बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : बासन कब धोया जाए?

      बासन कब धोया जाए?

     दुनिया के कई कठिन सवालों में से एक बड़ा सवाल है। क्या भोजनोपरांत बर्तन धो दिया जाए अथवा अगला आहार पकाने से पहले? आप क्या सोचते हैं?

 
  हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय को बासन धोने का अनुभव था। एक कविता में लिखते हैं- "कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।" लेकिन वह यह नहीं बताते कि इसे कब धोना चाहिए। अज्ञेय की एक कहानी है- रोज। पहले यह कहानी 'गैंग्रीन' के नाम से छपी थी। बहुत चर्चित हुई थी। उसमें जो लड़की है, मालती; वह प्रमुख चरित्र है कहानी में- उसने बासन माँज दिए हैं लेकिन नल का पानी चला गया है। वह अपने सहपाठी के साथ बैठी है। सहपाठी लंबे समय के बाद मिलने ही आया है। एक जमाने में घनिष्ठ रहे मित्र की उपस्थिति में भी वह बरतन धोने के विषय में सोचती रहती है। जब बूंद बूंद पानी आने लगता है, वह धोने जाती है। मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में किसी अन्य कथाकार ने इस बुनियादी पहलू पर इतने व्यवस्थित और तफसील से कलम चलाई है।
         मेरे बचपन के दिनों में एक सीनियर मिले। वह कुछ रहस्यमयी तरीके से कहानी के अंत में स्थापना रखते थे कि खाने के बाद बर्तन धोने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उन्होंने बताया था कि 'मैं तो ठोकर मार देता हूँ।' मेरे बालपन की वह बात मुझे अक्षरशः याद है। लेकिन मैं यह कभी नहीं कर पाया। मुझे यह कभी खयाल भी नहीं आया। मैं शायद उनकी रहस्यमयी वाणी का मर्म न जान सका। उनकी बात वैसी ही थी जैसी धर्मवीर भारती के उपन्यास 'सूरज का सातवां घोड़ा' उपन्यास में माणिक मुल्ला स्थापनाएं करता है। जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा था तो मुझे उन सीनियर की बहुत याद आयी थी। खैर, तो बासन कब धोया जाए? मेरे घर में भी यह सवाल उठता रहता है।
       महाभारत में पांडव जब वनवास कर रहे थे तो उन्हें सूर्य द्वारा एक अक्षय पात्र मिला था।  यह ताँबे का था। कहानी में आता है कि वह पात्र खाली नहीं होता था। द्रोपदी सबको भरपेट भोजन कराने के बाद स्वयं खाती थीं। द्रोपदी के खाने के बाद वह पात्र खाली हो जाता था और अगले जून फिर से भर जाया करता। एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने समूह सहित उधर से गुजरे। वह भूखे थे। अक्षय पात्र खाली हो चुका था। घर में राशन नहीं था। उतने बड़े समूह के लिए सुस्वादु भोजन पकाने की व्यवस्था कठिन थी। दुर्वासा बहुत क्रोधी स्वभाव के ऋषि थे। पांडव इससे परिचित थे। वह शक्ति संचयन कर रहे थे। दुर्वासा के शाप का अर्थ था- भविष्य की योजनाओं पर तुषारापात!
       कृष्ण को याद किया गया। आते ही उन्होंने ऋषि समूह को स्नानादि के लिए भेजा और अक्षय पात्र मंगवाया। द्रोपदी बहुत पहले ही भोजन कर चुकी थीं। उस पात्र में अन्न का एक कण बचा था। तो सवाल वही उठा कि वह अक्षय पात्र कब माँजा जाता था? अगर भोजनोपरांत ही माँजा जाता तो उसमें अन्न का कण न रहता। अतः दृष्टांत बन सकता है कि द्रोपदी भी भोजनोपरांत बासन नहीं धोती थीं। लेकिन वाशवेशिन में जूठन अच्छा भी तो नहीं लगता!
       तो सवाल फिर से वहीं आकर गले पड़ता है किबासन कब माँजा जाए।

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सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

कथावार्ता : उदात्त अवधारणा का पतनशील रूप - गिरीश कर्नाड का नाटक ययाति


        गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' पढ़कर उद्विग्न हूँ। बसंत पंचमी के दिन पौराणिक आख्यान पर केंद्रित इस नाटक को पढ़ने के लिए लिया था। दो अंक पढ़कर आगे पढ़ने की इच्छा नहीं हुई थी। कल रविवार को पुनः लिया और पढ़ ही लिया। देर शाम पढ़कर जैसी उद्विग्नता ने अपना पाँव पसारा, वह देर रात तक प्रभावी रहा और आज भी यदा कदा छा जाता था। 
      गिरीश कर्नाड का नाटक 'हयवदन' इससे पहले पढ़ चुका था और उसमें जो प्रयोग किया गया था, उससे परिचित था। यद्यपि उस बेहतरीन नाटक में गिरीश कर्नाड ने विवादित बनाने के लिए मसाला डाला है लेकिन उसे भी अभिनव प्रयोग माना मैंने। जैसे अच्छे खासे पौराणिक आख्यान लगने वाले हयवदन में राष्ट्रगीत, देश प्रेम आदि को लेकर चुभने वाली बातें की गयी हैं।


