शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

कथावार्ता : देवोत्थान एकादशी और हम

     
आज देवोत्थान एकादशी है। व्रत रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि आज के दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के शयन के बाद जागरण की अवस्था में आते हैं। एकादशी का पौराणिक महत्त्व चाहे जो हो, हमारी तरफ यह एक ऐसा अवसर रहता है, जिस दिन व्रत रहा जाता है। हमारी तरफ गन्ना चूसने की शुरुआत आज से होती है। अब छठ की उपस्थिति ने गन्ना चूसना पांच दिन पहले कर दिया है नहीं तो यह दिन नेवान का रहता था। एक बार मैंने एकादशी पर व्रत रहना निश्चित किया। लालच था कि शाम को पारण में फलाहार करने को मिलेगा। तब फलों का बहुत क्रेज था और आम भारतीय परिवार में फल मौके-महाले खरीदा जाता था। मौसमी फल ही हमारे लिए उपलब्ध थे। एकादशी की शाम को फलाहार और उसमें भी कन्ना (मीठा आलू) उबाला मिलता था। अहा! क्या दिव्य स्वाद था उसका। तो उसी लालच में हमने तय किया कि एकादशी व्रत रहेंगे। 
एकादशी व्रत में करना क्या है- दिन भर उपवास ही तो करना है। हम संकल्पबद्ध हो गए। सुबह उस दिन जल्दी हो गयी। स्नानादि कर लिया गया। अब सूरज निकल आया। क्रमशः चढ़ने लगा। इधर कुछ खाने की इच्छा जाग्रत हो गई। फिर हर क्षण बलवती होने लगी। घर में रहना दूभर होने लगा। दस बजते बजते छटपटाने लगे। ऐसी स्थिति के लिए हमलोगों ने प्लान 'बी' बनाया था। इसके तहत यह था कि भूख लगते ही गन्ना चूसने खेतों में निकल जाएंगे। आज से गन्ना चूसना 'वैध' हो जाता है। और एकादशी व्रत वाले इसे चूस सकते हैं क्योंकि यह फल में गिना जाता है। हमलोगों ने भरपेट गन्ना चूसा। जब तृप्त हो गए तो बाल मन कुछ करने को मचलने लगा।
      हमलोगों ने तय किया कि गुल्ली-डण्डा खेला जाए। यह बहुत मजेदार खेल है। प्रेमचंद की एक प्रसिद्ध कहानी इसी नाम से है। गुल्ली और डण्डा की व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत आसान है। हम तो बाग और खलिहान की तरफ थे। साथियों में से एक सोझुआ हँसुआ ले आया था। उसे चारा भी काटना था। हम इसी शस्त्र से गन्ना भी काट रहे थे। हंसुआ की मदद से बेहया के पौधे से गुल्ली डण्डा बनाना तय हुआ। मुझसे छोटे मौसेरे भाई ने कहा कि मैं काटता हूँ तो मैंने बड़े भाई होने की धौंस जमाते हुए हंसुआ ले लिया। उसने कहा कि तुम शहरी लड़के हो, और यह हंसुआ थोड़ा अलग है। हमने फिर भी हंसुआ ले लिया और काटने उतरा। पहला भरपूर वार मैंने बेहया के पौधे पर निशाना साधते हुए किया। बेहया के डंठल पर तो यह बेअसर रहा, मेरे दाहिने पैर के घुटने पर हंसुआ का नुकीला सिरा जा धँसा। जब हमने उसे पैर से निकाला- खून की एक मोटी धार फव्वारे जैसी चली। अब मारे दर्द, भय और आशंका के 'मार खा रोई नहीं' वाली हालत हो गयी। रोना आ रहा था लेकिन भय वश रूलाई नहीं छूट रही थी। अब क्या हो? सबके हाथ-पाँव फूलने लगे। 
तब हमने अपनी मेधा का प्रयोग किया। हमने सुना था कि देश की मिट्टी औषधीय गुणों की खान है। वह रक्तप्रवाह रोक देती है। हमने बहुत सारा धूल कटे पर लगाया। लेकिन खून रुकने की बजाय मटमैला होकर बहने लगा। यह उससे भयावह स्थिति थी। हम घर की ओर भागे। राह में ट्यूबवेल का पानी खेतों में लगाया जा रहा था। हमने घाव को उस पानी से धोया तो नाली रक्तरंजित हो गयी। जब हम घर पहुंचे तो सब बहुत परेशान हुए। माँ ने घी का लेप किया। पट्टी बाँधी गयी। चिकित्सक बुलाया गया। प्राथमिक चिकित्सा के बाद दवा की टिकिया मिली। सलाह थी कि कुछ अन्न ग्रहण कर दवा ली जाए। यह धर्मसंकट था। एकादशी का व्रत था और अन्न ग्रहण करना था। मैंने साफ मना कर दिया। यह नहीं हो सकता। तब दीदी संकटमोचक बनी।दीदी ने धीरे से कान में बताया कि शाम को तुम्हारे हिस्से का फल तो रहेगा ही, मेरे भाग का आधा भी तुमको मिलेगा। यह प्रस्ताव आकर्षक था। हमने दवा ली। शाम को छककर प्रसाद पाया। भरपेट कन्ना खाया। एकादशी का व्रत पूरा हुआ। वह घाव बहुत दिन तक रहा।अब भी उसका दाग है। हर एकादशी उसकी याद आती है।

शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : सात दिन सात किताबें : चयन डॉ रमाकान्त राय

फेसबुक पर सात दिन में अपनी पसंद की सात पुस्तकों का उल्लेख करने का आवाह्न मित्र गौरव तिवारी की ओर से प्राप्त हुआ तो हमने अपनी पसंद के सात कृतियों का चयन किया। यह अलग अलग विधाओं की बेहतरीन पुस्तकें हैं। इनका मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी विशेष स्थान है। आप इस अभियान को चाहें तो बढ़ा सकते हैं।

पहला दिन

किताब का नाम- सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
लेखक- महात्मा गांधी

#सात_दिन_सात_किताबें

यह रोचक शृंखला बहुत दिन से चल रही है और यह जानकर बहुत अच्छा लगता है कि लोग बहुत सी ऐसी कृतियों का उल्लेख करते हैं जो वाकई बदल देने का माद्दा रखती हैं। गौरव तिवारी और Yogesh Pratap Singh ने मुझे भी इस क्रम में नामित कर दिया तो कुछ सोच-विचार के बाद मैंने भी इस क्रम में हर दिन एक कृति के साथ उतरने का फैसला किया है।

यूँ तो यह चयन बहुत कठिन है कि अब तक पढ़ी गयी कृतियों में से सात को चुना जाए और उनके बारे में यहां बताया भी जाये। फिर भी...

आज पहली पुस्तक 'आत्मकथा' से। आत्मकथा लिखना बहुत साहसिक कार्य है। निपट ईमानदारी और अपने को खोलकर रख देने का साहस ही एक 'आत्मकथा' है। देश-विदेश के कई चर्चित-अचर्चित हस्तियों की आत्मकथा (इनमें से कुछ विशेष का उल्लेख किया जाना चाहिए- रूसो की आत्मकथा, विनोबा भावे की आत्मकथा-अहिंसा की तलाश, मेरी कहानी- जवाहरलाल नेहरू, आत्मकथा-राजेन्द्र प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के चार खण्ड, प्रभा खेतान-अन्या से अनन्या, मैत्रेयी पुष्पा-गुड़िया भीतर गुड़िया, ओम प्रकाश वाल्मीकि-अछूत, निज़ार कब्बानी-शायरी की राह में, चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा आदि) पढ़ने के बाद मुझे आज भी महात्मा गांधी की आत्मकथा "सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा" सबसे अधिक प्रभावित करती है। यह आत्मकथा सभ्यता विमर्श की सबसे जरूरी किताब है। अंग्रेजी सभ्यता के चकाचौंध और ईसाई-इस्लामी व्यवस्था के बीच एक वैष्णव किस तरह अपने लिए मार्ग प्रशस्त करता है और अपने को इस सब दबाव के बीच अडिग रखता है, उसे यहां से जाना जा सकता है। महात्मा गांधी की आत्मकथा का हर अध्याय एक प्रकाश स्तंभ है। वह इतने सीधे-सरल भाषा में अपनी बात करते हैं कि ध्यान उनके द्वारा निर्दिष्ट तत्त्व पर ही टिकती है। उन्होंने १९२१ के बाद के जीवन को आत्मकथा में सम्मिलित नहीं किया है क्योंकि वह जीवन अतिशय सार्वजनिक है। अब तक गांधी की निर्मिति हो चुकी है। इस तरह गांधी की आत्मकथा उनकी निर्मिति प्रक्रिया की शाब्दिक परिणति है। महात्मा गांधी ने इस रचना में घर-परिवार, शिक्षा, आदतें, धर्म, खान-पान, साजिश और संघर्ष समेत जीवन के विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। जब वह अपनी कहानी लिखते हैं तो हम उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति और दूरदर्शी व्यक्तित्व की झलक पा जाते हैं।
सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी के आश्रम में रोज सायं प्रार्थना के समय इस आत्मकथा के एक अंश का पाठ किया जाता है और उसका प्रभाव बिना वहाँ उपस्थित रहे, नहीं जाना जा सकता।
अगर आप अनजाने-बिना पढ़े-दूसरे लोगों द्वारा बनाई धारणा के आधार पर महात्मा गांधी को नापसंद करते हैं तो आपको यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।

एक साथी को इस शृंखला से जोड़ना भी है तो मैं आदित्य कुमार गिरि का नाम सुझाता हूँ।


दूसरा दिन

किताब का नाम- गीता प्रबन्ध
लेखक- महर्षि अरविन्द

#सात_दिन_सात_किताबें

आज दूसरे दिन चर्चा करते हैं महर्षि अरविन्द की किताब 'गीता प्रबंध' की। जय भारत अथवा महाभारत का विशेष अनुभाग 'श्रीमद्भागवतगीता' सदियों से भारतीय और विदेशी लोगों के लिए  महत्वपूर्ण कृति रही है। उसका 'निष्काम कर्मयोग' का सिद्धांत दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा और आश्चर्य का विषय रहा है। महात्मा गांधी इस कृति से बहुत प्रभावित थे और यत्र तत्र उसके उद्धरणों से अपने पक्ष को मजबूत करते थे। 'अनासक्ति योग' नामक किताब में उन्होंने गीता का अनुवाद और भाष्य किया है। विनोबा भावे ने तो गीताई मंदिर में गीता के श्लोक का मराठी अनुवाद कर चिनवा दिया है। लोकमान्य तिलक गीता के मर्मज्ञ थे और उन्होंने इसका उपयोग स्वाधीनता संग्राम में खूब किया। डॉ संपूर्णानंद और डॉ राधाकृष्णन ने भी गीता की अपनी व्याख्या की है लेकिन महर्षि अरविंद द्वारा गीता की व्याख्या विशिष्ट है। वह इस किताब की विवेचना करते हुए धार्मिक भी हैं और स्वाधीनता संग्राम सेनानी भी। गीता और महाभारत पर उनके निबंधों में धर्मराज्य, ऋत और सत्य के राज्य की स्थापना के सूत्र हैं।
उत्तरपाड़ा संभाषण के बाद महर्षि अरविंद के विचार 'सनातन धर्म' के प्रति दृढ़तर होते गए थे और उसकी प्रतिच्छाया इस किताब में मिलती है। महर्षि अरविंद ने पॉण्डिचेरी में रहते हुए शिक्षा और धर्म पर विशेष काम किया था। गीता प्रबंध में इस सबकी झलक है।
यह पुस्तक एक प्रतिमान है। महर्षि अरविंद के बहाने श्रीमद्भागवत गीता को समझने के लिहाज से इस रचना को पढ़ा जाना चाहिए।
मैं जब गीता-प्रबंध की बात करता हूँ तो लगे हाथ इसमें श्रीमद्भागवत गीता के अठारह अध्याय में विस्तृत 'श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद' को भी गुनने की अनुशंसा करता हूँ।
इस शृंखला में मैं अनुज शत्रुघ्न सिंह का आवाह्न करता हूँ। वह इसकी बाँह पकड़ें और अपनी चुनी किताबों के बारे में बताएं।

