल से इसे सिंचित करो-धरती के धर्म का निर्वाह करो। यहाँ पर आकर पारिजात अपने स्वभाव के अनुरूप ढाल चुका है। विष्णु भी जब धरती पर अवतार लेते हैं तो यहाँ के स्वभाव के अनुरूप अपने को ढाल लेते हैंतो यह तो महज एक पुष्प वृक्ष है। वे भगवान भी जन्म लेते हैंतो प्रणय करते हैंराज-काज करते हैंअपनी खेती-बारीमर-मुकदमालड़ाई-झगड़ा सँभालते हैं।”(रसोपनिषदपृष्ठ- २९-३०) यह उनका अपना ही मनमौजीपन वाला अंदाज है। हिन्दी निबंधों में यह अंदाज अनूठा है। यह सिर्फ और सिर्फ कुबेरनाथ राय की विशिष्टता है।
उनके निबंधों में मनमौजीपन का आलम यह है कि निबंध कहीं से भी शुरू हो सकता है। एक बेहद रोचक प्रसंग से जैसा कि रस-आखेटक का हुआ हैअथवा तृषा-तृषा! अमृत तृषा! का। रस-आखेटक में यह एक बचपन के प्रसंग से शुरू होता है। “पिताजी ने बचपन में मुझसे एक बार पूछा था : “आगे चलकर क्या बनना चाहते हो?” मैंने कह दिया, “मैं संन्यासी बनना चाहता हूँ।” (रस-आखेटकपृष्ठ- ३१) तृषा-तृषा! अमृत तृषा! में भी बचपन का ही एक प्रसंग है। देह वल्कल में यह ग्रामीण संस्कारों से शुरू होता है। जन्मान्तर के धूम्र सोपान में यह एक भावपूर्ण कथन से खुलता है। कुबेरनाथ राय के निबंध ललित निबंधों की उस प्रवृत्ति के संवाहक हैंजिसमें यह कहा गया है कि निबंधों का शीर्षक तो एक बहाना मात्र है। असली मकसद तो अपनी उन्मुक्त भावनाओं को अपने ही अंदाज में प्रस्तुत करना है। अपने विचारों को व्यवस्थित तरीके से रखते जाना है। कुबेरनाथ राय यह बखूबी करते जाते हैं। वे गंभीर से गंभीर प्रसंगों में अपने मनमौजीपन से ऐसा ह्यूमर पैदा करते हैं कि समूचा प्रसंग मिश्री की तरह गल जाता है। सारी कठोरता एक मधुर अहसास से रससिक्त हो जाती है। देह वल्कल में उनके सूक्ष्म पर्यवेक्षण और विवेचन के बीच-बीच में खिलंदड़ापन उनके मनमौजीपन को बखूबी व्यक्त करता है।
कुबेरनाथ राय के निबंधों में मनमौजीपन तो झलकता ही हैहास्य-व्यंग्य की छटा भी मिलती है। वे खुद को समेट कर व्यंग्यवाण छोड़ते हैं। वे अपनी वस्तुस्थिति को यत्र-तत्र बताते चलते हैं। अपने एक निबंध ‘जम्बुक’ में वे खुद को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का डोम संस्करण कहते हैं। वे लिखते हैं- “वे मुझे रवीन्द्रनाथ का डोम संस्करण कहते हैं। मुझे जम्बुकनाद में रम्य दारुण स्वाद मिलता हैतो इसलिए नहीं कि मैं एक ‘एबनॉर्मल’ प्राणी हूँबल्कि इसलिए कि उदास-दारुण-क्रूर के भीतर भी रस की कोई बूँद विधाता ने भूले-भटके छोड़ दी हैनिरर्थक के भीतर भी एक बूँद अर्थ-विधि की भूल चूक से छूट गया है और मैं उस बूँद को निचोड़कर पा जाना चाहता हूँऔर इस रूप-रस-गंध की सृष्टि में अन्त्यज होने की वजह से मुसहर-डोम या ब्याध के देश में विचरण कर रहा हूँ।” (जम्बुक- पृष्ठ- १२९) वे इसी निबंध में द्विवेदीयुगीन साहित्य और छायावाद के साहित्य पर भी एक टीप लगाते हुए आगे बढ़ते हैं- “जो भूधर हैं-द्विवेदीयुगीन हैं अथवा जो नाजुक हैं,- ‘पल्लव’ छाप हैंवे इस रस को क्या जानेंगे कि अमावस्या रुपी भैरवी के आवरण में पूर्णिमा रूपिणी त्रिपुरसुंदरी ही कृष्णाभिसारिका बनती है।” (पृष्ठ- १२९) कुबेरनाथ राय के निबंधों में यह हास्य-व्यंग्य का पुट उनके पण्डिताई वाले आक्रांत को कम करता है और सहज बनाता है। हास्य का आलम यह है कि कई बार यह स्मित मुस्कान में तो कभी अट्टहास में प्रकट होता है।