ययाति पढ़ते हुए मेरे मनोमस्तिष्क में ययाति की कथा थी। ययाति होना एक मानसिक सिंड्रोम है। वृद्धावस्था से सब भयभीत होते हैं और युवा बने रहना चाहते हैं। ययाति की कथा में आता है कि लंबे समय तक भोग विलास में लिप्त रहने के बाद भी सुखोपभोग की उनकी कामना तृप्त नहीं हुई थी। उन्होंने अपनी पत्नी देवयानीजो राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य की बेटी थींकी सखी शर्मिष्ठा को अपनी वासना का शिकार बनाया। एक शर्त के अनुसार शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनकर रहना था। ययाति ने शर्मिष्ठा की सुंदरता पर मोहित होकर याचना की थी। शर्मिष्ठा के साथ वह कुछ वर्षों तक क्रीड़ामग्न रहे। जब देवयानी को पता चला तो उन्होंने शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य से ययाति को शाप दिया था कि यदि वह देवयानी के अतिरिक्त किसी के साथ संभोग करेंगे तो वह वृद्ध हो जाएंगे। शर्मिष्ठा से संबंध बनाने के क्रम में ययाति वृद्ध हो गए। लेकिन उनकी क्षुधा शमित नहीं हुई थी। अतः उन्होंने अपने पुत्रों से याचना की कि उनमें से कोई अपनी जवानी उन्हें दान कर दे और बदले में उनका बुढापा ले ले। उनके छोटे पुत्र पुरु ने ऐसा ही किया। कथा में है कि एक सहस्त्र वर्ष तक सुखोपभोग करने के बाद ययाति को ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा-

"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥"

अर्थात, 'हमने भोग नहीं भुगतेबल्कि भोगों ने ही हमें भुगता हैहमने तप नहीं कियाबल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैंकाल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गयेतृष्णा जीर्ण नहीं हुईपर हम ही जीर्ण हुए हैं!इस ज्ञानप्राप्ति के बाद उन्होंने पुरु को उनका वय लौटा दिया और स्वयं वैरागी हो गए।
      ययाति की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होती है कि भोग और तृष्णा कभी नहीं मरती। हमें इस सार्वभौमिक सत्य को ध्यान में रखना चाहिए। ययाति का चरित्र इस ज्ञानप्रकाश की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
  