तीसरा दिन

किताब का नाम- एक किशोरी की डायरी
लेखक- अने फ्रांक

#सात_दिन_सात_किताबें

इस शृंखला में तीसरे दिन आज डायरी विधा की एक विशिष्ट रचना 'एक किशोरी की डायरी'। इसे लिखा था 14-15 वर्षीय किशोरी अने फ्रांक ने। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब नाजियों ने नीदरलैंड (हॉलैंड) पर अधिकार कर लिया और यहूदी लोगों पर नाजी अत्याचार बढ़ा तो फ्रांक का परिवार इसकी जद में आ गया। उनका परिवार एम्सटर्डम में छिपकर रहने लगा। यहीं अने फ्रांक को डायरी मिली और उन्होंने लिखना शुरू किया। बाद में एक दिन जब नीदरलैंड के एक मंत्री ने लोगों से अपने ऊपर हुए अनाचारों को लिपिबद्ध करने को कहा तो इस डायरी के प्रति अने फ्रांक का दृष्टिकोण बदल गया।
यह डायरी एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में यहूदी लोगों के साथ कैसा व्यवहार हुआ था। अने फ्रांक का परिवार एक घर के तहखाने में छिपकर रोज ही मृत्यु को अपने आसपास महसूस करता था। फ्रांक ने डायरी विधा के अनुरूप इसमें वही घटनाएं और अनुभव दर्ज किए हैं जो नितांत निजी हैं। इस डायरी में परिवार की खीझ, मंडराता खतरा, आये दिन होने वाली बमवर्षा, प्रेम का आकर्षण, अपने शरीर में आ रहे बदलाव और अन्य तमाम गतिविधियाँ दर्ज हैं।
अने फ्रांक की डायरी जब मेरे हाथ लगी तो मैं इस कृति से नितांत अपरिचित था। बाद में पता चला कि प्रकाशित होने के बाद यह 'बेस्ट सेलर' बन गई थी और इतने अहम तथ्यों का पिटारा है। मुझे एक और चीज ने बहुत आश्चर्य में डाल दिया था कि उस कमसिन बालिका ने 14 वर्ष की वय में ही भारत की राजनीति के बारे में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया था। वह अपने विवरणों में महात्मा गांधी का उल्लेख भी करती है और भारत के स्वाधीनता संघर्ष का भी। वह तहखाने में रेडियो सेट के साथ थी और उसके प्रसारण सुना करती थी। कम वय में भी अपने आसपास के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर भी ध्यान केंद्रित रखने वाली यह बालिका निश्चय ही विशिष्ट है। अने फ्रांक बाद में नाजियों द्वारा पकड़ ली गयी और एक यातना घर में भेज दी गयी। वहीं उसकी मृत्यु हुई।
आज जो हम हिटलर की क्रूरताओं के विवरण पढ़ते-सुनते हैं, उसमें बड़ा योगदान इन निजी विवरणों का भी है और उन निजी विवरणों में यह डायरी सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक और मासूम है।
अने फ्रांक की डायरी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं भी डायरी लिखूँ। लिखते हुए मैंने जाना कि यह बहुत जोखिम भरा और दुष्कर कार्य है। लेकिन इसी आदत ने मुझे 'लिखना' सिखाया।
इस डायरी ने मुझे बहुत प्रभावित किया। आप सबको भी इसे जरूर पढ़ना चाहिए। एक सामान्य बालिका के निजी अनुभव किस कदर दुनिया के लिए कीमती हो सकते हैं, इसे पढ़कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
तीसरे दिन मैं डॉ Roopesh Kumar का नाम इस अभियान में जोड़ता हूँ।


चौथा दिन

किताब का नाम- काला जल
लेखक- गुलशेर खान शानी

#सात_दिन_सात_किताबें

आज चौथे दिन हमने जिस पुस्तक को चुना है वह उपन्यास विधा से है। इस कृति को डॉ गौरव तिवारी द्वारा सुझाये गए दो उपन्यासों- 'आधा गाँव' और 'राग दरबारी' के क्रम में देखा जाना चाहिए क्योंकि उन दो उपन्यासों का उल्लेख कर दिए जाने के बाद मुझे 'मैला आँचल' और 'काला जल' में से एक को चुनना था और मैंने 'काला जल' चुना।
गुलशेर खान शानी का यह उपन्यास एक परिवार के तीन पीढ़ियों के निरन्तर टूटने और ढहते जाने की त्रासदी का आख्यान है। इसमें कथा का विस्तार 1910  ई० के आसपास से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ वर्ष बाद तक है। इस उपन्यास को भारतीय मुस्लिम समुदाय का पहला प्रामाणिक उपन्यास माना जाता है। उपन्यास तीन खण्ड में है- 'लौटती लहरें', 'भटकाव' और 'ठहराव'। यह उपन्यास शब-ए-बारात की एक रस्म 'फातिहा' के सहारे चलती है। फातिहा ठीक पिण्डदान जैसी रस्म है जिसमें मृतक को याद करते हुए उसके लिए 'रोटियां' बदली जाती हैं। बब्बन इस कथा को उठाता है और ठहरे हुए परिवार की कथा को झंझोड़ देता है। इस क्रम में जैसी बातें उभरती हैं, वह उस समाज की वास्तविकता को प्रकट कर देती है। ऐसा समाज जिसमें अंधविश्वास और कुरीतियों की जकड़न है। जो विकासहीन है। जिस पर किसी अभिशाप की अदृश्य छाया मंडरा रही है और लोग उस अजगर की कुण्डली में जकड़कर दम तोड़ देते हैं। 
यथास्थिति से विद्रोह करने वाले दो पात्र हैं- सल्लो आपा और मोहसिन। यह दोनों लीक छोड़कर अलग राह अपनाना चाहते हैं। सल्लो आपा जिस तरह मुक्ति का प्रयास करती हैं, वह प्रसंग इतना तरल है कि पाठक छटपटाने लगता है और जब इसकी कारुणिक परिणति होती है, मन आर्द्र हो जाता है। मोहसिन काला जल के परिवेश से बाहर आने की छटपटाहट में बड़े लड़कों की संगत करता है- नायडू के कहने पर राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ता है-जागृति की कोशिश में गीता प्रवचन तक का आयोजन करवाता है लेकिन फिर उसे महसूस होता है कि वह तो अचानक से छिन्नमूल हो चुका है। उसके पास एकमात्र रास्ता बचा है- पाकिस्तान। क्या मोहसिन पाकिस्तान जाएगा? बब्बन उससे कहता है- "लेकिन पाकिस्तान पहुंचने के बाद भी अगर तुम्हें लगा कि ठगे गए तो फिर कहाँ जाओगे-अरब या ईरान?"
'काला जल' की कहानी जितनी सशक्त है-उसका वातावरण भी उतना ही सघन और कारुणिक। काला जल में मोती तालाब है जिसका ठहरा हुआ जल उस परिवार को और गहरा अर्थ देता है। विशेष यह है कि मोती तालाब से इतर हर कथास्थल पर कल-कल करती जलधारा है। यह बहाव, उस ठहरे हुए को और अधिक विडम्बनापूर्ण बना देती है।
जब मैने इस उपन्यास को पढ़ा तो लंबे समय तक इसके प्रभाव से बाहर नहीं निकल पाया था। यह उपन्यास जिस प्रार्थना भाव में लिखा गया है, इसका प्रभाव उसी के अनुरूप है। बस हम उस काला जल से बाहर निकलने की छटपटाहट में तड़पते हैं। 'काला जल' कई मायने में क्लासिक और विलक्षण उपन्यास है। इस उपन्यास को सल्लो आपा के किरदार की खूबसूरती, फातिहा की रस्म को जानने और दुलदुल के घोड़े यानि मुहर्रम के विवरणों के लिए भी पढ़ा जाए तो मुझे लगता है कि यह कुछ चुनिंदा श्रेष्ठ उपन्यासों में से एक है।
चौथे दिन इस कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए मैं कवि, सम्पादक और इतिहासविद Santosh Chaturvedi का आवाह्न करता हूँ।




पाँचवाँ दिन

किताब का नाम- रस-आखेटक
लेखक- कुबेरनाथ राय

#सात_दिन_सात_किताबें

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'निबंध' को गद्य की कसौटी कहा है। आधुनिक युग के साहित्य की यह विशिष्ट विधा थी जिसमें पण्डिताई और लालित्य का अद्भुत समंजन रहता था। इसमें ललित निबंध तो विज्ञ और सुजान समुदाय के बीच बहुत समादृत होते थे। जब से साहित्य में तथाकथित प्रगतिशीलता ने उभार लिया, ललित निबंधों के प्रति उदासीनता बढ़ती गयी है। तो आज पांचवें दिन मैंने 'ललित निबंध' की विशिष्ट कृति 'रस-आखेटक' को चुना है। रस-आखेटक के रचनाकार  कुबेरनाथ राय हैं।
यूँ तो ललित निबन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम सबसे पहले और प्रमुखता से लिया जाता है लेकिन कुबेरनाथ राय को पढ़ना लालित्य के सागर में अवगाहन करना है। उनके बारे में आलोचकों ने 'पाण्डित्य का आतंक' जैसा पद प्रचारित कर दिया है और यही कारण है कि वह अपेक्षाकृत कम पढ़े गए हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि कुबेरनाथ राय के निबंध पाण्डित्य और लालित्य का मणिकांचन संयोग का उदाहरण हैं। उन्होंने साहित्य सृजन के लिए एकमात्र विधा- निबंध को चुना है। उनकी सभी रचनाएं मूल्यवान हैं किंतु रस-आखेटक मेरी दृष्टि में सबसे विशिष्ट है। इस संग्रह के निबंधों में उनका भारतीय गंवई मन और बहुपठित, सुचिंतित ऋषि रूप दिखता है। वह ठेठ ग्रामीण विषय हों या शुद्ध काव्य-शास्त्रीय अथवा दार्शनिक; बहुत सजल प्रविधि से अपनी बात निकालते जाते हैं। उनके निबंध हमें एक साथ लोक और जन के बीच ले जाते रहते हैं और हम कभी वाग्वैदग्ध्य से तो कभी उच्च चिन्तनसरणी से आश्चर्यचकित, रसमग्न होते रहते हैं। रस आखेटक में रसोपनिषद शीर्षक से भूमिका है और यह भूमिका ही एक बेहतरीन निबंध है। 
देह-वल्कल, मृगशिरा, एक महाश्वेता रात्रि, मोह-मुद्गर, हरी-हरी डूब और लाचार क्रोध, तमोगुणी, कवि तेरा भोर आ गया आदि बेहतरीन निबंध इसी संग्रह में हैं। इसी संग्रह में यूनानी कवि 'होमर', वर्जिल और शेक्सपियर पर मोनोलॉग हैं। यह मोनोलॉग पश्चिमी साहित्य के प्रति उनके अनुराग और ज्ञान का परिचायक भी हैं।
कुबेरनाथ राय के इस संग्रह को पूर्वांचल (गाजीपुर) की ऋषि परम्परा, निषाद-कोल-भील संस्कृति, असमिया और उड़िया संस्कृति को आत्मसात करने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए।
जयदेव ने गीत-गोविन्द के लिए कहा था - 
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्। मधुरकोमलकान्तपदावलीं शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
उसी तरह अगर आपको साहित्य में कुछ सरस, ज्ञानवर्धक तथा भारतीय संस्कृति के गूढ़ रहस्यों की प्राप्ति करनी हो तो आप 'रस-आखेटक' से मिलें। मेरा मानना है कि आप एक बेहतरीन संसार से रूबरू होंगे।
इस शृंखला में मैं आज ललित निबंधों में विशेष रुचि रखने वाले, खूब पढ़ाकू अनुज डॉ Rajiv Ranjan को नामित करता हूँ।

छठा दिन

किताब का नाम- रश्मिरथी
लेखक- रामधारी सिंह दिनकर
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आज छठे दिन मैंने मित्र गौरव तिवारी और योगेश प्रताप सिंह द्वारा दिए गए दायित्व के पालन के अनुक्रम में रामधारी सिंह दिनकर का खण्ड काव्य 'रश्मिरथी' को चुना है। कवि के रूप में रामधारी सिंह दिनकर और रश्मिरथी के केंद्रीय पात्र 'कर्ण' किसी के परिचय का मोहताज नहीं हैं। महाभारत का सबसे प्रतिभावान और त्रासद पात्र कर्ण है। सूर्य का पुत्र और कुन्ती का जाया कर्ण आजन्म त्रासदी का शिकार रहता है और युद्ध भूमि में भी शापग्रस्त होकर विवश, असहाय मृत्यु को प्राप्त होता है। परिस्थितियां उसके इस कदर विपरीत हैं कि उसका सारथी तक उसे हतोत्साहित करता रहता है और परिवार, वचनबद्धता, द्वन्द्व और मित्रता का दबाव उसे चौतरफा चपेट में लेता रहता है। सूतपुत्र होने का ठप्पा उसे अनेकशः अपमानित किया करता है। ऐसे में त्रासदी से परिपूर्ण पात्र कर्ण को केन्द्र में रखकर रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' नामक खण्ड काव्य लिखा है और उसे महाभारत की त्रासदी युक्त चरित्र से इतर एक नैतिक और विश्वसनीय पात्र के रूप में स्थापित कर दिया है। कर्ण आज सामान्य भारतीय जन के लिए जिस तरह आदर और सहानुभूति का पात्र बन गया है, उसमें बहुत बड़ा योगदान 'रश्मिरथी' का है। रश्मिरथी का आग्रह है कि कर्ण का मूल्यांकन वंश आधारित न करके आचरण और कर्म आधारित हो। वह स्वयं ऐसा करते हुए कर्ण को सामान्य मानवी से महामानव के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। रश्मिरथी में कुल सात सर्ग हैं जिसमें तृतीय सर्ग को विशेष लोकप्रियता हासिल हुई।
इस काव्य ग्रंथ में रामधारी सिंह दिनकर का काव्य कौशल चरम पर है। रश्मिरथी की पंक्तियाँ- जिसमें कृष्ण की चेतावनी वाला प्रसंग -