पण्डिताई के इस समूचे आयोजन में कुबेरनाथ राय के निबंधों की एक विशेषता लोक के प्रति उनके गहरे लगाव में भी परिलक्षित होती है।उनके सभी निबंधों में यह लोक मौजूद है। अपने शुद्ध गवईं रूप में। वे ग्रामीण जीवन के अद्भुत चितेरे हैं। उनका वैष्णव मानस ग्रामीण संस्कृति में खूब रमता है। ग्रामीण संस्कृति में भी वे दलित-उपेक्षितों के साथ एक विशिष्ट आभिजात्यता के साथ मौजूद हैं। वे अपने निबंधों में ग्रामीण जीवन को आंकते चलते हैं। रस-आखेटक में वे एक जगह लिखते हैं- “इस स्थल पर रस-आखेटक को अपने गाँव के चमारों का ग्रीष्मकालीन भोजन याद आ जाता है। लोग शायद विश्वास न करें। चैत में खलिहान में दांय (दँवरी) करते समय पशुओं के गोबर में उनके निरंतर अन्न खाते रहने से कुछ अन्न अनपचा रह जाता है। यह अन्न ये चमार गोबर में से बीन लेते हैं और इसे धोकर-सुखाकर गर्मी के बेकारी के दिनों में इसे खाते रहते हैं। समस्त पूर्वी उत्तर प्रदेश में यह होता है। रस-आखेटक जब यह सोचता है तो उसकी आत्मा में घाव हो जाता हैउसका घोड़ा तनकर खड़ा हो जाता हैउसके मन में क्रोध के पवित्र फूल फूटने लगते हैं।” (रस-आखेटकपृष्ठ- ३७)। लोक संस्कृति के इन विवरणों में जब वे ग्रामीण जीवन के कई लोकाचारोंमौसमफसलोंरूपरसगंध की चर्चा करते हैं तो उनका रागात्मक लगाव देखते बनता है। वे निषादोंमल्लाहोंदलित-शोषित जातियों के लोगों में रमे-घुमे दिखते हैं। उनके जीवन से रस उलीचते दिखते हैं। गाँव की चौपाल परकौड़ा तापते हुएअर्धरात्रि में तारों और निचाट अँधेरे को तलाशते हुएदुपहरी के हंकड़ते सूरज के प्रसंगों में उन्होंने मन लगाकर लिखा है। ग्रामीण जीवन के ऐसे प्रसंगों में उनका वैष्णव मन खूब रमा है। यह उनका सबसे प्रिय क्षेत्र है। उनके सभी निबंधों में लोक के प्रति यह जुड़ाव देखा जा सकता है। वे इन प्रसंगों की पुनर्रचना करते हुए न सिर्फ रस-आखेटक रहते हैं अपितु रस के उद्भावक भी बनते हैं। लोक उनका सबसे प्रिय विषय है। वे शास्त्रीय चिंतन के दौरान भी इस लोक को साथ रखते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी में लोक को लेकर जो राग हैकुबेरनाथ राय के यहाँ वह और भी प्रगाढ़ होकर आया है। कहा यह भी जाना चाहिए कि यह बीस बनकर आया है।
कुबेरनाथ राय के निबंधों की एक अन्य विशेषता इसके काव्यात्मक होने से है। कुबेरनाथ राय के निबंध काव्यात्मक आस्वाद से युक्त हैं। इन्हें पढ़ते हुए काव्य की सूक्ष्मताएँ देखी जा सकती हैं। इन निबंधों में भावों की उदात्तता यत्र-तत्र झलकती है। हिन्दी निबंधों में इस तरह की भावात्मक उपस्थिति अन्यत्र दुर्लभ है। प्रकृति के बारे में वे लिखते हुए जिस तरह से रमते हैंवह काव्य का सा है। ‘मृगशिरा’ के इस अंश को देखा जा सकता है- “जेठ में धरती अकेले-अकेले तपती हैपेड़-पौधे अकेले-अकेले धूप पीते हैं और पेड़ों पर आम अकेले-अकेले पकता है। दुकेले रहने पर भी मारे गर्मी के एकांत कक्ष भी तपोवन बन जाता है। आकाश में रूद्र का वृषभ हँकड़ रहा है तो सृष्टि में काम का प्रवेश कैसे होगादूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंककर पीता है।” (मृगशिरा – पृष्ठ- ६६) यहाँ प्रचण्ड गर्मी के वातावरण को किस भावात्मक उदात्तता से रख दिया गया हैद्रष्टव्य है। कविता ही तो है। बस संरचना गद्य की है। ललित निबंधों के ‘आचार्य’ हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध एक अन्य तरह की भाव-भंगिमा वाले हैं। वहां हम लोक और शास्त्र