        जब गिरीश कर्नाड का नाटक 'ययाति' हाथ में आया तो मैं हयवदन के प्रयोगों से परिचित था। इसलिए मुझे कुछ चौंकाने वाले प्रसंगों की अपेक्षा थी। इस नाटक का आरम्भ भी देवयानी और शर्मिष्ठा के इसी तरह के लगभग झोंटा-झोंटव्वल से शुरू होता है। दो सखियों का संवाद- जो कालांतर में एक शर्तवश मालकिन और दासी की भूमिका में हैं- बहुत छिछले स्तर का है। हम राजघरानों या कुलीन परिवारों के विषय में ऐसी छवि के साथ रहते हैं कि यहां विवाद भी सभ्य शब्दावली में होते हैं लेकिन देवयानी और शर्मिष्ठा का संवाद सड़क छाप मवालियों जैसा है। यह कहीं से नहीं लगता कि यह मालिक और दास का संवाद है। फिर उनके पूर्व जीवन का प्रसंग ऐसा ध्वनित होता है जैसे दोनों में समलिंगी रिश्ता रहा हो। ययाति भी एक लुच्चे राजा की तरह चित्रित हुए हैं। शर्मिष्ठा छल से उन्हें आवेष्टित करती है। इसमें प्रसंग आया है कि देवयानी को शर्मिष्ठा ने ईर्ष्यावश कुंए में धकेल दिया था। वह कुंए में पड़ी कराह रही थी कि ययाति उधर से गुजरे। उन्होंने देवयानी का दाहिना हाथ पकड़ कर बाहर खींचा। देवयानी ने कहा कि दाहिना हाथ पकड़ने के प्रभाव से आप ने मुझे अंगीकृत किया है। ययाति देवयानी को ब्याह कर ले आये। शर्मिष्ठा भी आई। दासी बनकर। नाटक में शर्मिष्ठा वही जुगत लगाती है। वह जहर खाने का उपक्रम करती है और उसे बचाने में ययाति दाहिना हाथ पकड़कर रोकते हैं। वह इसी आधार पर उनसे प्रणय निवेदन करती है। ययाति उसके साथ आबद्ध हो जाते हैं। यह जानकर देवयानी अपने पिता शुक्राचार्य के साथ चली जाती है। शाप मिलता है। उसी दिन पुरु अपनी नवविवाहिता चित्रलेखा के साथ लौटता है। चित्रलेखा ने पुरु का वरण राजसी ठाठबाट के चक्कर में किया है। वह पुरु को हीन मानती है। सब घटनाएं इस तरह पिरोई गयी हैं कि सभी पात्र छुद्र दिखने लगते हैं। पुरु ययाति का शाप ओढ़ लेता है। चित्रलेखा विषपान कर लेती है। तब ययाति पुरु को उसकी जवानी वापस कर देते हैं।
         नाटक में समयावधि को तर्कसंगत बनाने के लिए यह सब एक ही दिन में घटित होते हुए दिखाया गया है।  और ययाति इसी क्रम में ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान भोग की पराकाष्ठा पर पहुंचने से प्राप्त ज्ञान नहीं है- यह कलह से प्राप्त ज्ञान है। -"त्याग से डरकर भोग की ओर गया पर इस अकाल यौवन से वह भी प्राप्त नहीं हो सका।" 
        इस नाटक को पढ़ते हुए बारम्बार यही ध्यान बनता रहा कि क्षुद्र मानसिकता के साथ क्या महान विचार आ सकते हैं? कदापि नहीं।
गिरीश कर्नाड इसी न्यूनता का शिकार बन गए हैं।
      नाटक की भाषा भी गजब है। जहां वैचारिक स्तर पर क्षुद्रताओं का बोलबाला है, कोई सतही और स्तरहीन बात की जा रही है वहाँ भाषा श्लिष्ट और तत्सम प्रधान है। जहां वैचारिक रूप से कोई मूल्यवान अंकन किया जा रहा है वहाँ साधारण। नाटक के आखिर में ययाति कहते हैं- "अपने किए पापों को अरण्य में व्रत करके धोना है। यौवन इस नगर में बिताया है, बुढ़ापा अरण्य में बिताऊँगा।" मुझे यहां अरण्य शब्द का प्रयोग खटका। लेकिन यह तो एक बानगी है। समूचे नाटक में कई स्तरों पर कई ऐसे बिंदु मिलते हैं, जो खटकते हैं और विचार करने को उकसाते हैं कि आखिर इस नाटक को इस रूप में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी!
       ययाति पढ़कर जैसी उद्विग्नता कल पूरे दिन रही- वैसा मैंने पिछले कुछ वर्षों में कभी अनुभूत न की थी।
       एक उदात्त अवधारणा का इतना पतनशील रूप - ओह!