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

और

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

-तो सहज ही कंठस्थ हो जाती हैं। रश्मिरथी के बहुत से काव्यांश जन जन की जिह्वा पर रहते हैं और प्रसंगवश दुहराए जाते हैं। -

"जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।"

जब रश्मिरथी की शुरुआत में ही रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं-
"तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।"
-तो वह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी दृष्टि कुल-जाति से इतर कर्म के मूल्यांकन में है। और ऐसा करते हुए ही वह कर्ण का परम्परागत मूल्यांकन से इतर और मानवीय भावभूमि पर करने में सफल हुए हैं। इस खण्डकाव्य में कर्ण के चरित्र पर दिनकर ने लिखा है, - "कर्णचरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है।”
कविता में नाद-सौन्दर्य उसकी आयु बढ़ा देते हैं। रश्मिरथी इस दृष्टि से भी बहुत सशक्त काव्य है। वह विमर्श को एक अलग दृष्टि देने वाला काव्य है। रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि हैं और उनकी लोकप्रियता का एक बड़ा पक्ष रश्मिरथी से भी जुड़ा है।
आज छठे दिन मैं अनुज Param Prakash Rai को इस कड़ी को विस्तारित करने लिए जोड़ता हूँ।



सातवाँ दिन

किताब का नाम- स्कन्दगुप्त
लेखक- जयशंकर प्रसाद

#सात_दिन_सात_किताबें

"अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन है, अपने को नियामक और कर्ता समझने की बलवती स्पृहा उससे बेगार कराती है।" -इसी पुस्तक से।

आज मैं दृश्य काव्य (नाटक) से एक कृति ले आया हूँ। यह 'स्कन्दगुप्त' है। प्रणेता हैं- जयशंकर प्रसाद। स्कन्दगुप्त का सीधा सम्बन्ध गाजीपुर से है। सैदपुर भीतरी में वह शिलालेख और स्तंभ आज भी मौजूद है- जिसपर अंकित है कि गुप्त वंश के इस 'विक्रमादित्य' ने हूणों को पराजित किया था।
जयशंकर प्रसाद के बारे में बात करते हुए मैं अक्सर सोचता हूँ कि आठवीं कक्षा तक पढ़ने वाले, बनारस में तम्बाकू का पैतृक व्यवसाय संभालने वाले जयशंकर प्रसाद अपनी रचनाओं में भारतवर्ष के अतीत की व्याख्या करने पर क्यों अपना खून जलाते हैं? अपने सभी ऐतिहासिक नाटकों, विशेषकर- चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त और ध्रुवस्वामिनी में वह इतिहास की तत्कालीन व्याख्याओं से क्यों टकराते हैं। वह इतिहासविद नहीं हैं लेकिन वह अन्तःसाक्ष्य का प्रयोग अकाट्य प्रयोग करते हैं और मार्शल, भण्डारकर, कीथ, टॉड, अलबरूनी, स्मिथ, हार्नेली, काशी प्रसाद जायसवाल, अबुल हसन अली आदि के तर्कों और स्थापनाओं का प्रत्याख्यान करते हैं। जो काम कायदे से इतिहासकार समुदाय को करना था, वह एक नॉन अकादमिक व्यक्ति कर रहा था। जयशंकर प्रसाद का मूल्यांकन इस दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए और छायावाद के शताब्दी वर्ष में इस पर गहनता से विचार किया जाना चाहिए कि जयशंकर प्रसाद की प्रेरणा का स्रोत क्या था! वह उपनिवेशवादी पाठ का भरसक विरोध कर रहे थे और रचनात्मक लेखन से उसका प्रतिपक्ष बना रहे थे।
'स्कन्दगुप्त' गुप्तवंश का प्रतापी सम्राट था जिसके शासनकाल में हूणों का आक्रमण हुआ और उसने सफलतापूर्वक उसका सामना किया। यह नाटक एक तो स्कन्दगुप्त की अमर गाथा की स्मृति के लिए है और दूसरे 'कालिदास' के काल निर्धारण की भ्रांति को दूर करने के लिए। इस नाटक में स्कन्दगुप्त एक भावुक, वीर, स्वाभिमानी, कला संरक्षक, देशप्रेमी और स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने वाले शासक के रूप में प्रदर्शित किया गया है।इस नाटक में स्कन्दगुप्त और देवसेना का प्रेम तो छायावाद कालीन भावना के अनुरूप है ही- सबसे महत्त्वपूर्ण है- 'भारतवर्ष' की हुंकार।
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हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आए थे नहीं।
जातियों का उत्थान पतन, आंधियां झड़ी प्रचंड समीर।
खड़े देखा, झेला हंसते, प्रलय में पले हुए हम वीर।
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न।
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न।
हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव।
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव।
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है वैसा ज्ञान।
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान।
जिए तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।।

भारतवर्ष की इसी हुंकार, गौरवशाली इतिहास और संसृति के अनूठे देश की कहानी गढ़ने वाले जयशंकर प्रसाद मेरे लिए विशेष आदरणीय हैं। जब मैं उनका आख्यान पढ़ता हूँ तो स्वाधीनता के लिए उनकी छटपटाहट साफ देख पाता हूँ। वह अपने नाटकों, कहानियों, कविताओं में इसके लिए अवकाश निकाल लेते हैं।
चंद्रगुप्त नाटक में -"हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।"- की बात हो या इसी नाटक में -
"विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूंको
हमें सब भीति बंधन से छुड़ा दो।"
जयशंकर प्रसाद के यहां स्वाधीनता, अतीत का गौरवपूर्ण आख्यान, हिन्दू जनमानस का खोया स्वाभिमान, स्त्री जाति के कुल-शील की रक्षा आदि विषय इतने गरिमापूर्ण तरीके से आये हैं कि हममें एक विशेष भावना का प्रवाह होने लगता है। आधुनिक शोध जब इस बात को स्थापित कर रहे हों कि आर्य के कहीं से आने की थियरी गढ़ी हुई है और जयशंकर प्रसाद के यहां हम पढ़ते हैं कि 'हम कहीं से आये नहीं थे' तो हमें उनकी विश्लेषण क्षमता, उनके सातत्य बोध पर गर्व होने लगता है। स्कन्दगुप्त इसलिए भी पढ़ना चाहिए।
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शृंखला की आखिरी कड़ी तक आ गया। सात पुस्तकों का चयन किञ्चित दुष्कर कार्य है। अपने निर्माण के साथ-साथ जन की अपेक्षा का भी ध्यान रखना पड़ता है। हालांकि इस मामले में मैंने पूरी छूट ली और सभी सात किताबें 'रचनात्मक साहित्य' की कोटि से निकाल लाया। आत्मकथा, टीका, उपन्यास, डायरी, निबन्ध, कविता और नाटक विधा से हमने अपनी पसंद की कृतियों का उल्लेख किया। अगर अधिक अवकाश रहता तो विश्व साहित्य से 'मेरा दागिस्तान' 'तोत्तो चान' 'आदि विद्रोही' और 'अन्ना कैरेनिना' को भी शामिल करता। भारतीय वाङ्गमय में 'ईशावास्य उपनिषद' 'भतृहरिशतकं' 'पंचतंत्र' जरूर सुझाता। मेरी इच्छा थी कि विजयदान देथा की 'सपनप्रिया' पर परिचयात्मक टिप्पणी करूँ। मुझे कई आत्मकथाओं, राजनीतिक पुस्तकों में 'आपातकाल का धूमकेतु' और जीवनी साहित्य में 'कलम का सिपाही' पर भी बात करना था। यात्रावृत्त में मैं 'अरे यायावर रहेगा याद', नर्मदा के तीरे तीरे' और 'आजादी मेरा ब्राण्ड' की बात करनी थी। मुझे बहुत सी पुस्तकों के बारे में बताना था- जिन्हें लेकर मैं 'प्रलयकाल' में हिमालय की सबसे ऊंची चोटी तक जाना चाहता। मैं 'सूत्रधार' जैसे उपन्यास पर लिखना चाहता था और 'काशी का अस्सी' तथा 'उपसंहार' पर भी। अस्तु।

आखिरी दिन मैं Amrendra Kumar Sharma सर को नामित करता हूँ और आग्रह करता हूँ कि वह अपनी पसंद की सात पुस्तकों से हमें परिचित करावें।
आप सबको इस सफर में सहभागी बने रहने के लिए धन्यवाद।
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शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : बड़का चाचा

इस अग्नि को लगातार प्रज्ज्वलित करना पड़ रहा है। लोबान डालकर आसपास की वायु को सुगन्धित रखने की कोशिश हो रही है। खुले आसमान में रख दिया गया है। एक तरफ जल एक मटकी में रख दिया जायेगा। अब मिट्टी ही शेष है।

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वह कल तक हमारे घर के 'मलिकार' थे। पिछले लगभग चालीस साल से वह हमारे घर के निर्विवाद मलिकार रहे। बाबा के निधन के बाद मुफलिसी में भरे घर के मलिकार से सफर शुरू किया और एक प्रतिष्ठित परिवार में तब्दील करने की अनवरत कोशिश में संलग्न रहे। बाबा ने विरासत में बस प्रतिष्ठा छोड़ी थी। अभी तो मेरा जन्म भी न हुआ था, जब वह मलिकार बन गए। विवाह भी नहीं किया। उनकी अनवरत कोशिश और संकल्पना में खुद का विवाह शामिल ही नहीं था।
बाबूजी ने घर की मुफलिसी को दूर करने के लिए कलकत्ता में चटकल की राह पकड़ी। चाचाजी ने अथक प्रयास से ntpc में सरकारी नौकरी पाई और सबसे छोटे चाचाजी ने वहीँ रहकर हाथ बँटाना शुरू किया। गाँव रहते हुए, तमाम दुरभिसंधियों से जूझते, लड़ते और अंततः अपराजेय रहते हुए उन्होंने घर को गाँव ही नहीं आसपास के गाँव में भी बहुत सम्मानित घर बनवाया। कुछ संपत्ति भी जोड़ने में सफलता पाई। मुकदमे, कचहरी के चक्कर में रहे और कानून के ठीकठाक जानकार बन गए थे। संपत्ति के कई बेमिसाल मुकदमे में घर की प्रतिष्ठा बढ़ाने में सफल रहे।
गाँव की राजनीति के केंद्र में रहे लेकिन खुद को किसी भी ऐसे मामले से अलग रखा। जिसे किंगमेकर कहते हैं, वह सच्चे अर्थों में थे। गाँव और क्षेत्र की विकास योजनाएं उनसे सलाह लेकर बनती थीं यद्यपि अधिकांश समय वह प्रतिपक्ष की राजनीति के भीष्म पितामह थे। अब जबकि माननीय मनोज सिन्हा केंद्रीय मंत्री बने थे, वह अशक्त हो गए थे और उनसे बहुत आशान्वित थे।
वह परिवार संस्था के सबसे बड़े संगठक, संरक्षक और आखिरी आदर्श कड़ी थे।
यद्यपि मुझे अपने बचपन का बहुत कम समय उनके संरक्षण में बिताने का मौका मिला लेकिन किशोरावस्था के जिस अवधि को उनके संरक्षकत्व में मैंने व्यतीत किया वह मेरे निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण काल था। वह ऐसे ही निर्माण के पक्षधर थे। उन्होंने हमें ऐसे बनाया कि हम हर परिस्थिति में डटे रहे सकें। दीदी प्रतिभा और भैया Shashi Kant को उनका सबसे अधिक सानिध्य मिला और अब भी वह हमारे घर में ही नहीं आसपास के गाँव में भी मिसाल हैं।
मैं मानता हूँ कि हममें पढ़ने लिखने के प्रति जज्बा और कुछ कर गुजरने के लिए संकल्प उन्होंने दिया। वह हमारे लिए छतनार थे।