के द्वंद्व में जूझते रहते हैंजबकि कुबेरनाथ राय के यहाँ पाण्डित्य लोक को और भी रमणीक बनाने के लिए आता है। इस अर्थ में यह विशिष्ट है। कुबेरनाथ राय की सी प्रवाहमयता और शास्त्र और लोक में डूबने-तिरने का अनुभव अन्यत्र नहीं है। उनके यहाँ शास्त्र में गहरे डूबकर लोक के किनारे ही पहुँचना है। कई बार डूबने का भय रहता है लेकिन अगले ही क्षण निबंधकार हमें बाहर निकाल लेता है। कुबेरनाथ राय इसी कारण बड़े और अनूठे निबंधकार हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंधों की भाषा अत्यंत सुष्ठु है। वे तत्सम शब्दों के प्रवाह में ऐसे देशज शब्द लाते हैं कि अर्थवत्ता चमक उठती है। हमारा बोझिल मन ऐसे देशज शब्द के संपर्क में आकर हरियर हो जाता है। वे गुरु-गंभीर शब्दों के बीच इसे ऐसे लाते हैं कि कलात्मकता और बढ़ जाती है। उनके तत्सम शब्द खासे कठिन और पारिभाषिक भी होते हैं। ऐसे में जो गंभीरता बनती हैवह डूबोने वाली होती है। पण्डिताई का आतंक खड़ा करती है। तब देशज शब्दों का प्रयोग न सिर्फ चमत्कृत करता है बल्कि हमें गवईं जीवन से जोड़ता है। इस स्थिति में पण्डिताई का आतंक ख़तम हो जाता है और हम रस से सिक्त महसूस करने लगते हैं। कुबेरनाथ के निबंधों की यह विशिष्टता किसी अन्य निबंधकार में नहीं। ऊपर मैंने मृगशिरा निबंध से जो उद्धरण दिया है उसमें उनके शब्द चयन को देखा जाना चाहिए- एक वाक्य है- “आकाश में रूद्र का वृषभ हँकड़ रहा है।”- रूद्र का वृषभ जैसे तत्सम पद के बाद हँकड़ना जैसी क्रिया शुद्ध देशज है। खांटी भोजपुरिया। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि कुबेरनाथ राय के यहाँ प्रयुक्त होने वाले अधिकांश देशज शब्द भोजपुरी के हैं। पूर्वी उत्तरप्रदेश के जनमानस के शब्द। वे अंग्रेजीहिन्दीसंस्कृतअसमियाबांग्ला आदि के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं। हाँजिस तरह से तत्समबहुल पदावली के बीच खांटी भोजपुरिया शब्दों को रखते हैंवह चमत्कार उत्पन्न करता है। कई बार यह पूरबिया संस्कृति से अपरिचित लोगों के लिए बोझिल लगता हैलेकिन वे इसे ख़ारिज करते चलते हैं। उनका यह प्रयोग उनके असाधारण शब्द सम्पदा की तरफ संकेत करता है। वे पण्डित होते हुए भी लोक के लोभ का संवरण नहीं करतेबल्कि उसे गहरे आत्मविश्वास से पेश करते हैं। यह भाषा के प्रति उनके दृष्टिकोण का भी परिचायक है।
कुबेरनाथ राय अपने निबंधों में जिस प्रवाहमयता से अपनी बात रखते हैंउसमें मुहावरेलोकोक्तियाँ और चुलबुली किन्तु गंभीर पदावली खासा सहयोग करते चलते हैं। वे कई बार अपने वाक्य बहुत छोटे-छोटे रखते हैं तो कई बार सामासिक पदों से वाक्य को लम्बा भी बना देते हैं। उनके इस छोटे-बड़े वाक्यों का संयोजन उनके लेखन के विनयी और वीर दोनों स्वभाव का निदर्शन करते हैं। लम्बे वाक्य उनके गहन चिंतन के समय में भी निकलते हैं और व्यंग्यात्मक टीप के समय भी। छोटे वाक्य तब ज्यादा आये हैंजब कथन की प्रवाहमयता तीव्र होती है। छोटे-छोटे वाक्य इस तीव्रता को और भी क्षिप्र बनाते हैं।
कुबेरनाथ राय के निबंध अपनी संरचना में बड़े हैं। इन्हें पढ़ने के लिए धैर्य चाहिए लेकिन एक बार पाठक जब उनके निबंधों के भावसागर में उतरता है तो उनकी गहराई और आनंदमयता का अहसास करता जाता है। उनके निबंध उच्च कोटि के साहित्यिक निबंध हैंजिनमें भारतीय संस्कृति रची-बसी है। वे आधुनिक युग के सबसे प्रतिभाशाली निबंधकार हैं।