शनिवार, 18 जनवरी 2020

कथावार्ता : तान्हाजी- वीर योद्धा की अप्रतिम कहानी

    
     मुझे तान्हाजी अच्छी लगी।

       इसमें सबसे दिलचस्प प्रसंग चुत्या वाला है। जब चुत्या दगाबाजी कर उदयभान के पास जाता है तो उदयभान उससे नाम पूछने के बाद उच्चारण ऐसे करता है कि यह नाम एक गाली की तरह गूँजने लगता है।- हर भितरघाती 'चुत्या' है।
      फ़िल्म में सब अपने निजी एजेण्डे के साथ हैं। उदयभान इसलिए औरंगजेब के साथ हो गया है कि उसके प्यार को ठुकराया गया है। उसका अजीज साथी जगत सिंह अपनी बहन को छुड़ाने के लिए उदयभान के साथ है (हालांकि यह प्रसंग अस्वाभाविक सा है)। औरंगजेब की चिन्ता भारत को एकछत्र में करने की है और वह किसी का उपयोग कर सकता है। फ़िल्म में उसकी भूमिका नाहक है। उदयभान एक टूल भर है।
        तान्हा जी वीर है। उसने अपने पिता से 'स्वराज' देने का वायदा किया है। मराठा उस किले को जीतना चाहते हैं जिसे एक संधि के तहत शिवाजी को देना पड़ा है। यह संधि होने के बाद किले को वापस लेने का कारण ठीक से कहानी में नहीं जुड़ पाया है। जिस शिवाजी ने किला संधिवश दिया था, वह वापस क्यों पाना चाहते हैं और इसका क्या परिणाम होगा, इसकी तरफ संकेत भी नहीं है। तान्हा जी अतिउत्साही है। वह उदयभान को देखने के लिए नाटकीय तरीके से चुत्या को मार देता है। उसे कारावास मिलता है, जहां से वह भागता है। यह कहानी भी अतिरंजित है।
         तान्हा जी उसके बाद अपनी सेना के साथ अष्टमी की तिथि पर आक्रमण करता है- उदयभान अपने साथ लाये हुए तोप 'नागिन' को अंत तक नहीं चला पाता। यह इस फ़िल्म की कई विडंबनाओं में से एक है।
लेकिन तान्हा जी एक विशिष्ट फ़िल्म है। यह अपने 3D रूप में बहुत अच्छे से बाँधती है। हमें अचंभित करती है। उन सैनिकों के पराक्रम से अभिभूत करती है। हमें अपनी कुर्सी से चिपकाए रखती है और उन वीरों से अच्छे से कनेक्ट करती है।
           अगर 'तान्हाजी' फ़िल्म पर इसका दबाव नहीं रहता कि इस फ़िल्म को विवाद रहित बनाना है तो यह फ़िल्म बेहतरीन बन जाती। इसमें फिल्मकार पर दबाव है कि वह प्रतिपक्ष को अतिरंजित तो क्या, सच स्वरूप में भी न दिखाए इसलिए वैसे दृश्य नहीं आये हैं, जिसे हम मुगल सेना का अत्याचार मान लें और कहें कि 'स्वराज' आवश्यक है। उदयभान का अत्याचार भी नहीं दिखता। वह एक प्रशासक है। प्रशासन को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए उसे क्रूर बनना पड़ता है। ऐसा होने पर भी वह धोखा खा जाता है। 
         तो यह कि फिल्मकार भारी दबाव में दिखा मुझे, यद्यपि वह 'हर हर महादेव', 'भगवा', 'हिन्दू', 'जय श्रीराम' 'स्वराज' और 'आजादी' जैसे पदों का खूब प्रयोग करता है। तान्हाजी एक प्रसंग में आजादी छिनने की बात करता है और वही हमारे लिए एक सूत्र है। लेकिन हम दर्शकों के लिए फ़िल्म में 'सूत्र' उतना मायने नहीं रखता जितना एक मार्मिक प्रसंग।
         मैंने 'रजिया सुल्तान' देखी तो इसका रूप देखा। फिल्मकार को इल्तुतमिश की सदाशयता दिखानी थी, उसके बेटे की अय्याशी दिखानी थी तो उसने एक प्रसंग गढ़ा था। तान्हाजी में शिवाजी और औरंगजेब से सम्बद्ध एक भी प्रसंग नहीं हैं। कल्पना और विज़न यहीं समझ में आते हैं।


  तान्हाजी का दृश्यांकन अच्छा है। यह फ़िल्म 3D तकनीक में अच्छी है। कुछेक दृश्य तो बहुत शानदार हैं। यह देखने के लिए ही इस फ़िल्म को देखना चाहिए। यह देखने के लिए भी यह फ़िल्म देखनी चाहिए कि इतिहास में बहुत से योद्धा पन्नों में खो गए हैं। तान्हाजी भी उनमें से एक हैं। उनकी बहादुरी हमारी स्मृति में अंकित हो जाएगी।
        फ़िल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि इसमें आजादी और स्वराज का मतलब समझाने की कोशिश हुई है। खेद की बात है कि देश भर में डफली बजाकर आजादी मांगने वाला 'टुकड़े टुकड़े गैंग' इसे देखकर चिढ़ता है।
        यह फ़िल्म देखते हुए मुझे यह बात परेशान करती रही कि महाराष्ट्र में शिवाजी को लेकर राजनीति करने वाली शिवसेना और उसके सुप्रीमो उद्धवजी बाला साहेब ठाकरे इस फ़िल्म को लेकर कितना दबाव में होंगे। वह इसे टैक्स फ्री नहीं कर पा रहे। उत्तर प्रदेश और हरियाणा ने टैक्स फ्री कर थोड़ा दबाव और बढ़ा दिया है। वैसे मेरा मानना है कि वह फिल्में टैक्स फ्री नहीं होनी चाहिए जिनमें अभिनेता मोटी रकम वसूल करते हैं।
           अंत में, सबका अभिनय अच्छा है। सैफ़ अली खान का अभिनय थोड़ा नाटकीय हो गया है इसलिए वह हल्का हो गया है। अजय देवगन से ज्यादा गंभीर किरदार शिवाजी का बना है लेकिन उसमें स्पेस नहीं है।
           
           सबको यह फ़िल्म जरूर देखना चाहिए!