वह हमारे 'बड़का चाचा' थे।

बड़का चाचा के निर्माण का तरीका बहुत अलहदा था। शायद दुनिया के सभी मलिकार की यह नियति हो! उनके संरक्षण में पलने वाले उनके तौर तरीके से खिन्न रहते हैं लेकिन यह निष्ठा भी उन्होंने दी थी कि असहमत रहते हुए भी उनके आदेश का पालन हो। मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने हम भाई-बहनों पर कभी हाथ उठाया हो लेकिन उनका गजब का आतंक था। उनके आदेश का पालन तुरन्त होना चाहिए था वरना वह अव्यक्त आतंक रहता था। मैं आज सोचता हूँ तो पाता हूँ कि कभी ऐसा नहीं हुआ कि हमने उनकी नाफरमानी की हो। अगर कभी हुई भी होगी तो वह हमारी अक्षमता से। उन्होंने सिखाया कि आखिरी समय तक दिए गए टास्क को करना है, चाहे रोते गाते करिये या जैसे भी। वह अपनी नाफरमानी को जिस सहजता से लेते थे, लगता था कि अब कोई आदेश न देंगे लेकिन वह अगले पल में यह करते थे। और उसी धौंस के साथ।
उन्होंने दोस्तों और सम्बन्धियों की एक बड़ी संख्या कायम की थी। कल देर शाम हम याद करते रहे तो पाया कि उनमें से अधिकांश या तो अशक्त हो रहे थे या साथ छोड़कर चले गए थे। बाबू यमुना प्रधान, सुरेश प्रधान, शिवबचन प्रधान उनके ऐसे संगी थे जिनके साथ उनकी बैठकी सुबह ही शुरू होती तो दोपहर तक चलती रहती। चाय पर चाय का दौर चलता रहता। बातें, ख़त्म ही नहीं होतीं थीं। अगली सुबह फिर यह बैठकी हो जाती थी। अब इन तीनों में से कोई नहीं है।
जिन मित्रों को मैं याद कर पा रहा हूँ, उनमें महात्मा प्रधान (कोठियां) फौजदार यादव (पूर्व प्रधान), चंद्रजीत राय (कठउत), अवधबिहारी राय (खरडीहा), सुरेंद्र यादव (एडवोकेट, जल्लापुर) ॐ प्रकाश यादव (जल्लापुर) जग्गन राजभर (मीरपुर), एनामुल हक़ (हुसैनपुर), रामाधार साव (डारीडीह), रमाशंकर यादव (सरैयां) रामबृक्ष गिरी(डारीडीह) लालमुनि यादव (पूर्वप्रधान और अब दिवंगत), जनार्दन यादव (पूर्वप्रधान) रामगहन कुशवाहा(जल्लापुर अब दिवंगत),  रामेश्वर यादव(कलपुरा, दिवंगत) शिवपूजन गिरी (अब दिवंगत) बुच्ची बिन्द (कलपुरा) सबसे पहले उभर रहे हैं।
वह अजातशत्रु नहीं थे। गाँव गिरांव में रहते हुए बहुत से लोग उनसे शत्रु भाव रखते थे लेकिन उनके जीवन में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने उन्हें ठीक से आँख उठाकर देखने की हिम्मत की हो। यह वही थे जो शत्रु भाव में भी हमेशा मदद के लिए तैयार रहते थे।
हम परिवारवालों के लिए वह बहुत रहस्यमयी व्यक्तित्व के व्यक्ति थे, जिसे ठीक से समझने का दावा कोई नहीं कर सकता था। वह ऐसे थे कि जिनकी इच्छा सबसे ऊपर थी। आपको झक मारकर उसे पूरा करना था।
उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं जोड़ा लेकिन हमेशा जोड़ते रहते थे।
आज उनको याद कर रहा हूँ तो हिचकी ले रहा हूँ। सब ऐसे ही कोना पकड़कर रो रहे हैं। जो जहाँ है, वहीँ उनको याद करके बिसूर रहा है। हम उनके आजीवन ऋणी रहेंगे। यह कर्ज कभी नहीं उतर सकता।
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हमारे बड़का चाचा बाबू रमाशंकर राय ने कल पहली जनवरी, 2017 की सुबह पौ फटने से पहले इस असार संसार को विदा कह दिया। उन्होंने इस संसार को कभी असार नहीं माना। जिया और भरपूर जिया। उनमें जिजीविषा बनी हुई थी लेकिन शरीर को लेकर वह बहुत संजीदा नहीं थे इसीलिए आखिरी समय तक शरीर का कहा भी नहीं मानते थे। अन्ततः शरीर ने उन्हें त्याग दिया।
वह हमारे बीच हैं। बने रहेंगे। जब तक गाँव गिरांव के लोग परिवार की बात करेंगे, बाबू रमाशंकर राय का उदाहरण देते रहेंगे।

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जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा देकर गाँव आया तो यहाँ बड़का चाचाजी का पूर्णकालिक सानिध्य मिलना शुरू हुआ। बड़े भैया उसी साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर इलाहाबाद जा रहे थे। उन्होंने ही सुझाया कि राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज, गाजीपुर से मैं भी आगे की पढाई वाणिज्य संवर्ग से करूँ और बाद में चार्टर्ड एकाउंटेंट के लिए तैयारी की जायेगी। मैंने प्रवेश लिया और रोज पढ़ने जाने लगा। मैंने बस से आना जाना तय किया। सुबह निकलता था और शाम पाँच बजे तक वापस आ सकना होता था। गाजीपुर जाने आने में ज्यादा समय लगता था लेकिन ट्रैक बंधा हुआ था। उसी नियत रास्ते से आना जाना होता था।
घर पर बताया गया था कि चाचाजी रोज ही गाजीपुर मुहम्मदाबाद में होते हैं। तो किसी भी दिन मिल सकते हैं। कहीं भी।
उस दिन मैं शाम को लौटा था। घर आया तो अभी किताब रखा भी नहीं था कि बड़का चाचा ने बुलवा लिया। वह अमरुद के उस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे बैठे थे, जिसे बाद में काट दिया गया था और तब उससे प्रभावित होकर मैंने कवितायेँ लिखना शुरू किया था। मेरी पेशी हुई। सहमा हुआ मैं पहुँचा। जाते ही उन्होंने सवाल दाग दिया- "घरे चोखा मिलेला?" जाहिर है-जवाब हाँ था तब अगला सवाल था -"और पूरी?" उसका जवाब भी हाँ था तो अगला सवाल यह पूछा गया कि -"क गो समोसा खइले ह?" यह ऐसा सवाल था जो मेरे लिए भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था। विद्यालय से आते हुए उस दिन मैंने चट्टी पर समोसा खाया था। एक दो नहीं, छः समोसे। लेकिन यह खबर उन तक पहुँची कैसे? मैंने वहाँ समोसा खाने के बाद तिरकट्ठे भागा था और सबसे तेज घर पहुंचा था। इतनी जल्दी कौन था जिसने उन्हें सूचित कर दिया था? यह रहस्य मैं आज तक नहीं सुलझा सका हूँ। 
बहरहाल, उस दिन मुझे पता चल गया कि जरूर इनको पता चल गया है और मैंने सच सच बता दिया। यद्यपि मैं सफ़ेद झूठ बोल सकता था, बोलता भी था लेकिन उनके सामने हिम्मत न हुई।
उन्होंने बहुत प्यार से समझाया कि समोसे कैसे बनते हैं और वह कितने हानिकारक होते हैं।
उसके बाद मेरा समोसा खाना छूट गया। बरसों छूटा रहा। चट्टी पर अब भी कभी समोसा खाने बैठ जाना पड़ा तो उनकी सीख याद आती है। 
बड़का चाचा ने सार्वजनिक जीवन में गाजीपुर मुहम्मदाबाद में बहुत समय व्यतीत किया था और वह जानते थे कि यह जगह कैसी खतरनाक है। वह कभी नहीं चाहते थे कि चट्टी का चटोरा स्वाद हमें भी अपने गिरफ्त में ले ले। इसलिए वह बहुत चौकन्ने रहते थे। आज भी हम कभी भी वहां इसलिए नहीं होते कि यहाँ रहकर समय पास हो जायेगा। टाइम पास जैसी चीज उन्होंने कभी महसूस ही न होने दी।
कभी याद करूँगा कि कैसे वह हम सबको व्यस्त रखते थे।

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घर में इसे परिलक्षित किया गया कि वह कुत्ता जो बड़का चाचा का शैडो था, अंतिम संस्कार वाले दिन के बाद नहीं देखा गया है। वह उनका विश्वस्त सहयोगी था और हमेशा उनके साथ रहता था। छोटा भाई बता रहा था कि जब कभी वह उसे कौरा देना भूल जाता था, बड़का चाचा वापस उसके लिए घर भेजते थे, कौरा लाने के लिए।
बड़का चाचा का पशु प्रेम गजब था। मुझे याद आता है, उन्होंने एक गाय पाल रखी थी, जिसके बारे में मशहूर था कि इसे दूसरा कोई नहीं रख सकता। एक तो इसलिए कि ऐसा भोज्य कोई नहीं परोसने वाला और ऐसा रखरखाव भी करना संभव नहीं। वह थोड़ी थोड़ी देर पर पिसान उसके भोज्य पर छिड़कते रहते थे। दिन में कई बार नाद पर बांधते थे और उसके लिए हमेशा धुँआ की व्यवस्था करते थे। उनके रहते, दुआर पर हमेशा कउड़ा जलता रहता था और हमलोगों का जिम्मा था कि पंखे से हवा करके धुँआ उधर ही जाने दें जिधर गाय बंधी हो।
उन्होंने गोशाला की व्यवस्था भी गजब कर रखी थी। उसे स्वाभाविक रूप से सूखा रखते थे। स्वाभाविक रूप से सूखा रखने का मतलब गाय गोशाला में गोबर तो कर सकती थी लेकिन पेशाब नहीं। वह अनुमान करके गाय को बाहर निकालते थे, उसके पेशाब करने का इंतजार करते तब अंदर बाँधते थे। कई बार यह इंतजार बहुत चुभता था। उन्होंने गाय को ट्रेंड कर दिया था। पेशाब कराने के लिए उनका नुस्खा बहुत कारगर था। उन्होंने एक कटोरे की व्यवस्था की थी। उसके कई छेद कर दिया था। इस कटोरे को पानी वाली नाद में डुबो कर ऊपर उठाते थे तो पानी कई धार में चूता था। दो तीन दफा ऐसा करने पर गाय स्वतः पूँछ उठा देती थी। वह पेशाब कर लेती थी और तब उसे बाँध दिया जाता था। देखने वाले इस प्रयोग पर हैरत करते थे और हँसते थे। चाचाजी के रहते अगर गाय ने अंदर गीला किया  तो शामत हमसब पर आती थी।
इस रखरखाव का असर यह हुआ कि एक बार एक सज्जन ने यह गाय खरीदा और तीन दिन बाद वापस पहुँचा गए। उस गाय ने हमारे खूँटे पर अंतिम साँस ली। फिर चाचा ने किसी गाय के प्रति वह स्नेह नहीं दिया। तब बाबूजी ने चरन की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली थी।
इसी क्रम में याद आता है, एकबार एक कुत्ता बार-बार घर में घुस जाता था। हम सब ने उसे घेर लिया। बड़का चाचा उसका नेतृत्व कर रहे थे। कुत्ता हम सबको चकमा देकर दरवाजे से निकलकर भागा कि अप्रत्याशित लाठी प्रहार से कें कें करता उलट गया। बड़का चाचा भी इससे बहुत विचलित हो गए। पता चला कि यह अचानक प्रहार हमारे चक्रव्यूह में चुपके से शामिल हुए अशोक【झगड़ू】भैया ने किया था। बड़का चाचा ने उन्हें देखा और कहा- 'लईको से लईका और पाड़ो से पाड़ा!' झगड़ू भइया के लिए हम सब बहुत दिन तक ऐसा ही संबोधन करके चिढ़ाते रहे।
बड़का चाचा कुत्तों को हमेशा दुआर से भगाते रहते थे लेकिन हर सर्दी में उनके भूसे में एक कुतिया पपी जनती थी और तब घर को उस कुतिया के लिए पौष्टिक आहार पकाना होता था। बच्चे जी जाते थे और उन्हें भगाने का काम मिल जाता था। यह क्रम अब भी चल रहा है।
अपनी अशक्तावस्था में भी वह दुआर पर बँधी गाय के लिए परेशान रहते थे। कल जब उस कुत्ते को लापता चिह्नित किया गया तो उनके पशु प्रेम को याद किया गया। वह अद्भुत थे।

