जब से कॉन्वेंट वाले छैला टू वंजा टू, टू टूजा फोर पढ़ने लगे तब से वह सब मजा जाता रहा जो हिंदी पहाड़े पढ़ते, याद करते और सुनने-सुनाने में मिला करता था। बच्चे पाँच, दस, पन्द्रह और बीस का पहाड़ा सहज ही याद कर लेते थे। नौ और तेरह का पहाड़ा याद हो चाहे नहीं, पन्द्रह और बीस का खूब अच्छे से याद रहता था। कारण था उनकी संगति, तुक और सीधाई।
दस और बीस का पहाड़ा तो बहुत आसान था। एक और दो के पहाड़े जैसा। लेकिन पन्द्रह का पहाड़ा आसान था अपनी लय और रवानी के कारण।
पन्द्रह एकम पन्द्रह
दूना के तीस
तियाँ पैंतालीस
चौके साठ
जैसी गीतात्मकता किसी अन्य के साथ नहीं है। जब पचे पचहत्तर, छक्का नब्बे की धुन बनती थी तो सत्ते पंजा, अट्ठे बीसा, नौ पैंतीसा लहर में चल पड़ती थी और इस आखिरी धप्पे के लिए हम उमगे रहते थे- धूम धड़क्का डेढ़ सौ। जब धूम धड़क्का डेढ़ सौ आता था तो गर्व, ज्ञान और श्रेष्ठता का भाव आस पास मंडराने लगता था। सुनने वाला तारीफ करते नहीं अघाता था क्योंकि उसे इस होनहार पर बहुत स्नेह उमड़ता था। वह स्नेह दिखता था। आसपास की हवा में मधुरता घोल देता था। हमें अपने उस सगे पर गर्व होता था और रिश्ता थोड़ा और मजबूत हो जाता था। फिर बुझौवल सवाल शुरू होते थे। सवाल कुछ यूं होते थे- क नवां मुँह चुम्मा-चुम्मी? क सते गंड़धक्का-धक्की? फिर खुसुर फुसुर, ही ही ही ही शुरू होता।
आज ऐसे ही चुहल के एक प्रसंग में निकल आयी मुँहचुम्मा-चुम्मी वाली संख्या। जब हम तिरसठ ६३ लिखते हैं तो ६ और ३ की एक सी आकृति आमने-सामने होती है और यह दो संख्याएं एक दूसरे से प्रेम करती प्रतीत होती हैं। जरूर यह किसी प्रेमी जीव की संकल्पना रही होगी जो संख्याओं के साहचर्य को प्रेम और तज्जनित झगड़े से जोड़कर देखने का आग्रह करता है। प्रेमी जीव ऐसे ही होते हैं। हर तरफ प्रिय की छवि देखने वाले। चर-अचर जगत में हर गति प्रेम के क्रियाकलाप से संचालित होती है।
ललित निबंध की एक किताब देख रहा था। ललित निबंधकार और कई विशेषताओं के साथ एक और खूबी समेटे रहते हैं। कविता की जैसी रससिद्ध व्याख्या ललित निबंधकार करता है वह आलोचक जैसे भूसा भरे रसहीन व्यक्तित्व के पास कहाँ। ललित निबंधकार अपनी मस्ती में दुनिया भर के वाङ्गमय से मन लायक चीजें जोह लाता है और क्रमशः परोसता जाता है। वह किसी भी विषय पर कहीं भी लिखने के लिए स्वतंत्र होता है और उसे संदर्भ देने की आवश्यकता भी नहीं होती। अस्तु,
ललित निबंधकार के यहां एक प्रसंग में 'धर्म' के लक्षणों की विवेचना होने लगी। तमाम पढ़ाकू और विद्वतजन धर्म की परिभाषा के लिए मनु, पाराशर, याज्ञवल्क्य और महाभारत की शरण में जाते हैं और दो पंक्ति में अपनी बात कहकर निकल लेते हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की परिभाषा की गई है कि वेदविहित जो यज्ञादि कर्म है उन्हीं का विधिपूर्वक अनुष्ठान धर्म है। जैमिनि ने धर्म का जो लक्षण दिया है उसका अभिप्राय यही है कि जिसके करने की प्रेरणा (वेद आदि में) हो, वही धर्म है। तो उस निबंधकार के यहां यह मूल संस्कृत में था और मेरी दुगुनी ऊर्जा उसका अर्थ संधान करने में लगी। उसका पहला पाठ/उच्चारण ही असामाजिक लगेगा। और अपन उसके अर्थ संधान में लगे रहे। पाया कि बात तो उचित ही कही गयी है, बस तनिक वक्रतायुक्त। खैर।
निबंधकार सामान्य काव्य पंक्ति का विस्तार से अर्थ और व्याख्या करेगा और कठिन तथा उत्सुकता वाले हिस्से को आधा ही कहकर छोड़ देगा। आप खोजते फिरिये कि कालिदास ने 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमललूनं कररुहै रनामुत्तं रत्रं मधु नवमनास्वादितरसम्' लिखा तो इसका अर्थ क्या हुआ। उसका अंश उद्धृत करके वह ललित कुमार आतंक क्यों जमा रहा है और पाठक की क्षुधा शांत क्यों नहीं करता। बहरहाल।
तो पहाड़े में मुँहचुम्मा चुम्मी और गंड़धक्का-धक्की का मतलब क्या है। हमारी ग्यारहों इंद्रियां रीजनिंग के इस सवाल से जूझती थीं। सभी संभावित अंक में ऐसी रोचक संभावना तलाश होती थी तब तक कोई नया सवाल हमारे लिए तैयार रहता था। कब हम तर्कशक्ति और रीजनिंग की योग्यता प्राप्त कर लेते थे, कब यह सब हमारे ज्ञान जगत का हिस्सा बन जाता था- क्या कहा जा सकता है।
इसलिए आज जब यह पूछने का अवसर आया तो पहाड़े की प्रकृति, पढ़ने के परम्परागत तरीके पर बहुत लाड़ आया। किंडरगार्टन की वर्तमान बोनसाई इन सुखों से वंचित है।
अच्छा! स्मृतियों पर जोर देकर बताइये तो सही 'क नवां इटोलसे?'