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

कथावार्ता : किस्सा किस्सा लखनउआ : अज़ीम शहर के अजीज किस्से

       किस्सा और चुटकुला में बुनियादी अंतर है। दोनों ही कहन की चतुराई चाहते हैं और दोनों में एक ऐसा बिन्दु रहता है-जहां से बात खुलती है। चुटकुले में खुलती है तो हास्य बनता है और किस्सा में आश्चर्य अथवा हास्य अथवा चौंकाने वाली कोई चीज हो सकती है। किस्सा में तफसील अधिक रहती है। किस्सागो का ध्यान उन वर्णन पर अधिक रहता है जिससे माहौल बनता है। चुटकुला में माहौल उतना  मायने नहीं रखता जितना किस्से में। किस्सा इस बात पर अधिक रोचक हो जाता है, जब यह हमारे जाने/अनजाने के किसी शख्सियत से सम्बद्ध हो जाता है।
       राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हिमांशु बाजपेयी की किताब "किस्सा किस्सा लखनउआ" लखनऊ के किस्सों की विशिष्ट पुस्तक है। इस किताब को पढ़ने के बाद आपको अपने शहर से प्यार हो जाएगा और  लखनऊ से रश्क। आप इन्हें पढ़ते हुए बारम्बार अपने शहर के किस्सों को याद करने की कोशिश करेंगे। लखनऊ के किस्सों को पढ़ते हुए मुझे अपने गाँव, शहर गाजीपुर, प्रयागराज, दुद्धी और इटावा के कई ऐसे वाकये याद आये जो बैठकबाज़ लोग रस ले लेकर सुनाते थे/हैं। हमलोगों ने मुल्ला नसीरुद्दीन, हातिमताई, तेनालीराम, अकबर-बीरबल आदि के किस्से खूब पढ़े/सुने हैं।  हमलोगों ने ग्रामीण लोगों से अकिला फुआ के बहुत से किस्से सुने हैं। किस्सा किस्सा लखनउआ इस मामले में विशिष्ट है कि यह किसी एक व्यक्ति पर केंद्रित नहीं है। यह शहर पर केंद्रित है। और शहर भी कैसा? संस्कृति का एक जीता-जागता बाड़ा। लखनऊ इस मामले में भी विशिष्ट है कि इस शहर में पुराने के प्रति गहरा लगाव है तो नया बनने की गहरी छटपटाहट। नवाबी शान इतनी जबर चीज है और इसको इतना ग्लैमराइज किया गया है कि यह लखनऊ की विशेष पहचान बन गया है। शहर बनारस में फक्कड़पन है, मस्ती है जबकि लखनऊ में एक अदा है। यह अदा ही इस शहर को अद्भुत बनाता है। यहां का नवाब वाजिद अली शाह एक मिसाल बन गया है तो इस शहर के किस्से भी उसी के अनुरूप दिलचस्प और रोचक बन गए हैं।


     
        हिमांशु बाजपेयी की विशिष्टता यह है कि वह शहर लखनऊ के किस्से कहते हुए हर तरह के 'टेस्ट' को जगह देते चलते हैं। अमृतलाल नागर, 'सुरियाकांत तिरपाठा निराली', बलभद्र प्रसाद दीक्षित पढीस से लेकर अदब की दुनिया के कई लोगों की कहानियों से लेकर पनेड़ी, चायवाले, इक्केवाले, कोठागोई आदि की कहानियां भी इसमें आ गयी हैं। अदब की दुनिया जहाँ नफासत वाली है, सड़क और गलियों की दुनिया वहीं रोचक हैं। हिमांशु बाजपेयी सबको उसी रस और भावभंगिमा के साथ सुनाते चलते हैं। हर किस्सा एक उम्दा शेर के साथ और मानीखेज होता गया है। लखनऊ की संस्कृति को अभिव्यक्त करते छोटे छोटे किस्से एक बैठक में पढ़/सुन लिए जाने के लिए उकसाते हैं।
       "किस्सा किस्सा लखनउआ" में लखनऊ है और अवध है। इसमें जो अवध है और जो जनसंख्या है वह मुग़लिया सल्तनत, इस्लाम और उर्दू के प्रभाव में है। शायद किस्सों की यही सीमा होगी। इस किताब में  जो अवध है वह पुराना तो है लेकिन बहुत पुराना नहीं है। इसमें मूल अवध का कोई किस्सा नहीं। शायद शासन ने लोगों की स्मृति पर एक कूँचा फेर दिया है।
"किस्सा किस्सा लखनउआ" एक बैठक में पढ़ जाने वाली किताब है। यह एक से एक किस्सों की पोटली है। इसे पढ़कर आपको उर्दू पोइट्री से और प्यार हो जाएगा। क्योंकि हर किस्से में किसी न किसी शायर की एक झलक है। इस शहर से प्यार हो जाएगा। आप लखनऊ जाएंगे तो वहां इसमें वर्णित तहजीब और तरतीब खोजेंगे। लेकिन जैसा कि नियति है- किसी भी शहर को जानना हो तो उस शहर में रमना पड़ता है- उसमें समय देना पड़ता है। आप पर्यटक बनकर उस शहर की नब्ज को नहीं पकड़ सकते। उस नब्ज को जानने/पकड़ने के लिए उस शहर का होना पड़ता है। आज जब हम एक ऐसी ग्लोबल और आवारा पूँजी प्रवाह के दौर में हैं, जहां एकरेखीय संस्कृति का हरओर विस्तार हो रहा है तब इस नब्ज को पकड़ना और भी कठिन है। हिमांशु बाजपेयी ने किस्सा किस्सा लखनउआ में उसे पकड़ने की कोशिश की है और यह बेहतरीन प्रयास है। हर उस व्यक्ति को, जो अपने आसपास को शिद्दत से चाहता है, उसे आसपास के किस्सों को लिपिबद्ध करना चाहिए। और जिसे यह प्यार करना सीखना है- उसे "किस्सा किस्सा लखनउआ" जरूर पढ़ना चाहिए।