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यों तो बड़का चाचा बहुत कम घर पाये जाते थे लेकिन जिस दिन पाये जाते थे उस दिन उनके हाथ में खुरपी, कुदाल, फावड़ा, टांगीं-टाँङ्गा देखा जा सकता था। वह दुआर को चिक्कन रखने में भरोसा रखते थे और स्वच्छ भारत अभियान के ब्राण्ड एम्बेसडर हो सकते थे। उनकी प्रेरणा से दुआर पर फूलों की क्यारी पल्लवित पुष्पित थी और हमारा दुआर करियात का एकमात्र दुआर था जहाँ गुलाब, बेला, चमेली और गेंदा जैसे फूल पाये जा सकते थे। वह अड़हुल और कनेर में विश्वास नहीं रखते थे लेकिन पुजारियों के लिए उसे भी जिलाया हुआ था। वह क्यारियों में निराई गुड़ाई के निरीक्षक और प्रमुख थे। उन्होंने अपने हाथों से आम, अमरुद, श्रीफल, मुसम्बी, नींबू, नीम जैसे बेहद जरुरी फलों के वृक्ष लगवाए थे और इस तरह हमारा घर गर्मियों में भी एक बड़ा आकर्षण बन गया था। आम के प्रति मेरा प्रेम उन्हीं के कारण जवान हुआ है।
दुआर पर एक बगीचा बनाने के बाद जब दसेक साल पहले उन्होंने पूरापर ट्यूबवेल स्थापित करवाया तो वहां भी आम, जामुन, श्रीफल, नीम, कटहल, बड़हर, गूलर, शिरीष, बाँस लगाया। अब पूरापर एक बहुलतावादी वृक्षसमूह का स्थान है, जहाँ हम जाने के लिए विवश हो जायेंगे। कहने का मतलब यह कि चाचाजी ने वृक्षारोपण के लिए खूब स्पेस रखा। उनका मन रमता था। जिस दिन वह घर होते थे, काम निकाल लेते थे। कुछ न हुआ तो निराई करने से जो घास निकलती थी, हमें जिम्मा देते थे कि हम एक गड्ढा खोदकर उसमें इस घास को दबा दें। कई बार गड्ढा खोदते हुए हम रागदरबारी के उस प्रसंग से रूबरू होते जिसमें प्रिंसिपल वृक्षारोपण के लिए गड्ढा खोदवाते हैं और खोदने वाला पूछता है- 'बस?' तो प्रिंसिपल कहते हैं,- 'यह कोई गड्ढा है? चिड़िया भी मूत दे तो उफना जाए!!' और ज्यादा खोद जाए तो यह कि इसमें किसी को दफन करना है क्या? हम गड्ढा खोदने को बेहद गैरजरूरी काम मानते लेकिन उनके आदेश का पालन करते।

बड़का चाचा के लिए उनका आदेश सर्वोपरि था। वह उसका पालन होते देखना चाहते थे। कई बार वह इसका ख्याल भी नहीं रखते थे कि इससे हमारा कैसा नुकसान होगा। एक वाकया याद करना चाहूँगा- वह सन 1997 था। उस साल की एक त्रासद याद यह है कि हमारा इण्टर का बोर्ड था और दूसरा यह कि उस साल आलू की पैदावार इतनी ज्यादा थी कि किसान को यह लगता था कि शीत गृह में रखने की बजाय खेत में सड़ने देना ज्यादा श्रेयस्कर है। उस साल कई ऐसे मसले सुनने में आये कि चोरों ने बोरे चुरा लिए और आलू छोड़ गए। हमारी त्रासदी यह भी थी कि हमारे एक बीघे खेत में महज 35 कट्टा आलू हुआ था, जबकि औसतन 100 कट्टा होना चाहिए था। कम पैदावार से आशंकित बड़का चाचा ने खुदाई स्वयं करने का निर्णय लिया और रोज सुबह कुदाल लेकर खेत में चले जाते। मेरी परीक्षाएं 2 बजे से होना तय थीं और इसके लिए मुझे 10 साढ़े 10 तक घर से निकलना रहता था। मुझे गाजीपुर जाना रहता था परीक्षा देने। चाचाजी सुबह खेत पर जाने से पहले मुझे कहकर जाते कि चाय लेकर आना। खेत पर चाय लेकर जाने का मतलब था, एक घंटा आने जाने का खर्च करना। उसी में वह कहते, 'जब तक बाड़े तबतक दू जोड़ा खन दे!' और कुदाल पकड़ने का मतलब होता थकान। फिर परीक्षा के लिए तैयारी का एल के डी हो जाता। एक दिन मना कर दिया तो बहुत समय तक मन खिन्न रहा और लगा कि इससे अच्छा था कि कुदाल लेकर कुछ जोड़े खोद ही दिया होता! खैर, परीक्षा हुई और मैंने पहला और आखिरी सेकेण्ड डिवीजन वहीँ से हासिल किया।
आज बड़का चाचा को याद कर रहा हूँ, फिर अपनी कई असफलताओं को याद करता हूँ, अपने संघर्ष को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ऐसा कूल कैसे रह सका। कभी विचलित नहीं हुआ तो आकलन करता हूँ कि बड़का चाचा ने हमें ऐसी दुसहस्थितियों के लिए ऐसे ट्रेंड किया था। वह कभी कभी अपने दोस्तों से कहते थे- इनलोगों को ऐसा बनाया है कि कहीं भी इज्जत की दो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेंगे।

बड़का चाचा ने हमें सिखाया कि लोगों की इज्जत कैसे की जाती है। हममें जो सामंती संस्कार थे, उसे उन्होंने लगातार क्षीण करने में महती भूमिका निभाई। एक बार मैंने रामाधार साव के आने पर जब उन्हें बताया कि 'रमधार आइल हऊँवन' तो उन्होंने छूटते ही कहा कि वह तुमसे छोटे हैं? कि तू उनके दिया देखवले हउवे! हमने उसके बाद दुआर पर आने वाले सभी बड़े बुजुर्गों के लिए यथोचित संबोधन की परंपरा शुरू की और पाया है कि यह आदर देने और पाने का सबसे बेहतरीन तरीका है।
कल आपको बताऊंगा कि बड़का चाचा कैसे विरुद्धों का सामंजस्य थे और उनके यहाँ दो विपरीत ध्रुव के लोग एक साथ रह सकते थे।
अभी यह पोस्ट लिख ही रहा था कि बड़का चाचा के पचास साल तक अभिन्न मित्र रहे जग्गन राजभर (सोखा) के निधन की खबर आई है। बड़का चाचा के निधन के एक सप्ताह बाद उनका जाना दो दोस्तों  के आपसी ट्यूनिंग का अपूर्व उदाहरण कहा जा रहा है। हम आज उन्हें देखने भी गए थे। तुलसी गंगाजल देकर लौटे थे।
हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि सोखा बाबा को।

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बड़का चाचा को याद करते हुए आज बार बार रामअवतार गिरी और उनके भतीजे बद्री गिरी का स्मरण हो रहा है। यह चाचा भतीजा जोड़ी अद्भुत थी। रामअवतार काका को 'मुंडी' और बद्री काका को 'खस्सी' कहकर चिढ़ाते थे गाँव में लड़के। इन्हें चिढ़ाने के लिए बच्चों को कुछ करना नहीं होता था, बस कुछ टिटकारी भरनी होती थी। रामअवतार काका हमेशा रंग से सराबोर रहते थे। नाटे कद के थे, गोरे रंग के। लाठी कंधे पर रखकर चलते थे माँजते हुए। बद्री काका भी लाठी रखकर चलते थे। यह दोनों ही अलसुबह हमारे यहाँ आ जाते थे, उधर से कुल्ला करते हुए। सुबह की चाय हमारे यहाँ बड़का चाचा के साथ लेते थे और हमारे साथ साथ आसपास के लोगों के लिए मनोरंजन का मसाला तैयार हो जाता था। जिस तरह से दोनों भिड़ते थे, वह बेहद आक्रामक होता था। जब एक लाठी लेकर आगे बढ़ता, दूसरा भागता; जब दूसरा थम जाता तो पहला सहम कर वापस लौटता। यह क्रम बहुत देर तक चलता। बड़का चाचा निस्पृह भाव से यह होते देखते। हम सब मजा लेकर।
वैसे बड़का चाचा के हँसने, मजा लेने का ढंग अनूठा था। जब वह हमें किसी ऐसी बात पर डाँटते जिसमें हँसी मजाक हो रहा होता तो डाँट सुनते हुए भी हमारी हँसी न रुकती तो वह एक विशेष तरीके से डाँटते। बाद में हमने जाना कि इस विशेष तरीके से डाँटने में वह अपनी स्मित मुस्कराहट शामिल कर लेते और इस समय संयम का अद्भुत परिचय देते। हमें उनके इस हँसने से बहुत डर लगता! वह अपने दोस्तों के साथ होते तो खुलकर हँसते लेकिन हम सबके बीच नहीं। गंभीरता बनाये रखने के लिए हँसना मना रहता है!
यों बड़का चाचा हमलोगों से बहुत कम बात करते थे लेकिन अपने संगी साथियों के बीच रहते तो किसी प्रसंग पर गाली देना होता तो विशेष अंदाज में देते! उनका प्रिय सुभाषितानि था- ओकरी माई की बेटी की बहिन की बेटी की ऐसी की तैसी! हम जब भी यह गाली सुनते, पहिले रिश्ते की रीजनिंग समझने में उलझ जाते।
बड़का चाचा के दोस्त अलग थे, संगी अलग! परिचितों की संख्या बहुत थी। कौन उनका दोस्त है, कौन संगी या परिचित इसका पता लगाना कठिन था लेकिन रामअवतार काका और बद्री काका के मसले में मैं कह सकता हूँ कि उन्होंने कभी भी रामअवतार काका को कुछ नहीं कहा। जब भी कुछ कहना हुआ, बद्री काका को कहा और चिढाना हुआ तो खस्सी कहकर! एक साम्यता यह थी कि तीनों बीड़ी और चाय के शौकीन थे।
मुझे वह रात कभी नहीं भूलती जब तकरीबन दो ढाई बजे मुझे चारा मशीन के चलने की आवाज सुनाई पड़ी। वह गर्मियों की रात थी और हम छत पर सोते थे। रात के इस प्रहर में चारा मशीन चलता देख मैंने सहज अनुमान किया कि बड़का चाचा ने बिना समय देखे गाय नाद पर लगा दी है। वह गाय को ताजा चारा खिलाते थे। मैं उठकर आया कि चारा बालने में मदद कर दूं तो देखा कि चारा रामअवतार काका काट रहे हैं। उन्होंने पड़ोस के खेत से चारा चुराकर काटा था और बालकर अपने घर ले जाने को थे! मैंने इसे सामान्य घटना मानकर इग्नोर किया और छत पर सोने पहुँच गया।
कुछदेर बाद ही लाठियों की आवाज और ऊँची आवाज में बहसें सुनाई पड़ीं तो पता चला कि बद्री काका भी कहीं से चले आये थे और दोनों एक दूसरे को चोर कहकर गरिया रहे थे! उस देर रात हम तमाशाई थे और इस तमाशे में अपना आनंद था। हम बच्चे थे और हमारे लिए तमाशा कभी भी हो, आनंददायी था! मैंने देखा और आज भी सोचता हूँ कि बड़का चाचा ने उस रात नींद में खलल पड़ने के बाद भी दोनों को कुछ न कहा और करवट बदल बदल कर मजा लेते रहे। बाद में बद्री काका को बीड़ी पिलाया और जाने कैसे मामला सलटाया!
खैर, बड़का चाचा को ऐसी स्थितियों में भी मैंने कूल रहते और बिना विचलित हुए चाय परोसते और बीड़ी सुलगाते देखा। यह बड़का चाचा थे जो दोनों को साध सकते थे और आसपास बैठाकर घंटों उलझाये रख सकते थे, वह भी गंभीर रहकर। वह गंभीरता भी दुर्लभ चीज है।
उन्हें पुनः प्रणाम!!