(नोट- सभी उद्धरण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कुबेरनाथ राय के संग्रह रस-आखेटक से लिए गए हैं। रस-आखेटक-कुबेरनाथ रायपहला पेपरबैक संस्करण : १९९९भारतीय ज्ञानपीठ१८ इंस्टीट्यूशनल एरियालोदी रोडनयी दिल्ली।)



बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : बासन कब धोया जाए?

      बासन कब धोया जाए?

     दुनिया के कई कठिन सवालों में से एक बड़ा सवाल है। क्या भोजनोपरांत बर्तन धो दिया जाए अथवा अगला आहार पकाने से पहले? आप क्या सोचते हैं?

 
  हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय को बासन धोने का अनुभव था। एक कविता में लिखते हैं- "कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।" लेकिन वह यह नहीं बताते कि इसे कब धोना चाहिए। अज्ञेय की एक कहानी है- रोज। पहले यह कहानी 'गैंग्रीन' के नाम से छपी थी। बहुत चर्चित हुई थी। उसमें जो लड़की है, मालती; वह प्रमुख चरित्र है कहानी में- उसने बासन माँज दिए हैं लेकिन नल का पानी चला गया है। वह अपने सहपाठी के साथ बैठी है। सहपाठी लंबे समय के बाद मिलने ही आया है। एक जमाने में घनिष्ठ रहे मित्र की उपस्थिति में भी वह बरतन धोने के विषय में सोचती रहती है। जब बूंद बूंद पानी आने लगता है, वह धोने जाती है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में किसी अन्य कथाकार ने इस बुनियादी पहलू पर इतने व्यवस्थित और तफसील से कलम चलाई है।
         मेरे बचपन के दिनों में एक सीनियर मिले। वह कुछ रहस्यमयी तरीके से कहानी के अंत में स्थापना रखते थे कि खाने के बाद बर्तन धोने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने बताया था कि 'मैं तो ठोकर मार देता हूँ।' मेरे बालपन की वह बात मुझे अक्षरशः याद है। लेकिन मैं यह कभी नहीं कर पाया। मुझे यह कभी खयाल भी नहीं आया। मैं शायद उनकी रहस्यमयी वाणी का मर्म न जान सका। उनकी बात वैसी ही थी जैसी धर्मवीर भारती के उपन्यास 'सूरज का सातवां घोड़ा' उपन्यास में माणिक मुल्ला स्थापनाएं करता है। जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था तो मुझे उन सीनियर की बहुत याद आयी थी। खैर, तो बासन कब धोया जाए? मेरे घर में भी यह सवाल उठता रहता है।
       महाभारत में पांडव जब वनवास कर रहे थे तो उन्हें सूर्य द्वारा एक अक्षय पात्र मिला था।  यह ताँबे का था। कहानी में आता है कि वह पात्र खाली नहीं होता था। द्रोपदी सबको भरपेट भोजन कराने के बाद स्वयं खाती थीं। द्रोपदी के खाने के बाद वह पात्र खाली हो जाता था और अगले जून फिर से भर जाया करता। एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने समूह सहित उधर से गुजरे। वह भूखे थे। अक्षय पात्र खाली हो चुका था। घर में राशन नहीं था। उतने बड़े समूह के लिए सुस्वादु भोजन पकाने की व्यवस्था कठिन थी। दुर्वासा बहुत क्रोधी स्वभाव के ऋषि थे। पांडव इससे परिचित थे। वह शक्ति संचयन कर रहे थे। दुर्वासा के शाप का अर्थ था- भविष्य की योजनाओं पर तुषारापात!
       कृष्ण को याद किया गया। आते ही उन्होंने ऋषि समूह को स्नानादि के लिए भेजा और अक्षय पात्र मंगवाया। द्रोपदी बहुत पहले ही भोजन कर चुकी थीं। उस पात्र में अन्न का एक कण बचा था। तो सवाल वही उठा कि वह अक्षय पात्र कब माँजा जाता था? अगर भोजनोपरांत ही माँजा जाता तो उसमें अन्न का कण न रहता। अतः दृष्टांत बन सकता है कि द्रोपदी भी भोजनोपरांत बासन नहीं धोती थीं। लेकिन वाशवेशिन में जूठन अच्छा भी तो नहीं लगता!
       तो सवाल फिर से वहीं आकर गले पड़ता है किबासन कब माँजा जाए।