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शनिवार, 4 जनवरी 2020

कथावार्ता : साहित्य की धर्मवादी राजनीति

   
बीते दिन एक शॉपिंग मॉल के पास से निकल रहा था तो बुल्ले शाह का वह प्रसिद्ध गीत पॉप धुन में सुनाई पड़ा- बुल्ला की जाणा मैं कौण। बुल्लेशाह का यह और अन्य कुछ दूसरे गीत गायकों की पसंद हैं। अमीर खुसरो के गीत भी धुन बदल-बदल कर बहुतों द्वारा गाई गयी है। इस्लामी (सूफी) गायकों ने और उससे प्रभावित हो कर दूसरे गायकों ने भी कई ऐसे साधकों के गीत भिन्न-भिन्न अंदाज में पेश किया है। पिछले दिनों फैज़ अहमद फैज़ की वह नज़्म भी पाकिस्तान की टोली 'कोक स्टूडियो' ने खूब झूमकर गाया था और वह  खूब मकबूल हुआ। इकबाल बानों का गाया हुआ और उनका किस्सा तो रोमानियत की मिसाल बन गयी है। मज़ाज़, इक़बाल, टिन्ना पिन्ना के गाने भी बहुत मन से गाये गए हैं। हिंदी फिल्मों में भी इनका बोलबाला रहा है।
        उसके मुकाबिले हिंदी/संस्कृत के गीतों को साधने की कोशिश बहुत कम है। तुलसी-सूर को कोई गाने की कोशिश करता है तो 'चंचल' बन जाता है। उनका तरीका भी वही भ्रष्ट शास्त्रीय रहता है। पॉप और जैज़ के खाँचे में डालने की बात सोचना भी हमने जरूरी नहीं समझा है। लता मंगेशकर, आशा भोंसले और रवीन्द्र जैन ने कुछ ढंग का गाया तो है लेकिन वह "भक्ति" के दायरे में रख दिया गया है और युवाओं से परे कर दिया गया है। कोई नया आयाम देकर गाने की कोशिश भी नहीं करता।
        इसके पीछे एक बड़ी वजह "मानसिकता" की है। ट्रेंड बनाने की है। राजकीय प्रश्रय की है। इस्लामी गायकों ने 'रूढ़ि' को भी ताकत बना लिया। हम मठ और गढ़ तोड़ने में मशगूल रहे। किसी कवि ने नहीं कहा कि हम शरिया आदि का भी ख़ात्मा करेंगे। हम कुरआन और हदीस के आसमानी मान्यताओं को नहीं मानते। यह सब बकवास है। बल्कि "मार्क्सवादी शायर" फैज़ तो "बस नाम रहेगा अल्लाह का" लिखकर और "सब बुत उठवाए जाएंगे" लिखकर भी "क्रांतिकारी" हैं।
     तो कहने का आशय यह है कि यह पैराडाइम एक लंबे डिस्कोर्स से बना है। उसे ध्वस्त करने के लिए सूक्ष्म और तार्किक तथा संगठित और रचनात्मक लड़ाई करनी होगी। उटपटांग के आरोप-प्रत्यारोप से यह और मजबूत होगा।
    आइए सैय्यद इब्राहिम रसखान की यह कविता पढ़ते हैं- मनुष्य के जीवन की सार्थकता क्या है-

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

#Faiz

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

कथावार्ता : चल टमकिया टामक टुम


(डिक्लेरेशन-इस कहानी के कई संस्करण हो सकते हैं)