कथावार्ता : रोटी (चपाती), हथरोटिया और लिट्टी

आज सुबह नाश्ते में मेरे समक्ष विकल्प था - रोटी या हथरोटिया! हमने हथरोटिया चुना। बरसों हो गए थे खाये! रसोई में लकड़ीवाला चूल्हा और उसपर सिकें हथरोटिया का स्वाद अगर आपने लिया होगा और विकल्प हो कि चाहें तो चुन लें तो उसे पाने के लिए आप जरूर मचल जाएंगे। हमने चुना और मजे में खाया। स्वाद? 'यो ब्रो' वाली पीढ़ी जिसे 'यम्मी' कहती है, वह इस स्वाद से परिचित ही नहीं है। परिचय हो जाये और चबाने के महत्त्व से परिचित हो जाये तो उसे पता चलेगा कि रसोई में हमारी माँ/चाची क्या क्या व्यंजन रान्धती थीं। 
रोटी या चपाती से तो हम परिचित हैं। हथरोटिया अपेक्षाकृत मोटी रोटी होती है। तवे पर सिंकने के बाद इसे चूल्हे में पकने के लिए रखते हैं। आमतौर पर चूल्हे के मुहाने के पास। मद्धिम आंच में पकती है। मीठी होती है। संयुक्त परिवारों में जहां रोटी अधिक पकाना रहता है, बहुएं और रसोई का जिम्मा लेने वाले बाद में हथरोटिया बना लेते हैं। महीन रोटी बेलने के झंझट से निजात मिल जाती है। स्वादिष्ट ऐसी कि पूछिये मत। जिनने नहीं खाया, वह जानते ही नहीं। जान भी नहीं सकते।

एक और चीज है, लिट्टी। गोल। खूब मोटी। समझिए कि दस चपाती की एक मोटी लिट्टी। बेलने के लिए चकला-बेलन आवश्यक नहीं। तवे पर थोड़ी देर सिंकेगी, फिर चूल्हे में। चूल्हे की दीवार के सहारे खड़ी कर दी जाती है। थोड़ी देर देर में उलटते पलटते रहना पड़ता है। जब सिंक कर चइला हो जाये तो खाते हैं। नमक मिर्च भी पर्याप्त है। जिन घरों में पौष्टिक आहार का अभाव था, उसमें लिट्टी हीमोग्लोबिन का जबर स्रोत ठहरी। चूल्हे की आग आयरन की कमी पूरी करती है। नवप्रसूता जब हीमोग्लोबिन की कमी से जूझती थी, यहां उसकी भरपाई करती थी। वे मजदूर जो दिनभर मजूरी करके खटते हैं, शाम को लिट्टी पकाते हैं। जब तक तरकारी पकती है, लिट्टी भी बन जाती है। प्रेमचंद की एक कहानी में मजदूर फावड़े का इस्तेमाल तवे की तरह करते चित्रित हुए हैं। उनपर लिट्टी ही पकेगी, चपाती नहीं। खैर, तो लिट्टी अद्भुत चीज ठहरी। गजब की। स्वाभाविक रूप से मीठी। अन्न कितना मीठा होता है, आप इसे खाकर जान सकते हैं। 
लोगबाग लिट्टी और चोखा से जोड़ सकते हैं। इधर पूर्वांचल का प्रिय व्यंजन है। लेकिन जो लोग अंतर जानते हैं, वह समझ जाएंगे कि यह लिट्टी वह नहीं। लिट्टी चोखा वाली लिट्टी को हम भौरी कहते हैं। आग में नहीं, यह भौर में पकती है। भौर आग के मद्धिम पड़ने पर बची हुई ऊष्मा से बनती है। राख में बची हुई ऊष्मा भौर है। 
बाटी वह है जिसमें पूरन भरते हैं। पूरन आमतौर पर सत्तू का होता है। भौरी में कुछ नहीं डालते। वह स्वयं में पूर्ण होता है। पूरन डाल दिया, यानी उसकी पूर्णता में कोई संदेह था। इसतरह बाटी पूर्ण बनने/बनाने की कोशिश है। जबकि भौरी में शून्य की उपस्थिति है। शून्य मतलब 'कुछ नहीं' नहीं। शून्य का मतलब 'जीरो' नहीं है। यह पूर्णता का प्रतीक है। तो ग्रामीण जिस भौरी का सेवन करते हैं, वह पूर्ण से साक्षात्कार है। हमने कल बाटी खाई। सत्तू का पूरन बना था।

एक और ही व्यंजन है- मकुनी। जब चपाती के बीच में कुछ पूरन भरते हैं तो बनती है मकुनी। सत्तू, आलू, मटर आदि आदि का पूरन हो सकता है। बाद में परांठे बनने लगे तो सब उसी में मिक्स हो गया।
'पूरी' की चर्चा आदरणीय #कुबेरनाथ_राय ने अपने एक निबंध में बहुत मजे से की है।

अब जबकि खाने पीने की चीजों में भी एकरसता आ गयी है। महीन खाने के चक्कर में हम सब अपनी रसोई से विविधता नष्ट कर चुके हैं, एक मोनोपोली कल्चर घर कर गया है और फास्टफूड ने भिन्न स्वाद लेकर हमारे स्वादेन्द्रिय को बदल डाला है, हम इन व्यंजनों से दूर होते जा रहे हैं। 
(चित्र में देखें,हमारे दरवाजे पर खिला हुआ गुलाब और आंवले की हरीतिमा। इस बार आया तो लंगड़ा आम उकठ गया देखा। वह जगह सूनी लग रही।)

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : सात दिन सात किताबें- चयन डॉ गौरव तिवारी

                               

पहला दिन
पुस्तक का नाम- परम्परा का मूल्यांकन
लेखक-रामविलास शर्मा

      अगर यह खेल है तो यह बहुत प्यारा खेल है। आज के मोबाइल और सोशलमीडिया के युग में इस तरह के खेल बहुत जरूरी हैं। एंड्रॉयड फोन के माध्यम से इतना कुछ हमारी मुट्ठी में हो गया है कि लोगों और किताबों से वास्तविक रूप से कटते हुए हम खुद इसकी मुट्ठी में हो गए हैं । ऐसे में उन किताबों, जिन्होंने हमें प्रभावित किया है -की बातें करना अपने अंदर झांकना भी है।
मित्र शंखधर दुबे जी ने सात दिन सात किताबों की अपनी शृंखला में आज मुझे जोड़ा है तो सबसे पहले मैं उस किताब की बात करूंगा जिसने मुझे बहुत हद तक बदला। यह किताब है "परम्परा का मूल्यांकन"। इसके लेखक हैं डॉ रामविलास शर्मा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक की कक्षाओं के दौरान मित्र नीलाभ के माध्यम से हिंदी के बड़े अध्येता और आलोचक डॉ नन्दकिशोर नवल सर से परिचय हुआ। नवल जी पटना से इलाहाबाद में संगोष्ठी में आते थे। उनके आने पर हम दोनों उनके आगे पीछे लगे रहते थे। उनके साथ रहना हमें सहज रूप से बहुत अच्छा लगता था। वे सुदर्शन व्यक्तित्व के बुजुर्ग विद्वान थे।  हम लोगों के प्रति उनका स्नेह इतना था कि हर बार हमारे लिए वे कोई न कोई किताब भी लाते थे। हम उनके थकने तक उनसे बात करते। उनकी ट्रेन पटना कुर्ला एक्सप्रेस के रात 12 बजे के आसपास आने तक स्टेशन पर उनसे लिपटे रहते। उनसे जुड़ी कई बातें हैं वे फिर कभी।
एक बार जब वे आए हुए थे। सहज जिज्ञासा से यह पूछने पर कि कुछ ऐसी किताबें बताइये जिन्हें हमें पढ़ना चाहिए। उन्होंने रामविलास जी की "परम्परा का मूल्यांकन" और "भाषा और समाज" का नाम लिया। हमने तुरन्त परम्परा का मूल्यांकन का पेपरबैक संस्करण लिया और उसे पढ़ गए। मुझे लगता है यह 1999-2000 की बात है। उस वक्त मैं बीए भाग तीन में था।
आज सोचता हूँ तो महसूस होता है कि इस किताब ने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसने मुझसे हिंदी साहित्य और भारतीय परम्परा का नए ढंग से परिचय कराया। हमें खूब पढ़ने की प्रेरणा दी और भारतीयता के प्रति गर्व की भावना भरी। इस पुस्तक से प्राप्त ज्ञान से हमारी मानसिक बुनावट ही नहीं प्रभावित हुई विषय विशेष पर लिखने का संस्कार भी मिला। जबसे थोड़ी बहुत समझ बनी है तबसे मुझे लगता है कि वाक्य निर्माण, विराम चिह्नों का प्रयोग, पैराग्राफ बदलने का संस्कार आदि बहुत कुछ मुझे इस पुस्तक से प्राप्त हुआ। ऐसी पुस्तक को पढ़कर भी यदि नालायक हूँ तो यह मेरी सीमा है। मुझे लगता है कि साहित्य के विद्यार्थियों को ही नहीं, सबको यह किताब पढ़नी चाहिए। आज एक अध्यापक के रूप में जब मैं अपनी कक्षाओं में टेस्ट लेता हूँ तो सबसे ज्यादा नम्बर पाने वाले के लिए मेरा एक उपहार "परम्परा का मूल्यांकन" भी होता है।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं मित्र रमाकान्त राय डॉ रमाकान्त राय जी जो कि खूब पढ़ते हैं, को जोड़ता हूँ।

दूसरा दिन
पुस्तक का नाम- आधा गाँव
लेखक- राही मासूम रज़ा

सात दिन सात किताब शृंखला के अंतर्गत मित्र शंखधर दुबे द्वारा दिये गए उत्तरदायित्व के अंतर्गत आज मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहूंगा वह है  डॉ राही मासूम रजा का उपन्यास "आधा गाँव"। स्वतंत्रता पूर्व और पश्चात के बदलते भारत में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव 'गंगौली' के शिया मुस्लिम परिवारों की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मुझे 'हिंदी के मुस्लिम उपन्यासकारों के उपन्यास' पर शोध कार्य करने पर मजबूर होना पड़ा।
मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि पिछले कई दशकों से भारतीय समाज में अलग अलग धर्मों को लेकर इतना खुलापन नहीं है कि भिन्न भिन्न धर्मों के सामान्य लोगों में अपने से भिन्न धर्म वालों के लिए अनेक अफवाहें न हों। मुस्लिम समाज के प्रति मुझ जैसे पृष्टभूमि वाले सामान्य गैर मुस्लिमों में ढेर सारी जिज्ञासाएं और अफवाहें तैरती थीं। इसलिए 'आधा गाँव' मेरे लिए एक अपरिचित दुनिया खोलने वाला उपन्यास था। इसके पहले मेरे लिए मुहर्रम सिर्फ हुसैन साहब की याद में लगने वाला मेला मात्र था। मुहर्रम मेले से ज्यादा एक अलग दुनिया भी है, यह 'आधा गाँव' ने बताया। देश में अलगाव के बीज कैसे बोए गए, परिवार कैसे तबाह हुए, गंगा यमुनी तहजीब को कैसे कलंकित करने की पटकथा रची गई यह सब इस उपन्यास के माध्यम से समझा जा सकता है। स्वतंत्रता पूर्व के भारत में हिन्दू मुस्लिम सह अस्तित्व का स्वरूप, गांवों और परिवारों में अवैध सम्बन्धों की दुनिया, भारत विभाजन का दंश, समय के साथ तादात्म्य न बैठा पाने के कारण पतनोन्मुख होते मुस्लिम जमीदार परिवार के साथ  जिंदादिल और मनबढ़ पत्रों की बेलौस-बिंदास गालियाँ, ये सब एक वास्तविक दुनिया की आत्मीय सैर कराते हैं।
मुझे लगता है आज के दौर में साहित्य के प्रत्येक प्रेमी को तो इस उपन्यास को पढ़ना ही चाहिए। यह उपन्यास मुहर्रम की तरह आपको गमगीन भी करेगा और एक अलग दुनिया में लेजाकर मेला भी कराएगा।
इस शृंखला को बढ़ाते हुए मैं सात अलग अलग किताबों की चर्चा के लिए मैं अपने पढ़ाकू मित्र डॉ अखिलेश शंखधर जी को नामित करता हूँ।