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सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : उदात्त अवधारणा का पतनशील रूप - गिरीश कर्नाड का नाटक ययाति


        गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' पढ़कर उद्विग्न हूँ। बसंत पंचमी के दिन पौराणिक आख्यान पर केंद्रित इस नाटक को पढ़ने के लिए लिया था। दो अंक पढ़कर आगे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई थी। कल रविवार को पुनः लिया और पढ़ ही लिया। देर शाम पढ़कर जैसी उद्विग्नता ने अपना पाँव पसारा, वह देर रात तक प्रभावी रहा और आज भी यदा कदा छा जाता था। 
      गिरीश कर्नाड का नाटक 'हयवदन' इससे पहले पढ़ चुका था और उसमें जो प्रयोग किया गया था, उससे परिचित था। यद्यपि उस बेहतरीन नाटक में गिरीश कर्नाड ने विवादित बनाने के लिए मसाला डाला है लेकिन उसे भी अभिनव प्रयोग माना मैंने। जैसे अच्छे खासे पौराणिक आख्यान लगने वाले हयवदन में राष्ट्रगीत, देश प्रेम आदि को लेकर चुभने वाली बातें की गयी हैं।


ययाति पढ़ते हुए मेरे मनोमस्तिष्क में ययाति की कथा थी। ययाति होना एक मानसिक सिंड्रोम है। वृद्धावस्था से सब भयभीत होते हैं और युवा बने रहना चाहते हैं। ययाति की कथा में आता है कि लंबे समय तक भोग विलास में लिप्त रहने के बाद भी सुखोपभोग की उनकी कामना तृप्त नहीं हुई थी। उन्होंने अपनी पत्नी देवयानीजो राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य की बेटी थींकी सखी शर्मिष्ठा को अपनी वासना का शिकार बनाया। एक शर्त के अनुसार शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर रहना था। ययाति ने शर्मिष्ठा की सुंदरता पर मोहित होकर याचना की थी। शर्मिष्ठा के साथ वह कुछ वर्षों तक क्रीड़ामग्न रहे। जब देवयानी को पता चला तो उन्होंने शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य से ययाति को शाप दिया था कि यदि वह देवयानी के अतिरिक्त किसी के साथ संभोग करेंगे तो वह वृद्ध हो जाएंगे। शर्मिष्ठा से संबंध बनाने के क्रम में ययाति वृद्ध हो गए। लेकिन उनकी क्षुधा शमित नहीं हुई थी। अतः उन्होंने अपने पुत्रों से याचना की कि उनमें से कोई अपनी जवानी उन्हें दान कर दे और बदले में उनका बुढापा ले ले। उनके छोटे पुत्र पुरु ने ऐसा ही किया। कथा में है कि एक सहस्त्र वर्ष तक सुखोपभोग करने के बाद ययाति को ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा-

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥"