     चल टमकिया टामक टुम

एक थी बुढ़िया।
बहुत सयानी।
घाट घाट का पीकर पानी।
बन गयी थी सबकी नानी।
एक दिन की बात है।
सच्ची-सच्ची बात है।
नहीं है कुछ भी झूठा-मूठा
पतियाओ या चूसो अंगूठा।
वह चली अपने मायके।
बहुत समय बितायके।
राह में मिल गया एक सियार।
बोला अपना दाँत चियार।
'बुड्ढी तुझको खाऊंगा।
अपनी क्षुधा मिटाऊंगा।'
बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार!
मैं जाती अपने गाँव
लौटूंगी उलटे पाँव।
जब मैं वापस आऊँगी
तब मुझको खा लेना
अभी बहुते काम है
बाद में क्षुधा मिटा लेना।
सियार का दिल पसीज गया
  वह कुछ सोचा फिर रीझ गया।

बुढ़िया उसके बाद अपने गाँव गयी। वह थोड़ा परेशान थी। उसके भाई-भतीजे मिले। सबने आशीष लिया। सबने कुशल क्षेम जाना। भौजाई ने ठिठोली की। भाई ने चिन्ता का कारण पूछा। बुढ़िया ने सब कहानी कह सुनाई।
तब भाई ने मंगाया एक कद्दू। 
एक बड़ा कद्दू। 
एक बहुत बड़ा कद्दू।
कद्दू को काटकर बनाई गई एक टमकी। बुढ़िया उसी में बैठकर वापस लौटी।
वह टमकी गाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?
टमकी गाती जाती थी-
चल टमकिया टामक टुम
कहाँ की बुड्ढी कहाँ की तुम?

तब बुढ़िया संगत करती और जवाब देती-
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।
चल टमकिया टामक टुम
छोड़े बुड्ढी सूँघे तुम।

टमकी लुढ़कते लुढ़कते चली। सियार का डेरा आ गया। वह जबर खुश हो गया। उसने गाना सुना तो नाचने लगा।- 'आज सुरन्ह मोहि दीन्हि अहारा'...

बुढ़िया ने कहा- 'सुनो सियार, हमने अपना वचन पूरा किया है। अब तुम मुझे अपना आहार बना सकते हो। लेकिन अच्छा यह रहेगा कि मैं गंगा स्नान कर आऊँ। पवित्र हो जाऊँ और आखिरी प्रार्थना भी कर लूं।'

सियार ने कहा- 'ठीक बात! आई विल वेट!'

बुढ़िया गंगा स्नान को गयी और जितना नहाया- उससे अधिक समय उसने अपने पिछवाड़े में बालू भरने में लगाया। जब खूब बालू भर लिया तो आयी। सियार अपने दांत तेज कर चुका था। बुढ़िया ने अपने को प्रस्तुत करते हुए पूछा- 'सिर की तरफ से खाओगे या धुसू की तरफ से?' 

अब सियार का माथा चकराया।
इसका रहस्य क्या है, उसने हाथ नचाया।
बुढ़िया ने कहा-
जो तीता-तीता खाना है तो सिर की तरफ से खाओ।
और मीठा मीठा पाना है तो धुसू की तरफ़ मुंह लाओ।
सियार ने सोचा-इसमें क्या बुरा है।
अच्छा शिकार है और डेरे में सुरा है।
तो उसने कहा- धुसू की तरफ से खाऊँगा।
बुढ़िया ने कहा- तब हो जाओ तैयार।
ज्योंहि सियार ने मुँह लगाया- 
बुढ़िया बोली भड़ाम
बालू छोड़ी धड़ाम!

सब बालू सियार के आंख-मुँह में भर गया। वह रोते बिलखते भागा..