तीसरा दिन
पुस्तक का नाम- दीवार में एक खिड़की रहती थी 
लेखक-विनोद कुमार शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला में मेरी आज की किताब है हिन्दी के विशिष्ट कवि और कथाकार विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास "दीवार में एक खिड़की रहती थी"। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी में अपने तरह के अकेले लेखक हैं। भाव और भाषा में वे इतने सरल हैं कि अर्थ गाम्भीर्य के प्रतिमान बन जाते हैं।
उक्त उपन्यास के नायक रघुवर प्रसाद हैं जो एक छोटे कस्बे के महाविद्यालय में अध्यापक हैं।  वे नवविवाहित हैं ।उनकी पत्नी का नाम सोनसी है। दोनों एक कमरे के मकान में किराये पर रहते हैं। यह कमरा ही रघुवर और सोनसी की दुनिया है। इसी कमरे में उनका चूल्हा-चौका और शयनकक्ष हैं। कमरे में एक दरवाजा और एक ही खिड़की है। कमरे के अंदर उनकी वास्तविक दुनिया है तो खिड़की के बाहर उनकी कल्पना की दुनिया। कमरे में जीवन का यथार्थ है तो खिड़की के बाहर प्रकृति की गोद में प्यार का आकाश है। खिड़की से बाहर जाने पर रघुवर और सोनसी को एकांत और प्यार के क्षण मिलते हैं। रघुवर जब दरवाजे से बाहर  निकलते हैं तो उनके साथ निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति का संघर्ष होता है और जब खिड़की से बाहर निकलते हैं तो निम्नमध्यवर्गीय प्यार,आशाएं और आकांक्षाएं होती हैं।
कथा कहने की विनोद जी की अपनी शैली है। यह शैली इतनी विशिष्ट है कि उपन्यास पढ़ते-पढ़ते नायक-नायिका से ही नहीं, लेखक से भी प्यार हो जाता है । पहली बार पढ़ने के बाद यह उपन्यास मुझे इतना पसंद आया कि मैंने अपने अनेक मित्रों को उपहार रूप में भी दिया। पतला सा यह उपन्यास आपसे आपका एकांत मांगकर आपको अपने एकांत में ले जाता है। इस एकांत में आज के समय की आपाधापी और शोर-शराबा नहीं है। तेज आँधी वाले आज के चिलचिलाते समय में यह उपन्यास फूलों की वादियों से निकली हुई भोर की शीतल मंद बयार है। अगर आपने यह उपन्यास नहीं पढ़ा तो हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि से वंचित रह गए।
सात दिन सात उपन्यास की इस शृंखला को बढ़ाने के लिए आज मैं अनुज मित्र https://www.facebook.com/profile.php?id=100007161274232 को नामित करता हूँ।

चौथा दिन
पुस्तक का नाम- सत्य के साथ मेरे प्रयोग
लेखक- महात्मा गांधी

सात दिन सात किताबें के चौथे दिन मैं जिस किताब के बारे में बात कर रहा हूँ वह महात्मा गाँधी की आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" है।
आधुनिक भारत में गाँधी का व्यक्तित्व वटवृक्ष के समान है। वटवृक्ष सही मायनों में भारतीय संस्कृति का प्रतीक हो सकता है। एक विशाल वटवृक्ष का निर्माण सदियों में होता है और उसकी शाखाएं एक नए वृक्ष का रूप धारण कर सदियों तक अपनी छाया में रहने वालों को शीतलता प्रदान करती हैं। गांधी जी ऐसे ही थे। गीता, ईशावास्योपनिषद और बुद्ध ने ही नहीं अन्य धर्मों के सांस्कृतिक ग्रन्थों ने भी उनका निर्माण किया था। वे आधुनिक भारत में भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि के रूप में स्थापित होते हैं और आगे की पीढ़ियों के लिए प्रतिमान रखते हैं। उनसे निकलने वाली शाखाएं अर्थात सच्ची गांधीवादी धारा भी वैसी ही शीतलता प्रदान करती है।
गांधी मनुष्य थे और गलतियां उनसे भी हुई हैं। इन गलतियों के बावजूद वे बहुत बड़े हैं। उनकी निर्मित सामान्य मनुष्य की निर्मिति नहीं है। उनकी निर्मिति को समझने के लिए उक्त पुस्तक आधार पुस्तक है। अगर आज के रीढ़हीन, मूल्यहीन और मनुजताहीन होते समय में हमें महान भारतीय संस्कृति को यदि उसके स्वभाविकता के साथ बचाए रखना है तो हम गांधी को छोड़ नहीं सकते। गांधी को इस पुस्तक के बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता। इस पुस्तक में वे अपनी श्रेष्ठता और न्यूनता के साथ सामने आते हैं।
चुँकि यह पुस्तक भारत की प्रायः प्रत्येक भाषा में उपलब्ध है इसलिए प्रत्येक भारतीय को इस पुस्तक  को जरूर पढ़ना चाहिए।

सात दिन सात किताबों की इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपने मित्र आलोक तिवारी https://www.facebook.com/alok.tiwari.79656921 को नामित करता हूँ।

पांचवाँ दिन
पुस्तक का नाम- हिन्दी कहानी संग्रह
लेखक/सम्पादक- भीष्म साहनी

सात दिन सात किताबें शृंखला के पाँचवे दिन मैं एक सम्पादित किताब का जिक्र करना चाहता हूँ। यह किताब है प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी द्वारा सम्पादित "हिन्दी कहानी संग्रह" जिसे साहित्य अकादमी ने छापा है।
कहने को तो यह एक किताब है लेकिन कथाभूमि और संवेदना के स्तर पर यह विशाल फलक को स्पर्श करती है। साथ ही एके साथ आपको अनेक किताबों से मिलने वाला सुख देती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लिखी गई हिंदी की तीस श्रेष्ठ कहानियों को आप यहाँ पर एक साथ पा सकते हैं। ये सभी कहानियां अपने में बेजोड़ हैं और अपने रचनाकारों की रचनात्मकता का सही अर्थों में प्रतिनिधित्व करती हैं। रेणु जी की "लाल पान की बेगम", निर्मल वर्मा की "परिन्दे", मोहन राकेश की "मलबे का मालिक", अमरकांत की "दोपहर का भोजन ", शानी की "दोज़खी", शैलेश मटियानी की "प्रेत मुक्ति", भीष्म साहनी की "वाङ्गचू", राजेन्द्र यादव की "जहाँ लक्ष्मी कैद है", मन्नू भंडारी की "त्रिशंकु", कृष्णा सोबती की "बादलों के घेरे", उषा प्रियम्वदा की "वापसी", मार्कण्डेय की "हंसा जाई अकेला", गिरिराज किशोर की "पेपरवेट", शेखर जोशी की "कोसी का घटवार"...... एक से बढ़कर एक कहानियां हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए आप भावनाओं के समंदर में गोते लगाने को मजबूर होंगे। इनमें से अधिकांश कहानियां आपको हिला देंगी और आपको मनुष्य बनने पर मजबूर करने का प्रयास करेंगी। अगर आप स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हिंदी कहानियों में कुछ को नहीं पढ़ पाए हैं या अधिकांश को पढ़ना चाहते हैं तो यह संग्रह आपके लिए है। इसी तरह का एक और कहानी संग्रह एक दुनिया समानांतर भी है जिसे राजेन्द्र यादव ने सम्पादित किया है। दोनों संग्रहों की लगभग आधी कहानियां समान हैं लेकिन यहां जिस संग्रह की बात की जा रही है उसमें "एक दुनिया समानांतर" से सात-आठ अधिक महत्वपूर्ण कहानियां हैं और इसका मूल्य भी उसके एक तिहाई है।

आज मैं इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पढ़ाकू मित्र और एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्तित्व Bano Sahiba को इस आशा से नामित करता हूँ कि उनके चयन हमें समृद्ध करेंगे।
छठा दिन
पुस्तक का नाम- मुर्दहिया
लेखक- तुलसीराम
सात दिन सात किताब शृंखला में आज छठें दिन मेरे द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आज की किताब एक बहुत महत्वपूर्ण आत्मकथा है इसका नाम "मुर्दहिया" है। इसके लेखक प्रो तुलसीराम हैं जो जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में आचार्य रहे हैं।
"मुर्दहिया" हमारे समाज की अत्यंत गरीब और  अस्पृश्य समझी जा रही जाति में जन्में एक ऐसे व्यक्ति के संघर्षों की दास्तान है जो हमारे समाज की गंदगी के कारण सामाजिक रूप से उपेक्षा और घृणा का जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दलित समझी माने जाने वाली जाति में में जन्में डॉ तुलसीराम जो बचपन में ही चेचक की गिरफ्त में आकर काने और बदसूरत हो गए थे, ने कलेजा निकाल लेने वाली अपनी इस आत्मकथा में हमारे इस समाज की विद्रूपता और दोमुंहेपन को नंगा करते हुए प्रस्तुत किया है।
दलित कही जाने वाली जातियों के साथ सवर्ण और सामंती कहे जाने वाले लोगों का पाशविक आचरण और व्यवहार हमारे समाज की एक ऐसी सचाई रही है जिससे मुक्ति की कामना के साथ सिर्फ शर्मिंदा ही हुआ जा सकता है। समाज में शिक्षा और आर्थिक स्थिति में हुए परिवर्तनों ने यद्यपि कि इसकी अमानवीय प्रवृत्ति को बहुत कम किया है लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
डॉ तुलसीराम इस आत्मकथा में अपनी जन्मभूमि के इतिहास और भूगोल के साथ ही नहीं वहाँ के रीति-रिवाज, भाषा, रहन-सहन और समाज की कुरीतियों के साथ उपस्थित होते हैं। उन्होंने अपनी इस कृति में बड़े संयत भाव और ईमानदारी से अपने जीवन संघर्ष को प्रस्तुत किया है।
मुझे लगता है जातिगत भेदभाव से युक्त अपने समाज में प्रत्येक व्यक्ति को इस कृति को अवश्य पढ़ना चाहिए। यह कृति हमें स्नेह पूर्वक शर्मिंदा करते हुए अपनी न्यूनताओं से मुक्त होने के लिए उत्प्रेरित करती है और समतामूलक समाज के स्थापना की प्रेरणा देती है।

इस शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए मैं अध्ययनशील और विवेकवान Pritosh Paritosh Mani सर को नामित करता हूँ।

सातवाँ दिन
पुस्तक का नाम- राग दरबारी
लेखक- श्रीलाल शुक्ल

सात दिन सात किताब शृंखला के सातवें दिन मैं जिस किताब की चर्चा करना चाहता हूँ वह व्यंग्य विधा की शास्त्रीय कृति 'राग दरबारी'  है। 'राग दरबारी' हिंदी उपन्यास साहित्य का एक बहुमूल्य नगीना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर चर्चा के दौरान व्यंग्य की परिभाषा देते हुए व्यंग्य उसे माना है जब व्यंग्यकार अधरोष्ठों से मुस्करा रहा हो सुनने वाला तिलमिला जाय लेकिन उसके पास जबाब न हो।
व्यंग्य चुटकुला नहीं है। चटकुला में केवल हास्य होता है। व्यंग्य में व्यवस्था के प्रति पीड़ा से युक्त आक्रोश होता है जो हास्य के भाव के साथ उपजता है। व्यंग्य वह सागर है जो ऊपर से खिलखिलाता तो है लेकिन हृदय में जो है उसे बदलने के लिए बेचैनी और रुदन के साथ। राग दरबारी भी ऐसा ही उपन्यास है।
अटल बिहारी बाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो रविवार को रेडियो पर उनके साक्षात्कार का प्रसारण हो रहा था। साक्षात्कार लेने वाले ने उनसे पूछा कि आप खाली समय में क्या करते हैं ? उन्होंने जबाब दिया कि रागदरबारी पढ़ता हूँ। उन्होंने यह टिप्पणी भी की कि रागदरबारी में जो व्यंग्य है वह अद्वितीय है। उसी साक्षात्कार से प्रभावित होकर मैंने रागदरबारी खरीदा।