अर्थात, 'हमने भोग नहीं भुगतेबल्कि भोगों ने ही हमें भुगता हैहमने तप नहीं कियाबल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैंकाल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गयेतृष्णा जीर्ण नहीं हुईपर हम ही जीर्ण हुए हैं!इस ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने पुरु को उनका वय लौटा दिया और स्वयं वैरागी हो गए।
      ययाति की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होती है कि भोग और तृष्णा कभी नहीं मरती। हमें इस सार्वभौमिक सत्य को ध्यान में रखना चाहिए। ययाति का चरित्र इस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  
        जब गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' हाथ में आया तो मैं हयवदन के प्रयोगों से परिचित था। इसलिए मुझे कुछ चौंकाने वाले प्रसंगों की अपेक्षा थी। इस नाटक का आरम्भ भी देवयानी और शर्मिष्ठा के इसी तरह के लगभग झोंटा-झोंटव्वल से शुरू होता है। दो सखियों का संवाद- जो कालांतर में एक शर्तवश मालकिन और दासी की भूमिका में हैं- बहुत छिछले स्तर का है। हम राजघरानों या कुलीन परिवारों के विषय में ऐसी छवि के साथ रहते हैं कि यहां विवाद भी सभ्य शब्दावली में होते हैं लेकिन देवयानी और शर्मिष्ठा का संवाद सड़क छाप मवालियों जैसा है। यह कहीं से नहीं लगता कि यह मालिक और दास का संवाद है। फिर उनके पूर्व जीवन का प्रसंग ऐसा ध्वनित होता है जैसे दोनों में समलिंगी रिश्ता रहा हो। ययाति भी एक लुच्चे राजा की तरह चित्रित हुए हैं। शर्मिष्ठा छल से उन्हें आवेष्टित करती है। इसमें प्रसंग आया है कि देवयानी को शर्मिष्ठा ने ईर्ष्यावश कुंए में धकेल दिया था। वह कुंए में पड़ी कराह रही थी कि ययाति उधर से गुजरे। उन्होंने देवयानी का दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर खींचा। देवयानी ने कहा कि दाहिना हाथ पकड़ने के प्रभाव से आप ने मुझे अंगीकृत किया है। ययाति देवयानी को ब्याह कर ले आये। शर्मिष्ठा भी आई। दासी बनकर। नाटक में शर्मिष्ठा वही जुगत लगाती है। वह जहर खाने का उपक्रम करती है और उसे बचाने में ययाति दाहिना हाथ पकड़कर रोकते हैं। वह इसी आधार पर उनसे प्रणय निवेदन करती है। ययाति उसके साथ आबद्ध हो जाते हैं। यह जानकर देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य के साथ चली जाती है। शाप मिलता है। उसी दिन पुरु अपनी नवविवाहिता चित्रलेखा के साथ लौटता है। चित्रलेखा ने पुरु का वरण राजसी ठाठबाट के चक्कर में किया है। वह पुरु को हीन मानती है। सब घटनाएं इस तरह पिरोई गयी हैं कि सभी पात्र छुद्र दिखने लगते हैं। पुरु ययाति का शाप ओढ़ लेता है। चित्रलेखा विषपान कर लेती है। तब ययाति पुरु को उसकी जवानी वापस कर देते हैं।
         नाटक में समयावधि को तर्कसंगत बनाने के लिए यह सब एक ही दिन में घटित होते हुए दिखाया गया है।  और ययाति इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान भोग की पराकाष्ठा पर पहुंचने से प्राप्त ज्ञान नहीं है- यह कलह से प्राप्त ज्ञान है। -"त्याग से डरकर भोग की ओर गया पर इस अकाल यौवन से वह भी प्राप्त नहीं हो सका।" 
        इस नाटक को पढ़ते हुए बारम्बार यही ध्यान बनता रहा कि क्षुद्र मानसिकता के साथ क्या महान विचार आ सकते हैं? कदापि नहीं।
गिरीश कर्नाड इसी न्यूनता का शिकार बन गए हैं।
      नाटक की भाषा भी गजब है। जहां वैचारिक स्तर पर क्षुद्रताओं का बोलबाला है, कोई सतही और स्तरहीन बात की जा रही है वहाँ भाषा श्लिष्ट और तत्सम प्रधान है। जहां वैचारिक रूप से कोई मूल्यवान अंकन किया जा रहा है वहाँ साधारण। नाटक के आखिर में ययाति कहते हैं- "अपने किए पापों को अरण्य में व्रत करके धोना है। यौवन इस नगर में बिताया है, बुढ़ापा अरण्य में बिताऊँगा।" मुझे यहां अरण्य शब्द का प्रयोग खटका। लेकिन यह तो एक बानगी है। समूचे नाटक में कई स्तरों पर कई ऐसे बिंदु मिलते हैं, जो खटकते हैं और विचार करने को उकसाते हैं कि आखिर इस नाटक को इस रूप में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी!
       ययाति पढ़कर जैसी उद्विग्नता कल पूरे दिन रही- वैसा मैंने पिछले कुछ वर्षों में कभी अनुभूत न की थी।
       एक उदात्त अवधारणा का इतना पतनशील रूप - ओह!


सद्य: आलोकित!

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