शनिवार, 30 नवंबर 2019

कथावार्ता : ग्रामीण जीवन का आईना है - लोकऋण

        ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास लोकऋण कई मायने में विवेकी राय के ललित निबंधकार व्यक्तित्व का आईना है। ग्रामीण जीवन विवेकी राय के समूचे रचनाकर्म में बसा हुआ है और उसकी अभिव्यक्ति भी उन्होंने बहुत मार्मिक तथा ग्रामीण प्रगल्भता के साथ की है। उनके ललित निबंधों- विशेषकर- फिर बैतलवा डाल पर और मनबोध मास्टर की डायरी तथा वृहदाकार उपन्यास सोना-माटी में विवेकी राय का ग्रामीण जीवन बहुत कलात्मक अभिरुचि के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इस उपन्यास में भी यह यत्र-तत्र देखी जा सकती है।
     लोकऋण; देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण की तर्ज पर परिकल्पित है। जहाँ की मिट्टी में जन्म लिया, पले-बढ़े, यश और गौरव हासिल किया। एक निर्बाध और सफल जिंदगी जी, उस मिट्टी का, उस वातावरण का, उस परिवेश का, उसमें रचे-बसे आब-ओ-बतास का कर्ज लोकऋण है।
      उपन्यास में आजादी के बाद बह रहे विकास की अनियंत्रित बयार में गाँव में हो रहे बदलाव को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है। आजादी के बाद लोगों में सामूहिकता की भावना के क्षय के कारण ग्रामीण जीवन में आ रही क्षुद्रताओं और उससे उत्पन्न स्थितियों की कथा इस उपन्यास में कही गयी है। यह उपन्यास सन 1971-72 के आस पास के समय को अपनी कथा का काल और गाजीपुर के एक गाँव 'रामपुर' को केंद्र ने रखकर लिखा गया है। कथा का प्रमुख चरित्र गिरीश इलाहाबाद में अध्यापन करता है और अपनी तमाम क्षुद्रताओं के बावजूद ग्रामीण जीवन के प्रति मोहाविष्ट है। वह गाँव की दिक्कतों से आजिज आकर इलाहाबाद में बसने की पूरी तैयारी कर लेता है, यहाँ तक की अवकाश की प्राप्ति के कुछ समय पहले वह एक घर अपने नाम लिखवा भी लेता है लेकिन मन उसका गाँव में रमता है।
       गाँव में सभापति का चुनाव होने को होता है और गिरीश सहित गाँव के गणमान्य व्यक्तियों का मानना है कि यह चुनाव सर्वसम्मति से होना चाहिए। लेखक गाँधीवादी विचारधारा का हिमायती है अतः वह स्पष्ट रूप से मानता है कि ग्रामीण समस्याएं आपस में मिल बैठकर हल की जानी चाहिए। इसीलिए चकबंदी के प्रकरण में या सुरेंद्र के रेहन रखे खेत के प्रकरण में यही होता दीखता भी है। सभापति के चयन में पूर्व सभापति और गिरीश के दबंग भाई के बीच मुकाबला होना लगभग तय हो जाता है और इसके लिए तमाम दुरभिसंधियां होने भी लगती हैं। गाँव खेमे में बंट जाता है और ऐसे माहौल में बहुत सी अप्रिय घटनाएं हो जाती हैं। गिरीश को ऐसे माहौल में ऐसे द्वंद्व का सामना करना पड़ता है कि वह आजिज आकर भाग जाता है लेकिन ऐन नामांकन से पहले लौटता है। गाँव के प्रबुद्ध लोगों की गंभीर सभा में यह तय होता है कि वह निर्विरोध सभापति बनेगा। इस निर्वाचन के समय ही उसकी अवकाश प्राप्ति है अतः कोई दूसरी बाधा भी नहीं है।
       अचानक, गिरीश के सभापति बनने की बात से एक चीज तो स्पष्ट लगती है और कथाकार ने ऐसी मान्यता रखी भी है कि पढ़े लिखे लोगों को वापस गाँव लौटना चाहिए ताकि वह 'लोकऋण' उतार सकें और अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से ग्रामीण जीवन में उजाला भर सकें। सबको वापस लौटना ही चाहिए। गिरीश का लौटना इसी ऋण को उतारने के लिए है। वह शिक्षा की रोशनी को पुनः गाँव में लाना चाहता है और समरसता बनाने का इच्छुक है। पर्यावरण संरक्षण की वर्तमान कोशिशों में एक पहल ग्रामीण जीवन में वापसी भी है, जहां अभी भी समाज पूरी तरह से उपभोक्तावादी नहीं हुआ है और प्रकृति की एक स्वाभाविक कड़ी गतिमान है।
        उपन्यास में विवेकी राय ने बहुत चतुराई से ऐसी संरचना की है कि आखिर में गिरीश गाँव लौट आये। यद्यपि रामपुर गाँव गाँधीवादी आंदोलनों से संचालित होता रहा है और ग्रामीण उत्थान के तमाम काम वहां शुरू हो चुके थे लेकिन कालांतर में यह क्षीण पड़ रही थी, जिसे और धार देने की जरूरत सब महसूस करते हैं।यह उपन्यास गाँधीवादी विचारधारा को लेकर चलता है और उसका सम्यक निर्वाह करता है। उपन्यास में ग्रामीण जीवन अपने कहन में बहुत ईमानदारी से मौजूद है और गाँव की सोंधी सुगंध को लेकर चलता है। कथाकार गाँव की कथाएं, कहावत और मुहावरे तथा लोकोक्तियों को बहुत रस लेकर कहता-सुनता चलता है। खासकर जहाँ सुर्ती-बीड़ी, नसा-पताई का जिक्र होता है, जहाँ कउड़ा जलने की बात होती है, पहल पड़ने और कथा कहने सुनने की बात होती है, वहां उनका ग्रामीण और निबंधकार मन खूब रमता है।
       गाँव की संस्कृति को जानना समझना हो तो इसे जरूर पढ़ा जाय।

सद्य: आलोकित!

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