रागदरबारी का सबसे प्रमुख पात्र पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक कस्बा शिवपालगंज है। यह शिवपालगंज देश का कोई भी कस्बा हो सकता है। इस कस्बे की पूरी व्यवस्था जिसमें ग्राम प्रधानी भी है और विद्यालय भी, सहकारी बैंक भी है और कारोबार भी, सामंतवाद भी है और अनेक सरकारी अमले भी, पुलिस भी है और न्यायपालिका भी -को  उनके स्वभाविक पतित रूप में लेखक ने सिद्धहस्तता के साथ प्रस्तुत किया है। व्यवस्था में जड़ जमा चुकी अनैतिकता इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है। उपन्यास का प्रत्येक पात्र व्यवस्था को अपने अनुसार करने के लिए कृतसंकल्पित है। ऐसा वह इतनी स्वभाविक निर्लज्जता से करना चाहता है कि व्यंग्य का रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होता है।
इस उपन्यास के पात्र इतने स्वभाविक हैं कि हम आज भी प्रत्येक दूसरे या तीसरे कस्बे में वैद्य जी, प्रधानाचार्य, रंगनाथ, रुप्पन बाबू, लंगड़, छोटा पहलवान और शनिचर आदि को देख लेते हैं। ये पात्र इतने जीवंत हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए आप उन्हें जीने लगते हैं। यह उपन्यास एक ऐसी काल्पनिक कथा है जो किसी प्रमाणिक दस्तावेज से भी अधिक प्रमाणिक है। व्यवस्था के प्रति ऐसा मोहभंग, इतनी निर्ममता और उसे व्यक्त करने की इतनी प्रतिबद्धता मुझे और कहीं नहीं दिखती। रबरस्टम्प जैसे लोगों से व्यवस्था पर नियंत्रण, आर्थिक ताकत और बाहुबल से व्यवस्था को मुट्ठी में रखना, सबसे भ्रष्ट और अनैतिक व्यक्ति द्वारा मञ्च पर सबसे आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत होना आदि अनेक ऐसी बातें हैं जो आज भी वैसी की वैसी बनी हुई हैं। पचास वर्ष पूर्व लिखे गए इस उपन्यास के ढेर सारे रूप पूरे देश में आज भी वैसे ही मौजूद हैं।
यह उपन्यास हम जैसे कइयों का प्यार है। इसलिए कि यह उसी तरह नंगा है जैसे हम अपनी नजरों में होते हैं। इलाहाबाद में मित्रों के साथ पढ़ाई के दौरान देर रात को जब हम थक जाते थे तो हमारा मनोरंजन यह उपन्यास होता था। हम मित्रों में कोई एक, कोई भी चार-छः पृष्ठ वाचन करता था और इन पृष्ठों के व्यंग्य से जो ठहाके निकले थे वे पेट के दर्द और आंखों से निकले आंसुओं के बाद भी देर तक शांत नहीं होते थे। यह उपन्यास कई मामलों में अद्वितीय है। अगर आपने इसे नहीं पढ़ा तो यह आपका दुर्भाग्य है।

सात दिन सात किताबों में यह मेरी सातवीं किताब थी। आज मैं इस शृंखला को बढ़ाने के लिए खूब पढ़ने लिखने वाले https://www.facebook.com/vivekanand.upadhyay.73 सर को नामित करता हूँ।
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मैंने जिन सात पुस्तकों की चर्चा सात दिनों में की है  वह उन सातों की अलग अलग विशिष्टता के कारण की है। मैं इन सातों से खुद बहुत प्रभावित हूँ। इनमें गांधी जी की आत्मकथा को छोड़कर शेष सभी स्वतन्त्र भारत में लिखी गई हैं।
इस चर्चा में रामचरित मानस, राग-विराग, गोदान, शेखर : एक जीवनी, मेरा देश : मेरा जीवन, महाभोज, नाच्यौ बहुत गोपाल, स्त्री उपेक्षिता आदि का जिक्र भी मैं करना चाहता था लेकिन जिनकी चर्चा मैंने की वह फिलहाल मुझे ज्यादा जरूरी लगी।
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शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : धूम धड़क्का डेढ़ सौ

   जब से कॉन्वेंट वाले छैला टू वंजा टू, टू टूजा फोर पढ़ने लगे तब से वह सब मजा जाता रहा जो हिंदी पहाड़े पढ़ते, याद करते और सुनने-सुनाने में मिला करता था। बच्चे पाँच, दस, पन्द्रह और बीस का पहाड़ा सहज ही याद कर लेते थे। नौ और तेरह का पहाड़ा याद हो चाहे नहीं, पन्द्रह और बीस का खूब अच्छे से याद रहता था। कारण था उनकी संगति, तुक और सीधाई।
   दस और बीस का पहाड़ा तो बहुत आसान था। एक और दो के पहाड़े जैसा। लेकिन पन्द्रह का पहाड़ा आसान था अपनी लय और रवानी के कारण।
    पन्द्रह एकम पन्द्रह
    दूना के तीस
    तियाँ पैंतालीस 
    चौके साठ
      जैसी गीतात्मकता किसी अन्य के साथ नहीं है। जब पचे पचहत्तर, छक्का नब्बे की धुन बनती थी तो सत्ते पंजा, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा लहर में चल पड़ती थी और इस आखिरी धप्पे के लिए हम उमगे रहते थे- धूम धड़क्का डेढ़ सौ। जब धूम धड़क्का डेढ़ सौ आता था तो गर्व, ज्ञान और श्रेष्ठता का भाव आस पास मंडराने लगता था। सुनने वाला तारीफ करते नहीं अघाता था क्योंकि उसे इस होनहार पर बहुत स्नेह उमड़ता था। वह स्नेह दिखता था। आसपास की हवा में मधुरता घोल देता था। हमें अपने उस सगे पर गर्व होता था और रिश्ता थोड़ा और मजबूत हो जाता था। फिर बुझौवल सवाल शुरू होते थे। सवाल कुछ यूं होते थे- क नवां मुँह चुम्मा-चुम्मी? क सते गंड़धक्का-धक्की? फिर खुसुर फुसुर, ही ही ही ही शुरू होता।
       आज ऐसे ही चुहल के एक प्रसंग में निकल आयी मुँहचुम्मा-चुम्मी वाली संख्या। जब हम तिरसठ ६३ लिखते हैं तो ६ और ३ की एक सी आकृति आमने-सामने होती है और यह दो संख्याएं एक दूसरे से प्रेम करती प्रतीत होती हैं। जरूर यह किसी प्रेमी जीव की संकल्पना रही होगी जो संख्याओं के साहचर्य को प्रेम और तज्जनित झगड़े से जोड़कर देखने का आग्रह करता है। प्रेमी जीव ऐसे ही होते हैं। हर तरफ प्रिय की छवि देखने वाले। चर-अचर जगत में हर गति प्रेम के क्रियाकलाप से संचालित होती है।
       ललित निबंध की एक किताब देख रहा था। ललित निबंधकार और कई विशेषताओं के साथ एक और खूबी समेटे रहते हैं। कविता की जैसी रससिद्ध व्याख्या ललित निबंधकार करता है वह आलोचक जैसे भूसा भरे रसहीन व्यक्तित्व के पास कहाँ। ललित निबंधकार अपनी मस्ती में दुनिया भर के वाङ्गमय से मन लायक चीजें जोह लाता है और क्रमशः परोसता जाता है। वह किसी भी विषय पर कहीं भी लिखने के लिए स्वतंत्र होता है और उसे संदर्भ देने की आवश्यकता भी नहीं होती। अस्तु,
ललित निबंधकार के यहां एक प्रसंग में 'धर्म' के लक्षणों की विवेचना होने लगी। तमाम पढ़ाकू और विद्वतजन धर्म की परिभाषा के लिए मनु, पाराशर, याज्ञवल्क्य और महाभारत की शरण में जाते हैं और दो पंक्ति में अपनी बात कहकर निकल लेते हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की परिभाषा की गई है कि वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है। जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है। तो उस निबंधकार के यहां यह मूल संस्कृत में था और मेरी दुगुनी ऊर्जा उसका अर्थ संधान करने में लगी। उसका पहला पाठ/उच्चारण ही असामाजिक लगेगा। और अपन उसके अर्थ संधान में लगे रहे। पाया कि बात तो उचित ही कही गयी है, बस तनिक वक्रतायुक्त। खैर।
निबंधकार सामान्य काव्य पंक्ति का विस्तार से अर्थ और व्याख्या करेगा और कठिन तथा उत्सुकता वाले हिस्से को आधा ही कहकर छोड़ देगा। आप खोजते फिरिये कि कालिदास ने 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमललूनं कररुहै रनामुत्तं रत्रं मधु नवमनास्वादितरसम्' लिखा तो इसका अर्थ क्या हुआ। उसका अंश उद्धृत करके वह ललित कुमार आतंक क्यों जमा रहा है और पाठक की क्षुधा शांत क्यों नहीं करता। बहरहाल।


      तो पहाड़े में मुँहचुम्मा चुम्मी और गंड़धक्का-धक्की का मतलब क्या है। हमारी ग्यारहों इंद्रियां रीजनिंग के इस सवाल से जूझती थीं। सभी संभावित अंक में ऐसी रोचक संभावना तलाश होती थी तब तक कोई नया सवाल हमारे लिए तैयार रहता था। कब हम तर्कशक्ति और रीजनिंग की योग्यता प्राप्त कर लेते थे, कब यह सब हमारे ज्ञान जगत का हिस्सा बन जाता था- क्या कहा जा सकता है।
इसलिए आज जब यह पूछने का अवसर आया तो पहाड़े की प्रकृति, पढ़ने के परम्परागत तरीके पर बहुत लाड़ आया। किंडरगार्टन की वर्तमान बोनसाई इन सुखों से वंचित है।
अच्छा! स्मृतियों पर जोर देकर बताइये तो सही 'क नवां इटोलसे?'

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2019

कथावार्ता : कद्दू की स्वादिष्ट तरकारी बनाने की विधि!

     रामचरित मानस की बहुत प्रसिद्ध अर्धाली है-
    'इहाँ कुम्हड़ बतिआ कोउ नाहीं।
     जे तरजनी देखि मर जाहीं।।'
     शिव धनुष टूटने के बाद भगवान परशुराम और लक्ष्मण का संवाद चल रहा है। लक्ष्मण परशुराम से कह रहे हैं कि यहां कुम्हड़े के बतिया यानी नवजात फल की बात नहीं हो रही कि तर्जनी दिखा देने से वह मुरझा जाएगा। आप सूर्यवंशी राजकुमारों से बात कर रहे हैं। बहरहाल, रामचरित मानस की यह चौपाई पढ़-सुनकर कुम्हड़े या कद्दू से जैसे वितृष्णा हो गयी थी। यह कोई तरकारी है या फल? कूष्माण्ड फल और बनती है तरकारी। और तो और इस कूष्माण्ड फल का आकार इतना बड़ा होता है कि बिना सामूहिक आयोजन के खप ही नहीं सकता। प्रतापगढ़ और प्रयागराज के विप्र समुदाय के बीच पूड़ी के साथ इसकी तरकारी के कॉम्बिनेशन की लोकप्रियता से मन किञ्चित ललचाया था लेकिन तब भी मैं इसकी तरकारी से चिढ़ता था। भैया को यह पसंद थी। वह जब तब यह लेते आते थे तो एक दिन हमने इसमें कुछ प्रयोग किये और पाया कि कद्दू को कुछ यूं पकाया जाए तो वह जिह्वा पर चढ़ जाती है। आप फॉलो करें!

सामग्री (दो जन के लिए)-
       एक करछुल से कुछ कम सरसों तेल,
पंचफोरन, (पंचफोरन जीरा, कलौंजी, मेथी, सौंफ और राई का बराबर मिश्रण आता है, लेकिन इस व्यंजन के लिए जीरा हटाकर अजवायन का प्रयोग किया जाए।)
कद्दू- आधा किग्रा,
आलू- दो-तीन मंझले आकार के।
लहसुन एक पोटी,
हरी मिर्च,
अदरख और 
नमक स्वादानुसार।

विधि-
        कद्दू और आलू को अलग अलग काट लें। आकार ठीक वैसा हो जैसा पपीता खाने के लिए काटते हैं। नॉन स्टिक कड़ाही में तेल गरम होने के लिए डालें। पंचफोरन डालें। पंचफोरन न हो तो मेथी से काम चला सकते हैं, जीरा नहीं डालना है। फिर लहसुन-मिर्च-अदरक के कटे टुकड़े  डालें। भुनते हुए जब लालिमा झलकने लगे तो आलू डालें। कुछेक मिनट के अंतराल पर कद्दू डाल दें। ध्यान दें कि सारी सामग्री पड़ जाने तक करछुल का प्रयोग नहीं करना है। इस तरह जो परत होगी, उसका क्रम यों होगा-
पंचफोरन-लहसुन-मिर्च-अदरख-आलू और कद्दू। आंच न्यूनतम। ढँक दें। कुछ अंतराल के बाद नमक छिड़क दें। ढँक दें। पकने दें। देखेंगे कि इतना सत्व बन गया है कि तरकारी पक सके। धैर्य रखें। देखते रहें कि कड़ाही से चिपक तो नहीं रहा। जब सत्व कम हो जाये, करछुल का प्रयोग करें। एकाध बार चला दें। सबको मिल जाने दें। कुछ अंतराल के बाद जब आलू पक जाए, (कद्दू पक चुका होगा) उतार लें। अगर हरी धनिया है- बारीक काटकर छिड़क लें। ढँक दें। पाँचेक मिनट के बाद रोटी के साथ  खाएं।
फिर मेरी तारीफ करें।
     धन्यवाद।

नोट- अपने रिस्क पर पकाएं।

सद्य: आलोकित!

श्री हनुमान चालीसा शृंखला : दूसरा दोहा

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार। बल बुधि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।। श्री हनुमान चालीसा शृंखला। दूसरा दोहा। श्रीहनुमानचा...

आपने जब देखा, तब की संख्या.